सुजान-रसखान : रसखान

Sujan-Raskhan : Raskhan

51. दोहा

मोहन छबि रसखानि लखि, अब दृग अपने नाहिं।
ऐंचे आवत धनुष से, छूटे सर से जाहिं।।51।।

52. दोहा

या छबि पै रसखानि अब वारौं कोटि मनोज।
जाकी उपमा कविन नहिं रहे सु खोज।।52।।

53. कवित्‍त

कदम करीर तरि पूछनि अधीर गोपी
आनन रुखोर गरों खरोई भरोहों सो।
चोर हो हमारो प्रेम-चौंतरा मैं हार्यौ
गराविन में निकसि भाज्‍यौ है करि लजैरौं सो।
ऐसे रूप ऐसो भेष हमैहूं दिखैयौ, देखि।
देखत ही रसखानि नेननि चुभेरौं सो।
मुकुट झुकोहों हास हियरा हरौहों कटि,
फेटा पिपरोहों अंगरंग साँवरौहौं सौ।।53।।

54. सवैया

भौंह भरी सुथरी बरुनी अति ही अधरानि रच्‍यौ रंग रातो।
कुंडल लोल कपोल महाछबि कुंजन तैं निकस्‍यौ मुसकातो।।
छूटि गयौ रसखानि लखै उर भूलि गई तन की सुधि सातो।
फूटि गयौ सिर तैं दधि भाजन टूटिगौ नैनन लाज को नातो।।54।।

55. सवैया

जात हुती जमुना जल कौं मनमोहन घेरि लयौ मग आइ कै।
मोद भर्यौ लपटाइ लयौ पट घूँघट ढारि दयौ चित चाइ कै।
और कहा रसखानि कहौं मुख चूमत घातन बात बनाइ कै।
कैसे निभै कुल-कानि रही हिये साँवरी मूरति की छबि छाइ कै।।55।।

56. सवैया

जा दिनतें निरख्यौ नँद-नंदन, कानि तजी घर बन्धन छूट्यो॥
चारु बिलोकनिकी निसि मार, सँभार गयी मन मारने लूट्यो॥
सागरकौं सरिता जिमि धावति रोकि रहे कुलकौ पुल टूट्यो।
मत्त भयो मन संग फिरै, रसखानि सुरूप सुधा-रस घूट्यो॥56।।

57. सवैया

सुधि होत बिदा नर नारिन की दुति दीहि परे बहियाँ पर की।
रसखान बिलोकत गुंज छरानि तजैं कुल कानि दुहूँ घर की।
सहरात हियौ फहरात हवाँ चितबैं कहरानि पितंबर की।
यह कौन खरौ इतरात गहै बलि की बहियाँ छहियाँ बर की।।57।।

58. सवैया

ए सजनी मनमोहन नागर आगर दौर करी मन माहीं।
सास के त्रास उसास न आवत कैसे सखी ब्रजवास बसाहीं।
माखी भई मधु की तरुनी बरनीन के बान बिंधीं कित जाहीं।
बीथिन डोलति हैं रसखानि रहैं निज मंदिर में पल नाहीं।।58।।

59. सवैया

सखि गोधन गावत हो इक ग्‍वार लख्‍यौ वहि डार गहें बट की।
अलकावलि राजति भाल बिसाल लसै बनमाल हिये टटकी।
जब तें वह तानि लगी रसखानि निवारै को या मग हौं भटकी।
लटकी लट मों दृग-मीननि सों बनसी जियवा नट की अटकी।।59।।

60. सवैया

गाइ सुहाइ न या पैं कहूँ न कहूँ, यह मेरी गरी निकर्यौ है।
धीरसमीर कलिंदी के तीर खर्यौ रटै आजु री डीठि पर्यौ है।
जा रसखानि बिलोकत ही सहसा ढरि राँग सो आँग ढर्यौ है।
गाइन घेरत हेरत सो पट फेरत टेरत आनि पर्यौ है।।60।।

