हिन्दी कविता गोपाल सिंह नेपाली
Hindi Poetry Gopal Singh Nepali

1. हिंदी है भारत की बोली

दो वर्तमान का सत्‍य सरल,
सुंदर भविष्‍य के सपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

यह दुखड़ों का जंजाल नहीं,
लाखों मुखड़ों की भाषा है
थी अमर शहीदों की आशा,
अब जिंदों की अभिलाषा है
मेवा है इसकी सेवा में,
नयनों को कभी न झंपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

क्‍यों काट रहे पर पंछी के,
पहुंची न अभी यह गांवों तक
क्‍यों रखते हो सीमित इसको
तुम सदियों से प्रस्‍तावों तक
औरों की भिक्षा से पहले,
तुम इसे सहारे अपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

श्रृंगार न होगा भाषण से
सत्‍कार न होगा शासन से
यह सरस्‍वती है जनता की
पूजो, उतरो सिंहासन से
इसे शांति में खिलने दो
संघर्ष-काल में तपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

जो युग-युग में रह गए अड़े
मत उन्‍हीं अक्षरों को काटो
यह जंगली झाड़ न, भाषा है,
मत हाथ पांव इसके छांटो
अपनी झोली से कुछ न लुटे
औरों का इसमें खपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो आपने आप पनपने दो

इसमें मस्‍ती पंजाबी की,
गुजराती की है कथा मधुर
रसधार देववाणी की है,
मंजुल बंगला की व्‍यथा मधुर
साहित्‍य फलेगा फूलेगा
पहले पीड़ा से कंपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो आपने आप पनपने दो

नादान नहीं थे हरिश्‍चंद्र,
मतिराम नहीं थे बुद्ध‍िहीन
जो कलम चला कर हिंदी में
रचना करते थे नित नवीन
इस भाषा में हर ‘मीरा’ को
मोहन की माल जपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

प्रतिभा हो तो कुछ सृष्‍ट‍ि करो
सदियों की बनी बिगाड़ो मत
कवि सूर बिहारी तुलसी का
यह बिरुवा नरम उखाड़ो मत
भंडार भरो, जनमन की
हर हलचल पुस्‍तक में छपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

मृदु भावों से हो हृदय भरा
तो गीत कलम से फूटेगा
जिसका घर सूना-सूना हो
वह अक्षर पर ही टूटेगा
अधिकार न छीनो मानस का
वाणी के लिए कलपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

बढ़ने दो इसे सदा आगे
हिंदी जनमत की गंगा है
यह माध्‍यम उस स्‍वाधीन देश का
जिसकी ध्‍वजा तिरंगा है
हों कान पवित्र इसी सुर में
इसमें ही हृदय तड़पने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो

2. इस रिमझिम में चाँद हँसा है

1.
खिड़की खोल जगत को देखो,
बाहर भीतर घनावरण है
शीतल है वाताश, द्रवित है
दिशा, छटा यह निरावरण है
मेघ यान चल रहे झूमकर
शैल-शिखर पर प्रथम चरण है!
बूँद-बूँद बन छहर रहा यह
जीवन का जो जन्म-मरण है!
जो सागर के अतल-वितल में
गर्जन-तर्जन है, हलचल है;
वही ज्वार है उठा यहाँ पर
शिखर-शिखर में चहल-पहल है!

2.
फुहियों में पत्तियाँ नहाई
आज पाँव तक भीगे तरुवर,
उछल शिखर से शिखर पवन भी
झूल रहा तरु की बाँहों पर;
निद्रा भंग, दामिनी चौंकी,
झलक उठे अभिराम सरोवर,
घर के, वन के, अगल-बगल से
छलक पड़े जल स्रोत मचलकर!
हेर रहे छवि श्यामल घन ये
पावस के दिन सुधा पिलाकर
जगा रहा है जड़ को चेतन
जग-जीवन में बुला-जिलाकर!

3.
जागो मेरे प्राण, विश्व की
छटा निहारो भोर हुई है
नभ के नीचे मोती चुन-चुन
नन्हीं दूब किशोर हुई है
प्रेम-नेम मतवाली सरिता
क्रम की और कठोर हुई है,
फूट-फूट बूँदों से श्यामा
रिमझिम चारों ओर हुई है.
निर्झर, झर-झर मंगल गाओ,
आज गर्जना घोर हुई है;
छवि की उमड़-घुमड़ में कवि को
तृषित मानसी मोर हुई है.

4.
दूर-दूर से आते हैं घन
लिपट शैल में छा जाते हैं
मानव की ध्वनि सुनकर पल में
गली-गली में मंडराते हैं
जग में मधुर पुरातन परिचय
श्याम घरों में घुस आते हैं,
है ऐसी हीं कथा मनोहर
उन्हें देख गिरिवर गाते हैं!
ममता का यह भीगा अंचल
हम जग में फ़िर कब पाते हैं
अश्रु छोड़ मानस को समझा
इसीलिए विरही गाते हैं!

5.
सुख-दुःख के मधु-कटु अनुभव को
उठो ह्रदय, फुहियों से धो लो,
तुम्हें बुलाने आया सावन,
चलो-चलो अब बंधन खोलो
पवन चला, पथ में हैं नदियाँ,
उछल साथ में तुम भी हो लो
प्रेम-पर्व में जगा पपीहा,
तुम कल्याणी वाणी बोलो!
आज दिवस कलरव बन आया,
केलि बनी यह खड़ी निशा है;
हेर-हेर अनुपम बूँदों को
जगी झड़ी में दिशा-दिशा है!

6.
बूँद-बूँद बन उतर रही है
यह मेरी कल्पना मनोहर,
घटा नहीं प्रेमी मानस में
प्रेम बस रहा उमड़-घुमड़ कर
भ्रान्ति-भांति यह नहीं दामिनी,
याद हुई बातें अवसर पर,
तर्जन नहीं आज गूंजा है
जड़-जग का गूंजा अभ्यंतर!
इतने ऊँचे शैल-शिखर पर
कब से मूसलाधार झड़ी है;
सूखे वसन, हिया भींगा है
इसकी चिंता हमें पड़ी है!

7.
बोल सरोवर इस पावस में,
आज तुम्हारा कवि क्या गाए,
कह दे श्रृंग सरस रूचि अपनी,
निर्झर यह क्या तान सुनाए;
बाँह उठाकर मिलो शाल, ये
दूर देश से झोंके आए
रही झड़ी की बात कठिन यह,
कौन हठीली को समझाए!
अजब शोख यह बूँदा-बाँदी,
पत्तों में घनश्याम बसा है
झाँके इन बूँदों से तारे,
इस रिमझिम में चाँद हँसा है!

8.
जिय कहता है मचल-मचलकर
अपना बेड़ा पार करेंगे
हिय कहता है, जागो लोचन,
पत्थर को भी प्यार करेंगे,
समझ लिया संकेत ‘धनुष’ का,
ऐसा जग तैयार करेंगे,
जीवन सकल बनाकर पावस,
पावस में रसधार करेंगे.
यही कठौती गंगा होगी,
सदा सुधा-संचार करेंगे.
गर्जन-तर्जन की स्मृति में सब
यदा-कदा संहार करेंगे.

3. मेरा देश बड़ा गर्वीला

मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली
नीले नभ में बादल काले, हरियाली में सरसों पीली

यमुना-तीर, घाट गंगा के, तीर्थ-तीर्थ में बाट छाँव की
सदियों से चल रहे अनूठे, ठाठ गाँव के, हाट गाँव की

शहरों को गोदी में लेकर, चली गाँव की डगर नुकीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

खडी-खड़ी फुलवारी फूले, हार पिरोए बैठ गुजरिया
बरसाए जलधार बदरिया, भीगे जग की हरी चदरिया

तृण पर शबनम, तरु पर जुगनू, नीड़ रचाए तीली-तीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

घास-फूस की खड़ी झोपड़ी, लाज सम्भाले जीवन-भर की
कुटिया में मिट्टी के दीपक, मंदिर में प्रतिमा पत्थर की

जहाँ वास कँकड़ में हरि का, वहाँ नहीं चाँदी चमकीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

जो कमला के चरण पखारे, होता है वह कमल-कीच में
तृण, तंदुल, ताम्बूल, ताम्र, तिल के दीपक बीच-बीच में

सीधी-सदी पूजा अपनी, भक्ति लजीली मूर्ति सजीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

बरस-बरस पर आती होली, रंगों का त्यौहार अनोखा
चुनरी इधर-उधर पिचकारी, गाल-भाल पर कुमकुम फूटा

लाल-लाल बन जाए काले, गोरी सूरत पीली-नीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

दिवाली -- दीपों का मेला, झिलमिल महल-कुटी-गलियारे
भारत-भर में उतने दीपक, जितने जलते नभ में तारे

सारी रात पटाखे छोडे, नटखट बालक उम्र हठीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

खंडहर में इतिहास सुरक्षित, नगर-नगर में नई रौशनी
आए-गए हुए परदेशी, यहाँ अभी भी वही चाँदनी

अपना बना हजम कर लेती, चाल यहाँ की ढीली-ढीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

मन में राम, बाल में गीता, घर-घर आदर रामायण का
किसी वंश का कोई मानव, अंश साझते नारायण का

ऐसे हैं बहरत के वासी, गात गठीला, बाट चुटीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

आन कठिन भारत की लेकिन, नर-नारी का सरल देश है
देश और भी हैं दुनिया में, पर गाँधी का यही देश है

जहाँ राम की जय जग बोला, बजी श्याम की वेणु सुरीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

लो गंगा-यमुना-सरस्वती या लो मंदिर-मस्जिद-गिरजा
ब्रह्मा-विष्णु-महेश भजो या जीवन-मरण-मोक्ष की चर्चा

सबका यहीं त्रिवेणी-संगम, ज्ञान गहनतम, कला रसीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

4. वसंत गीत

ओ मृगनैनी, ओ पिक बैनी,
तेरे सामने बाँसुरिया झूठी है!
रग-रग में इतना रंग भरा,
कि रंगीन चुनरिया झूठी है!

मुख भी तेरा इतना गोरा,
बिना चाँद का है पूनम!
है दरस-परस इतना शीतल,
शरीर नहीं है शबनम!
अलकें-पलकें इतनी काली,
घनश्याम बदरिया झूठी है!

