तरकश : जावेद अख़्तर

Tarkash : Javed Akhtar

1. मेरा आँगन, मेरा पेड़

मेरा आँगन
कितना कुशादा कितना बड़ा था
जिसमें
मेरे सारे खेल
समा जाते थे
और आँगन के आगे था वह पेड़
कि जो मुझसे काफ़ी ऊँचा था
लेकिन
मुझको इसका यकीं था
जब मैं बड़ा हो जाऊँगा
इस पेड़ की फुनगी भी छू लूँगा
बरसों बाद
मैं घर लौटा हूँ
देख रहा हूँ
ये आँगन
कितना छोटा है
पेड़ मगर पहले से भी थोड़ा ऊँचा है
(कुशादा=फैला हुआ)

2. हमारे शौक़ की ये इन्तहा थी

हमारे शौक़ की ये इन्तहा थी
क़दम रक्खा कि मंज़िल रास्ता थी

बिछड़ के डार से बन-बन फिरा वो
हिरन को अपनी कस्तूरी सज़ा थी

कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी

मैं बचपन में खिलौने तोड़ता था
मिरे अंजाम की वो इब्तदा थी

मुहब्बत मर गई मुझको भी ग़म है
मिरे अच्छे दिनों की आशना थी

जिसे छू लूँ मैं वो हो जाये सोना
तुझे देखा तो जाना बद्दुआ थी

मरीज़े-ख़्वाब को तो अब शफ़ा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी

(इन्तहा=हद, इब्तदा=शुरुआत,
आशना=परिचित, शफ़ा=रोग से मुक्ति)

3. वो कमरा याद आता है

मैं जब भी
ज़िंदगी की चिलचिलाती धूप में तप कर
मैं जब भी
दूसरों के और अपने झूट से थक कर
मैं सब से लड़ के ख़ुद से हार के
जब भी उस एक कमरे में जाता था
वो हल्के और गहरे कत्थई रंगों का इक कमरा
वो बेहद मेहरबाँ कमरा
जो अपनी नर्म मुट्ठी में मुझे ऐसे छुपा लेता था
जैसे कोई माँ
बच्चे को आँचल में छुपा ले
प्यार से डाँटे
ये क्या आदत है
जलती दोपहर में मारे मारे घूमते हो तुम
वो कमरा याद आता है
दबीज़ और ख़ासा भारी
कुछ ज़रा मुश्किल से खुलने वाला वो शीशम का दरवाज़ा
कि जैसे कोई अक्खड़ बाप
अपने खुरदुरे सीने में
शफ़क़त के समुंदर को छुपाए हो
वो कुर्सी
और उस के साथ वो जुड़वाँ बहन उस की
वो दोनों
दोस्त थीं मेरी
वो इक गुस्ताख़ मुँह-फट आईना
जो दिल का अच्छा था
वो बे-हँगम सी अलमारी
जो कोने में खड़ी
इक बूढ़ी अन्ना की तरह
आईने को तंबीह करती थी
वो इक गुल-दान
नन्हा सा
बहुत शैतान
उन दिनों पे हँसता था
दरीचा
या ज़ेहानत से भरी इक मुस्कुराहट
और दरीचे पर झुकी वो बेल
कोई सब्ज़ सरगोशी
किताबें
ताक़ में और शेल्फ़ पर
संजीदा उस्तानी बनी बैठीं
मगर सब मुंतज़िर इस बात की
मैं उन से कुछ पूछूँ
सिरहाने
नींद का साथी
थकन का चारा-गर
वो नर्म-दिल तकिया
मैं जिस की गोद में सर रख के
छत को देखता था
छत की कड़ियों में
न जाने कितने अफ़्सानों की कड़ियाँ थीं
वो छोटी मेज़ पर
और सामने दीवार पर
आवेज़ां तस्वीरें
मुझे अपनाइयत से और यक़ीं से देखती थीं
मुस्कुराती थीं
उन्हें शक भी नहीं था
एक दिन
मैं उन को ऐसे छोड़ जाऊँगा
मैं इक दिन यूँ भी जाऊँगा
कि फिर वापस न आऊँगा

मैं अब जिस घर में रहता हूँ
बहुत ही ख़ूबसूरत है
मगर अक्सर यहाँ ख़ामोश बैठा याद करता हूँ
वो कमरा बात करता था

4. जंगल में घूमता है पहरों, फ़िकरे-शिकार में दरिन्दा

जंगल में घूमता है पहरों, फ़िकरे-शिकार में दरिन्दा
या अपने ज़ख़्म चाट-ता है, तन्हा कच्छार में दरिन्दा

बातों में दोस्ती का अमृत, सीनो में ज़हर नफ़रातों का,
परबत पे फूल खिल रहे हैं, बैठा है गार में दरिन्दा

ज़हेनी यगानगत के आयेज, थी ख्वाहिशें ख़ज़िल बदन की,
चट्टान पेर बैठा चाँद ताके, जैसे कुँवारों में दरिन्दा

गाँव से सहर आने वाले, आए नदी पे जैसे प्यासे,
था मुंतज़िर उन्ही का कब से, इक रोज़गार में दरिन्दा

मज़हब, ना जंग, ना सियासत, जाने ना जात-पात को भी
अपनी दरिंदगी के आयेज, है किस शूमर में दरिन्दा

5. भूख

आँख खुल गई मेरी
हो गया मैं फिर ज़िन्दा
पेट के अन्धेरो से
ज़हन के धुन्धलको तक
एक साँप के जैसा
रेंगता खयाल आया
आज तीसरा दिन है
आज तीसरा दिन है।

एक अजीब खामोशी
से भरा हुआ कमरा
कैसा खाली-खाली है मेज़ जगह पर रखी है
कुर्सी जगह पर रखी है
फर्श जगह पर रखी है अपनी जगह पर
ये छत अपनी जगह दीवारें
मुझसे बेताल्लुक सब,
सब मेरे तमाशाई है
सामने की खिड़की से
तीज़ धूप की किरने
आ रही हैं बिस्तर पर
चुभ रही हैं चेहरे में
इस कदर नुकीली हैं
जैसे रिश्तेदारों के
तंज़ मेरी गुर्बत पर
आँख खुल गई मेरी
आज खोखला हूँ मै सिर्फ खोल बाकी है
आज मेरे बिस्तर में
लेटा है मेरा ढाँचा
अपनी मुर्दा आँखों से
देखता है कमरे को
एक सर्द सन्नाटा
आज तीसरा दिन है
आज तीसरा दिन है।

दोपहर की गर्मी में
बेइरादा क़दमों से
इस सड़क पे चलता हूँ
तंग-सी सड़क पर हैं
दोनों सम्त दूकानें
ख़ाली ख़ाली आँखों से
हर दुकान का तख़्ता
सिर्फ़ देख सकता हूँ
अब पढ़ा नहीं जाता
लोग आते जाते हैं
पास से गुज़रते हैं
फिर भी कितने घुँधले हैं
सब है जैसे बेचेहरा
शोर इन दूकानों का
राह चलती इक गाली
रेडियो की आवाज़ें
दूर की सदाएँ हैं
आ रही है मीलों से
जो भी सुन रहा हूँ मैं
जो भी देखता हूँ मैं
ख़्वाब जैसा लगता है
है भी और नहीं भी है
दोपहर की गर्मी में
बेइरादा कदमों से
इक सड़क पे चलता हूँ
सामने के नुक्कड़ पर
नल दिखायी देता है
सख़्त क्यों है ये पानी
क्यों गले में फँसता है
मेरे पेट में जैसे
घूँसा एक लगता है
आ रहा है चक्कर-सा
जिस्म पर पसीना है
अब सकत नहीं बाक़ी
आज तीसरा दिन है
आज तीसरा दिन है।

