मधु कलश : हरिवंशराय बच्चन
Madhukalash : Harivansh Rai Bachchan
1. मधुकलश (कविता)
है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर!
(१)
सर में जीवन है, इससे ही
वह लहराता रहता प्रतिपल,
सरिता में जीवन,इससे ही
वह गाती जाती है कल-कल
निर्झर में जीवन,इससे ही
वह झर-झर झरता रहता है,
जीवन ही देता रहता है
नद को द्रुतगति,नद को हलचल,
लहरें उठती,लहरें गिरती,
लहरें बढ़ती,लहरें हटती;
जीवन से चंचल हैं लहरें,
जीवन से अस्थिर है सागर.
है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर!
(२)
नभ का जीवन प्रति रजनी में
कर उठता है जगमग-जगमग,
जलकर तारक-दल-दीपों में;
सज नीलम का प्रासाद सुभग,
दिन में पट रंग-बिरंगे औ'
सतरंगे बन तन ढँकता,
प्रातः-सायं कलरव करता
बन चंचल पर दल के दल खग,
प्रार्वट में विद्युत् हँसता,
रोता बादल की बूंदों में,
करती है व्यक्त धरा जीवन,
होकर तृणमय होकर उर्वर.
है आज भरा मेरा जीवन
है आज भरी मेरी गागर!
(३)
मारुत का जीवन बहता है
गिरि-कानन पर करता हर-हर,
तरुवर लतिकाओं का जीवन
कर उठता है मरमर-मरमर,
पल्लव का,पर बन अम्बर में
उड़ जाने की इच्छा करता,
शाखाओं पर,झूमा करता
दाएँ-बाएँ नीचे-ऊपर,
तृण शिशु,जिनका हो पाया है
अब तक मुखरित कल कंठ नहीं,
दिखला देते अपना जीवन
फड़का देते अनजान अधर
है आज भरा मेरा जीवन
है आज भरी मेरी गागर!
(४)
जल में,थल में,नभ मंडल में
है जीवन की धरा बहती,
संसृति के कूल-किनारों को
प्रतिक्षण सिंचित करती रहती,
इस धारा के तट पर ही है
मेरी यह सुंदर सी बस्ती--
सुंदर सी नगरी जिसको है
सब दुनिया मधुशाला कहती;
मैं हूँ इस नगरी की रानी
इसकी देवी,इसकी प्रतिमा,
इससे मेरा सम्बंध अतल,
इससे मेरा सम्बंध अमर.
है आज भरा मेरा जीवन
है आज भरी मेरी गागर!
(५)
पल ड्योढ़ी पर,पल आंगन में,
पल छज्जों और झरोखों पर
मैं क्यों न रहूँ जब आने को
मेरे मधु के प्रेमी सुंदर,
जब खोज किसी की हों करते
दृग दूर क्षितिज पर ओर सभी,
किस विधि से मैं गंभीर बनूँ
अपने नयनों को नीचे कर,
मरु की नीरवता का अभिनय
मैं कर ही कैसे सकती हूँ,
जब निष्कारण ही आज रहे
मुस्कान-हँसी के निर्झर झर.
है आज भरा मेरा जीवन
है आज भरी मेरी गागर!
(६)
मैं थिर होकर कैसे बैठूँ,
जब ही उठते है पाँव चपल,
मैं मौन खड़ा किस भाँति रहूँ,
जब हैं बज उठते पग-पायल,
जब मधुघट के आधार बने,
कर क्यों न झुकें, झूमें, घूमें,
किस भाँति रहूँ मैं मुख मूँदे,
जब उड़-उड़ जाता है आँचल,
मैं नाच रही मदिरालय में
मैं और नहीं कुछ कर सकती,
है आज गया कोई मेरे
तन में, प्राणों में, यौवन भर !
है आज मरा यौवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
(७)
भावों से ऐसा पूर्ण हृदय
बातें भी मेरी साधारण
उर से उठ (होठों)कण्ठ तक आतीं
आते बन जातीं हैं गायन,
जब लौट प्रतिध्वनि आती है,
अचरज होता है तब मुझको-
हो आज गईं मधु-सौरभ से
क्या जड़ दीवारें भी चेतन !
