हिंदी कविताएँ : सुरेश चन्द

Hindi Poetry : Suresh Chand

1. बाबा साहब डा. अंबेडकर के प्रति

अपने समय के
चमकते सूर्य थे वे
पूरी मानव जाति के लिए
ज्ञान प्रकाश बिखेरते
उदित हुए थे -
इस जमीं पर
और लड़ते रहे
आखिरी सांस तक
....शोषण, ज़ुल्म, अन्याय के विरुद्ध

काँटों के साथ
गुलाब की तरह हँसना
कीचड़ में पलकर
कमल की तरह खिलना
धूल में जीकर
शूर की तरह रहना
उनकी नियति थी

वे हमारे लिए
अँधेरी गुफा में
जलती मशाल थे

वे गरीबों के वैभव थे
दलितों के प्राण शक्ति
वे सचमुच हमारे नेता थे
वे हमारे लिए ही जीये

उनका पुरुषत्व
उनकी मर्यादा
उनका स्वाभिमान
उनके अरमान
उनका प्यार
आज भी
इस मिट्टी के कण-कण में मौजूद है

जब तक यह मिट्टी रहेगी
जब तक जीवित रहेगा यह भारत वर्ष
तब तक
उनके ताप को, ऊर्जा को, अग्नि को
हम अपने सीने से महफूज़ रखेंगे

उनके आदर्श
उनकी प्रेरणा
उनका बलिदान
उनका त्याग
देदीप्यमान नक्षत्र बनकर
इस समाज को
इस जहान को
अनंत काल तक
आलोकित करता रहेगा

हे प्रकाश पुंज !
दलितों के मसीहा
मानवाधिकार के चैतन्य पुरुष
लोकतांत्रिक समाजवाद के उन्नायक
अर्पित है तुझे हमारा शत्-शत् नमन !!

2. बेटी-एक

बेटी
सबसे कीमती होती है
अपने माँ-बाप के लिए
जब तक
वह घर में होती है
उसकी खिलखिलाहट
पूरे घर को सँवारती रहती हैं

लेकिन जैसे ही उसके पैर
चौखट के बाहर निकलते हैं
उसके आँसू
पूरे आँगन को नम कर जाती हैं

बेटी
कुछ और नहीं
माँ का कलेजा होती है
पिता के दिल की धड़कन
और भाई रगों में
बहता हुआ खून
वह घर से निकलते ही
पूरे परिवार को खोखला कर जाती है

बेटी-दो

होते ही सुबह
बेटी बर्तन माँजने लगती है
जब माँ थक जाती है
बेटी पैर दबाने लगती है
मेहमान आते हैं
बेटी चाय पकाने लगती है
और जब बापू ड्यूटी पर जाते हैं
बेटी जूता और साइकिल साफ करने लगती है

इतवार आता है
बेटी कपड़े धुलने लगती है
जब जाड़ा आता है
बेटी स्वेटर बुनने लगती है
और जब त्यौहार आता है
बेटी तरह-तरह के पकवान बनाने लगती है

इस तरह
बेटी हमेशा करती रहती है
कुछ न कुछ
और देखते -देखते
बेटी माँ बन जाती है
माँ फिर पैदा करती है
बेटी को
हमेशा कुछ न कुछ करते रहने के लिए

बेटी-तीन

बेटी हो जाती है परायी
शादी के बाद
अब वह बेटी नहीं
बहू होती है
-पराये घर की

जैसे धीरे-धीरे पीट कर सुनार
गढ़ता है जेवर
कुम्हार बनाता जैसे मिट्टी के बर्तन
वैसे ही माँ तैयार करती है बेटी को
बहू बनने के लिए

माँ सिखाती है
बेटी को
रसोई में बर्तनों को सहेज कर रखना
कि यह दुनिया
बर्तनों की खड़र-बड़र से अधिक बेसुरी
और तीखी होती है

माँ सिखाती है
बेटी को
जलते हुए तवे पर
नरम अँगुलियों को बचा कर
स्वादिष्ट रोटियां सेंकना
कि दुनिया लेती है नारी की अग्नि परीक्षा
और उसे आग से गुजरना है

माँ विदा करती है
बेटी को भीगे आँसुओं के साथ
कि बेटी होती है परायी
और उसे
बाबुल का घर छोड़कर
जाना ही पड़ता है
(एक नयी दुनिया बसाने के लिए)

3. हिन्दी जन की बोली है (गीत)

हिन्दी जन की बोली है
हम सब की हमजोली है

खेत और खलिहान की बातें
अपने घर संसार की बातें
उत्तर-दक्षिण फर्क मिटाती
करती केवल प्यार की बातें