हर तरफ़ अँधेरा है
घाट पर अकेला हूँ
सीढ़ियाँ हैं पत्थर की
सीढ़ियों पे लेटा हूँ
अब मैं उठ नहीं सकता
आसमाँ को तकता हूँ
आसमाँ की थाली में
चाँद एक रोटी है
झुक रही हैं अब पलकें
डूबता है ये मंज़र
है ज़मीन गर्दिश में

मेरे घर में चूल्हा था
रोज़ खाना पकता था
रोटियाँ सुनहरी हैं
गर्म गर्म ये खाना
खुल नहीं नहीं आँखें
क्या मैं मरनेवाला हूँ
माँ अजीब थी मेरी
रोज़ अपने हाथों से
मुझको वो खिलाती थी
कौन सर्द हाथों से
छू रहा है चेहरे को
इक निवाला हाथी का
इक निवाला घोड़े का
इक निवाला भालू का
मौत है कि बेहोशी
जो भी है ग़नीमत है
आज तीसरा दिन था,
आज तीसरा दिन था।

6. हम तो बचपन में भी अकेले थे

हम तो बचपन में भी अकेले थे
सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे

इक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के
इक तरफ़ आँसुओं के रेले थे

थीं सजी हसरतें दूकानों पर
ज़िन्दगी के अजीब मेले थे

ख़ुदकुशी क्या दुःखों का हल बनती
मौत के अपने सौ झमेले थे

ज़हनो-दिल आज भूखे मरते हैं
उन दिनों हमने फ़ाक़े झेले थे

7. बंजारा

मैं बंजारा
वक़्त के कितने शहरों से गुज़रा हूँ
लेकिन
वक़्त के इस इक शहर से जाते जाते मुड़ के देख रहा हूँ
सोच रहा हूँ
तुम से मेरा ये नाता भी टूट रहा है
तुम ने मुझ को छोड़ा था जिस शहर में आ कर
वक़्त का अब वो शहर भी मुझ से छूट रहा है

मुझ को विदाअ करने आए हैं
इस नगरी के सारे बासी
वो सारे दिन
जिन के कंधे पर सोती है
अब भी तुम्हारी ज़ुल्फ़ की ख़ुशबू
सारे लम्हे
जिन के माथे पर रौशन
अब भी तुम्हारे लम्स का टीका
नम आँखों से
गुम-सुम मुझ को देख रहे हैं
मुझ को इन के दुख का पता है
इन को मेरे ग़म की ख़बर है
लेकिन मुझ को हुक्म-ए-सफ़र है
जाना होगा
वक़्त के अगले शहर मुझे अब जाना होगा

वक़्त के अगले शहर के सारे बाशिंदे
सब दिन सब रातें
जो तुम से ना-वाक़िफ़ होंगे
वो कब मेरी बात सुनेंगे
मुझ से कहेंगे
जाओ अपनी राह लो राही
हम को कितने काम पड़े हैं
जो बीती सो बीत गई
अब वो बातें क्यूँ दोहराते हो
कंधे पर ये झोली रक्खे
क्यूँ फिरते हो क्या पाते हो
मैं बे-चारा
इक बंजारा
आवारा फिरते फिरते जब थक जाऊँगा
तन्हाई के टीले पर जा कर बैठूँगा
फिर जैसे पहचान के मुझ को
इक बंजारा जान के मुझ को
वक़्त के अगले शहर के सारे नन्हे-मुन्ने भोले लम्हे
नंगे पाँव
दौड़े दौड़े भागे भागे आ जाएँगे
मुझ को घेर के बैठेंगे
और मुझ से कहेंगे
क्यूँ बंजारे
तुम तो वक़्त के कितने शहरों से गुज़रे हो
उन शहरों की कोई कहानी हमें सुनाओ
उन से कहूँगा
नन्हे लम्हो!
एक थी रानी
सुन के कहानी
सारे नन्हे लम्हे
ग़मगीं हो कर मुझ से ये पूछेंगे
तुम क्यूँ इन के शहर न आईं
लेकिन उन को बहला लूँगा
उन से कहूँगा
ये मत पूछो
आँखें मूँदो
और ये सोचो
तुम होतीं तो कैसा होता
तुम ये कहतीं
तुम वो कहतीं
तुम इस बात पे हैराँ होतीं
तुम उस बात पे कितनी हँसतीं
तुम होतीं तो ऐसा होता
तुम होतीं तो वैसा होता

धीरे धीरे
मेरे सारे नन्हे लम्हे
सो जाएँगे
और मैं
फिर हौले से उठ कर
अपनी यादों की झोली कंधे पर रख कर
फिर चल दूँगा
वक़्त के अगले शहर की जानिब
नन्हे लम्हों को समझाने
भूले लम्हों को बहलाने
यही कहानी फिर दोहराने
तुम होतीं तो ऐसा होता
तुम होतीं तो वैसा होता

8. दिल में महक रहे हैं किसी आरज़ू के फूल

दिल में महक रहे हैं किसी आरज़ू के फूल
पलकों में खिलनेवाले हैं शायद लहू के फूल

अब तक है कोई बात मुझे याद हर्फ़-हर्फ़
अब तक मैं चुन रहा हूँ किसी गुफ़्तगू के फूल

कलियाँ चटक रही थी कि आवाज़ थी कोई
अब तक समाअतों में हैं इक ख़ुशगुलू के फूल

मेरे लहू का रंग है हर नोक-ए-ख़ार पर
सेहरा में हर तरफ़ है मिरी जुस्तजू के फूल

दीवाने कल जो लोग थे फूलों के इश्क़ में
अब उनके दामनों में भरे हैं रफ़ू के फूल

(समाअतों=सुनने की शक्ति, ख़ुशगुलू=
अच्छी आवाज़ वाला, नोक-ए-ख़ार=कांटे
की नोक, सेहरा=वीराना, जुस्तजू=तलाश)

9. सूखी टहनी तन्हा चिड़िया फीका चाँद

सूखी टहनी तन्हा चिड़िया फीका चाँद
आँखों के सहरा में एक नमी का चाँद

उस माथे को चूमे कितने दिन बीते
जिस माथे की ख़ातिर था इक टीका चाँद

पहले तू लगती थी कितनी बेगाना
कितना मुबहम होता है पहली का चाँद

कम हो कैसे इन ख़ुशियों से तेरा ग़म
लहरों में कब बहता है नद्दी का चाँद

आओ अब हम इस के भी टुकड़े कर लें
ढाका रावलपिंडी और दिल्ली का चाँद

10. एक मोहरे का सफ़र

जब वो कम-उम्र ही था
उस ने ये जान लिया था कि अगर जीना है
बड़ी चालाकी से जीना होगा
आँख की आख़िरी हद तक है बिसात-ए-हस्ती
और वो मामूली सा इक मोहरा है
एक इक ख़ाना बहुत सोच के चलना होगा
बाज़ी आसान नहीं थी उस की
दूर तक चारों तरफ़ फैले थे
मोहरे
जल्लाद
निहायत ही सफ़्फ़ाक
सख़्त बे-रहम
बहुत ही चालाक
अपने क़ब्ज़े में लिए
पूरी बिसात
उस के हिस्से में फ़क़त मात लिए
वो जिधर जाता
उसे मिलता था
हर नया ख़ाना नई घात लिए
वो मगर बचता रहा
चलता रहा
एक घर
दूसरा घर
तीसरा घर
पास आया कभी औरों के
कभी दूर हुआ
वो मगर बचता रहा
चलता रहा
गो कि मामूली सा मुहरा था मगर जीत गया
यूँ वो इक रोज़ बड़ा मुहरा बना
अब वो महफ़ूज़ है इक ख़ाने में
इतना महफ़ूज़ है इक ख़ाने में
इतना महफ़ूज़ कि दुश्मन तो अलग
दोस्त भी पास नहीं आ सकते