गुंजित करती मदिरालय को
लाचार यही मैं करने को,
अपनेसे ही फूटा पड़ता
मुझमें लय-ताल-बंधा मधु स्वर !
है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
(८)
गिरि में न समा उन्माद सका
तब झरनों में बाहर आया,
झरनों की ही थी मादकता
जिसको सर-सरिता ने पाया,
जब संभल सका उल्लास नहीं
नदियों से, अबुधि को आईं,
अबुधि की उमड़ी मस्ती को
नीरद भू पर बरसाया,
मलयानिल को निज सौरभ दे
मधुवन कुछ हल्का हो जाता,
मैं कर देती मदिरा वितरित
जाता उर से कुछ भार उतर !
है आज मरा यौवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
(९)
तन की क्षणभंगुर नौका पर
चढ़ कर, हे यात्री, तू आया,
तूने नानाविधि नगरों को
होगा जीवन-तट पर पाया,
जड शुष्क उन्हें देखा होगा
रक्षित सीमित प्राचीरों से,
इस नगरी में पाई होगी
अपने उर की स्वप्निल छाया,
है शुष्क सत्य यदि उपयोगी
तो सुखदायक है स्वप्न सरस,
सुख भी जीवन का अंश अमर,
मत जग से ङर, कुछ देर ठहर ।
है आज मरा यौवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
(१०)
जीवन में दोनों आते हैं
मिट्टी के पल, सोने के क्षण,
जीवन से दोनों जाते हैं
पाने के पल, खोने के क्षण
हम जिस क्षण में जो करते हैं
हम बाध्य वही हैं करने को,
हँसने के क्षण पाकर हँसते,
रोते हैं पा रोने के क्षण,
विस्मृति की आई है वेला,
कर, पाँय, न इसकी अवहेला,
आ, भूलें हास रुदन दोनों
मधुमय होकर दो-चार पहर ।
है आज मरा यौवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
2. कवि की वासना
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
१
सृष्टि के प्रारंभ में
मैने उषा के गाल चूमे,
बाल रवि के भाग्य वाले
दीप्त भाल विशाल चूमे,
प्रथम संध्या के अरुण दृग
चूम कर मैने सुलाए,
तारिका-कलि से सुसज्जित
नव निशा के बाल चूमे,
वायु के रसमय अधर
पहले सके छू होठ मेरे
मृत्तिका की पुतलियो से
आज क्या अभिसार मेरा?
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
२
विगत-बाल्य वसुंधरा के
उच्च तुंग-उरोज उभरे,
तरु उगे हरिताभ पट धर
काम के धव्ज मत्त फहरे,
चपल उच्छृंखल करों ने
जो किया उत्पात उस दिन,
है हथेली पर लिखा वह,
पढ़ भले ही विश्व हहरे;
प्यास वारिधि से बुझाकर
भी रहा अतृप्त हूँ मैं,
कामिनी के कंच-कलश से
आज कैसा प्यार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
३
इन्द्रधनु पर शीश धरकर
बादलों की सेज सुखकर
सो चुका हूँ नींद भर मैं
चंचला को बाहों में भर,
दीप रवि-शशि-तारकों ने
बाहरी कुछ केलि देखी,
देख, पर, पाया न कोई
स्वप्न वे सुकुमार सुंदर
जो पलक पर कर निछावर
थी गई मधु यामिनी वह;
यह समाधि बनी हुई है
यह न शयनागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
४
आज मिट्टी से घिरा हूँ
पर उमंगें हैं पुरानी,
सोमरस जो पी चुका है
आज उसके हाथ पानी,
होठ प्यालों पर टिके तो
थे विवश इसके लिये वे,
प्यास का व्रत धार बैठा;
आज है मन, किन्तु मानी;
मैं नहीं हूँ देह-धर्मों से
बिधा, जग, जान ले तू,
तन विकृत हो जाये लेकिन
मन सदा अविकार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
५
निष्परिश्रम छोड़ जिनको
मोह लेता विश्व भर को,
मानवों को, सुर-असुर को,
वृद्ध ब्रह्मा, विष्णु, हर को,
भंग कर देता तपस्या
सिद्ध, ऋषि, मुनि सत्तमों की
वे सुमन के बाण मैंने,
ही दिये थे पंचशर को;
शक्ति रख कुछ पास अपने
ही दिया यह दान मैंने,
जीत पाएगा इन्हीं से
आज क्या मन मार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
६
प्राण प्राणों से सकें मिल
किस तरह, दीवार है तन,
काल है घड़ियां न गिनता,
बेड़ियों का शब्द झन-झन
वेद-लोकाचार प्रहरी
ताकते हर चाल मेरी,
बद्ध इस वातावरण में
क्या करे अभिलाष यौवन!
