साकेत - द्वादश सर्ग : मैथिलीशरण गुप्त

Saket Sarg-12 : Maithilisharan Gupt

ढाल लेखनी, सफल अन्त में मसि भी तेरी,
तनिक और हो जाय असित यह निशा अँधेरी।
ठहर तमी, कृष्णाभिसारिके, कण्टक, कढ़ जा,
बढ़ संजीवनि, आज मृत्यु के गढ़ पर चढ़ जा!
झलको, झलमल भाल-रत्न, हम सबके झलको,
हे नक्षत्र, सुधार्द्र-बिन्दु तुम, छलको छलको।
करो श्वास-संचार वायु, बढ़ चलो निशा में,
जीवन का जय-केतु अरुण हो पूर्व दिशा में।
ओ कवि के दो नेत्र, अनल-जल दोनों बरसो,
लक्ष्मण-सा तनु कहाँ, प्राण! पाओगे, सरसो।
देखो, वह शत्रुघ्न-दृष्टि मानों दहती है,
सदय भरत, यह सुनो, माण्डवी क्या कहती है?-
"कातर हो तुम आर्यपुत्र, होकर नर नामी,
तो अबला क्या करे, बता दो मुझको स्वामी?
पर इतना भी आज तुम्हें अवकाश कहाँ है?
पुनः परीक्षक हुआ हमारा दैव यहाँ है।
भव ने इतना भाव-विभव हमसे है पाया,
उस भावुक को हाय! तदपि सन्तोष न आया।
फिर भी सम्मुख अड़ा खड़ा वह भिक्षुक भूखा,
दया करो हे नाथ, दीन का मुख है सूखा!
हम क्या अब कुछ और नहीं दे सकते उसको?
आदर से इस ठौर नहीं ले सकते उसको?
क्या हम उससे नहीं पूछ सकते हैं इतना-
भाई, हमसे तुझे चाहिए अब क्या-कितना?"
"प्रस्तुत हैं ये प्राण, किन्तु वह सह न सकेगा,
इनको लेकर प्रिये, शान्ति से रह न सकेगा।
देखूँ, जलनिधि जुड़ा सके यदि इनकी ज्वाला,-
पहने है जो स्वर्णपुरी की शाला-माला।"
"स्वामी, निज कर्त्तव्य करो तुम निश्चित मन से,
रहो कहीं भी, दूर नहीं होगे इस जन से।
डरा सकेगा अब न आप दुर्दम यम मुझको,
है अपनों के संग मरण जीवन-सम मुझको।
जो अदृश्य है, वही हमें शंकित करता है,
विकृताकृतियाँ अन्धकार अंकित करता है।
किन्तु मुझे अब नहीं किसी का कोई भय है,
भीषण होता स्वयं निराशा-पूर्ण हृदय है।
न सही, यदि यह लोक हमारे लिए नहीं है,
हम सब होंगे जहाँ, हमारा स्वर्ग वहीं है।
दैव-अभागा दैव-हमारा कर क्या लेगा?
श्रद्धांजलि चिरकाल भुवन भर, भर भर देगा।
संवादों को वायु वहन कर फैलाती है,
अन्तःपुर की याद मुझे रह रह आती है।"
"जाओ, जाओ, प्रिये, सभी को शीघ्र सँभालो,
यह मुख देखें शत्रु, यहाँ तुम देखो-भालो।"

उठी माण्डवी कर प्रणाम प्रिय चरण भिगो कर,
बोले तब शत्रुघ्न शूर सम्मुख नत होकर-
"जाओगी क्या तुम निराश ही? जाओ, आर्ये,
इसी भाँति इस समय स्वस्थता पाओ आर्ये!
सुनती जाओ, किन्तु, तुम्हें है व्यर्थ निराशा,
है अपना ही उदय, और अपनी ही आशा।
रूठा और अदृष्ट मनाने की बातों से,
तो मैं सीधा उसे करूँगा अघातों से!"
"विजयी हो तुम तात, और क्या आज कहूँ मैं?
पर आशा की और कहाँ तक ऐंठ सहूँ मैं?
मेरा भी विश्वास एक, क्यों व्यर्थ बहूँ मैं?
हुई आज निश्विन्त, कहीं भी क्यों न रहूँ मैं।
जो कुछ भी है प्राप्य यहाँ, मैंने सब पाया,
हुई पूर्ण परितृप्त हृदय की ममता-माया।
मुझे किसी के लिए उलहना नहीं रहा अब,
मुझ-सा प्रत्यय प्राप्त करें सब ओर अहा! सब।"

देकर निज गुंजार-गन्ध मृदु-मन्द पवन को,
चढ़ शिविका पर गई माण्डवी राज-भवन को।
रहे सन्न-से भरत, कहा-"शत्रुघ्न!" उन्होंने,
उत्तर पाया-"आर्य!" लगे दोनों ही रोने।
"हनूमान उड़ गये पवन-पथ से हैं कैसे?"
"जल में पंख समेट शफर सर्रक ले जैसे।
उठता वह वातूल वेग से है कब ऐसे?
नहीं, आर्य का बाण गया था उन पर, वैसे!"
"और यहाँ हम विवश बने बैठे हैं कैसे?"
सुन नीरव शत्रुघ्न रहे जैसे के तैसे।
"लोग भरत का नाम आज कैसे लेते हैं?"
"आर्य, नाम के पूर्व साधु-पद वे देते हैं।"
"भारत-लक्ष्मी पड़ी राक्षसों के बन्धन में,
सिन्धु-पार वह बिलख रही है व्याकुल मन में।
बैठा हूँ मैं भण्ड साधुता धारण करके-
अपने मिथ्या भरत नाम को नाम न धर के!
कलुषित कैसे शुद्ध सलिल को आज करूँ मैं,
अनुज, मुझे रिपु-रक्त चाहिए, डूब मरूँ मैं!
मेटूँ अपने जड़ीभूत जीवन की लज्जा,
उठो, इसी क्षण शूर, करो सेना की सज्जा।
पीछे आता रहे राज-मण्डल दल-बल से,
पथ में जो जो पड़ें, चलें वे जल से-थल से।
सजे अभी साकेत, बजे हाँ, जय का डंका,
रह न जाय अब कहीं किसी रावण की लंका!
माताओं से माँग बिदा मेरी भी लेना,
मैं लक्ष्मण-पथ-पथी, उर्मिला से कह देना।
लौटूँगा तो साथ उन्हीं के, और नहीं तो-
नहीं, नहीं, वे मुझे मिलेंगे भला कहीं तो!"
सिर पर नत शत्रुघ्न भरत-निर्देश धरे थे,
पर ’जो आज्ञा’ कह न सके, आवेश-भरे थे।
छू कर उनके चरण द्वार की ओर बढ़े वे,
झोंके पर ज्यों गन्ध, अश्व पर कूद चढ़े वे।
निकला पड़ता वक्ष फोड़ कर वीर-हृदय था,
उधर धरातल छोड़ आज उड़ता-सा हय था।
जैसा उनके क्षुब्ध हृदय में धड़ धड़ धड़ था,
वैसा ही उस वाजि-वेग में पड़ पड़ पड़ था!
फड़ फड़ करने लगे जाग पेड़ों पर पक्षी,
अपलक था आकाश चपल-वल्गित-गति-लक्षी।
क्षण भर वह छवि देख स्वयं विधि की मति मोही,
सिरजा न हो तुरंग-अंग करके आरोही!
उठ कौंधा-सा त्वरित राज-तोरण पर आया,
प्रहरी-दल से सजग सैन्य-अभिवादन पाया।
कूद पड़ा रणधीर, एक ने अश्व सँभाला;
नीरव ही सब हुआ, न कोई बोला-चाला।

