परछाईयाँ : साहिर लुधियानवी

Parchhaiyan in Hindi : Sahir Ludhianvi

1. परछाईयाँ

जवान रात के सीने पे दूधिया आँचल
मचल रहा है किसी ख्वाबे-मरमरीं की तरह
हसीन फूल, हसीं पत्तियाँ, हसीं शाखें
लचक रही हैं किसी जिस्मे-नाज़नीं की तरह
फ़िज़ा में घुल से गए हैं उफ़क के नर्म खुतूत
ज़मीं हसीन है, ख्वाबों की सरज़मीं की तरह
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरतीं हैं

कभी गुमान की सूरत कभी यकीं की तरह
वे पेड़ जिन के तले हम पनाह लेते थे
खड़े हैं आज भी साकित किसी अमीं की तरह
इन्हीं के साए में फिर आज दो धड़कते दिल
खामोश होठों से कुछ कहने-सुनने आए हैं
न जाने कितनी कशाकश से कितनी काविश से
ये सोते-जागते लमहे चुराके लाए हैं
यही फ़िज़ा थी, यही रुत, यही ज़माना था
यहीं से हमने मुहब्बत की इब्तिदा की थी
धड़कते दिल से लरज़ती हुई निगाहों से
हुजूरे-ग़ैब में नन्हीं सी इल्तिजा की थी
कि आरज़ू के कंवल खिल के फूल हो जायें
दिलो-नज़र की दुआयें कबूल हो जायें
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं

तुम आ रही हो ज़माने की आँख से बचकर
नज़र झुकाये हुए और बदन चुराए हुए
खुद अपने कदमों की आहट से, झेंपती, डरती,
खुद अपने साये की जुंबिश से खौफ खाए हुए
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं

रवाँ है छोटी-सी कश्ती हवाओं के रुख पर
नदी के साज़ पे मल्लाह गीत गाता है
तुम्हारा जिस्म हर इक लहर के झकोले से
मेरी खुली हुई बाहों में झूल जाता है
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं

मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जूड़े में
तुम्हारी आँख मुसर्रत से झुकती जाती है
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं

मेरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं
तुम्हारे होठों पे मेरे लबों के साये हैं
मुझे यकीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे
तुम्हें गुमान है कि हम मिलके भी पराये हैं।
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं

मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को,
अदाए-अज्ज़ो-करम से उठ रही हो तुम
सुहाग-रात जो ढोलक पे गाये जाते हैं,
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं

वे लमहे कितने दिलकश थे वे घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं,
वे सहरे कितने नाज़ुक थे वे लड़ियाँ कितनी प्यारी थीं

बस्ती को हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया
हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया

नागाह लहकते खेतों से टापों की सदायें आने लगीं
बारूद की बोझल बू लेकर पच्छम से हवायें आने लगीं

तामीर के रोशन चेहरे पर तखरीब का बादल फैल गया
हर गाँव में वहशत नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया

मग़रिब के मुहज़्ज़ब मुल्कों से कुछ खाकी वर्दी-पोश आये
इठलाते हुए मग़रूर आये, लहराते हुए मदहोश आये

खामोश ज़मीं के सीने में, खैमों की तनाबें गड़ने लगीं
मक्खन-सी मुलायम राहों पर बूटों की खराशें पड़ने लगीं

फौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदायें डूब गईं
जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बायें डूब गईं

इनसान की कीमत गिरने लगी, अजनास के भाओ चढ़ने लगे
चौपाल की रौनक घटने लगी, भरती के दफ़ातर बढ़ने लगे

बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे

इन जाने वाले दस्तों में ग़ैरत भी गई, बरनाई भी
माओं के जवां बेटे भी गये बहनों के चहेते भाई भी

बस्ती पे उदासी छाने लगी, मेलों की बहारें ख़त्म हुई
आमों की लचकती शाखों से झूलों की कतारें ख़त्म हुई

धूल उड़ने लगी बाज़ारों में, भूख उगने लगी खलियानों में
हर चीज़ दुकानों से उठकर, रूपोश हुई तहखानों में

बदहाल घरों की बदहाली, बढ़ते-बढ़ते जंजाल बनी
महँगाई बढ़कर काल बनी, सारी बस्ती कंगाल बनी

चरवाहियाँ रस्ता भूल गईं, पनहारियाँ पनघट छोड़ गईं
कितनी ही कंवारी अबलायें, माँ-बाप की चौखट छोड़ गईं

इफ़लास-ज़दा दहकानों के हल-बैल बिके, खलियान बिके
जीने की तमन्ना के हाथों, जीने ही के सब सामान बिके

कुछ भी न रहा जब बिकने को जिस्मों की तिजारत होने लगी
ख़लवत में भी जो ममनूअ थी वह जलवत में जसारत होने लगी
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं

