श्री गुरुदेव का अंग : संत दादू दयाल जी

Sri Gurudev Ka Ang : Sant Dadu Dayal Ji

दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
परब्रह्म परापरं, सो मम देव निरंजनं।
निराकारं निर्मलं, तस्य दादू वन्दनं।।2।।
दादू गैब माँहि गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद।
मस्तक मेरे कर धारया, दख्या अगम अगाध।।3।।
दादू सद्गुरु सहज में, कीया बहु उपकार।
निर्धन अनवँत कर लिया, गुरु मिलिया दातार।।4।।
दादू सद्गुरु सूं सहजैं मिल्या, लीया कंठ लगाइ।
दया भई दयालु की, तब दीपक दिया जगाइ।।5।।
दादू देखु दयालु की, गुरु दिखाई बाट।
ताला कूंची लाइ करि, खोले सबै कपाट।।6।।
दादू सद्गुरु अंजन बाहिकर, नैन पटल सब खोले।
बहरे कानों सुनने लागे, गूंगे मुख सों बोले।।7।।
सद्गुरु दाता जीव का, श्रवण शीश कर नैन।
तन मन सौंज सँवारि सब, मुख रसना अरु बैन।।8।।
राम नाम उपदेश करि, अगम गवन यहु सैन।
दादू सद्गुरु सब दिया, आप मिलाये अैन।।9।।
सद्गुरु कीया फेरिकर, मन का औरै रूप।
दादू पंचों पलट कर, कैसे भये अनूप।।10।।

साचा सद्गुरु जे मिले, सब साज सँवारै।
दादू नाव चढ़ाय कर, ले पार उतारै।।11।।
सद्गुरु पशु मानुष करै, मानुष तैं सिध्द सोइ।
दादू सिध्द तैं देवता, देव निरंजन होइ।।12।।
दादू काढ़े काल मुख, अंधो लोचन देय।
दादू ऐसा गुरु मिल्या, जीव ब्रह्म कर लेय।।13।।
दादू काढ़े काल मुख, श्रवणहु शब्द सुनाय।
दादू ऐसा गुरु मिल्या, मृतक लिये जिवाय।।14।।
दादू काढ़े काल मुख, गूंगे लिये बुलाय।
दादू ऐसा गुरु मिल्या, सुख में रहे समाय।।15।।
दादू काढ़े काल मुख, महर दया कर आय।
दादू ऐसा गुरु मिल्या, महिमा कही न जाय।।16।।
सद्गुरु काढ़े केश गहि, डूबत इहि संसार।
दादू नाव चढ़ायकरि, कीये पैली पार।।17।।
भव सागर में डूबतां, सद्गुरु काढ़े आय।
दादू खेवट गुरु मिल्या, लीये नाव चढ़ाय।।18।।
दादू उस गुरुदेव की, मैं बलिहारी जाउं।
जहाँ आसन अमर अलेख था, ले राखे उस ठांउं।।19।।
आतम माँहीं ऊपजै, दादू पंगुल ज्ञान।
कृत्रिम जाय उलंघि कर, जहाँ निरंजन थान।।20।।

आत्म बोधा बंझ का बेटा, गुरुमुख उपजै आय।
दादू पंगुल पंच बिन, जहाँ राम तहँ जाय।।21।।
साचा सहजैं ले मिले, शब्द गुरु का ज्ञान।
दादू हमकूं ले चल्या, जहाँ प्रीतम का स्थान।।22।।
दादू शब्द विचार करि, लागि रहै मन लाय।
ज्ञान गहैं गुरुदेव का, दादू सहज समाय।।23।।
दादू सद्गुरु शब्द सुनाय कर, भावै जीव जगाय।
भावै अन्तर आप कहि, अपने अंग लगाय।।24।।
दादू बाहर सारा देखिए, भीतर कीया चूर।
सद्गुरु शब्दों मारिया, जाण न पावे दूर।।25।।
दादू सद्गुरु मारे शब्द सों, निरखि निरखि निज ठौर।
राम अकेला रह गया, चित्ता न आवे और।।26।।
दादू हम को सुख भया, साधा शब्द गुरु ज्ञान।
सुधि बुधि सोधी समझि करि, पाया पद निर्वान।।27।।
दादू शब्द बाण गुरु साधु के, दूर दिशंतर जाय।
जिहिं लागे सो ऊबरे, सूते लिये जगाय।।28।।
सद्गुरु शब्द मुख सों कह्या, क्या नेड़े क्या दूर।
दादू सिख श्रवणों सुन्या, सुमिरन लागा सूर।।29।।
शब्द दूधा, घृत राम रस, मथ कर काढ़े कोइ।
दादू गुरु गोविन्द बिन, घट-घट समझ न होइ।।30।।