अन्तःपुर में वृत्त प्रथम ही घूम फिरा था,
सबके सम्मुख विषम वज्र-सा टूट गिरा था।
माताओं की दशा-हाय! सूखे पर पाला,
जला रही थी उन्हें कँपा कर ठंढ़ी ज्वाला!
"अम्ब, रहे यह रुदन, वीरसू तुम, व्रत पालो,
ठहरो, प्रस्तुत वैर-वह्नि पर नीर न डालो।
हमने प्रेम-पयोधि भरा आँखों के जल से,
द्विषद्दस्यु अब जलें हमारे द्वेषानल से!
मातः, कातर न हो, अहो! टुक धीरज धारो,
किसकी पत्नी और प्रसू तुम, तनिक विचारो।
असुरों पर निज विजय सुरों ने पाई, जिनसे,
और यहीं खिंच स्वर्ग-सगुणता आई जिनसे।
जननि, तुम्हारे जात आज उन्नत हैं इतने,
उनके करगत हुए आप ऊँचे फल जितने।
कहीं नीच ग्रह विघ्न-रूप होकर अटकेंगे,
तो हम उनको तोड़ शिलाओं पर पटकेंगे!
धर्म तुम्हारी ओर, तुम्हें फिर किसका भय है?
जीवन में ही नहीं, मरण में भी निज जय है।
मरें भले ही अमर, भोगते है जी जी कर;
मर मर कर नर अमर कीर्त्तनामृत पी पीकर।
जन कर हमको स्वयं जूझने को, रोती हो?
गर्व करो, क्यों व्यर्थ दीन-दुर्बल होती हो।
करे हमारा वैरि-वृन्द ही कातर-क्रन्दन,
दो हमको आशीष अम्ब, तुम लो पद-वन्दन।"
"इतना गौरव वत्स, नहीं सह सकती नारी,
पिसते हैं ये प्राण, भार है भीषण भारी।
पाते हैं अवकाश निकलने का भी कब ये?
कहाँ जाँय, क्या करें अभागे, अकृती अब ये?
किये कौन व्रत नहीं, कौन जप नहीं जपे हैं?
हम सबने दिन-रात कौन तप नहीं तपे हैं?
फिर भी थे क्या प्राण यही सुनने को ठहरे?
हुए देव भी हाय! हमारे अन्धे-बहरे!"
"अम्ब, तुम्हारे उन्हीं पुण्य-कर्मों का फल है,
हम सबमें जो आज धर्म-रक्षा का बल है।
थकता है क्यों हृदय हाय! जब वह पकता है?
सुरगण उलटा आज तुम्हारा मुँह तकता है।"
"बेटा, बेटा नहीं समझती हूँ यह सब मैं,
बहुत सह चुकी, और नहीं सह सकती अब मैं।
हाय! गये सो गये, रह गये सो रह जावें,
जाने दूँगी तुम्हें न, वे आवें जब आवें।
तुष्ट तुम्हीं में उन्हें देख कर रही, रहूँगी,
तुम्हें छोड़ कर निराधार मैं कहाँ बहूँगी?
देखूँ, तुझको कौन छीनने मुझसे आता?"
पकड़ पुत्र को लिपट गईं कौशल्या माता।
धाड़ मार कर बिलख रो पड़ी रानी भोली,
पाश छुड़ाती हुई सुमित्रा तब यों बोली-
"जीजी, जीजी, उसे छोड़ दो, जाने दो तुम,
सोदर की गति अमर-समर में पाने दो तुम।
सुख से सागर पार करे यह नागर मानी,
बहुत हमारे लिए यहीं सरयू में पानी।
जा, भैया, आदर्श गये तेरे जिस पथ से,
कर अपना कर्त्तव्य पूर्ण तू इति तक अथ से।
जिस विधि ने सविशेष दिया था मुझको जैसा,
लौटाती हूँ आज उसे वैसा का वैसा।"
पोंछ लिया नयनाम्बु मानिनी ने अंचल से,
कैकेयी ने कहा रोक कर आँसू बल से-
"भरत जायगा प्रथम और यह मैं जाऊँगी,
ऐसा अवसर भला दूसरा कब पाऊँगी?
मूर्त्तिमती आपत्ति यहाँ से मुँह मोड़ेगी,
शत्रु-देश-सा ठौर मिला, वह क्यों छोड़ेगी?"
"अम्ब, अम्ब, तुम आत्म-निरादर करती हो क्यों?
दे नव नव यश हमें अयश से डरती हो क्यों?
क्षमा करो, आपत्ति मुझे भी लगती थीं तुम,
मार्ग-दर्शिनी किन्तु ज्योति-सी जगतीं थीं तुम।"
"वत्स, वत्स, पर कौन जानता उसकी ज्वाला,
उसके माथे वही धुँवा है काला काला!"
"जलता है जो जननि, जाग कर वही जगाता,
जो इतना भी नहीं जानता, हाय! ठगाता।"
"मैं निज पति के संग गई थी असुर-समर में,
जाऊँगी अब पुत्र-संग भी अरि-संगर में।"
"घर बैठो तुम देवि, हेम की लंका कितनी?
उतनी भी तो नहीं, धूल मुट्ठी भर जितनी।
भरतखण्ड के पुरुष अभी मर नहीं गये हैं,
कट उनके वे कोटि कोटि कर नहीं गये हैं।
रोना-धोना छोड़, उठो सब मंगल गाओ,
जाते हैं हम विजय-हेतु, तुम दर्प जगाओ।
रामचन्द्र के संग गये हैं लक्ष्मण वन में,
भरत जायँ, शत्रुघ्न रहे क्या आज भवन में?
भाभी, भाभी, सुनो, चार दिन तुम सब सहना,
’मैं लक्ष्मण-पथ-पथी’ आर्य का है यह कहना-
’लौटूँगा तो संग उन्हीं के और नहीं तो-
नहीं, नहीं, वे मुझे मिलेंगे भला कहीं तो!’
"देवर, तुम निश्चिन्त रहो, मैं कब रोती हूँ?
किन्तु जानती नहीं, जागती या सोती हूँ?
जो हो, आँसू छोड़ आज प्रत्यय पीती हूँ-
जीते हैं वे वहाँ, यहाँ जब मैं जीती हूँ!
जीतो तुम,-श्रुतकीर्त्ति! तनिक रोली तो लाना,
टीका कर दूँ, बहन, इन्हें है झटपट जाना।
जीजी का भी शोच नहीं है मुझको वैसा,
राक्षस-कुल की उन अनाथ बधुओं का जैसा।
नीरव विद्युल्लता आज लंका पर टूटी,
किन्तु रहेगी घनश्याम से कब तक छूटी!"

स्तम्भित-सा था वीर, चढ़ी माथे पर रोली,
पैरों पड़ श्रुतकीर्त्ति अन्त में स्थिर हो बोली-
"जाओ स्वामी, यही माँगती मेरी मति है-
जो जीजी की, उचित वही मेरी भी गति है!
मान मनाया और जिन्होंने लाड़ लड़ाया,
छोटे होकर बड़ा भाग जिनसे है पाया;
जिनसे दुगुना हुआ यहाँ वह भाग हमारा,
हम दोनों की मिले उन्हीं में जीवन-धारा।"
"अर्द्धांगी से प्रिये, यही आशा थी मुझको,
शुभे, और क्या कहूँ, मिले मुँह-माँगा तुझको।"

देखा चारों ओर वीर ने दृष्टि डाल कर,
और चला तत्काल आपको वह सँभाल कर।

मूर्च्छित होकर गिरी इधर कोसल्या रानी,
उधर अट्ट पर दीख पड़ा गृह-दीपक मानी।
चढ़ दो दो सोपान राज-तोरण पर आया,
ऋषभ लाँघ कर माल्यकोश ज्यों स्वर पर छाया!

नगरी थी निस्तब्ध पड़ी क्षणदा-छाया में,
भुला रहे थे स्वप्न हमें अपनी माया में।
जीवन-मरण, समान भाव से जूझ जूझ कर,
ठहरे पिछले पहर स्वयं थे समझ बूझ कर।
पुरी-पार्श्व में पड़ी हुई थी सरयू ऐसी,
स्वयं उसी के तीर हंस-माला थी जैसी।
बहता जाता नीर और बहता आता था,
गोद भरी की भरी तीर अपनी पाता था।
भूतल पर थी एक स्वच्छ चादर-सी फैली,
हुई तरंगित तदपि कहीं से हुई न मैली।
ताराहारा चारु-चपल चाँदी की धारा,
लेकर एक उसाँस वीर ने उसे निहारा।
सफल सौध-भू-पटल व्योम के अटल मुकुर थे,
उडुगण अपना रूप देखते टुकुर टुकुर थे।
फहर रहे थे केतु उच्च अट्टों पर फर फर,
ढाल रही थी गन्ध मृदुल मारुत-गति भर भर।
स्वयमपि संशयशील गगन घन-नील गहन था,
मीन-मकर, वृष-सिंह-पूर्ण सागर या वन था!
झोंके झिलमिल झेल रहे थे दीप गगन के,
खिल खिल, हिलमिल खेल रहे थे दीप गगन के।
तिमिर-अंक में जब अशंक तारे पलते थे,
स्नेह-पूर्ण पुर-दीप दीप्ति देकर जलते थे।
धूम-धूप लो, अहो उच्च ताराओ, चमको,
लिपि-मुद्राओ,-भूमि-भाग्य की, दमको दमको।