अल्पतम इच्छा यहां
मेरी बनी बंदी पड़ी है,
विश्व क्रीडास्थल नहीं रे
विश्व कारागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
७
थी तृषा जब शीत जल की
खा लिये अंगार मैंने,
चीथड़ों से उस दिवस था
कर लिया श्रृंगार मैंने
राजसी पट पहनने को
जब हुई इच्छा प्रबल थी,
चाह-संचय में लुटाया
था भरा भंडार मैंने;
वासना जब तीव्रतम थी
बन गया था संयमी मैं,
है रही मेरी क्षुधा ही
सर्वदा आहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
८
कल छिड़ी, होगी ख़तम कल
प्रेम की मेरी कहानी,
कौन हूँ मैं, जो रहेगी
विश्व में मेरी निशानी?
क्या किया मैंने नही जो
कर चुका संसार अबतक?
वृद्ध जग को क्यों अखरती
है क्षणिक मेरी जवानी?
मैं छिपाना जानता तो
जग मुझे साधू समझता,
शत्रु मेरा बन गया है
छल-रहित व्यवहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
3. सुषमा
(१)
किसी समय ज्ञानी, कवि, प्रेमी,
तीनों एक ठौर आए,
सुषमा ही से थे सबने
अपने मन-वाँच्छित फल पाए ।
सुषमा ही उपास्य देवी थीं
तीनों की त्रय कालों में ,
पर विचार सुषमा पर सबने
अलग-अलग ही ठहराए !
(२)
'वह सुषमा थी नहीं, न उसने
तुमको अगर प्रकाश दिया ['
'वह सुषमा थी नहीं, न उसने
तुझे अगर उन्मत्त किया ?'
ज्ञानी औ' कवि की वाणी सुन
प्रेमी आहें भर बोला,
'सुषमा न थी, नहीं यदि उसने
आत्मसात् कर मुझे लिया ['
(३)
एफ व्यक्ति साधारण उनकी
बातें सुनने को आया,
मौन हुए जब तीनों तब वह
उच्चस्वर से चिल्लाया !
'मूढ़ो मैंने अब तक उसको
कभी नहीं सुषमा समझा,
जिसके निकट पहुंचते ही,
आनद नहीं मैंने पाया !'
(४)
एक बिंदु पर अब तीनों के
मिल जाने की आशा थी,
क्या अंतिम ही सबसे अच्छी
सुषमा की परिभाषा थी ।
4. कवि का गीत
गीत कह इसको न दुनियाँ
यह दुखों की माप मेरे!
(१)
काम क्या समझूँ न हो यदि
गाँठ उर की खोलने को?
संग क्या समझूँ किसी का
हो न मन यदि बोलने को?
जानता क्या क्षीण जीवन ने
उठाया भार कितना,
बाट में रखता न यदि
उच्छ्वास अपने तोलने को?
हैं वही उच्छ्वास कल के
आज सुखमय राग जग में,
आज मधुमय गान, कल के
दग्ध कंठ प्रलाप मेरे.
गीत कह इसको न, दुनिया,
यह दुखों की माप मेरे!
