श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी

Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji

26. कन्हैया हालरौ हलरोइ

कन्हैया हालरौ हलरोइ ।
हौं वारी तव इंदु-बदन पर, अति छबि अलग भरोइ ॥
कमल-नयन कौं कपट किए माई, इहिं ब्रज आवै जोइ ।
पालागौं बिधि ताहि बकी ज्यौं, तू तिहिं तुरत बिगोइ ॥
सुनि देवता बड़े, जग-पावन, तू पति या कुल कोइ ।
पद पूजिहौं, बेगि यह बालक करि दै मोहिं बड़ोइ ॥
दुतियाके ससि लौं बाढ़े सिसु, देखै जननि जसोइ ॥
यह सुख सूरदास कैं नैननि, दिन-दिन दूनौ हो ॥

राग जैतश्री

27. कर पग गहि, अँगूठा मुख

कर पग गहि, अँगूठा मुख ।
प्रभु पौढ़े पालनैं अकेले, हरषि-हरषि अपनैं रँग खेलत ॥
सिव सोचत, बिधि बुद्धि बिचारत, बट बाढ्यौ सागर-जल झेलत ।
बिडरि चले घन प्रलय जानि कै, दिगपति दिग-दंतीनि सकेलत ॥
मुनि मन भीत भए, भुव कंपित, सेष सकुचि सहसौ फन पेलत ।
उन ब्रज-बसिनि बात न जानी, समझे सूर सकट पग ठेलत ॥

राग बिलावल

28. चरन गहे अँगुठा मुख मेलत

चरन गहे अँगुठा मुख मेलत ।
नंद-घरनि गावति, हलरावति, पलना पर हरि खेलत ॥
जे चरनारबिंद श्री-भूषन, उर तैं नैंकु न टारति ।
देखौं धौं का रस चरननि मैं, मुख मेलत करि आरति ॥
जा चरनारबिंद के रस कौं सुर-मुनि करत बिषाद ।
सो रस है मोहूँ कौं दुरलभ, तातैं लेत सवाद ॥
उछरत सिंधु, धराधर काँपत, कमठ पीठ अकुलाइ ।
सेष सहसफन डोलन लागे हरि पीवत जब पाइ ॥
बढ़यौ बृक्ष बट, सुर अकुलाने, गगन भयौ उतपात ।
महाप्रलय के मेघ उठे करि जहाँ-तहाँ आघात ॥
करुना करी, छाँड़ि पग दीन्हौं, जानि सुरनि मन संस ।
सूरदास प्रभु असुर-निकंदन, दुष्टनि कैं उर गंस ॥

29. जसुदा मदन गोपाल सोवावै

जसुदा मदन गोपाल सोवावै ।
देखि सयन-गति त्रिभुवन कंपै, ईस बिरंचि भ्रमावै ॥
असित-अरुन-सित आलस लोचन उभय पलक परि आवै ।
जनु रबि गत संकुचित कमल जुग, निसि अलि उड़न न पावै ॥
स्वास उदर उससित यौं, मानौं दुग्ध-सिंधु छबि पावै ।
नाभि-सरोज प्रगट पदमासन उतरि नाल पछितावै ॥
कर सिर-तर रि स्याम मनोहर, अलक अधिक सोभावै ।
सूरदास मानौ पन्नगपति, प्रभु ऊपर फन छावै ॥

राग बिहागरौ

30. अजिर प्रभातहिं स्याम कौं, पलिका पौढ़ाए

अजिर प्रभातहिं स्याम कौं, पलिका पौढ़ाए ।
आप चली गृह-काज कौं, तहँ नंद बुलाए ॥
निरखि हरषि मुख चूमि कै, मंदिर पग धारी ।
आतुर नँद आए तहाँ जहँ ब्रह्म मुरारी ॥
हँसे तात मुख हेरि कै, करि पग-चतुराई ।
किलकि झटकि उलटे परे, देवनि-मुनि-राई ॥
सो छबि नंद निहारि कै, तहुँ महरि बुलाई ।
निरखि चरति गोपाल के, सूरज बलि जाई ॥

