यार जुलाहे : गुलज़ार

Yaar Julahe : Gulzar

1. मुझको भी तरकीब सिखा कोई, यार जुलाहे

मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गाँठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे

2. शहतूत की शाख़ पे

शहतूत की शाख़ पे बैठा कोई
बुनता है रेशम के तागे
लम्हा-लम्हा खोल रहा है
पत्ता-पत्ता बीन रहा है
एक-एक सांस बजा कर सुनता है सौदाई
एक-एक सांस को खोल के अपने तन पर लिपटाता जाता है
अपनी ही साँसों का क़ैदी
रेशम का यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जाएगा

3. मुझसे इक नज़्म का वादा है

मुझसे इक नज़्म का वादा है,
मिलेगी मुझको
डूबती नब्ज़ों में,
जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिए चाँद,
उफ़क़ पर पहुंचे
दिन अभी पानी में हो,
रात किनारे के क़रीब
न अँधेरा, न उजाला हो,
यह न रात, न दिन

ज़िस्म जब ख़त्म हो
और रूह को जब सांस आए

मुझसे इक नज़्म का वादा है मिलेगी मुझको

4. देखो आहिस्ता चलो

देखो, आहिस्ता चलो और भी आहिस्ता ज़रा
देखना, सोच सँभल कर ज़रा पाँव रखना
ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं
कांच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में

ख़्वाब टूटे न कोई जाग न जाए देखो
जाग जाएगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा

5. वो जो शायर था

वो जो शायर था चुप सा रहता था
बहकी-बहकी सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था
गूंगी ख़ामोशियों की आवाज़ें
जमा करता था चाँद के साए
गीली-गीली सी नूर की बूंदें
ओक़ में भर के खड़खड़ाता था
रूखे-रूखे से रात के पत्ते
वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हाँ वही वो अजीब सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोडी चूमा करता था
चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है

6. अलाव

रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने
अलाव तापा
मैंने माज़ी से कई ख़ुश्क सी शाख़ें काटीं
तुमने भी गुज़रे हुए लम्हों के पत्ते तोड़े
मैंने जेबों से निकालीं सभी सूखी नज़्में
तुमने भी हाथों से मुरझाए हुए ख़त खोले
अपनी इन आँखों से मैंने कई मांजे तोड़े
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकीं
तुमने पलकों पे नमी सूख गई थी सो गिरा दी
रात भर जो मिला उगते बदन पर हमको
काट के डाल दिया जलते अलाव में उसे
रात भर फूंकों से हर लौ को जगाये रखा
और दो जिस्मों के ईंधन को जलाये रखा
रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने

7. वक़्त

मैं उड़ते हुए पंछियों को डराता हुआ
कुचलता हुआ घास की कलगियाँ
गिराता हुआ गर्दनें इन दरख़्तों की, छुपता हुआ
जिनके पीछे से
निकला चला जा रहा था वह सूरज
त'आक़ुब में था उसके मैं
गिरफ़्तार करने गया था उसे
जो ले के मेरी उम्र का एक दिन भागता जा रहा था

8. अभी न पर्दा गिराओ

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार ही बुझे है,
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म
अभी धड़कतें है दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है

यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगुला बन कर
यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को ले कर
कहीं तो अंजाम-ए-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो

9. बस्ता फ़ेंक के

बस्ता फ़ेंक के लोची भागा रोशनआरा बाग़ की जानिब
चिल्लाता: 'चल गुड्डी चल'
पक्के जामुन टपकेंगे'

आँगन की रस्सी से माँ ने कपड़े खोले
और तंदूर पे लाके टीन की चादर डाली

सारे दिन के सूखे पापड़
लच्छी ने लिपटा ई चादर
'बच गई रब्बा' किया कराया धुल जाना था'

ख़ैरु ने अपने खेतों की सूखी मिट्टी
झुर्रियों वाले हाथ में ले कर
भीगी-भीगी आँखों से फिर ऊपर देखा

झूम के फिर उट्ठे हैं बादल
टूट के फिर मेंह बरसेगा

10. गोल फूला हुआ

गोल फूला हुआ ग़ुब्बारा थक कर
एक नुकीली पहाड़ी यूँ जाके टिका है
जैसे ऊँगली पे मदारी ने उठा रक्खा हो गोला
फूँक से ठेलो तो पानी में उतर जाएगा