तुम आ रही हो सरे-आम बाल बिखराये हुये
हज़ार गोना मलामत का बार उठाये हुए
हवस-परस्त निगाहों की चीरा-दस्ती से
बदन की झेंपती उरियानियाँ छिपाए हुए
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं

मैं शहर जाके हर इक दर में झाँक आया हूँ
किसी जगह मेरी मेहनत का मोल मिल न सका
सितमगरों के सियासी क़मारखाने में
अलम-नसीब फ़िरासत का मोल मिल न सका
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं

तुम्हारे घर में क़यामत का शोर बर्पा है
महाज़े-जंग से हरकारा तार लाया है
कि जिसका ज़िक्र तुम्हें ज़िन्दगी से प्यारा था
वह भाई 'नर्ग़ा-ए-दुश्मन' में काम आया है
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं

हर एक गाम पे बदनामियों का जमघट है
हर एक मोड़ पे रुसवाइयों के मेले हैं
न दोस्ती, न तकल्लुफ, न दिलबरी, न ख़ुलूस
किसी का कोई नहीं आज सब अकेले हैं
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं

वह रहगुज़र जो मेरे दिल की तरह सूनी है
न जाने तुमको कहाँ ले के जाने वाली है
तुम्हें खरीद रहे हैं ज़मीर के कातिल
उफ़क पे खूने-तमन्नाए-दिल की लाली है
तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख़्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे

उस शाम मुझे मालूम हुआ खेतों की तरह इस दुनियाँ में
सहमी हुई दोशीज़ाओं की मुसकान भी बेची जाती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ, इस कारगहे-ज़रदारी में
दो भोली-भाली रूहों की पहचान भी बेची जाती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ जब बाप की खेती छिन जाये
ममता के सुनहरे ख्वाबों की अनमोल निशानी बिकती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ, जब भाई जंग में काम आये
सरमाए के कहबाख़ाने में बहनों की जवानी बिकती है

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे

तुम आज ह्ज़ारों मील यहाँ से दूर कहीं तनहाई में
या बज़्मे-तरब आराई में
मेरे सपने बुनती होगी बैठी आग़ोश पराई में।

और मैं सीने में ग़म लेकर दिन-रात मशक्कत करता हूँ,
जीने की खातिर मरता हूँ,
अपने फ़न को रुसवा करके अग़ियार का दामन भरता हूँ।

मजबूर हूँ मैं, मजबूर हो तुम, मजबूर यह दुनिया सारी है,
तन का दुख मन पर भारी है,
इस दौरे में जीने की कीमत या दारो-रसन या ख्वारी है।

मैं दारो-रसन तक जा न सका, तुम जहद की हद तक आ न सकीं
चाहा तो मगर अपना न सकीं
हम तुम दो ऐसी रूहें हैं जो मंज़िले-तस्कीं पा न सकीं।

जीने को जिये जाते हैं मगर, साँसों में चितायें जलती हैं,

खामोश वफ़ायें जलती हैं,
संगीन हक़ायक़-ज़ारों में, ख्वाबों की रिदाएँ जलती हैं।

और आज इन पेड़ों के नीचे फिर दो साये लहराये हैं,
फिर दो दिल मिलने आए हैं,
फिर मौत की आंधी उट्ठी है, फिर जंग के बादल छाये हैं,

मैं सोच रहा हूँ इनका भी अपनी ही तरह अंजाम न हो,
इनका भी जुनू बदनाम न हो,
इनके भी मुकद्दर में लिखी इक खून में लिथड़ी शाम न हो॥

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे॥

हमारा प्यार हवादिस की ताब ला न सका,
मगर इन्हें तो मुरादों की रात मिल जाये।

हमें तो कश्मकशे-मर्गे-बेअमा ही मिली,
इन्हें तो झूमती गाती हयात मिल जाये॥

बहुत दिनों से है यह मश्ग़ला सियासत का,
कि जब जवान हों बच्चे तो क़त्ल हो जायें।

बहुत दिनों से है यह ख़ब्त हुक्मरानों का,
कि दूर-दूर के मुल्कों में क़हत बो जायें॥

बहुत दिनों से जवानी के ख्वाब वीराँ हैं,
बहुत दिनों से मुहब्बत पनाह ढूँढती है।

बहुत दिनों में सितम-दीद शाहराहों में,
निगारे-ज़ीस्त की इस्मत पनाह ढूँढ़ती है॥

चलो कि आज सभी पायमाल रूहों से,
कहें कि अपने हर-इक ज़ख्म को जवाँ कर लें।

हमारा राज़, हमारा नहीं सभी का है,
चलो कि सारे ज़माने को राज़दाँ कर लें॥

चलो कि चल के सियासी मुकामिरों से कहें,
कि हम को जंगो-जदल के चलन से नफ़रत है।

जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास न आये,
हमें हयात के उस पैरहन से नफ़रत है॥