करके ध्वनि-संकेत शूर ने शंख बजाया,
अन्तर का आह्वान वेग से बाहर आया।
निकल उठा उच्छ्वास वक्ष से उभर उभर के,
हुआ कम्बु कृत्कृत्य कण्ठ की अनुकृति करके।
उधर भरत ने दिया साथ ही उत्तर मानों,
एक-एक दो हुए, जिन्हें एकादश जानों!
यों ही शंख असंख्य हो गये, लगी न देरी,
घनन घनन बज उठी गरज तत्क्षण रण-भेरी।
काँप उठा आकाश, चौंक कर जगती जागी,
छिपी क्षितिज में कहीं, सभय निद्रा उठ भागी।
बोले वन में मोर, नगर में डोले नागर,
करने लगे तरंग भंग सौ-सौ स्वर-सागर।
उठी क्षुब्ध-सी अहा! अयोध्या की नर-सत्ता,
सजग हुआ साकेत पुरी का पत्ता पत्ता।
भय-विस्मय को शूर-दर्प ने दूर भगाया,
किसने सोता हुआ यहाँ का सर्प जगाया!
प्रिया-कण्ठ से छूट सुभट-कर शस्त्रों पर थे,
त्रस्त-बधू-जन-हस्त स्रस्त-से वस्त्रों पर थे।
प्रिय को निकट निहार उन्होंने साहस पाया,
बाहु बढ़ा, पद रोप, शीघ्र दीपक उकसाया!
अपनी चिन्ता भूल, उठी माता झट लपकी,
देने लगी सँभाल बाल-बच्चों को थपकी-
"भय क्या, भय क्या हमें राम राजा हैं अपने,
दिया भरत-सा सुफल प्रथम ही जिनके तप ने!"
चरर-मरर खुल गये अरर बहु रवस्फुटों से,
क्षणिक रुद्ध थे तदपि विकट भट उरःपुटों से।
बाँधे थे जन पाँच पाँच आयुध मन भाये;
पंचानन गिरि-गुहा छोड़ ज्यों बाहर आये।
"धरने आया कौन आग, मणियों के धोखे?"
स्त्रियाँ देखने लगीं दीप धर, खोल झरोखे।
"ऐसा जड़ है कौन, यहाँ भी जो चढ़ आवे?
वह थल भी है कहाँ, जहाँ निज दल बढ़ जावे?
राम नहीं घर, यही सोच कर लोभी-मोही,
क्या कोई माण्डलिक हुआ सहसा विद्रोही?
मरा अभागा, उन्हें जानता है जो वन में,
रमे हुए हैं यहाँ राम-राघव जन जन में।"
"पुरुष-वेश में साथ चलूँगी मैं भी प्यारे,
राम-जानकी संग गये, हम क्यों हों न्यारे?"
"प्यारी, घर ही रहो उर्मिला रानी-सी तुम,
क्रान्ति-अनन्तर मिलो शान्ति मनमानी-सी तुम!"
पुत्रों को नत देख धात्रियाँ बोलीं धीरा-
"जाओ बेटा,-'राम काज, क्षण भंग शरीरा’।"
पति से कहने लगीं पत्नियाँ-"जाओ स्वामी,
बने तुम्हारा वत्स तुम्हारा ही अनुगामी!
जाओ, अपने राम-राज्य की आन बढ़ाओ,
वीर-वंश की बान, देश का मान बढ़ाओ।"
"अम्ब, तुम्हारा पुत्र पैर पीछे न धरेगा,
प्रिये, तुम्हारा पति न मृत्यु से कहीं डरेगा।
फिर भी फिर भी अहो! विकल-सी तुम हो रोती?"
"हम यह रोती नहीं, वारतीं मानस-मोती!"
यों ही अगणित भाव उठे रघु-सगर-नगर में,
बगर उठे बढ़ अगर-तगर-से डगर डगर में।
चिन्तित-से काषाय-वसनधारी सब मन्त्री,
आ पहुँचे तत्काल, और बहु यन्त्री-तन्त्री।
चंचल जल-थल-बलाध्यक्ष निज दल सजते थे,
झन झन घन घन समर-वाद्य बहु विध बजते थे।
पाल उड़ाती हुईं, पंख फैलाकर नावें-
प्रस्तुत थीं, कब किधर हंसनी-सी उड़ जावें।
हिलने डुलने लगे पंक्तियों में बँट बेड़े,
थपकी देने लगीं तरंगें मार थपेड़े।
उल्काएँ सब ओर प्रभा-सी पाट रही थीं,
पी पी कर पुर-तिमिर जीभ-सी चाट रही थीं!
हुई हतप्रभ नभोजड़ित हीरों की कनियाँ,
मुक्ताओं-सी बेध न लें भालों की अनियाँ!
तप्त सादियों के तुरंग तमतमा रहे थे।
तुले धुले-से खुले खड्ग चमचमा रहे थे।
हींस, लगामें चाब, धरातल खूँद रहे थे;
उड़ने को उत्कर्ण कभी वे कूँद रहे थे!
करके घंटा-नाद, शस्त्र लेकर शुण्डों में,
दो दो दृढ़ रद-दण्ड दबा कर निज तुण्डों में,

अपने मद की नहीं आप ही ऊष्मा सह कर,
झलते थे श्रुति-तालवृन्त दन्ती रह रह कर!
योद्धाओं का धन सुवर्ण से सार सलोना,
जहाँ हाथ में लोह वहाँ पैरों में सोना!
मानों चले सगेह रथीजन बैठ रथों में,
आगे थे टंकार और झंकार पथों में।

पूर्ण हुआ चौगान राज-तोरण के आगे,
कहते थे भट-"कहाँ हमारे शत्रु अभागे?"
दृग असमय उन्निद्र और भी अरुण हुए थे,
प्रौढ़-जरठ भी आज तेज से तरुण हुए थे।
पीवर-मांसल अंस, पृथुल उर, लम्बी बाँहें,
एकाकी हो शेष-भार ले लें, यदि चाहें!
उछल उछल कच-गुच्छ बिखरते थे कन्धों पर,
रण-कंकण थे खेल रहे दृढ़ मणिबन्धों पर।
खचित-तरणि, मणि-रचित केतु झकझका रहे थे,
वस्त्र धकधका रहे, शस्त्र भकभका रहे थे।
हो होकर उद्ग्रीव लोग टक लगा रहे थे,
नगर-जगैया जगर-मगर जगमगा रहे थे।
उतर अरिन्दम प्रथम खण्ड पर आकर ठहरा,
तप्त स्वर्ण का वर्ण दृप्त-मुख पर था गहरा।
हाथ उठाये जहाँ उन्होंने, सन्नाटा था,
सैन्य-सिन्धु में जहाँ ज्वार था, अब भाटा था!
गूँगा सदा प्रकाश, फैलता है निःस्वन-सा,
किन्तु वीर का उदय अरुण-सा था, स्वर घन-सा,-
"सुनो सैन्यजन, आज एक नव अवसर आया,
मैंने असमय नहीं, अचानक तुम्हें जगाया।
जो आकस्मिक वही अधिक आकर्षक होता,
यह साधारण बात, काटता है जो बोता;
क्लीब-कापुरुष जाग जाग कर भी है सोता,
पर साके को शूर स्वप्न में भी कब खोता?
साका, साका, आज वही साका है शूरो,
सिन्धु-पार उड़ रही यही स्वपताका शूरो!
सिन्धु, कहाँ अब सिन्धु? हुआ है जल भी थल-सा,
बँधा विपुल पुल, खुला आर्यकुल का अर्गल-सा!
यह सब किसने किया? उन्हीं प्रभु पुरुषोत्तम ने,
पाया है युग-धर्म-रूप में जिनको हमने।
होकर भी चिरसत्य-मूर्ति हैं नित्य नये जो,
भव्य भोग रख, दिव्य योग के लिए गये जो।
हम जिनका पथ देख रहे हैं, कब वे आवें?
कब हम निज धृति-धाम राम राजा को पावें?
तो फिर आओ वीर, तनिक आगे बढ़ जावें,
उनके पीछे जायँ, उन्हें आगे कर लावें।
चलना भर है हमें, मार्ग है बना बनाया,
मकरालय भी जिसे बीच में रोक न पाया।
किया उन्होंने स्वच्छ उसे, हम अटकेंगे क्यों?
चरण-चिन्ह हैं बने, भूल कर भटकेंगे क्यों?