राग बिलावल

31. हरषे नंद टेरत महरि

हरषे नंद टेरत महरि ।
आइ सुत-मुख देखि आतुर, डारि दै दधि-डहरि ॥
मथति दधि जसुमति मथानी, धुनि रही घर-घहरि ।
स्रवन सुनति न महर बातैं, जहाँ-तहँ गइ चहरि ॥
यह सुनत तब मातु धाई, गिरे जाने झहरि ।
हँसत नँद-मुख देखि धीरज तब कर्‌यौ ज्यौ ठहरि ॥
श्याम उलटे परे देखे, बढ़ी सोभा लहरि ।
सूर प्रभु कर सेज टेकत, कबहुँ टेकत ढहरि ॥

राग रामकली

32. महरि मुदित उलटाइ कै मुख चूमन लागी

महरि मुदित उलटाइ कै मुख चूमन लागी ।
चिरजीवौ मेरौ लाड़िलौ, मैं भई सभागी ॥
एक पाख त्रय-मास कौ मेरौ भयौ कन्हाई ।
पटकि रान उलटो पर्‌यौ, मैं करौं बधाई ॥
नंद-घरनि आनँद भरी, बोलीं ब्रजनारी ।
यह सुख सुनि आई सबै, सूरज बलिहारी ॥

33. जो सुख ब्रज मैं एक घरी

जो सुख ब्रज मैं एक घरी ।
सो सुख तीनि लोक मैं नाहीं धनि यह घोष-पुरी ॥
अष्टसिद्धि नवनिधि कर जोरे, द्वारैं रहति खरी ।
सिव-सनकादि-सुकादि-अगोचर, ते अवतरे हरी ॥
धन्य-धन्य बड़भागिनि जसुमति, निगमनि सही परी ।
ऐसैं सूरदास के प्रभु कौं, लीन्हौ अंक भरी ॥

34. यह सुख सुनि हरषीं ब्रजनारी

यह सुख सुनि हरषीं ब्रजनारी । देखन कौं धाईं बनवारी ॥
कोउ जुवती आई , कोउ आवति । कोउ उठि चलति, सुनत सुख पावति ॥
घर-घर होति अनंद-बधाई । सूरदास प्रभु की बलि जाई ॥

35. जननी देखि, छबि बलि जाति

जननी देखि, छबि बलि जाति ।
जैसैं निधनी धनहिं पाएँ, हरष दिन अरु राति ॥
बाल-लीला निरखि हरषति, धन्य धनि ब्रजनारि ।
निरखि जननी-बदन किलकत, त्रिदस-पति दै तारि ॥
धन्य नँद, धनि धन्य गोपी, धन्य ब्रज कौ बास ।
धन्य धरनी करन पावन जन्म सूरजदास ॥

36. जसुमति भाग-सुहागिनी, हरि कौं सुत जानै

जसुमति भाग-सुहागिनी, हरि कौं सुत जानै ।
मुख-मुख जोरि बत्यावई, सिसुताई ठानै ॥
मो निधनी कौ धन रहै, किलकत मन मोहन ।
बलिहारी छबि पर भई ऐसी बिधि जोहन ॥
लटकति बेसरि जननि की, इकटक चख लावै ।
फरकत बदन उठाइ कै, मन ही मन भावै ॥
महरि मुदित हित उर भरै, यह कहि, मैं वारी ।
नंद-सुवन के चरित पर, सूरज बलिहारी ॥

राग बिलावल

37. गोद लिए हरि कौं नँदरानी

गोद लिए हरि कौं नँदरानी, अस्तन पान करावति है ।
बार-बार रोहिनि कौ कहि-कहि, पलिका अजिर मँगावति है ॥
प्रात समय रबि-किरनि कोंवरी, सो कहि, सुतहिं बतावति है ।
आउ घाम मेरे लाल कैं आँगन, बाल-केलि कौं गावति है ॥
रुचिर सेज लै गइ मोहन कौं, भुजा उछंग सोवावति है ।
सूरदास प्रभु सोए कन्हैया, हलरावति-मल्हरावति है ॥

राग आसावरी

38. नंद-घरनि आनँद भरी, सुत स्याम खिलावै

नंद-घरनि आनँद भरी, सुत स्याम खिलावै ।
कबहिं घुटुरुवनि चलहिंगे, कहि बिधिहिं मनावै ॥
कबहिं दँतुलि द्वै दूध की, देखौं इन नैननि ।
कबहिं कमल-मुख बोलिहैं, सुनिहौं उन बैननि ॥
चूमति कर-पग-अधर-भ्रू, लटकति लट चूमति ।
कहा बरनि सूरज कहै, कहँ पावै सो मति ॥

