हिंदी शायरी/कविताएँ : तारिक़ अज़ीम 'तनहा'

Urdu Poetry in Hindi : Tariq Azeem Tanha

1. इन रिन्दों की खुशफहमी को हवा दे दे

इन रिन्दों की खुशफहमी को हवा दे दे,
इन्हें चाहे शराब न दे मगर शीशा दे दे।

हमे आदत है तेरी निग़ाहों से पीने की,
सब शराबियों को उठाके मैख़ाना दे दे!

गर तुझसे मुहब्बत करके गुनाह किया,
दूर ना जा मुझसे, मुझे कोई सज़ा दे दे!

कल आये थे दयारे-इश्क़ के सिपाही,
मज़ा आ जाए कोई नाम तुम्हारा दे दे!

अब तो इक आदत है अलम सहने की,
कहीं से आ ऐ ! बेदर्द मुझे दर्द नया दे दे!

तेरे बाद ज़िंदगी मेरी 'तनहा' हो गयी,
लाकर मुहब्बत के वो पल दुबारा दे दे!

अमन के लिए तो हम हकदार हैं यहाँ,
वतन-ए-अमन को नाम हमारा दे दे!

2. हुकूमते-तीरगी ना आई ना आयेगी

हुकूमते-तीरगी ना आई ना आयेगी,
कफ़स में रौशनी ना आई ना आयेगी!

ये कोई गुलशने-हुबाब नहीं जो फंसे,
जाल में तजल्ली ना आई ना आयेगी!

मैंने जो फूँक डाले थे तिरे सारे ख़त,
फिर याद तिरी ना आई ना आयेगी!

लहदे-सुपुर्द से पहले कुछ अच्छा करो,
लौटकर जिंदगी ना आई ना आयेगी!

कलम-ओ-कागज़ से हैं रिश्ते 'तनहा',
जीस्त में तन्हाई ना आई ना आयेगी!

3. पहाड़ों से कूच कर जाने को जी चाहता है

पहाड़ों से कूच कर जाने को जी चाहता है,
ऐसी तन्हाई में मर जाने को जी चाहता है!

हूँ घर से कई कोस दूर मालूम है मुझको,
शाम होती है तो घरजाने को जी चाहता है!

गज़लें, गीत, और कुछ शेर मैं भी लिखूँ,
तहरीरे-शेरों में उभर जाने को जी चाहता है!

खामोश महब्बत उन्हें महब्बत ना लगती,
इश्क़ में हद से गुज़र जाने को जी चाहता है!

बहुत टूट गए 'तनहा' खुद को समेटते हुए,
कांच की तरह बिखर जाने को जी चाहता है!

4. जिंदगी को गर बसर करना है

जिंदगी को गर बसर करना है,
तो खुद पे इक नज़र करना है !

बदल दीजिए निज़ाम ए चमन,
गर पैदा कोई दीदावर करना है!

पहले जानने हैं शऊरे-शायरी,
फिर खुदको सुख़नवर करना है!

खुशबख्ती यूँ है आबाद अपनी,
जो तुझे नज़र पे नज़र करना है!

मुन्तशिर जान या जिद मेरी,
बहाकर आँखों से बहर करना है!

हमने जिन्हें की ज़मीने खैरात,
मकसद उनका हमे बेघर करना है!

आलम ऐतबार करे 'तनहा' का ,
खुदको ऐसा मोतबर करना है!

5. बादशाह ओ औलिया को ढूंढता हूँ मैं

बादशाह ओ औलिया को ढूंढता हूँ मैं,
हकपरस्त ए हुक़ुमरां को ढूंढता हूँ मैं!

दयारे-नसीम-ऐ-कानून हर सू चले,
ऐसी ही चमन ए फ़िज़ा ढूंढता हूँ मैं!

वकारे-सू-ए-दारे-अहले-सिपाही,
औरंगज़ेब अबके ऐसा ढूंढता हूँ मैं!

जबीं सज्दे में लब पे नामें-अल्लाह,
खातिर में रश्क-ए-खुदा ढूंढता हूँ मैं!

जो हो खिलाफ इस तीन तलाक से,
दौर-ए-गर्दिश-ए-बुतां ढूंढता हूँ मैं!

दिल मशगूले-मामूर होंठो पे अर्जिया,
दिले-सदा दे ऐसी दुआ ढूंढता हूँ मैं!

लेके चराग़ इन आदमियो के शहर में,
बचा है क्या कोई इंसा ढूंढता हूँ मैं!

इन लोगो के अलम ओ दुःख दर्द से,
हुक़ूमत तेरी खात्मा-फ़ना ढूंढता हूँ मैं!

भले ही मेरा मुब्तिला सब से है मगर,
फिर भी खुद को 'तनहा' ढूंढता हूँ मैं!

6. अश्आर

(1)
मैदाने-हश्र को भूल गए हम मशरूफ होकर,
इस जिंदगी को मशरूफियत में ना गुज़ारो!
(2)
अब अपने कदमो पे भी यकीन ना रहा मुझे,
उतरा हूँ सीढ़ियों से तो दीवार का सहारा लेकर!
(3)
मिरी दास्ताने-महब्बत इतनी भी तवील नहीं,
आगाज़ उसकी नज़र से है इंतेहा जफ़ा पे बस!
(4)
बोझ ना जान 'तन्हा' गर लड़की हुई पैदा,
बस इतना जान ले की खुदा की रहमत है!

7. मुझे उससे कोई भी गिला ना था

मुझे उससे कोई भी गिला ना था,
वो मेरे साथ कुछ दूर चला तो था!

आँखे बिछाये बैठा हूँ दरवाजे पर,
उसने आने के लिए कहा तो था!

वो मुझसे पहले पहुँचा मंज़िल पर,
हाँ थोडा सा तेज़ वो चला तो था!

मेरा उस रात चाँद से वास्ता ना था,
मेरे घर एक जलता दीया तो था!

ये अलग बात के मेरे दोस्त भी थे,
और भी था के मैं 'तनहा' तो था!

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