शब्द दूधा घृत राम रस, कोइ साधु बिलोवणहार।
दादू अमृत काढ़ ले, गुरुमुख गहै विचार।।31।।
घीव दूधा में रम रह्या, व्यापक सब ही ठौर।
दादू बकता बहुत है, मथि काढ़े ते और।।32।।
कामधोनु घट जीव है, दिन-दिन दुर्बल होय।
गोरू ज्ञान न उपजै, मथि नहिं खाया सोय।।33।।
साचा समरथ गुरु मिल्या, तिन तत दिया बताय।
दादू मोटा महाबली, घट घृत मथिकर खाय।।34।।
मथि करि दीपक कीजिए, सब घट भया प्रकास।
दादू दीया हाथ करि, गया निरंजन पास।।35।।
दीयै दीया कीजिए, गुरुमुख मारग जाय।
दादू अपने पीव का, दरशन देखै आय।।36।।
दादू दीया है भला, दिया करो सब कोइ।
घर में धारया न पाइये, जे कर दिया न होइ।।37।।
दादू दीये का गुण ते लहैं, दीया मोटी बात।
दीया जग में चाँदणा, दीया चाले साथ।।38।।
निर्मल गुरु का ज्ञान गहि, निर्मल भक्ति विचार।
निर्मल पाया प्रेम रस, छूटे सकल विकार।।39।।
निर्मल तन मन आत्मा, निर्मल मनसा सार।
निर्मल प्राणी पंच करि, दादू लंघे पार।।40।।

परापरी पासै रहै, कोई न जाणै ताहि।
सद्गुरु दिया दिखाय करि, दादू रह्या ल्यौ लाय।।41।।
जिन हम सिरजे सो कहाँ, सद्गुरु देहु दिखाय।
दादू दिल अरवाह का, तहँ मालिक ल्यौ लाय।।42।।
मुझ ही में मेरा धाणी, पड़दा खोल दिखाय।
आतम सौं परमातमा, परगट आणि मिलाय।।43।।
भरि-भरि प्याला प्रेम रस, अपने हाथ पिलाय।
सद्गुरु के सदिकै किया, दादू बलि-बलि जाय।।44।।
सरवर भरिया दह दिशा, पंखी प्यासा जाय।
दादू गुरु परसाद बिन, क्यों जल पीवे आय।।45।।
मान-सरोवर मांहि जल, प्यासा पीवे आय।
दादू दोष न दीजिए, घर-घर कहण न जाय।।46।।
दादू गुरु गरवा मिल्या, ताथैं सब गम होय।
लोहा पारस परसतां, सहज समाना सोय।।47।।
दीन गरीबी गहि रह्या, गरवा गुरु गंभीर।
सूक्षम शीतल सुरति मति, सहज दया गुरु धीर।।48।।
सोधी दाता पलक में, तिरै तिरावण जोग।
दादू ऐसा परम गुरु, पाया किहिं संजोग।।49।।
दादू सद्गुरु ऐसा कीजिए, राम रस माता।
पार उतारे पलक में, दर्शन का दाता।।50।।

