Poetry in Hindi Zafar Ali Khan
हिंदी कविता ज़फ़र अली ख़ाँ

1. फ़ानूस-ए-हिन्द का शोला

ज़िंदा-बाश ऐ इंक़लाब ऐ शोला-ए-फ़ानूस-ए-हिन्द
गर्मियाँ जिस की फ़रोग़-ए-मंक़ल-ए-जाँ हो गईं

बस्तियों पर छा रही थीं मौत की ख़ामोशियाँ
तू ने सूर अपना जो फूँका महशरिस्ताँ हो गईं

जितनी बूँदें थीं शहीदान-ए-वतन के ख़ून की
क़स्र-आज़ादी की आराइश का सामाँ हो गईं

मर्हबा ऐ नौ-गिरफ़्तारान-ए-बेदाद-ए-फ़रंग
जिन की ज़ंजीरें ख़रोश-अफ़ज़ा-ए-ज़िंदाँ हो गईं

ज़िंदगी उन की है दीन उन का है दुनिया उन की है
जिन की जानें क़ौम की इज़्ज़त पे क़ुर्बां हो गईं

2. हिन्दोस्तान

नाक़ूस से ग़रज़ है न मतलब अज़ाँ से है
मुझ को अगर है इश्क़ तो हिन्दोस्ताँ से है

तहज़ीब-ए-हिन्द का नहीं चश्मा अगर अज़ल
ये मौज-ए-रंग-रंग फिर आई कहाँ से है

ज़र्रे में गर तड़प है तो इस अर्ज़-ए-पाक से
सूरज में रौशनी है तो इस आसमाँ से है

है इस के दम से गर्मी-ए-हंगामा-ए-जहाँ
मग़रिब की सारी रौनक़ इसी इक दुकाँ से है

3. इंक़लाब-ए-हिन्द

बारहा देखा है तू ने आसमाँ का इंक़लाब
खोल आँख और देख अब हिन्दोस्ताँ का इंक़लाब

मग़रिब ओ मशरिक़ नज़र आने लगे ज़ेर-ओ-ज़बर
इंक़लाब-ए-हिन्द है सारे जहाँ का इंक़लाब

कर रहा है क़स्र-आज़ादी की बुनियाद उस्तुवार
फ़ितरत-ए-तिफ़्ल-ओ-ज़न-ओ-पीर-ओ-जवाँ का इंक़लाब

सब्र वाले छा रहे हैं जब्र की अक़्लीम पर
हो गया फ़र्सूदा शमशीर-ओ-सिनाँ का इंक़लाब

4. जन्म-अष्टमी

वज़ीर-चंद ने पूछा ज़फ़र-अली-ख़ाँ से
श्री-कृष्ण से क्या तुम को भी इरादत है

कहा ये उस ने वो थे अपने वक़्त के हादी
इसी लिए अदब उन का मिरी सआ'दत है

फ़साद से उन्हें नफ़रत थी जो है मुझ को भी
और उस पे दे रही फ़ितरत मिरी शहादत है

है इस वतन में इक ऐसा गिरोह भी मौजूद
श्री-कृष्ण की जो कर रहा इबादत है

मगर फ़साद है उस की सरिश्त में दाख़िल
बिचारे क्या करें पड़ ही चुकी ये आदत है

5. सुख़नवरान-ए-अहद से ख़िताब

ऐ नुक्ता-वरान-ए-सुख़न-आरा-ओ-सुख़न-संज
ऐ नग़्मा-गिरान-ए-चमनिस्तान-ए-मआफ़ी

माना कि दिल-अफ़रोज़ है अफ़्साना-ए-अज़रा
माना कि दिल-आवेज़ है सलमा की कहानी

माना कि अगर छेड़ हसीनों से चली जाए
कट जाएगा इस मश्ग़ले में अहद-ए-जवानी

गरमाएगा ये हमहमा अफ़्सुर्दा दिलों को
बढ़ जाएगी दरिया-ए-तबीअत की रवानी

माना कि हैं आप अपने ज़माने के 'नज़ीरी'
माना कि हर इक आप में है उर्फ़ी-ए-सानी

माना की हदीस-ए-ख़त-ओ-रुख़्सार के आगे
बेकार है मश्शाइयों की फ़ल्सफ़ा-दानी

माना कि यही ज़ुल्फ़ ओ ख़त-ओ-ख़ाल की रूदाद
है माया-ए-गुल-कारी-ए-ऐवान-ए-मआफ़ी

लेकिन कभी इस बात को भी आप ने सोचा
ये आप की तक़्वीम है सदियों की पुरानी

माशूक़ नए बज़्म नई रंग नया है
पैदा नए ख़ामे हुए हैं और नए 'मानी'