दुर्गम दक्षिण-मार्ग समझ कर ही निज मन में,
चित्रकूट से आर्य गये थे दण्डक वन में।
शंकाएँ हैं जहाँ, वहीं धीरों की मति है,
आशंकाएँ जहाँ, वहीं वीरों की गति है।
लंका के क्रव्याद वहाँ आकर चरते थे,
भोले भाले शान्त सदय ऋषि-मुनि मरते थे।
सफल न करते आर्य भला फिर वन जाना क्यों?
पुण्यभूमि पर रहे पापियों का थाना क्यों?
भरतखण्ड का द्वार विश्व के लिए खुला है,
भुक्ति-मुक्ति का योग जहाँ पर मिला जुला है।
पर जो इस पर अनाचार करने आवेंगे,
नरकों में भी ठौर न पाकर पछतावेंगे।
जाकर प्रभु ने वहाँ धर्म-संकट सब मेटा,
जय-लक्ष्मी ने उन्हें आप ही आकर भेटा।
दुष्ट दस्यु दल बाँध, रुष्ट होकर हाँ, आये,
पर जीवित वे नहीं एक भी जाने पाये।
झंखाड़ों-से उड़े शत्रु, पर पड़े अनल में,
प्रभु के शर हैं ज्वाल-रूप ही समरस्थल में।
सौ झोंके क्या एक अचल को धर सकते हैं?
एक गरुड़ का सौ भुजंग क्या कर सकते हैं?
पहुँचा यह संवाद अन्त में उस रावण तक,
जो निज गो-द्विज-देव-धर्म-कर्मों का कण्टक।
उसी क्रूर को काढ़, दूर करने भव-भय को,
वन भेजा हो कहीं न माँ ने ज्येष्ठ तनय को?
तप कर विधि से विभव निशाचरपति ने पाया,
वही पाप कर आप राम से मरने आया।
किन्तु सामना कर न सका पापी जब बल से,
अबला हरने चला साधु-वेशी खल छल से।

सुनने को हुंकार सैनिको, यही तुम्हारी,
जिसके आगे उड़े शत्रु की गति-मति सारी,-
सहसा मैंने तुम्हें जगाया है, तुम जागे,
नाच रही है विजय प्रथम ही अपने आगे।
किन्तु विजय तो शरण, मरण में भी वीरों के,
चिर-जीवन है कीर्ति-वरण में भी वीरों के।
भूल जयाजय और भूल कर जीना-मरना,
हमको निज कर्त्तव्य मात्र है पालन करना।
जिस पामर ने पतिव्रता को हाथ लगाया,-
उसको-जिसने अतुल विभव उसका ठुकराया,
प्रभु हैं स्वयं समर्थ, पाप-कर काटें उसके,
राम-बाण हैं सजग, प्राण जो चाटें घुसके।
करता है प्रतिशोध किन्तु आह्वान हमारा,
जगा रहा है जाग हमें अभिमान हमारा।
खींच रहा है आज ज्ञान ही ध्यान हमारा,
लिखे शत्रु-लंका-सुवर्ण आख्यान हमारा।
हाय! मरण से नहीं किन्तु जीवन से भीता,
राक्षसियों से घिरी हमारी देवी सीता।
बन्दीगृह में बाट जोहती खड़ी हुई है,
ब्याध-जाल में राजहंसिनी पड़ी हुई है।

अबला का अपमान सभी बलवानों का है,
सती-धर्म का मान मुकुट सब मानों का है।
वीरो, जीवन-मरण यहाँ जाते आते हैं,
उनका अवसर किन्तु कहाँ कितने पाते हैं?
मारो, मारो, जहाँ वैरियों को तुम पाओ,
मर मर कर भी उन्हें प्रेत होकर लग जाओ!
है अपनों को छोड़ मुक्ति भी अपनी कारा,
पर अपनों के लिए नरक भी स्वर्ग हमारा!
पैर धरें इस पुण्यभूमि पर पामर पापी,
कुल-लक्ष्मी का हरण करें वे सहज सुरापी,
भरलो उनका रुधिर, करो अपनों का तर्पण;
मांस जटायु-समान जनों को कर दो अर्पण!
यात्रा में उत्साह-योग ही मुख्य शकुन है,
फल की चिन्ता नहीं, धर्म की हमको धुन है।
मर क्या, अमर अधीन हमारे कर्मों के हैं?
साक्षी जो मन, बुद्धि और इन मर्मों के हैं।
धन्य, वन्यजन भी न सह सके यह अपकर्षण,
करते हैं वे कूद कूद कर घन संघर्षण!
चलो चलो नरवरो, न वानर ही यश ले लें,
वे ले लें भुज बीस, सीस ही हम दश ले लें।
साधु! साधु! थी मुझे यही आशा तुम सब से-
‘नामशेष रह जायँ वाम वैरी बस अब से।’
निश्चय-‘हमको उन्हें मारना है या मरना।’
जब मरने से नहीं, भला तब किससे डरना?
पौधे-से हम उगे एक क्यारी में बोये,
माली हमें उखाड़ ले चला तो हम रोये।
किन्तु बन्धु, वह हमें जहाँ रोपेगा फिर से,
होगा क्या उपयुक्त न वह इस भुक्त अजिर से?
तदपि चुनौती आज हमारी स्वयमपि यम को,
विश्रुत संजीवनी प्राप्त है अद्भुत हमको!
अपने ऊपर आप परीक्षा उसकी करके,
आंजनेय ले गये उसे यह अम्बर तरके।
लंका की खर-शक्ति आर्य लक्ष्मण ने झेली,
उनकी रक्षा उसी महोषधि ने शिर ले ली।
मारा प्रभु ने कुम्भकर्ण-सा निर्मम नामी,
हुआ विभीषण स्वयं शरण मनु-कुल-अनुगामी।
अब क्या है बस, वीर, बाण-से छूटो, छूटो,
सोने की उस शत्रु-पुरी लंका को लूटो।"

"नहीं, नहीं"-सुन चौंक पड़े शत्रुघ्न और सब,
ऊषा-सी आगई उर्मिला उसी ठौर तब!
वीणांगुलि-सम सती उतरती-सी चढ़ आई,
तालपूर्ति-सी संग सखी भी खिंचती आई!
आ शत्रुघ्न-समीप रुकी लक्ष्मण की रानी,
प्रकट हुई ज्यों कार्तिकेय के निकट भवानी।
जटा-जाल-से बाल विलम्बित छूट पड़े थे,
आनन पर सौ अरुण, घटा में फूट पड़े थे।
माथे का सिंदूर सजग अंगार-सदृश था;
प्रथमातप-सा पुण्य गात्र, यद्यपि वह कृश था।
बायाँ कर शत्रुघ्न-पॄष्ठ पर कण्ठ-निकट था,
दायें कर में स्थूल किरण-सा शूल विकट था।
गरज उठी वह-"नहीं, नहीं, पापी का सोना
यहाँ न लाना, भले सिन्धु में वहीं डुबोना।
धीरो, धन को आज ध्यान में भी मत लाओ,
जाते हो तो मान-हेतु ही तुम सब जाओ।
सावधान! वह अधम-धान्य-सा धन मत छूना,
तुम्हें तुम्हारी मातृभूमि ही देगी दूना।
किस धन से हैं रिक्त कहो, सुनिकेत हमारे?
उपवन फल-सम्पन्न, अन्नमय खेत हमारे।
जय पयस्य-परिपूर्ण सुघोषित घोष हमारे;
अगणित आकर सदा स्वर्ण-मणि-कोष हमारे।
देव-दुर्लभा भूमि हमारी प्रमुख पुनीता,
उसी भूमि की सुता पुण्य की प्रतिमा सीता।
मातृभूमि का मान ध्यान में रहे तुम्हारे,
लक्ष लक्ष भी एक लक्ष रक्खो तुम सारे।
हैं निज पार्थिव-सिद्धि-रूपिणी सीता रानी,
और दिव्य-फल-रूप राम राजा बल-दानी।
करे न कौणप-गन्ध कलंकित मलय पवन को,
लगे न कोई कुटिल कीट अपने उपवन को।
विन्ध्य-हिमालय-भाल, भला! झुक जाय न धीरो,
चन्द्र-सूर्य-कुल-कीर्ति-कला रुक न जाय न वीरो!
चढ़ कर उतर न जाय, सुनो, कुल-मौक्तिक मानी,
गंगा-यमुना-सिन्धु और सरयू का पानी।
बढ़ कर इसी प्रसिद्ध पुरातन पुण्यस्थल से,
किये दिग्विजय बार बार तुमने निज बल से।
यदि, परन्तु कुल-कान तुम्हारी हो संकट में,
तो अपने ये प्राण व्यर्थ ही हैं इस घट में।
किसका कुल है आर्य बना अपने कार्यों से?
पढ़ा न किसने पाठ अवनितल में आर्यों से?
पावें तुमसे आज शत्रु भी ऐसी शिक्षा,
जिसका अथ हो दण्ड और इति दया दया-तितिक्षा।
देखो, निकली पूर्व दिशा से अपनी ऊषा,
यही हमारी प्रकृत पताका, भव की भूषा।
ठहरो, यह मैं चलूँ कीर्ति-सी आगे आगे,
भोगें अपने विषम कर्म-फल अधम अभागे!"
भाल-भाग्य पर तने हुए थे तेवर उसके,
"भाभी! भाभी!" रुद्धकण्ठ थे देवर उसके।
सम्मुख सैन्य-समूह सिन्धु-सा गरज रहा था,
वरज विनय से उसे, शत्रु पर तरज रहा था।

