हिन्दी कविताएँ : मनोहर लाल 'रत्नम' सहदेव

Hindi Kavita : Manohar Lal Ratnam Sahdev

1. कवि कभी रोया नहीं करता

कवि कभी रोया नहीं करता, वह केवल गाया करता है।
दर्द सभी सीने में रखकर, वह जीवन पाया करता है॥

जब जब भी आहें उठती हैं,
तब तब गीत नया बनता है।
जब जब छलका करते आंसू–
कवि का मीत नया बनता है॥

आंसू संग आहों का बंधन, कवि केवल पाया करता है।
कवि कभी रोया नहीं करता, वह केवल गाया करता है॥

जब अम्बर में मेघ गरजते,
तभी कवि के भाव छलकते।
और चांदनी जब रोती है–
तभी कवि के नैन बरसते॥

ऐसी ‘रत्नम’ पाकर प्रेरणा, रचना कर गाया करता है।
कवि कभी रोया नहीं करता, वह केवल गाया करता है॥

2. काग़ज़ के रावण मत फूँको

अर्थ हमारे व्यर्थ हो रहे, पापी पुतले अकड़ खड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं

कुंभ-कर्ण तो मदहोशी हैं, मेघनाथ भी निर्दोषी है
अरे तमाशा देखने वालों, इनसे बढ़कर हम दोषी हैं
अनाचार में घिरती नारी, हाँ दहेज की भी लाचारी-
बदलो सभी रिवाज पुराने, जो घर-घर में आज अड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं

सड़कों पर कितने खर-दूषण, झपट ले रहे औरों का धन
मायावी मारीच दौड़ते, और दुखाते हैं सब का मन
सोने के मृग-सी है छलना, दूभर हो गया पेट का पलना
गोदामों के बाहर कितने, मकरध्वजों के जाल कड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं

लखनलाल ने सुनो ताड़का, आसमान पर स्वयं चढ़ा दी
भाई के हाथों भाई के, राम राज्य की अब बरबादी।
हत्या, चोरी, राहजनी है, यह युग की तस्वीर बनी है-
न्याय, व्यवस्था में कमज़ोरी, आतंकों के स्वर तगड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं

बाली जैसे कई छलावे, आज हिलाते सिंहासन को
अहिरावण आतंक मचाता, भय लगता है अनुशासन को
खड़ा विभीषण सोच रहा है, अपना ही सर नोच रहा है-
नेताओं के महाकुंभ में, सेवा नहीं प्रपंच बड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों, ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं

3. जब वसंत आकर मुसकाया

जब वसंत आकर मुसकाया; पीलापन व्यवहार हुआ।
खेतों में फसलें चहकी हैं; यह वसंत त्योहार हुआ।।

पंचायत मेरे गाँव की; मौन तोड़ती है अपना
और यही चर्चा चौपाल पर; ये फसलें हैं धन अपना,
आज नया दरबार लगा है; सब मौलिक अधिकार हुआ।
जब वसंत आकर मुसकाया: पीलापन व्यवहार हुआ।।

सरसों के फूले खेतों पर, खुशी मनाकर हम हँस लें
कुन्दन सी बनकर लहकी है; देखो खेतों की फसलें,
बापू की लाठी को थामे, रमुआ मग्न विचार हुआ।
जब वसंत आकर मुसकाया, पीलापन व्यवहार हुआ।।

