रुबाईयाँ : फ़िराक़ गोरखपुरी

Rubaiyat/Rubaiyan : Firaq Gorakhpuri

अफ़्लाक पे जब परचम-ए-शब लहराया
साक़ी ने भरा साग़र-ए-मह छलकाया
कुछ सोच के कुछ देर तअम्मुल कर के
उस ने भी ज़रा पर्दा-ए-रुख़ सरकाया

अफ़्सुर्दा फ़ज़ा पे जैसे छाया हो हिरास
दुनिया को कोई हवा भी आती नहीं रास
डूबी जाती हो जैसे नब्ज़-ए-कौनैन
जिस बात पे हुस्न आज इतना है उदास

अमृत में धुली हुई फ़िज़ा ए सहरी
जैसे शफ़्फ़ाफ़ नर्म शीशे में परी
ये नर्म क़बा में लेहलहाता हुआ रूप
जैसे हो सबा की गोद फूलोँ से भरी

अमृत वो हलाहल को बना देती है
गुस्से की नज़र फूल खिला देती है
माँ लाडली औलाद को जैसे ताड़े
किस प्यार से प्रेमी को सज़ा देती है

आ जा कि खड़ी है शाम पर्दा घेरे
मुद्दत हुई जब हुए थे दर्शन तेरे
मग़रिब से सुनहरी गर्द उठी सू-ए-क़ाफ़
सूरज ने अग्नी रथ के घोड़े फेरे

आवाज़ पे संगीत का होता है भरम
करवट लेती है नर्म लय में सरगम
ये बोल सुरीले थरथराती है फ़ज़ा
अन-देखे साज़ का खनकना पैहम

आंखें हैं कि पैग़ाम मोहब्बत वाले
बिखरी हैं लटें कि नींद में हैं काले
पहलू से लगा हुआ हिरन का बच्चा
किस प्यार से है बग़ल में गर्दन डाले

आँखों में वो रस जो पत्ती पत्ती धो जाए
ज़ुल्फ़ों के फ़ुसूँ से मार-ए-सुम्बुल सो जाए
जिस वक़्त तू सैर-ए-गुलिस्ताँ करता हो
हर फूल का रंग और गहरा हो जाए

आँगन में सुहागनी नहा के बैठी हुई
रामायण जानुओं पे रक्खी है खुली
जाड़े की सुहानी धूप खुले गेसू की
परछाईं चमकते सफ़हे पर पड़ती हुई

'ईसा' के नफ़्स में भी ये एजाज़ नहीं
तुझ से चमक उठती है अनासिर की जबीं
इक मोजिज़ा-ए-ख़मोश तर्ज़-ए-रफ़्तार
उठते हैं क़दम कि साँस लेती है ज़मीं

एक हलका-ए-ज़ंजीर तो ज़ंजीर नहीं
एक नुक्ता-ए-तस्वीर तो तस्वीर नहीं
तकदीर तो कौमों की हुआ करती है
एक शख्स की तकदीर कोई तकदीर नहीं

ऐ मअनी-ए-काइनात मुझ में आ जा
ऐ राज़-ए-सिफ़ात-ओ-ज़ात मुझ में आ जा
सोता संसार झिलमिलाते तारे
अब भीग चली है रात मुझ में आ जा

ऐ रूप की लक्ष्मी ये जल्वों का राग
ये जादू-ए-काम-रूप ये हुस्न की आग
ख़ैर ओ बरकत जहान में तेरे दम से
तेरी कोमल हँसी मोहब्बत का सुहाग

करते नहीं कुछ तो काम करना क्या आए
जीते-जी जान से गुज़रना क्या आए
रो रो के मौत माँगने वालों को
जीना नहीं आ सका तो मरना क्या आए

कहती हैं यही तेरी निगाहें ऐ दोस्त
निकलीं नई ज़िंदगी की राहें ऐ दोस्त
क्यूँ हुस्न-ओ-मोहब्बत से न ऊँचे उठ के
दोनों इक दूसरे को चाहें ऐ दोस्त

