नंद का ब्रज प्रत्यागमन-मथुरा गमन : भक्त सूरदास जी

Nand Ka Braj Pratyagman-Mathura Gaman : Bhakt Surdas Ji

नंद का ब्रज प्रत्यागमन

बेगि ब्रज कौं फिरिए नँदराइ ।
हमहिं तुमहिं सुत तात कौ नातौं, और पर्‌यौ हैं आइ ॥
बहुत कियौ प्रतिपाल हमारौ, सो नहिं जी तैं जाइ ।
जहाँ रहैं तहँ तहाँ तुम्हारे, डार्‌यौ जनि बिसराइ ॥
जननि जसोदा भेंटि सखा सब, मिलियौ कंठ लगाइ ।
साधु समाज निगम जिनके गुन, मेरैं गनि न सिराइ ।
माया मोह मिलन अरु बिछुरन, ऐसै ही जग जाइ ।
सूर स्याम के निठुर बचन सुनि, रहे नैन जल छाइ ॥1॥

नंद बिदा होइ घोष सिधारौ ।
बिछुरन मिलन रच्यौ बिधि ऐसौ; यह संकोच निवारौ ॥
कहियौ जाइ जसोदा आगैं, नैंन नीर जनि ढारौ ।
सेवा करी जानि सुत अपनौ, कियौ प्रतिपाल हमारौ ॥
हमैं तुम्हैं अंतर कछु नाहीं , तुम जिय ज्ञान बिचारौ ।
सूरदास प्रभु यह बिनती है, उर जनि प्रीति बिसारौ ॥2॥

गोपालराइ हौं न चरन तजि जैहौं ।
तुमहि छाँड़ि मधुबन मेरे मोहन, कहा जाइ ब्रज लैहौं ॥
कैहौं कहा जाइ जसुमत सौं, जब सन्मुख उठि ऐहै ।
प्रात समय दधि मथत छाँड़ि कै, काहि कलेऊ दैहै ॥
बारह बरस दियौ हम ढीठौ, यह प्रताप बिनु जाने ।
अब तुम प्रगट भए बसुद्यौ-सुत गर्ग बचन परमाने ॥
रिपु हति काज सबै कत कीन्हौ, कत आपदा बिनासी ।
डारि न दियौ कमल कर तैं गिरि, दबि मरते ब्रजवासी ॥
बासर संग सखा सब लीन्हे, टेरि न धेनु चरैहौ ।
क्यौ रहिहैं मेरे प्रान दरस बिनु, जब संध्या नहिं ऐहौं ॥
ऊरध स्वाँस चरन गति थाकी, नैन नीर मरहाइ ।
सूर नंद बिछुरत की वेदनि, मो पै कही न जाइ ॥3॥

(मेरे) मोहन तुमहिं बिना नहिं जैहौं ।
महरि दौरि आगे जब ऐहै, कहा ताहि मैं कैहौं ॥
माखन मथि राख्यौ ह्वै है तुम हेत, चलौ मेरे बारे ।
निठुर भए मधुपुरी आइ कै , काहैं असुरनि मारे ॥
सुख पायौ बसुदेव देवकी, अरु सुख सुरनि दियौ ।
यहै कहत नँद गोप सखा सब, बिदरन चहत हियौ ॥
तब माया जड़ता उपजाई, निठुर भए जदुराइ ।
सूर नंद परमोधि पठाए, निठुर ठगोरी लाइ ॥4॥

उठे कहि माधौ इतनौ बात ।
जिते मान सेवा तुम कीन्ही, बदलौ दयौ न जात ॥
पुत्र हेत प्रतिपार कियौ तुम, जैसैं जननी तात ॥
गोकुल बसत हँसत खेलत मोहिं द्यौस न जान्यौ जात ॥
होहु बिदा घर जाहु गुसाईं, माने रहियौ नात ।
ठाढ़ौ थक्यौ उतर नहि आवै, ज्यौं बयारि बस पात ।
धकधकात हिय बहुत सूर उठि, चले नंद पछितात ॥5॥

बार-बार मग जोवति माता ब्याकनु मोहन बल-भ्राता ॥
आवत देखि गोप नँद साथा । बिवि बालक बिनु भई अनाथा ॥
धाई धेनु बच्छ ज्यौं ऐसैं । माखन बिना रहे धौं कैसैं ॥
ब्रज-नारी हरषित सब धाईं । महरि जहाँ-तहँ आतुर आईं ॥
हरषित मातु रोहिनी आई । उर भरि जलधर लेउँ कन्हाई ॥
देखे नंद गोप सब देखे । बल मोहन कौं तहाँ न पेखे ॥
आतुर मिलन-काज ब्रज नारी । सूर मधुपुरी रहे मुरारी ॥6॥

उलटि पग कैसैं दीन्हौ नंद ।
छाँड़े कहाँ उभै सुत मोहन, धिक जीवन मतिमंद ॥
कै तुम धन-जोबन-मद माते, कै तुम छूटे बंद ।
सुफलक-सुत बैरी भयौ हमकौं, लै गयौ आनँदकंद ॥
राम कृष्न बिनु कैसैं जीजै, कठिन प्रीति कैं फंद ।
सूरदास मैं भई अभागिन, तुम बिनु गोकुलचंद ॥7॥

