हिन्दी कविताएँ : सेनापति

Hindi Poetry : Senapati

1. आत्म-परिचय

दीक्षित परशुराम दादा हैं विदित नाम,
जिन कीन्हें जज्ञ, जाकी विपुल बड़ाई है ।
गंगाधर पिता गंगाधर के समान जाके,
गंगातीर बसति अनूप जिन पाई है ।
महा जानमनि,विद्यादान हू में चिंतामनि,
हीरामन दीक्षित तें पाई पंडिताई है ।
सेनापति सोई, सीतापति के प्रसाद जाकी,
सब कवि कान दै सुनत कविताई है ।

2. वसंत ऋतु वर्णन

1
लाल लाल टेसू फूलि रहे हैं बिलास संग,
स्याम रंग मयी मानो मसि में मिलाए हैं ।
तहाँ मधु-काज आइ बैठे मधुकर पुंज,
मलय पवन उपवन - बन धाए हैं ।
‘सेनापति’ माधव महीना में पलाश तरु,
देखि देखि भाव कविता के मन आये हैं ।
आधे अंग सुलगि सुलगि रहे, आधे मानो
विरही धन काम क्वैला परचाये हैं ।

2
धरयौ है रसाल मोर सरस सिरच रुचि,
उँचे सब कुल मिले गलत न अंत है ।
सुचि है अवनि बारि भयौ लाज होम तहाँ,
भौंरे देखि होत अलि आनंद अनंत है ।
नीकी अगवानी होत सुख जन वासों सब,
सजी तेल ताई चैंन मैंन भयंत है ।
सेनापति धुनि द्विज साखा उच्चतर देखौ,
बनौ दुलहिन बनी दुलह बसंत है ।

3. ग्रीष्म ऋतु वर्णन

वृष को तरनि तेज सहसौ किरनि तपै,
ज्वालनि के जाल बिकराल बिरखत हैं ।
तपति धरनि जग झुरत झरनि,सीरी,
छाँह को पकरि पंथी-पंछी बिरमत हैं
‘सेनापति’ नेक दुपहरी ढरकत होत,
घमका बिखम जो न पात खरकत हैं ।
मेरे जान पौन सीरी ठौर को पकरि कोनौ,
घरी घरी बैठी कहूँ घाम बितवत हैं ।

4. वर्षा ऋतु वर्णन

1
‘सेनापति’ उनए गए जल्द सावन कै,
चारिह दिसनि घुमरत भरे तोई के ।
सोभा सरसाने,न बखाने जात कहूँ भांति,
आने हैं पहार मानो काजर कै ढोइ कै ।
धन सों गगन छ्यों,तिमिर सघन भयो,
देखि न् परत मानो रवि गयो खोई कै ।
चारि मासि भरि स्याम निशा को भरम मानि,
मेरी जान, याही ते रहत हरि सोई कै ।

2
तीर तैं अधिक बारिधार निरधार महा,
दारुन मकर चैन होत है नदीन कौ ।
होति है करक अति बदि न सिराति राति,
तिल-तिल बाढ़ै पीर पूरी बिरहिन कौं ।
सीरक अधिक चारों ओर अबनई रहै ना,
पाऊँरीन बिना क्यौं हूँ बनत धनीन कौं ।
सेनापति बरनी है बरषा सिसिरा रितु,
मूढ़न कौ अगम-सुगम परबीन कौं ।
3
दामिनी दमक, सुरचाप की चमक, स्याम
घटा की घमक अति घोर घनघोर तै ।
कोकिला, कलापी कल कूजत हैं जित-तित
सीतल है हीतल, समीर झकझोर तै ।
सेनापति आवन कह्रों हैं मनभावन,
सुलाग्यो तरसावन विरह-जुर ज़ोर तै ।
आयो सखि सावन, मदन सरसावन,
लग्यो है बरसावन सलिल चहुँ ओर तै ।

5. शरद् ऋतु वर्णन

कातिक की राति थोरी थोरी सियराति ‘सेना
पति’ है सुहाति, सुकी जीवन के गन हैं ।
फूले हैं कुमुद फूली मलती सघन बन,
फूलि रहे तारे मानो मोती अगनन हैं ।
उदित बिमल चंद, चाँदनी छिटकि रही,
राम को तो जस अध उरध गगन हैं ।
तिमी हरन भयो सेट है नरन सब,
मानहु जगत छीरसागर मगन हैं ।

