सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र : सुदामा पांडेय धूमिल

Sudama Panday Ka Prajatantra : Sudama Panday Dhoomil

1. सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र (एक)

सेर भर कबाब हो
एक अद्धा शराब हो
नूरजहाँ का राज हो
ख़ूब हो--
भले ही ख़राब हो

(एक लोकगीत)

भेंट
कल सुदामा पांड़े मिले थे
हरहुआ बाज़ार में । ख़ुश थे । बबूल के
वन में वसन्त से खिले थे ।
फटकारते हुए बोले, यार ! ख़ूब हो
देखते हो और कतराने लगते हो,
गोया दोस्ती न हुई, चलती-फिरती हुई ऊब हो
आदमी देखते हो, सूख जाते हो
पानी देखते हो गाने लगते हो ।
वे ज़ोर से हँसे । मैं भी हँसा ।
संत के हाथ--बुरा आ फँसा

सोचा--
उन्होंने मुझे कोंचा । क्या सोचते हो ?
रात-दिन
बेमतलब बवंडर का बाल नोचते हो
ले देकर एक अदद
चुप हो ।

वक़्त को गंजेड़ी की तरह फूँकते रहे हो
चेहरे पर चमाईन मूत गई है । इतनी फटकार
जैसे वर्षों से अपनी आँखों में थूकते रहे हो
अरे यार, दुनिया में क्या रखा है ?
खाओ-पियो, मज़ा लो
विजयी बनो--विजया लो
रंगरती
ठेंगे पर चढ़े करोड़पति ।

2. सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र (दो)

न कोई प्रजा है
न कोई तंत्र है
यह आदमी के खिलाफ़
आदमी का खुला सा
षड़यन्त्र है ।
xxxxxxx
हर बार की तरह
तुम सोचते हो कि इस बार भी यह
औरत की लालची जांघ से
शुरू होगा और कविता तक
फैल जाएगा ।
बिल्ली का पंजा
चूहे का बिल है ।

3. ट्यूशन पर जाने से पहले

अपनी अध्यापिका का किताबी चेहरा पहन कर
खड़ी हो जाएगी वह ख़ूबसूरत शोख़ लड़की
मगर अपनी आँखें
वह छिपा नहीं पाएगी जहाँ बसन्त दूध के दाने फेंक गया है ।
आज और अभी तक
नन्ही गौरैया के पंखहीन बच्चों का घोंसला है
उसका चेहरा और कल
या शायद इससे कुछ देर पहले

यह शहर उस शोख और खिंचे हुए
चेहरे को
घर में बदल दे । मेरी पहली दस्तक से थोड़ी देर
पहले
तब मेरा क्या होगा ?
मुझे डर है
मैं वापस चला आऊंगा । अपनी कविताओं के अंधेरे में
चुपचाप वापस चला जाऊंगा ।
बिल्कुल नाकाम होंठों पर एक वही पद-व्याख्या
बार-बार लिंग, वचन, कारक या संज्ञा, सर्वनाम
या, शायद, यह सब नहीं होगा । अपनी नाबालिग आँखों से
वह सिर्फ़ इतना करेगी कि हम दोनों के बीच
काठ या सपना रख देगी । और पूछेगी
उसकी व्याख्या । क़िताब को परे सरकाती हुई उसकी आँख निश्छल! निष्पाप!!
मगर आँखें शहर नहीं हैं ऎ लड़की !
पानी में बसी हुई कच्चे इरादों की एक भरी-पूरी दुनिया है
आँखें ! देह की इबारत के खुले हुए शब्दकोष ! जिसे पढ़ते हैं ।
लेकिन यह देखो--
हम अपने सम्बन्धों में इस तरह पिट चुके हैं
जैसे एक ग़लत मात्रा ने
शब्दों को पीट दिया है ।

4. न्यू ग़रीब हिन्दू होटल

और फिर रात में
जब चीज़ें एक सार्वजनिक लय में
दुहराई जाने लगती हैं
होटल की माँद में
थका-हारा
बर्तन माँजने वाला घीसा-
अपने से दस-बारह साल छोटे
लड़के की-
गुदगर देह से सटा हुआ
जलेबियों को सपना देखता है