61. सवैया

खंजन मीन सरोजन को मृग को मद गंजन दीरघ नैना।
कंजन ते निकस्‍यौ मुसकात सु पान पर्यौ मुख अमृत बैना।।
जाइ रटे मन प्रान बिलोचन कानन में रचि मानत चैना।
रसखानि कर्यौ घर मो हिय में निसिवासर एक पलौ निकसै ना।।61।।

62. दोहा

मन लीनो प्‍यारे चितै, पै छटाँक नहिं देत।
यहै कहा पाटी पढ़ी, दल को पीछो लेत।।62।।

63. दोहा

मो मन मानिक ले गयौ, चिते चोर नंदनंद।
अब बेमन मैं क्‍या करूँ, परी फेर के फंद।।63।।

64. दोहा

नैन दलालनि चौहटें, मन मानिक पिय हाथ।
रसखाँ ढोल बजाइके, बेच्‍यौ हिय जिय साथ।।64।।

65. सोरठा

प्रीतम नंदकिशोर, जा दिन तें नेननि लग्‍यौ।
मन पावन चित्‍त चोर, पलक ओट नहिं सहि सकौं।।65।।

66. सवैया

मैन मनोहर नैन बड़े सखि सैननि ही मनु मेरो हर्यौ है।
गेह को काज तज्‍यौ रसखानि हिये ब्रजराजकुमार अर्यौ है।।
आसन-बासन सास के आसन पाने न सासन रंग पर्यौ है।
नैननि बंक बिसाल की जोहनि मत्‍त महा मन मत कर्यौ है।।66।।

67. सवैया

भटू सुंदर स्‍याम सिरोमनि मोहन जोहन मैं चित्‍त चोरत है।
अबलोकन बंक बिलोचन मैं ब्रजबालन के दृग जोरत है।
रसखानि महावत रूप सलोने को मारग तें मन मोरत है।
ग्रह काज समाज सबै कुल लाज लला ब्रजराज को तोरत है।।67।।

68. सवैया

आली लाल घन सों अति सुंदर तैसो लसे पियरो उपरैना।
गंडनि पै छलकै छवि कुंडल मंडित कुंतल रूप की सैना।
दीरघ बंक बिलोकनि की अबलोकनि चोरति चित्‍त को चैना।
मो रसखानि रट्यौ चित्‍त री मुसकाइ कहे अधरामृत बैना।।68।।

69. सवैया

वह नंद को साँवरो छैल अली अब तौ अति ही इतरान लग्‍यौ।
नित घाटन बाटन कुंजन मैं मोहिं देखत ही नियरान लग्‍यौ।
रसखानि बखान कहा करियै तकि सैननि सों मुसकान लग्‍यौ।
तिरछी बरखी सम मारत है दृग-बान कमान मुकान लग्‍यौ।।69।।

(साँवरो=सांवरे रंग का, छैल=सुन्दर,बांका, अली=सखि, अति=अधिक,
इतरान=इतराना,मान करना, घाटन=घाट पर, बाटन=रासते में, कुंजन=
वृक्षों के झुंडों में, नियरान=नजदीक,पास आना, बखान=कहना, तकि=
देख कर, सैननि=इशारे, बरखी=बर्छी, सम=की तरह, दृग-बान=आंखों
के तीर, मुकान=कान तक खींच कर)

70. सवैया

मोहन रूप छकी बन डोलति घूमति री तजि लाज बिचारें।
बंक बिलोकनि नैन बिसाल सु दंपति कोर कटाछन मारैं।।
रंगभरी मुख की मुसकान लखे सखी कौन जु देह सम्‍हारे।
ज्‍यौं अरबिंद हिमंत-करी झकझोरि कैं तोरि मरोरि कैं डारैं।।70।।

71. सवैया

आज गई ब्रजराज के मंदिर स्‍याम बिलोक्‍यौ री माई।
सोइ उठ्यौ पलिका कल कंचन बैठ्यो महा मनहार कन्‍हाई।।
ए सजनी मुसकान लख्‍यौ रसखानि बिलोकनि बंक सुहाई।
मैं तब ते कुलकानि तजौ सुबजी ब्रजमंडल मांह दुहाई।।71।।