6. हेमन्त ऋतु वर्णन

सीत को प्रबल ‘सेनापति’ कोपि चढ्यो दल,
निबल अनल दूरि गयो सियराइ कै ।
हिम के समीर तेई बरखै बिखम तीर,
रही है गरम भौन-कोननि में जाइ कै ।
धूम नैन बहे, लोग होत हैं अचेत तऊ,
हिय सो लगाइ रहे नेक सुलगाइ कै ।
मानो भीत जानि महासीत सों पसारि पानि,
छतियाँ की छाँह राख्यो पावक छिपाइ कै ।

7. शिशिर ऋतु वर्णन

शिशिर मे ससि को, सरुप पवै सबिताऊ
घाम हू मे चांदनी की दुति दमकति है ।
"सेनापति” होत सीतलता है सहस गुनी,
रजनी की झाई, वासर मे झलकती है ।
चाहत चकोर, सुर ओर द्रग छोर करि,
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है ।
चन्द के भरम होत मोद हे कुमोदिनी को,
ससि संक पंकजिनी फुलि न सकति है ।

8. सिवजू की निध्दि, हनूमान की सिध्दि

सिवजू की निध्दि, हनूमान की सिध्दि,
बिभीषण की समृध्दि, बालमीकि नैं बखान्यो है ।
बिधि को अधार, चारयौ बेदन को सार,
जप यज्ञ को सिंगार, सनकादि उर आन्यो है ।
सुधा के समान, भोग-मुकुति-निधान,
महामंगल निदान, 'सेनापति पहिचान्यो है ।
कामना को कामधेनु, रसना को बिसराम,
धरम को धाम, राम-नाम जग जान्यो है ।

9. तुम करतार, जन-रच्छा के करनहार

तुम करतार, जन-रच्छा के करनहार,
पुजवनहार मनोरथ चित चाहे के ।
यह जिय जानि 'सेनापति है सरन आयो,
ुजिये सरन, महा पाप-ताप दाहे के ।
जो को कहौ, कि तेरे करम न तैसे, हम
गाहक हैं सुकृति, भगति-रस-लाहे के ।
आपने करम करि, हौं ही निबहौंगो तोपै,
हौं ही करतार, करतार तुम काहे के ।

10. सोहति उतंग, उत्तमंग ससि संग गंग

सोहति उतंग, उत्तमंग ससि संग गंग,
गौरि अरधंग, जो अनंग प्रतिकूल है ।
देवन कौं मूल, 'सेनापति अनुकूल, कटि
चाम सारदूल को, सदा कर त्रिसूल है ।
कहा भटकत! अटकत क्यौं न तासौं मन,
जातैं आठ सिध्दि, नव निध्दि रिध्दि तू लहै ।
लेत ही चढाइबे को, जाके एक बेलपात,
चढत अगाऊ हाथ, चारि फल-फूल है ।

11. रावन को बीर 'सेनापति रघुबीर जू की

रावन को बीर 'सेनापति रघुबीर जू की,
आयो है सरन, छाँडि ताही मद अंध को ।
मिलत ही ताको राम, कोपि कै करी है ओप,
नाम जोय दुर्जन-दलन दीनबंध को ।
देखो दानबीरता, निदान एक दान ही में,
कीन्हें दोऊ दान, को बखानै सत्यसंध को ।
लंका दसकंधर की दीनी है बिभीषन को,
संका विभीषन की सो, दीनी दसकंध को ।

12. फूलन सों बाल की, बनाई गुही बेनी लाल

फूलन सों बाल की, बनाई गुही बेनी लाल,
भाल दीनी बेंदी, मृगमद की असित है ।
अंग-अंग भूषन, बनाइ ब्रभूषण जू,
बीरी निज करते, खवाई अति हित है ।
ह्वै कै रस बस जब, दीबे कौं महावर के,
'सेनापति स्याम गह्यो, चरन ललित है ।
चूमि हाथ नाह के, लगाइ रही ऑंखिन सौं,
कही प्रानपति! यह अति अनुचित है ।

