झरना : जयशंकर प्रसाद

Jharna : Jaishankar Prasad

1. परिचय

उषा का प्राची में अभ्यास,
सरोरुह का सर बीच विकास॥
कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध?
गगन मंडल में अरुण विलास॥


रहे रजनी मे कहाँ मिलिन्द?
सरोवर बीच खिला अरविन्द।
कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध?
मधुर मधुमय मोहन मकरन्द॥


प्रफुल्लित मानस बीच सरोज,
मलय से अनिल चला कर खोज।
कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध?
वही परिमल जो मिलता रोज॥


राग से अरुण घुला मकरन्द।
मिला परिमल से जो सानन्द।
वही परिचय, था वह सम्बन्ध
प्रेम का मेरा तेरा छन्द॥

2. झरना

मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी
न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी
मनोहर झरना।

कठिन गिरि कहाँ विदारित करना
बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी

कल्पनातीत काल की घटना
हृदय को लगी अचानक रटना
देखकर झरना।

प्रथम वर्षा से इसका भरना
स्मरण हो रहा शैल का कटना
कल्पनातीत काल की घटना

कर गई प्लावित तन मन सारा
एक दिन तब अपांग की धारा
हृदय से झरना-

बह चला, जैसे दृगजल ढरना।
प्रणय वन्या ने किया पसारा
कर गई प्लावित तन मन सारा

प्रेम की पवित्र परछाई में
लालसा हरित विटप झाँई में
बह चला झरना।

तापमय जीवन शीतल करना
सत्य यह तेरी सुघराई में
प्रेम की पवित्र परछाई में॥

3. अव्यवस्थित

विश्व के नीरव निर्जन में।

जब करता हूँ बेकल, चंचल,
मानस को कुछ शान्त,
होती है कुछ ऐसी हलचल,
हो जाता हैं भ्रान्त,

भटकता हैं भ्रम के बन में,
विश्व के कुसुमित कानन में।

जब लेता हूँ आभारी हो,
बल्लरियों से दान
कलियों की माला बन जाती,
अलियों का हो गान,

विकलता बढ़ती हिमकन में,
विश्वपति! तेरे आँगन में।

जब करता हूँ कभी प्रार्थना,
कर संकलित विचार,
तभी कामना के नूपुर की,
हो जाती झनकर,

चमत्कृत होता हूँ मन में,
विश्व के नीरव निर्जन में।

4. पावस-प्रभात

नव तमाल श्यामल नीरद माला भली
श्रावण की राका रजनी में घिर चुकी,
अब उसके कुछ बचे अंश आकाश में
भूले भटके पथिक सदृश हैं घूमते।

अर्ध रात्री में खिली हुई थी मालती,
उस पर से जो विछल पड़ा था, वह चपल
मलयानिल भी अस्त व्यस्त हैं घूमता
उसे स्थान ही कहीं ठहरने को नहीं।

मुक्त व्योम में उड़ते-उड़ते डाल से,
कातर अलस पपीहा की वह ध्वनि कभी
निकल-निकल कर भूल या कि अनजान में,
लगती हैं खोजनें किसी को प्रेम से।

क्लान्त तारकागण की मद्यप-मंडली
नेत्र निमीलन करती हैं फिर खोलती।
रिक्त चपक-सा चन्द्र लुढ़ककर हैं गिरा,
रजनी के आपानक का अब अंत हैं।

रजनी के रंजक उपकरण बिखर गये,
घूँघट खोल उषा में झाँका और फिर
अरुण अपांगों से देखा, कुछ हँस पड़ी,
लगी टहलने प्राची के प्रांगण में तभी ॥

5. किरण

किरण! तुम क्यों बिखरी हो आज,
रँगी हो तुम किसके अनुराग,
स्वर्ण सरजित किंजल्क समान,
उड़ाती हो परमाणु पराग।

धरा पर झुकी प्रार्थना सदृश,
मधुर मुरली-सी फिर भी मौन,
किसी अज्ञात विश्व की विकल-
वेदना-दूती सी तूम कौन?

अरुण शिशु के मुख पर सविलास,
सुनहली लट घुँघराली कान्त,
नाचती हो जैसे तुम कौन?
उषा के चंचल मे अश्रान्त।

भला उस भोले मुख को छोड़,
और चूमोगी किसका भाल,
मनोहर यह कैसा हैं नृत्य,
कौन देता सम पर ताल?