72. सवैया

मोहन के मन की सब जानति जोहन के मोहि मग लियौ मन।
मोहन सुंदर आनन चंद तें कुंजनि देख्‍यौ में स्‍याम‍ सिरोमन।
ता दिन तें मेरे नैननि लाज तजी कुलकानि की डोलत हौं बन।
कैसी करौं रसखानि लगी जक री पकरी पिय के हित को पन।।72।।

73. सवैया

लोक की लाज तज्‍यौ तबहिं जब देख्‍यो सखी ब्रजचंद सलौनो।
खंजन मीन सरोजन की छबि गंजन नैन लला दिन होनो।
हेर सम्‍हारि सकै रसखानि सो कौन तिया वह रूप सुठोनो।
भौंह कमान सौं जोहन को सर बेधत प्राननि नंद को छोनो।।73।।

74. सवैया

वा मुख की मुसकान भटू अँखियानि तें नेकु टरै नहिं टारी।
जौ पलकैं पल लागति हैं पल ही पल माँझ पुकारैं पुकारी।
दूसरी ओर तें नेकु चितै इन नैनन नेम गह्यौ बजमारी।
प्रेम की बानि की जोग कलानि गही रसखानि बिचार बिचारी।।74।।

75. सवैया

कातिग क्‍वार के प्रात सरोज किते बिकसात निहारे।
डीठि परे रतनागर के दरके बहु दामिड़ बिंब बिचारे।।
लाल सु जीव जिते रसखानि दरके गीत तोलनि मोलनि भारे।
राधिका श्रीमुरलीधर की मधुरी मुसकानि के ऊपर बारे।।75।।

76. सवैया

बंक बिलोचन हैं दुख-मोचन दीरघ रोचन रंग भरे हैं।
घमत बारुनी पान कियें जिमि झूमत आनन रूप ढरै हैं।
गंडनि पै झलकै छबि कुंडल नागरि-नैन बिलोकि भरे हैं।
बालनि के रसखानि हरे मन ईषद हास के पानि परे हैं।।76।।

77. कवित्‍त

अब ही खरिक गई, गाइ के दुहाइबे कौं,
बावरी ह्वै आई डारि दोहनी यौ पानि की।
कोऊ कहै छरी कोऊ मौन परी कोऊ,
कोऊ कहै भरी गति हरी अँखियानि की।।
सास व्रत टानै नंद बोलत सयाने धाइ
दौरि-दौरि मानै-जानै खोरि देवतानि की।
सखी सब हँसैं मुरझानि पहिचानि कहूँ,
देखी मुसकानि वा अहीर रसखानि की।।77।।

78. सवैया

मैन-मनोहर बैन बजै सु सजे तन सोहत पीत पटा है।
यौं दमकै चमकै झमकैं दुति दामिनि की मनौ स्‍याम घटा है।
ए सजनी ब्रजराजकुमार अटा चढ़ि फेरत लाल बटा है।
रसखानि महा मधुरी मुख की मुसकानि करै कुलकानि कटा है।।78।।

79. सवैया

जा दिन तें मुसकानि चुभी चित ता दिन तें निकसी न निकारी।
कुंडल लोल कपोल महा छबि कुंजन तें निकस्‍यो सुखकारी।।
हौ सखि आवत ही दगरें पग पैंड़ तजी रिझई बनवारी।
रसखानि परी मुस‍कानि के पाननि कौन गनै कुलकानि विचारी।।79।।

80. सवैया

काननि दै अँगुरी रहिहौं जबहीं मुरली धुनि मंद बजैहै।
मोहनी ताननि सों रसखानि अटा चढ़ि गोधन गैहै तौ गैहै।।
टेरि कहौं सिगरे ब्रज लोगनि काल्हि कोऊ सु कितौ समुझैहै।
माइ री वा मुख की मुसकानि सम्‍हारी न जैहे न जैहे न जैहे।।80।।