(२)
उच्चतम गिरि के शिखर को
लक्ष्य जब मैंने बनाया,
गर्व से उन्मत होकर
शीश मानव ने उठाया,
ध्येय पर पहुँचा, विजय के
नाद से संसार गूंजा,
खूब गूंजा किंतु कोई
गीत का सुन स्वर न पाया;
आज कण-कण से ध्वनित
झंकार होगी नूपुरों की,
खड्ग-जीवन-धार पर अब
है उठे पद काँप मेरे.
गीत कह इसको न, दुनिया,
यह दुखों की माप मेरे!
(३)
गान हो जब गूँजने को
विश्व में, क्रंदन करूँ मैं,
हो गमकने को सुरभि जब
विश्च में, आहें भरूँ मैं,
विश्व बनने को सरस हो
जब, गिराऊँ अश्रु मैं तब
विश्व जीवन ज्योति जागे,
इसलिए जलकर मरूँ मैं!
बोल किस आवेश में तू
स्वर्ग से यह माँग बैठा ?--
पुण्य जब जग के उदय हों
तब उदय हों पाप मेरे !
गीत कह इसको न दुनिया,
यह दुखों की माप मेरे !
(४)
चुभ रहा था जो हदय में
एक तीखा शूल बनकर,
विश्व के कर में पड़ा वह
कल्प तरु का फूल बनकर,
सीखता संसार अब है
ज्ञान का प्रिय पाठ जिससे,
प्राप्त वह मुझको हुई थी
एक भीषण भूल बनकर,
था जगत का और मेरा
यदि कभी संबंध तो यह-
विश्व को वरदान थे जो
थे वही अभिशाप मेरे!
गीत कह इसको न दुनिया,
यह दुखों की माप मेरे !
(५)
भावना के पुण्य अपनी
सूत्र-बाणी में पिरोकर
धर दिए मैंने खुशी से
विश्व के विस्तीर्ण पथ पर,
कौन है सिर पर चढ़ाता
कौन ठुकराता पगों से
कौन है करता उपेक्षा-
मुड़ कर कभी देखा न पल भर ।
थी बड़ी नाजुक धरोहर,
था बड़ा दायित्व मुझपर,
अब नहीं चिंता इन्हें
झुलसा न दें संताप मेरे ।
गीत कह इसको न दुनिया,
यह दुखों की माप मेरे !
5. पथभ्रष्ट
है कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!
(१)
पार तम के दीख पड़ता
एक दीपक झिलमिलाता,
जा रहा उस ओर हूँ मैं
मत्त-मधुमय गीत गाता,
इस कुपथ पर या सुपथ पर पर
मैं अकेला ही नहीं हूँ,
जानता हूँ क्यों जगत् फिर
उँगलियाँ मुझ पर उठाता--
मौन रहकर इस शहर के
साथ संगी बह रहे हैं,
एक मेरी ही उमंगें
हो रही है व्यक्त स्वर में.
हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!
(२)
क्यों बताऊँ पोत कितने
पार हैं इसने लगाए ?
क्यों बताऊँ वृक्ष कितने
तीर के इसने गिराए?
उर्वरा कितनी धरा को
कर चुकी यह क्यों बताऊँ?
क्यों बताऊँ गीत कितने
इस लहर ने हैं लिखाए
कूल पर बैठे हुए कवि से
किसी दुःख की घड़ी में?
क्या नहीं पर्याप्त इतना
जानना,गति है लहर में?
हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!
(३)
फल भरे तरु तोड़ डाले
शांत मत लेकिन पवन हो,
वज्र घन चाहे गिराए
किंतु मत सूना गगन हो,
बढ़ बहा दे बस्तियों को
पर न हो जलहीन सरिता,
हो न ऊसर देश चाहे
कंटकों का एक वन हो,
पाप की ही गैल पर
चलते हुए ये पाँव मेरे
हँस रहे हैं उन पगों पर
जो बंधे हैं आज घर में
हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!