प्लेट साफ़ करते हुए
लड़के का सोना
कानूनी है कानूनी है

रोटी दो रोटी दो
सुरुवा दो सुरुवा दो
कीमा दो
बोटी दो

मालिक का सीझा हुआ चेहरा
जैसे बासी रोटी पर किसी
शरारती महराज ने
दो आँखें बना दी हों
थाली आते ही मेरी टाँगों के नीचे
एक कुत्ता आ जाता है
कुरसी से कौर तक फिर वही कुकुरबू

रोटी खरी है बीच में
पर किनारे पर कच्ची है
सब्ज़ी में नमक ज़्यादा है
पता नहीं होटल के मालिक का पसीना है या
'महराज' के आँसू
(इस बार भी देवारी में उसे घर जाने की
छुट्टी नहीं मिली)

5. कविता के भ्रम में

क्या तुम कविता की तरफ़ जा रहे हो ?
नहीं, मैं दीवार की तरफ़
जा रहा हूँ ।
फिर तुमने अपने घुटने और अपनी हथेलियाँ
यहाँ क्यों छोड़ दी हैं ?
क्या तुम्हें चाकुओं से डर लगता है ?

नहीं मैं सहनशीलता को
साहस नहीं कहता ।
और न दुहराना ही चाहता हूँ
पैसे भर जुबान से पिछली उपलब्धियाँ :
अपनी भूख और लड़कियाँ
नींद के सिरहाने फैली हुई
शेर छाप तकिए की बू
नेकर में नाड़े-सी पड़ी हुई पत्नी का प्यार
रिस्तों की तगार में ऊँघती हुई
एक ख़ास और घरेलू किस्म की 'थू'
आक !

कविता के कान हमेशा चीख़ से
सटे रहते हैं !
नहीं; एक शब्द बनने से पहले
मैं एक सूरत बनना चाहता हूँ
मैं थोड़ी दूर और-और आगे
जाना चाहता हूँ

जहाँ हवा काली है । जीने का
ज़ोख़म है । सपनों का
वयस्क लोक-तन्त्र है । आदमी
होने का स्वाद है ।

मैं थोड़ा और आगे जाना चाहता हूँ
जहाँ जीवन अब भी तिरस्कृत है
संसद की कार्यवाही से निकाले गए वाक्य की तरह ।

अच्छा तो विदा मित्र ! विदा
जाओ,
लेकिन मैं जानता हूँ कि कल
जब भाषा की तंगी में ऊबते हुए
अपने शहर में वापस आओगे
तुम मुझे गाओगे जैसे अकाल में
खेत गाए जाते हैं
और अभियोग की भाषा के लिए
टटोलते फिरोगे वे चेहरे
जो कविता के भ्रम में
जीने के पहले ही
परदे के पीछे
नींद में मर चुके हैं।

6. बसंत से बातचीत का एक लम्हा

वक़्त जहाँ पैंतरा बदलता है
बेगाना
नस्लों के
काँपते जनून पर
एक-एक पत्ती जब
जंगल का रुख अख़्तियार करे

आ !
इसीलिए कहता हूँ, आ
एक पैना चाकू उठा
ख़ून कर
क्यों कि यही मौसम है :
काट
कविता का गला काट
लेकिन मत पात
रद्दी के शब्दों से भाषा का पेट
इससे ही
आदमी की सेहत
बिगड़ती है ।

हलका वह होता है,
लेकिन हर हाल में
आदमी को बचना है
गिरी हुई भाषा के खोल में
चेहरा छिपाता है
लेकिन क्या बचता है ?
बचता कत्तई नहीं है।

ऎसे में
ऎसा कर
ढाढ़स दे
पैसा भर

इतना कह
भाई रे !
करम जले मौसम का
नंगापन
नंगई नहीं है।

आ मरदे !
बैठा है पेड़ पर
विधवा के बेटे-सा
फक्कड़-मौलान

नीचे उतर
आदमी के चेहरे को
हँसी के जौहर से
भर दे।
परती पड़े चेहरों पर
कब्ज़ा कर।
हलकू को कर जबर।

7. घर में वापसी

मेरे घर में पाँच जोड़ी आँखें हैं
माँ की आँखें
पड़ाव से पहले ही
तीर्थ-यात्रा की बस के
दो पंचर पहिये हैं।

पिता की आँखें...
लोहसाँय-सी ठंडी शलाखें हैं।
बेटी की आँखें... मंदिर में दीवट पर
जलते घी के
दो दिये हैं।