कोकनद मधु धारा-सी तरल,
विश्व में बहती हो किस ओर?
प्रकृति को देती परमानन्द,
उठाकर सुन्दर सरस हिलोर।

स्वर्ग के सूत्र सदृश तुम कौन,
मिलाती हो उससे भूलोक?
जोड़ती हो कैसा सम्बन्ध,
बना दोगी क्या विरज विशोक!

सुदिनमणि-वलय विभूषित उषा-
सुन्दरी के कर का संकेत-
कर रही हो तुम किसको मधुर,
किसे दिखलाती प्रेम-निकेत?

चपल! ठहरो कुछ लो विश्राम,
चल चुकी हो पथ शून्य अनन्त,
सुमनमन्दिर के खोलो द्वार,
जगे फिर सोया वहाँ वसन्त।

6. विषाद

कौन, प्रकृति के करुण काव्य-सा,
वृक्ष-पत्र की मधु छाया में।
लिखा हुआ-सा अचल पड़ा हैं,
अमृत सदृश नश्वर काया में।

अखिल विश्व के कोलाहल से,
दूर सुदूर निभृत निर्जन में।
गोधूली के मलिनांचल में,
कौन जंगली बैठा बन में।

शिथिल पड़ी प्रत्यंचा किसकीस
धनुष भग्न सब छिन्न जाल हैं।
वंशी नीरव पड़ी धूल में,
वीणा का भी बुरा हाल हैं।

किसके तममय अन्तर में,
झिल्ली की इनकार हो रही।
स्मृति सन्नाटे से भर जाती,
चपला ले विश्राम सो रही।

किसके अन्तःकरण अजिर में,
अखिल व्योम का लेकर मोती।
आँसू का बादल बन जाता;
फिर तुषार की वर्षा होती ।

विषयशून्य किसकी चितवन हैं,
ठहरी पलक अलक में आलस!
किसका यह सूखा सुहाग हैं,
छिना हुआ किसका सारा रस।

निर्झर कौन बहुत बल खाकर,
बिलखाला ठुकराता फिरता।
खोज रहा हैं स्थान धरा में,
अपने ही चरणों में गिरता।

किसी हृदय का यह विषाद हैं,
छेड़ो मत यह सुख का कण हैं।
उत्तेजित कर मत दौड़ाओ,
करुणा का विश्रान्त चरण हैं ॥

7. बालू की बेला

आँख बचाकर न किरकिरा कर दो इस जीवन का मेला।
कहाँ मिलोगे? किसी विजन में? - न हो भीड़ का जब रेला॥

दूर! कहाँ तक दूर? थका भरपूर चूर सब अंग हुआ।
दुर्गम पथ मे विरथ दौड़कर खेल न था मैने खेला।

कुछ कहते हो 'कुछ दुःख नही', हाँ ठीक, हँसी से पूछो तुम।
प्रश्न करो ढेड़ी चितवन से, किस किसको किसने झेला?

आने दो मीठी मीड़ो से नूपुर की झनकार, रहो।
गलबाहीं दे हाथ बढ़ाओ, कह दो प्याला भर दे, ला!

निठुर इन्हीं चरणों में मैं रत्नाकर हृदय उलीच रहा।
पुलकिल, प्लावित रहो, बनो मत सूखी बालू का वेला॥

8. चिह्न

इन अनन्त पथ के कितने ही, छोड़ छोड़ विश्राम-स्थान,
आये थे हम विकल देखने, नव वसन्त का सुन्दर मान।

मानवता के निर्जन बन मे जड़ थी प्रकृति शान्त था व्योम,
तपती थी मध्याह्न-किरण-सी प्राणों की गति लोम विलोम।

आशा थी परिहास कर रही स्मृति का होता था उपहास,
दूर क्षितिज मे जाकर सोता था जीवन का नव उल्लास।

द्रुतगति से था दौड़ लगाता, चक्कर खाता पवन हताश,
विह्वल-सी थी दीन वेदना, मुँह खोले मलीन अवकाश।

हृदय एक निःश्वास फेंककर खोज रहा था प्रेम-निकेत,
जीर्ण कांड़ वृक्षों के हँसकर रूखा-सा करते संकेत।

बिखरते चुकी थी अम्बरतल में सौरभ की शुचितम सुख धूल,
पृथ्वी पर थे विकल लोटते शुष्क पत्र मुरझाये फूल।