भक से फट जाएगा फूला हुआ सूरज का ग़ुब्बारा
छन-से बुझ जाएगा इक और दहकता हुआ दिन

11. किताबें

किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से ताकती हैं महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबत मे कटा करती थी
अब अक्सर गुज़र जाती हैं कंप्यूटर के पर्दों पर

ऐसे में बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें
उन्हें अब नींद मे चलने की आदत हो गयी है
जो क़दरें वो सुनाती थी कि जिनके सेल कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आती नहीं हैं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधड़े उधड़े हैं

कोई सफ़हा पलटता हूँ तो एक सिसकी सुनाई देती है
कई लफ्ज़ो के माने गिर पड़े हैं
बिना पत्तो के सूखे तुंड लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई माइने नहीं उगते

ज़बां पर जो ज़ायक़ा आता था जो सफ़हा पलटने का
अब उंगली क्लिक करने से
बस एक झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है पर्दो पर
किताबो से जो ज़ाती राब्ता था कट गया है

कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी मे लेते थे
कभी घुटनो को अपनी रिहल की सूरत बना कर
नीम सजदे मे पढ़ा करते थे छुते थे जबीं
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी

मगर वो जो किताबो में मिला करते थे
सूखे फूल और महके हुए रुक़्क़े
किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे
अब उनका क्या होगा?
वो शायद अब नहीं होंगे!!

12. ये गोल सिक्के

हर एक पुश्त की औकात उसकी लिखी है
बचाके रखना तुम..
ये गोल सिक्के, दमकते हुए खनकते हुए
किसी पे मोहरा हुआ एक राजा का चेहरा
किसी पे मोहरी हुई एक रानी की तस्वीर
हर इक की पुश्त पे औक़ात उसकी लिखी है
ये हाथों-हाथ लियॆ जाते है जहाँ जायें
बचाके रखना तुम अपनी खुदी के चेहरे को
ये मिट गया तो गिनाएंगे खोटे सिक्कों में

13. सुबह से शाम हुई

सुबह से शाम हुई और हिरन मुझको छलावे देता
सारे जंगल में परेशां किये घूम रहा है अब तक
उसकी गर्दन के बहुत पास से गुजरे हैं कई तीर मेरे
वो भी अब उतना ही हुश्यार है जितना मैं हूँ
इक झलक देके जो गम होता है वो पेड़ों में,
मैं वहां पहुचूं तो टीले पे, कभी चश्मे के उस पार नज़र आता है
वो नज़र रखता है मुझपर
मैं उसे आँख से ओझल नहीं होने देता
कौन दौड़ाये हुए है किसको?
कौन अब किसका शिकारी है पता ही नहीं चलता
सुबह उतरा था मैं जंगल में
तो सोचा था कि इस शोख़ हिरन को
नेज़े की नोक पे परचम की तरह तान के मैं शहर में दाखिल हूंगा
दिन मगर ढलने लगा है
दिल में इक खौफ़ सा बैठ रहा है
के बालाखिर ये हिरन ही
मुझे सींगों पर उठाये हुए इक ग़ार में दाखिल होगा

14. फ़सादात

1.
उफुक फलांग के उमरा हुजूम लोगों का
कोई मीनारे से उतरा, कोई मुंडेरों से
किसी ने सीढियां लपकीं, हटाई दीवारें--
कोई अजाँ से उठा है, कोई जरस सुन कर!
गुस्सीली आँखों में फुंकारते हवाले लिये,
गली के मोड़ पे आकर हुए हैं जमा सभी!
हर इक के हाथ में पत्थर हैं कुछ अकीदों के
खुदा कि जात को संगसार करने आये हैं!!
2.
मौजजा कोई भी उस शब ना हुआ--
जितने भी लोग थे उस रोज इबादतगाह में,
सब के होठों पर दुआ थी,
और आँखों में चरागाँ था यकीं का
ये खुदा का घर है,
जलजले तोड़ नहीं सकते इसे, आग जला सकती नहीं!
सैकड़ों मौजजों कि सब ने हिकायात सुनी थीं

सैकड़ों नामों से उन सब ने पुकारा उसको ,
गैब से कोई भी आवाज नहीं आई किसी की,
ना खुदा कि -- ना पुलिस कि!!

सब के सब भूने गए आग में, और भस्म हुये ।
मौजजा कोई भी उस शब् ना हुआ!!
3.
मौजजे होते हैं,-- ये बात सुना करते थे!
वक्त आने पे मगर--
आग से फूल उगे, और ना जमीं से कोई दरिया
फूटा
ना समंदर से किसी मौज ने फेंका आँचल,
ना फलक से कोई कश्ती उतरी!