उस के इक हाथ में है जीत उस की
दूसरे हाथ में तन्हाई है

11. मदर टेरेसा

ए माँ टेरेसा
मुझको तेरी अज़मत से इनकार नहीं है
जाने कितने सूखे लब और वीराँ आँखें
जाने कितने थके बदन और ज़ख़्मी रूहें
कूड़ाघर में रोटी का इक टुकड़ा ढूँढते नंगे बच्चे
फ़ुटपाथों पर गलते सड़ते बुड्ढे कोढ़ी
जाने कितने बेघर बेदर बेकस इनसाँ
जाने कितने टूटे कुचले बेबस इनसाँ
तेरी छाँवों में जीने की हिम्मत पाते हैं
इनको अपने होने की जो सज़ा मिली है
उस होने की सज़ा से
थोड़ी सी ही सही मोहलत पाते हैं
तेरा लम्स मसीहा है
और तेरा करम है एक समंदर
जिसका कोई पार नहीं है
ए माँ टेरेसा
मुझको तेरी अज़मत से इनकार नहीं है

मैं ठहरा ख़ुदगर्ज़
बस इक अपनी ही ख़ातिर जीनेवाला
मैं तुझसे किस मुँह से पूछूँ
तूने कभी ये क्यूँ नहीं पूछा
किसने इन बदहालों को बदहाल किया है
तुने कभी ये क्यूँ नहीं सोचा
कौन-सी ताक़त
इंसानों से जीने का हक़ छीन के
उनको फ़ुटपाथों और कूड़ाघरों तक पहुँचाती है
तूने कभी ये क्यूँ नहीं देखा
वही निज़ामे-ज़र
जिसने इन भूखों से रोटी छीनी है
तिरे कहने पर भूखों के आगे कुछ टुकड़े डाल रहा है
तूने कभी ये क्यूँ नहीं चाहा
नंगे बच्चे बुड्ढे कोढ़ी बेबस इनसाँ
इस दुनिया से अपने जीने का हक़ माँगें
जीने की ख़ैरात न माँगें
ऐसा क्यूँ है
इक जानिब मज़लूम से तुझको हमदर्दी है
दूसरी जानिब ज़ालिम से भी आर नहीं है
लेकिन सच है ऐसी बातें मैं तुझसे किस मुँह से पूछूँ
पूछूँगा तो मुझ पर भी वो ज़िम्मेदारी आ जाएगी
जिससे मैं बचता आया हूँ

बेहतर है ख़ामोश रहूँ मैं
और अगर कुछ कहना हो तो
यही कहूँ मैं
ए माँ टेरेसा
मुझको तेरी अज़मत से इनकार नहीं है

(अज़मत=महानता, बेकस=असहाय,
मोहलत=फुरसत, लम्स=स्पर्श,
निज़ामे-ज़र=अर्थव्यवस्था, जानिब=
तरफ़, मज़लूम=ज़ुल्म सहनेवाला)

12. फ़साद से पहले

आज इस शहर में
हर शख़्स हिरासाँ क्यूँ है
चेहरे
क्यों फ़क़ हैं
गली कूचों में
किसलिए चलती है
ख़ामोशो-सरासीमा हवा
आश्ना आँखों पे भी
अजनबियत की ये बारीक सी झिल्ली क्यूँ है
शहर
सन्नाटे की ज़जीरों में
जकड़ा हुआ मुलज़िम सा नज़ आता है
इक्का-दुक्का
कोइ रहगीर गुज़र जाता है
ख़ौफ़ की गर्द से
क्यूँ धुँधला है सारा मंज़र
शाम की रोटी कमाने के लिए
घर से निकले तो हैं कुछ लोग
मगर
मुड़के क्यूँ देखते हैं घर की तरफ़
आज
बाज़ार में भी
जाना पहचाना सा वह शोर नहीं
सब यूँ चलते हैं कि जैसे
ये ज़मीं काँच की है
बात
खुलकर नहीं हो पाती है
साँस रोके हुए बच्चे की तरह
अपनी परछाईँ से भी डरता है

जंत्री देखो
मुझे लगता है
आज त्यौहार कोई है शायद।

13. वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है

वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है
ज़मीन सूरज की उँगलियों से फिसल रही है

जो मुझ को ज़िंदा जला रहे हैं वो बे-ख़बर हैं
कि मेरी ज़ंजीर धीरे धीरे पिघल रही है

मैं क़त्ल तो हो गया तुम्हारी गली में लेकिन
मिरे लहू से तुम्हारी दीवार गल रही है

न जलने पाते थे जिस के चूल्हे भी हर सवेरे
सुना है कल रात से वो बस्ती भी जल रही है

मैं जानता हूँ कि ख़ामुशी में ही मस्लहत है
मगर यही मस्लहत मिरे दिल को खल रही है

कभी तो इंसान ज़िंदगी की करेगा इज़्ज़त
ये एक उम्मीद आज भी दिल में पल रही है

14. फ़साद के बाद

गहरा सन्नाटा है
कुछ मकानों से ख़ामेश उठता हुआ
गाढ़ा काला धुआँ
मैल दिल में लिए
हर तरफ़ दूर तक फैलता जाता है
गहरा सन्नाटा है

लाश की तरह बैजान हे रास्ता
एक टुटा हुआ ठेला
उल्टा पड़ा
अपने पहिये हवा में उठाए हुए
आसमानों को हैरत से ताकता है
जैसे कि जो भी हुआ
उसका अब तक यक़ीं इसको आया नहीं
गहरा सन्नाटा है

एक उजड़ी दुकाँ
चीख़ के बाद मुँह
जो खुला का खुला रह गया
अबने टूटे कीवाड़ों से वो
दूर तक फैले
चूड़ी के टुकड़ों को
हसरतज़दा नज़रों से देखती है
कि कल तक यही शीशे
इस पोपले के मुँह में
सौ रंग के दाँत थे
गहरा सन्नाटा है

गहरे सन्नाटे ने अपने मंज़र से युँ बात की
सुन ले उजड़ी दुकाँ
ए सुलगते मकाँ
टुटे ठेले
तुम्ही बस नहीं हो अकेले
यहाँ और भी हैं
जो ग़ारत हुए हैं
हम इनका भी मातम करेंगे
मगर पहले उनको तो रो लें
कि जो लूटने आए थे
और ख़ुद लुट गए
क्या लूटा
इसकी उनको ख़बर ही नहीं
कमनज़र है
कि सदियों की तहज़ीब पर
उन बेचारों की कोइ नज़र ही नहीं।

15. ख़्वाब के गाँव में पले हैं हम

ख़्वाब के गाँव में पले हैं हम
पानी छलनी में ले चले हैं हम

छाछ फूंकें कि अपने बचपन में
दूध से किस तरह जले हैं हम

ख़ुद हैं अपने सफ़र की दुश्वारी
अपने पैरों के आबले हैं हम

तू तो मत कह हमें बुरा दुनिया
तू ने ढाला है और ढले हैं हम

क्यूँ हैं कब तक हैं किस की ख़ातिर हैं
बड़े संजीदा मसअले हैं हम

16. ग़म होते हैं जहाँ ज़ेहानत होती है

ग़म होते हैं जहाँ ज़ेहानत होती है
दुनिया में हर शय की क़ीमत होती है

अक्सर वो कहते हैं वो बस मेरे हैं
अक्सर क्यूँ कहते हैं हैरत होती है

तब हम दोनों वक़्त चुरा कर लाते थे
अब मिलते हैं जब भी फ़ुर्सत होती है

अपनी महबूबा में अपनी माँ देखें
बिन माँ के लड़कों की फ़ितरत होती है

इक कश्ती में एक क़दम ही रखते हैं
कुछ लोगों की ऐसी आदत होती है

17. हमसे दिलचस्प कभी सच्चे नहीं होते हैं

हमसे दिलचस्प कभी सच्चे नहीं होते हैं
अच्छे लगते है मगर अच्छे नहीं होते हैं

चाँद में दुनिया और बुजुर्गो में खुदा को देखे
भोले इतने तो अब ये बच्चे नहीं होते हैं