4. रत्नम गीता सार

आप चिन्ता करते हो तो व्यर्थ है।
मौत से जो डरते हो तो व्यर्थ है॥

आत्मा तो चिर अमर है जान लो।
तथ्य यह जीवन का सच्चा अर्थ है॥

भूतकाल जो गया अच्छा गया।
वर्तमान देख लो चलता भया॥

भविष्य की चिन्ता सताती है तुम्हें?
है विधाता सारी रचना रच गया॥

नयन गीले हैं, तुम्हारा क्या गया।
साथ क्या लाये, जो तुमने खो दिया॥

किस लिये पछता रहे हो तुम कहो?
जो लिया तुमने यहीं से है लिया॥

नंगे तन पैदा हुए थे खाली हाथ।
कर्म रहता है सदा मानव के साथ॥

सम्पन्नता पर मग्न तुम होते रहो?
एक दिन तुम भी चलोगे खाली हाथ॥

धारणा मन में बसा लो बस यही।
छोटा-बडा, अपना-पराया है नहीं॥

देख लेना मन की आंखों से जरा।
भूमि धन परिवार संग जाता नहीं॥

तन का क्या अभिमान करना बावरे।
कब निकल जाये यह तेरा प्राण रे॥

पांच तत्वों से बना यह तन तेरा।
होगा निश्चय यह यहां निष्प्राण रे॥

स्वंय को भगवान के अर्पण करो।
निज को अच्छे कमों से तर्पण करो॥

शोक से भय से रहोगे मुक्त तुम।
सर्वस्व ‘रत्नम’ ईश्वर को अर्पण करो॥

5. सीपों से मोती पाने को

सीपों से मोती पाने को,
मैं सागर तट पर खड़ा रहा।
धरती पर मानव खोज रहा,
मैं बना दधिचि अड़ा रहा।।

मानव का जीवन सीपों सा, कुछ भरा हुआ कुछ रीता सा।
कुछ गुण, कुछ अवगुण, रमें हुए, कुछ गीता सा, कुछ सीता सा।।
मुझसे लहरों का कहना था,
मैं सुनने को बस अड़ा रहा।
सीपों से मोती पाने को,
मैं सागर तट पर खड़ा रहा।।

मैंने जीवन को भी देखा, देखा है मृत्यु का क्रन्दन।
मानव ने ही दानवता का, कर डाला है क्यों अभिनन्दन।।
जीवन का लक्ष्य ही मृत्यु है,
मैं इस निर्णय पर पड़ा रहा।
सीपों से मोती पाने को,
मैं सागर तट पर खड़ा रहा।।

मानव हो या कि फिर दानव, जब चिता सजाई जाती है।
मिट जाती है सब चिन्तायें, जब आग लगाई जाती है।।
क्षण भंगुर है जीवन सारा,
मैं एक ठूँठ पर चढ़ा रहा।
सीपों से मोती पाने को,
मैं सागर तट पर खड़ा रहा।।

नयनों में उमड़ी जलधरा, जब सागर तट से टकराई।
शमशान की जलती अग्नि से, यह बात समझ में बस आई।।
मैं लिए शान्ति मन्त्र यहाँ,
बस 'ओम' नाम पर अड़ा रहा।
सीपों से मोती पाने को,
मैं सागर तट पर खड़ा रहा।।

पूरे जीवन का होम किया, कर्मों की गति न पहचानी।
'रत्नम्' ने तब से अब तक ही, अपनी ही की है मनमानी।।
गीता–कुरान–बाईबिल–ग्रन्थ,
का सार सामने पड़ा रहा।
सीपों से मोती पाने को,
मैं सागर तट पर खड़ा रहा।।

6. रिश्तों पर दीवारें

टूटी माला बिखरे मनके, झुलस गये सब सपने।
रिश्ते नाते हुए पराये, जो कल तक थे अपने।।

अंगुली पकड़ कर पाँव चलाया, घर के अँगनारे में,
यौवन लेकर सम्मुख आया, वह अब बटवारे में।
उठा नाम बटवारे का तो, सब कुछ लगा है बटने।।
टूटी माला बिखरे मनके, झुलस गये सब सपने।

रिश्तों की अब बूढ़ी आँखें, देख–देख पथरायीं,
आशाओं के महल की साँसें, चलने से घबरायीं।
कल का नन्हा हाथ गाल पर, लगा तमाचा कसने।।
टूटी माला बिखरे मनके, झुलस गये सब सपने।

दीवारों पर चिपके रिश्ते, रिश्तों पर दीवारें,
घर आँगन सब हुए पराये, किसको आज पुकारें।
रिश्तों की मैली–सी चादर, चली सरक कर हटने।।
टूटी माला बिखरे मनके, झुलस गये सब सपने।

हर घर में बस यही समस्या, चौखट पार खड़ी है,
जिसको छू–कर देखा 'रत्नम्' विपदा वहीं बड़ी है।
हर रिश्तों में पड़ी दरारें, लगा कलेजा फटने।।
टूटी माला बिखरे मनके, झुलस गये सब सपने।

7. गंगाजल

गंगाजल अंजलि में भरकर, सूरज का मुख धुलवायें।
घना कुहासा, गहन अँधेरा, नया सवेरा ले आयें।।