रग-रग में इतना रंग भरा,
कि रंगीन चुनरिया झूठी ह!
क्या होड़ करें चन्दा तेरी,
काली सूरत धब्बे वाली!
कहने को जग को भला-बुरा,
तू हँसती और लजाती!
मौसम सच्चा तू सच्ची है,
यह सकल बदरिया झूठी है!

रग-रग में इतना रंग भरा,
कि रंगीन चुनरिया झूठी है!

5. बाबुल तुम बगिया के तरुवर

बाबुल तुम बगिया के तरुवर, हम तरुवर की चिड़ियाँ रे
दाना चुगते उड़ जाएँ हम, पिया मिलन की घड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे
बाबुल तुम बगिया के तरुवर …….

आँखों से आँसू निकले तो पीछे तके नहीं मुड़के
घर की कन्या बन का पंछी, फिरें न डाली से उड़के
बाजी हारी हुई त्रिया की
जनम -जनम सौगात पिया की
बाबुल तुम गूंगे नैना, हम आँसू की फुलझड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ ज्यों मोती की लडियाँ रे

हमको सुध न जनम के पहले, अपनी कहाँ अटारी थी
आँख खुली तो नभ के नीचे, हम थे गोद तुम्हारी थी
ऐसा था वह रैन -बसेरा
जहाँ सांझ भी लगे सवेरा
बाबुल तुम गिरिराज हिमालय, हम झरनों की कड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे

छितराए नौ लाख सितारे, तेरी नभ की छाया में
मंदिर -मूरत, तीरथ देखे, हमने तेरी काया में
दुःख में भी हमने सुख देखा
तुमने बस कन्या मुख देखा
बाबुल तुम कुलवंश कमल हो, हम कोमल पंखुड़ियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे

बचपन के भोलेपन पर जब, छिटके रंग जवानी के
प्यास प्रीति की जागी तो हम, मीन बने बिन पानी के
जनम -जनम के प्यासे नैना
चाहे नहीं कुंवारे रहना
बाबुल ढूंढ फिरो तुम हमको, हम ढूंढें बावरिया रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे

चढ़ती उमर बढ़ी तो कुल -मर्यादा से जा टकराई
पगड़ी गिरने के दर से, दुनिया जा डोली ले आई
मन रोया, गूंजी शहनाई
नयन बहे , चुनरी पहनाई
पहनाई चुनरी सुहाग की, या डाली हथकड़ियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे

मंत्र पढ़े सौ सदी पुराने, रीत निभाई प्रीत नहीं
तन का सौदा कर के भी तो, पाया मन का मीत नहीं
गात फूल सा, कांटे पग में
जग के लिए जिए हम जग में
बाबुल तुम पगड़ी समाज के, हम पथ की कंकरियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे

मांग रची आंसू के ऊपर, घूंघट गीली आँखों पर
ब्याह नाम से यह लीला ज़ाहिर करवाई लाखों पर

नेह लगा तो नैहर छूता , पिया मिले बिछुड़ी सखियाँ
प्यार बताकर पीर मिली तो नीर बनीं फूटी अंखियाँ
हुई चलाकर चाल पुरानी
नयी जवानी पानी पानी
चली मनाने चिर वसंत में, ज्यों सावन की झाड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे

देखा जो ससुराल पहुंचकर, तो दुनिया ही न्यारी थी
फूलों सा था देश हरा, पर कांटो की फुलवारी थी
कहने को सारे अपने थे
पर दिन दुपहर के सपने थे
मिली नाम पर कोमलता के, केवल नरम कांकरिया रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे

वेद-शास्त्र थे लिखे पुरुष के, मुश्किल था बचकर जाना
हारा दांव बचा लेने को, पति को परमेश्वर जाना
दुल्हन बनकर दिया जलाया
दासी बन घर बार चलाया
माँ बनकर ममता बांटी तो, महल बनी झोंपड़िया रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे

मन की सेज सुला प्रियतम को, दीप नयन का मंद किया
छुड़ा जगत से अपने को, सिंदूर बिंदु में बंद किया
जंजीरों में बाँधा तन को
त्याग -राग से साधा मन को
पंछी के उड़ जाने पर ही, खोली नयन किवाड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे

जनम लिया तो जले पिता -माँ, यौवन खिला ननद -भाभी
ब्याह रचा तो जला मोहल्ला, पुत्र हुआ तो बंध्या भी
जले ह्रदय के अन्दर नारी
उस पर बाहर दुनिया सारी
मर जाने पर भी मरघट में, जल - जल उठी लकड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे

जनम -जनम जग के नखरे पर, सज -धजकर जाएँ वारी
फिर भी समझे गए रात -दिन हम ताड़न के अधिकारी
पहले गए पिया जो हमसे अधम बने हम यहाँ अधम से
पहले ही हम चल बसें, तो फिर जग बाटें रेवड़ियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे

6. दीपक जलता रहा रातभर

तन का दिया, प्राण की बाती,
दीपक जलता रहा रात-भर ।

दु:ख की घनी बनी अँधियारी,
सुख के टिमटिम दूर सितारे,
उठती रही पीर की बदली,
मन के पंछी उड़-उड़ हारे ।

बची रही प्रिय की आँखों से,
मेरी कुटिया एक किनारे,
मिलता रहा स्नेह रस थोडा,
दीपक जलता रहा रात-भर ।

दुनिया देखी भी अनदेखी,
नगर न जाना, डगर न जानी;
रंग देखा, रूप न देखा,
केवल बोली ही पहचानी,

कोई भी तो साथ नहीं था,
साथी था ऑंखों का पानी,
सूनी डगर सितारे टिमटिम,
पंथी चलता रहा रात-भर ।

अगणित तारों के प्रकाश में,
मैं अपने पथ पर चलता था,
मैंने देखा, गगन-गली में,
चाँद-सितारों को छलता था ।

आँधी में, तूफ़ानों में भी,
प्राण-दीप मेरा जलता था,
कोई छली खेल में मेरी,
दिशा बदलता रहा रात-भर ।

7. हिमालय और हम

गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।

(1)
इतनी ऊँची इसकी चोटी कि सकल धरती का ताज यही ।
पर्वत-पहाड़ से भरी धरा पर केवल पर्वतराज यही ।।
अंबर में सिर, पाताल चरण
मन इसका गंगा का बचपन
तन वरण-वरण मुख निरावरण
इसकी छाया में जो भी है, वह मस्‍तक नहीं झुकाता है ।
ग‍िरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।

(2)
अरूणोदय की पहली लाली इसको ही चूम निखर जाती ।
फिर संध्‍या की अंतिम लाली इस पर ही झूम बिखर जाती ।।
इन शिखरों की माया ऐसी
जैसे प्रभात, संध्‍या वैसी
अमरों को फिर चिंता कैसी?
इस धरती का हर लाल खुशी से उदय-अस्‍त अपनाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।

(3)
हर संध्‍या को इसकी छाया सागर-सी लंबी होती है ।
हर सुबह वही फिर गंगा की चादर-सी लंबी होती है ।।
इसकी छाया में रंग गहरा
है देश हरा, प्रदेश हरा
हर मौसम है, संदेश भरा
इसका पद-तल छूने वाला वेदों की गाथा गाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।

(4)
जैसा यह अटल, अडिग-अविचल, वैसे ही हैं भारतवासी ।
है अमर हिमालय धरती पर, तो भारतवासी अविनाशी ।।
कोई क्‍या हमको ललकारे
हम कभी न हिंसा से हारे
दु:ख देकर हमको क्‍या मारे
गंगा का जल जो भी पी ले, वह दु:ख में भी मुसकाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।

(5)
टकराते हैं इससे बादल, तो खुद पानी हो जाते हैं ।
तूफ़ान चले आते हैं, तो ठोकर खाकर सो जाते हैं ।
जब-जब जनता को विपदा दी
तब-तब निकले लाखों गाँधी
तलवारों-सी टूटी आँधी
इसकी छाया में तूफ़ान, चिरागों से शरमाता है।
गिरिराज, हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।

8. युगांतर

अरे युगांतर, आ जल्दी अब खोल, खोल मेरा बंधन
बंधा हुआ इन जंजीरों से तड़प रहा कब से जीवन
देख, कटी पाँखें कैंची से उड़ सकता न जरा भी मन
भरा कान, पाँव है लंगड़ा, अँधा बना हुआ लोचन
ले जा यह तन ऐसा जीवन, बदले में दे जा यौवन
देजा उस युग का मेरा मन, बदले में लेजा सब धन
आजा ला दे कण-कण में अब फ़िर से ऐसा परिवर्तन
मरता जहाँ आज यह जीवन वहाँ करे यौवन नर्तन

9. स्‍वतंत्रता का दीपक

घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है ।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्‍वतंत्रतादिया,
रुक रही न नाव हो, जोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्‍वदेश का दिया हुआ प्राण के समान है!

यह अतीत कल्‍पना, यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भवना, यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो, युद्ध, संधि, क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं!
देश पर, समाज पर, ज्‍योति का वितान है!

तीन चार फूल है, आस पास धूल है,
बाँस है, फूल है, घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर से, फूँक दे, झकोर दे,
कब्र पर, मजार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह किसी शहीद का पुण्‍य प्राणदान है!

झूम झूम बदलियाँ, चुम चुम बिजलियाँ
आँधियाँ उठा रही, हलचले मचा रही!
लड़ रहा स्‍वदेश हो, शांति का न लेश हो
क्षुद्र जीत हार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह स्‍वतंत्र भावना का स्‍वतंत्र गान है!