“क्या हम सब मर गये हाय! जो तुम जाती हो,
या हमको तुम आज दीन-दुर्बल पाती हो?
मारेंगे हम देवि, नहीं तो मर जावेंगे,
अपनी लक्ष्मी लिए बिना क्या घर आवेंगे?
होगा होगा वही, उचित है जो कुछ होना;
इस मिट्टी पर सदा निछावर है वह सोना।
तुम इस पुर की ज्योति, अहो! यों धैर्य न खोओ,
प्रभु के स्वागत-हेतु गीत रच, थाल सँजोओ।”
“वीरो, पर, यह योग भला क्यों खोऊँगी मैं,
अपने हाथों घाव तुम्हारे धोऊँगी मैं।
पानी दूँगी तुम्हें, न पल भर सोऊँगी मैं;
गा अपनों की विजय, परों पर रोऊँगी मैं।”

“शान्त! शान्त!” गम्भीर नाद सुन पड़ा अचानक,
गूँज उठा हो यथा अवनि पर अम्बर-आनक!
कुलपति वृद्ध वसिष्ठ आगये तप के निधि-से,
हंस-वंश-गुरु, हंसनिष्ठ, एकानन विधि-से।

सेना की जो प्रलयकारिणी घटा उठी थी,
अब उसमें नत-नम्र-भाव की छटा उठी थी।
सैन्य-सर्प, जो फणा उठाये फुंकारित थे,
सुन मानों शिव-मन्त्र, विनत, विस्मित, वारित थे।
“शान्त, शान्त! सब सुनो, कहाँ जाते हो, ठहरो;
शौर्य-वीर्य के सघन घनाघन, व्यर्थ न घहरो।
लंका विजितप्राय, तनिक तुम धीरज धारो,
अच्छा, लो, सब इधर क्षितिज की ओर निहारो।”
मन्त्र-यष्टि-सी जहाँ उन्होंने भुजा उठाई,
दूरदृष्टि-सी एक साथ ही सबने पाई!
देखा, सम्मुख दृश्य आप ही खिंच आया है,
अन्धकार में उदित स्वप्न की-सी माया है!
लहराता भरपूर सामने वरुणालय है,
युग युग का अनुभूत विश्व का करुणालय है!
उसमें लंका-द्वीप कनक-सरसिज शोभन है,
लंका के सब ओर घोर-जंगम-जन-वन है।
राम शिविर में,-शरद् घनों में नीलाचल-से,
भीग रहे हैं उत्स-रूप आँखों के जल से।
धातुराग-से पड़े अंक में लक्ष्मण उनके,
बीत रहे हैं हाय! कल्प जैसे क्षण उनके।
जाम्बवन्त, नल, नील, अंगदादिक सेनानी,
रामानुज को देख आज सब पानी पानी।
सहलाते सुग्रीव-विभीषण युग पद-तल हैं,
वैद्य हाथ में हाथ लिये नीरव निश्वल हैं।
जड़ीभूत-से हुए देख साकेत-निवासी,
बोल सके कुछ भी न,-हुए यद्यपि अभिलाषी।
तदपि उर्मिला ने प्रयास कर हाथ उठाया,-
देखा अपना हृदय, मन्द निस्पन्दन पाया!
बोल उठे प्रभु, चौंक भरत ने भी सुन पाया-
“भाई, भाई! उठो, सबेरा होने आया।
मारूँ रावण-सहित इन्द्रजित को मैं, जाओ,-
तुम इस पुर का राज्य विभीषण को दे आओ।
चलो, समय पर मिलें अयोध्या जाकर सब से,
बधू उर्मिला मार्ग देखती है घर कब से?
आये थे तुम साथ हमें सुख ही देने को,
लाये हम भी तुम्हें न थे अपयश लेने को।
तुम न जगे तो सुनो, राम भी सो जावेगा,
सीता का उद्धार असम्भव हो जावेगा।
वीर, कहो फिर कहाँ रहेगी बात तुम्हारी?
क्षत्रियत्व कर रहा प्रतीक्षा तात, तुम्हारी!
अथवा जब तक रात, और सोओ तुम भ्रातः,
देखेंगे अरि-मित्र पद्म-सा तुमको प्रातः।
राम बाण उड़ छेद सुधाकर में कर देगा,
अमृत तुम्हारे लिए सुमधु-सा टपका लेगा!
हनूमान की बाट देख लूँ क्षण भर भाई!”
“समुपस्थित यह दास” पास ही पड़ा सुनाई!
बुरे स्वप्न में वीर आगया उद्बोधन-सा,
ओषधि लेकर किया वैद्य ने व्रण-शोधन-सा।
संजीवनी-प्रभाव घाव पर सबने देखा-
शत्रु-लौहलिपि हुई अहा! पानी की लेखा।
फैल गया आलोक, दूर होगया अँधेरा,
रवि ने अपना पद्म प्रफुल्लित होता हेरा!
चमक उठा हिम-सलिल रात भर बहते बहते,
जाग उठे सौमित्रि-सिंह यह कहते कहते-
“धन्य इन्द्रजित! किन्तु सँभल, बारी अब मेरी!”
चौंक उन्होंने दृष्टि भ्रान्त भौंरी-सी फेरी।
उन्हें हृदय से लगा लिया प्रभु ने भुज भरके,
अब्धि-अंक में उठा कलाधर यथा उभर के!
“भाई, मेरे लिए लौट फिर भी तू आया,
जन्म जन्म का इसी जन्म में मैंने पाया!”
“प्रस्तुत है यह दास आर्य-चरणों का चेरा,
किन्तु कहाँ वह मेघनाद प्रतिपक्षी मेरा?”
“लक्ष्मण! लक्ष्मण! हाय! न चंचल हो पल पल में,
क्षण भर तुम विश्राम करो इस अंकस्थल में।”
“हाय नाथ! विश्राम? शत्रु अब भी है जीता,
कारागृह में पड़ी हमारी देवी सीता!
जब तक रहा अचेत अवश था आप पड़ा मैं,
अब सचेत हूँ और स्वस्थ-सन्नद्ध खड़ा मैं।
बीत गई यदि अवधि, भरत की क्या गति होगी?-
धरे तुम्हारा ध्यान एक युग से जो योगी।
माताएँ निज अंक-दृष्टि भरने को बैठीं,
पुर-कन्याएँ कुसुम-वृष्टि करने को बैठीं।
आर्य अयोध्या जायँ, युद्ध करने मैं जाऊँ,
पहले पहुँचें आप और मैं पीछे आऊँ।
यदि वैरी को मार न कुल-लक्ष्मी को लाऊँ,
तो मेरा यह शाप मुझे-मैं सुगति न पाऊँ!”
“ऐसे पाकर तात! तुम्हें कैसे छोड़ूँ मैं?”
“किन्तु आर्य, क्या आज शत्रु से मुहँ मोड़ूँ मैं?
व्यर्थ जिया मैं, हुआ आर्य को मोह यहीं तो,
दूना बदला आप चुकाते आज नहीं तो!
मैं तो उठ भी सका शत्रु की शक्ति ठेल कर,
किन्तु उठेगा शत्रु न मेरा शेल झेल कर।
वानरेन्द्र, ऋक्षेन्द्र, करो प्रस्तुत सब सेना,
रिपु का व्रण-ऋण मुझे अभी चुकता कर देना!
जय जय राघव राम!” कह लक्ष्मण ने ज्यों ही,
गरज उठा सब कटक विकट रव करके त्यों ही।
वह लंका की ओर चला चारों द्वारों से,
उमड़ा प्रलय-पयोधि घुमड़ सौ सौ ज्वारों से।