13. लाल-लाल टेसू, फूलि रहे हैं बिसाल संग

लाल-लाल टेसू, फूलि रहे हैं बिसाल संग,
स्याम रंग भेंटि मानौं मसि मैं मिलाए हैं ।
तहाँ मधु काज, आइ बैठे मधुकर-पुंज,
मलय पवन, उपबन-बन धाए हैं ।
'सेनापति माधव महीना मैं पलास तरु,
देखि-देखि भाउ, कबिता के मन आए हैं ।
आधे अनसुलगि, सुलगि रहे आधे, मानौ,
बिरही दहन काम क्वैला परचाए हैं ।

14. केतकि असोक, नव चंपक बकुल कुल

केतकि असोक, नव चंपक बकुल कुल,
कौन धौं बियोगिनी को ऐसो बिकरालु है ।
'सेनापति साँवरे की सूरत की सुरति की,
सुरति कराय करि डारतु बिहालु है ।
दच्छिन पवन ऐतो ताहू की दवन,
जऊ सूनो है भवन, परदेसु प्यारो लालु है ।
लाल हैं प्रवाल, फूले देखत बिसाल जऊ,
फूले और साल पै रसाल उर सालु हैं ।

15. बृष को तरनि तेज, सहसौ किरन करि

बृष को तरनि तेज, सहसौ किरन करि,
ज्वालन के जाल बिकराल बरसत हैं ।
तपति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी
छाँह कौं पकरि, पंथी-पंछी बिरमत हैं ।
'सेनापति' नैक, दुपहरी के ढरत, होत
घमका बिषम, ज्यौं न पात खरकत हैं ।
मेरे जान पौनों, सीरी ठौर कौं पकरि कौनौं,
घरी एक बैठि, कँ घामै बितवत हैं ।

16. सेनापति ऊँचे दिनकर के चलत लुवैं

'सेनापति' ऊँचे दिनकर के चलत लुवैं,
नदी नद कुवें कोपि डारत सुखाइ कै ।
चलत पवन, मुरझात उपवन वन,
लाग्यो है तपन जारयो भूतलों तचाइ कै ।
भीषण तपत, रितु ग्रीष्म सकुच ताते,
सीरक छिपत तहखाननि में जाइकै ।
मानौ सीतकाल सीतलता के जमाइबे को,
राखे हैं बिरंचि बीज धरा में धराइ कै ।

17. चौरासी समान, कटि किंकिनी बिराजत है

चौरासी समान, कटि किंकिनी बिराजत है,
साँकर ज्यों पग जुग घूँघरू बनाइ है ।
दौरी बे सँभार, उर-अंचल उघरि गयौ,
उच्च कुच-कुंभ, मनु चाचरि मचाई है ।
लालन गुपाल, घोरि केसर कौ रंग लाल,
भरि पिचकारी मुँह ओर कों चलाई है ।
सेनापति धायौ मत्त काम कौ गयंद जानि,
चोप करि चंपै, मानों चरखी छुटाइ है ।

18. नवल किसोरी भोरी केसर ते गोरी

नवल किसोरी भोरी केसर ते गोरी, छैल-
होरी में रही है मद जोबन के छकि कै ।
चंपे कैसौ ओज, अति उन्नत उरोज पीन,
जाके बोझ खीन कटि जाति है लचकि कै ।
लाल है चलायौ, ललचाइ ललना कों देखि,
उघरारौ उर, उरबसी ओर तकि कै ।
’सेनापति’ सोभा कौ समूह कैसे कह्यौ जात,
रह्यौ हौ गुलाल अनुराग सों झलकि कै ।

19. तब न सिधारी साथ, मीड़त है अब हाथ

तब न सिधारी साथ, मीड़त है अब हाथ,
सेनापति जदुनाथ बिना दुख ए सहैं ।
चलैं मनोरंजन के, अंजन की भूली सुधि,
मंजन की कहा, उनहीं के गूँथे केस हैं ।
बिछुरैं गुपाल, लागै फागुन कराल तातें -
भई है बेहाल, अति मैले तन भेस हैं ।
फूल्यौ है रसाल, सो तौ भयौ उर साल,
सखी डार न गुलाल, प्यारे लाल परदेस हैं ।

20. केतो करौ कोई,पैए करम लिखोई ताते

केतो करौ कोई,पैए करम लिखोई, ताते,
दूसरी न होई,उर सोई ठहराईए ।
आधी ते सरस बीति गई बरस,अब
दुर्जन दरस बीच रस न बढाईए ।
चिंता अनुचित, धरु धीरज उचित,
सेनापति ह्वै सुचित रघुपति गुनगाईए ।
चारि बर दानि तजि पायँ कमलेच्छन के,
पायक मलेच्छन के कहे को कहलाईए ।

