Sukhmangal Singh सुखमंगल सिंह
सुखमंगल सिंह की कविताएँ
1. सुविचार
ज्ञान बनाता महान
चिंतन विद्वान् ।
सीखना और सिखाना
सफलता पर चलना
असफलता पर गुनना
जीवन सफल बनाना ।
काम उद्देश्य पास
लक्ष्य-ऊर्जा साथ ।
सालाह को सुनना
स्वंय सुधार करना ।
पक्के इरादे साथ
और आलस त्याग ।
आदतों का त्याग
सफलता का राज ।
आध्यात्म साथ रहता
विज्ञान पास रहता ।
ज्ञान बनाता महान
चिंतन विद्वान् ।।
2. जल पीना औरपिलाना
सिल गये हों होठ तो भी गनगुनाना चाहिए
रोना-धोना भूल करमुस्कराना चाहिए ।
विद्रोही की ज्वाला भड़क उट्ठी है क्या ?
खुद समझ कर बाद में सबको बताना चाहिए ।
बस्तियों में फिर चरागों को जलाने वास्ते
महलों के दीपक कभी भी ना बुझाना चाहिए ।
अम्नो-अमन की नदियां अवच्छ हों बहें,
और वही जल पीना औ' पिलाना चाहिए ।।
3. पानी बचाइये
जल से ही जीवन कहते आये
पुरखे और पडोसी ।
रिश्ते - नाते सब पीछे छूटेंगे
निर्मल जल बिनु रोगी ।
पानी संचय किये बिना गर
बनकर बैठोगे भोगी ?
जब जल की माहामारी मचेगी
बचोगे कैसे कर्मयोगी ।।
4. झूला
झूला झूल रहे नन्द के कुमार सखी
कदमों की डार सखी ना !
झूला बना अलबेला, झूलें नन्द के गदेला
हीरा मोती लगल रेशम की डार सखी ।
कदमों की डार सखी ना !!
एक तो घेरे घटा काली, दूजे बूंद पड़े प्यारी
तीजे पुरुया के बहेला बयार सखी
कदमों की डार सखी ना !!
झूला झूल रहे नन्द के कुमार सखी
कदमों की डार सखी ना !!
5. कवि हूँ मैं सरयू तट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
समय चक्र के उलट पलट का
मानव मर्यादा की खातिर
मेरीअयोध्या खड़ी हुई
कालचक्र के चक्कर से ही
विश्व की आँखें गड़ी हुई
हाल ये जाने है घट-घट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
गंधर्वों ने मिल किया गुणगान
सिद्धों ने पुष्पवर्षा से बढ़ाया मान
समवेत स्तुति ब्राह्मणों ने करके
बांटा मुक्त मन सेसमुचित ज्ञान
बटा ज्ञान भी टटका -टटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
सूर्यवंश का उगा सितारा
कुबेर – सिंहासन, ब्रह्मा ले आये
धरा-गगन औरिद्धी -सिद्धि गाये
सभी देवता मिल देखन आये
मगन हुआ मन घट-पनघट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
मनमोहक हरियाली छाई
सकल अवध खुशहाली आई
राजा पृथु का आना सुन
ऋषियों की भी वाणी हर्षायी
प्यासे को जैसे मिला हो मटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
दिया विश्वकर्मा ने सुंदर रथ
चंदा ने अश्व दिये अमृतमय
सुदृढ़ धनुष दिया अग्नि ने
सूर्य ने वाण दिये तेजोमय
शत्रु को करारा दे जो झटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
पृथु – अभिषेक का हुआ आयोजन
वेदमयी ब्राह्मण ने किया अभिनंदन
पृथ्वी -नदी -समुद्र -पर्वत -स्वर्ग -गौ
उन्हें सबने उपहार किया अर्पण
उपहार दिखे सब टटका – टटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
ऋषियों की वाणी थी माधुरी
अर्ति, शक्ति लक्ष्मी अवतार
सुपथ विस्तार करने आये
यशस्वी ‘पृथु ‘ पधारे महाराज
आभा मे न लटका- झटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
अंग वंश के वेन – भुजा मंथन से
हुआ प्रादुर्भाव पृथु और अर्ति का
विदुर – मैत्रेय का सम्बाद सुनाया
गंधर्वों ने सुमधुर गुणगान गाया
समय चक्र के उलट पलट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
"हूँ कवि मैं सरयू -तट का"
पृथु बोले ! सुन स्तुति गान
जो कहता हूँ, उसे लें मान
मैं अभी श्रेष्ठ कर्म -समर्थ नहीं
कि अभी सुनूं मैं कीर्तिगान
कर्म -सुकर्म -भगत -जगत का
कवि हूँ मैं सरयू -तट का
यह सुन सूतआदि सब गायक
हर्षित हो, मन ही मन नायक
कहे, आप ही देवव्रत नारायण
आप हैं गुणगान के लायक
प्राकट्य कलावतार हरि -घट का
कवि हूँ मैं सरयू -तट का
धर्ममार्ग में नित चलकर
निरपराधी को दंड न देंगे
सूर्य किरणें जहां तक होंगी
आपके यश -ध्वज फहरेंगे
विन्दु न कोई छल - कपट का
