शेर : अब्दुल हमीद अदम

Sher : Abdul Hameed Adam

'अदम' रोज़-ए-अजल जब क़िस्मतें तक़्सीम होती थीं
मुक़द्दर की जगह मैं साग़र-ओ-मीना उठा लाया

आँख का ए'तिबार क्या करते
जो भी देखा वो ख़्वाब में देखा

आँखों से पिलाते रहो साग़र में न डालो
अब हम से कोई जाम उठाया नहीं जाता

आप इक ज़हमत-ए-नज़र तो करें
कौन बेहोश हो नहीं सकता

इक हसीं आँख के इशारे पर
क़ाफ़िले राह भूल जाते हैं

इजाज़त हो तो मैं तस्दीक़ कर लूँ तेरी ज़ुल्फ़ों से
सुना है ज़िंदगी इक ख़ूबसूरत दाम है साक़ी

इंसाँ हूँ अदम और ये यजदाँ को ख़बर है
जंनत मेरे असलाफ़ की ठुकराई हुई है

ऐ ग़म-ए-ज़िंदगी न हो नाराज़
मुझ को आदत है मुस्कुराने की

ऐ दोस्त मोहब्बत के सदमे तन्हा ही उठाने पड़ते हैं
रहबर तो फ़क़त इस रस्ते में दो गाम सहारा देते हैं

और तो दिल को नहीं है कोई तकलीफ़ 'अदम'
हाँ ज़रा नब्ज़ किसी वक़्त ठहर जाती है

कभी तो दैर-ओ-हरम से तू आएगा वापस
मैं मय-कदे में तिरा इंतिज़ार कर लूँगा

कश्ती चला रहा है मगर किस अदा के साथ
हम भी न डूब जाएँ कहीं ना-ख़ुदा के साथ

कहते हैं उम्र-ए-रफ़्ता कभी लौटती नहीं
जा मय-कदे से मेरी जवानी उठा के ला

किसी जानिब से कोई मह-जबीं आने ही वाला है
मुझे याद आ रही है आज मथुरा और काशी की

किसी हसीं से लिपटना अशद ज़रूरी है
हिलाल-ए-ईद तो कोई सुबूत-ए-ईद नहीं

कुछ कुछ मिरी आँखों का तसर्रुफ़ भी है शामिल
इतना तो हसीं तू मिरे गुलफ़ाम नहीं है

कौन अंगड़ाई ले रहा है 'अदम'
दो जहाँ लड़खड़ाए जाते हैं

ख़ुदा ने गढ़ तो दिया आलम-ए-वजूद मगर
सजावटों की बिना औरतों की ज़ात हुई

गिरते हैं लोग गर्मी-ए-बाज़ार देख कर
सरकार देख कर मिरी सरकार देख कर

गुलों को खिल के मुरझाना पड़ा है
तबस्सुम की सज़ा कितनी बड़ी है

छोड़ा नहीं ख़ुदी को दौड़े ख़ुदा के पीछे
आसाँ को छोड़ बंदे मुश्किल को ढूँडते हैं

जब तिरे नैन मुस्कुराते हैं
ज़ीस्त के रंज भूल जाते हैं

जिन को दौलत हक़ीर लगती है
उफ़ वो कितने अमीर होते हैं

जिन से इंसाँ को पहुँचती है हमेशा तकलीफ़
उन का दावा है कि वो अस्ल ख़ुदा वाले हैं

जिस से छुपना चाहता हूँ मैं 'अदम'
वो सितमगर जा-ब-जा मौजूद है

जी चाहता है आज 'अदम' उन को छेड़िए
डर डर के प्यार करने में कोई मज़ा नहीं

जुनूँ अब मंज़िलें तय कर रहा है
ख़िरद रस्ता दिखा कर रह गई है

जेब ख़ाली है 'अदम' मय क़र्ज़ पर मिलती नहीं
एक दो बोतल पे दीवाँ बेचने वाला हूँ मैं