कहो कि अब कोई कातिल अगर इधर आया,
तो हर कदम पे ज़मीं तंग होती जायेगी।

हर एक मौजे हवा रुख बदल के झपटेगी,
हर एक शाख रगे-संग होती जायेगी॥

उठो कि आज हर इक जंगजू से कह दें,
कि हमको काम की खातिर कलों की हाजत है।

हमें किसी की ज़मीं छीनने का शौक नहीं,
हमें तो अपनी ज़मीं पर हलों की हाजत है॥

कहो कि अब कोई ताजिर इधर का रुख न करे,
अब इस जा कोई कंवारी न बेची जाएगी।

ये खेत जाग पड़े, उठ खड़ी हुई फ़सलें,
अब इस जगह कोई क्यारी न बेची जायेगी॥

यह सर ज़मीन है गौतम की और नानक की,
इस अर्ज़े-पाक पे वहशी न चल सकेंगे कभी।

हमारा खून अमानत है नस्ले-नौ के लिए,
हमारे खून पे लश्कर न पल सकेंगे कभी॥

कहो कि आज भी हम सब अगर खामोश रहे,
तो इस दमकते हुए खाकदाँ की खैर नहीं।

जुनूँ की ढाली हुई ऐटमी बलाओं से,
ज़मीं की खैर नहीं आसमाँ की खैर नहीं॥

गुज़श्ता जंग में घर ही जले मगर इस बार,
अजब नहीं कि ये तनहाइयाँ भी जल जायें।

गुज़श्ता जंग में पैकर जले मगर इस बार,
अजब नहीं कि ये परछाईयाँ भी जल जायें॥

2. खून अपना हो या पराया हो

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे-तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है

टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानो
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।

3. मादाम

आप बेवजह परेशान-सी क्यों हैं मादाम?
लोग कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होँगे
मेरे अहबाब ने तहज़ीब न सीखी होगी
मेरे माहौल में इन्सान न रहते होँगे

नूर-ए-सरमाया से है रू-ए-तमद्दुन की जिला
हम जहाँ हैं वहाँ तहज़ीब नहीं पल सकती
मुफ़लिसी हिस्स-ए-लताफ़त को मिटा देती है
भूख आदाब के साँचे में नहीं ढल सकती

लोग कहते हैं तो, लोगों पे ताज्जुब कैसा
सच तो कहते हैं कि, नादारों की इज़्ज़त कैसी
लोग कहते हैं=मगर आप अभी तक चुप हैं
आप भी कहिए ग़रीबो में शराफ़त कैसी

नेक मादाम ! बहुत जल्द वो दौर आयेगा
जब हमें ज़ीस्त के अदवार परखने होंगे
अपनी ज़िल्लत की क़सम, आपकी अज़मत की क़सम
हमको ताज़ीम के मे'आर परखने होंगे

हम ने हर दौर में तज़लील सही है लेकिन
हम ने हर दौर के चेहरे को ज़िआ बक़्शी है
हम ने हर दौर में मेहनत के सितम झेले हैं
हम ने हर दौर के हाथों को हिना बक़्शी है

लेकिन इन तल्ख मुबाहिस से भला क्या हासिल?
लोग कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होँगे
मेरे एहबाब ने तहज़ीब न सीखी होगी
मेरे माहौल में इन्सान न रहते होँगे

वजह बेरंगी-ए-गुलज़ार कहूँ या न कहूँ
कौन है कितना गुनहगार कहूँ या न कहूँ

(जिला=प्रकाश, लताफ़त=रुसवाई, ज़ीस्त=
ज़िन्दगी, ताज़ीम=महानता,बड़प्पन, मे'आर=
मानक,स्टैंडर्ड, तज़लील=अनादर करना,
ज़िआ=प्रकाश, मुबाहिस=विवाद)

4. हर चीज़ ज़माने की जहाँ पर थी

हर चीज़ ज़माने की जहाँ पर थी वहीं है,
एक तू ही नहीं है

नज़रें भी वही और नज़ारे भी वही हैं
ख़ामोश फ़ज़ाओं के इशारे भी वही हैं
कहने को तो सब कुछ है, मगर कुछ भी नहीं है

हर अश्क में खोई हुई ख़ुशियों की झलक है
हर साँस में बीती हुई घड़ियों की कसक है
तू चाहे कहीं भी हो, तेरा दर्द यहीं है

हसरत नहीं, अरमान नहीं, आस नहीं है
यादों के सिवा कुछ भी मेरे पास नहीं है
यादें भी रहें या न रहें किसको यक़ीं है