पत्नी की आँखें, आँखें नहीं
हाथ हैं, जो मुझे थामे हुए हैं।
वैसे हम स्वजन हैं,
करीब हैं
बीच की दीवार के दोनों ओर
क्योंकि हम पेशेवर गरीब हैं।
रिश्ते हैं,
लेकिन खुलते नहीं हैं।
और हम अपने खून में इतना भी लोहा
नहीं पाते
कि हम उससे एक ताली बनाते
और भाषा के भुन्नासी ताले को खोलते
रिश्तों को सोचते हुए
आपस मे प्यार से बोलते

कहते कि ये पिता हैं
यह प्यारी माँ है,
यह मेरी बेटी है
पत्नी को थोड़ा अलग
करते...तू मेरी
हमबिस्तर नहीं...मेरी
हमसफ़र है

हम थोड़ा जोखिम उठाते
दीवार पर हाथ रखते और कहते...
यह मेरा घर है

8. मुक्ति का रास्ता

दिन खराब थे और शुरूआत हो चुकी थी
आँसू की जगह आँखों में बदले की आग थी।
ऐसे में आदमी का मुँह निहारती कविता
बढ़ती चली गई भाषा के बेहड़ों की ओर
जैसे वह आदिवासी औरत झाड़ी की ओट से
जलते हुए झोपड़ों को देखती उतरती चली गई
वो जंगली ढलान-
जहाँ फौरी कार्यवाई के लिए हमलावर दस्ता
पेटियाँ कस रहा था।
क्या तुम्हें याद है वह दिन ? वह घटना –
कितने बजे थे जब रक्त सनी चीजों में फिर
लिपटा हुआ वक्त सुन्न पड़ गया था
घहराते हुए चीत्कार के बीच ?
मारे गए थे पुरजन। कटे हुए खेत की
मेड़ पर लीथें गिरीं थीं। खूनी खंखार की तरह
जोतदार का सिर खेत में पड़ा था। अनाज
ढोया जा चुका था सुरक्षित मुकाम पर
इसके बाद आए थे अपराध के कानूनी दलाल
एड़ियाँ बजाते हुए। किरचों की मुहर ने
चेहरों को दागी किया था। लाशों की गिनपांडे पांडे ती –
फिर आगजनी, लूट। लेकिन क्या लगा था
आतताइयों के हाथ ? नफरत की आँच ने
चन्द खाली झोपड़ों को राख किया था।
और वह स्त्री आदिवासी ? इसके बाद
तुम जानते ही हो शब्द शस्त्र बन गए हैं
और अगवा बन्दूक की निशानदेही पर
कविता ने ढूंढ लिया है अपनी मुक्ति का रास्ता
दुश्मन की छाती के खून भरे छेद ने।

9. चुनाव

यह आखिरी भ्रम है
दस्ते पर हाथ फेरते हुए मैंने कहा
तब तक इसी तरह
बातों में चलते रहो
इसके बाद...
वादों की दुनिया में
धोखा खाने के लिए
कुछ भी नहीं होगा
और कल जब भाषा...
भूख का हाथ छुड़ाकर
चमत्कारों की ओर वापस चली जाएगी
मैं तुम्हें बातों से उठाकर
आँतों में फेंक दूँगा
वहाँ तुम...
किसी सही शब्द की बगल में
कविता का समकालीन बनकर
खड़े रहना
दस्ते पर हाथ फेरते हुए
मैंने चाकू से कहा

10. सिलसिला

हवा गरम है
और धमाका एक हलकी-सी रगड़ का
इंतज़ार कर रहा है
कठुआये हुए चेहरों की रौनक
वापस लाने के लिए
उठो और हरियाली पर हमला करो
जड़ों से कहो कि अंधेरे में
बेहिसाब दौड़ने के बजाय
पेड़ों की तरफदारी के लिए
ज़मीन से बाहर निकल पड़े
बिना इस डर के कि जंगल
सूख जाएगा
यह सही है कि नारों को
नयी शाख नहीं मिलेगी
और न आरा मशीन को
नींद की फुरसत
लेकिन यह तुम्हारे हक में हैं
इससे इतना तो होगा ही
कि रुखानी की मामूली-सी गवाही पर
तुम दरवाज़े को अपना दरवाज़ा
और मेज़ को
अपनी मेज कह सकोगे।