आज तारीख तो दोहराती है खुद को लेकिन
इसमें जो बेहतर थे वो हिस्से नहीं होते हैं

कोई मंजिल हो बहुत दूर ही जाती है मगर
रास्ते वापसी के लंबे नहीं होते हैं

कोई याद आये हमें या कोई हमें याद करे
और सब होता है ये किस्से नहीं होते हैं

18. मुअम्मा

हम दोनों जो हर्फ़ थे
हम इक रोज़ मिले
इक लफ़्ज़ बना
और हम ने इक मअ'नी पाए
फिर जाने क्या हम पर गुज़री
और अब यूँ है
तुम अब हर्फ़ हो
इक ख़ाने में
में इक हर्फ़ हूँ
इक ख़ाने में
बीच में
कितने लम्हों के ख़ाने ख़ाली हैं
फिर से कोई लफ़्ज़ बने
और हम दोनों इक मअ'नी पाएँ
ऐसा हो सकता है
लेकिन सोचना होगा
इन ख़ाली ख़ानों में हम को भरना क्या है

19. उलझन

करोड़ों चेहरे
और उन के पीछे
करोड़ों चेहरे
ये रास्ते हैं कि भिड़ के छत्ते
ज़मीन जिस्मों से ढक गई है
क़दम तो क्या तिल भी धरने की अब जगह नहीं है
ये देखता हूँ तो सोचता हूँ
कि अब जहाँ हूँ
वहीं सिमट के खड़ा रहूँ मैं
मगर करूँ क्या
कि जानता हूँ
कि रुक गया तो
जो भीड़ पीछे से आ रही है
वो मुझ को पैरों तले कुचल देगी पीस देगी
तो अब जो चलता हूँ मैं
तो ख़ुद मेरे अपने पैरों में आ रहा है
किसी का सीना
किसी का बाज़ू
किसी का चेहरा
चलूँ
तो औरों पे ज़ुल्म ढाऊँ
रुकूँ
तो औरों के ज़ुल्म झेलूँ

ज़मीर
तुझ को तो नाज़ है अपनी मुंसिफ़ी पर
ज़रा सुनूँ तो
कि आज क्या तेरा फ़ैसला है

20. जहन्नुमी

मैं अक्सर सोचता हूँ
ज़ेहन की तारीक गलियों में
दहकता और पिघलता
धीरे धीरे आगे बढ़ता
ग़म का ये लावा
अगर चाहूँ
तो रुक सकता है
मेरे दिल की कच्ची खाल पर रक्खा ये अँगारा
अगर चाहूँ
तो बुझ सकता है
लेकिन
फिर ख़याल आता है
मेरे सारे रिश्तों में
पड़ी सारी दराड़ों से
गुज़र के आने वाली बर्फ़ से ठंडी हवा
और मेरी हर पहचान पर सर्दी का ये मौसम
कहीं ऐसा न हो
इस जिस्म को इस रूह को ही मुंजमिद कर दे

मैं अक्सर सोचता हूँ
ज़ेहन की तारीक गलियों में
दहकता और पिघलता
धीरे धीरे आगे बढ़ता
ग़म का ये लावा
अज़िय्यत है
मगर फिर भी ग़नीमत है
इसी से रूह में गर्मी
बदन में ये हरारत है
ये ग़म मेरी ज़रूरत है
मैं अपने ग़म से ज़िंदा हूँ

21. बीमार की रात

दर्द बेरहम है
जल्लाद है दर्द
दर्द कुछ कहता नहीं
सुनता नहीं
दर्द बस होता है
दर्द का मारा हुआ
रोंदा हुआ
जिस्म तो अब हार गया है
रूह जिद्दी है
लड़े जाती है
हाँफती
कांपती
घबराई हुई
दर्द के जोर से
थर्राई हुई
जिस्म से लिपटी है
कहती है
नहीं छोडूंगी
मौत
चोखट पे खड़ी है कब से
सब्र से देख रही है उसको
आज की रात
न जाने क्या हो

22. ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब

ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब

सब की ख़ातिर हैं यहाँ सब अजनबी
और कहने को हैं घर आबाद सब

भूलके सब रंजिशें सब एक हैं
मैं बताऊँ सबको होगा याद सब

सब को दावा-ए-वफ़ा सबको यक़ीं
इस अदकारी में हैं उस्ताद सब

शहर के हाकिम का ये फ़रमान है
क़ैद में कहलायेंगे आज़ाद सब

चार लफ़्ज़ों में कहो जो भी कहो
उसको कब फ़ुरसत सुने फ़रियाद सब

तल्ख़ियाँ कैसे न हों अशआर में
हम पे जो गुज़री हमें है याद सब

(नाशाद=नाखुश, तल्ख़ियाँ=कड़वाहटें)

23. मै पा सका न कभी इस खलीस से छुटकारा

मै पा सका न कभी इस खलीस से छुटकारा
वो मुझसे जीत भी सकता था जाने क्यों हारा

बरस के खुल गए आंसूं निथर गई है फिजां
चमक रहा है सरे-शाम दर्द का तारा

किसी की आँख से टपका था इक अमानत है
मेरी हथेली पे रखा हुआ ये अंगारा

जो पर समेटे तो इक शाख भी नहीं पाई
खुले थे पर तो मेरा आसमान था सारा

वो सांप छोड़ दे डसना ये मै भी कहता हूँ
मगर न छोड़ेंगे लोग उसको गर न फुंकारा

24. बेघर

शाम होने को है
लाल सूरज समंदर में खोने को है
और उसके परे
कुछ परिन्‍दे
क़तारें बनाए
उन्‍हीं जंगलों को चले
जिनके पेड़ों की शाख़ों पे हैं घोंसले
ये परिन्‍दे
वहीं लौट कर जाएँगे
और सो जाएँगे
हम ही हैरान हैं
इस मकानों के जंगल में
अपना कहीं भी ठिकाना नहीं
शाम होने को है
हम कहाँ जाएँगे

25. मैं ख़ुद भी सोचता हूँ ये क्या मेरा हाल है

मैं ख़ुद भी सोचता हूँ ये क्या मेरा हाल है
जिस का जवाब चाहिए वो क्या सवाल है

घर से चला तो दिल के सिवा पास कुछ न था
क्या मुझ से खो गया है मुझे क्या मलाल है

आसूदगी से दल के सभी दाग़ धुल गए
लेकिन वो कैसे जाए जो शीशे में बाल है

बे-दस्त-ओ-पा हूँ आज तो इल्ज़ाम किस को दूँ
कल मैं ने ही बुना था ये मेरा ही जाल है

फिर कोई ख़्वाब देखूँ कोई आरज़ू करूँ
अब ऐ दिल-ए-तबाह तिरा क्या ख़याल है

26. शिकस्त

स्याह के टीले पे तनहा खड़ा वो सुनता है
फ़िज़ा में गूँजती अपनी शिकस्त की आवाज़
निगाह के सामने
मैदान-ए-कारज़ार जहाँ
जियाले ख़्वाबों के पामाल और ज़ख़्मी बदन
पड़े हैं बिखरे हुए चारों सम्त
बेतरतीब
बहुत से मर चुके
और जिनकी साँस चलती है
सिसक रहे हैं
किसी लम्हा मरनेवाले हैं
ये उसके ख़्वाब
ये उसकी सिपाह
उसके जरी
चले थे घर से तो कितनी ज़मीन जीती थी
झुकाए कितने थे मग़रूर बादशाहों के सर
फ़सीलें टूट के गिर के सलाम करती थीं
पहुँचना शर्त थी
थर्राके आप खुलते थे
तमाम क़िलओं के दरवाज़े
सारे महलों के दर
नज़र में उन दिनों मज़र बहुत सजीला था
ज़मीं सुनहरी थी
और आसमान नीला था
मगर थी ख़्वाबों के लश्कर में किसको इतनी ख़बर
हर एक किस्से का इक इख़तिताम होता है
हज़ार लिख दे कोई फ़तह ज़र्रे-ज़र्रे पर
मग़र शिकस्त का भी इक मुक़ाम होता है
उफ़क़ पे चींटियाँ रेंगीं
ग़नीम फ़ौजों ने
वो देखता है
कि ताज़ा कुमक बुलाई है
शिकारी निकले हैं उसके शिकार के ख़ातिर
ज़मीन कहती है
ये नरगा तंग होने को है
हवाएँ कहती हैं
अब वापसी का मौसम है
प वापसी का कहाँ रास्ता बनाया था
जब आ रहा था कहाँ ये ख़याल आया था
पलट के देखता है
सामने समंदर है