जो अक्सर बार-वर होने से पहले टूट जाते थे
वही ख़स्ता शिकस्ता अहद-ओ-पैमाँ याद आते हैं

ज़बान-ए-होश से ये कुफ़्र सरज़द हो नहीं सकता
मैं कैसे बिन पिए ले लूँ ख़ुदा का नाम ऐ साक़ी

ज़रा इक तबस्सुम की तकलीफ़ करना
कि गुलज़ार में फूल मुरझा रहे हैं

ज़ाहिद शराब पी ने दे मस्जिद में बैठ कर
या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो

ज़िंदगी ज़ोर है रवानी का
क्या थमेगा बहाव पानी का

ज़िंदगी है इक किराए की ख़ुशी
सूखते तालाब का पानी हूँ मैं

झाड़ कर गर्द-ए-ग़म-ए-हस्ती को उड़ जाऊँगा मैं
बे-ख़बर ऐसी भी इक परवाज़ आती है मुझे

तकलीफ़ मिट गई मगर एहसास रह गया
ख़ुश हूँ कि कुछ न कुछ तो मिरे पास रह गया

तख़लीक़-ए-काएनात के दिलचस्प जुर्म पर
हँसता तो होगा आप भी यज़्दाँ कभी कभी

तबाह हो के हक़ाएक़ के खुरदुरे-पन से
तसव्वुरात की ता'मीर कर रहा हूँ मैं

तड़प कर मैं ने तौबा तोड़ डाली
तिरी रहमत पे इल्ज़ाम आ रहा था

तुझ को क्या दूसरों के ऐबों से
क्यूँ अबस रू-सियाह होता है

तौबा का तकल्लुफ़ कौन करे हालात की निय्यत ठीक नहीं
रहमत का इरादा बिगड़ा है बरसात की निय्यत ठीक नहीं

थोड़ी सी अक़्ल लाए थे हम भी मगर 'अदम'
दुनिया के हादसात ने दीवाना कर दिया

दरोग़ के इम्तिहाँ-कदे में सदा यही कारोबार होगा
जो बढ़ के ताईद-ए-हक़ करेगा वही सज़ावार-ए-दार होगा

दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं
दोस्तों की मेहरबानी चाहिए

दिल ख़ुश हुआ है मस्जिद-ए-वीराँ को देख कर
मेरी तरह ख़ुदा का भी ख़ाना ख़राब है

देखा है किस निगाह से तू ने सितम-ज़रीफ़
महसूस हो रहा है मैं ग़र्क़-ए-शराब हूँ

नौजवानी में पारसा होना
कैसा कार-ए-ज़बून है प्यारे

पहले बड़ी रग़बत थी तिरे नाम से मुझ को
अब सुन के तिरा नाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

पीर-ए-मुग़ाँ से हम को कोई बैर तो नहीं
थोड़ा सा इख़्तिलाफ़ है मर्द-ए-ख़ुदा के साथ

फिर आज 'अदम' शाम से ग़मगीं है तबीअत
फिर आज सर-ए-शाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

बढ़ के तूफ़ान को आग़ोश में ले ले अपनी
डूबने वाले तिरे हाथ से साहिल तो गया

बाज़ औक़ात किसी और के मिलने से 'अदम'
अपनी हस्ती से मुलाक़ात भी हो जाती है

बारिश शराब-ए-अर्श है ये सोच कर 'अदम'
बारिश के सब हुरूफ़ को उल्टा के पी गया

बोले कोई हँस कर तो छिड़क देते हैं जाँ भी
लेकिन कोई रूठे तो मनाया नहीं जाता

मय-कदा है यहाँ सकूँ से बैठ
कोई आफ़त इधर नहीं आती

मरने वाले तो ख़ैर हैं बेबस
जीने वाले कमाल करते हैं

मशहूर इक सवाल किया था करीम ने
मुझ से वहाँ भी आप की तारीफ़ हो गई

महशर में इक सवाल किया था करीम ने
मुझ से वहाँ भी आप की तारीफ़ हो गई

मुझे तौबा का पूरा अज्र मिलता है उसी साअत
कोई ज़ोहरा-जबीं पीने पे जब मजबूर करता है

