जाल समेटा : हरिवंशराय बच्चन

Jaal Sameta : Harivansh Rai Bachchan

1. रक्त की लिखत

क़लम के कारखाने हैं,
स्याही की फैक्टरियां हैं
(जैसे सोडावाटर की)
काग़ज़ के नगर हैं ।

और उनका उपयोग-दुरुपयोग
सिखाने के
स्कूल हैं,
कालेज हैं,
युनिवर्सिटियां हैं ।

और उनकी पैदावार के प्रचार के लिए
दुकानें हैं,
बाज़ार हैं,
इश्तहार हैं,
अख़बार हैं ।

और लोग हैं कि आँखें उठाकर उन्हें देखते भी नहीं,
उनके इतने अभ्यस्त हैं,
उनसे इतने परिचित हैं,
इतने बेज़ार हैं ।

पर अब भी एक दीवार हैं
जिस पर
अपने ख़ून में अपनी उँगली डबोकर
एक
सीधी
खड़ी
लकीर
खींच सकने वाले का
एक दुनिया को इंतज़ार है ।

2. रक्षात्मक आक्रमण

जंगल के तो नियम
नहीं परिवर्तित होते-
जंगल चाहे देवदार का हो
कि सभ्यता का जंगल हो ।

'जंगल में मंगल'
तो तुक की सिर्फ़ चुहल भर,
पर जंगल में
सदा रहा है,
सदा रहेगा,
ज़बरदस्त का ठेंगा सिर पर ।

और सभ्यता के जंगल में---
यह विकास की दिशा मान लें-
अन्तर करना मुश्किल होगा
पशु-नर बल में,
नर-पशु छल में ।
अर्द्ध रात्रि के
महामौन, महदांधकार में
एक माँद से
पंचानन चुपचाप निकलता,
मूक, दबे पाँवों से चलता-

गर्जन-तर्जन तो गंवार सिंहों की माषा-
और एक भोले-से मृग को देख उछलता
उसके ऊपर,
पटक उसे देता है भू पर,
औ' उसके छटपटा रहे अंगों को पंजों दाब
कान में उसके कहता-
'प्राण न लूंगा;
बस, लेटा रह भार ज़रा-सा मेरा सहता,
मैं तो तेरी रक्षा करने को आया हूं,
तुझे न मैं हथिया लेता तो
शायद बाहर आकर वह तुझको खा जाता
जो पड़ोस के झंखाड़ों से
ताक लगाए तुझपर रहता ।
धन्यवाद दे मुझको, मर्दे !'

नि:सहाय मृग प्रश्न करे क्या ?
क्या उत्तर दे ?
डरपाई-सी पौ फूटी है;
दृश्य देखकर
घबराए-से कौओं के दल
उचक फुनगियों पर,
औचक, भौचक उड़-उड़कर आसमान में
ज़ोर-ज़ोर से
मचा रहे हैं शोर-
'ज़ोर!' 'ज़ोर!' 'ज़ोर!'-
बाक़ी सब चुप
क्योंकि सभी की
कहीं दबी है कोर ।

3. चेक आत्मदाही

.........................
.........................
अपने दुख, संकट, त्रास, प्यास, पीड़ा से
छुट्टी पाने को ?
या पीछा करते किसी भयानक सपने से ?-
संघर्ष नहीं कर सकता है वह, क्योंकि,
जगत से, जीवन से या अपने से?-
जी नहीं ।

अगर इतिहास
राष्ट्र को जकड़ इस तरह लेता है
उसके संघर्षण करने,
हिल-डुल सकने की भी शक्ति
व्यर्थ कर देता है-
छा जाता है अवसाद-अंधेरा
जन-जन के मन प्राणों पर-
म्रियमान जाति यदि नहीं---
एक सबका प्रतिनिधि बन उठे
स्वयं बनकर मशाल
विद्रोह और विश्वास, आग बाक़ी है,
बतला दे-
ऐसी मर्यादा है।

तू अपनी नियति निभाता है,
पालाच, तुझे मेरा प्रणाम,
मेरे स्वजनों, पुरखों,
मेरी बलिदानी परम्पराओं का;
तू आत्मघात कर
दलित राष्ट्र के,
दलित जाति के
नव जीवन का उपोद्घात कर जाता है ।
.........................
.........................