किनारे कुछ भी नहीं
सिर्फ़ एक राख का ढेर
ये उसकी कश्ती है
कल उसने ख़ुद जलाई थी

क़रीब आने लगीं क़ातिलों की आवाज़ें
स्याह टीले पे तनहा खड़ा वो सुनता है।

27. सच ये है बेकार हमें ग़म होता है

सच ये है बेकार हमें ग़म होता है
जो चाहा था दुनिया में कम होता है

ढलता सूरज फैला जंगल रस्ता गुम
हमसे पूछो कैसा आलम होता है

ग़ैरों को कब फ़ुरसत है दुख देने की
जब होता है कोई हमदम होता है

ज़ख़्म तो हमने इन आँखों से देखे हैं
लोगों से सुनते हैं मरहम होता है

ज़हन की शाख़ों पर अशआर आ जाते हैं
जब तेरी यादों का मौसम होता है

28. शहर के दुकाँदारो

शहर के दुकाँदारो, कारोबार-ए-उलफ़त में
सूद क्या ज़ियाँ क्या है, तुम न जान पाओगे
दिल के दाम कितने हैं, ख़्वाब कितने मँहगे हैं
और नक़द-ए-जाँ क्या है, तुम न जान पाओगे

कोई कैसे मिलता है, फूल कैसे खिलता है
आँख कैसे झुकती है, साँस कैसे रुकती है
कैसे रह निकलती है, कैसे बात चलती है
शौक़ की ज़बाँ क्या है तुम न जान पाओगे

वस्ल का सुकूँ क्या है, हिज्र का जुनूँ क्या है
हुस्न का फ़ुसूँ क्या है, इश्क़ के दुरूँ क्या है
तुम मरीज़-ए-दानाई, मस्लहत के शैदाई
राह ए गुमरहाँ क्या है, तुम न जान पाओगे

ज़ख़्म कैसे फलते हैं, दाग़ कैसे जलते हैं
दर्द कैसे होता है, कोई कैसे रोता है
अश्क क्या है नाले क्या, दश्त क्या है छाले क्या
आह क्या फ़ुग़ां क्या है, तुम न जान पाओगे

नामुराद दिल कैसे, सुबह-ओ-शाम करते हैं
कैसे जिंदा रहते हैं, और कैसे मरते हैं
तुमको कब नज़र आई, ग़मज़दों की तनहाई
ज़ीस्त बे-अमाँ क्या है, तुम न जान पाओगे

जानता हूँ मैं तुमको, ज़ौक़े-शाईरी भी है
शख़्सियत सजाने में, इक ये माहिरी भी है
फिर भी हर्फ़ चुनते हो, सिर्फ लफ़्ज़ सुनते हो
इनके दरम्याँ क्या हैं, तुम न जान पाओगे

(ज़ियाँ=नुकसान, फ़ुसूँ=जादू, दुरूँ=अंदर,
मरीज़-ए-दानाई=जिसे सोचने समझने
का रोग हो, मस्लहत के शैदाई=कूटनीति
पसंद करने वाला, नाले=रुदन, फ़ुग़ां=
फ़रियाद, ग़मज़दों=दुखियारों, ज़ीस्त
बे-अमाँ=असुरक्षित जीवन, ज़ौक़=शौक,
माहिरी=सिद्धहस्तता)

29. जिस्म दमकता, ज़ुल्फ़ घनेरी, रंगीं लब, आँखें जादू

जिस्म दमकता, ज़ुल्फ़ घनेरी, रंगीं लब, आँखें जादू
संग-ए-मरमर, ऊदा बादल, सुर्ख़ शफ़क़, हैराँ आहू

भिक्षु-दानी, प्यासा पानी, दरिया सागर, जल गागर
गुलशन ख़ुशबू, कोयल कूकू, मस्ती दारू, मैं और तू

ब़ाँबी नागिन, छाया आँगन, घुंघरू छन-छन, आशा मन
आँखें काजल, पर्बत बादल, वो ज़ुल्फ़ें और ये बाज़ू

रातें महकी, साँसें दहकी, नज़रें बहकी, रुत लहकी
सप्न सलोना, प्रेम खिलौना, फूल बिछौना, वो पहलू

तुम से दूरी, ये मजबूरी, ज़ख़्म-ए-कारी, बेदारी,
तन्हा रातें, सपने क़ातें, ख़ुद से बातें, मेरी ख़ू

30. हिज्र

कोई शेर कहूँ
या दुनिया के किसी मोजुं पर
में कोई नया मजमून पढूं
या कोई अनोखी बात सुनूँ
कोई बात
जो हंसानेवाली हो
कोई फिकरा
जो दिलचस्प लगे
या कोई ख्याल अछूता सा
या कहीं कोई मिले
कोई मंजर
जो हैरां कर दे
कोई लम्हा
जो दिल को छू जाये
मै अपने जहन के गोशों मै
इन सबको सँभाल के रखता हूँ
और सोचता हूँ
जब मिलोगे
तुमको सुनाउगां

31. दुश्वारी

मैं भूल जाऊँ तुम्हें अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ
कमबख़्त !
भुला न पाया ये वो सिलसिला जो था ही नहीं
वो इक ख़याल
जो आवाज़ तक गया ही नहीं
वो एक बात
जो मैं कह नहीं सका तुमसे
वो एक रब्त
जो हममें कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब
जो कभी हुआ ही नहीं

32. आसार-ए-कदीमा

एक पत्थर की अधूरी मूरत
चंद तांबें के पुराने सिक्के
काली चांदी के अजब जेवर
और कई कांसे के टूटे बर्तन
एक सहरा में मिले
जेरें-जमी
लोग कहते है की सदियों पहले
आज सहारा है जहां
वहीँ एक शहर हुआ करता था
और मुझको ये ख्याल आता है
किसी तकरीब
किसी महफ़िल में
सामना तुझसे मेरा आज भी हो जाता है
एक लम्हे को
बस एक पल के लिए
जिस्म की आंच

उचटती-सी नजर
सुर्ख बिंदिया की दमक
सरसराहट तेरी मलबूस की
बालों की महक
बेख़याली में कभी
लम्स का नन्हा फूल
और फिर दूर तक वही सहरा
वही सहरा की जहां
कभी एक शहर हुआ करता था

(जेरें-जमी=जमीं के नीचे, तकरीब=
समारोह, मलबूस=लिबास, लम्स=
स्पर्श)

33. मैं और मिरी आवारगी

फिरते हैं कब से दर-ब-दर अब इस नगर अब उस नगर
इक दूसरे के हम-सफ़र मैं और मिरी आवारगी
ना-आश्ना हर रह-गुज़र ना-मेहरबाँ हर इक नज़र
जाएँ तो अब जाएँ किधर मैं और मिरी आवारगी

