गुरू नानक देव जी से संबंधित हिंदी कविताएं
Hindi Poems on Guru Nanak Dev Ji

1. गुरु नानक-मैथिलीशरण गुप्त

मिल सकता है किसी जाति को
आत्मबोध से ही चैतन्य ;
नानक-सा उद्बोधक पाकर
हुआ पंचनद पुनरपि धन्य ।
साधे सिख गुरुओं ने अपने
दोनों लोक सहज-सज्ञान;
वर्त्तमान के साथ सुधी जन
करते हैं भावी का ध्यान ।
हुआ उचित ही वेदीकुल में
प्रथम प्रतिष्टित गुरु का वंश;
निश्चय नानक में विशेष था
उसी अकाल पुरुष का अंश;
सार्थक था 'कल्याण' जनक वह,
हुआ तभी तो यह गुरुलाभ;
'तृप्ता' हुई वस्तुत: जननी
पाकर ऐसा धन अमिताभ ।

पन्द्रहसौ छब्बीस विक्रमी
संवत् का वह कातिक मास,
जन्म समय है गुरु नानक का,-
जो है प्रकृत परिष्कृति-वास ।
जन-तनु-तृप्ति-हेतु धरती ने
दिया इक्षुरस युत बहु धान्य;
मनस्तृप्ति कर सुत माता ने
प्रकट किया यह विदित वदान्य ।
पाने लगा निरन्तर वय के
साथ बोध भी वह मतिमंत;
संवेदन आरंभ और है
आतम-निवेदन जिसका अन्त ।
आत्मबोध पाकर नानक को
रहता कैसे पर का भान ?
तृप्ति लाभ करते वे बहुधा
देकर सन्त जनों को दान ।
खेत चरे जाते थे उनके,
गाते थे वे हर्ष समेत-
"भर भर पेट चुगो री चिड़ियो,
हरि की चिड़ियां, हरि के खेत !''

वे गृहस्थ होकर त्यागी थे
न थे समोह न थे निस्नेह;
दो पुत्रों के मिष प्रकटे थे
उनके दोंनों भाव सदेह ।
तयागी था श्रीचन्द्र सहज ही
और संग्रही लक्ष्मीदास;
यों संसार-सिद्धि युत क्रम से
सफल हुआ उनका सन्यास ।
हुआ उदासी - मत - प्रवर्तक
मूल पुरुष श्रीचन्द्र स्टीक,
बढ़ते हैं सपूत गौरव से
आप बनाकर बनाकर अपनी लीक।
पैतृक धन का अवलम्बन तो
लेते हैं कापुरुष - कपूत,
भोगी भुजबल की विभूतियाँ
था वह लक्ष्मीदास सपूत ।
पुत्रवान होकर भी गुरु ने,
दिखलाकर आर्दश उदार,
कुलगत नहीं, शिष्य-गुणगत ही
रक्खा गदी का अधिकार ।

इसे विराग कहें हम उनका
अथवा अधिकाधिक अनुराग,
बढ़े लोक को अपनाने वे
करके क्षुद्र गेह का त्याग ।
प्रव्रज्या धारन की गुरु ने,
छोड़ बुद्ध सम अटल समाधि,
सन्त शान्ति पाते हैं मन में
हर हर कर औरों की आधि ।
अनुभव जन्य विचारों को निज
दे दे कर 'वाणी' का रूप
उन्हें कर्मणा कर दिखलाते
भग्यवान वे भावुक-भूप ।
एक धूर्त विस्मय की बातें
करता था गुरु बोले-'जाव,
बड़े करामाती हो तुम तो
अन्न छोड़ कर पत्थर खाव ।'
वही पूर्व आदर्श हमारे
वेद विहित, वेदांत विशिष्ट,
दिये सरल भाषा में गुरु ने
हमें और था ही क्या इष्ट ?