11. हरित क्रांति

इतनी हरियाली के बावजूद
अर्जुन को नहीं मालूम उसके गालों की हड्डी क्यों
उभर आई है । उसके बाल
सफ़ेद क्यों हो गए हैं ।
लोहे की छोटी-सी दुकान में बैठा हुआ आदमी
सोना और इतने बड़े खेत में खड़ा आदमी
मिट्टी क्यों हो गया है ।

12. वापसी

मेरे घर में पाँच जोड़ी आँखें हैं
माँ की आँखें
पड़ाव से पहले ही
तीर्थ-यात्रा की बस के
दो पंचर पहिये हैं।

पिता की आँखें...
लोहसाँय-सी ठंडी शलाखें हैं।
बेटी की आँखें... मंदिर में दीवट पर
जलते घी के
दो दिये हैं।

पत्नी की आँखें, आँखें नहीं
हाथ हैं, जो मुझे थामे हुए हैं।
वैसे हम स्वजन हैं,
करीब हैं
बीच की दीवार के दोनों ओर
क्योंकि हम पेशेवर गरीब हैं।
रिश्ते हैं,
लेकिन खुलते नहीं हैं।
और हम अपने खून में इतना भी लोहा
नहीं पाते
कि हम उससे एक ताली बनाते
और भाषा के भुन्नासी ताले को खोलते
रिश्तों को सोचते हुए
आपस मे प्यार से बोलते

कहते कि ये पिता हैं
यह प्यारी माँ है,
यह मेरी बेटी है
पत्नी को थोड़ा अलग
करते...तू मेरी
हमबिस्तर नहीं...मेरी
हमसफ़र है

हम थोड़ा जोखिम उठाते
दीवार पर हाथ रखते और कहते...
यह मेरा घर है

13. लोहसाँय

ठेलू ठीहे पर जाता है
और जुगाड़ जमाता है
काँटा काँटे पर फिट हो रहा है
कील से कील भिढ़ रही है
न सूत भर इधर
न सूत भर उधर
यह रहा कमासुत हथौड़ा...
बजर हनता है
छेनी संड़ासी में ऐसे तनी है
जैसे गुदार माँस में धँसा हुआ दाँत
पेंच जहाँ ढीले थे, थर दिए गए हैं
मशीन बिलकुल तैयार है
खराद के लिए
मगर कहाँ है बिलाक
नकशा कहाँ है
कहाँ है औजारों की बाँक
और सबसे ज़रूरी-सधे हुए हाथ
कहाँ है
रोटी कितने मशक्कत से मिलती है
इस पैने वक्त
जबकि चीज़ें बेशुमार
बनैली शक्लों में बदल रही हैं
और लोहा जहाँ गलत मुड़ गया है
ठोंक कर ठीक हो सकता है
पलटू टेम पर नहीं आता
ठेलू को मिस्त्री से शिकायत है
ठेलू ठीहे पर जाता है
धुकनी की मरी हुई खाल को
निहारता है
बुझे हुए कोयले छाँटकर
भाठी धधकता है
लोहसाँय चालू होती है
एक एक कर आते हैं किसान
खेतिहर... मजूर
गाँव गिराँव से
सलाम-रमरम्मी के बाद
ठेलू फरगता है फाल
गड़सा, खुरपी, कुदाल
हँसी मजाक, बतकही चलती रहती है
इसी के दौरान
इधर उधर देखकर
धीरे से कहता है टकू बनिहार
...'हँसुये पर ताव जरी ठीक तरे देना
कि धार मुड़े नहीं आजकल
छिनार निहाई ने
लोहे को मनमाफिक हनने के लिए
हथोड़े से दोस्ती की है,
सब ठठाकर हँसते हैं
ठेल मतलब दहाकर मुसकाता है
और आँच लहकाता है।

14. रात्रि-भाषा

हाथों की भाषा
आँखों के संकेत
अच्छी तरह जानते हैं दोस्त !

दुश्मन की बेचैनी हर जगह
हथियार से टटोल रही है
यह है पेट
अंतडियाँ यहाँ हैं

भूख के आँसू ? इन्हें चलने दो ?
और यह रहा-- गुस्सा
हड़कम्प तेवर
आदमी होने की बान
इसे जाम करो ?