कवि हूँ मैं सरयू -तट का
आपका भू -स्वर्ग -पाताल
दुष्टों को खा जाएगा काल
चमकेंगे जन -जन का भाल
सबके सब होंगे खुशहाल
भाग्य जागेगा, कूड़े करकट का
कवि हूँ मैं सरयू -तट का
परब्रह्म का प्राप्ति मार्ग
सनत कुमार जी बताएँगे
सरस्वती -उद्गम स्थल पर
अश्वमेध यज्ञ कराएंगे
खेती सीचे पानी पुरवट का
कवि हूँ मैं सरयू -तट का
शिव -अग्रज सनकादि मुनीश्वर
माथे चरणोद चढ़ाएंगे
स्वर्ण सिंहासन पर उन्हें आप
ससम्मान विठाएँगे
शब्द - अर्थ होगा, उद्भट का
कवि हूँ मैं सरयू -तट का -
"हूँ कवि मैं सरयू -तट का "
चक्र सुदर्शन दिया विष्णु ने
लक्ष्मी दी संपत्ति अपार
अम्बिका दीं चंद्राकार चिन्हों की ढाल
और रूद्र दिये चंद्राकार तलवार
कामकरे सरपट का
हूँ कवि मैं सरयू - तट का
पृथ्वी ने दी योगमयी पादुकायें
आकाश नित्य पुष्पों की मालाएँ
शंख, समुद्र और सातो समुद्र
पर्वत - नदी हटाईं पथ की बलायें
बना दिया पृथु को जीवट का
हूँ कवि मैं सरयू - तट का
जल - फुहिया जिससे प्रतिपल झरती
वरुण ने दिया छत्र, श्वेत चंद्र- सम
धर्म ने माला, वायु ने दो चंवर दिये
मनोहर मुकुट इन्द्र, ब्रह्मा वेद कवच का दम
सम्पूर्ण सृष्टि का माथा चटका
हूँ कवि मैं सरयू - तट का
सुन्दर वस्त्रों से हुए सुसज्जित
और अलंकारों से पृथु राज
स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान
आभा अग्नि की, दिखेमहाराज
पहुंचे सभी न कोई अटका
हूँ कवि मैं सरयू -तट का
सूत - माधव वन्दीजन गाने लगे
सिद्ध गन्धर्वादि नाचने - बजाने लगे
पृथु को मिली अंतर्ध्यान - शक्ति
महाराज पृथु को सभी बहलाने लगे
दे - दे करके लटकी - लटका
हूँ कवि मैं सरयू -तट का
गुणों और कर्मों का, वंदीजन ने गुणगान किया
पृथु महाराज ने सभी को, मुक्त भाव से दान दिया
मंत्री, पुरोहित, पुरवासी, सेवक का भी मान किया
चारो वर्णों का एकसाथ आज्ञानुर्वा - सम्मान किया
नहीं गुंजाइस, किसी से किसी खटपट का
हूँ कवि मैं सरयू -तट का
6. हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
बांचे वेद - शास्त्र हर द्वारे
धरा को लहर - लहर सँवारे
भक्ति -शक्ति का पाठ पढ़ाके
मां सरयू तू हमें उबारे
तुझसे सम्पन्न अयोध्या धाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
तुझसे हर्षित हर कण कण है
रूजन में मेरा हर क्षण है
लहर से तेरी निकली ध्वनि ही
कविता -कला का निर्मल मन है
बड़ा बन गया छोटा नाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
श्री हनुमत आज्ञा पाकर के
तुझमें जो डुबकी लगाता
कई जन्मों के पाप धूल जाते
स्वर्ग में जाके जगह वो पाता
कहते हैं जिसको सुरधाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
युद्ध -कला -पारंगत करता
धर्मराज का पाठ पढ़ाती
संत - हितों की रक्षा खातिर
तपसी -रूप के भेद बताती
चलती सत्य का दामन थाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
शिष्टता -चारित्रिक शुद्धता
आदर- विश्वास का भाव जगाती
राम - लखन -भरत - शत्रुघ्न को
प्रतिपल निरख - निरख इठलाती
भजती रहती सुबहो - शाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
विनम्रता की माला पहन के
विष्णु - पग - नख से तूं निकली
सुवर्ण मणि मुक्ता जड़ित अयोध्या
की ओर तूं निकल चली
देशो - दिशा तेरा गुणगान
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
7. कोने - कोने ज्ञान भरें
हरियाली घर आंगन आये दिल से आओ प्यार करें
गगन के पक्षी डाल डाल से कलरव करगुणगान करें ।
कोयल की मीठीवाणी संगकागा बैठा ध्यान करे
भीतर अभिलाषा लेकर मन में कोने- कोनेज्ञान भरें ।
लछिमन चिड़िया 'मंगल ' गाए गादीबैठे झाँक लगाए
लाल - गुलाबी, नीली -पीली धानीमानी वसन बनाये ।
मूल भूत पाषाण शिलायें उठकर खुद नाम लिखाएं
विविध यतन के दाना डालें उँघे धरातल जाल विछाएँ ।
नहीं कहीं कोलाहल हो हरियाली का जाल बिछायें ।।
8. चाह नही
मेरी चाह नही इसकी,
बड़ा व्यक्तित्व कहाऊं !