आजमाइश की थी काल रात खुदाओं के लिये
काल मेरे शहर में घर उनके जलाये सब ने!!
4.
अपनी मर्जी से तो मजहब भी नहीं उसने चुना था,
उसका मज़हब था जो माँ बाप से ही उसने
विरासत में लिया था---

अपने माँ बाप चुने कोई ये मुमकिन ही कहाँ है
मुल्क में मर्ज़ी थी उसकी न वतन उसकी रजा से

वो तो कुल नौ ही बरस का था उसे क्यों चुनकर,
फिर्कादाराना फसादात ने कल क़त्ल किया--!! 5.
आग का पेट बड़ा है!
आग को चाहिए हर लहजा चबाने के लिये
खुश्क करारे पत्ते,
आग कर लेती है तिनकों पे गुजारा लेकिन--
आशियानों को निगलती है निवालों की तरह,
आग को सब्ज हरी टहनियाँ अच्छी नहीं लगतीं,
ढूंढती है, कि कहीं सूखे हुये जिस्म मिलें!

उसको जंगल कि हवा रास बहुत है फिर भी,
अब गरीबों कि कई बस्तियों पर देखा है हमला करते,
आग अब मंदिरों-मस्जिद की गजा खाती है!
लोगों के हाथों में अब आग नहीं--
आग के हाथों में कुछ लोग हैं अब
6.
शहर में आदमी कोई भी नहीं क़त्ल हुआ,
नाम थे लोगों के जो, क़त्ल हुये।
सर नहीं काटा, किसी ने भी, कहीं पर कोई--
लोगों ने टोपियाँ काटी थीं कि जिनमें सर थे!

और ये बहता हुआ सुर्ख लहू है जो सड़क पर,
ज़बह होती हुई आवाजों की गर्दन से गिरा था

15. लिबास

मेरे कपड़ों में टंगा है
तेरा ख़ुश-रंग लिबास!
घर पे धोता हूँ हर बार उसे और सुखा के फिर से
अपने हाथों से उसे इस्त्री करता हूँ मगर
इस्त्री करने से जाती नहीं शिकनें उस की
और धोने से गिले-शिकवों के चिकते नहीं मिटते!
ज़िंदगी किस क़दर आसाँ होती
रिश्ते गर होते लिबास
और बदल लेते क़मीज़ों की तरह!

16. दिल ढूँढता है

दिल ढूँढता है, फिर वही फुरसत के रात दिन
बैठे रहे तसव्वुर-ए-जाना किये हुए

जाड़ों की नर्म धुप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खिंच कर तेरे दामन के साए को
औंधे पड़े रहे कभी करवट लिए हुए
दिल ढूँढता है, फिर वही फुरसत के रात दिन

या गर्मियों की रात जो पूरवाईयाँ चले
ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागे देर तक
तारों को देखते रहे छत पर पड़े हुए
दिल ढूँढता है, फिर वही फुरसत के रात दिन

बर्फीली सर्दियों में किसी भी पहाड़ पर
वादी में गूंजती हुयी, खामोशियाँ सूने
आँखों में भीगे भीगे से लम्हे लिए हुए..
दिल ढूँढता है, फिर वही फुरसत के रात दिन

17. चार तिनके उठा के

चार तिनके उठा के जंगल से
एक बाली अनाज की लेकर
चंद कतरे बिलखते अश्कों के
चंद फांके बुझे हुए लब पर
मुट्ठी भर अपने कब्र की मिट्टी
मुट्ठी भर आरजुओं का गारा
एक तामीर की लिए हसरत
तेरा खानाबदोश बेचारा
शहर में दर-ब-दर भटकता है
तेरा कांधा मिले तो टेकूं!

18. ख़ुदा

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने
काले घर में सूरज रख के,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग़ जला कर,
अपना रस्ता खोल लिया.
तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर, मुझ पर ठेल दिया।
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी,
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा,
मैंने काल को तोड़ क़े लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया।
मेरी ख़ुदी को तुमने चन्द चमत्कारों से मारना चाहा,
मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया
मौत की शह दे कर तुमने समझा अब तो मात हुई,
मैंने जिस्म का ख़ोल उतार क़े सौंप दिया,
और रूह बचा ली,
पूरे-का-पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी।

19. चाँदघर

कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये,
कितनी मुद्दत हुयी किसी कंदील पे जलती रौशनी रखे ।
चलते फिरते इस सुनसान हवेली में,
तन्हाई से ठोकर खा के,
कितनी बार गिरा हूँ मैं ।
चाँद अगर निकले तो अब इस घर में रौशनी होती है,
वर्ना अँधेरा रहता है!