15. ...... (लोकतन्त्र के इस अमानवीय)

"लोकतन्त्र के
इस अमानवीय संकट के समय
कविताओं के ज़रिए
मैं भारतीय
वामपंथ के चरित्र को
भ्रष्ट होने से बचा सकूंगा ।" एकमात्र इसी विचार
से मैं रचना करता हूँ अन्यथा यह इतना दुस्साध्य
और कष्टप्रद है कि कोई भी व्यक्ति
अकेला होकर मरना पसन्द करेगा
बनिस्बत इसमें आकर
एक सार्वजनिक और क्रमिक
मौत पाने के ।

16. भूख

गेहूँ की पौध में टपकती हुई लार
लटे हुए हाथ की
आज की बालियों के सेहत पूछती है।

कोई नारा नहीं, न कोई सीख
सांत्वना के बाहर एक दौड़ती ज़रूरत
चाकू की तलाश में मुट्ठियाँ खोलती है फैली हुई
हथेली पर रख देती है...
एक छापामार संकेत
सफ़र रात में तै करना है।

आततायी की नींद
एतवार का माहौल बना रही है
लोहे की जीभ : उचारती है
कविता के मुहावरे
ओ आग! ओ प्रतिकार की यातना!!
एक फूल की कीमत
हज़ारों सिसकियों ने चुकाई है।

भूख की दर्शक-दीर्घा से कूदकर
मरी हुई आँतों का शोर
अकाल की पर्चियाँ फेंकता है।

आ मेरे साथ, आ मेरे साथ आ!
हड़ताल का रास्ता हथियार के रास्ते से
जुड़ गया है।
पिता की पसलियों से माँ की आँखों से गुज़र
भाई के जबड़े से होती हुई मेरे बेटे की तनी हुई
मुट्ठी में आ! उतर! आ!
ओ आटे की शीशा!
चावल की सिटकी!
गाड़ी की अदृश्य तक बिछी हुई रेल
कोशिश की हर मुहिम पर
मैं तुम्हें खोलूँगा फिश-प्लेट की तरह
बम की तरह दे मारूँगा तेरे ही राज पर
बीन कर फेंक दूँगा
मेहनतकश की पसलियों पर
तेरा उभार बदलाव को साबित करता है
जैसे झोंपड़ी के बाहर
नारंगी के सूखे छिलके बताते हैं :
अंदर एक मरीज़ अब
स्वस्थ हो रहा है
ओ क्रांति की मुँहबोली बहन!
जिसकी आंतों में जन्मी है
उसके लिए रास्ता बन

17. प्रस्ताव

लिखो बसंत!
ठीक-बस-अंत लिखो।
हवा और रक्त की हरकत का रुख
सूरज की तरफ़ है
सूरज का रुख है तुम्हारे चेहरे की ओर

ए झुकी हुई गरदन!
थुक्का ज़िंदगी!!
तुम्हारा चेहरा किधर है

क्या सचमुच तुम्हारे गुस्से की बगल में
खड़ा हो रहा है पत्तों में
बजता हुआ चाकुओं का शोर?

तब लिखो बसंत
पेड़ पर नहीं
चेहरों पर लिखो!
मैंने कहा... खून सनी अँगुलियों
और अभाव के बीच
हमले का खुला निशान है ए साथी!
जब खून में दौड़ती है आग
चेहरा आँसू से धुलता है
उस वक्त इतिहास का हरेक घाव
तजुरबे की दीवार में
मुक्के-सा खुलता है ए साथी!

तुमने कहा...
दुर्घटनाओं का सिलसिला

जारी है भूख
हडि्डयों में बज रही है।
पत्तियों की चीख के बावजूद
पेड़ों को वन महोत्सव से
बाहर कर दिया गया है।
फिर भी लिखो बसंत

यह रक्त का रंग है
वक्त की आँख है
पत्थर पर घिसे हुए शस्त्र की
भभकवाले मेरे उत्तेजित आदिवासी विचार

रुको और देखो हवा का रुख
पैनाये हुए सारे तीर और तरकश
टिका दो यहाँ...
ठीक-यहाँ-कविताओं में

राजनीतिक हत्याओं का प्रस्ताव
अमूमन, स्वीकृत है
और पहली बार
आत्महीनता के खिलाफ़
हिंसा ने
पहल की है।