चौड़े चौड़े चार वक्ष-से लंका गढ़ के,
तोड़े द्वार-कपाट कटक ने बढ़ के, चढ़ के।
प्रथम वेग से बचे शत्रु, जो सजग खड़े थे,
कर के अब हुंकार प्रेत-से टूट पड़े थे।
दल-बादल भिड़ गये, धरा धँस चली धमक से,
भड़क उठा क्षय कड़क तड़क से, चमक दमक से!
रण-भेरी की गमक, सुभट नट-से फिरते थे,
ताल ताल पर रुण्ड-मुण्ड उठते-गिरते थे!
छिन्न-भिन्न थे वक्ष, कण्ठ, मस्तक, कर, कन्धे,
हुए क्रोध से उभय पक्ष थे मानों अन्धे।
मिला रक्त से रक्त, वैर-सम्बन्ध फला यों,
वीर-वरों के पैर वहाँ धुलते न भला क्यों!
अग्र पंक्ति का पतन जिधर होता जैसे ही,
बढ़ पीछे की पंक्ति पूर्त्ति करती वैसे ही।
दो धाराएँ उमड़ उमड़ सम्मुख टकरातीं,
उठतीं होकर एक और गिरतीं, चकरातीं।
मची खलबली गली गली में लंकापुर की,
आँखों में आ झाँक उठी आतुरता उर की।
आया रावण जिधर दिव्य-रथ में राघव थे,
क्या ही गौरव भरे आज प्रभु-कर-लाघव थे!
गरजा राक्षस-“ठहर, ठहर तापस, मैं आया,
जी कर तेरा शोक-मात्र लक्ष्मण ने पाया!
पंचानन के गुहा-द्वार पर रक्षा किसकी?
मैं तो हूँ विख्यात दशानन, सुध कर इसकी!”
हँस बोले प्रभु-“तभी द्विगुण पशुता है तुझमें,
तू ने ही आखेट-रंग उपजाया मुझमें!”
दशमुख को संग्राम, राम को थी वह क्रीड़ा,
स्थितप्रज्ञ को दशों इन्द्रियों की क्या पीड़ा?
“धन्य पुण्यजन, धन्य शूरता तुझ-से जन की,
वीर, दूर कर कुटिल क्रूरता अब भी मन की।
बल, विकास के लिए, नाश के लिए नहीं है,
किन्तु रहे वह शक्ति न,-जिससे ह्रास कहीं है।”
“भय लगता है मनुज, तुझे तो क्यों आया था?”
“अरे निशाचर, मुझे काल तेरा लाया था।
चिर परिचित तू जान त्राण-करुणा से मुझको,
भय से परिचित करा सके तो जानूँ तुझको!”
रिपु के सौ सौ शस्त्र वेगपूर्वक आते थे,
कट जाते थे किन्तु, उन्हें कब छू पाते थे।
घिरा घोर घन, तड़ित्तेज चौंका देता था,
किन्तु पवन झट उसे एक झोंका देता था!
पूर्व अयन पर कौन रोकता रामानुज को?
हुए सुभुज वे सिद्ध-योग-से राक्षस-रुज को।
निकुम्भला में मेघनाद साधन करता था,
विजय-हेतु निज इष्ट-समाराधन करता था।
नल-वन-सम दल शत्रु जनों को, वे भुज-बल से;
पुर में हुए प्रविष्ट, जलधि में बड़वानल-से।
अंगदादि भट संग गये अपने को चुनके,
उड़ते-से अंगार हुए वे उत्कट उनके।
हलचल-सी मच गई, कोट भर में कलकल था,
अरि-दल पीछे जा न सका, आगे प्रभु-दल था।
रावण ने चाहा कि लौट लक्ष्मण को घेरे,
गरजे प्रभु-“धिक भीरु! पीठ जो मुझसे फेरे।
इसे समझ रख, आज भाग भी तू न सकेगा।”
गरजा रावण-“अटक कहाँ तक तू अटकेगा।
भय क्या, पक्षी आज स्वयं पिंजरे में पैठा,
तू भी उसकी दशा देखियो, पथ में बैठा।”
उधर हाँक सुन हनुमान की पुरजन दहले-
“मैं वह हूँ जो जला गया था लंका पहले!
मेघनाद ही हमें चाहिए आज, कहाँ वह?”
पहुँचे सब निज यज्ञ-लग्न था मग्न जहाँ वह।
भीषण थी भट-मूर्त्ति अहा! क्या भली बनी थी;
रक्त-मांस की नहीं, धातु की ढली बनी थी!
वेदी भट्ठी बनी,-छोड़ती थी जो ज्वाला,
पहनाती थी उसे आप वह मोहन-माला!
पशु-बलि देकर बली शस्त्र-पूजन करता था,
अस्फुट मन्त्रोच्चार कलित-कूजन करता था।
ठिठक गये सब एक साथ पल भर निश्चल-से,
बोले तब सौमित्रि भड़ककर दावानल-से-
“अरे इन्द्रजित, देख, द्वार पर शत्रु खड़ा है,
करता उससे विमुख कौन तू कर्म बड़ा है?
जिसके सिर पर शत्रु, धर्म उसका-वह जूझे,
किन्तु पतित तू आर्य-मर्म क्या समझे-बूझे।”
चौंक हतप्रभ हुआ शत्रु-“कैसे तू आया?
घर का भेदी कौन-यहाँ जो तुझको लाया?”
“अरे, काल के लिए कौन पथ खुला नहीं है?
आता अपने आप अन्त तो सभी कहीं है।
मैं हूँ तेरा अतिथि युद्ध का भूखा, ला तू,
कर ले कुछ तो धर्म,-‘अतिथि देवो भव’-आ तू!”
“लक्ष्मण, तुझ-सा अतिथि देख मैं कब डरता हूँ!
पर कह, क्या यह धर्म नहीं जो मैं करता हूँ?”
“कौन धर्म यह-शत्रु खड़े हुंकार रहे हैं-
तेरे आयुध यहाँ दीन पशु मार रहे हैं।”
“करता हूँ मैं वैरि-विजय का ही यह साधन।”
“तब है तेरा कपट मात्र यह देवाराधन।
ठहर, ठहर, बस, वृथा वंचना न कर अनल की,
कर केवल कर्त्तव्य, छोड़ दे चिन्ता फल की।”
“लक्ष्मण, मेरी शक्ति अभी क्या भूल गया तू?
मरते मरते बचा, इसीसे फूल गया तू?”
“देखी तेरी शक्ति, उसी पर तू इतराया?-
जिसको मेरी एक जड़ी ने ही छितराया।
है क्या कोई युक्ति यहाँ भी, बतला मुझको,
जो तेरा सिर जोड़ जिला दे फिर भी तुझको?
यह तो हुआ विनोद, किन्तु सचमुच मैं भाई,
देने आया तुझे उसी के लिए बधाई।
बैठा है क्यों छिपा, अनोखे आयुधधारी?
उठ, प्रस्तुत हो, देख तनिक अब मेरी बारी।
पूर्ण करूँगा यज्ञ आज तेरी बलि देकर”-
खड़ा हो गया शूर सर्प-सा आयुध लेकर।
हुआ वहाँ सम-समर अनोखा साज सजा कर,
देते थे पद-ताल उभय कर-लोह बजा कर!

शब्द शब्द से, शस्त्र शस्त्र से, घाव घाव से,
स्पर्द्धा करने लगे परस्पर एक भाव से।
होकर मानों एक प्राण दोनों भट-भूषण,
दो देहों को मान रहे थे निज निज दूषण!
प्राणों का पण लगा लगा कर दोनों लक्षी,
उड़ा उड़ा कर लड़ा रहे थे निज निज पक्षी।
कौतुक-सा था मचा एक मरने-जीने का,
संगर मानों रंग हुआ था रस पीने का!
क्रम से बढ़ने लगी युगल वीरों की लाली,
ताली देकर नाच रहे थे रुद्र कपाली।
व्रण-माला थी बनी जपा फूलों की डाली,
रण-चण्डी पर चढ़ी, बढ़ी काली मतवाली।
हुए सशंकित देव-कौन जय-वर पावेगा?
धर्म न क्या निज हानि आज भी भर पावेगा।
हँस कर विधि को हेर कहा हरि ने-“क्या मन है?
देव जनों का यही शेष पौरुष-साधन है!”
इधर गरज कर मेघनाद बोला लक्ष्मण से-
“तू ने निज नर-नाट्य किया प्राणों के पण से।
इस पौरुष के पड़े अमर-पुर में भी लाले,
किन्तु मर्त्य, तू पड़ा आज राक्षस के पाले!”
“मेघनाद, है विफल, उगलता है जो विष तू,
मत कर अपनी आप बड़ाई मेरे मिष तू।
जीवन क्या है, एक जूझना मात्र जनों का,
और मरण? वह नया जन्म है पुरातनों का!
किन्तु बिगाड़ा जन्म जनक तेरे ने जैसा,
तुझको पैतृक रोग भोगना होगा वैसा।
जन्मान्तर के लिए जान रख, जो पातक है,
वह अपना ही नहीं, वंश का भी घातक है,
यदि सीता ने एक राम को ही वर माना,
यदि मैं ने निज बधू उर्मिला को ही जाना,
तो, बस, अब तू सँभल, बाण यह मेरा छूटा,
रावण का वह पाप-पूर्ण हाटक-घट फूटा!”
हुआ सूर्य-सा अस्त इन्द्रजित लंकापुर का,
शून्य भाव था गगन-रूप रावण के उर का!
इधर उर्मिला बधू-वदन-लज्जा की लाली-
फूली सन्ध्या प्राप्त कर रही थी दीपाली!