5. शाहकार

मुसव्विर मैं तेरा शाहकार वापस करने आया हूं
अब इन रंगीन रुख़सारों में थोड़ी ज़िदर्यां भर दे
हिजाब आलूद नज़रों में ज़रा बेबाकियां भर दे
लबों की भीगी भीगी सिलवटों को मुज़महिल कर दे
नुमाया रग-ए-पेशानी पे अक्स-ए-सोज़-ए-दिल कर दे
तबस्सुम आफ़रीं चेहरे में कुछ संजीदापन कर दे
जवां सीने के मखरुती उठाने सरिनगूं कर दे
घने बालों को कम कर दे, मगर रख्शांदगी दे दे
नज़र से तम्कनत ले कर मिज़ाज-ए-आजिजी दे दे
मगर हां बेंच के बदले इसे सोफ़े पे बिठला दे
यहां मेरे बजाए इक चमकती कार दिखला दे

6. सांझ की लाली सुलग-सुलग कर

सांझ की लाली सुलग-सुलग कर बन गई काली धूल
आए न बालम बेदर्दी मैं चुनती रह गई फूल

रैन भई, बोझल अंखियन में चुभने लागे तारे
देस में मैं परदेसन हो गई जब से पिया सिधारे

पिछले पहर जब ओस पड़ी और ठन्डी पवन चली
हर करवट अंगारे बिछ गए सूनी सेज जली

दीप बुझे सन्नाटा टूटा बाजा भंवर का शंख
बैरन पवन उड़ा कर ले गई परवानों के पंख

7. ज़िन्दगी से उन्स है

ज़िन्दगी से उन्स है, हुस्न से लगाव है
धड़कनों में आज भी इश्क़ का अलाव है
दिल अभी बुझा नहीं, रंग भर रहा हूँ मैं
ख़ाक-ए-हयात में, आज भी हूँ मुनहमिक
फ़िक्र-ए-कायनात में ग़म अभी लुटा नहीं
हर्फ़-ए-हक़ अज़ीज़ है, ज़ुल्म नागवार है
अहद-ए-नौ से आज भी अहद उसतवार है
मैं अभी मरा नहीं

(मुनमहिक=संलग्न; उसतवार=पुष्ट)

8. सदियों से इन्सान यह सुनता आया है

सदियों से इन्सान यह सुनता आया है
दुख की धूप के आगे सुख का साया है

हम को इन सस्ती ख़ुशियों का लोभ न दो
हम ने सोच समझ कर ग़म अपनाया है

झूठ तो कातिल ठहरा उसका क्या रोना
सच ने भी इन्सां का ख़ून बहाया है

पैदाइश के दिन से मौत की ज़द में हैं
इस मक़तल में कौन हमें ले आया है

अव्वल-अव्वल जिस दिल ने बरबाद किया
आख़िर-आख़िर वो दिल ही काम आया है

उतने दिन अहसान किया दीवानों पर
जितने दिन लोगों ने साथ निभाया है

9. फ़रार

अपने माज़ी के तसव्वुर से हिरासाँ हूँ मैं
अपने गुज़रे हुए अय्याम से नफ़रत है मुझे
अपनी बे-कार तमन्नाओं पे शर्मिंदा हूँ
अपनी बे-सूद उमीदों पे नदामत है मुझे

मेरे माज़ी को अंधेरे में दबा रहने दो
मेरा माज़ी मिरी ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं
मेरी उम्मीदों का हासिल मिरी काविश का सिला
एक बे-नाम अज़िय्यत के सिवा कुछ भी नहीं

कितनी बे-कार उमीदों का सहारा ले कर
मैं ने ऐवान सजाए थे किसी की ख़ातिर
कितनी बे-रब्त तमन्नाओं के मुबहम ख़ाके
अपने ख़्वाबों में बसाए थे किसी की ख़ातिर

मुझ से अब मेरी मोहब्बत के फ़साने न कहो
मुझ को कहने दो कि मैं ने उन्हें चाहा ही नहीं
और वो मस्त निगाहें जो मुझे भूल गईं
मैं ने उन मस्त निगाहों को सराहा ही नहीं

मुझ को कहने दो कि मैं आज भी जी सकता हूँ
इश्क़ नाकाम सही ज़िंदगी नाकाम नहीं
इन को अपनाने की ख़्वाहिश उन्हें पाने की तलब
शौक़-ए-बेकार सही सई-ए-ग़म-ए-अंजाम नहीं

वही गेसू वही नज़रें वही आरिज़ वही जिस्म
मैं जो चाहूँ तो मुझे और भी मिल सकते हैं
वो कँवल जिन को कभी उन के लिए खिलना था
उन की नज़रों से बहुत दूर भी खिल सकते हैं

(माज़ी के=भूतकाल के, तसव्वुर=कल्पना से
हिरासां=भयभीत, ऐयाम से=दिनों से, बेसूद=
व्यर्थ, काविश=प्रयत्न का, अज़ीयत=कष्ट,
ऐवान=महल, बेरब्त=असंगत, मुबहम ख़ाके=
अस्पष्ट चित्र, फ़साने=कहानियां, शौक़े-बेकार=
बेकार शौक़, सअइ-ए-ग़म-अंजाम=दुखांत
चेष्टा, गेसू=केश, आरिज़=कपोल)

10. सनाख्वान-ए-तक्दीस-ए-मश्रिक़ कहाँ हैं?

ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवां जिन्दगी के
कहाँ हैं, कहाँ हैं, मुहाफ़िज़ ख़ुदी के?

सनाख़्वान-ए-तकदीस-ए-मशरिक कहाँ हैं?

ये पुरपेंच गलियाँ, ये बेख़ाब बाज़ार
ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झंकार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार

सनाख़्वान-ए-तकदीस-ए-मशरिक कहाँ हैं?

तअफ्फ़ुन से पुर नीमरोशन ये गलियाँ
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियाँ
ये बिकती हुई खोखली रंगरलियाँ

सनाख़्वान-ए-तकदीस-ए-मशरिक कहाँ हैं?

वो उजले दरीचों में पायल की छन-छन
तनफ़्फ़ुस की उलझन पे तबले की धन-धन
ये बेरूह कमरों में खांसी की ठन-ठन

सनाख़्वान-ए-तकदीस-ए-मशरिक कहाँ हैं?

ये गूंजे हुए क़हक़हे रास्तों पर
ये चारों तरफ़ भीड़-सी खिड़िकयों पर
ये आवाज़ें खींचते हुए आंचलों पर

सनाख़्वान-ए-तकदीस-ए-मशरिक कहाँ हैं?

ये फूलों के गजरे, ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें, ये गुस्ताख़ फ़िक़रे
ये ढलके बदन और ये मदक़ूक़ चेहरे

सनाख़्वान-ए-तकदीस-ए-मशरिक कहाँ हैं?

ये भूखी निगाहें हसीनों की जानिब
ये बढ़ते हुए हाथ सीनों की जानिब
लपकते हुए पांव ज़ीनों की जानिब

सनाख़्वान-ए-तकदीस-ए-मशरिक कहाँ हैं?

यहां पीर भी आ चुके हैं जवाँ भी
तनूमन्द बेटे भी, अब्बा मियां भी
ये बीवी भी है और बहन भी है, माँ भी

सनाख़्वान-ए-तकदीस-ए-मशरिक कहाँ हैं?

मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी
यशोदा की हमजिन्स राधा की बेटी
पयम्बर की उम्मत ज़ुलैख़ा की बेटी

सनाख़्वान-ए-तकदीस-ए-मशरिक कहाँ हैं?

ज़रा मुल्क के राहबरों को बुलाओ
ये कूचे ये गलियां ये मन्ज़र दिखाओ
सनाख़्वान-ए-तकदीस-ए-मशरिक को लाओ

सनाख़्वान-ए-तकदीस-ए-मशरिक कहाँ हैं?

11. मैं जिन्दा हूँ ये मुश्तहर कीजिए

मैं ज़िन्दा हूँ यह मुश्तहर कीजिए
मेरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए ।

ज़मीं सख़्त है आसमां दूर है
बसर हो सके तो बसर कीजिए ।

सितम के बहुत से हैं रद्द-ए-अमल
ज़रूरी नहीं चश्म तर कीजिए ।

वही ज़ुल्म बार-ए-दिगर है तो फिर
वही ज़ुर्म बार-ए-दिगर कीजिए ।

कफ़स तोड़ना बाद की बात है
अभी ख्वाहिश-ए-बाल-ओ-पर कीजिए ।

(मुश्तहर=ऎलान)

12. जब कभी उन के तवज्जो में कमी पाई गई

जब कभी उन की तवज्जोह में कमी पाई गई
अज़-सर-ए-नौ दास्तान-ए-शौक़ दोहराई गई

बिक गए जब तेरे लब फिर तुझ को क्या शिकवा अगर
ज़िंदगानी बादा ओ साग़र से बहलाई गई

ऐ ग़म-ए-दुनिया तुझे क्या इल्म तेरे वास्ते
किन बहानों से तबीअ'त राह पर लाई गई

हम करें तर्क-ए-वफ़ा अच्छा चलो यूँ ही सही
और अगर तर्क-ए-वफ़ा से भी न रुस्वाई गई

कैसे कैसे चश्म ओ आरिज़ गर्द-ए-ग़म से बुझ गए
कैसे कैसे पैकरों की शान-ए-ज़ेबाई गई

दिल की धड़कन में तवाज़ुन आ चला है ख़ैर हो
मेरी नज़रें बुझ गईं या तेरी रानाई गई

उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ
अब तो ये बातें भी ऐ दिल हो गईं आई गई