10. तुम आग पर चलो

तुम आग पर चलो जवान, आग पर चलो
तुम आग पर चलो

1.
अब वह घड़ी गई कि थी भरी वसुंधरा
वह घड़ी गई कि शांति-गोद थी धरा
जिस ओर देखते न दीखता हरा-भरा
चंहु ओर आसमान में घना धुआँ उठा
तुम आग पर चलो जवान, आग पर चलो
तुम आग पर चलो

2.
लाली न फूल की, वसन्त का गुलाल है
यह सूर्य है नहीं प्रचंड अग्नि ज्वाल है
यह आग से उठी मलिन मेघ-माल है
लो, जल रही जहाँ में नई जवानियाँ
तुम ज्वाल में जलो किशोर, ज्वाल में जलो
तुम आग पर चलो

3.
अब तो समाज की नवीन धरना बनी
है लुट रहे गरीब और लूटते धनी
संपति हो समाज के न खून से सनी
यह आँच लग रही मनुष्य के शरीर को
तुम आँच में ढलो नवीन, आँच में ढलो
तुम आँच में ढलो

4.
अम्बर एक ओर एक ओर झोलियाँ
संसार एक ओर एक ओर टोलियाँ
मनुहार एक ओर एक ओर गोलियाँ
इस आज के विभेद पर जहीन रो रहा
तुम अश्रु में पलो कुमार, अश्रु में पलो
तुम अश्रु में पलो

5.
तुम हो गुलाब तो जहान को सुवास दो
तुम हो प्रदीप अंधकार में प्रकाश दो
कुछ दे नहीं सको, सहानुभूति-आस दो
निज होंठ की हँसी लुटा, दुखी मनुष्य का
तुम अश्रु पोंछ लो उदार, अश्रु पोंछ लो
तुम अश्रु पोंछ लो

6.
मुस्कान ही नहीं, कपोल अश्रु भी हँसे
ये हँस रही अटारियाँ, कुटीर भी हँसे
क्यों भारतीय दृष्टि में न गाँव ही बसे
जलते प्रदीप एक साथ एक पाँति से
तुम भी हिलो-मिलो मनुष्य, तुम हिलो-मिलो
तुम भी हिलो-मिलो

11. वो हैं बंद लिफाफा पर हम तो खुली किताब हैं मौला

हमें कहीं खोया रहने दो उन्हें कहीं भी खो जाने दो
हम बंदे ही ठीक हैं, या रब उन्हें खुदा हो जाने दो

तेरी इबादत कर्ज है हम पर धीरे धीरे चुक जायेगी
साँसों का ऐतबार भी क्या ना जाने कब रुक जायेगी
अभी सफर पे निकले हैं बाकी सफर अभी जारी है
सफर खत्म होते ही तुझसे मिलने की भी तैयारी है
थोड़ी मोहलत दे दो मालिक फ़र्ज़ अता हो जाने दो

वो हैं बंद लिफाफा लेकिन हम तो खुली किताब हैं मौला
उनको पढ़ पाना तो जैसे अपने लिए अजाब है मौला
हम पानी हैं और हवा वो, हम धरती वो आसमान हैं
हम बस कश्ती हैं और हमारी कश्ती के वो बादवान हैं
दुआ कुबूल करो मालिक बस हमराह हवा हो जाने दो

हमने दस्तरखान सजाया फिर दावत पर उन्हें बुलाया
मखमल के कालीन बिछाये फूलों का अहसान उठाया
बोझिल आँखों ने जब पूछा पलकें साफ़ जवाब दे गईं
रात कट गई इन्तजार में औ' सुबह टूटे ख्वाब दे गई
कैसे हम दिल को समझाएं कि दर्द दवा हो जाने दो

ये वो शय है जो सदियों से चुनी गई हैं दीवारों में
क्यू ढूंढ रहे हैं आप मोहब्बत नफ़रत के बाजारों में
मयखाने में खड़े खड़े ही सोच रहे हम भी पीने की
शायद फिर तमीज आ जाए हमको तन्हा जीने की
खतावार हम कबसे हैं फिर एक खता हो जाने दो

हम बंदे ही ठीक हैं, या रब उन्हें खुदा हो जाने दो

12. सुनो

सुनो !
तुम ने कभी साहिल पे बिखरी रेत देखी है?
समंदर साथ बहता है
मगर उसके मुक़द्दर में
हमेशा प्यास रहता है !!

सुनो !
तुम ने कभी सेहरा में जलते पेड़ देखे हैं?
सभी को छाँव देता है
मगर उस को
सिले में धूप मिलती है !!

सुनो !
तुम ने कभी शाखाओं से लगे फूल देखें हैं?
खुशबु बाँटते हैं हवाओं के संग
मगर हवाएँ उन्हें भी
एक दिन बिखेर देती हैं !!

सुनो !
तुम ने कभी मेले में बजते ढोल देखें हैं?
बहुत ही शोर करते हैं
मगर अंदर से देखो तो
पुरे खाली होते हैं !!

यही अपना फ़साना है !
यही अपनी पहेली है !!

13. लघु सरिता

ह लघु सरिता का बहता जल,
कितना शीतल कितना निर्मल!
हिमगिरि के हिम से निकल निकल,
यह विमल दूध-सा हिम का जल!
रखता है तन में इतना बल,
यह लघु सरिता का बहता जल!

निर्मल जल की यह तेज धार,
करके कितनी शृंखला पार!
बहती रहती है लगातार
गिरती उठती है बार-बार!
करता है जंगल में मंगल!
यह लघु सरिता का बहता जल!

कितना कोमल कितना वत्सल,
रे जननी का यह अंतस्तल!
जिसका यह शीतल करुणा जल,
बहता रहता युग-युग अविरल!
गंगा-यमुना, सरयू निर्मल!
यह लघु सरिता का बहता जल!

14. शासन चलता तलवार से

ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
चरखा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से ।।

यह राम-कृष्ण की जन्मभूमि, पावन धरती सीताओं की
फिर कमी रही कब भारत में सभ्यता, शांति, सदभावों की
पर नए पड़ोसी कुछ ऐसे, गोली चलती उस पार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

तुम उड़ा कबूतर अंबर में संदेश शांति का देते हो
चिट्ठी लिखकर रह जाते हो, जब कुछ गड़बड़ सुन लेते हो
वक्तव्य लिखो कि विरोध करो, यह भी काग़ज़ वह भी काग़ज़
कब नाव राष्ट्र की पार लगी यों काग़ज़ की पतवार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

तुम चावल भिजवा देते हो, जब प्यार पुराना दर्शाकर
वह प्राप्ति सूचना देते हैं, सीमा पर गोली-वर्षा कर
चुप रहने को तो हम इतना चुप रहें कि मरघट शर्माए
बंदूकों से छूटी गोली कैसे चूमोगे प्यार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

मालूम हमें है तेज़ी से निर्माण हो रहा भारत का
चहुँ ओर अहिंसा के कारण गुणगान हो रहा भारत का
पर यह भी सच है, आज़ादी है, तो ही चल रही अहिंसा है
वरना अपना घर दीखेगा फिर कहाँ क़ुतुब मीनार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

स्वातंत्र्य न निर्धन की पत्नी कि पड़ोसी जब चाहें छेड़ें
यह वह पागलपन है जिसमें शेरों से लड़ जाती हैं भेड़ें
पर यहाँ ठीक इसके उल्टे, हैं भेड़ छेड़ने वाले ही
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

नहरें फिर भी खुद सकती हैं, बन सकती है योजना नई
जीवित है तो फिर कर लेंगे कल्पना नई, कामना नई
घर की है बात, यहाँ 'बोतल' पीछे भी पकड़ी जाएगी
पहले चलकर के सीमा पर सर झुकवा लो संसार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

फिर कहीं ग़ुलामी आई तो, क्या कर लेंगे हम निर्भय भी
स्वातंत्र्य सूर्य के साथ अस्त हो जाएगा सर्वोदय भी
इसलिए मोल आज़ादी का नित सावधान रहने में है
लड़ने का साहस कौन करे, फिर मरने को तैयार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

तैयारी को भी तो थोड़ा चाहिए समय, साधन, सुविधा
इसलिए जुटाओ अस्त्र-शस्त्र, छोड़ो ढुलमुल मन की दुविधा
जब इतना बड़ा विमान तीस नखरे करता तब उड़ता है
फिर कैसे तीस करोड़ समर को चल देंगे बाज़ार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

हम लड़ें नहीं प्रण तो ठानें, रण-रास रचाना तो सीखें
होना स्वतंत्र हम जान गए, स्वातंत्र्य बचाना तो सीखें
वह माने सिर्फ़ नमस्ते से, जो हँसे, मिले, मृदु बात करे
बंदूक चलाने वाला माने बमबारी की मार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।।

सिद्धांत, धर्म कुछ और चीज़, आज़ादी है कुछ और चीज़
सब कुछ है तरु-डाली-पत्ते, आज़ादी है बुनियाद चीज़
इसलिए वेद, गीता, कुर‍आन, दुनिया ने लिखे स्याही से
लेकिन लिक्खा आज़ादी का इतिहास रुधिर की धार से
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
चर्खा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से ।।

15. हिमालय ने पुकारा

शंकर की पुरी चीन ने सेना को उतारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा

हो जाए पराधीन नहीं गंगा की धारा
गंगा के किनारों को शिवालय ने पुकारा

हम भाई समझते जिसे दुनिया में उलझ के
वह घेर रहा आज हमें बैरी समझ के
चोरी भी करे और करे बात गरज के

बर्फों मे पिघलने को चला लाल सितारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा
(यह रचना अधूरी है)*

16. रुबाई

अफ़सोस नहीं इसका हमको, जीवन में हम कुछ कर न सके,
झोलियाँ किसी की भर न सके, सन्ताप किसी का हर न सके,
अपने प्रति सच्चा रहने का, जीवन भर हमने काम किया,
देखा-देखी हम जी न सके, देखा-देखी हम मर न सके ।

17. मैं विद्युत् में तुम्हें निहारूँ

मैं विद्युत् में तुम्हें निहारूँ
नील गगन में पंख पसारूँ;
दुःख है, तुमसे बिछड़ गया हूँ
किन्तु तुम्हारी सुधि न बिसारूँ!

उलझन में दुःख में वियोग में
अब तुम याद बहुत आती हो;
घनी घटा में तुमको खोजूँ
मैं विद्युत् में तुम्हें निहारूँ;

जब से बिछुड़े हैं हम दोनों
मति-गति मेरी बदल गई है;
पावस में हिम में बसंत में
हँसते-रोते तुम्हें पुकारूँ!

तब तक मन मंदिर में मेरे
होती रहे तुम्हारी पग-ध्वनि;
तब तक उत्साहित हूँ, बाजी
इस जीवन की कभी न हारूँ!

तुम हो दूर दूर हूँ मैं भी
जीने की यह रीती निकालें,
तुम प्रेमी हो-प्रेम पसारो
मैं प्रेमी हूँ-जीवन वारूँ!!