देवे किरका दरद का, टूटा जोड़े तार।
दादू सांधो सुरति को, सो गुरु पीर हमार।।51।।
दादू घायल होय रहे, सद्गुरु के मारे।
दादू अंग लगाय करि, भव सागर तारे।।52।।
दादू साचा गुरु मिल्या, साचा दिया दिखाइ।
साचे को साचा मिल्या, साचा रह्या समाइ।।53।।
साचा सद्गुरु सोधिले, साँचे लीजे साध।
साचा साहिब सोधि कर, दादू भक्ति अगाध।।54।।
सन्मुख सद्गुरु साधु सौं, सांई सौं राता।
दादू प्याला प्रेम का, महा रस माता।।55।।
सांई सौं साचा रहै, सद्गुरु सौं शूरा।
साधू सौं सन्मुख रहै, सो दादू पूरा।।56।।
सद्गुरु मिलै तो पाइये, भक्ति मुक्ति भण्डार।
दादू सहजैं देखिए, साहिब का दीदार।।57।।
दादू सांई सद्गुरु सेविये, भक्ति मुक्ति फल होय।
अमर अभय पद पाइये, काल न लागे कोय।।58।।
इक लख चन्दा आण घर, सूरज कोटि मिलाय।
दादू गुरु गोविंद बिन, तो भी तिमर न जाय।।59।।
अनेक चंद उदय करे, असंख्य सूर प्रकास।
एक निरंजन नाम बिन, दादू नहीं उजास।।60।।

दादू कदि यहु आपा जायगा, कदि यहु बिसरे और।
कदि यहु सूक्षम होयगा, कदि यहु पावे ठौर।।61।।
विषम दुहेला जीव को, सद्गुरु तैं आसान।
जब दरवे तब पाइये, नेड़ा ही अस्थान।।62।।
दादू नैन न देखे नैन को, अन्तर भी कुछ नाँहि।
सद्गुरु दर्पण कर दिया, अरस परस मिल माँहि।।63।।
घट-घट राम रतन है, दादू लखे न कोइ।
सद्गुरु शब्दों पाइये, सहजैं ही गम होइ।।64।।
जब ही कर दीपक दिया, तब सब सूझन लाग।
यूं दादू गुरु ज्ञान तैं, राम कहत जन जाग।।65।।
दादू मन माला तहाँ फेरिये, जहाँ दिवस न परसे रात।
तहाँ गुरु बानाँ दिया, सहजै जपिये तात।।66।।
दादू मन माला तहाँ फेरिये, जहाँ प्रीतम बैठे पास।
आगम गुरु तैं गम भया, पाया नूर निवास।।67।।
दादू मन माला तहँ फेरिये, जहाँ आपै एक अनन्त।
सहजै सो सद्गुरु मिल्या, जुग-जुग फाग बसन्त।।68।।
दादू सद्गुरु माला मन दिया, पवन सुरति सूँ पोइ।
बिन हाथों निश दिन जपै, परम जाप यूँ होइ।।69।।
दादू मन फकीर मांही हुआ, भीतर लीया भेख।
शब्द गहै गुरुदेव का, माँगे भीख अलेख।।70।।

दादू मन फकीर सद्गुरु किया, कहि समझाया ज्ञान।
निश्चल आसन बैस कर, अकल पुरुष का धयान।।71।।
दादू मन फकीर जग तैं रह्या, सद्गुरु लीया लाय।
अहनिशि लागा एक सौं, सहज शून्य रस खाय।।72।।
दादू मन फकीर ऐसे भया, सद्गुरु के परसाद।
जहाँ का था लागा तहाँ, छूटे वाद विवाद।।73।।
ना घर रह्या न वन गया, ना कुछ किया कलेश।
दादू मनहीं मन मिल्या, सद्गुरु के उपदेश।।74।।
दादू यहु मसीत यहु देहुरा, सद्गुरु दिया दिखाय।
भीतरि सेवा बन्दगी, बाहर काहे जाय।।75।।
दादू मंझे चेला मंझे गुरु, मंझे ही उपदेश।
बाहरि ढ़ूढ़ैं बावरे, जटा बधाये केश ।।76।।
मन का मस्तक मूंडिये, काम-क्रोध के केश।
दादू विषै विकार सब, सद्गुरु के उपदेश।।77।।
दादू पड़दा भरम का, रह्या सकल घट छाय।
गुरु गोविन्द कृपा करैं, तो सहजैं ही मिट जाय।।78।।
जिहिं मत साधु उध्दरैं, सो मत लीया शोध।
मन लै मारग मूल गहि, यह सद्गुरु का परमोध।।79।।
दादू सोई मारग मन गह्या, जिहिं मारग मिलिये जाय।
वेद कुरानों ना कह्या, सो गुरु दिया दिखाय।।80।।