देश मेरे में बरसों से ही, नदी आग की बहती है।
खून की धरा से हो लथपथ, धरती ही दुख सहती है।
शमशानों के बिना धरा पर, जलती है कितनी लाशें
हर मानव के मन में दबी सी, कुछ तो पीड़ा रहती है।
अब धरती का दुख हरने को कुछ हरियाली बो जायें।
गंगाजल अंजलि में भरकर, सूरज का मुख धुलवायें।

मौन बिछा जाता है पलपल, पर हँसने की बात कहाँ?
होठों को मुसकान मिले पर, अपनी है औकात कहाँ?
इसने, उसने, तुमने मैंने, सब कुछ चौपट कर डाला।
कोई किसी को प्यार बाँट दे, ऐसी अब सौगात कहाँ?
चीखों और कराहों में अब, हम न बिलकुल खो जायें।
गंगाजल अंजलि में भरकर, सूरज का मुख धुलवायें।

ग्रहण लगे सूरज ने कल ही, बस इतना संकेत दिया।
चन्दा पूछ रहा मानव से, किसने रक्त को श्वेत किया।
आतंकित हो भय पनपा है, तारों ने गणना की है–
अम्बर से बारूदी धुँए का अब तो आकेत लिया।
कैसा समय घिनौना 'रत्नम्', चलकर घर तक हो आयें
गंगाजल अंजलि में भरकर, सूरज का मुख धुलवायें।

8. कील पुरानी है

नये साल का टँगा कलेण्डर कील पुरानी है।
कीलों से ही रोज यहाँ होती मनमानी है।।

सूरज आता रोज यहाँ पर लिए उजालों को।
अपने आँचल रात समेटे, सब घोटालों को।।
बचपन ही हत्या होती है, वहशी लोग हुए।
और अस्थियाँ अर्पित होती गन्दे नालों को।।
इन कीलों पर पीड़ा ही बस आनी जानी है।
नये साल का टँगा कलेण्डर कील पुरानी है।।

कीलों से उठती धड़कन आवाज लगाती हैं।
आँगन, गलियों, चौराहों से चीखें आती हैं।।
यहाँ अमीरी में नंगे तन सड़कों पर नाचें।
मात–पिता को तरुणाई भी आँख दिखाती है।।
यहाँ वासना की दलदल में फँसी जवानी है।
नये साल का टँगा कलेण्डर कील पुरानी है।

दीवारों के कील पुराने हमें चिढ़ाते हैं।
दर्द देश का लोग यहाँ क्यों भूले जाते हैं।।
मर्यादा की तोड़ के सीमा हम आगे बढ़ते।
फिल्मी तस्वीरें कीलों पर हम लटकाते हैं।
अब देखा है, घर–घर की तो यही कहानी है।
नये साल का टँगा कलेण्डर कील पुरानी है।

इन कीलों ने अपना तो इतिहास बनाया है।
और यहाँ पर कीलों को हमने तड़पाया है।।
चकाचौंध के हम दीवाने है सारे 'रत्नम्'।
किलकारी को कीलों पर हमने लटकाया है।।
सबने केवल अपनी–अपनी रीत निभानी है।
नये साल का टँगा कलेण्डर कील पुरानी है

9. राष्ट्रगान मुझको भी आता है

जन गण मन बीमार पड़ा है, अधिनायक है कहाँ सो गया,
भारत भाग्य विधाता भी तो, इन गलियों में कहीं खो गया।
मेरे भारत के मस्तक पर, है आतंक की काली छाया –

कर्णधार जितने भारत के,
इन सबको है संसद भाता।
मुझसे यदि पूछ कर देखो,
राष्ट्रगान मुझको है आता॥

आग लगी है पंजाब मेरे में, सिंधु और गुजरात जल गया,
मौन मराठा, द्राविड़, उत्कल और बंग को द्वैष छल गया।
विंध्य, हिमाचल को डर लगता, यमुना-गंगा के पानी से –

उच्छल जलधि तरंग कहाँ अब,
केवल लहू बहाया जाता।
मुझसे यदि पूछ कर देखो,
राष्ट्रगान मुझको है आता॥

तव शुभ नामे जागे वाला, महामंत्र फिर से गाना है,
तव शुभ आशिष मागे किससे, उस मूरत को ढुँढवाना है।
गाहे तव जय गाथा जन जन, फिर ऐसा आधार बनालें –

जन गण मंगल दायक जय हे,
अपना भारत भाग्य विधाता।
मुझसे यदि पूछ कर देखो,
राष्ट्रगान मुझको है आता॥