18. आ रहे तुम बनकर मधुमास

आ रहे तुम बन कर मधुमास
और मैं ऋतु का पहला फूल

घने तुम काले-काले मेघ उठे
हो आज बाँच कर दुन्द
और मैं उठा पवन से सिहर
थिरकता धारों पर जल बुन्द
बने तुम गगन गगन मुख चन्द्र
चंद्र की किरण रेशमी डोर
और मैं तुम्हें देखने बना मुग्ध
दो नयन-नयन की कोर
सबल तुम आगे बढ़ते चरण
और मैं पीछे पड़ती धूल

तरुण तुम अरुण किरण का वाण
कठिन मैं अन्धकार का मर्म
मधुर तुम मधुपों की गुंजार और
मैं खिली कली की शर्म
दूर की तुम धीमी आवाज़
गूँजती जो जग के इस पार
रात की मैं हूँ टूटी नींद
नींद का बिखर गया संसार
चपल तुम बढ़ती आती लहर
और मैं डूब गया उपकूल

सुभग तुम झिलमिल-झिलमिल प्रातः
प्रातः का मन्द मधुर कलहास
गहन मैं थकी झुटपुटी साँझ
उतरती तरु कुंजों के पास
सघन तुम हरा-भरा वन कुञ्ज
कुञ्ज का मैं गायक खल बाल
तुम्हारा जीवन मेरा गान
और मेरा जीवन तरु डाल
पुरुष तुम फैला देते बाँह
प्रकृति मैं जाती उन पर झूल

प्रवल तुम तेज पवन की फूँक
फूँक से उठा हुआ तूफ़ान
और मैं थरथर कम्पित दीप
दीप से झाँक रहा निर्वाण
कुशल तुम कवि कुल कण्ठाभरण
और मैं एक तुम्हारा छन्द
जन्म तुम बनने का शृंगार
मरण मैं मिटने का आनन्द
सरल तुम प्रथम बार का ज्ञान
और मैं बार-बार की भूल

19. नई उमरिया प्यासी है

घनश्याम कहाँ जाकर बरसे, हर घाट गगरिया प्यासी है
उस ओर ग्राम इस ओर नगर, चंहु ओर नजरिया प्यासी है

रसभरी तुम्हारी वे बुंदियाँ, कुछ यहाँ गिरीं, कुछ वहाँ गिरीं
दिल खोल नहाए महल-महल, कुटिया क्या जाने, कहाँ गिरीं
इस मस्त झड़ी में घासों की, कमजोर अटरिया प्यासी है
घनश्याम कहाँ जाकर बरसे, हर घाट गगरिया प्यासी है

जंजीर कभी तड़का-तड़का, तकदीर जगाई थी हमने
हर बार बदलते मौसम पर, उम्मीद लगाई थी हमने
जंजीर कटी, तकदीर खुली, पर अभी नगरिया प्यासी है
घनश्याम कहाँ जाकर बरसे, हर घाट गगरिया प्यासी है

धरती प्यासी, परती प्यासी, प्यासी है आस लगी खेती
जब ताल तलैया भी सूखी, क्या पाए प्यास लगी रेती
बागों की चर्चा कौन करे, अब यहाँ डगरिया प्यासी है
घनश्याम कहाँ जाकर बरसे, हर घाट गगरिया प्यासी है

मुस्लिम के होंठ कहीं प्यासे, हिंदू का कंठ कहीं प्यासा
मन्दिर-मस्ज़िद-गुरूद्वारे में, बतला दो कौन नहीं प्यासा
चल रही चुराई हुई हँसी, पर सकल बजरिया प्यासी है
घनश्याम कहाँ जाकर बरसे, हर घाट गगरिया प्यासी है

बोलो तो श्याम घटाओं ने, अबकी कैसा चौमास रचा
पानी कहने को थोड़ा सा, गंगा-जमुना के पास बचा
इस पार तरसती है गैया, उस पार गुजरिया प्यासी है
घनश्याम कहाँ जाकर बरसे, हर घाट गगरिया प्यासी है

जो अभी पधारे हैं उनका, सुनहरा सबेरा प्यासा है
जो कल जाने वाले उनका भी रैन-बसेरा प्यासा है
है भरी जवानी जिन-जिनकी, उनकी दुपहरिया प्यासी है
घनश्याम कहाँ जाकर बरसे, हर घाट गगरिया प्यासी है

कहने को बादल बरस रहे, सदियों से प्यासे तरस रहे
ऐसे बेदर्द ज़माने में, क्या मधुर रहे, क्या सरस रहे
कैसे दिन ये पानी में भी, हर एक मछरिया प्यासी है
घनश्याम कहाँ जाकर बरसे, हर घाट गगरिया प्यासी है

यह पीर समझने को तुम भी, घनश्याम कभी प्यासे तरसो
या तो ना बरसो, बरसो तो, चालीस करोड़ पर बरसो
क्या मौसम है जल छलक रहा, पर नई उमरिया प्यासी है
घनश्याम कहाँ जाकर बरसे, हर घाट गगरिया प्यासी है

20. भाई-बहन

तू चिंगारी बनकर उड़ री, जाग-जाग मैं ज्वाल बनूँ,
तू बन जा हहराती गँगा, मैं झेलम बेहाल बनूँ,
आज बसन्ती चोला तेरा, मैं भी सज लूँ लाल बनूँ,
तू भगिनी बन क्रान्ति कराली, मैं भाई विकराल बनूँ,
यहाँ न कोई राधारानी, वृन्दावन, बंशीवाला,
...तू आँगन की ज्योति बहन री, मैं घर का पहरे वाला ।

बहन प्रेम का पुतला हूँ मैं, तू ममता की गोद बनी,
मेरा जीवन क्रीड़ा-कौतुक तू प्रत्यक्ष प्रमोद भरी,
मैं भाई फूलों में भूला, मेरी बहन विनोद बनी,
भाई की गति, मति भगिनी की दोनों मंगल-मोद बनी
यह अपराध कलंक सुशीले, सारे फूल जला देना ।
जननी की जंजीर बज रही, चल तबियत बहला देना ।

भाई एक लहर बन आया, बहन नदी की धारा है,
संगम है, गँगा उमड़ी है, डूबा कूल-किनारा है,
यह उन्माद, बहन को अपना भाई एक सहारा है,
यह अलमस्ती, एक बहन ही भाई का ध्रुवतारा है,
पागल घडी, बहन-भाई है, वह आज़ाद तराना है ।
मुसीबतों से, बलिदानों से, पत्थर को समझाना है ।

21. नवीन कल्पना करो

निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए
तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो,
तुम कल्पना करो।

अब देश है स्वतंत्र, मेदिनी स्वतंत्र है
मधुमास है स्वतंत्र, चाँदनी स्वतंत्र है
हर दीप है स्वतंत्र, रोशनी स्वतंत्र है
अब शक्ति की ज्वलंत दामिनी स्वतंत्र है

लेकर अनंत शक्तियाँ सद्य समृद्धि की-
तुम कामना करो, किशोर कामना करो,
तुम कल्पना करो।

तन की स्वतंत्रता चरित्र का निखार है
मन की स्वतंत्रता विचार की बहार है
घर की स्वतंत्रता समाज का सिंगार है
पर देश की स्वतंत्रता अमर पुकार है

टूटे कभी न तार यह अमर पुकार का-
तुम साधना करो, अनंत साधना करो,
तुम कल्पना करो।

हम थे अभी-अभी गुलाम, यह न भूलना
करना पड़ा हमें सलाम, यह न भूलना
रोते फिरे उमर तमाम, यह न भूलना
था फूट का मिला इनाम, वह न भूलना

बीती गुलामियाँ, न लौट आएँ फिर कभी
तुम भावना करो, स्वतंत्र भावना करो
तुम कल्पना करो।

22. उस पार

उस पार कहीं बिजली चमकी होगी
जो झलक उठा है मेरा भी आँगन ।

उन मेघों में जीवन उमड़ा होगा
उन झोंकों में यौवन घुमड़ा होगा
उन बूँदों में तूफ़ान उठा होगा
कुछ बनने का सामान जुटा होगा
उस पार कहीं बिजली चमकी होगी
जो झलक उठा है मेरा भी आँगन ।

तप रही धरा यह प्यासी भी होगी
फिर चारों ओर उदासी भी होगी
प्यासे जग ने माँगा होगा पानी
करता होगा सावन आनाकानी
उस ओर कहीं छाए होंगे बादल
जो भर-भर आए मेरे भी लोचन ।

मैं नई-नई कलियों में खिलता हूँ
सिरहन बनकर पत्तों में हिलता हूँ
परिमल बनकर झोंकों में मिलता हूँ
झोंका बनकर झोंकों में मिलता हूँ
उस झुरमुट में बोली होगी कोयल
जो झूम उठा है मेरा भी मधुबन ।

मैं उठी लहर की भरी जवानी हूँ
मैं मिट जाने की नई कहानी हूँ
मेरा स्वर गूँजा है तूफ़ानों में
मेरा जीवन आज़ाद तरानों में
ऊँचे स्वर में गरजा होगा सागर
खुल गए भँवर में लहरों के बंधन ।

मैं गाता हूँ जीवन की सुंदरता
यौवन का यश भी मैं गाया करता
मधु बरसाती मेरी वाणी-वीणा
बाँटा करती समता-ममता-करुणा
पर आज कहीं कोई रोया होगा
जो करती वीणा क्रंदन ही क्रंदन ।

23. यह दिया बुझे नहीं

घोर अंधकार हो,
चल रही बयार हो,
आज द्वार–द्वार पर यह दिया बुझे नहीं
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है ।

शक्ति का दिया हुआ,
शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ,
यह स्वतंत्रता–दिया,
रूक रही न नाव हो
जोर का बहाव हो,
आज गंग–धार पर यह दिया बुझे नहीं,
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है ।

यह अतीत कल्पना,
यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भावना,
यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो,
युद्ध¸ संधि¸ क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं,
देश पर, समाज पर, ज्योति का वितान है ।


तीन–चार फूल है,
आस–पास धूल है,
बांस है –बबूल है,
घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर दे,
फूंक दे¸ चकोर दे,
कब्र पर मजार पर, यह दिया बुझे नहीं,
यह किसी शहीद का पुण्य–प्राण दान है।

झूम–झूम बदलियाँ
चूम–चूम बिजलियाँ
आंधिया उठा रहीं
हलचलें मचा रहीं
लड़ रहा स्वदेश हो,
यातना विशेष हो,
क्षुद्र जीत–हार पर¸ यह दिया बुझे नहीं,
यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है ।

24. प्रार्थना बनी रही

रोटियाँ ग़रीब की प्रार्थना बनी रही
एक ही तो प्रश्न है रोटियों की पीर का
पर उसे भी आसरा आँसुओं के नीर का
राज है ग़रीब का ताज दानवीर का
तख़्त भी पलट गया कामना गई नहीं
रोटियाँ ग़रीब की प्रार्थना बनी रही

चूम कर जिन्हें सदा क्राँतियाँ गुज़र गईं
गोद में लिये जिन्हें आँधियाँ बिखर गईं
पूछता ग़रीब वह रोटियाँ किधर गई
देश भी तो बँट गया वेदना बँटी नहीं
रोटियाँ ग़रीब की प्रार्थना बनी रही

25. गरीब का सलाम ले

कर्णधार तू बना तो हाथ में लगाम ले
क्रांति को सफल बना नसीब का न नाम ले
भेद सर उठा रहा, मनुष्य को मिटा रहा,
गिर रहा समाज, आज बाजुओं में थाम ले
त्याग का न दाम ले,
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले!