21. महा मोहकंदनि में जगत जकंदनि में

महा मोहकंदनि में जगत जकंदनि में,
दिन दुखदुंदनि में जात है बिहाय कै ।
सुख को न लेस है, कलेस सब भाँतिन को;
सेनापति याहीं ते कहत अकुलाय कै ।
आवै मन ऐसी घरबार परिवार तजौं,
डारौं लोकलाज के समाज विसराय कै ।
हरिजन पुंजनि में वृंदावन कुंजनि में ,
रहौ बैठि कहूँ तरवरतर जाई कै ।

22. बानि सौं सहित सुबरन मुँह रहैं जहाँ

बानि सौं सहित सुबरन मुँह रहैं जहाँ,
धरत बहुत भाँति अरथ समाज को ।
संख्या करि लीजै अलंकार हैं अधिक यामैं,
राखौ मति ऊपर सरस ऐसे साज को
सुनौ महाजन! चोरी होति चार चरन की,
तातें सेनापति कहै तजि उर लाज को ।
लीजियो बचाय ज्यों चुरावै नाहिं कोउ, सौंपी
वित्त की सी थाती में कवित्तन के ब्याज को ।

23. सेनापति उनए नए जलद सावन के

सेनापति उनए नए जलद सावन के
चारिहू दिसान घुमरत भरे तोय कै ।
सोभा सरसाने न बखाने जात कैहूँ भाँति
आने हैं पहार मानो काजर के ढोय कै ।
घन सों गगन छप्यो, तिमिर सघन भयो,
देखि न परत मानो रवि गयो खोय कै ।
चारि मास भरि स्याम निसा को भरम मानि,
मेरे जान याही तें रहत हरि सोय कै ।

24. दूरि जदुराई सेनापति सुखदाई देखौ

दूरि जदुराई सेनापति सुखदाई देखौ,
आई ऋतु पावस न पाई प्रेमपतियाँ ।
धीर जलधार की सुनत धुनि धरकी औ,
दरकी सुहागिन की छोहभरी छतियाँ ।
आई सुधि बर की, हिए में आनि खरकी,
सुमिरि प्रानप्यारी वह प्रीतम की बतियाँ ।
बीती औधि आवन की लाल मनभावन की,
डग भई बावन की सावन की रतियाँ ।

25. बालि को सपूत कपिकुल पुरहूत

बालि को सपूत कपिकुल पुरहूत,
रघुवीर जू को दूत धरि रूप विकराल को ।
युद्ध मद गाढ़ो पाँव रोपि भयो ठाढ़ो,
सेनापति बल बाढ़ो रामचंद्र भुवपाल को ।
कच्छप कहलि रह्यो, कुंडली टहलि रह्यो,
दिग्गज दहलि त्रास परो चकचाल को ।
पाँव के सुरत अति भार के परत भयो,
एक ही परत मिलि सपत पताल को ।

26. नाहीं नाहीं करै, थोडो माँगे सब दैन कहै

नाहीं नाहीं करै, थोडो माँगे सब दैन कहै,
मंगल को देखि पट देत बार बार है ।
जिनके मिलत भली प्रापति की घटी होति,
सदा शुभ जनमन भावै निरधार है ।
भोगी ह्वै रहत बिलसत अवनी के मध्य,
कन कन जोरै, दान पाठ परवार है ।
सेनापति वचन की रचना निहारि देखौ,
दाता और सूम दोउ कीन्हें इकसार है ।

27. कुस लव रस करि गाई सुर धुनि कहि

कुस लव रस करि गाई सुर धुनि कहि,
भाई मन संतन के त्रिभुवन जानि है ।
देबन उपाइ कीनौ यहै भौ उतारन कौं,
बिसद बरन जाकी सुधार सम बानी है ।
भुवपति रुप देह धारी पुत्र सील हरि
आई सुरपुर तैं धरनि सियारानि है ।
तीरथ सरब सिरोमनि सेनापति जानि,
राम की कहनी गंगाधार सी बखानी है ।