जय हे, जय हे, जय हे, कहना, यह कोई संघर्ष नहीं है,
केवल जय का नाद लगाना, यह कोई उत्कर्ष नहीं है।
जन गण मन गाने से पहले, जन-जन का विश्वास जगा लें –

राष्ट्र बचाएं अपना ‘रत्नम’,
भारत भू से अपना नाता।
मुझसे यदि पूछ कर देखो,
राष्ट्रगान मुझको है आता॥

10. खतरा है

देशवासियों सुनो देश को,
आज भयंकर खतरा है।
जितना बाहर से खतरा,
उतना भीतर से खतरा है॥

सर पर खरा चीन से है, लंका से खतरा पैरों में,
अपने भाई दिख रहे हैं, जो बैठे हत्यारों में।
इधर पाक से खतरा है तो, इधर बंग से खतरा है,
निर्भय होकर जो उठती सागर तरंग से खतरा है।
माँ के आँचल को खतरा, दुल्हन के घूंघट को खतरा है,
खतरे में पायल की छम – छम, लाश के है पट को खतरा।
बिछुए को भी खतरा है, तो मेंहदी भरती सिसकारी,
भाई बहन के प्यार की रक्षक, राखी पर है चिंगारी॥

प्यार के रिश्ते सब खतरे में,
बदकारों से खतरा है।
देशवासियों सुनो देश को,
आज भयंकर खतरा है॥

आज़ादी को खतरा देश के जहरीले इन शूलों से,
अपने हाथों हमने बोये, देखो आज बबूलों से।
उनके हाथों में लहराती देखो आज कतारों से,
जो गर्दन पर लटक रही है, खतरा है तलवारों से।
मंदिर को भी खतरा है, तो गुरुद्वारों को खतरा है,
मस्जिद, गिरजा के अब तो हर अँगनारों को खतरा है।
काशी – काबा को खतरा, तो खतरा आज देवालय को,
हरिद्वार को खतरा है तो खतरा आज हिमालय को॥

कश्मीर में आग लगी है,
बटवारों से खतरा है।
देशवासियों सुनो देश को,
आज भयंकर खतरा है॥

मानसिंह की बस्ती को भी, जयचंदों से खतरा है,
माथे पर जो तिलक लगाते, इन बन्दों से खतरा है।
हैं खतरे को बोल दीवाने, पूजा और अजानों में,
खतरा मानों है सच जानो, ख़ामोशी शमशानों में।
नाश-नाश के क्रम से पीड़ित, आज और कल को खतरा है,
मौन साध कर बैठा है जो, पांडव दाल को खतरा है।
देश मेरे को खतरा देश में उठते हुए सवालों से,
सच कहता हूँ देश को खतरा, देश को आज दलालों से॥

रात-रात भर हम जागे,
अब रखवारों से खतरा है।
देशवासियों सुनो देश को,
आज भयंकर खतरा है॥

घर-घर में उठते भैया, अब हर तनाव से खतरा है,
यमुना के पानी को सुन लो, अब चिनाव से ख़तरा है।
मैली गंगा को ख़तरा, खतरा सरयू के पानी को,
हम चुल्लू में डूब मरें, फिर आग लगे मर्दानी को।
कितने विषधर फन फैलाये, आज देश को दस्ते हैं,
ऐसा लगता देश में जैसे, सब मुर्दे ही बसते हैं।
खतरों की इस झंझा से तो छलनी अपना भेष हुआ,
बोलो ‘रत्नम’ कुछ तो बोलो, आज अपाहिज देश हुआ॥

दिल का खतरा देश हुआ,
अब रखवारों से खतरा है।
देशवासियों सुनो देश को,
आज भयंकर खतरा है॥

11. चोरी का गंगाजल

महाकुम्भ से गंगाजल मैं,
चोरी करके लाया हूँ।
नेताओं ने कर दिया गन्दा,
संसद धोने आया हूँ॥

देश उदय का नारा देकर, जनता को बहकाते हैं,
छप्पन वर्ष की आज़ादी को, भारत उदय बताते हैं।
मंहगाई है कमर तोड़ती, बेरोजगारी का शासन,
कमर तलक कर्जे का कीचड, यह प्रगति बतलाते हैं॥

थोथे आश्वासन नेता के,
मैं बतलाने आया हूँ।
महाकुम्भ से गंगाजल मैं,
चोरी करके लाया हूँ॥