लोग आस में खड़े गली गली के मोड़ पर
एक का विचार छोड़, दृष्टि दे करोड़ पर
अन्यथा प्रतीति बढ़ रही है तोड़-फोड़ पर,
न्याय भी हमें मिले कि नीति भी नहीं हिले
प्यार है मनुष्य से तो रौशनी से काम ले,
त्याग का न दाम ले,
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले!

आँख बन के फूटती न आँसुओं की फुलझड़ी
टूटती कहाँ से फिर गुलामियों की हथकड़ी,
साँस तोड़ती महल से दूर-दूर झोंपड़ी,
किंतु अब स्वराज है, प्रजा के सिर पे ताज है
छाँव दे जहान को, तू अपने सिर पे घाम ले,
त्याग का न दाम ले,
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले!

यह स्वतंत्रता नहीं, कि एक तो अमीर हो,
दूसरा मनुष्य तो रहे मगर फ़कीर हो,
न्याय हो तो आर-पार एक ही लकीर हो,
वर्ग की तनातनी, न मानती है चाँदनी,
चाँदनी लिए चला तो घूम हर मुकाम ले,
त्याग का न दाम ले,
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले!

कर भला गरीब का तो डर न साम्यवाद से,
नाश है प्रयोगवाद का प्रयोगवाद से,
तू स्वतंत्र देश को बचा सदा विवाद से,
यों नई दिशा दिखा, कि दीप की हँसे शिखा,
साम्यवाद भी मिले, तो चूम ग्राम-ग्राम ले,
त्याग का न दाम ले,
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले!

जी रहे जहान में, खान-पान चाहिए,
नित निवास के लिए हमें मकान चाहिए,
चाहिए हज़ार सुख मगर न दान चाहिए,
फूल साम्य का खिला, कुटीर से महल मिला,
घर बसा करोड़ का, करोड़ का प्रणाम ले--
त्याग का न दाम ले,
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले!

राम राज्य है तो मुफ़्त में मिला करे दवा,
मुफ़्त तो पढ़ा करें कि जैसे मुफ्त है हवा,
न्याय मुफ़्त में मिले, बिहार हो कि मालवा,
यों हमें उबार तो, समाज को सिंगार तो,
कोटि-कोटि के हृदय में कर सदैव धाम ले,
त्याग का न दाम ले,
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले!

शक्ति है मिली तो स्वाद-दीन हीन को मिले,
वह मिले कुली-कुली को जो कुलीन को मिले,
सूर्य व्योम को मिले, किरन ज़मीन को मिले,
शक्ति यों पसार दे, व्यक्ति दुःख बिसार दे,
प्यार का हज़ार बार प्यार ही इनाम ले,
त्याग का न दाम ले,
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले!

ज़िन्दगी में ज़िन्दगी प्रताप की उतार ले,
बाजुओं में बल अमर हम्मीर का उधार ले,
बुद्धि ले तो अपने ही शिवाजी से उधार ले,
कर्णधार है तो चल, दरिद्र की दिशा बदल,
देश को अमर बना के उम्र कर तमाम ले,
त्याग का न दाम ले,
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले!

यह न कर सके अगर तो तख़्त ताज छोड़ दे,
और के लिए जगह बना, मिज़ाज छोड़ दे,
छोड़ना है कल तुझे हठीले आज छोड़ दे,
आके मिल समाज में कि भाग ले स्वराज में
शांति भोग, किंतु बागडोर से विराम ले,
त्याग का न दाम ले,
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले!

रहनुमा बने बिना भी उम्र बीत जाएगी,
ताज-तख़्त के बिना भी प्रीति गीत गाएगी,
कोकिला कहीं रहे, वसंत गीत गाएगी,
रास्ता दे भीड़ को, सँवार अपने नीड़ को,
पीपलों की छाँव में, तू बैठ राम-नाम ले--
त्याग का न दाम ले,
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले!

26. मेरा धन है स्वाधीन क़लम

राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्‍नहार, लाती चोरों से छीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

27. मेरी दुल्‍हन सी रातों को

बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्‍हन सी रातों को, नौलाख सितारों ने लूटा

दो दिन के रैन-बसेरे में, हर चीज़ चुराई जाती है
दीपक तो जलता रहता है, पर रात पराई होती है
गलियों से नैन चुरा लाई, तस्‍वीर किसी के मुखड़े की
रह गये खुले भर रात नयन, दिल तो दिलदारों ने लूटा

जुगनू से तारे बड़े लगे, तारों से सुंदर चाँद लगा
धरती पर जो देखा प्‍यारे, चल रहे चाँद हर नज़र बचा
उड़ रही हवा के साथ नज़र, दर-से-दर, खिड़की से खिड़की
प्‍यारे मन को रंग बदल-बदल, रंगीन इशारों ने लूटा

हर शाम गगन में चिपका दी, तारों के अधरों की पाती
किसने लिख दी, किसको लिख दी, देखी तो, कही नहीं जाती
कहते तो हैं ये किस्‍मत है, धरती पर रहने वालों की
पर मेरी किस्‍मत को तो, इन ठंडे अंगारों ने लूटा

जग में दो ही जने मिले, इनमें रूपयों का नाता है
जाती है किस्‍मत बैठ जहाँ, खोटा सिक्‍का चल जाता है
संगीत छिड़ा है सिक्‍कों का, फिर मीठी नींद नसीब कहाँ
नींदें तो लूटीं रूपयों ने, सपना झंकारों ने लूटा

वन में रोने वाला पक्षी, घर लौट शाम को आता है
जग से जानेवाला पक्षी, घर लौट नहीं पर पाता है
ससुराल चली जब डोली तो, बारात दुआरे तक आई
नैहर को लौटी डोली तो, बेदर्द कहारों ने लूटा

28. अपनेपन का मतवाला

अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं
खो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

देखा जग ने टोपी बदली
तो मन बदला, महिमा बदली
पर ध्वजा बदलने से न यहाँ
मन-मंदिर की प्रतिमा बदली

मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई
धो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण
चल दिए तमाशे बन-बनके
पलकों की शीतल छाया में
मैं पुनः चला मन का बन के

जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं
ढो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

दीवारों के प्रस्तावक थे
पर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की ज़ंजीरों से
आज़ाद बने वे फिरते थे

ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुखशय्या पर भी
सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

29. मुसकुराती रही कामना

तुम जलाकर दिये, मुँह छुपाते रहे, जगमगाती रही कल्पना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना

चाँद घूँघट घटा का उठाता रहा
द्वार घर का पवन खटखटाता रहा
पास आते हुए तुम कहीं छुप गए
गीत हमको पपीहा रटाता रहा

तुम कहीं रह गये, हम कहीं रह गए, गुनगुनाती रही वेदना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना

तुम न आए, हमें ही बुलाना पड़ा
मंदिरों में सुबह-शाम जाना पड़ा
लाख बातें कहीं मूर्तियाँ चुप रहीं
बस तुम्हारे लिए सर झुकाता रहा

प्यार लेकिन वहाँ एकतरफ़ा रहा, लौट आती रही प्रार्थना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना

शाम को तुम सितारे सजाते चले
रात को मुँह सुबह का दिखाते चले
पर दिया प्यार का, काँपता रह गया
तुम बुझाते चले, हम जलाते चले

दुख यही है हमें तुम रहे सामने, पर न होता रहा सामना
रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना

30. कुछ ऐसा खेल रचो साथी

कुछ ऐसा खेल रचो साथी!
कुछ जीने का आनंद मिले
कुछ मरने का आनंद मिले
दुनिया के सूने आँगन में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी!

वह मरघट का सन्नाटा तो रह-रह कर काटे जाता है
दुःख दर्द तबाही से दबकर, मुफ़लिस का दिल चिल्लाता है
यह झूठा सन्नाटा टूटे
पापों का भरा घड़ा फूटे
तुम ज़ंजीरों की झनझन में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी!

यह उपदेशों का संचित रस तो फीका-फीका लगता है
सुन धर्म-कर्म की ये बातें दिल में अंगार सुलगता है
चाहे यह दुनिया जल जाए
मानव का रूप बदल जाए
तुम आज जवानी के क्षण में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी!

यह दुनिया सिर्फ सफलता का उत्साहित क्रीड़ा-कलरव है
यह जीवन केवल जीतों का मोहक मतवाला उत्सव है
तुम भी चेतो मेरे साथी
तुम भी जीतो मेरे साथी
संघर्षों के निष्ठुर रण में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी!

जीवन की चंचल धारा में, जो धर्म बहे बह जाने दो
मरघट की राखों में लिपटी, जो लाश रहे रह जाने दो
कुछ आँधी-अंधड़ आने दो
कुछ और बवंडर लाने दो
नवजीवन में नवयौवन में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी!

जीवन तो वैसे सबका है, तुम जीवन का शृंगार बनो
इतिहास तुम्हारा राख बना, तुम राखों में अंगार बनो
अय्याश जवानी होती है
गत-वयस कहानी होती है
तुम अपने सहज लड़कपन में, कुछ ऐसा खेल रचो साथी!