81. सवैया

आजु सखी नंद-नंदन की तकि ठाढ़ौ हों कुंजन की परछाहीं।
नैन बिसाल की जोहन को सब भेदि गयौ हियरा जिन माहीं।
घाइल धूमि सुमार गिरी रसखानि सम्‍हारति अँगनि जाहीं।
एते पै वा मुसकानि की डौंड़ी बजी ब्रज मैं अबला कित जाहीं।।81।।

82. दोहा

ए सजनी लोनो लला, लखौ नंद के गेह।
चितयौ मृदु मुस्‍काइ कै, हरी सबै सुधि देह।।82।।

83. दोहा

जोहन नंदकुमार कों, गई नंद के गेह।
मोहिं देखि मुसकाइ कै, बरस्‍यौ मेह सनेह।।83।।

84. सवैया

मोरपखा सिर कानन कुंडल कुंतल सों छबि गंडनि छाई।
बंक बिसाल रसाल बिलोचन हैं दुखमौचन मोहन माई।
आली नवीन यह घन सो तन पीट घट ज्‍यौं पठा बनि आई।
हौं रसखानि जकी सी रही कछु टोना चलाइ ठगौरी सी लाई।।84।।

85. सवैया

जा दिन तें वह नंद को छोहरा या बन धेनु चराइ गयौ है।
मोहनी ताननि गोधन गावत बेन बजाइ रिझाइ गयौ है।
बा दिन सों कछु टोना सो कै रसखानि हिये मैं समाइ गयौ है।
कोऊ न काहू की कानि करै सिगरौ ब्रज वीर! बिकाइ गयौ है।।85।।

86. सवैया

आयो हुतो नियरे रसखानि कहा कहौं तू न गई वहि ठैया।
या ब्रज में सिगरी बनिता सब बारति प्राननि लेति बलैया।
कोऊ न काहु की कानि करैं कछु चेटक सो जु कियौ जदुरैंया।
गाइगौ तान जमाइगौ नेह रिझाइगौ प्रान चराइगौ गैया।।86।।

87. सवैया

कौन ठगौरी भरी हरि आजु बजाई है बाँसुनिया रंग-भीनी।
तान सुनीं जिनहीं तिनहीं तबहीं तित साज बिदा कर दीनी।
घूमैं घरी नंद के द्वार नवीनी कहा कहूँ बाल प्रवीनी।
या ब्रज-मंडल में रसखानि सु कौन भटू जू लटू नहिं कीनी।।87।।

88. सवैया

बाँकी धरै कलगी सिर ऊपर बाँसुरी-तान कटै रस बीर के।
कुंडल कान लसैं रसखानि विलोकन तीर अनंग तुनीर के।
डारि ठगौरी गयौ चित चोरि लिए है सबैं सुख सोखि सरीर के।
जात चलावन मो अबला यह कौन कला है भला वे अहीर के।।88।।

89. सवैया

कौन की नागरि रूप की आगरि जाति लिए संग कौन की बेटी।
जाको लसै मुख चंद-समान सु कोमल अँगनि रूप-लपेटी।
लाल रही चुप लागि है डीठि सु जाके कहूँ उर बात न मेटी।
टोकत ही टटकार लगी रसखानि भई मनौ कारिख-पेटी।।89।।

90. सवैया

कराकृत कुंडल गुंज की माल के लाल लसै पग पाँवरिया।
बछरानि चरावन के मिस भावतो दै गयौ भावती भाँवरिया।
रसखानि बिलोकत ही सिगरी भईं बावरिया ब्रज-डाँवरिया।
सजती ईहिं गोकुल मैं विष सो बगरायौ हे नंद की साँवरिया।।90।।