चोर बाजारी, घोटालों का, देश मेरे में डेरा है,
दलालों और लूटेरों ने ही देश मेरे को घेरा है।
कांड अनेकों को गये लेकिन, जन-गण-मौन हुए बैठा,
सूरज भी खामोश यहाँ पर, छाया घोर अँधेरा है॥

आज चौराहे बीच खड़ा मैं,
रोना रोने आया हूँ। महाकुम्भ से गंगाजल मैं,
चोरी करके लाया हूँ॥

धर्म नाम का परचम लहरा, हर मुखड़ा है डरा हुआ,
काशी, मथुरा और अवध में बाबर का विष भरा हुआ।
नेता सबको बहकाते हैं, भारत में घुसपैठ बढ़ी,
नोच-नोच कर देश को खाया, देश है गिरवी पड़ा हुआ॥

सत्ता के सिंहासन को मैं,
गीत सुनाने आया हूँ।
महाकुम्भ से गंगाजल मैं,
चोरी करके लाया हूँ॥

यह चोरी का गंगाजल, हर चोरी को दिखलायेगा,
नेताओं की ख़रमस्ती यह गंगा जल छुड़वायेगा।
अंग्रेजी का बीन बजाने वाले हों गूंगे ‘रत्नम’,
यह गंगाजल भारत में, हिंदी को मान दिलायेगा॥

भारत की भाषा हिंदी,
यह शोर मचाने आया हूँ।
महाकुम्भ से गंगाजल मैं,
चोरी करके लाया हूँ॥

12. चलो तिरंगे को लहरा लें

अब सोया जन तंत्र जगा लें,
जन-जन को विश्वास दिला लें।
निर्भय होकर हम अम्बर में,
चलो तिरंगे को लहरा लें॥

चौराहों पैर चीखें क्यों हैं, अर्थ-व्यवस्था मौन दिखती,
मजदूरों की बस्ती में तो, अब रोटी क्यूँ गौण दिखती।
रोटी के बदले में बोटी, छीन रहें हैं ये धन वाले –

गिरगिट जैसे जमाखोर हैं,
आओ इनको नाच-नचा लें।
अब सोया जन तंत्र जगा लें,
जन-जन को विश्वास दिला लें॥

राम राज्य की चढी पताका, इस हिलते से सिंघासन पर,
मोहित, देश के सब नेता हैं, अपने अपने ही आसन पर।
हरियाणा ने रोक लिया है, अब दिल्ली के ही पानी को –

आँखों में जो बचा है पानी,
उसमे डुबकी चलो लगा लें।
अब सोया जन तंत्र जगा लें,
जन-जन को विश्वास दिला लें॥

आतंकी हमले से संसद गदला कर डाला है हमने,
बाहुबली बन अपना चेहरा, उजला कर डाला है हमने।
बाजारों की सारी पूँजी, अब गिरवी है घोटालों में –

घोटाला करने वालों को,
आओ चलकर धुल चटा लें।
अब सोया जन तंत्र जगा लें,
जन-जन को विश्वास दिला लें॥

लाशों पे वोटों की रोटी, खूब सिकी है अब न सिकेगी,
दारू की बोतल पर जनता खूब बिकी है अब न बिकेगी।
अब तो बैल-बकरियों जैसे, संसद के सदस्य बिकते हैं –

देश को कोई बेच न पाये,
आओ मिलकर शोर मचा लें।
अब सोया जन तंत्र जगा लें,
जन-जन को विश्वास दिला लें॥

13. देश किन्नरों को दे दो

देश नारों से घिरा, मैं हर सितम को सह रहा हूँ,
आँख के आंसू मैं देखो अब खडा मैं बह रहा हूँ।
और अत्त्याचार मुझसे देश मैं देखे न जाएं–
आज शिव सा ही गरल मैं पान करके कह रहा हूँ॥
भावना बैठी कहाँ है आप भी मन को कुरेदो।
आप के बस का ना हो तो, देश किन्नरों को दे दो॥

नारियों की रक्षा के विश्वास अब तो घट रहे हैं,
दूध पीते बालकों के सर यहाँ पर कट रहे हैं।
सीना ताने हम खड़े हैं और पौरुष मौन सारा–
आज धर्म के सहारे लोग देखो बंट रहे हैं॥
है कहाँ ऐसा मसीहा फिर से सूली पर चदे जो।
आप के बस का न हो तो, देश किन्नरों को दे दो॥