राग बिलावल

39. नान्हरिया गोपाल लाल

नान्हरिया गोपाल लाल, तू बेगि बड़ौ किन होहिं ।
इहिं मुख मधुर बचन हँसिकै धौं, जननि कहै कब मोहिं ॥
यह लालसा अधिक मेरैं जिय जो जगदीस कराहिं ।
मो देखत कान्हर इहिं आँगन पग द्वै धरनि धराहिं ॥
खेलहिं हलधर-संग रंग-रुचि,नैन निरखि सुख पाऊँ ।
छिन-छिन छिधित जानि पय कारन, हँसि-हँसि निकट बुलाऊँ ॥
जअकौ सिव-बिरंचि-सनकादिक मुनिजन ध्यान न पावै ।
सूरदास जसुमति ता सुत-हित, मन अभिलाष बढ़ावै ॥

40. जसुमति मन अभिलाष करै

जसुमति मन अभिलाष करै ।
कब मेरो लाल घटुरुवनि रेंगै, कब धरनी पग द्वैक धरै ॥
कब द्वै दाँत दूध के देखौं, कब तोतरैं मुख बचन झरै ।
कब नंदहिं बाबा कहि बोलै, कब जननी कहि मोहिं ररै ॥
कब मेरौ अँचरा गहि मोहन, जोइ-सोइ कहि मोसौं झगरै ।
कब धौं तनक-तनक कछु खैहै, अपने कर सौं मुखहिं भरै ॥
कब हँसि बात कहैगौ मौसौं, जा छबि तैं दुख दूरि हरै ।
स्याम अकेले आँगन छाँड़े, आप गई कछु काज घरै ॥
इहिं अंतर अँधवाह उठ्यौ इक, गरजत गगन सहित घहरै ।
सूरदास ब्रज-लोग सुनत धुनि, जो जहँ-तहँ सब अतिहिं डरै॥

41. हरि किलकत जसुदा की कनियाँ

हरि किलकत जसुदा की कनियाँ ।
निरखि-निरखि मुख कहति लाल सौं मो निधनी के धनियाँ ॥
अति कोमल तन चितै स्याम कौ बार-बार पछितात ।
कैसैं बच्यौ, जाउँ बलि तेरी, तृनावर्त कैं घात ॥
ना जानौं धौं कौन पुन्य तैं, को करि लेत सहाइ ।
वैसी काम पूतना कीन्हौं, इहिं ऐसौ कियौ आइ ॥
माता दुखित जानि हरि बिहँसे, नान्हीं दँतुलि दिखाइ ।
सूरदास प्रभु माता चित तैं दुख डार्‌यौ बिसराइ ॥

42. सुत-मुख देखि जसोदा फूली

सुत-मुख देखि जसोदा फूली ।
हरषित देखि दूध की दँतियाँ, प्रेममगन तन की सुधि भूली ॥
बाहिर तैं तब नंद बुलाए, देखौ धौं सुंदर सुखदाई ।
तनक-तनक-सी दूध-दँतुलिया, देखौ, नैन सफल करौ आई ॥
आनँद सहित महर तब आए, मुख चितवत दोउ नैन अघाई ।
सूर स्याम किलकत द्विज देख्यौ, मनौ कमल पर बिज्जु जमाई ॥

43. हरि किलकत जसुमति की कनियाँ

हरि किलकत जसुमति की कनियाँ ।
मुख मैं तीनि लोक दिखराए, चकित भई नँद-रनियाँ ॥
घर-घर हाथ दिवापति डोलति, बाँधति गरैं बघनियाँ ।
सूर स्याम की अद्भुत लीला नहिं जानत मुनिजनियाँ ॥

राग देवगंधार

44. जननी बलि जाइ हालक हालरौ गोपाल

जननी बलि जाइ हालक हालरौ गोपाल ।
दधिहिं बिलोइ सदमाखन राख्यौ, मिश्री सानि चटावै नँदलाल ॥
कंचन-खंभ, मयारि, मरुवा-डाड़ी, खचि हीरा बिच लाल-प्रवाल ।
रेसम बनाइ नव रतन पालनौ, लटकन बहुत पिरोजा-लाल ॥
मोतिनि झालरि नाना भाँति खिलौना, रचे बिस्वकर्मा सुतहार ।
देखि-देखि किलकत दँतियाँ द्वै राजत क्रीड़त बिबिध बिहार ॥
कठुला कंठ बज्र केहरि-नख, मसि-बिंदुका सु मृग-मद भाल ।
देखत देत मुनि कौतूहल फूले, झूलत देखत नंद कुमार ।
हरषत सूर सुमन बरषत नभ, धुनि छाई है जै-जैकार ॥