जग कर मानों एक बार, जय जय जय कह कर,
पुनः स्वप्न सा देख उठे सब नीरव रह कर।
अब थीं प्रकट अशोक-वाटिका में वैदेही,
करुणा की प्रत्यक्ष अधिष्ठात्री क्या ये ही।
स्वयं वाटिका बनी विकट थी झाड़ी उनकी,
राक्षसियाँ थी घनी-कटीली बाड़ी उनकी।
उन दोनों के बीच घिरी थीं देवी सीता,
राजस-तामस-मध्य सात्विकी वृत्ति पुनीता।
एक विभीषण-बधू उन्हें धीरज देती थी,
या प्रतिमा-सी पूज आप वह वर लेती थी।
“अब प्रभु के ही निकट देवि, अपने को जानों,
मेघनाद क्या मरा, मरा रावण ही मानों।
सारी लंका आज रो रही है सिर घुन कर,
रावण मूर्च्छित हुआ शुभे, रथ में ही सुन कर।
प्रभु बोले-‘उठ, जाग, बाण प्रस्तुत है मेरा,
मैं सह सकता नहीं दुःख रावण, अब तेरा!’
मेरे स्वामी धन्य, हुए उनके पद-सेवी,
अरि का भी यों दुःख जिन्हें दुस्सह है देवी।
रहता कहीं सचेत समर में रावण क्षण भर,
उसे आज ही शोक-मुक्त करते उनके शर।”
तब सीता ने कहा पोंछ आँखों का पानी-
“सरमे, क्या दूँ तुम्हें? जियो लंका की रानी!”
“वसुधा का राजत्व निछावर तुम पर साध्वी,
रक्खे मुझको मत्त इन्हीं चरणों की माध्वी!
तुम सोने की सती-मूर्ति, शम-दम की दीक्षा,
दी है अपनी यहाँ जिन्होंने अग्नि-परीक्षा।”

भर कर श्वासोच्छ्वास अयोध्या-वासी जागे,
दीख पड़े गुरुदेव सभी को अपने आगे।
बोले मुनि-“सब लोग सजाओ अपने मन्दिर,
अपनी उर चिर-अजिर-मूर्त्ति को पाओ फिर फिर।”
गूँजा जय जय नाद, गर्व छाया जन जन में,
वह उमड़ा उत्साह लगा स्वागत-साधन में।
सैन्यजनों ने फेंट अनिच्छा पूर्वक खोली,
“निकली नहीं उमंग?” वीर-बधुएँ हँस बोली-
“वानर यश ले गये!” “प्रिये, देखा है सब तो,
अश्वमेघ की बाट जोहनी होगी अब तो!”

मज्जन पूर्वक सुधा-नीर से पुरी नहाई,
उस पर उसने वर्ण वर्ण की भूषा पाई।
लिख बहु स्वागत-वाक्य सुपरिचय दे रति-मति का,
वासकसज्जा बनी देखती थी पथ पति का!
आया, आया, किसी भाँति वह दिन भी आया,
जिसमें भव ने विभव, गेह ने गौरव पाया।
आये पूर्व-प्रसाद-रूप-से मारुति पुर में;
प्रकटे फिर, जो छिपे हुए थे सबके उर में।
अपनों के ही नहीं, परों के प्रति भी धार्मिक,
कृती प्रवृत्ति-निवृत्ति-मार्ग-मर्यादा-मार्मिक,
राजा होकर गृही, गृही होकर सन्यासी,
प्रकट-हुए आदर्श रूप घट घट के वासी।
पाया, हाँ, आकाश-कुसुम भी हमने पाया,
फैलाता निज गन्ध गगन में पुष्पक आया।
अगणित नेत्र-मिलिन्द उड़े, प्रभु-गुण-रव छाया,
मानुष-मानस लाख तरंगों से लहराया!
भुक्ति विभीषण और मुक्ति रावण को देकर,
विजय सखी के संग शुद्ध सीता को लेकर।
दाक्षिणात्य-लंकेश अतिथि लाकर मन भाये,
आतिथेय ही बने लक्ष्मणाग्रज घर आये।
भरत और शत्रुघ्न नगर तोरण के आगे,
मानों थे प्रतिबिम्ब प्रथम ही उनके जागे।
कहा विभीषण ने सुकण्ठ से सुध-सी खोकर-
“प्रकटित सानुज राम आज दुगुने-से होकर!”

वर विमान से कूद, गरुड़ से ज्यों पुरुषोत्तम,
मिले भरत से राम क्षितिज में सिन्धु-गगन-सम!
“उठ, भाई, तुल न सका तुझसे, राम खड़ा है,
तेरा पलड़ा बड़ा, भूमि पर आज पड़ा है!
गये चतुर्दश वर्ष, थका मैं नहीं भ्रमण में,
विचरा गिरि-वन-सिन्धु-पार लंका के रण में।
श्रान्त आज एकान्त-रूप-सा पाकर तुझको,
उठ, भाई, उठ, भेंट, अंक में भर ले मुझको!
मैं वन जाकर हँसा, किन्तु घर आकर रोया,
खोकर रोये सभी, भरत, मैं पाकर रोया।”
“आर्य, यही अभिषेक तुम्हारे भृत्य भरत का,
अन्तर्बाह्य अशेष आज कृत्कृत्य भरत का।”
पूरी भी थीं युगल मूर्त्तियाँ अब तक ऊनी,
मिल होकर भी एक, हर्ष से थीं अब दूनी।
हिल हिल कर मिल गईं परस्पर लिपट जटाएँ,
मुख-चन्द्रों पर झूम रही थीं घूम घटाएँ।

साधु भरत के अश्रु गिरें चरणों में जब लों,
नयनों में ही भरे सती सीता ने तब लों।
लता-मूल का सिंचा सलिल फूलों में फूटा,
फैला वह रस-गन्ध सर्वदा सब ने लूटा।
देवर-भाभी मिले, मिले सब भाई भाई,
बरसे भू पर फूल, जयध्वनि ऊपर छाई।
भरत मिले सुग्रीव-विभीषण से यह कह कर,
‘सफल बन्धु-सम्बन्ध हमारा तुममें रह कर।’

पैदल ही प्रभु चले भीड़ के संग पुरी में,
संघर्षित थे आज अंग से अंग पुरी में।
अहा! समाई नहीं अयोध्या फूली फूली,
तब तो उसमें भीड़ अमाई ऊली ऊली!
पुरकन्याएँ खील-फूल-धन बरसाती थीं,
कुल-ललनाएँ धरे भरे शुभ घट, गाती थीं,-
“आज हमारे राम हमारे घर फिर आये,
चारों फल हैं इसी लोक में हमने पाये।”
द्वार द्वार पर झूल रही थीं शुभ मालाएँ,
झलती थीं ध्वज-व्यजन शील-शीला शालाएँ।
राजमार्ग में पड़े पाँवड़े फूल भरे थे,
छत्र लिए थे भरत, चौंर शत्रुघ्न धरे थे।
माताओं के भाग आज सोते से जागे,
पहुँचे पहुँचे राम राज-तोरण के आगे।
न कुछ कह सकीं, न वे देख ही सकीं सुतों को,
रोकर लिपटीं उठा उठा उन प्रणति युतों को।
काँप रही थीं हर्ष-भार से तीनों थर थर,
लुटा रही थीं रत्न आज वे तीनों भर भर।
लिये आरती वे उतारती थीं तीनों पर,
क्या था, जिसे न आज वारती थीं तीनों पर।
दिन था मानों यही बधू-वर के लेने का,
जो जिसको हो इष्ट, वही उसको देने का।
“बहू, बहू, वैदेहि, बड़े दुख पाये तू ने।”
“माँ, मेरे सुख आज हुए हैं दूने दूने!”
“आया फिर तू राम, कोख में मानों मेरी,
लक्ष्मण, मेरी गोद रहे शिशु-शैय्या तेरी।”
“जन्म जन्म में यही कोख जननी, मैं पाऊँ,”
“माँ, मैं लक्ष्मण इसी गोद में पलता आऊँ।”
सुप्रभ प्रभु ने कहा सुमित्रा से नत होकर-
“पाया मैं ने अम्ब, पुनः लक्ष्मण को खोकर।
रख न सका मैं हाय! दिया मुझको जो तुमने,
धन्य तुम्हारा पुण्य, प्राण पाये इस द्रुम ने।”
“किन्तु तुम्हें ही सौंप चुकी हूँ राम इसे मैं,
लूँ फिर कैसे उसे, दे चुकी आप जिसे मैं?
लिया अन्य का भार भरत ने, मैं अब हलकी,
तुमको पाया, रही कामना फिर किस फल की?”