(४)
यह नहीं, सुनता नहीं, जो
शंख की ध्वनि आ रही है,
देव-मंदिर में जनों को
साधिकार बुला रही है,
कान में आतीं अज़ानें,
मस्जिदों का यह निमंत्रण,
और ही संदेश देती
किंतु बुलबुल गा रही है,
रक्त से सींची गई है
राह मंदिर-मस्जिदों की,
किंतु रखना चाहता मैं
पाँव मधु सिंचित डगर में ।
हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!
(५)
है न वह व्यक्तित्व मेरा
जिस तरफ मेरा कदम हो,
उस तरफ जाना जगत के
वास्ते कल से नियम हो,
औलिया-आचार्य बनने की
नहीं अभिलाष मेरी,
किसलिए संसार तुझको
देख मेरी चाल कम हो ?
जो चले युगगुग चरण ध्रुव
धर मिटे पद चिह्न उनके,
पद प्रकंपित, हाय, अंकित
क्या करेंगे दो प्रहर में!
हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!
(६)
मैं कहाँ हूँ और वह
आदर्श मधुशाला कहाँ है ।
विस्मरण दे जागरण के
साथ, मधुबाला कहाँ है ।
है कहाँ प्याला कि जो दे
चिर तृषा, चिर-तृप्ति में भी ।
जो डुबा तो ले मगर दे
पार कर, हाला कहाँ है !
देख भीगे होठ मेरे
और कुछ संदेह मत कर,
रक्त मेरे ही हृदय का
है लगा मेरे अधर में ।
हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!
(७)
सोचता है विश्व, कवि ने
कक्ष में बहु विधि सजाए,
मदिर नयना यौवना को
गोद में अपनी बिठाए,
होठ से उसके विचुंबित
प्यालियों को रिक्त करते,
झूमते उमत्तता से
ये सुरा के गान गाए!
राग के पीछे छिपा
चीत्कार कह देगा किसी दिन,
हैं लिखे मधुगीत मैंने
हो खड़े जीवन-समर में ।
हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!
(८)
पाँव चलने को विवश थे
जब विवेक विहीन था मन,
आज तो मस्तिष्क दूषित
कर चुके पथ के मलिन कण,
मैं इसीसे क्या करूँ
अच्छे-बुरे का भेद, भाई,
लौटना भी तो कठिन है,
चल चुका युग एक जीवन,
हो नियति इच्छा तुम्हारी
पूर्ण, मैं चलता चलूँगा,
पथ सभी मिल एक होंगे
तम घिरे यम के नगर में ।
हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!
6. लहरों का निमंत्रण
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!
१
रात का अंतिम प्रहर है,
झिलमिलाते हैं सितारे,
वक्ष पर युग बाहु बाँधे
मैं खड़ा सागर किनारे,
वेग से बहता प्रभंजन
केश पट मेरे उड़ाता,
शून्य में भरता उदधि -
उर की रहस्यमयी पुकारें;
इन पुकारों की प्रतिध्वनि
हो रही मेरे ह्रदय में,
है प्रतिच्छायित जहाँ पर
सिंधु का हिल्लोल कंपन .
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!
२
विश्व की संपूर्ण पीड़ा
सम्मिलित हो रो रही है,
शुष्क पृथ्वी आंसुओं से
पाँव अपने धो रही है,
इस धरा पर जो बसी दुनिया
यही अनुरूप उनके--
इस व्यथा से हो न विचलित
नींद सुख की सो रही है;
क्यों धरनि अबतक न गलकर
लीन जलनिधि में हो गई हो?
देखते क्यों नेत्र कवि के
भूमि पर जड़-तुल्य जीवन?
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!
३
जर जगत में वास कर भी
जर नहीं ब्यबहार कवि का,
भावनाओं से विनिर्मित
और ही संसार कवि का,
बूँद से उच्छ्वास को भी
अनसुनी करता नहीं वह
किस तरह होती उपेक्षा -
पात्र पारावार कवि का,
विश्व- पीड़ा से, सुपरिचित
हो तरल बनने, पिघलने,
त्याग कर आया यहाँ कवि
स्वप्न-लोकों के प्रलोभन
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण !
४
जिस तरह मरू के ह्रदय में
है कहीं लहरा रहा सर,
जिस तरह पावस- पवन में
है पपीहे का छुपा स्वर,
जिस तरह से अश्रु- आहों से
भरी कवि की निशा में
नींद की परियां बनातीं
कल्पना का लोक सुखकर,
सिंधु के इस तीव्र हाहा-
कर ने, विश्वास मेरा,
है छिपा रक्खा कहीं पर
एक रस-परिपूर्ण गायन.
तीर पर कैसे रुकूं मैं
आज लहरों में निमंत्रण!
५
नेत्र सहसा आज मेरे
तम पटल के पार जाकर
देखते हैं रत्न- सीपी से
बना प्रासाद सुंदर,
है ख जिसमें उषा ले
दीप कुंचित रश्मियों का;
ज्योति में जिसकी सुनहली
सिंधु कन्याएँ मनोहर
गूढ़ अर्थो से भरी मुद्रा
बनाकर गान करतीं
और करतीं अति अलौकिक
ताल पर उन्मत्त नर्तन .
तीर पर कैसे रुकूं मैं
आज लहरों में निमंत्रण!
६
मौन हो गन्धर्व बैठे
कर स्रवन इस गान का स्वर,
वाद्ध्य - यंत्रो पर चलाते
हैं नहीं अब हाथ किन्नर,
अप्सराओं के उठे जो
पग उठे ही रह गए हैं,
कर्ण उत्सुक, नेत्र अपलक
साथ देवों के पुरंदर
एक अदभुत और अविचल
चित्र- सा है जान पड़ता,
देव- बालाएँ विमानो से
रहीं कर पुष्प- वर्षण.
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!
७
दीर्घ उर में भी जलधि के
है नहीं खुशियाँ समाती,
बोल सकता कुछ न उठती
फूल बारंबार छाती;
हर्ष रत्नागार अपना
कुछ दिखा सकता जगत को
भावनाओं से भरी यदि
यह फफककर फूट जाती;
सिंधु जिस पर गर्व करता
और जिसकी अर्चना को
स्वर्ग झुकता, क्यों न उसके
प्रति करे कवि अर्घ्य अर्पण .
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!
८
आज अपने स्वप्न को मैं
सच बनाना चाहता हूँ,
दूर कि इस कल्पना के
पास जाना चाहता हूँ
चाहता हूँ तैर जाना
सामने अंबुधि पड़ा जो,
कुछ विभा उस पार की
इस पार लाना चाहता हूँ;
स्वर्ग के भी स्वप्न भू पर
देख उनसे दूर ही था,
किंतु पाऊँगा नहीं कर
आज अपने पर नियंत्रण
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!
९
लौट आया यदि वहाँ से
तो यहाँ नवयुग लगेगा,
नव प्रभाती गान सुनकर
भाग्य जगती का जागेगा,
शुष्क जड़ता शीघ्र बदलेगी
सरस चैतन्यता में,
यदि न पाया लौट, मुझको
लाभ जीवन का मिलेगा;
पर पहुँच ही यदि न पाया
ब्यर्थ क्या प्रस्थान होगा?
कर सकूंगा विश्व में फिर
भी नए पथ का प्रदर्शन.
तीर पर कैसे रुकू मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!
१०
स्थल गया है भर पथों से
नाम कितनों के गिनाऊँ,
स्थान बाकी है कहाँ पथ
एक अपना भी बनाऊं?
विशव तो चलता रहा है
थाम राह बनी-बनाई,
किंतु इस पर किस तरह मैं
कवि चरण अपने बढ़ाऊँ?
राह जल पर भी बनी है
रुढि,पर, न हुई कभी वह,
एक तिनका भी बना सकता
यहाँ पर मार्ग नूतन!
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!