रागिनी श्रीहठी

45. हरि कौ मुख माइ, मोहि अनुदिन अति भावै

हरि कौ मुख माइ, मोहि अनुदिन अति भावै ।
चितवत चित नैननि की मति-गति बिसरावै ॥
ललना लै-लै उछंग अधिक लोभ लागैं।
निरखति निंदति निमेष करत ओट आगैं ॥
सोभित सुकपोल-अधर, अलप-अलप दसना ।
किलकि-किलकि बैन कहत, मोहन, मृदु रसना ॥
नासा, लोचन बिसाल, संतत सुखकारी ।
सूरदास धन्य भाग, देखति ब्रजनारी ॥

राग सारंग

46. लालन, वारी या मुख ऊपर

लालन, वारी या मुख ऊपर ।
माई मोरहि दौठि न लागै, तातैं मसि-बिंदा दियौ भ्रू पर ॥
सरबस मैं पहिलै ही वार्‌यौ, नान्हीं नान्हीं दँतुली दू पर ।
अब कहा करौं निछावरि, सूरज सोचति अपनैं लालन जू पर ॥

राग जैतश्री

47. आजु भोर तमचुर के रोल

आजु भोर तमचुर के रोल ।
गोकुल मैं आनंद होत है, मंगल-धुनि महराने टोल ॥
फूले फिरत नंद अति सुख भयौ, हरषि मँगावत फूल-तमोल ।
फूली फिरति जसोदा तन-मन, उबटि कान्ह अन्हवाई अमोल ॥
तनक बदन, दोउ तनक-तनक कर, तनक चरन, पोंछति पट झोल ।
कान्ह गरैं सोहति मनि-माला, अंग अभूषन अँगुरिनि गोल ॥
सिर चौतनी, डिठौना दीन्हौ, आँखि आँजि पहिराइ निचोल ।
स्याम करत माता सौं झगरौं, अटपटात कलबल करि बोल ॥
दोउ कपोल गहि कै मुख चूमति, बरष-दिवस कहि करति कलोल ।
सूर स्याम ब्रज-जन-मोहन बरष-गाँठि कौ डोरा खोल ॥

राग बिलावल

48. खेलत नँद-आँगन गोबिंद

खेलत नँद-आँगन गोबिंद ।
निरखि-निरखि जसुमति सुख पावति, बदन मनोहर इंदु ॥
कटि किंकिनी चंद्रिका मानिक, लटकन लटकत भाल ।
परम सुदेस कंठ केहरि-नख, बिच-बिच बज्र प्रवाल ॥
कर पहुँची, पाइनि मैं नूपुर, तन राजत पट पीत ।
घुटुरुनि चलत, अजिर महँ बिहरत, मुख मंडित नवनीत ॥
सूर बिचित्र चरित्र स्याम कै रसना कहत न आवैं ।
बाल दशा अवलोकि सकल मुनि, जोग बिरति बिसरावैं ॥
राग धनाश्री

49. खीझत जात माखन खात

खीझत जात माखन खात ।
अरुन लोचन, भौंह टेढ़ी, बार-बार जँभात ॥
कबहुँ रुनझुन चलत घुटुरुनि, धूरि धूसर गात ।
कबहुँ झुकि कै अलक खैँचत, नैन जल भरि जात ॥
कबहुँ तोतरे बोल बोलत, कबहुँ बोलत तात ।
सूर हरि की निरखि सोभा, निमिष तजत न मात ॥

राग रामकली

50. (माई) बिहरत गोपाल राइ, मनिमय रचे अँगनाइ

(माई) बिहरत गोपाल राइ, मनिमय रचे अँगनाइ,
लरकत पररिंगनाइ, घूटुरुनि डोलै ।
निरखि-निरखि अपनो प्रति-बिंब,
हँसत किलकत औ, पाछैं चितै फेरि-फेरि मैया-मैया बोलै ॥
जौं अलिगन सहित बिमल जलज जलहिं धाइ रहै,
कुटिल अलक बदन की छबि, अवनी परि लोलै ।
सूरदास छबि निहारि, थकित रहीं घोष नारि,
तन-मन-धन देतिं वारि, बार-बार ओलै ॥

राग ललित

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