उसी पोढ़ प्राचीन नीव पर
नूतन गृह-निर्माण समान
गुरु नानक के उपदेशों ने
खींचा हाल हमारा ध्यान ।
दृषदूती तट पर ऋषियों ने
गाये थे जो वैदिक मन्त्र ।
निज भाषा में भाव उन्हींके
नानक भरने लगे स्वतन्त्र ।
निर्भय होकर किया उन्होंने
साम्य धर्म का यहाँ प्रचार,
प्रीति नीति के साथ सभी को
शुभ कर्मों का है अधिकार ।
सारे, कर्मकाण्ड निष्फल हैं
न हो शुद्ध मन की यदि भक्ति,
भव्य भावना तभी फलेगी
जब होगी करने की शक्ति ।
यदि सतकर्म नहीं करते हो,
भरते नहीं विचार पुनीत,
तो जप-माला-तिलक व्यर्थ है,
उलटा बन्धन है उपवीत ।

परम पिता के पुत्र सभी सम,
कोई नहीं घृणा के योग्य;
भ्रातृभाव पूर्वक रह कर सब
पाओ सौख्य-शान्ति-आरोग्य
"काल कृपाण समान कठिन है,
शासक हैं हत्यारे घोर,"
रोक न सका उन्हें कहने से
शाही कारागार कठोर ।
अस्वीकृत कर दी नानक ने
यह कह कर बाबर की भेट-
"औरों की छीना झपटी कर
भरता है वह अपना पेट !"
जो सन्तोषी जीव नहीं हैं
क्यों न मचावेंगे वे लूट ?
लुटें कुटेंगे क्यों न भला वे
फैल रही है जिनमें फूट ?
मिले अनेक महापुरुषों से,
घूमे नानक देश विदेश;
सुने गये सर्वत्र चाव से
भाव भरे उनके उपदेश ।

हुए प्रथम उनके अनुयायी
शूद्रादिक ही श्रद्धायुक्त,
ग्लानि छोड़ गुरु को गौरव ही
हुआ उन्हें करके भय-मुक्त ।
छोटी श्रेणी ही में पहले
हो सकता है बड़ा प्रचार;
कर सकते हैं किसी तत्व को
प्रथम अतार्किक ही स्वीकार ।
समझे जाते थे समाज में
निन्दित; घृणित और जो नीच,
वे भी उसी एक आत्मा को
देख उठे अब अपने बीच ।
वाक्य-बीज बोये जो गुरु ने
क्रम से पाने लगे विकाश
यथा समय फल आये उनमें,
श्रममय सृजन, सहज है नाश ।
उन्हें सींचते रहे निरन्तर
आगे के गुरु-शिष्य सुधीर
बद्धमूल कर गये धन्य वे
देकर भी निज शोणित-नीर ।

2. नानक-अलामा मुहम्मद इकबाल

कौम ने पैग़ामे गौतम की ज़रा परवाह न की
कदर पहचानी न अपने गौहरे यक दाना की

आह ! बदकिसमत रहे आवाज़े हक से बेख़बर
ग़ाफ़िल अपने फल की शीरीनी से होता है शजर

आशकार उसने कीया जो ज़िन्दगी का राज़ था
हिन्द को लेकिन ख़याली फ़लसफ़े पर नाज़ था

शमएं-हक से जो मुनव्वर हो ये वो महफ़िल न थी
बारिशे रहमत हूयी लेकिन ज़मीं काबिल न थी

आह ! शूदर के लीए हिन्दुसतान ग़म ख़ाना है
दरदे इनसानी से इस बसती का दिल बेगाना है

ब्रहमन शरशार है अब तक मये पिन्दार में
शमएं गौतम जल रही है महफ़िले अग़यार में

बुतकदा फिर बाद मुद्दत के रौशन हूआ
नूरे इबराहीम से आज़र का घर रौशन हूआ

फिर उठी आख़िर सदा तौहीद की पंजाब से
हिन्द को इक मरदे कामिल ने जगाया ख़ाब से

3. गुरू नानक शाह-नज़ीर अकबराबादी

हैं कहते नानक शाह जिन्हें वह पूरे हैं आगाह गुरू ।
वह कामिल रहबर जग में हैं यूँ रौशन जैसे माह गुरू ।
मक़्सूद मुराद, उम्मीद सभी, बर लाते हैं दिलख़्वाह गुरू ।
नित लुत्फ़ो करम से करते हैं हम लोगों का निरबाह गुरु ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।१।।