31. दो प्राण मिले

दो मेघ मिले बोले-डोले, बरसाकर दो-दो बूँद चले ।

भौंरों को देख उड़े भौरें, कलियों को देख हँसी कलियाँ,
कुंजों को देख निकुंज हिले, गलियों को देख बसी गलियाँ,
गुदगुदा मधुप को, फूलों को, किरणों ने कहा जवानी लो,
झोंकों से बिछुड़े झोंकों को, झरनों ने कहा, रवानी लो,
दो फूल मिले, खेले-झेले, वन की डाली पर झूल चले,
दो मेघ मिले बोले-डोले, बरसाकर दो-दो बूँद चले ।

इस जीवन के चौराहे पर, दो हृदय मिले भोले-भाले,
ऊँची नज़रों चुपचाप रहे, नीची नज़रों दोनों बोले,
दुनिया ने मुँह बिचका-बिचका, कोसा आज़ाद जवानी को,
दुनिया ने नयनों को देखा, देखा न नयन के पानी को,
दो प्राण मिले झूमे-घूमे, दुनिया की दुनिया भूल चले,
दो मेघ मिले बोले-डोले, बरसाकर दो-दो बूँद चले ।

तरुवर की ऊँची डाली पर, दो पंछी बैठे अनजाने,
दोनों का हृदय उछाल चले, जीवन के दर्द भरे गाने,
मधुरस तो भौरें पिए चले, मधु-गंध लिए चल दिया पवन,
पतझड़ आई ले गई उड़ा, वन-वन के सूखे पत्र-सुमन
दो पंछी मिले चमन में, पर चोंचों में लेकर शूल चले,
दो मेघ मिले बोले-डोले, बरसाकर दो-दो बूँद चले ।

नदियों में नदियाँ घुली-मिलीं, फिर दूर सिंधु की ओर चलीं,
धारों में लेकर ज्वार चलीं, ज्वारों में लेकर भौंर चलीं,
अचरज से देख जवानी यह, दुनिया तीरों पर खड़ी रही,
चलने वाले चल दिए और, दुनिया बेचारी पड़ी रही,
दो ज्वार मिले मझधारों में, हिलमिल सागर के कूल चले,
दो मेघ मिले बोले-डोले, बरसाकर दो-दो बूँद चले ।

हम अमर जवानी लिए चले, दुनिया ने माँगा केवल तन,
हम दिल की दौलत लुटा चले, दुनिया ने माँगा केवल धन,
तन की रक्षा को गढ़े नियम, बन गई नियम दुनिया ज्ञानी,
धन की रक्षा में बेचारी, बह गई स्वयं बनकर पानी,
धूलों में खेले हम जवान, फिर उड़ा-उड़ा कर धूल चले,
दो मेघ मिले बोले-डोले, बरसाकर दो-दो बूँद चले ।

32. दूर जाकर न कोई बिसारा करे

दूर जाकर न कोई बिसारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे,
यूँ बिछड़ कर न रतियाँ गुज़ारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।

मन मिला तो जवानी रसम तोड़ दे, प्यार निभता न हो तो डगर छोड़ दे,
दर्द देकर न कोई बिसारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।

खिल रही कलियाँ आप भी आइए, बोलिए या न बोले चले जाइए,
मुस्कुराकर न कोई किनारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।

चाँद-सा हुस्न है तो गगन में बसे, फूल-सा रंग है तो चमन में हँसे,
चैन चोरी न कोई हमारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।

हमें तकें न किसी की नयन खिड़कियाँ, तीर-तेवर सहें न सुनें झिड़कियाँ,
कनखियों से न कोई निहारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।

लाख मुखड़े मिले और मेला लगा, रूप जिसका जँचा वो अकेला लगा,
रूप ऐसे न कोई सँवारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।

रूप चाहे पहन नौलखा हार ले, अंग भर में सजा रेशमी तार ले,
फूल से लट न कोई सँवारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।

पग महावर लगाकर नवेली रंगे, या कि मेंहदी रचाकर हथेली रंगे,
अंग भर में न मेंहदी उभारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।

आप पर्दा करें तो किए जाइए, साथ अपनी बहारें लिए जाइए,
रोज़ घूँघट न कोई उतारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।

एक दिन क्या मिले मन उड़ा ले गए, मुफ़्त में उम्र भर की जलन दे गए,
बात हमसे न कोई दुबारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।

33. मुक्तक

1.
अफ़सोस नहीं इसका हमको, जीवन में हम कुछ कर न सके,
झोलियाँ किसी की भर न सके, संताप किसी का हर न सके,
अपने प्रति सच्चा रहने का, जीवन भर हमने काम किया,
देखा-देखी हम जी न सके, देखा-देखी हम मर न सके ।

2.
कुछ देर यहाँ जी लगता है
कुछ देर तबियत जमती है
आँखों का पानी गरम समझ
यह दुनिया आँसू कहती है

34. तू पढ़ती है मेरी पुस्तक

तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ
तू चलती है पन्ने-पन्ने, मैं लोचन-लोचन बढ़ता हूँ

मै खुली क़लम का जादूगर, तू बंद क़िताब कहानी की
मैं हँसी-ख़ुशी का सौदागर, तू रात हसीन जवानी की
तू श्याम नयन से देखे तो, मैं नील गगन में उड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तू मन के भाव मिलाती है, मेरी कविता के भावों से
मैं अपने भाव मिलाता हूँ, तेरी पलकों की छाँवों से
तू मेरी बात पकड़ती है, मैं तेरा मौन पकड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तू पृष्ठ-पृष्ठ से खेल रही, मैं पृष्ठों से आगे-आगे
तू व्यर्थ अर्थ में उलझ रही, मेरी चुप्पी उत्तर माँगे
तू ढाल बनाती पुस्तक को, मैं अपने मन से लड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तू छंदों के द्वारा जाने, मेरी उमंग के रंग-ढंग
मैं तेरी आँखों से देखूँ, अपने भविष्य का रूप-रंग
तू मन-मन मुझे बुलाती है, मैं नयना-नयना मुड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

मेरी कविता के दर्पण में, जो कुछ है तेरी परछाईं
कोने में मेरा नाम छपा, तू सारी पुस्तक में छाई
देवता समझती तू मुझको, मैं तेरे पैयां पड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तेरी बातों की रिमझिम से, कानों में मिसरी घुलती है
मेरी तो पुस्तक बंद हुई, अब तेरी पुस्तक खुलती है
तू मेरे जीवन में आई, मैं जग से आज बिछड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

मेरे जीवन में फूल-फूल, तेरे मन में कलियाँ-कलियाँ
रेशमी शरम में सिमट चलीं, रंगीन रात की रंगरलियाँ
चंदा डूबे, सूरज डूबे, प्राणों से प्यार जकड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

('धर्मयुग' के 10 जून 1956 के अंक में प्रकाशित)

35. तारे चमके, तुम भी चमको

तारे चमके, तुम भी चमको, अब बीती रात न लौटेगी,
लौटी भी तो एक दिन फिर यह, हम दो के साथ न लौटेगी ।

जब तक नयनों में ज्योति जली, कुछ प्रीत चली कुछ रीत चली,
हो जाएँगे जब बंद नयन, नयनों की घात न लौटेगी ।

मन देकर भी तन दे बैठे, मरने तक जीवन दे बैठे,
होगा फिर जनम-मरण होगा, पर वह सौगात न लौटेगी ।

एक दिन को मिलने साजन से, बारात उठेगी आँगन से,
शहनाई फिर बज सकती है, पर यह बारात न लौटेगी ।

क्या पूरब है, क्या पश्चिम है, हम दोनों हैं और रिमझिम है,
बरसेगी फिर यह श्याम घटा, पर यह बरसात न लौटेगी ।

36. मैं प्यासा भृंग जनम भर का

मैं प्यासा भृंग जनम भर का
फिर मेरी प्यास बुझाए क्या,
दुनिया का प्यार रसम भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

चंदा का प्यार चकोरों तक
तारों का लोचन कोरों तक
पावस की प्रीति क्षणिक सीमित
बादल से लेकर भँवरों तक
मधु-ऋतु में हृदय लुटाऊँ तो,
कलियों का प्यार कसम भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

महफ़िल में नज़रों की चोरी
पनघट का ढंग सीनाज़ोरी
गलियों में शीश झुकाऊँ तो,
यह, दो घूँटों की कमज़ोरी
ठुमरी ठुमके या ग़ज़ल छिड़े,
कोठे का प्यार रकम भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

जाहिर में प्रीति भटकती है
परदे की प्रीति खटकती है
नयनों में रूप बसाओ तो
नियमों पर बात अटकती है
नियमों का आँचल पकड़ूँ तो,
घूँघट का प्यार शरम भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

जीवन से है आदर्श बड़ा
पर दुनिया में अपकर्ष बड़ा
दो दिन जीने के लिए यहाँ
करना पड़ता संघर्ष बड़ा
संन्यासी बनकर विचरूँ तो
संतों का प्यार दिल भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

37. कवि की बरसगाँठ

कवि ने अपनी बरस-गाँठ पर यह कविता लिखी

उन्तीस वसन्त जवानी के, बचपन की आँखों में बीते
झर रहे नयन के निर्झर, पर जीवन घट रीते के रीते
बचपन में जिसको देखा था
पहचाना उसे जवानी में
दुनिया में थी वह बात कहाँ
जो पहले सुनी कहानी में
कितने अभियान चले मन के
तिर-तिर नयनों के पानी में
मैं राह खोजता चला सदा
नादानी से नादानी में
मैं हारा, मुझसे जीवन में जिन-जिनने स्नेह किया, जीते
उन्तीस वसन्त जवानी के, बचपन की आँखों में बीते

38. चौपाटी का सूर्यास्त

चौपाटी: बम्बई का समुद्र-तट

यह रंगों का जाल सलोना, यह रंगों का जाल
किरण-किरण में फहराता है
नयन-नयन में लहराता है
चिड़ियों-सा उड़ता आता है
यह रंगों का जाल

सहज-सरल-सुन्दर रूपों का यह बादल रंगीन
कोमल-चंचल झलमल-झलमल यह चल-दल रंगीन
लिए शिशिर का कम्पन-सिहरन
और शरद का उज्जवल आनन
नव बसन्त का मुकुलित कानन
उड़ता आता प्रतिपल-प्रतिक्षण
यह रूपों का जाल मनोहर, यह रूपों का जाल

मेरी आँखें कितना देखें
उतना चाहें जितना देखें
कलना देखें, छलना देखें
सत्य हो रहा सपना देखें
यह रंगों का जाल सलोना, यह रंगों का जाल

और उड़ो तुम मेरे बादल
और धुलो तुम मेरे शतदल
और हिलो तुम मेरे चलदल
चलो-चलो तुम मेरे चंचल
बरसो तो मेरे आँगन में
ठहरो तो मेरे इस मन में
मुझको प्यारा-प्यारा लगता, यह रंगों का जाल
यह रंगों का जाल सलोना, यह रंगों का जाल

(17 जुलाई 1944, बम्बई)