जल रहे कश्मीर की बस्तियां बतला रही हैं,
मौत की काली घटायें आज भी मंडरा रही हैं।
लाल है सिंदूर से बढ़ कर सुनो कश्मीर घाटी–
रोटियों पर वार करती बोटियाँ बल खा रही हैं॥
आप मानव की आज़ादी का नया हल भी सहेजो।
आप के बस का न हो तो, देश किन्नरों को दे दो॥

देख लो आतंकवादी सर हमारे काटते हैं,
खून अपनों का बहाकर, रोज़ ही वह चाटते हैं।
आप बोलो, आपने भी, कब कहाँ अंकुश लगाया–
उग्रवादी रोज़ खाई, लाशों से अब पाटते हैं॥
तोड़ दो वह हाथ, अपनों पर अगर फिर से उठे जो।
आप के बस का न हो तो, देश किन्नरों को दे दो॥

दे यदि किन्नरों को सत्ता, देश यह फूले फलेगा,
आतंकवादी ढूंढने से, फिर न भारत में मिलेगा।
टेकते घुटने रहेंगे, देश के दुश्मन ही सारे–
तालियों की ताल पर जब, राज किन्नरों का चलेगा॥
भारत में घुसपैठ ‘रत्नम’ किसकी फिर हिम्मत करे जो।
आप के बस का न हो तो, देश किन्नरों को दे दो॥

14. अनकहे गीत

प्रेम के गीत अब तक हैं गाये गये।
दर्द के गीत तो, अनकहे रह गये।।

द्रोपदी पिफर सभा में, झुकाये नजर,
पाण्डवों का कहां खो गया वो असर।
पिफर शिशुपाल भी दे रहा गालियां,
कृष्ण भी देख कर देखते रह गये।
दर्द के गीत तो, अनकहे रह गये।।

विष जो तुमने दिया, उसको मैंने पिया,
पीर की डोर से, सारा जीवन जिया।
पत्थरों का नगर, देखा रोता हुआ,
मुझसे जो भी मिले, चीखते रह गये।
दर्द के गीत तो, अनकहे रह गये।।

कल हरीशचन्द बिका, आज मैं बिक रहा,
दुख के तन्दूर में, मैं खड़ा सिक रहा।
आज मुझको सभी सरपिफरे ही मिले,
मन्द–मन्द सी हवा में सभी बह गये।
दर्द के गीत तो अनकहे रह गये।।

प्यार बिकने लगा, लोग गाने लगे,
सब पराये मिले, आके जाने लगे।
एक ‘रत्नम्’ मिला, दर्द के द्वार पर,
रेत के घर थे, लहरों से सब ढह गये।
दर्द के गीत तो अनकहे रह गये।।

15. महाकाली कालिके

कपाल कङ कारिणी, खड़ग खंड धारिणी।
महाकाली कालिके, नमामि भक्त तारणी।।

मधु-कैटप संहार के, शुम्भ-निशुम्भ मार के।
दुष्ट दुर्गम सीस को, धड़ से ही ऊतार के।।
कष्ट सब निवारिणी, शस्ञ हस्त धारिणी।
महाकाली कालिके, नमामि भक्त तारणी।।

रक्तबीज को मिटाया, रक्त उसका पी गई।।
नेञ हो गये विशाल, जिव्हा लाल हो गई।।
शिव पे चरण धारिणी, काली बन विहारिणी।।
महाकाली कालिके, नमामि भक्त तारणी।।

चण्ड-मुण्ड को चटाक, रुप धरा चण्डिका।।
अपने भक्त को दुलार, नाम लिया अम्बिका।।
मुण्ड-माल कारिणी, शंख को फुकारिणी।।
महाकाली कालिके, नमामि भक्त तारणी।।

सिंह पे सवार होके, नेञ जब हिला दिया।।
इस धरा के दानवों को, धूल में मिला दिया।।
सदा ही शुभ विचारिणी, सकल विघ्न टारिणी।।
महाकाली कालिके, नमामि भक्त तारणी।।

सुपारी, पान, लौंग, भेंट, नारियल के संग में।।
श्वेत, रक्त, श्याम वर्ण, भगवती के अंग में।।
रत्नम सदा निहारिणी, अरि का रक्त चारिणी।।
महाकाली कालिके, नमामि भक्त तारणी।।

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