११
देखता हूँ आँख के आगे
नया यह क्या तमाशा --
कर निकलकर दीर्घ जल से
हिल रहा करता माना- सा
है हथेली मध्य चित्रित
नीर भग्नप्राय बेड़ा!
मै इसे पहचानता हूँ,
है नहीं क्या यह निराशा?
हो पड़ी उद्दाम इतनी
उर-उमंगें, अब न उनको
रोक सकता हाय निराशा का,
न आशा का प्रवंचन.
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!
१२
पोत अगणित इन तरंगों ने
डुबाए मानता मैं
पार भी पहुचे बहुत से --
बात यह भी जानता मैं,
किंतु होता सत्य यदि यह
भी, सभी जलयान डूबे,
पार जाने की प्रतिज्ञा
आज बरबस ठानता मैं,
डूबता मैं किंतु उतराता
सदा व्यक्तित्व मेरा,
हों युवक डूबे भले ही
है कभी डूबा न यौवन!
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!
१३
आ रहीं प्राची क्षितिज से
खींचने वाली सदाएं
मानवों के भाग्य निर्णायक
सितारो! दो दुआएं,
नाव, नाविक फेर ले जा,
है नहीं कुछ काम इसका,
आज लहरों से उलझने को
फड़कती हैं भुजाएं;
प्राप्त हो उस पार भी इस
पार-सा चाहे अँधेरा,
प्राप्त हो युग की उषा
चाहे लुटाती नव किरण-धन.
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!
7. मेघदूत के प्रति
(1)
"मेघ" जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
हो धरणि चाहे शरद की
चाँदनी में स्नान करती,
वायु ऋतु हेमंत की चाहे
गगन में हो विचरती,
हो शिशिर चाहे गिराता
पीत-जर्जर पत्र तरू के,
कोकिला चाहे वनों में,
हो वसंती राग भरती,
ग्रीष्म का मार्तण्ड चाहे,
हो तपाता भूमि-तल को,
दिन प्रथम आषाढ़ का में
'मेघ-चर' द्वारा बुलाता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
(2)
भूल जाता अस्थि-मज्जा-
मांसयुक्त शरीर हूँ मैं,
भासता बस-धूम्र संयुत
ज्योति-सलिल-समीर हूँ मैं,
उठ रहा हूँ उच्च भवनों के,
शिखर से और ऊपर,
देखता संसार नीचे
इंद्र का वर वीर हूँ मैं,
मंद गति से जा रहा हूँ
पा पवन अनुकूल अपने
संग है वक-पंक्ति, चातक-
दल मधुर स्वर गीत गाता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
(3)
झोपड़ी, ग्रह, भवन भारी,
महल औ' प्रासाद सुंदर,
कलश, गुंबद, स्तंभ, उन्नत
धरहरे, मीनार द्धढ़तर,
दुर्ग, देवल, पथ सुविस्तृत,
और क्रीड़ोद्यान-सारे,
मंत्रिता कवि-लेखनी के
स्पर्श से होते अगोचर
और सहसा रामगिरि पर्वत
उठाता शीशा अपना,
गोद जिसकी स्निग्ध छाया
-वान कानन लहलहाता!
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
(4)
देखता इस शैल के ही
अंक में बहु पूज्य पुष्कर,
पुण्य जिनको किया था
जनक-तनया ने नहाकर
संग जब श्री राम के वे,
थी यहाँ पे वास करती,
देखता अंकित चरण उनके
अनेक अचल-शिला पर,
जान ये पद-चिन्ह वंदित
विश्व से होते रहे हैं,
देख इनको शीश में भी
भक्ति-श्रध्दा से नवाता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
(5)
देखता गिरि की शरण में
एक सर के रम्य तट पर
एक लघु आश्रम घिरा बन
तरु-लताओं से सघनतर,
इस जगह कर्तव्य से च्युत
यक्ष को पाता अकेला,
निज प्रिया के ध्यान में जो
अश्रुमय उच्छवास भर-भर,
क्षीणतन हो, दीनमन हो
और महिमाहीन होकर
वर्ष भर कांता-विरह के
शाप के दुर्दिन बिताता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
(6)
था दिया अभिशाप अलका-
ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,
वर्ष भर का दंड सहकर
वह गया कबका स्वघर को,
प्रयेसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला
किन्तु शापित यक्ष
महाकवि, जन्म-भरा को!
