विविध कविता : बाबा शेख फ़रीद

Misc. Poetry in Hindi : Baba Sheikh Farid

काफ़ी

वाह फ़रीदा वाहु जिन लाए प्रेम कली
सुनत फरज़ तबाबिया रोजे रखन तीह
जूसफ खूह वगायआ, खूबी जिस इकीह
ढूंढे विच बाजार दे ना दस लए न वीह
इबराहीम खलील नूं आतश भट्ठ मलीह
इसमाईल कुहायआ दे के सार दपीह
साबर कीड़े घड्या, है सी वडा वलीह
ज़करिया चीर्या दरखत विच कीता डली डली
तखतहु सुट्या सुलेमान ढोवे पया मलीह ॥
सिर पर चादे काबियां न तिस लज न लीह
हजरत दा दामाद सी चड़्हआ उठ मली
उटहु सुटी बारे विच करदे ज़िकर जली
लेखा तिनां भी देवणा, सिका जान कली
बेड़ा डुब्बा नुह दा, नउ नेजे नीर चड़्ही
मूसा नठा मौत ते, ढूंडे काय गली
चारे कूंंडां ढूंढियां अगे मउत खली
रोवे बीबी फातमा बेटे दोए नही
मैं की फेड़्या रब्ब दा मेरी जोड़ी ख़ाक रली
महजाभि मानी कुहायआ होसी वडा वली
पीर पैकम्बर अउलीए, मरना तिन्नां भली
बिने चेते किछ न मिलै पहरा करन कली
ऊठ कतारां वेदियां हज़रत पकड़ खली
कुदरत के कुरबान हउ आगे होरि चली
फ़रीदा इह वेहानी तिना सिर, साडी क्या चली ॥

……

आवो सखी सहेलीयो मिल मसलत गोईए
आपो आपनी गल नूं भर हंझू रोईए
खेडे लालच लग्यां मैं उमर गवाई
कदे न पूनी हत्थ लै इक तन्दड़ी पाई
चरखा मेरा रंगला बह घाड़ु घड़ायआ
इवें पुराना हो गया विच कुछे धर्या
कतन वल न आइयो न चघन(कढन) कसीदा
कदे न बैठी निठ के करि नीवा दीदा
नाल कुचज्जिया बैठ के कोयी चज न लीता
उमर गवायी खेड विच कोयी कंम न कीता
करां कपाहों वटियां ते कणकों बूरा
लाडां विच न होया कोयी कंमड़ा पूरा
कतन वेल न आया न चकी चुला
विच गरूरी डुब के मैं सभ किछ भुला
कोयी कंम न सिख्या जे सह नूं भावां
वेला हथ न आंवदा, हुन पछोतावां
है नी अम्बड़ी मेरीए मैं रोयी हावे
उह सहु मेरा सोहणा, मैनूं नज़र न आवे
मैं भरवासा आद दा नित ड्रदी आही
झाती इक न पाईआ मैं भठ व्याही
आपने मन्दे हाल नूं न मिले, सहु देइ न ढोई
जांञी माञी बैठ के रल मसलत चाई
झबदे कढो डोलड़ी, हुन ढिल ना काई
पल दी ढिल न लांवदे उह खरे स्याणे
हुन की होंदा आख्या, रो पछोताने ॥
इक वल रोवे अम्बड़ी ते बाबल मेरा
अचणचेते आया सानूं जंगल डेरा
चीक चेहाड़ा पै ग्या विच रंग महली
रोवन जारी हो रेहा हुन सभनी वली
रल मिल आप सहेलियां मैनूं पकड़ चलायआ
जोड़ा पकड़ सहानड़ा मेरे गल पायआ
डोली मेरी रंगली लै आगे आए
बाहों पकड़ चलायआ लै बाहर धाए
कढ लै चले डोलड़ी, किस करे पुकारा
होइ निमानी मैं चली कोयी वस न चारा
अम्बड़ बाबल त्रै भैने ते सभे सहियां
इक इकली छड के मुड़ घर नूं गईआं
हुन क्युं के बैठ्यो गल पी प्यारे
उह गुणवंता बहुत है असीं औगुणहारे
ना कुछ दाज ना रूप है ना गुन है पले
आपने सिर पर आ बणी, असीं इक इकल्ले
जिनी गुनी सहु रावीए, मैनूं सो गुन नाहीं
रो वे जिया मेर्या कर खलियां बाहीं
ना हथ बधा गानना ना वटना लायआ
जेवर पैरीं पाय के मैं ठमक न चली
कूड़ी गलीं लग के मैं, साह थो भुली
ना नक बेसर पाईआ ना कन्नी झमके
ना सिर मांग भराईआ ना मथे दमके
ना गल हार हमेल हेठ ना मुन्दरी छल्ला
आहर तती दा हो रेहा कोयी ढंग अवल्ला
बाजूबन्द ना बंध्या नहीं कंगन पाए
वखत वेहाना की करां नी मेरीए माए