हम भी कभी आबाद थे ऐसे कहाँ बर्बाद थे
बे-फ़िक्र थे आज़ाद थे मसरूर थे दिल-शाद थे
वो चाल ऐसी चल गया हम बुझ गए दिल जल गया
निकले जला के अपना घर मैं और मिरी आवारगी

जीना बहुत आसान था इक शख़्स का एहसान था
हम को भी इक अरमान था जो ख़्वाब का सामान था
अब ख़्वाब है नय आरज़ू अरमान है नय जुस्तुजू
यूँ भी चलो ख़ुश हैं मगर मैं और मिरी आवारगी

वो माह-वश वो माह-रू वो माह-काम-ए-हू-ब-हू
थीं जिस की बातें कू-ब-कू उस से अजब थी गुफ़्तुगू
फिर यूँ हुआ वो खो गई तो मुझ को ज़िद सी हो गई
लाएँगे उस को ढूँड कर मैं और मिरी आवारगी

ये दिल ही था जो सह गया वो बात ऐसी कह गया
कहने को फिर क्या रह गया अश्कों का दरिया बह गया
जब कह के वो दिलबर गया तेरे लिए मैं मर गया
रोते हैं उस को रात भर मैं और मिरी आवारगी

अब ग़म उठाएँ किस लिए आँसू बहाएँ किस लिए
ये दिल जलाएँ किस लिए यूँ जाँ गंवाएँ किस लिए
पेशा न हो जिस का सितम ढूँडेंगे अब ऐसा सनम
होंगे कहीं तो कारगर मैं और मिरी आवारगी

आसार हैं सब खोट के इम्कान हैं सब चोट के
घर बंद हैं सब गोट के अब ख़त्म हैं सब टोटके
क़िस्मत का सब ये फेर है अंधेर है अंधेर है
ऐसे हुए हैं बे-असर मैं और मिरी आवारगी

जब हमदम-ओ-हमराज़ था तब और ही अंदाज़ था
अब सोज़ है तब साज़ था अब शर्म है तब नाज़ था
अब मुझ से हो तो हो भी क्या है साथ वो तो वो भी क्या
इक बे-हुनर इक बे-समर मैं और मिरी आवारगी

34. ग़म बिकते हैं

ग़म बिकते हैं
बाजारों में
ग़म काफी महंगे बिकते हैं
लहजे की दूकान अगर चल जाये तो
जज्बे के गाहक
छोटे बड़े हर ग़म के खिलोने
मुंह मांगी कीमत पे खरीदें
मेने हमेशा अपने ग़म अच्छे दामों बेचे हैं
लेकिन
जो ग़म मुझको आज मिला है
किसी दुकां पर रखने के काबिल ही नहीं हैं
पहली बार में शर्मिन्दा हूँ
ये ग़म बेच नहीं पाऊंगा

35. आओ और ना सोचो

आओ
और ना सोचो
सोच के क्या पाओगे
जितना भी समझे हो
उतना पछताए हो
जितना भी समझोगे
उतना पछताओगे
आओ
और ना सोचो
सोच के क्या पाओगे

तुम एहसास की जिस मंज़िल पर अब पहुंचे हो
वो मेरी देखी- भाली है
जाने भी दो
इसका कब तक सोग मानना
ये दुनिया
अंदर से इतनी क्यूँ काली है
आओ
कुछ अब जीने का सामान करें हम
सच के हाथों
हमने जो मुश्किल पायी है
झूठ के हाथों
वो मुश्किल आसान करें हम
तुम मेरी आखों में आँखें डालके देखो
फिर मैं तुमसे
सारी झूठी कसमे खाऊँ
फिर तुम वो सारी झूठी बातें दोहराओ
जो सबको अच्छी लगती हैं
जैसे
वफ़ा करने की बातें
जीने की मरने की बातें
हम दोनों
यूं वकत गुज़ारें
मैं तुमको कुछ ख़्वाब दिखाऊँ
तुम मुझको कुछ ख़्वाब दिखाओ
जिनकी
कोई ताबीर नहीं हो
जितने दिन ये मेल रहेगा
देखो अच्छा खेल रहेगा
और
कभी दिल भर जाए तो
कह देना तुम
बीत गया मिलने का मौसम
आओ
और ना सोचो
सोच के क्या पाओगे

36. मेरे दिल में उतर गया सूरज

मेरे दिल में उतर गया सूरज
तीरगी में निखर गया सूरज

दर्स देकर हमें उजाले का
खुद अँधेरे के घर गया सूरज

हमसे वादा था इक सवेरे का
हाय केसा मुकर गया सूरज

चांदनी अक्स, चाँद आइना
आईने में संवर गया सूरज

डूबते वक़्त जर्द था इतना
लोग समझे के मर गया सूरज

(तीरगी=अँधेरा, दर्स=शिक्षा,
जर्द=पीला)

37. वक़्त

ये वक़्त क्या है?
ये क्या है आख़िर
कि जो मुसलसल गुज़र रहा है
ये जब न गुज़रा था, तब कहाँ था
कहीं तो होगा
गुज़र गया है तो अब कहाँ है कहीं तो होगा
कहाँ से आया किधर गया है
ये कब से कब तक का सिलसिला है
ये वक़्त क्या है

ये वाक़ये
हादसे
तसादुम
हर एक ग़म और हर इक मसर्रत
हर इक अज़ीयत हरेक लज़्ज़त
हर इक तबस्सुम हर एक आँसू
हरेक नग़मा हरेक ख़ुशबू
वो ज़ख़्म का दर्द हो
कि वो लम्स का हो ज़ादू
ख़ुद अपनी आवाज हो
कि माहौल की सदाएँ
ये ज़हन में बनती
और बिगड़ती हुई फ़िज़ाएँ
वो फ़िक्र में आए ज़लज़ले हों
कि दिल की हलचल
तमाम एहसास सारे जज़्बे
ये जैसे पत्ते हैं
बहते पानी की सतह पर जैसे तैरते हैं
अभी यहाँ हैं अभी वहाँ है
और अब हैं ओझल
दिखाई देता नहीं है लेकिन
ये कुछ तो है जो बह रहा है
ये कैसा दरिया है
किन पहाड़ों से आ रहा है
ये किस समन्दर को जा रहा है
ये वक़्त क्या है

कभी-कभी मैं ये सोचता हूँ
कि चलती गाड़ी से पेड़ देखो
तो ऐसा लगता है दूसरी सम्त जा रहे हैं
मगर हक़ीक़त में पेड़ अपनी जगह खड़े हैं
तो क्या ये मुमकिन है
सारी सदियाँ क़तार अंदर क़तार
अपनी जगह खड़ी हों
ये वक़्त साकित हो और हम हीं गुज़र रहे हों
इस एक लम्हें में सारे लम्हें
तमाम सदियाँ छुपी हुई हों
न कोई आइन्दा न गुज़िश्ता
जो हो चुका है वो हो रहा है
जो होने वाला है हो रहा है
मैं सोचता हूँ कि क्या ये मुमकिन है
सच ये हो कि सफ़र में हम हैं
गुज़रते हम हैं
जिसे समझते हैं हम गुज़रता है
वो थमा है
गुज़रता है या थमा हुआ है
इकाई है या बंटा हुआ है
है मुंज़मिद या पिघल रहा है
किसे ख़बर है किसे पता है
ये वक़्त क्या है