मुद्दआ दूर तक गया लेकिन
आरज़ू लौट कर नहीं आई

मैं उम्र भर जवाब नहीं दे सका 'अदम'
वो इक नज़र में इतने सवालात कर गए

मैं और उस ग़ुंचा-दहन की आरज़ू
आरज़ू की सादगी थी मैं न था

मैं बद-नसीब हूँ मुझ को न दे ख़ुशी इतनी
कि मैं ख़ुशी को भी ले कर ख़राब कर दूँगा

मैं मय-कदे की राह से हो कर निकल गया
वर्ना सफ़र हयात का काफ़ी तवील था

मैं यूँ तलाश-ए-यार में दीवाना हो गया
काबे में पाँव रक्खा तो बुत-ख़ाना हो गया

या दुपट्टा न लीजिए सर पर
या दुपट्टा सँभाल कर चलिए

ये क्या कि तुम ने जफ़ा से भी हाथ खींच लिया
मिरी वफ़ाओं का कुछ तो सिला दिया होता

ये रोज़-मर्रा के कुछ वाक़िआत-ए-शादी-ओ-ग़म
मिरे ख़ुदा यही इंसाँ की ज़िंदगानी है

लज़्ज़त-ए-ग़म तो बख़्श दी उस ने
हौसले भी 'अदम' दिए होते

लोग कहते हैं कि तुम से ही मोहब्बत है मुझे
तुम जो कहते हो कि वहशत है तो वहशत होगी

वही शय मक़सद-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र महसूस होती है
कमी जिस की बराबर उम्र भर महसूस होती है

वो अहद-ए-जवानी वो ख़राबात का आलम
नग़्मात में डूबी हुई बरसात का आलम

वो मिले भी तो इक झिझक सी रही
काश थोड़ी सी हम पिए होते

शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आप
महफ़िल में इस ख़याल से फिर आ गया हूँ मैं

शिकन न डाल जबीं पर शराब देते हुए
ये मुस्कुराती हुई चीज़ मुस्कुरा के पिला

शौक़िया कोई नहीं होता ग़लत
इस में कुछ तेरी रज़ा मौजूद है

सब को पहुँचा के उन की मंज़िल पर
आप रस्ते में रह गया हूँ मैं

सवाल कर के मैं ख़ुद ही बहुत पशेमाँ हूँ
जवाब दे के मुझे और शर्मसार न कर

सिर्फ़ इक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में
मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही

साक़ी ज़रा निगाह मिला कर तो देखना
कम्बख़्त होश में तो नहीं आ गया हूँ मैं

साक़ी तुझे इक थोड़ी सी तकलीफ़ तो होगी
साग़र को ज़रा थाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

साक़ी मुझे शराब की तोहमत नहीं पसंद
मुझ को तिरी निगाह का इल्ज़ाम चाहिए

सो भी जा ऐ दिल-ए-मजरूह बहुत रात गई
अब तो रह रह के सितारों को भी नींद आती है

हद से बढ़ कर हसीन लगते हो
झूटी क़समें ज़रूर खाया करो

हम और लोग हैं हम से बहुत ग़ुरूर न कर
कलीम था जो तिरा नाज़ सह गया होगा

हम को शाहों की अदालत से तवक़्क़ो' तो नहीं
आप कहते हैं तो ज़ंजीर हिला देते हैं

हर दिल-फ़रेब चीज़ नज़र का ग़ुबार है
आँखें हसीन हों तो ख़िज़ाँ भी बहार है

हाथ से खो न बैठना उस को
इतनी ख़ुद्दारियाँ नहीं अच्छी

हुजूम-ए-हश्र में खोलूँगा अद्ल का दफ़्तर
अभी तो फ़ैसले तहरीर कर रहा हूँ मैं

हुस्न इक दिलरुबा हुकूमत है
इश्क़ इक क़ुदरती ग़ुलामी है

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