18. मैमन सिंह

आप चौके में
प्याज काटती हुई बेगम के
रजिया आँसू देखेंगे
और चापलूसी में साबुत लौकी पर
चक्कू फटकारते हुए कहेंगे
ऐसे काटते हैं बहादुर नौजवान
दुश्मन का सिर - ऐसे काटते हैं
भौंचक पत्नी के सामने
युद्ध के पूर्वाभ्यास के लिए
रसोई घर से उत्तम दूसरी जगह नहीं है
फिर आप इतमीनान से नास्ता करेंगे
इसके बाद सड़क पर आवेंगे
जै हिंद न्यूयार्क!
बांगलदेश जै हिंद!!
आमी तोमार भालो बासी - जै हिंद
लेकिन उस वक्त आप क्या करेंगे
जब वापस लौटते हुए गली के मोड़ पर
मैमन सिंह मिलेंगे
खालीहाथ, खाली पेट
क्या आप उन्हें अपने घर लाएँगे?
माना कि ज़हमत उठाएँगे
लेकिन मैमनसिंह सोएँगे कहाँ?
माना कि आपने उसे जबसे चौका दिया है
बिना बच्चे के पांच वर्ष बीतने के बावजूद
उस औरत ने न कभी शिकायत की है,
और न अपने चरित्र पर शक करने का
मौका दिया है।
मैमनसिंह घर में खायेंगे
धर्मशाला में सोयेंगे
सात दिन मैमन सिंह उदास रहेंगे
आप उन्हें सांत्वना देंगे
सहानुभूति के नाम पर
बचे हुए को बाँटने का सुख सहेंगे
लेकिन आँठवें दिन एक चमत्कार होगा
मैमनसिंह मुस्कराएँगे, वे बिना पूछे
आपकी जेब से पैसे निकालेंगे।
और सनीमा चले जाएँगे
नवें दिन आपकी कमीज़ गायब होगी
दसवें दिन आप देखेंगे कि आपकी
सोने की बटन
मैमनसिंह के काज की शोभा
बढ़ा रही है, मैमनसिंह की अंगुली में पड़ी
आपकी अंगूठी आपका मुँह चिढ़ा रही है।
और अब क्या ख्याल है
आज आपको शीशा नहीं मिल रहा है
कल आप पाते हैं कि कंघी में
खांची भर रूसी है, झौवा भर बाल हैं
मैमनसिंह! मैमनसिंह!!
तुम्हें क्या हो गया है
तुम मुझे चिथड़ों की ओर क्यों घसीट रहे हो?
तुम मेरे चमड़े का हल्ला क्यों पीट रहे हो?
मैमनसिंह! तुम मेरी कंघी को
मेरे बालों के खिलाफ़ उकसा रहे हो
तुम मेरी बटनों से खेल रहे हो
मैमनसिंह! तुम मुझे खा रहे हो।
मैमनसिंह तुम! मैमनसिंह!!
साले शरणार्थी!

तुम आदमी नहीं अजदहे हो
इस तरह आप जब अपनी घरऊँ औकात के साथ
ज़मीर की लड़ाई लड़ेंगे
तब केवल जै हिंद नहीं... अपने दिलवालियेपन से निपटने के लिए
आपको दूसरे उत्तर भी ढूँढ़ने पड़ेंगे
और उस वक्त आप क्या करेंगे?
फिलहाल, जब मुहावरा गर्म है,
एक देश को स्वीकृति देना
एक आदमी को स्वीकृति देने से
कठिन नहीं है।

19. लोकतंत्र

वे घर की दीवारों पर नारे
लिख रहे थे
मैंने अपनी दीवारें जेब में रख लीं


उन्होंने मेरी पीठ पर नारा लिख दिया
मैंने अपनी पीठ कुर्सी को दे दी
और अब पेट की बारी थी
मै खूश था कि मुझे मंदाग्नि की बीमारी थी
और यह पेट है


मैने उसे सहलाया
मेरा पेट
समाजवाद की भेंट है
और अपने विरोधियों से कहला भेजा
वे आएं- और साहस है तो लिखें,
मै तैयार हूं


न मैं पेट हूं
न दीवार हूं
न पीठ हूं
अब मै विचार हूं।

20. मैंने घुटने से कहा

मैंने उसकी वरज़िश करते हुए कहा - प्यारे घुटने
तुम्हें सत्तर वर्ष चलना था
और तुम अभी स चोट खा गए
जबकि अभी '70 है । तुम्हें
भाषा के दलिद्दर से उबरना तुम्हें और
सारी कौम का सपना बनना था