39. यह दिल खोल तुम्हारा हँसना

प्रिये तुम्हारी इन आँखों में मेरा जीवन बोल रहा है

बोले मधुप फूल की बोली, बोले चाँद समझ लें तारे
गा–गाकर मधुगीत प्रीति के, सिंधु किसी के चरण पखारे
यह पापी भी क्यों–न तुम्हारा मनमोहम मुख–चंद्र निहारे
प्रिये तुम्हारी इन आँखों में मेरा जीवन बोल रहा है

देखा मैंने एक बूँद से ढँका जरा आँखों का कोना
थी मन में कुछ पीर तुम्हारे, पर न कहीं कुछ रोना धोना
मेरे लिय बहुत काफी है आँखों का यह डब–डब होना
साथ तुम्हारी एक बूँद के, मेरा जीवन डोल रहा है

कोई होगी और गगन में, तारक–दीप जलाने वाली
कोई होगी और, फूल में सुंदर चित्र बनाने वाली
तुम न चाँदनी, तुम न अमावस, सखी तुम तो ऊषा की लाली
यह दिल खोल तुम्हारा हँसना, मेरा बंधन खोल रहा है

40. पीपल

कानन का यह तरूवर पीपल।
युग युग से जग में अचल,अटल।।
ऊपर विस्तृत,नभ नील,नील
नीचे वसुधा में नदी,झील।
जामुन,तमाल,इमली,करील
जल से ऊपर उठता मृणाल
फुनगी पर खिलता खिलता कमल लाल।
तिर तिर करते क्रीड़ा मराल।।
ऊँचे टीले से वसुधा पर
झरती है निर्झरणी झर झर ।
हो जाती बूँद बूँद झर कर।
निर्झर के पास खड़ा पीपल
सुनता रहता कलकल-छल छल।।
पल्लव हिलते ढलढल-ढलढल,
पीपल के पत्ते गोल गोल।
कुछ कहते रहते डोल डोल।।
जब जब आता पंछी तरू पर
जब जब जाता पंछी उड़ कर
जब जब खाता फल चुन चुन कर,
पड़ती जब पावस की फुहार
बजते जब पंछी के सितार।
बहने लगती शीतल बयार।।
तब तब कोमल पल्लव हिल डुल
गाते सर्सर,मर्मर मंजुल।
लख लख सुन सुन
विह्वहल बुल बुल।
बुलबुल गाती रहती चह चह
सरिता गाती रहती बह बह।।
पत्ते हिलते रहते रह रह।
जितने भी हैं इसमें कोटर
सब पंछी गिलहरियों के घर।।
संध्या को अब दिन जाता ढल
सूरज चलतें हैं अस्ताचल,
कर में समेंट किरणें उज्ज्वल ।।
हो जाता है सुनसान लोक
चल पड़ते घर को चील,कोक।
अंधियाली संध्या को विलोक।
भर जाता है कोटर कोटर
बस जातें हैं पत्तों के घर।
घर घर मेंआती नींद उतर,
निद्रा ही में होता प्रभात
कट जाती है इस तरह रात।
फिर यही बात रे वही बात,
इस वसुधा का यह वन्य प्रान्त,
है दूर, अलग अक्रान्त शान्त।
है खड़े जहाँ पर शाल,बाँस
चौपाये चरते नरम घास।
निर्झर,सरिता के आसपास।।
रजनी भर रो रो कर चकोर
कर देता है रे रोज भोर,
नाचा करतें हैं जहाँ मोर
,है जहाँ वल्लरी का बन्धन
बन्धन क्या,वह तो आलिंगन,
आलिंगन भीचिर आलिंगन ।
बुझती पथिकों की जहाँ प्यास
निद्रा लग जाती अनायास,
है वहीं सदा इसका निवास।।

41. होली

बरस-बरस पर आती होली,
रंगों का त्यौहार अनूठा
चुनरी इधर, उधर पिचकारी,
गाल-भाल पर कुमकुम फूटा
लाल-लाल बन जाते काले,
गोरी सूरत पीली-नीली,
मेरा देश बड़ा गर्वीला,
रीति-रसम-ऋतु रंग-रगीली,
नीले नभ पर बादल काले,
हरियाली में सरसों पीली !


42. नज़र है नई तो नज़ारे पुराने

नई रोशनी को मिले राह कैसे नज़र है नई तो नज़ारे पुराने नई शाम है तो धुँधलका पुराना नई रात है तो सितारे पुराने बसाएँ कहाँ घर नई ज़िंदगी का लगाएँ पता क्या नई मंज़िलों का खिवैया तुम्हारी बँधी खाड़ियों में लहर है नई तो किनारे पुराने इधर ठोकरों पर पड़ी है जवानी उधर सिर उठाए खड़ी राजधानी महल में पुराने दिए जल रहे हैं रुकी जा रही है नए की रवानी बुलाकर नए को शरण कौन देगा जमे हैं दुआरे-दुआरे पुराने नई रोशनी को मिले राह कैसे नज़र है नई तो नज़ारे पुराने चले मंज़िलों को मशालें लिए जो अँधेरे-अँधेरे पहुँच तो गए वो सवेरा हुआ तो नई रोशनी में सभी भूल बैठे कुटी के दिए को नई चाँदनी की दुहाई मचाई मगर छा गए मेघ कारे पुराने नई रोशनी को मिले राह कैसे नज़र है नई तो नज़ारे पुराने सदा काम लेकर पुरानी नज़र से चले जा रहे हैं पुरानी डगर से मगर यह न सोचें कि कब तक चलेगी नई ज़िंदगानी पुरानी उमर से बताते भी क्योंकर नई राह हमको पुराने नयन के इशारे पुराने नई रोशनी को मिले राह कैसे नज़र है नई तो नज़ारे पुराने वही सूत-चरख़ा, वही वस्त्र खादी करें बात अपनी, रटें रोज़ गांधी यहाँ बैलगाड़ी कि छत भी न जिसकी वहाँ भाइयों ने स्पुतनिक उड़ा दी दिखाते रहे वे नए स्वप्न हमको नए रूप कहकर सिंगारे पुराने नई रोशनी को मिले राह कैसे नज़र है नई तो नज़ारे पुराने हमें कौन समझे कि क्या माँगते हैं मगर यह विनोबा, दया माँगते हैं इधर बाँटते हैं, उधर भीख लेकर भले आदमी से हया माँगते हैं चले दुख मिटाने नए वैद्यजी तो नए दर्द कहकर उभारे पुराने नई रोशनी को मिले राह कैसे नज़र है नई तो नज़ारे पुराने ख़बर है कि बादल समर के घिरेंगे कि गोले हमारे चमन पर गिरेंगे उधर युद्ध पर हैं उतारू पड़ोसी इधर भंग-गाँजा पकड़ते फिरेंगे कहीं नींद में ही लुटा घर न बैठें अहिंसा के प्यारे-दुलारे पुराने नई रोशनी को मिले राह कैसे नज़र है नई तो नज़ारे पुराने कि इतिहास जाने हमारी ग़ुलामी अहिंसा के कारण पधारी ग़ुलामी यही फ़ैसला था हमारे करम का अहिंसा के करते, सिधारी गुलामी कि काँटे से काँटा भिड़ाकर नियति ने वही पाप अबकी सुधारे पुराने नई रोशनी को मिले राह कैसे नज़र है नई तो नज़ारे पुराने समझ में न आता कि क्या है तराना कि तन है पुराना कि मन है पुराना कि अँग्रेज़ियत में रमे ख़ुद जनम-भर कहें और से गा शास्त्रीय गाना जिन्हें कामना है नई ज़िंदगी की उन्हें दे रहे हैं सहारे पुराने नई रोशनी को मिले रहा कैसे नज़र है नई तो नज़ारे पुराने कभी कटघरे से निकलकर तो देखो कि दलदल से दल के, उछलकर तो देखो मुहल्ले से बाहर, गली और भी है ज़रा मस्तियों में, मचलकर तो देखो कि छत पर टहलकर खुली धूप देखो झरोखे हुए अब, तुम्हारे पुराने नई रोशनी को मिले राह कैसे नज़र है नई तो नज़ारे पुराने हुआ देश ख़ातिर, जनम है हमारा कि कवि हैं, तड़पना करम है हमारा कि कमज़ोर पाकर मिटा दे न कोई इसीसे जगाना धरम है हमारा कि मानें न मानें, हम आप अपना सितम से हैं नाते हमारे पुराने नई रोशनी को मिले राह कैसे नज़र है नई तो नज़ारे पुराने

43. है दर्द दिया में बाती का जलना

तुम रुककर राय न दे डालो साथी, कुछ दूर अभी आगे तुमको चलना एक तुम आज उमर के फूल चढ़ाते हो तुम समझे हो, ज़िंदगी बढ़ाते हो तुम पर जो ये धूलें चढ़ती जातीं तुम समझे हो, लहरें बढ़ती आतीं तुम समझे हो, मिल गई तुम्हें मंज़िल वह तो हर रोज़ यहाँ दिन का ढलना दो पूनो के बाद अमावस आएगी उजियाली पर अँधियारी छाएगी फिर गुल की बुलबुल चुप हो जाएगी इस बार खार की कोयल गाएगी सुख दिन है, दुख है रात घनी काली है दर्द दिया में बाती का जलना तीन तुम क्षुब्ध रहे अंधड़-तूफ़ानों से तुम मुग्ध रहे बुलबुल के गानों से तुम क्या जानो, यह दुनिया सोती है उसकी समाधि पर बुलबुल रोती है तुमने कुछ छल देखे न छली देखा, तुम देख रहे केवल कलना-छलना मिलने वाला ही मिला नहीं जग में तुम खोज चले झिलमिल में, जगमग में यह चंद्र-किरण घन-जालों में उलझी इनकी उनकी किनकी क़िस्मत सुलझी है क्या जिसको तुम उमर बताते हो कुछ गई घड़ी, कुछ घड़ियों का टलना

44. जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने

जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया दो बोल सुने ये फूलों ने मौसम का घूँघट खोल दिया बुलबुल ने छेड़ा हर दिल को, फूलों ने छेड़ा आँखों को दोनों के गीतों ने मिलकर फिर शमा दिखाई लाखों को महफ़िल की मस्ती में आकर सब कोई अपनी सुना गए जब काली कोयल शुरू हुई, पंचम का घूँघट खोल दिया जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया धरती से अंबर अलग हुआ, कानों में सरगम लिए हुए अंबर से धरती अलग हुई, होंठों पर शबनम लिए हुए तारों से पहरे दिलवाकर आकाश मिला था धरती से किरनों का बचपन यों मचला, नीलम का घूँघट खोल दिया जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया हों द्वार झरोखे या कलियाँ, जीवन है खुलने-खिलने में पलकें हों या काली अँखियाँ, जीवन है हिलने-मिलने में तारों के छुपते-छुपते ही किरनों ने छू जो दिया उन्हें शरमाकर मुस्काई कलियाँ, शबनम का घूँघट खोल दिया जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया नज़रों के तीर बहुत देखे, तेवर देखे, झिड़की देखी मुश्किल से ही खुलने वाले घूँघट देखे, खिड़की देखी ऐसों को ही देखा हमने फिर प्यार किसी से होने पर मुख चाँद-सितारों से भरकर रेशम का घूँघट खोल दिया जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया काली आँखों का ताजमहल अंदर से गोरा-गोरा है अंदर है झिलमिल दीवाली बाहर से कोरा-कोरा है भादों की रातों में मिलकर जब भी दो नयना चार हुए उठ-उठकर काली पलकों ने, पूनम का घूँघट खोल दिया जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने सरगम का घूँघट खोल दिया सावन में नाचा मोर मगर, सरगम न हुआ, पायल न हुई नज़रें तो डालीं लाखों ने पर एक नज़र घायल न हुई यह नाच अधूरा प्रियतम का देख न गया तो बादल ने छितरा दी पायल गली-गली, छमछम का घूँघट खोल दिया जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया अपना है ऐसा प्रियतम जो, घट-घट में छुपता फिरता है वह प्यास जागकर जन्मों की पनघट में छुपता फिरता है लग गई प्रीति तो हमने भी नित उसे बसाकर आँखों में ख़ुद मुँह पर घूँघट डाल लिया प्रियतम का घूँघट खोल दिया जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया फूलों ने खिलकर बता दिया, क्या चीज़ बहारें होती हैं दीपक ने जलकर बता दिया, ऐसे भी होते मोती हैं जिसने भी जग में जन्म लिया है चाँद-सितारों का टुकड़ा पल भर भी चमका जुगनू तो आलम का घूँघट खोल दिया जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने सरगम का घूँघट खोल दिया मंज़िल है सबकी एक यहाँ, मन ठोकर खाए कहाँ-कहाँ है एक ठिकाना तो चुनरी रँगवाई जाए कहाँ-कहाँ हँस-हँसकर दो दिन मरघट में जल जाने वाले फूलों ने पल-पल का पर्दा छोड़ दिया, हरदम का घूँघट खोल दिया जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया

45. मेरे पथ में रात अँधेरी

खोज रहा झिलमिल प्रकाश मैं, मेरे पथ में रात अँधेरी मैं धुन में चल पड़ा अकेला बनकर साधक निर्मम-निष्ठुर मेरे चारों ओर तिमिर, पर आलोकित मेरा अंत:पुर है झर-झर निर्झर-सी मेरी जीवन-सरिता आकुल-आतुर जितनी काली आज यामिनी, उतना उज्ज्वल है मेरा उर जीवन बनती चली जा रही, यह मेरी छन-छन की देरी भाव-भरी सुंदर विभावरी, निद्रा-आलस के सम्मोहन मधुर श्रांति की मधुमाया में उलझ रहा था मतवाला मन जब शीतल-शीतल झोंकों से रोमांचित हो गिरिवन-उपवन तब क्या संभव था कि जागता मेरी आँखों में नवचेतन पर क्षण-भर भी सुख-शय्या पर झिंप न सकीं ये आँखें मेरी जब मैं बाहर हुआ द्वार से नभ में झलक रहे थे तारे दीवट पर रख दिए दीप थे घूम किसी ने द्वारे-द्वारे छाया-सी निष्पंद मौन हो, शीतल मंद समीर-सहारे मेरी नाव पड़ी थी सम्मुख उस अगाध तम-सिंधु किनारे तिमिर-गर्भ की ओर उलछकर मैंने अपनी नौका फेरी निज आँखों का स्वप्न खोजता चला आज मैं अंधकार में नौका मेरी मचल-मचलकर चली खेलती बीच धार में मैंने देखा, लहराता है तम का सागर प्रबल ज्वार में दुनिया रहती उन्मन-उन्मन युग-युग से उसके कछार में मुझे चाहिए ज्योति-दीप्ति पर मिलती मुझको पीर घनेरी जीवन के इस अंधकार में अब पूछो, मैंने क्या पाया जगती की सौंदर्य-मूर्ति पर कुटिल नियति की काली छाया ज्योति माँगती है चिरप्यासी तिमिरग्रस्त जगती की काया मिलती उसको दैवयोग से कभी न खुलने वाली माया अभी पड़ा मैं वहीं जहाँ पर संध्या ने थी धूल बिखेरी

46. चल रहा है आदमी

जल रही है ज़िंदगी, देह की मशाल है चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है भोर को गुलाल है यह वही गली जहाँ डोलियाँ लचक चलीं ताज-तख़्त छोड़कर टोलियाँ खिसक चलीं डोलियाँ निहारकर अर्थियाँ खिसक चलीं मौत है तो है, किसे बाद का ख़याल है चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है भोर को गुलाल है लोग देखते रहे, लाश देखती रही देह राख बन गई, साँस देखती रही रूप के स्वरूप को प्यास देखती रही आँसुओं से तर यहाँ, प्यार का रूमाल है चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है भोर को गुलाल है एक दीप बुझ गया, दूसरा खड़ा हुआ दूसरे से तीसरा, आन पर चढ़ा हुआ मंज़िलों से पास है, हर क़दम बढ़ा हुआ बढ़ रहा हुजूम है, बादलों की चाल है चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है भोर को गुलाल है ज़िंदगी की दौड़ में, जो गिरे, गिरे रहे मोड़ पर पड़ाव के, जो फिरे, फिरे रहे या दरो-दिवार से, जो घिरे, घिरे रहे कारवाँ चला गया, वक़्त का सवाल है चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है भोर को गुलाल है आदमी ने झूमके उम्र यों निकाल दी मौत के मज़ार पर ज़िंदगी उछाल दी मर गया तो और के, हाथ में मशाल दी हम मरे कि तुम मरे, कुछ नहीं मलाल है भोर को गुलाल है साथ अंधकार के चल रहे चिराग़ हैं मौत को गली-गली छल रहे चिराग़ हैं आदमी की शक्ल में, जल रहे चिराग़ हैं जल रहे चिराग़ हैं, ज़िंदगी निहाल है चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है भोर को गुलाल है वक़्त है न है जगह, यह हिसाब के लिए उठ रहा सवाल है बस जवाब के लिए आदमी तड़प रहा, इंकलाब के लिए ख़ून है इसीलिए, इसीलिए उबाल है चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है भोर को गुलाल है

47. ओ राही दिल्ली जाना तो

ओ राही दिल्ली तो, कहना अपनी सरकार से चरख़ा चलता है हाथों से शासन चलता तलवार से यह राम-कृष्ण की जन्मभूमि, पावन धरती सीताओं की फिर कमी रही कब भारत में, सभ्यता-शांति-सद्भावों की पर नए पड़ोसी कुछ ऐसे, पागल हो रहे सिवाने पर इस पार चराते गौएँ हम, गोली चलती उस पार से ओ राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से तुम उड़ा कबूतर अंबर में, संदेश शांति का देते हो चिट्ठी लिखकर रह जाते हो, जब कुछ गड़बड़ सुन लेते हो वक्तव्य लिखो कि विरोध करो, यह भी काग़ज़ वह भी काग़ज़ कब नाव राष्ट्र की पार लगी, यों काग़ज़ की पतवार से ओ राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से तुम चावल भिजवा देते हो, जब प्यार पुराना दर्शाकर वह प्राप्ति-सूचना देते हैं, सीमा पर गोली-वर्षा कर चुप रहने को तो हम चुप रहें कि मरघट शरमाए बंदूक़ों से छूटी गोली, कैसे चूमोगे प्यार से ओ राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से मालूम हमें है तेज़ी से निर्माण हो रहा भारत का चहुँ ओर अहिंसा के कारण, गुणगान हो रहा भारत का पर यह भी सच है, आज़ादी है तो चल रही अहिंसा है वर्ना अपना घर दीखेगा, फिर कहाँ कुतुबमीनार से ओ राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से स्वातंत्र्य न निर्धन की पत्नी कि पड़ोसी जब चाहे छेड़े यह वह पागलपन है जिससे शेरों से लड़ जातीं भेड़ें पर यहाँ ठीक इसके उल्टे, हैं भेड़ छेड़ने वाले ही फिर क्यों रखते वंचित हमको, निज स्वाभाविक हुंकार से ओ राही दिल्ला जाना तो, कहना अपनी सरकार से नहरें फिर भी खुद सकती हैं, बन सकती है योजना नई जीवित हैं तो फिर कर लेंगे, कल्पना नई, कामना नई घर की है बात, यहाँ ‘बोतल’ पीछे भी पकड़ी जाएगी पहले चलकर सीमा पर सर झुकवा तो लो संसार से ओ राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से फिर कहीं गुलामी आई तो, क्या कर लेंगे हम निर्भय भी स्वातंत्र्य-सूर्य के साथ अस्त हो जाएगा सर्वोदय भी इसलिए मोल आज़ादी का नित सावधान रहने में है लड़ने का साहस कौन करे, फिर मरने को तैयार से ओ राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से तैयारी को भी तो थोड़ा चाहिए समय, साधन, सुविधा इसलिए जुटाओ अस्त्र-शस्त्र, छोड़ो ढुलमुल मन की दुविधा जब इतना बड़ा विमान तीस नखरे करता तब उड़ता है फिर कैसे तीस करोड़ समर को चल देंगे बाज़ार से ओ राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से हम लड़ें, नहीं, प्रण तो ठानें, रण-रास रचाना तो सीखें होना स्वतंत्र हम जान गए, स्वातंत्र्य बचाना तो सीखें वह माने सिर्फ़ नमस्ते से, जो हँसे-मिले, मृदु बात करे बंदूक़ चलाने वाला माने, बंबारों की मार से ओ राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से सिद्धांत, धर्म कुछ और चीज़, आज़ादी है कुछ और चीज़ सब कुछ हैं तरु-डाली पत्ते, आज़ादी है बुनियादी-बीज इसलिए वेद-गीता-क़ुरान, दुनिया ने लिक्खे स्याही से लेकिन लिक्खा आज़ादी का इतिहास रुधिर की धार से ओ राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से