आसा फ़रीद
1

साहब स्युं मान किवेहां माए कीजै नी
क्या कुझ भेट साहब कउ माए दीजै नी
क्या कुझ भेट साहब कउ दीजै, पलै मेरे नाहीं
जे शहु हेरे नदर ना फेरे ता धन रावे ताहीं
सो वखरु मेरे पलू नाहीं जित साहब का मन रीझै
साहब स्युं मान किवेहां माए कीजै ॥१॥

2

बिन अमलां दोहागनि माए होवां नी
कै पह दुख इकेली, माए रोवां नी
कै पह दुख इकेली रोवां, आइ बनी सिर मेरे
जा का कान तान सभ रसिया, अवगन कई घनेरे
सहु पड़ने सी पकड़ चलेसी, हथ बन्द अगै खलोवां
बिन अमलां दोहागनि माए होवां ॥२॥

3

ना रस जीभ ना रूप ना, करी किवैहा माना नी
ना गुन मंत ना कामन माए जाना नी
ना गुन मंत ना कामन जाणा, क्युं कर सहु नूं भावां
सहु बहुतियां नारी बहु गुण्यारी, कित बिध दरशन पावां
ना जाना सहु किसे रावेसी, मेरा जीउ निमाणा
ना रस जीभ ना रूप ना, करी किवैहा माना ॥३॥

4

बिन गुर निस दिन फिरां नी माए, पिर के हावै
अउगण्यारी नूं क्युं कर कंत वसावै
अउगण्यारी नूं क्युं कंत वसावै मैं गुन कोयी नाही
सहुरे जासां तां पछुतासां, जाणसां माए तांही
मेरा साहब चंगा गुनी देहन्दा, कहे फ़रीदे सुनावे
बिन गुर निस दिन फिरां नी माए, पिर के हावे ॥४॥

नसीहत नामा
5

सुन्नति फरज़ भरेद्यां, रोज़े रखे त्रीह
यूसफ खूह वहायआ, खूबियां जिस इकीह
ढूंडे विच बाज़ार दे, न दह लहै न वीह
इब्राहीम खलील नो, आतश भछि मिलीह
बेड़ा डुब्बा नुह दा, नउ नेजे नीर चड़्ही
ज़करिया चीर्यो दरखत विच, कीतो डली डली
साबर कीड़स भछ्या, हैसी वड्डा वली
मूसा नट्ठा मउत ते, ढूंडह काय गली
चारे कुंडां ढूंडियां, आगे मउत खली
रोवह बीबी फातमा, मेरे बेटे दोवें नही
मैं की फेड़्या रब्ब दा, मेरी जोड़ी ख़ाक रली
पीर पैगम्बर अउलीए, मरना तिन्हां भली
बिने चेते किछ न मिलह पहरा करन कली
ऊठ कतारां वेदियां हज़रति पकड़ खली
उपरि ऊठ चड़्हायआ,अंडे देखि हली
फोड़्या अंडा इक डिन रोशन जग चली
अगे देखे कुदरती, शहर बाज़ार गली
बाग शहर सभ देश डहं, राहु मुकामु भली
तयब कहर खेडदे, देखि रसूल चली
आपे बोलह देखह आउ
एक राति तिसके रहे, क्या प्रती तत भली
हज़रत भरम चुकाया, खोइ ईमान चली
फिरके आया तित राहु, जिथे गया जुली
पूछह ऊठ कतार ने कदिके राह चली ?
सभ्भ जुग चलते वापरे, ओड़क नाह अली
सौ सौ ऊठ कतार है आगा पाछा नहीं
कुदरत के कुरबान हउं आगे होर चली
फ़रीदा इह वेहानी तिन्हा सिरि, आसाडी क्या चली ॥

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