हर भाषा की सगी बहिनिया
यह सबकी मुँह बोली है

हिन्दी है पहचान हमारी
हमको दिलो जान सी प्यारी
हिन्दी अपनी माँ सी न्यारी
हिन्दी है अभिमान हमारी

हिन्दी अपने देश की धड़कन
अपने दिल की बोली है

आओ मिलकर 'प्यार' लिख दें
मन की उजली दीवारों पे
पानी का छींटा दे मारें
नफ़रत के जलते अंगारों पे

यही भावना घर-घर बाँटें
हिन्दी सखी-सहेली है

4. गरीब का दुःख

गरीब के श्रम से बनी है दुनिया
और उनके दुःख से चलती है
देश की अर्थव्यवस्था
जहाँ बिकती है हर चीज मुनाफा के लिए

स्त्री का तन
इंसान का गुर्दा
पीने के लिए शुद्ध पानी
साँस लेने को शुद्ध हवा
पोषण के लिए भोजन
कैरियर के लिए शिक्षा
....सब कुछ
अब पूँजी बाजार में उपलब्ध है
जहाँ गरीब का दुःख और उसकी संवेदना का
कोई मोल नहीं

गरीब के दुःख से भरे हैं
अखबार के पन्ने
नेताओं के भाषण में उतरा रहे होते हैं
गरीबों के दुःख
साधु-संतों के प्रवचन में शामिल हैं
संतोष और भक्ति के सन्देश
परंतु नहीं होती है उनमें मुक्ति की आकांक्षा
केवल छल होते हैं
भाषा की जादूगरी में

गरीब के दुःख से फल-फूल रही है
देश की राजनीति
हर पाँच साल पर
गरीब से दुःख का बजता है गीत
सत्ता के गलियारे में
और जनप्रतिनिधि हक़दार बन जाते हैं
कीमती बंगलों में रहने के लिए
फिर दावत उड़ातें हैं मजे से शाही पार्टियों में
बुर्जुआ और ब्राह्मणवादी लोगों के संग

गरीब के दुःख का अतीत भी दुःख से भरा है
हर कोई छेड़ता है दुःख का राग
बाँटना नहीं चाहता है कोई दुःख
सत्ता का सुख चाहते हैं सब
और छोड़ देते हैं दुःख का हिस्सा गरीबों के लिए

गरीब के दुःख से चलती है देश की संसद
सेना को मिलती है तनख्वाह
पुलिस को फलाहार भत्ता
फिर क्यों गिरती हैं गरीब की पीठ पर
पुलिस की लाठियां ?
सेना की बूट से कुचली जाती हैं
गरीब की अस्मितायें ?
संसद करती है पूंजीपति वर्ग की दलाली
नहीं होती है कोई पैरवी किसी अदालत में
क्यों?
आखिर क्यों ?

गरीब के दुःख से-
उपजता है अन्न,
चमचमाती हैं सड़कें
सुदूर हिमालय तक,
बनती हैं नयी-नयी आवासीय कालोनियाँ
परंतु नहीं मिलती हैं उनमें
गरीब को सिर छुपाने की जगह
आखिर क्यों?

गरीब के दुःख से भी भयानक दुःख है
गरीब के पक्ष में खड़े होना
और उसके वजूद को आकार देना
जिसने भी कहा गरीब को
मेहनतकश श्रमजीवी !
और बराबरी की मांग की
कहलाया वो विद्रोही,
ग़र दलित कहा और प्रतिनिधित्व की माँग की
तो जातिवादी कहलाये,
आदिवासियों के लिए जंगल और जमीन पर हक़
माँगने से बन गए नक्सलाइट

यह कैसा समय है?
आप न तो ठठाकर हँस सकते हैं
और न ही शिकायत कर सकते हैं
राज सत्ता के विरुद्ध

दोस्तों अभी वक्त है
हम मिलकर
जंगल से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढें
एक नई सुबह के लिए

5. हम उन्हें अच्छे नहीं लगते

इस शस्य श्यामला भारत भूमि की
हर चीज उन्हें अच्छी लगती है
नदी, झरने, ताल-तलैया, सब कुछ....