गोधूली की धूसर छवि ने चित्रपटी ली सकल समेट.
निर्मल चिति का दीप जलाकर छोड़ चला यह अपनी भेंट।

मधुर आँच से गला बहावेगा शैलों से निर्झर लोक,
शान्ति सुरसुरी की शीतल जल लहरी को देता आलोक।

नव यौवन की प्रेम कल्पना और विरह का तीव्र विनोद,
स्वर्ण रत्न की तरल कांति, शिशु का स्मित या माता की गोद।

इसके तल के तम अंचल में इनकी लहरों का लघु भान,
मधुर हँसी से अस्त व्यस्त हो, हो जायेगी, फिर अवसान॥

9. दीप

धूसर सन्ध्या चली आ रही थी अधिकार जमाने को,
अन्धकार अवसाद कालिमा लिये रहा बरसाने को।

गिरि संकट के जीवन-सोता मन मारे चुप बहता था,
कल कल नाद नही था उसमें मन की बात न कहता था।

इसे जाह्नवी-सी आदर दे किसने भेंट चढाया हैं,
अंचल से सस्नेह बचाकर छोटा दीप जलाया हैं।

जला करेगा वक्षस्थल पर वहा करेगा लहरी में,
नाचेगी अनुरक्त वीचियाँ रंचित प्रभा सुनहरी में,

तट तरु की छाया फिर उसका पैर चूमने जावेगी,
सुप्त खगों की नीरव स्मृति क्या उसको गान सुनावेगी।

देख नग्न सौन्दर्य प्रकृति का निर्जन मे अनुरागी हो,
निज प्रकाश डालेगा जिसमें अखिल विश्व समभागी हो।

किसी माधुरी स्मित-सी होकर यह संकेत बताने को,
जला करेगा दीप, चलेगा यह सोता बह जाते को॥

10. कब ?

शून्य हृदय में प्रेम-जलद-माला कब फिर घिर आवेगी?
वर्षा इन आँखों से होगी, कब हरियाली छावेगी?

रिक्त हो रही मधु से सौरभ सूख रहा है आतप हैं;
सुमन कली खिलकर कब अपनी पंखुड़ियाँ बिखरावेगी?

लम्बी विश्व कथा में सुख की निद्रा-सी इन आँखों में-
सरस मधुर छवि शान्त तुम्हारी कब आकर बस जावेगी?

मन-मयूर कब नाच उठेगा कादंबिनी छटा लखकर;
शीतल आलिंगन करने को सुरभि लहरियाँ आवेगी?

बढ़ उमंग-सरिता आवेगी आर्द्र किये रूखी सिकता;
सकल कामना स्रोत लीन हो पूर्ण विरति कब पावेगी?

11. स्वभाव

दूर हटे रहते थे हम तो आप ही
क्यों परिचित हो गये ? न थे जब चाहते-
हम मिलना तुमसे। न हृदय में वेग था
स्वयं दिखा कर सुन्दर हृदय मिला दिया

दूध और पानी-सी; अब फिर क्या हुआ-
देकर जो कि खटाई फाड़ा चाहते?
भरा हुआ था नवल मेघ जल-बिन्दु से,
ऐसा पवन चलाया, क्यों बरसा दिया?

शून्य हृदय हो गया जलद, सब प्रेम-जल-
देकर तुन्हें। न तुम कुछ भी पुलकित हुए।
मरु-धरणी सम तुमने सब शोषित किया।
क्या आशा थी आशा कानन को यही?

चंचल हृदय तुम्हारा केवल खेल था,
मेरी जीवन मरण समस्या हो गई।
डरते थे इसको, होते थे संकुचित
कभी न प्रकटित तुम स्वभाव कर दो कभी।

12. असंतोष

हरित वन कुसुमित हैं द्रुम-वृन्द;
बरसता हैं मलयज मकरन्द।
स्नेह मय सुधा दीप हैं चन्द,
खेलता शिशु होकर आनन्द।
क्षुद्र ग्रह किन्तु सुख मूल;
उसी में मानव जाता भूल।

नील नभ में शोभन विस्तार,
प्रकृति हैं सुन्दर, परम उदार।
नर हृदय, परिमित, पूरित स्वार्थस
बात जँजती कुछ नहीं यथार्थ।
जहाँ सुख मिला न उसमें तृप्ति,
स्वपन-सी आशा मिली सुषुप्ति।

प्रणय की महिमा का मधु मोद,
नवल सुषमा का सरल विनोद,
विश्व गरिमा का जो था सार,
हुआ वह लघिमा का व्यापार।
तुम्हारा मुक्तामय उपहार
हो रहा अश्रुकणों का हार।

भरा जी तुमको पाकर भी न,
हो गया छिछले जल का मीन।
विश्व भर का विश्वास अपार,
सिन्धु-सा तैर गया उस पार।
न हो जब मुझको ही संतोष,
तुम्हारा इसमें क्या हैं दोष?