मिज़्गाँ की सिनाँ के एवज़ अब सुनती है महफ़िल
काँटों की कथा बरहना-पाई की ज़बानी

लज़्ज़त वो कहाँ लाल-ए-लब-ए-यार में है आज
जो दे रही है पेट के भूखों की कहानी

बदला है ज़माना तो बदलिए रविश अपनी
जो क़ौम है बेदार ये है उस की निशानी

ऐ हम-नफ़सो याद रहे ख़ूब ये तुम को
बस्ती नई मशरिक़ में हमीं को है बसानी

6. चू की लफ़्ज़ी तहक़ीक़

अश्नान करने घर से चले लाला-लाल-चंद
और आगे आगे लाला के उन की बहू गई

पूछा जो मैं ने लाला लल्लाइन कहाँ गईं
नीची नज़र से कहने लगे वो भी चू गई

मैं ने दिया जवाब उन्हें अज़-रह-ए-मज़ाक़
क्या वो भी कोई छत थी कि बारिश से चू गई

कहने लगे कि आप भी हैं मस्ख़रे अजब
अब तक भी आप से न तमस्ख़ुर की ख़ू गई

चू होशियार पर मैं नदी से है ये मुराद
बीबी तमीज़ भी हैं वहीं करने वुज़ू गई

मैं ने कहा कि चू से अगर है मुराद जू
फिर यूँ कहो कि ता-ब-लब-ए-आब-जू गई

क्यूँ ऐंठें हैं माश के आटे की तरह आप
धोती से आप की नहीं हल्दी की बू गई

लुत्फ़-ए-ज़बाँ से क्या हो सरोकार आप को
दामन को आप के नहीं तहज़ीब छू गई

हिन्दी ने आ के जीम कूचे से बदल दिया
चू आई कोहसार से गुलशन से जू गई

लहजा हुआ दुरुश्त ज़बाँ हो गई करख़्त
लुत्फ़-ए-कलाम-ओ-शिस्तगी-ए-गुफ़्तुगू गई

मा'नी को है गिला कि हुआ बे-हिजाब मैं
शिकवा है लफ़्ज़ को कि मिरी आबरू गई

अफ़्सोस मुल्क में न रही फ़ारसी की क़द्र
मस्ती उड़ी शराब से फूलों की बू गई

7. ख़ुमिस्तान-ए-अज़ल का साक़ी

पहुँचता है हर इक मय-कश के आगे दौर-ए-जाम उस का
किसी को तिश्ना-लब रखता नहीं है लुत्फ़-ए-आम उस का

गवाही दे रही है उस की यकताई पे ज़ात उस की
दुई के नक़्श सब झूटे हैं सच्चा एक नाम उस का

हर इक ज़र्रा फ़ज़ा का दास्तान उस की सुनाता है
हर इक झोंका हवा का आ के देता है पयाम उस का

मैं उस को का'बा-ओ-बुत-ख़ाना में क्यूँ ढूँडने निकलूँ
मिरे टूटे हुए दिल ही के अंदर है क़याम उस का

मिरी उफ़्ताद की भी मेरे हक़ में उस की रहमत थी
कि गिरते गिरते भी मैं ने लिया दामन है थाम उस का

वो ख़ुद भी बे-निशाँ है ज़ख़्म भी हैं बे-निशाँ उस के
दिया है इस ने जो चरका नहीं है इल्तियाम उस का

न जा उस के तहम्मुल पर कि है अब ढब गिरफ़्त उस की
डर उस की देर-गीरी से कि है सख़्त इंतिक़ाम उस का