मन भुवंग यहु विष भरया, निर्विष क्यौं ही न होइ।
दादू मिल्या गुरु गारुड़ी, निर्विष कीया सोइ।।81।।
एता कीजे आप तैं, तन मन उनमनि लाय।
पंच समाधी राखिये, दूजा सहज सुभाय।।82।।
दादू जीव जंजालौं पड़ गया, उलझा नौ मण सूत।
कोई इक सुलझे सावधान, गुरु बाइक अवधूत।।83।।
चंचल चहुँ दिशि जात है, गुरु बाइक सों बंधि।
दादू संगति साधु की, पार-ब्रह्म सों संधि।।84।।
गुरु अंकुश माने नहीं, उदमद माता अंधा।
दादू मन चेतै नहीं, काल न देखै फंधा।।85।।
दादू मारया बिन माने नहीं, यह मन हरि की आन।
ज्ञान खड़ग गुरुदेव का, ता संग सदा सुजान।।86।।
जहाँ तैं मन उठि चले, फेरि तहाँ ही राखि।
तहँ दादू लै लीन करि, साधु कहें गुरु साखि।।87।।
दादू मन ही सूं मल ऊपजै, मन ही सूं मल धोय।
सीख चले गुरु साधु की, तो तू निर्मल होय।।88।।
दादू कच्छब अपने कर लिये, मन इन्द्रिय निजठौर।
नाम निरंजन लागि रहु, प्राणी परहरि और।।89।।
मन के मतै सब कोइ खेले, गुरुमुख विरला कोइ।
दादू मन की माने नहीं, सद्गुरु का शिष्य सोइ।।90।।

सब जीवों को मन ठगै, मन को विरला कोइ।
दादू गुरु के ज्ञान सौं, सांई सन्मुख होइ।।91।।
दादू एक सूं लै लीन होना, सबै सयानप येह।
सद्गुरु साधु कहत हैं, परम तत्तव जप लेह।।92।।
सद्गुरु शब्द विवेक बिन, संयम रहा न जाय।
दादू ज्ञान विचार बिन, विषय हलाहल खाय।।93।।
घर-घर घट कोल्हू चले, अमीं महा रस जाय।
दादू गुरु के ज्ञान बिन, विषय हलाहल खाय।।94।।
सद्गुरु शब्द उलंघ करि, जिन कोई शिष्य जाय।
दादू पग-पग काल है, जहाँ जाइ तहँ खाय।।94।।
सद्गुरु बरजे शिष्य करे, क्यों कर बंचे काल।
दह दिशि देखत बहि गया, पाणी फोड़ी पाल।।96।।
दादू सद्गुरु कहै सु शिष्य करे, सब सिध्द कारजहोय।
अमर अभय पद पाइये, काल न लागे कोय।।97।।
दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो हम तैं जिन होइ।
सद्गुरु लाजे आपणा, साधु न माने कोइ।।98।।
दादू 'हूं' की ठाहर 'है' कहो, 'तन' की ठाहर 'तूं'।
'री' की ठाहर 'जी' कहो, ज्ञान गुरु का यूँ।।99।।
दादू पंच स्वादी पंच दिशि, पंचे पंचों बाट।
तब लग कह्या न कीजिये, गह गुरु दिखाया घाट।।100।।

दादू पंचों एक मत, पंचों पूरया साथ।
पंचों मिल सन्मुख भये, तब पंचों गुरु की बाट।।101।।
दादू ताता लोहा तिणे सूँ, क्यों कर पकडया जाय।
गहन गति सूझे नहीं, गुरु नहीं बूझे आय।।102।।
दादू अवगुण गुण कर माने गुरु के, सोई शिष्य सुजान।
सद्गुरु अवगुण क्यों करे, समझे सोई सयान।।103।।
सोने सेती वैर क्या, मारे घण के घाइ।
दादू काट कलंक सब, राखे कंठ लगाइ।।104।।
पाणी माँही राखिये, कनक कलंक न जाइ।
दादू गुरु के ज्ञान सौं, ताइ अग्नि में बाहि।।105।।
दादू माँही मीठा हेत कर, ऊपर कड़वा राखि।
सद्गुरु शिष्य को सीख दे, सब साधूं की साखि।।106।।
दादू कहे शिष्य भरोसे आपणै, ह्नै बोली हुसियार।
कहेगा सो बहेगा, हम पहली करैं पुकार।।107।।
दादू सद्गुरु कहैं सु कीजिये, जे तूं शिष्य सुजान।
जहाँ लाया तहाँ लाग रहु, बूझे कहाँ अजान।।108।।
गुरु पहले मन सौं कहैं, पीछे नैन की सैन।
दादू शिष्य समझैं नहीं, कहि समझावै बैन।।109।।
कहे लखे सो मानवी, सैन लखे सो साध।
मन की लखे सु देवता, दादू अगम अगाध।।110।।