जुरअत-ए-इंसाँ पे गो तादीब के पहरे रहे
फ़ितरत-ए-इंसाँ को कब ज़ंजीर पहनाई गई

अरसा-ए-हस्ती में अब तेशा-ज़नों का दौर है
रस्म-ए-चंगेज़ी उठी तौक़ीर-ए-दाराई गई

13. अक़ायद वहम है मज़हब ख़याल-ए-ख़ाम है साक़ी

अक़ाएद वहम हैं मज़हब ख़याल-ए-ख़ाम है साक़ी
अज़ल से ज़ेहन-ए-इंसाँ बस्ता-ए-औहाम है साक़ी

हक़ीक़त-आश्नाई अस्ल में गुम-कर्दा राही है
उरूस-ए-आगही परवुर्दा-ए-इब्हाम है साक़ी

मुबारक हो ज़ईफ़ी को ख़िरद की फ़लसफ़ा-रानी
जवानी बे-नियाज़-ए-इबरत-ए-अंजाम है साक़ी

हवस होगी असीर-ए-हल्क़ा-ए-नेक-ओ-बद-ए-आलम
मोहब्बत मावरा-ए-फ़िक्र-ए-नंग-ओ-नाम है साक़ी

अभी तक रास्ते के पेच-ओ-ख़म से दिल धड़कता है
मिरा ज़ौक़-ए-तलब शायद अभी तक ख़ाम है साक़ी

वहाँ भेजा गया हूँ चाक करने पर्दा-ए-शब को
जहाँ हर सुब्ह के दामन पे अक्स-ए-शाम है साक़ी

मिरे साग़र में मय है और तिरे हाथों में बरबत है
वतन की सर-ज़मीं में भूक से कोहराम है साक़ी

ज़माना बरसर-ए-पैकार है पुर-हौल शो'लों से
तिरे लब पर अभी तक नग़्मा-ए-ख़य्याम है साक़ी

14. मेरे ख्वाबों के झरोकों को सजाने वाली

मेरे ख्वाबों के झरोकों को सजाने वाली
तेरे ख्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से बतादे मुझको
मेरी रातों की मुक़द्दर में सहर है कि नहीं

चार दिन की ये रफ़ाक़त जो रफ़ाक़त भी नहीं
उमर् भर के लिए आज़ार हुई जाती है
जिन्दगी यूं तो हमेशा से परेशान सी थी
अब तो हर सांस गिरांबार हुई जाती है

मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी ख्वाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी कभी ग़ैर नज़र आती है
कभी इख़लास की मूरत कभी हरजाई है

प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी
तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं
तूने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओ का इज़हार करूं या न करूं

तू किसी और के दामन की कली है लेकिन
मेरी रातें तेरी ख़ुश्बू से बसी रहती हैं
तू कहीं भी हो तेरे फूल से आरिज़ की क़सम
तेरी पलकें मेरी आंखों पे झुकी रहती हैं

तेरे हाथों की हरारत तेरे सांसों की महक
तैरती रहती है एहसास की पहनाई में
ढूंढती रहती हैं तख़ईल की बाहें तुझको
सर्द रातों की सुलगती हुई तनहाई में

तेरा अल्ताफ़-ओ-करम एक हक़ीक़त है मगर
ये हक़ीक़त भी हक़ीक़त में फ़साना ही न हो
तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम
दिल के ख़ूं का एक और बहाना ही न हो

कौन जाने मेरी इम्रोज़ का फ़र्दा क्या है
क़ुबर्तें बढ़ के पशेमान भी हो जाती है
दिल के दामन से लिपटती हुई रंगीं नज़रें
देखते देखते अंजान भी हो जाती है

मेरी दरमांदा जवानी की तमाओं के
मुज्महिल ख्वाब की ताबीर बता दे मुझको
तेरे दामन में गुलिस्ता भी है, वीराने भी
मेरा हासिल मेरी तक़दीर बता दे मुझको

15. रद्द-ए-अमल

चन्द कलियाँ निशात की चुनकर
मुद्दतों महवे-यास रहता हूँ
तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही
तुझ से मिलकर उदास रहता हूँ

16. सज़ा का हाल सुनाये जज़ा की बात करें

सज़ा का हाल सुनाएँ जज़ा की बात करें
ख़ुदा मिला हो जिन्हें वो ख़ुदा की बात करें

उन्हें पता भी चले और वो ख़फ़ा भी न हों
इस एहतियात से क्या मुद्दआ की बात करें

हमारे अहद की तहज़ीब में क़बा ही नहीं
अगर क़बा हो तो बंद-ए-क़बा की बात करें

हर एक दौर का मज़हब नया ख़ुदा लाया
करें तो हम भी मगर किस ख़ुदा की बात करें

वफ़ा-शिआर कई हैं कोई हसीं भी तो हो
चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें

17. मोहब्बत तर्क की मैंने गरेबाँ सी लिया मैं

मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने
ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैं ने

अभी ज़िंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ ख़ल्वत में
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं ने

उन्हें अपना नहीं सकता मगर इतना भी क्या कम है
कि कुछ मुद्दत हसीं ख़्वाबों में खो कर जी लिया मैं ने

बस अब तो दामन-ए-दिल छोड़ दो बेकार उम्मीदो
बहुत दुख सह लिए मैं ने बहुत दिन जी लिया मैं ने

18. मेरे सरकश तराने सुन के दुनिया ये समझती है

मेरे सरकश तराने सुन के दुनिया ये समझती है
कि शायद मेरे दिल को इश्क़ के नग़्मों से नफ़रत है

मुझे हंगामा-ए-जंग-ओ-जदल में कैफ़ मिलता है
मेरी फ़ितरत को ख़ूँरेज़ी के अफ़सानों से रग़्बत है

मेरी दुनिया में कुछ वक़’अत नहीं है रक़्स-ओ-नग़्में की
मेरा महबूब नग़्मा शोर-ए-आहंग-ए-बग़ावत है

मगर ऐ काश! देखें वो मेरी पुरसोज़ रातों को
मैं जब तारों पे नज़रें गाड़कर आसूँ बहाता हूँ

तसव्वुर बनके भूली वारदातें याद आती हैं

तो सोज़-ओ-दर्द की शिद्दत से पहरों तिलमिलाता हूँ

कोई ख़्वाबों में ख़्वाबीदा उमंगों को जगाती है
तो अपनी ज़िन्दगी को मौत के पहलू में पाता हूँ

मैं शायर हूँ मुझे फ़ितरत के नज़्ज़ारों से उल्फ़त है
मेरा दिल दुश्मन-ए-नग़्मा-सराई हो नहीं सकता

मुझे इन्सानियत का दर्द भी बख़्शा है क़ुदरत ने
मेरा मक़सद फ़क़त शोला नवाई हो नहीं सकता

जवाँ हूँ मैं जवानी लग़्ज़िशों का एक तूफ़ाँ है
मेरी बातों में रंगे-ए-पारसाई हो नहीं सकता

मेरे सरकश तरानों की हक़ीक़त है तो इतनी है
कि जब मैं देखता हूँ भूक के मारे किसानों को

ग़रीबों को, मुफ़्लिसों को, बेकसों को, बेसहारों को
सिसकती नाज़नीनों को, तड़पते नौजवानों को

19. हिरास

तेरे होंठों पे तबस्सुम की वो हलकी-सी लकीर
मेरे तख़ईल में रह-रह के झलक उठती है
यूं अचानक तिरे आरिज़ का ख़याल आता है
जैसे ज़ुल्मत में कोई शम्अ भड़क उठती है

तेरे पैराहने-रंगीं की ज़ुनुंखेज़ महक
ख़्वाब बन-बन के मिरे ज़ेहन में लहराती है
रात की सर्द ख़ामोशी में हर इक झोकें से
तेरे अनफ़ास, तिरे जिस्म की आंच आती है

मैं सुलगते हुए राज़ों को अयां तो कर दूं
लेकिन इन राज़ों की तश्हीर से जी डरता है
रात के ख्वाब उजाले में बयां तो कर दूं
इन हसीं ख़्वाबों की ताबीर से जी डरता है

तेरी साँसों की थकन, तेरी निगाहों का सुकूत
दर- हक़ीकत कोई रंगीन शरारत ही न हो
मैं जिसे प्यार का अंदाज़ समझ बैठा हूँ
वो तबस्सुम, वो तकल्लुम तिरी आदत ही न हो

सोचता हूँ कि तुझे मिलके मैं जिस सोच में हूँ
पहले उस सोच का मकसूम समझ लूं तो कहूं
मैं तिरे शहर में अनजान हूँ, परदेसी हूँ
तिरे अल्ताफ़ का मफ़हूम समझ लूं तो कहूं

कहीं ऐसा न हो, पांओं मिरे थर्रा जाए
और तिरी मरमरी बाँहों का सहारा न मिले
अश्क बहते रहें खामोश सियह रातों में
और तिरे रेशमी आंचल का किनारा न मिले