कविता में कितना जहर है और कितना देश
अपनी गरीबी की मार का मुँह तोड़ने के लिए
एक शब्द कितना कारगर होता है ।
तुम्हें यह सवाल तय करना था ।

अपनी भूख और बेकारी और नींद को
साहस की चौकी पर रख दो
और देखो कि दीवार पर उसका
क्या असर होता है ।

गुस्से का रंग नीला या जोगिया
गुस्से का रंग बैंगनी या लाल
गुस्से का एक रंग ठीक उस तरह जैसे ख़ुसरो गुस्सा
या गुस्सा कंगाल

20 मादा कविताएँ

21. पत्नी के लिए

देह तो आत्मा तक जाने के लिए सुरंग है ।
रास्ता है ।
तुम्हारी उंगलियाँ जैसे कविता की
गतिशील पंक्तियाँ हैं ।
तुम्हारी आँखें कविता की गम्भीर
किन्तु कोमल कल्पना है
तुम्हारा चेहरा
जैसे कविता की
ज़मीन है
तुम एक सुन्दर और सार्थक
कविता हो मेरे लिए ।

22. सत्यभामा

सूर्योदय :

घोड़े के टाप के नीचे
नींद का कुचला हुआ चेहरा है
और मुँह के फीके स्वाद में
एक सपना तैर रहा है ।

अपने दाँतों के नीचे से खींचकर निकालता हूँ
रात की नंगी देह
जहाँ ख़बर होने से पहले ही
शहर ख़त्म हो चुका है । उबासियों में ऊंघते
तुम्हारे नितम्ब
फून की तरह, युवा नज़रों के इशारे पर
टंकित करते हैं ।

"हलो हलो" करते हुए ।
देह के अंधेरे में
नीली नस नाड़ियों वाला,

उत्तेजित चमड़ा चिल्लाता है
और मेरी जांघें, भाषा के खिलाफ़--
शहर-कानून का उल्लंघन करती हैं ।

खिड़की से कुछ पूछता है पेड़
और लड़की से कुछ
युवा लड़का पूछता है
क्या दोनों एक ही सवाल
पूछते हैं ?

23. पुरबिया सूरज

पुरबिया सूरज
एक लम्बी यात्रा से लौट
पहाड़ी नदी में घोड़ों को धोने के बाद
हाँक देता है काले जंगलों में चरने के लिए
और रास्ते में देखे गए दृश्यों को
घोंखता है ।

चांद

पेड़ के तने पर चमकता है
जैसे जीन से लटकती हुई हुक
और रेवा के किनारे

मैं द्रविड़ की देह से बहता लहू हूँ
मैं अनार्यो का लहू हूँ
नींद में जैसे
छुरा भोंका गया ।

24. पाँचवे पुरखे की कथा

उनके लिए पूजा-पाठ :
केवल ढकोसला था
ऎसे अहिंसक कि--
उनकी बन्दूक में
बया का घोंसला था
ऎसे थे संयमी कि--
औरत जो एक बार
जांघ से उतर गई
उनके लिए मर गई
चतुरी चमार की
लटुरी पतौह को

xxxxxxxxx
रात भर जूझते हैं देह के अंधेरे में
और सुबह हम अपनी
खाइयाँ
बदल लेते हैं ।

xxxxxxxxx
अगर वह अपनी छाती पर एक कील
गाड़ने दे तो सोचता हूँ--
उस भूखे लड़के की देह पर एक तख़्ती लटका
दूँ ।
"यह 'संसद' है--
यहाँ शोर करना सख्त मना है ।"

25. स्त्री

मुझे पता है
स्त्री--
देह के अंधेरे में
बिस्तर की
अराजकता है ।
स्त्री पूंजी है
बीड़ी से लेकर
बिस्तर तक
विज्ञापन में फैली हुई ।

26. ... (अन्त में हमने तय किया)

अन्त में हमने तय किया अपनी टांगें
अब शरीक नहीं करेंगे हम अपनी
दिनचर्या में अपने बिस्तर की
सेहत के लिए

प्रार्थना करेंगे
चमड़े की जिल्द मे बंधी हुई अपनी मुहब्बत
का मज़ा
रोज़मर्रा के ख़र्च में जमा करते हुए ।

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