किस प्यार से दे रही है मीठी लोरी
हिलती है सुडौल बांह गोरी-गोरी
माथे पे सुहाग आंखों मे रस हाथों में
बच्चे के हिंडोले की चमकती डोरी

किस प्यार से होती है ख़फा बच्चे से
कुछ त्योरी चढ़ाए मुंह फेरे हुए
इस रूठने पे प्रेम का संसार निसार
कहती है कि जा तुझसे नहीं बोलेंगे

क्या तेरे ख़याल ने भी छेड़ा है सितार
सीने में उड़ रहे हैं नग़्मों के शरार
ध्यान आते ही साफ़ बजने लगते हैं कान
है याद तेरी वो खनक वो झंकार

क़तरे अरक़-ए-जिस्म के मोती की लड़ी
है पैकर-ए-नाज़ कि फूलों की छड़ी
गर्दिश में निगाह है कि बटती है हयात
जन्नत भी है आज उमीदवारों में खड़ी

क़ामत है कि अंगड़ाइयाँ लेती सरगम
हो रक़्स में जैसे रंग-ओ-बू का आलम
जगमग जगमग है शब्नमिस्तान-ए-इरम
या क़ौस-ए-क़ुज़ह लचक रही है पैहम

ग़ुन्चे को नसीम गुदगुदाए जैसे
मुतरिब कोई साज़ छेड़जाए जैसे
यूँ फूट रही है मुस्कुराहट की किरन
मन्दिर में चिराग़ झिलमिलाए जैसे

गुन्चों से भी नर्म गुन्चगी देखी है
नाजुक कम कम शगुफ्तगी देखी है
हाँ, याद हैं तेरे लब-ए-आसूदा मुझे
तस्वीर-ए-सुकूँ-ए-जिन्दगी देखी है

चिलमन में मिज़: की गुनगुनाती आँखें
चोथी की दुल्हन सी लजाती आँखें
जोबन रस की सुधा लुटाती हर आन
पलकोँ की ओट मुस्कुराती आँखें

चेहरे पे हवाइयाँ निगाहों में हिरास
साजन के बिरह में रूप कितना है उदास
मुखड़े पे धुवां धुवां लताओं की तरह
बिखरे हुए बाल हैं कि सीता बनवास

जुल्फ-ए-पुरखम इनाम-ए-शब मोड़ती है
आवाज़ तिलिस्म-ए-तीरगी तोड़ती है
यूँ जलवों से तेरे जगमगाती है जमीं
नागिन जिस तरह केंचुली छोड़ती है

तारों को भी लोरियाँ सुनाती हुई आँख
जादू शब ए तार का जगाती हुई आँख
जब ताज़गी सांस ले रही हो दम ए सुब
दोशीज़: कंवल सी मुस्कुराती हुई आँख

भूली हुई ज़िन्दगी की दुनिया है कि आँख
दोशीज़: बहार का फ़साना है कि आँख
ठंडक, ख्नुशबू, चमक, लताफ़त, नरमी
गुलज़ार ए इरम का पहला तड़का है कि आँख

तारों को भी लोरियाँ सुनाती हुई आँख
जादू शब ए तार का जगाती हुई आँख
जब ताज़गी सांस ले रही हो दम ए सुब:
दोशीज़: कंवल सी मुस्कुराती हुई आँख

दोशीज़-ए-बहार मुस्कुराए जैसे
मौज ए तसनीम गुनगुनाए जैसे
ये शान ए सुबकरवी, ये ख़ुशबू-ए-बदन
बल खाई हुई नसीम गाए जैसे

पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
पानी हचकोले ले के भरता है तरंग
कांधों पे, सरों पे, दोनों बाहों में कलस
मंद अंखड़ियों में, सीनों में भरपूर उमंग