91. सवैया

नवरंग अनंग भरी छवि सौं वह मूरति आँखि गड़ी ही रहैं
बतिया मन की मन ही मैं रहे घतिया उर बीच अड़ी ही रहैं।
तबहूँ रसखानि सुजान अली नलिनी दल बूँद पड़ी ही रहै।
जिय की नहिं जानत हौं सजनी रजनी अँसुवान लड़ी ही रहै।।91।।

92. सवैया

मैन मनोहर ही दुख दंदन है सुख कंदन नंद को नंदा।
बंक बिलोचन की अवलोकनि है दुख योजन प्रेम को फंदा।
जा को लखैं मुख रूप अनुपम होत पराजय कोटिक चंदा।
हौं रसखानि बिकाइ गई उन मोल लई सजनी सुख चंदा।।92।।

93. सवैया

सोहत है चँदवा सिर मोर के तैसिय सुंदर पाग कसी है।
तैसिय गोरज भाल बिराजति जैसी हियें बनमाल लसी है।
रसखानि बिलोकत बौरी भई दृगमूँदि कै ग्‍वालि पुकारि हँसी है।
खोलि री नैननि, खोलौं कहा वह मूरति नैनन माँझ बसी है।।93।।

94. सवैया

सुनि री! पिय मोहन की बतियाँ अति दीठ भयौ नहिं कानि करै।
निसि बासरु औसर देत नहीं छिनहीं छिन द्वार ही आनि अरै।
निकसी मति नागरि डौंड़ी बजी ब्रज मंडल मैं यह कौन भरै।
अब रूप की रौर परी रसखानि रहै तिय कौऊ न माँझ धरै।।94।।

95. सवैया

रंग भर्यौ मुसकान लला निकस्‍यौ कल कुंजन ते सुखदाई।
मैं तबही निकसी घर ते तनि नैन बिसाल की चोट चलाई।।
घूमि गिरी रसखानि तब हरिनी जिमि बान लगैं गिर जाई।
टूटि गयौ घर को सब बंधन छूटिगौ आरज लाज बड़ाई।।95।।

96. सवैया

खंजन नैन फँदे पिंजरा छबि नाहिं रहैं थिर कैसे हुं भाई।
छूटि गई कुलकानि सखी रसखानि लखी मुसकानि सुहाई।।
चित्र कढ़े से रहे मेरे नैन न बैन कढ़े मुख दीनी दुहाई।
कैसी करौं कित जाऊँ अली सब बोलि उठैं यह बावरी आई।।96।।

97. सवैया

कुंजगली मैं अली निकसी तहाँ साँकरे ढोटा कियौ भटभेरो।
माई री वा मुख की मुसकान गयौ मन बूढ़ि फिरै नहिं फेरो।।
डोरि लियौ दृग चोरि लियौ चित डार्यौ है प्रेम को फंद घनेरो।
कैसा करौं अब क्‍यों निकसों रसखानि पर्यौ तन रूप को घेरो।।97।।

98. सोरठा

देख्‍यौ रूप अपार, मोहन सुंदर स्‍याम को।
वह ब्रजराज कुमार, हिय जिय नैननि में बस्‍यौ।।98।।

99. कवित्‍त

अंत ते न आयौ याही गाँवरे को जायौ,
माई बाप रे जिवायौ प्‍याइ दूध बारे बारे को।
सोई रसखानि पहिचानि कानि छांड़ि चाहे,
लोचन नचावत नचया द्वारे द्वारे को।
मैया की सौं सोच कछू मटकी उतारे को न,
गोरस के ढारे को न चीर चीर डारे को।
यहै दुख भारी गहै डगर हमारी माँझ,
नगर हमारे ग्‍वाल बगर हमारे को।।99।।

100. सवैया

एक ते एक लौं कानन में रहें ढीठ सखा सब लीने कन्‍हाई।
आवत ही हौं कहाँ लौं कहीं कोउ कैसे सहै अति की अधिकाई।।
खायौ दही मेरो भाजन फोर्यौ न छाड़त चीर दिवाएँ दुहाई।
सोंह जसोमति की रसखानि ते भागें मरु करि छूटन पाई।।100।।

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