28. पावन अधिक सब तीरथ तैं जाकी धार

पावन अधिक सब तीरथ तैं जाकी धार,
जहाँ मरि पापी होत सुरपुरपति है ।
देखत ही जाकौ भलौ घाट पहिचानियत,
एक रुप बानी जाके पानी की रहति है ।
बड़ी रज राखै जाकौ महा धीर तरसत,
सेनापति ठौर-ठौर नीकी यैं बहति है ।
पाप पतवारि के कतल करिबै कौं गंगा,
पुन्य की असील तरवारि सी लसति है ।

29. राखति न दोषै पोषे पिंगल के लच्छन कौं

राखति न दोषै पोषे पिंगल के लच्छन कौं,
बुध कवि के जो उपकंठ ही बसति है ।
जोय पद मन कौं हरष उपजावति, है,
तजै को कनरसै जो छंद सरस्ति हैं ।
अच्छर हैं बिसद करति उषै आप सम,
जातएं जगत की जड़ताऊ बिनसति है ।
मानौं छबि ताकी उदबत सबिता की सेना-
पति कबि ताकि कबिताई बिलसति हैं ।

30. तुकन सहित भले फल कौं धरत सूधे

तुकन सहित भले फल कौं धरत सूधे,
दूरि कौं चलत जे हैं धीर जिय ज्यारी के ।
लागत बिबिध पच्छ सोहत है गुन संग,
स्रवन मिलत मूल कीरति उज्यारी के ।
सोई सीस धुनै जाके उर मैं चुभत नीके,
बेग बिधि जात मन मोहैं नरनारी के ।
सेनापति कबि के कबित्त बिलसत अति,
मेरे जान बान हैं अचूक चापधारी के ।

31. मूढ़न कौ अगम, सुगम एक ताकौ, जाकी

मूढ़न कौ अगम, सुगम एक ताकौ, जाकी,
तीछन अमल बिधि बुद्धि है अथाह की ।
कोई है अभंग, कोई पद है सभंग, सोधि,
देखे सब अंग, सम सुधा के प्रवाह की ।
ज्ञान के निधान , छंद-कोष सावधान जाकी,
रसिक सुजान सब करत हैं गाहकी ।
सेवक सियापति कौ, सेनापति कवि सोई,
जाकी द्वै अरथ कबिताई निरवाह की ।

32. लीने सुघराई संग सोहत ललित अंग

लीने सुघराई संग सोहत ललित अंग,
सुरत के काम के सुघर ही बसति है ।
गोरी नव रस रामकरी है सरस सोहै,
सूहे के परस कलियान सरसति है ।
सेनापति जाके बाँके रूप उरझत मन,
बीना मैं मधुर नाद सुधा बरसति है ।
गूजरी झनक-झनक माँझ सुभग तनक हम,
देखी एक बाला राग माला सी लसति है ।

33. कौल की है पूरी जाकी दिन-दिन बाढ़ै छवि

कौल की है पूरी जाकी दिन-दिन बाढ़ै छवि,
रंचक सरस नथ झलकति लोल है ।
रहैं परि यारी करि संगर मैं दामिनी सी,
धीरज निदान जाहि बिछुरत को लहै ।
यह नव नारि सांचि काम की सी तलबारि है,
अचरज एक मन आवत अतोल है ।
सेनापति बाहैं जब धारे तब बार-बार,
ज्यौं-ज्यौं मुरिजात स्यौं, त्यौं अमोल हैं ।

34. दोष सौ मलीन, गुन-हीन कविता है

दोष सौ मलीन, गुन-हीन कविता है,
तो पै, कीने अरबीन परबीन कोई सुनि है ।
बिन ही सिखाए, सब सीखि है सुमति जौ पै,
सरस अनूप रस रुप यामैं हुनि है ।
दूसन कौ करिकै कवित्त बिन बःऊषन कौ,
जो करै प्रसिद्ध ऐसो कौन सुर-मुनि है ।
रामै अरचत सेनापति चरचत दोऊ,
कवित्त रचत यातैं पद चुनि-चुनि हैं ।

35. तोरयो है पिनाक, नाक-पल बरसत फूल

तोरयो है पिनाक, नाक-पल बरसत फूल,
सेनापति किरति बखानै रामचंद्र की ।
लैकै जयमाल सियबाल है बिलोकी छवि,
दशरथ लाल के बदन अरविंद की ।
परी प्रेमफंद, उर बाढ़्यो है अनंद अति,
आछी मंद-मंद चाल,चलति गयंद की ।
बरन कनक बनी बानक बनक आई,
झनक मनक बेटी जनक नरिंद्र की ।

  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)