दोउ ढोटा गोकुल-नायक मेरे ।
काहैं नंद छाँड़ि तुम आए, प्रान-जिवन सब केरे ॥
(मेरे) मोहन तुमहिं बिना नहिं जैहौं ।
महरि दौरि आगे जब ऐहै, कहा ताहि मैं कैहौं ॥
माखन मथि राख्यौ ह्वै है तुम हेत, चलौ मेरे बारे ।
निठुर भए मधुपुरी आइ कै , काहैं असुरनि मारे ॥
सुख पायौ बसुदेव देवकी, अरु सुख सुरनि दियौ ।
यहै कहत नँद गोप सखा सब, बिदरन चहत हियौ ॥
तब माया जड़ता उपजाई, निठुर भए जदुराइ ।
सूर नंद परमोधि पठाए, निठुर ठगोरी लाइ ॥8॥

उठे कहि माधौ इतनौ बात ।
जिते मान सेवा तुम कीन्ही, बदलौ दयौ न जात ॥
पुत्र हेत प्रतिपार कियौ तुम, जैसैं जननी तात ॥
गोकुल बसत हँसत खेलत मोहिं द्यौस न जान्यौ जात ॥
होहु बिदा घर जाहु गुसाईं, माने रहियौ नात ।
ठाढ़ौ थक्यौ उतर नहि आवै, ज्यौं बयारि बस पात ।
धकधकात हिय बहुत सूर उठि, चले नंद पछितात ॥9॥

बार-बार मग जोवति माता ब्याकनु मोहन बल-भ्राता ॥
आवत देखि गोप नँद साथा । बिवि बालक बिनु भई अनाथा ॥
धाई धेनु बच्छ ज्यौं ऐसैं । माखन बिना रहे धौं कैसैं ॥
ब्रज-नारी हरषित सब धाईं । महरि जहाँ-तहँ आतुर आईं ॥
हरषित मातु रोहिनी आई । उर भरि जलधर लेउँ कन्हाई ॥
देखे नंद गोप सब देखे । बल मोहन कौं तहाँ न पेखे ॥
आतुर मिलन-काज ब्रज नारी । सूर मधुपुरी रहे मुरारी ॥10॥

उलटि पग कैसैं दीन्हौ नंद ।
छाँड़े कहाँ उभै सुत मोहन, धिक जीवन मतिमंद ॥
कै तुम धन-जोबन-मद माते, कै तुम छूटे बंद ।
सुफलक-सुत बैरी भयौ हमकौं, लै गयौ आनँदकंद ॥
राम कृष्न बिनु कैसैं जीजै, कठिन प्रीति कैं फंद ।
सूरदास मैं भई अभागिन, तुम बिनु गोकुलचंद ॥11॥

दोउ ढोटा गोकुल-नायक मेरे ।
काहैं नंद छाँड़ि तुम आए, प्रान-जिवन सब केरे ॥
तिनकैं जात बहुत दुख पायौ, रोर परी इहिं खेरे ।
गोसुत गाइ फिरत हैं दहुँ दिसि, वै न चरैं तृन घेरे ॥
प्रीति न करी राम दसरथ की, प्रान तजे बिनु हेरैं ।
सूर नंद सौं कहति जसोदा, प्रबल पाप सब मेरैं ॥12॥

नंद कहौ हो कहँ छाँड़े हरि ।
लै जु गए जैसैं तुम ह्याँतैं, ल्याए किन वैसहिं आगैं धरि ॥
पालि पोषि मैं किए सयाने, जिन मारे जग मल्ल कंस अरि ।
अब भए तात देवकी बसुद्यौ, बाँह पकरि ल्याये न न्याव करि ।
देखौ दूध दही घृत माखन, मैं राखे सब वैसें ही धरि ।
अब को खाइ नंदनंदन बिनु, गोकुल मनि मथुरा जु गए हरि ॥
श्रीमुख देखन कौं ब्रजवासी, रहे ते घर आँगन मेरैं भरि ।
सूरदास प्रभु के जु सँदेसे, कहे महर आँसू गदगद करि ॥13॥

जसुदा कान्ह कान्ह कै बूझै ।
फूटि न गईं तुम्हारी चारौ, कैसैं मारग सूझै ॥
इक तौ जरी जात बिनु देखैं, अब तुम दीन्हौं फूँकि ।
यह छतिया मेरे कान्ह कुँवर बिनु, फटि न भई द्वे टूक ॥
धिक तुम धिक ये चरन अहौ पति, अध बोलत उठि धाए ।
सूर स्याम बिछुरन की हम पै, दैन बधाई आए ॥14॥

नर हरि तुमसौं कहा कह्यौ ।
सुनि सुनि निठुर बचन के कैसैं हृदय रह्यौ ॥
छाँड़ि सनेह चले मंदिर कत, दौरि न चरन गह्यौ ।
दरकि न गई बज्र की छाती, कत यह सूल सह्यौ ॥
सुरति करत मोहन की बातैं, नैननि नीर बह्यौ ।
सुधि न रही अति गलित गात भयौ, मनु डसि गयौ अह्यौ ॥
उन्हैं छाँड़ि गोकुल कत आए, चाखन दूध दह्यौ ।
तजे न प्रान सूर दसरथ लौं, हुतौ जन्म निबह्यौ ॥15॥

कहाँ रह्यौ मेरौ मनमोहन ।
वह मूरति जिय तैं नहिं बिसरति, अंग अंग सब सोहन ॥
कान्ह बिना गोवैं सब व्याकुल, को ल्यावै भरि दोहन ।
माखन खात खवावत ग्वालनि, सखा लिए सब गोहन ॥
जब वै लीला सुरति करति हौं, चित चाहत उठि जोहन ।
सूरदास-प्रभु के बिछुरे तैं, मरियत है अति छोहन ॥16॥

  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : भक्त सूरदास जी
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)