(तबस्सुम=मुस्कराहट, ख़ईल=कल्पना में,
आरिज़=कपोल, ज़ुल्मत में=अँधेरे में, पैराहन=
लिबास, ज़ुनुंखेज़=उन्माद-भरी, ज़ेहन=मस्तिष्क,
अनफ़ास=श्वासों, अयां=प्रकट, तश्हीर=विज्ञापन,
ख़्वाबों की ताबीर=स्वप्न-फल, सुकूत=मौन,
तकल्लुम=बातचीत का ढंग, मकसूम=परिणाम,
अल्ताफ़ का=कृपाओं का, मफ़हूम=अर्थ,
मरमरी=संगमरमर की बनी)

20. शिकस्त

अपने सीने से लगाये हुये उम्मीद की लाश
मुद्दतों ज़ीस्त को नाशाद किया है मैनें

तूने तो एक ही सदमे से किया था दो चार
दिल को हर तरह से बर्बाद किया है मैनें

जब भी राहों में नज़र आये हरीरी मलबूस
सर्द आहों से तुझे याद किया है मैनें

और अब जब कि मेरी रूह की पहनाई में
एक सुनसान सी मग़्मूम घटा छाई है

तू दमकते हुए आरिज़ की शुआयेँ लेकर
गुलशुदा शम्मएँ जलाने को चली आई है

मेरी महबूब ये हन्गामा-ए-तजदीद-ए-वफ़ा
मेरी अफ़सुर्दा जवानी के लिये रास नहीं

मैं ने जो फूल चुने थे तेरे क़दमों के लिये
उन का धुंधला-सा तसव्वुर भी मेरे पास नहीं

एक यख़बस्ता उदासी है दिल-ओ-जाँ पे मुहीत
अब मेरी रूह में बाक़ी है न उम्मीद न जोश

रह गया दब के गिराँबार सलासिल के तले
मेरी दरमान्दा जवानी की उमन्गों का ख़रोश

(जीस्त=ज़िंदगी, नाशाद=ग़मग़ीन,उत्साहहीन, हरीरी मलबूस=
रेशमा कपड़े का टुकड़ा, आरिज़=गाल और होंठों के अंग,
शुआ=किरण, गुलशुदा=बुझ चुकी,मृतप्राय, शम्मा=आग,
तज़दीद=फिर से जाग उठना, अफ़सुर्दा=मुरझाई हुई,
कुम्हलाई हुई, तसव्वुर=ख़याल,विचार,याद, यख़बस्ता=
जमी हुई, मुहीत=फैला हुआ, गिराँबार=तनी हुई,कसी हुई,
सलासिल=ज़ंजीर, दरमान्दा=असहाय,बेसहारा)

21. एक तसवीर-ए-रंग

मैं ने जिस वक़्त तुझे पहले-पहल देखा था
तू जवानी का कोई ख़्वाब नज़र आई थी
हुस्न का नग़्म-ए-जावेद हुई थी मालूम
इश्क़ का जज़्बा-ए-बेताब नज़र आई थी

ऐ तरब-ज़ार जवानी की परेशाँ तितली
तू भी इक बू-ए-गिरफ़्तार है मालूम न था
तेरे जल्वों में बहारें नज़र आती थीं मुझे
तू सितम-ख़ुर्दा-ए-इदबार है मालूम न था

तेरे नाज़ुक से परों पर ये ज़र-ओ-सीम का बोझ
तेरी परवाज़ को आज़ाद न होने देगा
तूने राहत की तमन्ना में जो ग़म पाला है
वो तिरी रूह को आबाद न होने देगा

तूने सरमाए की छाँव में पनपने के लिए
अपने दिल अपनी मोहब्बत का लहू बेचा है
दिन की तज़ईन-ए-फ़सुर्दा का असासा ले कर
शोख़ रातों की मसर्रत का लहू बेचा है

ज़ख़्म-ख़ुर्दा हैं तख़य्युल की उड़ानें तेरी
तेरे गीतों में तिरी रूह के ग़म पलते हैं
सुर्मगीं आँखों में यूँ हसरतें लौ देती हैं
जैसे वीरान मज़ारों पे दिए जुलते हैं

इस से क्या फ़ाएदा रंगीन लिबादों के तले
रूह जलती रहे घुलती रहे पज़मुर्दा रहे
होंट हँसते हों दिखावे के तबस्सुम के लिए
दिल ग़म-ए-ज़ीस्त से बोझल रहे आज़ुर्दा रहे

दिल की तस्कीं भी है आसाइश-ए-हस्ती की दलील
ज़िंदगी सिर्फ़ ज़र-ओ-सीम का पैमाना नहीं
ज़ीस्त एहसास भी है शौक़ भी है दर्द भी है
सिर्फ़ अन्फ़ास की तरतीब का अफ़्साना नहीं

उम्र भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है
एक लम्हा जो तिरी रूह में वुसअत भर दे
एक लम्हा जो तिरे गीत को शोख़ी दे दे
एक लम्हा जो तिरी लय में मसर्रत भर दे

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