दादू कहि-कहि मेरी जीभ रही, सुन-सुन तेरे कान।
सद्गुरु बपुरा क्या करे, जो चेला मूढ़ अजान।।111।।
एक शब्द सब कुछ कह्या, सद्गुरु शिष्य समझाय।
जहँ लाया तहँ लागे नहीं, फिर-फिर बूझे आय।।112।।
ज्ञान लिया सब सीख सुनि, मन का मैल न जाय।
गुरु बिचारा क्या करे, शिष्य विषय हलाहल खाय।।113।।
सद्गुरु की समझे नहीं, अपने उपजे नाँहि।
तो दादू क्या कीजिए, बुरी व्यथा मन माँहि।।114।।
गुरु अपंग पग पंख बिन, शिष्य शाखा का भार।
दादू खेवट नाव बिन, क्यों उतरेंगे पार।।115।।
दादू संशा जीव का, शिष्य शाखा का साल।
दोनों को भारी पड़ी, होगा कौन हवाल।।116।।
अंधो अंधा मिल चले, दादू बन्धा कतार।
कूप पड़े हम देखते, अंधो अंधा लार।।117।।
सोधी नहीं शरीर की, औरों को उपदेश।
दादू अचरज देखिया, ये जाँयेंगे किस देश।।118।।
सोधी नहीं शरीर की, कहैं अगम की बात।
जान कहावें बापुड़े, आयुधा लीये हाथ।।119।।
दादू माया मांहैं काढ़ि कर, फिर माया में दीन्ह।
दोऊ जन समझै नहीं, एको काज न कीन्ह।।120।।

दादू कहै सो गुरु किस काम का, गहि भरमावे आन।
तत्तव बतावे निर्मला, सो गुरु साधु सुजान।।121।।
तूं मेरा हूँ तेरा, गुरु शिष्य कीया मंत।
दोनों भूले जात हैं, दादू विसरा कंत।।122।।
दुहि-दुहि पीवे ग्वाल गुरु, शिष्य है छेली गाय।
यह अवसर यों ही गया, दादू कहि समझाय।।123।।
शिष गोरू गुरु ग्वाल है, रक्षा कर कर लेय।
दादू राखे जतन करि, आनि धाणी को देय।।124।।
झूठे अंधो गुरु घणे, भरम दिढ़ावें आय।
दादू साचा गुरु मिले, जीव ब्रह्म हो जाय।।125।।
झूठे अंधो गुरु घणे, बंधो विषय विकार।
दादू साचा गुरु मिले, सन्मुख सिरजनहार।।126।।
झूठे अंधो गुरु घणे, भरम दिढ़ावें काम।
बंधो माया मोह सों, दादू मुख सों राम।।127।।
झूठे अंधो गुरु घणे, भटकैं घर-घर बार।
कारज को सीझे नहीं, दादू माथे मार।।128।।
दादू भक्त कहावें आपको, भक्ति न जाने भेव।
सपने हीं समझे नहीं, कहाँ बसे गुरुदेव।।129।।
भरम करम जग बंधिया, पंडित दिया भुलाय।
दादू सद्गुरु ना मिले, मारग देइ दिखाय।।130।।