पीले-पीले सरसों हों
या बौर से लदी अमरायी
या फिर
हमारे खून पसीने से लहलहाती फसल
सब कुछ उन्हें बहुत भाती है

हमारे श्रम से बनी
ऊँची-ऊँची अट्टालिकायें
उन्हें बहुत सुकून देती हैं

पीपल का वृक्ष हो या
तुलसी का पौधा
या फिर दूध पीती पाषाण मूर्तियाँ
इन सबकी उपासना उन्हें अच्छी लगती है
पर हम उन्हें अच्छे नहीं लगते
सिनेमा हाल में एक ही कतार में बैठकर
हम फ़िल्में देखते हैं जरूर
पर चारपाई पर बैठकर
हमारा पढ़ना-लिखना उन्हें अपमानजनक लगता है
हम भी हैं इसी वसुंधरा की उपज
यह देश हमारा भी है जितना कि उनका है
परन्तु खिलखिलाते हुए हमारे बच्चे
उन्हें अच्छे नहीं लगते

खेतों में काम करती हुई
हमारी बहू-बेटियां
उनकी पिशाच वासनाओं का शिकार होती हैं
और हमारी सरकारी नौकरी
उनकी आँखों की किरकिरी है

हम घर में हों या बाहर
बस से यात्रा कर रहे हों
या फिर ट्रेन से
किसी संगीत सभा में हों
या स्कूल में
वे जानना चाहते हैं सबसे पहले
हमारी जाति
क्योंकि सिर्फ उनको ही पता है
हमारी नीची जाति होने का रहस्य

वे चाहते हैं कि
हम उनके सामने झुक के चलें
झुक कर रहें
झुक कर जियें
एक आज्ञा पालक गुलाम की तरह

6. प्रेम कविता

जब भी मैं लिखने बैठता हूँ
प्रेम कविता
मेरी आँखों के आगे
उपस्थित हो जाते हैं
अनगिनत बेबस औरतों के चित्र
कमजोर और दुर्बल
कुपोषित और बीमार औरतें
खेतों में आँचल से
माथे का पसीना पोंछती
मजदूर औरतें
ईंट के भट्ठों पर तेज धूप में सुलगती
और रसोई में अलाव की तरह जलती
असंख्य औरतों के चित्र

क्या मैं इतना निष्ठुर हूँ
अलग कर सकता हूँ अपने को
उनके आत्मीय संघर्ष से ?
मेरे दोस्त !
मुझे राय मत दो लिखने को
शाश्वत प्रेम कविता
मुझे लिखने दो संघर्ष गाथा
मुझे बोने दो
क्रांति बीज के बीज
क्योंकि
सच्चा प्रेम
इश्क की खुमारी से नहीं
मुक्ति-संघर्ष की तपिश से पैदा होता है !

7. अँखुए

वे उगते हुए अँखुए हैं / रेत में
उगे हैं अभी, बिलकुल अभी
और निकल पड़े हैं
अपनी गायें और बकरियों को लेकर
चरवाही करने

तालाब के किनारे
चरती हैं उनकी गायें और बकरियाँ
वे मछलियाँ पकड़ते हैं और
खुश होते हैं

उनकी माताएं उन्हें
किसी पब्लिक या
कान्वेंट स्कूल में नहीं भेजतीं
वे मिट्टी को पढ़ते हैं
मिट्टी में खेलते हैं
और आजमाते हैं मिट्टी की ताकत को

दीवार पर चिपके हुए पोस्टर नहीं हैं वे
न ही ऊँची-ऊँची हवेलियों के चमकते हुए
खिड़कियों के शीशे
वे मिट्टी के ढेले हैं
बिल्कुल सुडौल और सलीकेदार
जिनके एक ही निशाने से
झर जाती हैं पेड़ से इमलियाँ और
डाल से पके हुए आम

उनकी माताएं उन्हें भेजती हैं
गाय और बकरियों के साथ
और पालती हैं उन्हें उस दिन के लिए
जब वे बड़े होकर उगाएंगे चने-मटर
कीचड़ में रोपेंगे धान
और धरती माँ की छाती से चिपक कर
पियेंगे अपने हक़ का दूध

अँखुए बड़े होते हैं
अपने पसीने से ढालते हैं लोहा
बनाते हैं ऊँचे-ऊँचे महल
सींचते हैं सूखे खेत
लगाते हैं आम की गुठली...
और छटपटाते हैं अपने हिस्से के लिए

वे देखते हैं कि किस तरह
उनके खून पसीने से लहलहाती फसल
चली जाती है मालिक के घर
और बाजार में ऊँचे-ऊँचे दामों पर बिकती हैं

वे देखते हैं कि किस तरह
बरसात आते ही चूने लगती है उनकी झोपड़ी
और वे सारी-सारी रात जागते हैं

वे देखते हैं कि किस तरह
पाँच सितारे होटल और नयी-नयी कालोनियाँ
बनवाने के खातिर उजाड़ दी जाती हैं
उनकी मलिन बस्तियाँ
और वे मारे-मारे फिरते हैं

वे बड़े शिद्दत से देखते हैं
इस मनहूस समय को
अट्टहास करती -
क्रूर व्यवस्था को
नित रोज छोटे होते रोटी के टुकड़े को
भूख से रोते बिलबिलाते अपने बच्चों को
और बार-बार छटपटाते हैं

8. ओ काली घटा (गीत)

ओ काली घटा मेरे आँगन आ
तू मेरी सहेली बन जा रे !