20. भमीरी

हम सब भाग रहे थे
रिफ्य़ूजी थे
माँ ने जितने ज़ेवर थे,
सब पहन लिये थे।
बाँध लिये थे....
छोटी मुझसे.... छह सालों की
दूध पिला के,खूब खिलाके
साथ लिया था।
मैने अपनी ऐक "भमीरी"
और ऐक "लाटू"
पजामे मे उड़स लिया था।
रात की रात हम गाँव छोड़कर
भाग रहे थे,रिफ़्यूज़ी थे....
आग धुऐं और चीख पुकार के
जंगल से गुज़रे थे सारे
हम सब के सब घोर धुऐं
मे भाग रहे थे।
हाथ किसी आँधी की आँतें
फाड़ रहे थे
आँखें अपने जबड़े खोले
भौंक रही थीं
माँ ने दौड़ते दौड़ते
ख़ून की कै कर दी थी।
जाने कब छोटी का
मुझसे छूटा हाथ
वहीं छोड़ आया था
अपना बचपन,लेकिन
मैने सरहद के सन्नाटों के
सहराओं मे अक्सर देखा है

एक "भमीरी" अब भी नाचा करती है
और इक "लाटू" अब भी घूमा करता है।
रिफ्य़ूजी ....जीरो लाइन पर

21. हमदम

मोड़ पे देखा है वह बूढ़ा सा एक पेड़ कभी?
मेरा वाकिफ है, बहुत सालों से जानता हूँ

जब मैं छोटा था तो इक आम उड़ाने के लिए
परली दीवार से कन्धों पे चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख से जा पाँव लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उस पर

मेरी शादी पे मुझे याद है शाखें देकर
मेरी वेदी का हवन गर्म किया था उसने

और जब हामला थी 'बीबा' तो दोपहर में हर दिन
मेरी बीवी की तरफ़ कैरियां फेंकी थी इसी ने

वक्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ते गए
तब भी जल जाता था जब मुन्ने से कहती 'बीबा'
'हाँ, उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है'
अब भी जल जाता हूँ, जब मोड़ गुजरते में कभी
खांसकर कहता है, 'क्यों, सर के सभी बाल गए?'

सुबह से काट रहे हैं वह कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको

22. मैं कायनात में

मैं कायनात में सय्यारों में भटकता था .....
धुएँ में ,धूल में उलझी हुई किरण की तरह
मैं इस जमीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक
गिरा है वक्त से कट कर जो लम्हा
उसकी तरह ............

वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा
गली में घर का निशाँ तलाश करता रहा बरसों
तुम्हारी रूह में अब ,जिस्म में भटकता हूँ !
लबों से चूम लो ,आँखों से थाम लो मुझको
तुम्हारी कोख से जनमूँ तो फ़िर पनाह मिले !!

23. सितारे लटके हुए हैं

सितारे लटके हुए हैं तागों से आस्माँ पर
चमकती चिंगारियाँ-सी चकरा रहीं आँखों की पुतलियों में
नज़र पे चिपके हुए हैं कुछ चिकने-चिकने से रोशनी के धब्बे
जो पलकें मूँदूँ तो चुभने लगती हैं रोशनी की सफ़ेद किरचें
मुझे मेरे मखमली अँधेरों की गोद में डाल दो उठाकर
चटकती आँखों पे घुप्प अँधेरों के फाए रख दो
यह रोशनी का उबलता लावा न अन्धा कर दे ।

24. आदमी बुलबुला है

आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,
फिर उभरता है, फिर से बहता है,
न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख़ तोड़ पाई है,
वक्त की मौज पर सदा बहता आदमी बुलबुला है पानी का।

25. आज फिर चाँद की पेशानी से

आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ
आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा
आज फिर सीने में उलझी हुई वज़नी साँसें
फट के बस टूट ही जाएँगी, बिखर जाएँगी
आज फिर जागते गुज़रेगी तेरे ख्वाब में रात
आज फिर चाँद की पेशानी से उठता धुआँ