समझी प्रभु ने कसक भरत-जननी के मन की,
“मूल शक्ति माँ, तुम्हीं सुयश के इस उपवन की।
फल, सिर पर ले धूल, दिये तुमने जो मीठे
उनके आगे हुए सुधा के घट भी सीठे।”
“भागी हो तुम वत्स राम रघुवर, भव भर के,
कैकेयी के दोष लिये तुमने गुण करके।
ढोया जीवन-भार, दुःख ही ढाया मैं ने,
पाकर तुम्हें परन्तु भरत को पाया मैं ने!”

मिल बहनों से हुई चौगुनी सचमुच सीता,
गाई प्रभु ने बधू उर्मिला की गुण-गीता-
“तू ने तो सहधर्मचारिणी के भी ऊपर
धर्मस्थापन किया भाग्यशालिनि, इस भू पर!”

मानों मज्जित हुई पुरी जय जय के रव में,
पुरजन, परिजन लगे इधर अभिषेकोत्सव में।
पाई प्रभु से इधर नई छवि राज-भवन ने,
सागर का माधुर्य पी लिया मानों घन ने!

पाकर अहा! उमंग उर्मिला-अंग भरे थे,
आली ने हँस कहा-“कहाँ ये रंग भरे थे?
सुप्रभात है आज, स्वप्न की सच्ची माया!
किन्तु कहाँ वे गीत, यहाँ जब श्रोता आया!
फड़क रहा है वाम नेत्र, उच्छ्वसित हृदय है;
अब भी क्या तन्वंगि, तुम्हें संशय या भय है?
आओ, आओ, तनिक तुम्हें सिंगार सजाऊँ,
बरसों की मैं कसक मिटाऊँ, बलि बलि जाऊँ।”
“हाय! सखी, शृंगार? मुझे अब भी सोहेंगे?
क्या वस्त्रालंकार मात्र से वे मोहेंगे?
मैं ने जो वह ‘दग्ध-वर्त्तिका’ चित्र लिखा है,
तू क्या उसमें आज उठाने चली शिखा है?
नहीं, नहीं, प्राणेश मुझी से छले न जावें,
जैसी हूँ मैं, नाथ मुझे वैसा ही पावें।
शूर्पणखा मैं नहीं-हाय, तू तो रोती है!
अरी, हृदय की प्रीति हृदय पर ही होती है।”

“किन्तु देख यह वेश दुखी होंगे वे कितने?”
“तो, ला भूषण-वसन, इष्ट हों तुझको जितने।
पर यौवन-उन्माद कहाँ से लाऊँगी मैं?
वह खोया धन आज कहाँ सखि, पाऊँगी मैं?”
“अपराधी-सा आज वही तो आने को है,
बरसों का यह दैन्य सदा को जाने को है।”
“कल रोती थीं आज मान करने बैठी हो,
कौन राग यह, जिसे गान करने बैठी हो?
रवि को पाकर पुनः पद्मिनी खिल जाती है,
पर वह हिमकण बिना कहाँ शोभा पाती है?”
“तो क्या आँसू नहीं सखी, अब इन आँखों में?
फूटें, पानी न हो बड़ी भी जिन आँखों में!”
“प्रीति-स्वाति का पिया शुक्ति बन बन कर पानी,
राजहंसिनी, चुनो रीति-मुक्ता अब रानी!”
“विरह रुदन में गया, मिलन में भी मैं रोऊँ;
मुझे और कुछ नहीं चाहिए पद-रज धोऊँ।
जब थी तब थी आलि, उर्मिला उनकी रानी,
वह बरसों की बात, आज होगई पुरानी!
अब तो केवल रहूँ सदा स्वामी की दासी,
मैं शासन की नहीं, आज सेवा की प्यासी।
युवती हो या आलि, उर्मिला बाला तन से,
नहीं जानती किन्तु स्वयं, क्या है वह मन से!
देखूँ, कह, प्रत्यक्ष आज अपने सपने को,
या सजबज कर आप दिखाऊँ मैं अपने को?
सखि, यथेष्ट है यही धुली धोती ही मुझको;
लज्जा उनके हाथ, व्यर्थ चिन्ता है तुझको।
उछल रहा यह हृदय अंक में भर ले आली,
निरख तनिक तू आज ढीठ सन्ध्या की लाली!
मान करूँगी आज? मान के दिन तो बीते,
फिर भी पूरे हुए सभी मेरे मनचीते।
टपक रही वह कुंज-शिला वाली शेफाली,
जा नीचे, दो चार फूल चुन, ले आ डाली!
वनवासी के लिए सुमन की भेंट भली वह!”
“किन्तु उसे तो कभी पा चुका प्रिये, अली यह!”
देखा प्रिय को चौंक प्रिया ने, सखी किधर थी?
पैरों पड़ती हुई उर्मिला हाथों पर थी!

लेकर मानों विश्व-विरह उस अन्तः पुर में,
समा रहे थे एक दूसरे के वे उर में।
रोक रही थी उधर मुखर मैंना को चेरी-
‘यह हत हरिणी छोड़ गये क्यों नये अहेरी।’
“नाथ, नाथ, क्या तुम्हें सत्य ही मैंने पाया?”
“प्रिये, प्रिये, हाँ आज-आज ही-वह दिन आया।
मेघनाद की शक्ति सहन करके यह छाती,
अब भी क्या इन पाद-पल्लवों से न जुड़ाती?
मिला उसी दिन किन्तु तुम्हें मैं खोया खोया,
जिस दिन आर्या बिना आर्य का मन था रोया।
पूर्ण रूप से सुनो, तुम्हें मैंने कब पाया,
जब आर्या का हनूमान ने हाल सुनाया!
अब तक मानों जिसे वेशभूषा में टाला,
अपने को ही आज मुझे तुमने दे डाला।
आँखों में ही रही अभी तक तुम थी मानों,
अन्तस्तल में आज अचल निज आसन जानों।
परिधि-विहीन सुधांशु-सदृश सन्ताप-विमोचन,
घूलि रहित, हिम-धौत सुमन-सा लोचन-रोचन,
अपनी द्युति से आप उदित, आडम्बर त्यागे,
धन्य अनावृत-प्रकृत-रूप यह मेरे आगे।
जो लक्ष्मण था एक तुम्हारा लोलुप कामी,
कह सकती हो आज उसे तुम अपना स्वामी।”
“स्वामी, स्वामी, जन्म जन्म के स्वामी मेरे!
किन्तु कहाँ वे अहोरात्र, वे साँझ-सबेरे!
खोई अपनी हाय! कहाँ वह खिल खिल खेला?”
“प्रिय, जीवन की कहाँ आज वह चढ़ती वेला?”
काँप रही थी देह-लता उसकी रह रह कर,
टपक रहे थे अश्रु कपोलों पर बह बह कर।
“वह वर्षा की बाढ़, गई, उसको जाने दो,
शुचि-गभीरता प्रिये, शरद की यह आने दो।
धरा-धाम को राम-राज्य की जय गाने दो,
लाता है जो समय प्रेम-पूर्वक, लाने दो।

तुम सुनों, सदैव समीप है-
जो अपना आराध्य है;
आओ, हम साधें शक्ति भर,
जो जीवन का साध्य है।

अलक्ष की बात अलक्ष जानें,
समक्ष को ही हम क्यों न मानें?
रहे वहीं प्लावित प्रीति-धारा,
आदर्श ही ईश्वर है हमारा।”

स्वच्छतर अम्बर में छनकर आ रहा था
स्वादु-मधु-गन्ध से सुवासित समीर-सोम,
त्यागी प्रेम-याग के व्रती वे कृती जायापती
पान करते थे गल-बाँह दिये, आपा होम।
क्षुद्र कास-कुश से लगा कर समुद्र तक,
मेदनी में किसका था मुदित न रोम रोम?
समुदित चन्द्र किरणों का चौंर ढारता था,
आरती उतारता था दिव्य दीप वाला व्योम!

श्रीरामचरणार्पणमस्तु।

दीपावली
संवत् १९८६ विक्रमी
चिरगाँव।

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