ये काएनात-ए-अज़ीम
लगता है
अपनी अज़्मत से
आज भी मुतइन नहीं है
कि लम्हा लम्हा
वसीअ-तर और वसीअ-तर होती जा रही है
ये अपनी बाँहें पसारती है
ये कहकशाओं की उँगलियों से
नए ख़लाओं को छू रही है
अगर ये सच है
तो हर तसव्वुर की हद से बाहर
मगर कहीं पर
यक़ीनन ऐसा कोई ख़ला है
कि जिस को
इन कहकशाओं की उँगलियों ने
अब तक छुआ नहीं है
ख़ला
जहाँ कुछ हुआ नहीं है
ख़ला
कि जिस ने किसी से भी ''कुन'' सुना नहीं है
जहाँ अभी तक ख़ुदा नहीं है
वहाँ
कोई वक़्त भी न होगा
ये काएनात-ए-अज़ीम
इक दिन
छुएगी
इस अन-छुए ख़ला को
और अपने सारे वजूद से
जब पुकारेगी
''कुन''
तो वक़्त को भी जनम मिलेगा
अगर जनम है तो मौत भी है
मैं सोचता हूँ
ये सच नहीं है
कि वक़्त की कोई इब्तिदा है न इंतिहा है
ये डोर लम्बी बहुत है
लेकिन
कहीं तो इस डोर का सिरा है
अभी ये इंसाँ उलझ रहा है
कि वक़्त के इस क़फ़स में
पैदा हुआ
यहीं वो पला-बढ़ा है
मगर उसे इल्म हो गया है
कि वक़्त के इस क़फ़स से बाहर भी इक फ़ज़ा है
तो सोचता है
वो पूछता है
ये वक़्त क्या है

(मुसलसल=लगातार, वाक़ये=घटनाएँ,
हादसे=दुर्घटनाएँ, तसादुम=संघर्ष,टकराव,
मसर्रत=हर्ष,आनंद,ख़ुशी, अज़ीयत=तकलीफ़,
तबस्सुम=मुस्कराहट, लम्स=स्पर्श, सदाएँ=
आवाज़ें, फ़िज़ाएँ=वातावरण, ज़लज़ले=
भूचाल, सम्त=दिशा,ओर, साकित=ठहरा
हुआ, आइन्दा=भविष्य, गुज़िश्ता=भूतकाल,
मुंज़मिद=जमा हुआ)

38. दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं

दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं
ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं

रास्ता रोके खड़ी है यही उलझन कब से
कोई पूछे तो कहें क्या कि किधर जाते हैं

छत की कड़ियों से उतरते हैं मिरे ख़्वाब मगर
मेरी दीवारों से टकरा के बिखर जाते हैं

नर्म अल्फ़ाज़, भली बातें, मुहज़्ज़ब लहजे
पहली बारिश ही में ये रंग उतर जाते हैं

उस दरीचे में भी अब कोई नहीं और हम भी
सर झुकाए हुए चुपचाप गुज़र जाते हैं
(मुहज़्ज़ब=सभ्य बोली, दरीचे=खिड़की)

39. मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं

मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं

एक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे नाता तोड़ लिया
एक वो दिन जब पेड़ की शाख़ें बोझ हमारा सहती थीं

एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी-रूठी लगती हैं
एक वो दिन जब 'आओ खेलें' सारी गलियाँ कहती थीं

एक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं
एक वो दिन जब शामों की भी पलकें बोझल रहती थीं

एक ये दिन जब ज़हन में सारी अय्यारी की बातें हैं
एक वो दिन जब दिल में भोली-भाली बातें रहती थीं

एक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का
एक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं

एक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामाँ रहता है
एक वो घर जिस घर में मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं

(अय्यारी=चालाकी, साज़-ओ-सामाँ=तामझाम)

40. दोराहा

(अपनी बेटी ज़ोया के नाम)

ये जीवन इक राह नहीं
इक दोराहा है

पहला रस्ता बहुत सरल है
इसमें कोई मोड़ नहीं है
ये रस्ता इस दुनिया से बेजोड़ नहीं है
इस रस्ते पर मिलते हैं रिश्तों के बंधन
इस रस्ते पर चलनेवाले
कहने को सब सुख पाते हैं
लेकिन
टुकड़े टुकड़े होकर
सब रिश्तों में बँट जाते हैं
अपने पल्ले कुछ नहीं बचता
बचती है बेनाम सी उलझन
बचता है साँसों का ईंधन
जिसमें उनकी अपनी हर पहचान
और उनके सारे सपने
जल बुझते हैं
इस रस्ते पर चलनेवाले
ख़ुद को खोकर जग पाते हैं
ऊपर-ऊपर तो जीते हैं
अंदर-अंदर मर जाते हैं

दूसरा रस्ता बहुत कठिन है
इस रस्ते में कोई किसी के साथ नहीं है
कोई सहारा देनेवाला हाथ नहीं है
इस रस्ते में धूप है
कोई छाँव नहीं है
जहाँ तस्सली भीख में देदे कोई किसी को
इस रस्ते में ऐसा कोई गाँव नहीं है
ये उन लोगों का रस्ता है
जो ख़ुद अपने तक जाते हैं
अपने आपको जो पाते हैं
तुम इस रस्ते पर ही चलना

मुझे पता है
ये रस्ता आसान नहीं है
लेकिन मुझको ये ग़म भी है
तुमको अब तक
क्यूँ अपनी पहचान नहीं है

41. मिरी ज़िन्दगी मिरी मंज़िलें मुझे क़ुर्ब में नहीं, दूर दे

मिरी ज़िन्दगी मिरी मंज़िलें मुझे क़ुर्ब में नहीं, दूर दे
मुझे तू दिखा वही रास्ता, जो सफ़र के बाद ग़ुरूर दे

वही जज़्बा दे जो शहीद हो, हो खुशी तो जैसे कि ईद हो
कभी ग़म मिले तो बला का हो, मुझे वो भी एक सुरूर दे

तू गलत न समझे तो मैं कहूं, तिरा शुक्रिया कि दिया सुकूं
जो बढ़े तो बढ़ के बने जुनूं, मुझे वो ख़लिश भी ज़रूर दे

मुझे तूने की है अता ज़बां, मुझे ग़म सुनाने का ग़म कहां
रहे अनकही मिरी दास्तां, मुझे नुत्क़ पर वो उबूर दे

ये जो ज़ुल्फ़ तेरी उलझ गई, वो जो थी कभी तिरी धज गई
मैं तुझे सवारूंगा ज़िन्दगी, मिरे हाथ में ये उमूर दे

42. किन लफ़्ज़ों में इतनी कड़वी इतनी कसीली बात लिखूँ

किन लफ़्ज़ों में इतनी कड़वी इतनी कसीली बात लिखूँ
शे'र की मैं तहज़ीब बना हूँ या अपने हालात लिखूँ

ग़म नहीं लिक्खूँ क्या मैं ग़म को जश्न लिखूँ क्या मातम को
जो देखे हैं मैं ने जनाज़े क्या उन को बारात लिखूँ

कैसे लिखूँ मैं चाँद के क़िस्से कैसे लिखूँ मैं फूल की बात
रेत उड़ाए गर्म हवा तो कैसे मैं बरसात लिखूँ

किस किस की आँखों में देखे मैं ने ज़हर बुझे ख़ंजर
ख़ुद से भी जो मैं ने छुपाए कैसे वो सदमात लिखूँ

तख़्त की ख़्वाहिश लूट की लालच कमज़ोरों पर ज़ुल्म का शौक़
लेकिन उन का फ़रमाना है मैं इन को जज़्बात लिखूँ

क़ातिल भी मक़्तूल भी दोनों नाम ख़ुदा का लेते थे
कोई ख़ुदा है तो वो कहाँ था मेरी क्या औक़ात लिखूँ

अपनी अपनी तारीकी को लोग उजाला कहते हैं
तारीकी के नाम लिखूँ तो क़ौमें फ़िरक़े ज़ात लिखूँ