8. मोहब्बत

कृष्ण आए कि दीं भर भर के वहदत के ख़ुमिस्ताँ से
शराब-ए-मा'रिफ़त का रूह-परवर जाम हिन्दू को

कृष्ण आए और उस बातिल-रुबा मक़्सद के साथ आए
कि दुनिया बुत-परस्ती का न दे इल्ज़ाम हिन्दू को

कृष्ण आए कि तलवारों की झंकारों में दे जाएँ
हयात-ए-जाविदाँ का सरमदी इनआ'म हिन्दू को

अगर ख़ौफ़-ए-ख़ुदा दिल में है फिर क्यूँ मौत का डर हो
कृष्ण आएँ तो अब भी दें यही पैग़ाम हिन्दू को

मुसलमानों के दिल में भी अदब है इन हक़ाएक़ का
सिखाता है यही सच्चाइयाँ इस्लाम हिन्दू को

वो मेरे जज़्बा-ए-दिल की कशिश का लाख मुंकिर हो
मोहब्बत से मैं आख़िर कर ही लूँगा राम हिन्दू को

9. नवेदे-आज़ादी-ए-हिन्‍द

वह दिन आने को है आज़ाद जब हिन्‍दोस्‍तां होगा
मुबारकबाद उसको दे रहा सारा जहां होगा

अलम लहरा रहा होगा हमारा रायेसीना पर
और ऊंचा सब निशानों से हमारा यह निशां होगा

ज़मीं वालों के सर ख़म इसके आगे हो रहे होंगे
सलामी दे रहा झुक झुक के उसको आस्‍मां होगा

बिरहमन मंदिरों में अपनी पूजा कर रहे होंगे
मुसलमां दे रहा अपनी मसजिद में अज़ां होगा

जिन्‍हें दो वक़्त की रोटी मुयस्‍सर अब नहीं होती
बिछा उनके लिए दुनिया की हर नेमत का ख़्वां होगा

मन-ओ-तू के यह जितने ख़र्ख़शे हैं मिट चुके होंगे
नसीब उस वक़्त हिन्‍दू और मुसलमां का जवां होगा

तवाना जब ख़ुदा के फ़ज़्ल से हम नातवां होंगे
ग़ुरूर उस वक़्त अंग्रेज़ी हुकूमत का कहां होगा

10. सर मैलकम हेली के मल्‍फ़ूज़ात

जनाबे-हज़रते-हेली को यह ग़म खाये जाता है
न कर दे सर नगूं मश्रिक़ कहीं मग्रिब के परचम को
छिड़ी आज़ादिए-हिन्‍दोस्‍तां की बहस कौंसिल में
तो ज़ाहिर यूं किया हज़रत ने अपने इस छुपे ग़म को

हमारी भी वही ग़ायत है जो मक़सद तुम्‍हारा है
ख़ुदा वह दिन करे गर्दूं के तारे बनके तुम चमको
अलमबरदार हैं अंग्रेज़ इस तहज़ीब के जिसने
दिया है दरसे-आज़ादी तमाम अक़वामे-आलम को

हुकूमत आज तुमको सौंप कर हो जायें हम रुख़्सत
मगर अंदेशा इसमें है फ़क़त इस बात का हमको
हमारे बाद कौन इस हाथ की शोखी को रोकेगा
जो बेकल है तो लाकर डाल दे गंगा में ज़मज़म को

मुसलमां हिन्‍दुओं को एक हमले में मिटा देंगे
उड़ा ले जायेगा यह आफ़्ताब आते ही शबनम को
किसी ने काश यह तक़रीर सुनकर कह दिया होता
कि दे सकते नहीं हो तुम अब इन फ़िक़रों से दम हमको

मुसलमां भोले-भाले और हिन्‍दू सीधे-सादे हों
नहीं अहमक़ मगर ऐसे कि समझें अंगबी सम को
निपटते आये हैं आपस में और अब भी निपट लेंगे
अगर तुम बनके सालिस बीच में इनके न आ धमको

(मल्‍फ़ूज़ात=प्रवचन, नगूं=नीचा, ग़ायत=इच्‍छा,
गर्दूं=आकाश, सालिस=पंच)