है सूखी धरती, प्यासी धरती
धरती सूख कर हो गयी परती
इस परती में रिमझिम-रिमझिम
प्यार के आँसू बरसा जा रे !

नदियाँ सूखी, प्यासे झरने
सूख रहे सब तृण-तृण हैं
झुलस रहीं खेतों में फसलें
पशु, जन, खग सब क्रंदन हैं

अपने मृदु वाणी से, हे सखि !
क्रंदन को गुंजन कर जा रे !!

सब बाल सखा मिल खेल रहे
हैं, काच-कचौटी कीचड़ में
सखियाँ कजरी गा रही हैं-
डगर-डगर घर आँगन में

इन मुरझाये सूखे होठों पर
खुशियों के गीत बिछा जा रे !

9. जुर्म के विरोध में

मैंने बांसुरी पर बजाया राग यमन
गत मध्य लय तीन ताल में
वे खुश हुए और सराहा मेरे प्रयास को

मैंने पेड़-पौधे, चिड़िया और पर्यावरण पर
पढ़ी कुछ कवितायें
वे खुश हुए कि मैं साहित्यिक हूँ

मैंने चर्चा छेड़ी
न्याय और इंसाफ की
वे अचकचाकर मेरा मुँह ताकने लगे
और घूरने लगे संदेह दृष्टि से

जब मैंने गुनगुनाना चाहा गीत
आजादी के स्वर छेड़कर
और शब्दों में ढालना चाहा
सदियों से शोषित मानव की घनीभूत पीड़ा को
वे बीच में टोके
और जातिवादी करार दिया

इतने पर भी जब मैं न माना
और बोल पड़ा कि
यह व्यवस्था टिकी है
झूठ और मक्कारी के बल
बस गरीब का खून चूसती
कि मुश्किल है यहाँ निर्बल को
न्याय और इंसाफ मिलना
कि खो जाती हैं चीखें मानवता की
कचहरी के बीहड़ में ---

फिर क्या ?
मुझे सम्राट के दरबार में
हाजिर किया गया
सम्राट ने मेरे कद को नापा
ऊपर से नीचे
फिर अपनी भाषा में समझाया -
सुधर जाओ, अभी वक्त है
मत पड़ो इस पचड़े में
छोड़-छाड़ कर सारा झंझट
अच्छे आदमी का जीवन जियो
कि काँटों भरी डगर है यह
बहुत खतरनाक
और जो भी चला इस राह पर
उसका ऐक्सिडेंट तय है---

मुझे पता है
यह खबर जब मेरे घर पहुंचेगी
मुझे नालायक औलाद कह कर
फटकारा जायेगा

मेरे पास पड़ोसी भनक पाते ही
मेरे शेखी बघारने की खिल्ली उड़ाएंगे

मेरे राष्ट्रवादी कवि मित्र कहेंगे
मैं कविता के रास्ते का रोड़ा हूँ
साफ हो जाऊं तो ही अच्छा है
गोया,
सबसे बड़ा जुर्म है इस देश में
जुर्म के खिलाफ खड़े होना
सो, यह जुर्म मैं कबूल करता हूँ।

10. एक गीत लाया हूँ मैं अपने गाँव से-गीत

एक गीत लाया हूँ मैं अपने गाँव से।
धूल भरी पगडण्डी पीपल की छाँव से।

शब्दों में इसकी थोड़ी ठिठोली है
भौजी ननदिया की यह हमजोली है
'माई' के प्यार भरल अँचरा के छाँव से।

लहराए खेतों में सरसो के फूल
ग्रीष्म, वर्षा, शीत सब मुझको क़बूल
कीचड़ में सने हुए हलधर के पाँव से।

खुला आसमान मेरा चाँद औ' सितारे
पुरवइया बहती है अँगना दुआरे
मिट्टी के चूल्हे पर जलते अलाव से।

होत भिनुसार बोले सगरो चिरइया
अँगना में खूँटे पर रम्भाये गइया
कोयल के कुहू-कुहू कागा के काँव से।
एक गीत लाया हूँ मैं अपने गाँव से।

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