जाने ये कैसा दौर है जिस में जुरअत भी तो मुश्किल है
दिन हो अगर तो उस को लिखूँ दिन रात अगर हो रात लिखूँ

43. सुबह की गोरी

रात की काली चादर ओढ़े
मुंह को लपेटे
सोई है कब से
रूठ के सब से
सुबह की गोरी
आँख न खोले
मुंह से न बोले
जब से किसी ने
कर ली है सूरज की चोरी

आओ
चल के सुरज ढूंढे
और न मिले तो
किरण किरण फिर जमा करे हम
और इक सूरज नया बनायें
सोई है कब से
रूठ के सब से
सुबह की गोरी
उसे जगाएं
उसे मनाएं

44. मेरी दुआ है

ख़ला के गहरे समुंदरों में
अगर कहीं कोई है जज़ीरा
जहाँ कोई साँस ले रहा है
जहाँ कोई दिल धड़क रहा है
जहाँ ज़ेहानत ने इल्म का जाम पी लिया है
जहाँ के बासी
ख़ला के गहरे समुंदरों में
उतारने को हैं अपने बेड़े
तलाश करने कोई जज़ीरा
जहाँ कोई साँस ले रहा है
जहाँ कोई दिल धड़क रहा है

मिरी दुआ है
कि उस जज़ीरे में रहने वालों के जिस्म का रंग
इस जज़ीरे के रहने वालों के जिस्म के जितने रंग हैं
इन से मुख़्तलिफ़ हो
बदन की हैअत भी मुख़्तलिफ़
और शक्ल-ओ-सूरत भी मुख़्तलिफ़ हो

मिरी दुआ है
अगर है उन का भी कोई मज़हब
तो इस जज़ीरे के मज़हबों से वो मुख़्तलिफ़ हो

मिरी दुआ है
कि इस जज़ीरे की सब ज़बानों से मुख़्तलिफ़ हो
ज़बान उन की

मिरी दुआ है
ख़ला के गहरे समुंदरों से गुज़र के
इक दिन
इस अजनबी नस्ल के जहाज़ी
ख़लाई बेड़े में
इस जज़ीरे तक आएँ
हम उन के मेज़बाँ हों
हम उन को हैरत से देखते हों
वो पास आ कर
हमें इशारों से ये बताएँ
कि उन से हम इतने मुख़्तलिफ़ हैं
कि उन को लगता है

इस जज़ीरे के रहने वाले
सब एक से हैं

मिरी दुआ है
कि इस जज़ीरे के रहने वाले
उस अजनबी नस्ल के कहे का यक़ीन कर लें

45. दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग

दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग
जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग

जीवन-जीवन हमने जग में खेल यही होते देखा
धीरे-धीरे जीती दुनिया धीरे-धीरे हारे लोग

वक़्त सिंहासन पर बैठा है अपने राग सुनाता है
संगत देने को पाते हैं साँसों के इकतारे लोग

नेकी इक दिन काम आती है हमको क्या समझाते हो
हमने बेबस मरते देखे कैसे प्यारे-प्यारे लोग

इस नगरी में क्यों मिलती है रोटी सपनों के बदले
जिनकी नगरी है वो जानें हम ठहरे बँजारे लोग

46. बहाना ढूँढते रहते हैं कोई रोने का

बहाना ढूँढते रहते हैं कोई रोने का
हमें ये शौक़ है क्या आस्तीं भिगोने का

अगर पलक पे है मोती तो ये नहीं काफ़ी
हुनर भी चाहिए अल्फ़ाज़ में पिरोने का

जो फ़स्ल ख़्वाब की तैयार है तो ये जानो
कि वक़्त आ गया फिर दर्द कोई बोने का

ये ज़िन्दगी भी अजब कारोबार है कि मुझे
ख़ुशी है पाने की कोई न रंज खोने का

है पाश-पाश मगर फिर भी मुस्कुराता है
वो चेहरा जैसे हो टूटे हुए खिलौने का

(अल्फ़ाज़=शब्द, पाश-पाश=चकनाचूर)

47. ज़ुर्म और सज़ा

हाँ गुनहगार हूँ मैं
जो सज़ा चाहे अदालत देदे
आपके सामने सरकार हूँ मैं

मुझको इकरार
कि मैंने इक दिन
ख़ुद को नीलाम किया
और राज़ी-बरज़ा
सरेबाज़ार, सरेआम किया
मुझको कीमत भी बहुत ख़ूब मिली थी लेकिन
मैंने सौदे में ख़यानत कर ली
यानी
कुछ ख़्वाब बचाकर रक्खे
मैंने सोचा था
किसे फ़ुरसत है
जो मिरी रूह, मिरे दिल की तलाशी लेगा
मैंने सोचा था
किसे होगी ख़बर
कितना नादान था मैं
ख़्वाब
छुप सकते हैं क्या
रौशनी
मुट्ठी में रुक सकती है क्या
वो जो होना था
हुआ
आपके सामने सरकार हूँ मैं
जो सज़ा चाहे अदालत देदे
फ़ैसला सुनने को तैयार हूँ मैं
हाँ गुनहगार हूँ मैं

फ़ैसला ये है अदालत का
तिरे सारे ख़्वाब
आज से तिरे नहीं है मुजरिम!
ज़हन के सारे सफ़र
और तिरे दिल की परवाज़
जिस्म में बहते लहू के नग़में
रूह का साज़
समाअत
आवाज़
आज से तेरे नहीं है मुजरिम!
वस्ल की सारी हदीसें
ग़मे हिज्राँ की किताब
तेरी यादों के गुलाब
तेरा एहसास
तिरी फ़िक्रो नज़र
तेरी सब साअतें
सब लम्हे तिरे
रोज़ो-शब, शामो-सहर
आज से तेरे नहीं है मुजरिम!
ये तो इनसाफ़ हुआ तेरी ख़रीदारों से
औक अब तेरी सज़ा
तुझे मरने की इजाज़त नहीं
जीना होगा।

48. हिल-स्टेशन

घुल रहा है सारा मंज़र शाम धुंधली हो गयी
चांदनी की चादर ओढ़े हर पहाड़ी सो गयी

वादियों में पेड़ हैं अब नीलगूं परछाइयां
उठ रहा है कोहरा जैसे चांदनी का हो धुंआ

चाँद पिघला तो चट्टानें भी मुलायम हो गयीं
रात की साँसें जो महकी और मद्धम हो गयीं

नर्म है जितनी हवा उतनी फिज़ा खामोश है
टहनियों पर ओस पी के हर कली बेहोश है

मोड़ पर करवट लिए अब ऊंघते हैं रास्ते
दूर कोई गा रहा है जाने किसके वास्ते

ये सुकूं में खोयी वादी नूर की जागीर है
दूधिया परदे के पीछे सुरमई तस्वीर है

धुल गयी है रूह लेकिन दिल को ये एहसास है
ये सुकूं बस चाँद लम्हों को ही मेरे पास है

फासलों की गर्द में ये सादगी खो जाएगी
शहर जाके ज़िन्दगी फिर शहर की हो जाएगी

49. चार क़तऐ

कत्थई आँखों वाली इक लड़की
एक ही बात पर बिगड़ती है
तुम मुझे क्यों नहीं मिले पहले
रोज़ ये कह के मुझ से लड़ती है

लाख हों हम में प्यार की बातें
ये लड़ाई हमेशा चलती है
उसके इक दोस्त से मैं जलता हूँ
मेरी इक दोस्त से वो जलती है

पास आकर भी फ़ासले क्यों हैं
राज़ क्या है, समझ में ये आया
उस को भी याद है कोई अब तक
मैं भी तुमको भुला नहीं पाया

हम भी काफ़ी तेज़ थे पहले
वो भी थी अय्यार बहुत
पहले दोनों खेल रहे थे
लेकिन अब है प्यार बहुत

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