जय भारत निवेदन : मैथिलीशरण गुप्त

Jai Bharat Nivedan : Maithilisharan Gupt

निवेदन

अर्द्ध शताब्दि होने आई, जब मैंने ‘जयद्रथ-वध’ का
लिखना प्रारम्भ किया था। उसके पश्चात् भी बहुत दिनों
तक महाभारत के भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर मैंने अनेक
रचनाएँ कीं। उन्हें लेकर कौरव-पाण्डवों की मूल कथा
लिखने की बात भी मन में आती रही परन्तु उस प्रयास
के पूरे होने में सन्देह रहने से वैसा उत्साह न होता था।

अब से ग्यारह-बारह वर्ष पहले पर-शासन के विद्वेष्टा के
रूप में जब मुझे राजवन्दी बनना पड़ा, तब कारागार में
ही सहसा वह विचार संकल्प में परिणत हो गया काम
भी हाथ में ले लेने से इस पर पूरा समय न लगा सका।
आगे भी अनेक कारणों से क्रम का निर्वान न कर सका।

एक अतिरिक्त बाधा और आ गई। अपनी जिन पूर्व-कृतियों
के सहारे यह काम सुविधापूर्वक कर लेने की मुझे आशा
थी। वह भी पूरी न हुई। ‘जयद्रथ-वध’ से तो मैं कुछ भी
न ले सका। युद्ध का प्रकरण मैंने और ही प्रकार से लिखा।
अन्य रचनाओं में भी मुझे बहुत हेर-फेर करने पड़े। कुछ
तो नये सिरे से पूरी की पूरी फिर लिखनी पड़ी तथापि
इससे अन्त में मुझे सन्तोष ही हुआ और इसे मैंने अपनी
लेखनी का क्रम विकास ही समझा।

जिन्हें अपने लेखों में कभी कुछ परिवर्तन करने की
आवश्यकता नहीं जानपड़ती, उनके मानसकि विकास
की पहले ही इतिश्री हो चुकी होती है। अन्यथा एक
अवस्था तक मनुष्य की बुद्धि पोषण प्राप्त करती है,
नये-नये अनुभव और विचार आते रहते हैं और अपनी
सीमाओं में अनुशीलन भी वृद्धि पाता है। द्रष्टाओं की
दूसरी बात है। परन्तु मेरे ऐसे साधारण जन के लिए
यह स्वाभाविक ही है। कुछ दिन पूर्व गुरुदेव रवीन्द्रनाथ
ठाकुर की एक पाण्डुलिपि के कुछ पृष्ठों के प्रतिबिम्ब
प्रकाशित हुए थे। उनमें अनेक स्थलों पर काट-कूट
दिखाई देती थी। यह अलग बात है कि उनकी काट-कूट
में भी चित्रणकला फूट उठती थी।

किसी समय हमारे मन में कोई भाव ऐसे सूक्ष्म रूप में
आता है कि उसे हम ठीक ठीक पकड़ नहीं पाते। आगे
स्पष्ट हो जाने की आशा से उसे जैसे तैसे ग्रहण कर
लेना पड़ता है। कभी किसी भाव को प्रकट करने के
लिए उसी समय उपयुक्त शब्द नहीं उठते। आपबीती
ही कहूँ। कुणाल का एक गीत मैं लिख रहा था। उसकी
टेक यों बनी-

नीर नीचे से निकलता-देख लो यह रहँट चलता।

लिखने के अनन्तर भी जैसे लिखना पूरा नहीं लगा।
सोचना भी नहीं रुका। तब इस प्रकार परिवर्तन हुआ-

तोय तल से ही निकलता।
‘नीचे से’ के स्थान पर ‘तल से’
ठीक हुआ जान पड़ा, तथापि चिन्तन शान्त नहीं हुआ !
अन्त में

तत्त्व तल से ही निकलता।
वन जाने पर ही सन्तोष हुआ। अस्तु।

अपने पात्रों का आलेखन मैं कैसा कर सका, इस सम्बन्ध
में मुझे कुछ नहीं कहना है। वह पाठकों के सम्मुख है।
उसके विषय में स्वयं पाठक जो कुछ कहेंगे, उसे सुनने
के लिए मैं अवश्य प्रस्तुत रहूँगा। इस समय तो उनकी
सेवा में यही निवेदन है कि वे कृपा कर मेरा अभिवादन
स्वीकार करें-जय भारत !

मैथिलीशरण

जय भारत

‘‘जीवन-यशस्-सम्मान-धन-सन्तान सुख मर्म के;
मुझको परन्तु शतांश भी लगते नहीं निज धर्म के !
(युधिष्ठिर)

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