दादू पंथ बतावें पाप का, भरम कर्म विश्वास।
निकट निरंजन जे रहै, क्यों न बतावें तास।।131।।
दादू आपा उरझे उरझिया, दीसे सब संसार।
आपा सुरझे सुरझिया, यहु ज्ञान विचार।।132।।
साधु का अंग निर्मला, तामें मल न समाय।
परम गुरु परगट कहैं, तातैं दादू ताय।।133।।
राम नाम गुरु शब्द सों, रे मन पेलि भरंम।
निहकरमी सूं मन मिल्या, दादू काटि करंम।।134।।
दादू बिन पायन का पंथ है, क्यों कर पहुँचे प्रान।
विकट घाट औघट खरे, माँहि शिखर असमान।।135।।
मन ताजी चेतन चढ़े, ल्यौ की करे लगाम।
शब्द गुरु का ताजणा, कोई पहुँचे साधु सुजान।।136।।
साधों सुमिरण सो कह्या, जिहिँ सुमिरण आपा भूल।
दादू गहि गम्भीर गुरु, चेतन आनँद मूल।।137।।
दादू आप सवारथ सब सगे, प्राण सनेही नाँहि।
प्राण सनेही राम है, कै साधु कलि माँहि।।138।।
सुख का साथी जगत् सब, दुख का नाहीं कोइ।
दुख का साथी सांइया, दादू सद्गुरु होइ।।139।।
सगे हमारे साधु हैं, शिर पर सिरजनहार।
दादू सद्गुरु सो सगा, दूजा धांधा विकार।।140।।

दादू के दूजा नहीं, एकै आतम राम।
सद्गुरु शिर पर साधु सब, प्रेम भक्ति विश्राम।।141।।
दादू शुधा बुधा आत्मा, सद्गुरु परसे आय।
दादू भृंगी कीट ज्यौं, देखत ही हो जाय।।142।।
दादू भृंगी ज्यौं, सद्गुरु सेती होय।
आप सरीखे कर लिये, दूजा नाँही कोय।।143।।
दादू कच्छप राखे दृष्टि में कुंजों के मन माँहिं।
सद्गुरु राखे आपणा, दूजा कोई नाँहिं।।144।।
बच्चों के माता पिता, दूजा नाँहीं कोइ।
दादू निपजे भाव सूं, सद्गुरु के घट होइ।।145।।
एकै शब्द अनन्त शिष्य, जब सद्गुरु बोलै।
दादू जड़े कपाट सब, दे कूँची खोलै।।146।।
बिन ही किये होय सब, सन्मुख सिरजनहार।
दादू कर कर को मरे, शिष्य शाखा शिर भार।।147।।
सूरज सन्मुख आरसी, पावक किया प्रकास।
दादू सांई साधु बिच, सहजैं निपजै दास।।148।।
दादू पंचों ये परमोधा ले, इनहीं को उपदेश।
यहु मन अपणा हाथ कर, तो चेला सब देश।।149।।
अमर भये गुरु ज्ञान सौं, केते इहिं कलि माँहि।
दादू गुरु के ज्ञान बिन, केते मरि-मरि जाँहि।।150।।

औषधि खाइ न पछ रहे, विषम व्याधि क्यों जाय।
दादू रोगी बावरा, दोष वैद्य को लाय।।151।।
वैद्य व्यथा कहे देखि कर, रोगी रहे रिसाय।
मन माँही लीये रहै, दादू व्याधि न जाय।।152।।
दादू वैद्य बिचारा क्या करे, रोगी रहे न साँच।
खाटा मीठा चरपरा, माँगे मेरा वाच।।153।।
दुर्लभ दरशन साधु का, दुर्लभ गुरु उपदेश।
दुर्लभ करिबा कठिन है, दुर्लभ परस अलेख।।154।।
दादू अविचल मंत्रा, अमर मंत्रा अखै मंत्रा, अभय मंत्रा, राम मंत्रा, निजसार।
संजीवन मंत्रा, सबीरज मंत्रा, सुंदर मंत्रा, शिरोमणिमंत्रा, निर्मल मंत्रा, निराकार।
अलख मंत्रा, अकल मंत्रा, अगाधा मंत्रा, अपार मंत्रा, अनंत मंत्रा, राया।
नूर मंत्रा, तेज मंत्रा, ज्योति मंत्रा, प्रकाश मंत्रा, परम मंत्रा, पाया।।155।।
दादू सब ही गुरु किये, पशु पंखी बन राय।
तीन लोक गुण पंच सौं, सब ही माँहि खुदाय।।156।।
जो पहली सद्गुरु कह्या, सो नैनहुँ देख्या आइ।
अरस परस मिलि एक रस, दादू रहे समाइ।।157।।
।।इति गुरुदेव का अंग सम्पूर्ण।।

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