प्यारी तेरी छवि दिल को लुभा लेती है
इस रूप से दुनिया की हरी खेती है
ठंडी है चाँद की किरन सी लेकिन
ये नर्म नज़र आग लगा देती है

प्रेमी को बुखार, उठ नहीं सकती है पलक
बैठी हुई है सिरहाने, माँद मुखड़े की दमक
जलती हुई पेशानी पे रख देती है हाथ
पड़ जाती है बीमार के दिल में ठंडक

भूली हुई ज़िन्दगी की दुनिया है कि आँख
दोशीज़: बहार का फ़साना है कि आँख
ठंडक, ख्नुशबू, चमक, लताफ़त, नरमी
गुलज़ार ए इरम का पहला तड़का है कि आँख

मथती है जमे दही को रस की पुतली
अलकों की लटें कुचों पे लटकी-लटकी
वो चलती हुई सुडौल बाहों की लचक
कोमल मुखड़े पर एक सुहानी सुरखी

महताब में सुर्ख अनार जैसे छूटे
से कज़ा लचक के जैसे छूटे
वो कद है के भैरवी जब सुनाये सुर
गुलज़ार-ए-इश्क़ से नर्म कोंपल फूटे

मंडलाता है पलक के नीचे भौंवरा
गुलगूँ रुख़सार की बलाएँ लेता
रह रह के लपक जाता है कानों की तरफ़
गोया कोई राज़ ए दिल है इसको कहना

मासूम जबीं और भवों के ख़ंजर
वो सुबह के तारे की तरह नर्म नज़र
वो चेहरा कि जैसे सांस लेती हो सहर
वो होंट तमानिअत की आभा जिन पर

माँ और बहन भी और चहेती बेटी
घर की रानी भी और जीवन साथी
फिर भी वो कामनी सरासर देवी
और सेज पे बेसवा वो रस की पुतली

ये ईख के खेतों की चमकती सतहें
मासूम कुंवारियों की दिलकश दौड़ें
खेतों के बीच में लगाती हैं छलांग
ईख उतनी उगेगी जितना ऊँचा कूदें

लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीज़: ए सुबह गुनगुनाए जैसे
ये रूप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार
बच्चा सोते में मुसकुराए जैसे

वो गाय को दुहना वो सुहानी सुब्हें
गिरती हैं भरे थन से चमकती धारें
घुटनों पे वो कलस का खनकना कम-कम
या चुटकियों से फूट रही हैं किरनें

सेहरा में जमाँ मकाँ के खो जाती हैं
सदियों बेदार रह के सो जाती हैं
अक्सर सोचा किया हुँ खल-वत में 'फ़िराक़'
तहजीबें क्युं गुरूब हो जाती हैं

हम्माम में ज़ेर-ए-आब जिसम ए जानाँ
जगमग जगमग ये रंग-ओ-बू का तूफ़ाँ
मलती हैं सहेलियाँ जो मेंहदी रचे पांव
तलवों की गुदगुदी है चहरे से अयाँ

हर जलवे से एक दरस-ए-नुमू लेता हूँ
लबरेज़ कई जाम-ओ-सुबू लेता
पड़ती है जब आँख तुझपे ऐ जान-ए-बहार
संगीत की सरहदों को छू लेता हूँ

हर साज़ से होती नहीं एक धुन पैदा
होता है बड़े जतन से ये गुन पैदा
मीज़ाँ-ए-नशात-ओ-गम में सदियों तुल कर
होता है हालात में तव्जौ पैदा

है ब्याहता पर रूप अभी कुंवारा है
मां है पर अदा जो भी है दोशीज़ा है
वो मोद भरी मांग भरी गोद भरी
कन्या है , सुहागन है जगत माता

हौदी पे खड़ी खिला रही है चारा
जोबन रस अंखड़ियों से छलका छलका
कोमल हाथों से है थपकती गरदन
किस प्यार से गाय देखती है मुखड़ा

  • मुख्य पृष्ठ : फ़िराक़ गोरखपुरी की शायरी/कविता
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