चौबीस घंटे की धुन में,
पाथर बन पूजा जाऊं !
सर्दी - गर्मी बरसातों में,
छतरी एक न पाऊं !
प्रभुता की भले नहीं,
मैं,लघुता के गीत सुनाऊँ ।।
9. कतकी में माई पुकारत बानी ,सरयू -संस्कृति संवारती
भोरवैंसे मइया तिखारत बानी
तकती अँखियन से, मइया निहारत बानी
कतकी नहान आइल बा,दुलारतबानी
सरयू मइया तोहरा के पुकारत बानी ।
कंजड़ मानसिकता पर विचारात बानी
शासन की सिथिलता पे धिक्कारत बानी
उठ भोरावैं मइया तिखारत बानी
घृणा और भय का पात्र पखारत बानी ।
लोक संस्कृति- लोकभाषा में पुकारत बानी
आंचलिक ग्राम साहित्य सवांरत बानी
लोकरंग - लोक गंध ले पुकारत बानी
यथार्थ सृजन के लिये ललकारत बानी ।
भूमण्डलीयकरण में माई निहारत बानी
हराम जीवन का गौरव निखारत बानी
अँधेरे में माई निरंतर -निसारतबानी
धरा पे धार से मइया धिक्कारत बानी ।
गावों भी को उपेक्षा से माई उबारत बानी
धर्म पालन में लरिकन के निकारत बानी
माई रात - दिन लहरन से सँवारत बानी
वेद - शास्त्र पढ़े - बदे ललकारत बानी।
10. किसान की आजादी
बजरी-बाजरा मूंगफली से पूर्वांचल निहाल
दूध, दही, घी, मलाई नें किया नहींबेहाल
घी सनीबाजरा - रोटीदेवांचलखुशहाल
बलक्ष बजरी का भात पकाकर खाना चाल।
मधुर व्यंजनों का मीठा मूंगफली आहार
पूरा कुनबा रहा खुशनुमा किसान निहाल
शेर दहाड़ता माँस खाकर फिर भी डरता
भारत का वीर किसान मोटे अन्न पर लड़ता ।
झमझमायी सूरज किरणों में खेती करता
विषधर औ विशालकाय जीवों से भी लड़ता
सत्य- अहिंसा बल बूते आशा किरण जगाता
पंद्रह अगस्त सैतालिस को आजादी लाता ।
(शब्दार्थ: बलक्ष=श्वेत, सफेद)
11. सच्चे मित्र से सदा व्यवहार निभाना चाहिए
मौसम की भांति बदलते मित्र को, मित्र नहीं बनाना चाहिए ।
जीवन में आने वाली तकलीफों से, नहीं घबराना चाहिए ।
सच सत्यसे रूठने वाले लोगों को, नहीं मनाना चाहिए ।
नज़रों से गिर जाए जो उसे, नहीं उठाना चाहिए ।
पचे जो ना भोजन उसे नहीं खाना चाहिए ।
बातें जो मानता न हो, नहीं समझाना चाहिए ।
क्रंदन होता जहां सदा, वहां नहीं जाना चाहिए ।
कपट करने वालों से कभी, मेल नहीं बढ़ाना चाहिए ।
सच्चे मित्र से सदा, व्यवहार निभाना चाहिए ।
12. मर्यादा
जीवन काल का मरम – सत्य
सुबह – सुबह हमें बताती ।
गौरव गाथा हमें पढ़ाने
मर्यादा ही पहले आती ।
मन से वचन और कर्म से
बेदी पाठ हमें पढ़ाती ।
ऊषाकाल के महत्व को
भोर मेन ही हमें जनाती ।
अरमानों भरा यह जीवन
मर्यादा ही हमें सिखाती।।