13. प्रत्याशा

मन्द पवन बह रहा अँधेरी रात हैं।
आज अकेले निर्जन गृह में क्लान्त हो-
स्थित हूँ, प्रत्याशा में मैं तो प्राणहीन।
शिथिल विपंची मिली विरह संगीत से
बजने लगी उदास पहाड़ी रागिनी।
कहते हो- "उत्कंठा तेरी कपट हैं।"
नहीं नहीं उस धुँधले तारे को अभी-
आधी खुली हुई खिड़की की राह से
जीवन-धन! मैं देख रहा हूँ सत्य ही ।
दिखलाई पड़ता हैं जो तम-व्योम में,
हिचको मत निस्संग न देख मुझे अभी।
तुमको आते देख, स्वयं हट जायेगे-
वे सब, आओ, मत-संकोच करो यहाँ।
सुलभ हमारा मिलना हैं-कारण यही-
ध्यान हमारा नहीं तुम्हें जो हो रहा।
क्योंकि तुम्हारे हम तो करतलगत रहे
हाँ, हाँ, औरों की भी हो सम्वर्धना।
किन्तु न मेरी करो परीक्षा, प्राणधन!
होड़ लगाओ नहीं, न दो उत्तेजना।
चलने दो मयलानिल की शुचि चाल से।
हृदय हमारा नही हिलाने योग्य हैं।
चन्द्र-किरण-हिम-बिन्दु-मधुर-मकरन्द से
बनी सुधा, रख दी हैं हीरक-पात्र में।
मत छलकाओ इसे, प्रेम परिपूर्ण हैं ।

14. दर्शन

जीवन-नाव अँधेरे अन्धड़ मे चली।
अद्भूत परिवर्तन यह कैसा हो चला।
निर्मल जल पर सुधा भरी है चन्द्रिका,
बिछल पड़ी, मेरी छोटी-सी नाव भी।
वंशी की स्वर लहरी नीरव व्योम में-
गूँज रही हैं, परिमल पूरित पवन भी-
खेल रहा हैं जल लहरी के संग में।
प्रकृति भरा प्याला दिखलाकर व्योम में-
बहकाती हैं, और नदी उस ओर ही-
बहती हैं। खिड़की उस ऊँचे महल की-
दूर दिखाई देती हैं, अब क्यों रूके-
नौका मेरी, द्विगुणित गति से चल पड़ी।
किन्तु किसी के मुख की छवि-किरणें घनी,
रजत रज्जु-सी लिपटी नौका से वहीं,
बीच नदी में नाव किनारे लग गई।
उस मोहन मुख का दर्शन होने लगा।

15. हृदय का सौंदर्य

नदी की विस्तृत वेला शान्त,
अरुण मंडल का स्वर्ण विलास;
निशा का नीरव चन्द्र-विनोद,
कुसुम का हँसते हुए विकास।

एक से एक मनोहर दृश्य,
प्रकृति की क्रीड़ा के सब छंद;
सृष्टि में सब कुछ हैं अभिराम,
सभी में हैं उन्नति या ह्रास।

बना लो अपना हृदय प्रशान्त,
तनिक तब देखो वह सौन्दर्य;
चन्द्रिका से उज्जवल आलोक,
मल्लिका-सा मोहन मृदुहास।

अरुण हो सकल विश्व अनुराग
करुण हो निर्दय मानव चित्त;
उठे मधु लहरी मानस में
कूल पर मलयज का हो वास।

16. होली की रात

बरसते हो तारों के फूल
छिपे तुम नील पटी में कौन?
उड़ रही है सौरभ की धूल
कोकिला कैसे रहती मीन।

चाँदनी धुली हुई हैं आज
बिछलते है तितली के पंख।
सम्हलकर, मिलकर बजते साज
मधुर उठती हैं तान असंख।

तरल हीरक लहराता शान्त
सरल आशा-सा पूरित ताल।
सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त
बिछा हैं सेज कमलिनी जाल।