रामगिरि पर चिर विधुर हो
युग-युगांतर से पडा़ है,
मिल ना पाएगा प्रलय तक
हाय, उसका शाप-त्राता!
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
(7)
देख मुझको प्राणप्यारी
दामिनी को अंक में भर
घूमते उन्मुकत नभ में
वायु के म्रदु-मंद रथ पर,
अट्टहास-विलास से मुख-
रित बनाते शून्य को भी
जन सुखी भी क्षुब्ध होते
भाग्य शुभ मेरा सिहाकर;
प्रणयिनी भुज-पाश से जो
है रहा चिरकाल वंचित,
यक्ष मुझको देख कैसे
फिर न दुख में डूब जाता?
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
(8)
देखता जब यक्ष मुझको
शैल-श्रंगों पर विचरता,
एकटक हो सोचता कुछ
लोचनों में नीर भरता,
यक्षिणी को निज कुशल-
संवाद मुझसे भेजने की
कामना से वह मुझे उठबार-
बार प्रणाम करता
कनक विलय-विहीन कर से
फिर कुटज के फूल चुनकर
प्रीति से स्वागत-वचन कह
भेंट मेरे प्रति चढा़ता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
(9)
पुष्करावर्तक घनों के
वंश का मुझको बताकर,
कामरूप सुनाम दे, कह
मेघपति का मान्य अनुचर
कंठ कातर यक्ष मुझसे
प्रार्थना इस भांति करता-
'जा प्रिया के पास ले
संदेश मेरा,बंधु जलधर!
वास करती वह विरहिणी
धनद की अलकापुरी में,
शंभु शिर-शोभित कलाधर
ज्योतिमय जिसको बनाता'
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
(10)
यक्ष पुनः प्रयाण के अनु-
रूप कहता मार्ग सुखकर,
फिर बताता किस जगह पर,
किस तरह का है नगर, घर,
किस दशा, किस रूप में है
प्रियतमा उसकी सलोनी,
किस तरह सूनी बिताती
रात्रि, कैसे दीर्ध वासर,
क्या कहूँगा,क्या करूँगा,
मैं पहुँचकर पास उसके;
किन्तु उत्तर के लिए कुछ
शब्द जिह्वा पर ना आता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
(11)
मौन पाकर यक्ष मुझको
सोचकर यह धैर्य धरता,
सत्पुरुष की रीति है यह
मौन रहकर कार्य करता,
देखकर उद्यत मुझे
प्रस्थान के हित,
कर उठाकर
वह मुझे आशीष देता-
'इष्ट देशों में विचरता,
हे जलद, श्री व्रिध्दि कर तू
संग वर्षा-दामिनी के,
हो न तुझको विरह दुख जो
आज मैं विधिवश उठाता!'
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
(महाकवि कालिदास के मेघदूत से साहित्यानुरागी संसार
भलिभांति परिचित है, उसे पढ़ कर जो भावनाएँ ह्रदय में
जाग्रत होती हैं, उन्हें ही मैंने निम्नलिखित कविता में
पद्यबध्द किया है भक्त गंगा की धारा में खड़ा होता है
और उसीके जल से अपनी अंजलि भरकर गंगा को समर्पित
कर देता है इस अंजलि में उसका क्या रहता है, सिवा उसकी
श्रध्दा के? मैंने भी महाकवि की मंदाक्रांता की मंद गति से
प्रवाहित होने वाली इस कविता की मंदाकिनी के बीच खड़े हो
कर, इसी में कुछ अंजलि उठाकर इसीको अर्पित किया है इसमें
भी मेरे अपनेपन का भाग केवल मेरी श्रध्दा ही है-हरिवंशराय बच्चन)