26. मर्सिया

क्या लिए जाते हो तुम कन्धों पे यारो
इस जनाज़े में तो कोई भी नहीं है,
दर्द है न कोई, न हसरत है, न गम है….
मुस्कराहट की अलामत है न कोई आह का नुक्ता
और निगाहों की कोई तहरीर न आवाज़ का कतरा
कब्र में क्या दफन करने जा रहे हो…….???
सिर्फ मिट्टी है ये मिट्टी ….
मिट्टी को मिट्टी में दफनाते हुए
रोते हो क्यों ?…

27. आँसू

1.
अल्फाज जो उगते, मुरझाते, जलते, बुझते
रहते हैं मेरे चारों तरफ,
अल्फाज़ जो मेरे गिर्द पतंगों की सूरत उड़ते
रहते हैं रात और दिन
इन लफ़्ज़ों के किरदार हैं, इनकी शक्लें हैं,
रंग रूप भी हैं-- और उम्रें भी!

कुछ लफ्ज़ बहुत बीमार हैं, अब चल सकते नहीं,
कुछ लफ्ज़ तो बिस्तरेमर्ग पे हैं,
कुछ लफ्ज़ हैं जिनको चोटें लगती रहती हैं,
मैं पट्टियाँ करता रहता हूँ!

अल्फाज़ कई, हर चार तरफ बस यू हीं
थूकते रहते हैं,
गाली की तरह--
मतलब भी नहीं, मकसद भी नहीं--
कुछ लफ्ज़ हैं मुँह में रखे हुए
चुइंगगम की तरह हम जिनकी जुगाली करते हैं!
लफ़्ज़ों के दाँत नहीं होते, पर काटते हैं,
और काट लें तो फिर उनके जख्म नहीं भरते!
हर रोज मदरसों में 'टीचर' आते है गालें भर भर के,
छः छः घंटे अल्फाज लुटाते रहते हैं,
बरसों के घिसे, बेरंग से, बेआहंग से,
फीके लफ्ज़ कि जिनमे रस भी नहीं,
मानि भी नहीं!

एक भीगा हुआ, छ्ल्का छल्का, वह लफ्ज़ भी है,
जब दर्द छुए तो आँखों में भर आता है
कहने के लिये लब हिलते नहीं,
आँखों से अदा हो जाता है!!
2.
सुना है मिट्टी पानी का अज़ल से एक रिश्ता है,
जड़ें मिट्टी में लगती हैं,
जड़ों में पानी रहता है।

तुम्हारी आँख से आँसू का गिरना था कि दिल
में दर्द भर आया,
ज़रा से बीज से कोंपल निकल आयी!!

जड़े मिट्टी में लगती हैं,
जड़ों में पानी रहता है!!
3.
शीशम अब तक सहमा सा चुपचाप खड़ा है,
भीगा भीगा ठिठुरा ठिठुरा।
बूँदें पत्ता पत्ता कर के,
टप टप करती टूटती हैं तो सिसकी की आवाज
आती है!
बारिश के जाने के बाद भी,
देर तलक टपका रहता है!

तुमको छोड़े देर हुई है--
आँसू अब तक टूट रहे हैं

28. समय

मैं खंडहरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूं

क़दीम रातों की टूटी क़ब्रों के मैले कुतबे
दिनों की टूटी हुई सलीबें गिरी पड़ी हैं
शफ़क़ की ठंडी चिताओं से राख उड़ रही है
जगह-जगह गुर्ज़ वक़्त के चूर हो गए हैं
जगह-जगह ढेर हो गयी हैं अज़ीम सदियां
मैं खंडहरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूं

यहीं मुकद्दस हथेलियों से गिरी है मेहंदी
दियों की टूटी हुई लवें ज़ंग खा गयी हैं
यहीं पे माथों की रौशनी जल के बुझ गयी है
सपाट चेहरों के ख़ाली पन्ने खुले हुए हैं
हुरूफ़ आंखों के मिट चुके हैं

मैं खंडहरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूं
यहीं कहीं ज़िंदगी के मानी गिरे हैं और गिरके खो गए हैं.

29. ईंधन

छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर - कान बनाकर
नाक सजाकर -
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला -
तेरा उपला -
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे

हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था -
इक मुन्ना था -
इक दशरथ था -
बरसों बाद - मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया !

30. खेत के सब्ज़े में

खेत के सब्ज़े में बेसुध सी पड़ी है दुबकी
एक पगडंडी की कुचली हुई अधमुई सी लाश
तेज़ कदमो के तले दर्द से कहराती है
दो किनारो पे जवां सिट्टो के चेहरे तककर
चुप सी रह जाती है ये सोच के बस
यूं मेरी कोख कुचल न देते राहगीर अगर
मेरे बेटे भी जवाँ हो गए होते अब तक
मेरी बेटी भी तो बयाहने के काबिल होती

31. दिल में ऐसे ठहर गए हैं ग़म

दिल में ऐसे ठहर गए हैं ग़म
जैसे जंगल में शाम के साये
जाते-जाते सहम के रुक जाएँ
मुडके देखे उदास राहों पर
कैसे बुझते हुए उजालों में
दूर तक धूल ही धूल उडती है

32. इस मोड़ से जाते हैं

इस मोड़ से जाते हैं
कुछ सुस्त कदम रस्ते
कुछ तेज कदम राहें।

पत्थर की हवेली को
शीशे के घरौंदों में
तिनकों के नशेमन तक
इस मोड़ से जाते हैं।

आंधी की तरह उड़ कर
इक राह गुजरती है
शरमाती हुई कोई
कदमों से उतरती है।

इन रेशमी राहों में
इक राह तो वह होगी
तुम तक जो पहुंचती है
इस मोड़ से जाती है।

इक दूर से आती है
पास आ के पलटती है
इक राह अकेली सी
रुकती है न चलती है।

ये सोच के बैठी हूं
इक राह तो वो होगी
तुम तक जो पहुंचती है
इस मोड़ से जाती है।

इस मोड़ से जाते हैं
कुछ सुस्त कदम रस्ते
कुछ तेज कदम राहें।

पत्थर की हवेली को
शीशे के घरौंदों में
तिनकों के नशेमन तक
इस मोड़ से जाते हैं।

33. ग़ालिब

1.
रात को अक्सर होता है,परवाने आकर,
टेबल लैम्प के गिर्द इकट्ठे हो जाते हैं
सुनते हैं,सर धुनते हैं
सुन के सब अश'आर गज़ल के
जब भी मैं दीवान-ए-ग़ालिब
खोल के पढ़ने बैठता हूँ
सुबह फिर दीवान के रौशन सफ़हों से
परवानों की राख उठानी पड़ती है .
2.
बल्ली-मारां के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ
सामने टाल की नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वा
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे
एक बकरी के मिम्याने की आवाज़
और धुँदलाई हुई शाम के बे-नूर अँधेरे साए
ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ी-वालान कै कटरे की बड़ी-बी जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले

इसी बे-नूर अँधेरी सी गली-क़ासिम से
एक तरतीब चराग़ों की शुरूअ' होती है
एक क़ुरआन-ए-सुख़न का सफ़हा खुलता है
असदुल्लाह-ख़ाँ-'ग़ालिब' का पता मिलता है

34. कंधे झुक जाते हैं

कंधे झुक जाते हैं जब बोझ से इस लम्बे सफ़र के
हांफ जाता हूँ मैं जब चढ़ते हुए तेज चढाने
सांसे रह जाती है जब सीने में एक गुच्छा हो कर
और लगता है दम टूट जायेगा यहीं पर
एक नन्ही सी नज़्म मेरे सामने आ कर
मुझ से कहती है मेरा हाथ पकड़ कर-मेरे शायर
ला , मेरे कन्धों पे रख दे,
में तेरा बोझ उठा लूं

35. एक और दिन

खाली डिब्बा है फ़क़त, खोला हुआ चीरा हुआ
यूँ ही दीवारों से भिड़ता हुआ, टकराता हुआ
बेवजह सड़कों पे बिखरा हुआ, फैलाया हुआ
ठोकरें खाता हुआ खाली लुढ़कता डिब्बा

यूँ भी होता है कोई खाली-सा- बेकार-सा दिन
ऐसा बेरंग-सा बेमानी-सा बेनाम-सा दिन

36. विरासत

अपनी मर्ज़ी से तो मज़हब भी नहीं उस ने चुना था
उस का मज़हब था जो माँ बाप से ही उस ने विरासत में लिया था

अपने माँ बाप चुने कोई ये मुमकिन ही कहाँ है?
उस पे ये मुल्क भी लाज़िम था कि माँ बाप का घर था इस में
ये वतन उस का चुनाव तो नहीं था...

वो तो कल नौ ही बरस का था, उसे क्यूँ चुन कर
फ़िर्का-वाराना फ़सादात ने कल क़त्ल किया।।।!

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