पिये, गाते मनमाने गीत
टोलियों मधुपों की अविराम।
चली आती, कर रहीं अभीत
कुमुद पर बरजोरी विश्राम।

उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय
अरे अभिलाषाओं की धूल।
और ही रंग नही लग लाय
मधुर मंजरियाँ जावें झूल।

विश्व में ऐसा शीतल खेल
हृदय में जलन रहे, क्या हात!
स्नेह से जलती ज्वाला झेल
बना ली हाँ, होली की रात॥

17. रत्न

मिल गया था पथ में वह रत्न।
किन्तु मैने फिर किया न यत्न॥

पहल न उसमे था बना,
चढ़ा न रहा खराद।
स्वाभाविकता मे छिपा,
न था कलंक विषाद॥

चमक थी, न थी तड़प की झोंक।
रहा केवल मधु स्निग्धालोक॥
मूल्य था मुझे नही मालूम।
किन्तु मन लेता उसको चूम॥

उसे दिखाने के लिए,
उठता हृदय कचोट।
और रूके रहते सभय,
करे न कोई खोट॥

बिना समझे ही रख दे मूल्य।
न था जिस मणि के कोई तुल्य॥
जान कर के भी उसे अमोल।
बढ़ा कौतूहल का फिर तोल॥

मन आग्रह करने लगा,
लगा पूछने दाम।
चला आँकने के लिए,
वह लोभी बे काम॥

पहन कर किया नहीं व्यवहार।
बनाया नही गले का हार॥

18. कुछ नहीं

हँसी आती हैं मुझको तभी,
जब कि यह कहता कोई कहीं-
अरे सच, वह तो हैं कंगाल,
अमुक धन उसके पास नहीं।

सकल निधियों का वह आधार,
प्रमाता अखिल विश्व का सत्य,
लिये सब उसके बैठा पास,
उसे आवश्यकता ही नही।

और तुम लेकर फेंकी वस्तु,
गर्व करते हो मन में तुच्छ,
कभी जब ले लेगा वह उसे,
तुम्हारा तब सब होगा नहीं।

तुम्हीं तब हो जाओगे दीन,
और जिसका सब संचित किए,
साथ बैठा है सब का नाथ,
उसे फिर कमी कहाँ की रही?

शान्त रत्नाकर का नाविक,
गुप्त निधियों का रक्षक यक्ष,
कर रहा वह देखो मृदु हास,
और तुम कहते हो कुछ नहीं।

19. कसौटी

तिरस्कार कालिमा कलित हैं,
अविश्वास-सी पिच्छल हैं।
कौन कसौटी पर ठहरेगा?
किसमें प्रचुर मनोबल है?

तपा चुके हो विरह वह्नि में,
काम जँचाने का न इसे।
शुद्ध सुवर्ण हृदय है प्रियतम!
तुमको शंका केवल है॥

बिका हुआ है जीवन धन यह
कब का तेरे हाथो मे।
बिना मूल्य का , हैं अमूल्य यह
ले लो इसे, नही छल हैं।

कृपा कटाक्ष अलम् हैं केवल,
कोरदार या कोमल हो।
कट जावे तो सुख पावेगा,
बार-बार यह विह्वल हैं॥

सौदा कर लो बात मान लो,
फिर पीछे पछता लेना।
खरी वस्तु हैं, कहीं न इसमें
बाल बराबर भी बल हैं ॥

20. अतिथि

दूर हटे रहते थे हम तो आप ही
क्यों परिचित हो गये ? न थे जब चाहते-
हम मिलना तुमसे। न हृदय में वेग था
स्वयं दिखा कर सुन्दर हृदय मिला दिया

दूध और पानी-सी; अब फिर क्या हुआ-
देकर जो कि खटाई फाड़ा चाहते?
भरा हुआ था नवल मेघ जल-बिन्दु से,
ऐसा पवन चलाया, क्यों बरसा दिया?

शून्य हृदय हो गया जलद, सब प्रेम-जल-
देकर तुन्हें। न तुम कुछ भी पुलकित हुए।
मरु-धरणी सम तुमने सब शोषित किया।
क्या आशा थी आशा कानन को यही?

चंचल हृदय तुम्हारा केवल खेल था,
मेरी जीवन मरण समस्या हो गई।
डरते थे इसको, होते थे संकुचित
कभी न प्रकटित तुम स्वभाव कर दो कभी।

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