हर आन दिलों विच याँ अपने जो ध्यान गुरू का लाते हैं ।
और सेवक होकर उनके ही हर सूरत बीच कहाते हैं ।
गर अपनी लुत्फ़ो इनायत से सुख चैन उन्हें दिखलाते हैं ।
ख़ुश रखते हैं हर हाल उन्हें सब तन का काज बनाते हैं ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।२।।

जो आप गुरू ने बख़्शिश से इस ख़ूबी का इर्शाद किया ।
हर बात है वह इस ख़ूबी की तासीर ने जिस पर साद किया ।
याँ जिस-जिस ने उन बातों को है ध्यान लगाकर याद किया ।
हर आन गुरू ने दिल उनका ख़ुश वक़्त किया और शाद किया ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।३।।

दिन रात जिन्होंने याँ दिल बिच है यादे-गुरू से काम लिया ।
सब मनके मक़्सद भर पाए ख़ुश-वक़्ती का हंगाम लिया ।
दुख-दर्द में अपना ध्यान लगा जिस वक़्त गुरू का नाम लिया ।
पल बीच गुरू ने आन उन्हें ख़ुशहाल किया और थाम लिया ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।४।।

याँ जो-जो दिल की ख़्वाहिश की कुछ बात गुरू से कहते हैं ।
वह अपनी लुत्फ़ो शफ़क़त से नित हाथ उन्हीं के गहते हैं ।
अल्ताफ़ से उनके ख़ुश होकर सब ख़ूबी से यह कहते हैं ।
दुख दूर उन्हीं के होते हैं सौ सुख से जग में रहते हैं ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।५।।

जो हरदम उनसे ध्यान लगा उम्मीद करम की धरते हैं ।
वह उन पर लुत्फ़ो इनायत से हर आन तव्ज्जै करते हैं ।
असबाब ख़ुशी और ख़ूबी के घर बीच उन्हीं के भरते हैं ।
आनन्द इनायत करते हैं सब मन की चिन्ता हरते हैं ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।६।।

जो लुत्फ़ इनायत उनमें हैं कब वस्फ़ किसी से उनका हो ।
वह लुत्फ़ो करम जो करते हैं हर चार तरफ़ है ज़ाहिर वो ।
अल्ताफ़ जिन्हों पर हैं उनके सौ ख़ूबी हासिल हैं उनको ।
हर आन ’नज़ीर’ अब याँ तुम भी बाबा नानक शाह कहो ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।७।।

(कामिल=मुक्म्मिल,सम्पूर्ण, रहबर=रास्ता दिखाने वाले, माह=
चाँद, मक़्सूद मुराद=दिल चाही इच्छा, अज़मत=बढ़ाई,शान,
इर्शाद=उपदेश दिया, तासीर=प्रभाव, मक़्सद=मनोरथ,इच्छा,
हंगाम=समय पर, शफ़क़त=मेहरबानी, गहते=पकड़ते, अल्ताफ़=
मेहरबानी, तवज्जै=ध्यान देना, वस्फ़=गुणगान)

4. जय गुरु नानक-डा. राम वल्लभ आचार्य

जय जय गुरु नानक प्यारे ।
जय जय गुरु नानक प्यारे ॥
तुम प्रगटे तो हुआ उजाला
दूर हुए अँधियारे ॥
जय जय गुरु नानक प्यारे ॥

जगत झूठ है सच है ईश्वर
तुमने ही बतलाया ।
वेद पुरान कुरान सभी का
सार हमें समझाया ।
पावन 'गुरुवाणी' से हरते
सब अज्ञान हमारे ॥
जय जय गुरु नानक प्यारे ॥

मानव सेवा, परमारथ का
मार्ग हमें दिखलाया ।
दीन दुखी से प्रेम करो, यह
मंत्र हमें सिखलाया ।
शिष्य भाव को जगा, मिटाये
भाव भेद के सारे ॥
जय जय गुरु नानक प्यारे ॥

भूले भटके जग को तुमने
सच की राह दिखाई ।
घृणा द्वेष को मिटा प्रेम की
मन में ज्योति जलाई ।
एक बार फिर आकर कर दो
अंतर में उजियारे ॥
जय जय गुरु नानक प्यारे ॥