4. अग्निदेश

नहीं--
मैं यह आश्वासन नहीं दे सकूँगा
कि जब इस आग-अंगार
लपटों की ललकार,
उत्तप्त बयार,
क्षार-धूम्र की फूत्कार
को पार कर जाओगे
तो निर्मल, शीतल जल का सरोवर पाओगे,
जिसमें पैठ नहाओगे,
रोम-रोम जुड़ाओगे
अपनी प्यास बुझाओगे ।
नहीं--
इस आग-अंगार के पार भी
आग होगी, अंगार होंगे,
और उनके पार फिर आग-अंगार,
फिर आग-अंगार,
फिर और...
तो क्या छोर तक तपना-जलना ही होगा
नहीं-
इस आग से त्राण तब पाओगे
जब तुम स्वयं आग बन जाओगे !

5. रावण-कंस

रावण और कंस को
एक दूसरे को गाली देते,
एक दूसरे पर दाँत पीसते,
एक दूसरे के सामने खड़े होकर ताल ठोंकते
देखकर बहुत खुश न हो
कि अच्छा है साले आपस ही में कट मरेंगे।

मसीहाई का दावा नहीं करूँगा,
पर दुनिया को मैंने जैसे देखा-जाना है,
दुमुहीं, दुरुखी, दुरंगी,
उससे इतनी मसीहाई तो करना ही चाहूंगा
कि रावण और कंस
अगर आपस में लड़ मरेंगे
तो किसी दिन
राम और कृष्ण आपस में लड़ेंगे ।

6. नेतृत्व का संकट

अखिल भारतीय स्तर के अब
अमृतोद्भव उच्चै:श्रवा-सुरपति के वाहन-
स्वप्न हो गए-
धरती पर पग धरें
कि जैसे तपते आहन पर धरते हों,
जल पर ऐसे चलें
कि जैसे थल पर चलते-
वायु-वेग से टाप न डूबें-
और गगन में उड़ें
एक पर्वत-चोटी को छोड़
दूसरे पर्वत की चोटी पर जैसे
झंझा से प्रेरित बादल हों;
और नहीं चेतक भी,
जो हो रणोन्मत्त, उद्धत, उदग्र-चंचल अयाल-
उछलें
गयंद के मस्तक पर
टापों को धर दें;
और देश का दबा हुआ इतिहास
बाँस ऊपर उठ जाए;
लगा प्राण की बाज़ी नदी लांघें,
स्वामी की रक्षा में
बलि हो जाएँ ।
अब भारत के चक्करवाले रेस कोर्स में
खण्ड-खण्ड, उप खण्ड-खण्ड के
अपने-अपने मरियल घोड़े,
हड़ियल खच्चर,
अड़ियल टट्टू,
लद्धड़ गदहे,
जिनपर गांठे हुए सवारी हैं
अनाम, अनजाने जाकी,
जो जपने स्वामी जुआरियों की बाज़ी पर
सुटुक-सुटुक उनको दौड़ाते;
हार-जीत से उन्हें ग़रज़ क्या;
उनके वाहन अपना दाना-भूसा पाते,
वे अपनी तनख्वाहें पाते !

7. दिल्ली की मुसीबत

दिल्ली भी क्या अजीब शहर है !
यहाँ जब मर्त्य मरता है-विशेषकर नेता-
तब कहते हैं, यह अमर हो गया-
जैसे कविता मरी तो अ-कविता हो गई-
बापू जी मरे तो इसने नारा लगाया,
बापू जी अमर हो गए ।
अमर हो गए
तो उनकी स्मृति को अमर करने के लिए चाहिए
एक समाधि,
एक यादगार !

दिल्ली भी क्या मज़ाकिया शहर है !
जो था नंग रंक,
राजसी ठाट से निकाला गया उसकी लाश का जलूस;
जिसके पास न थी झंझी कौड़ी, फूटा दाना,
उसके नाम पर खोल दिया गया ख़ज़ाना;
(गाँधी स्मारक निधि);
जिसका था फ़कीरी ठाट,
उसकी समाधि का नाम है राजघाट ।

फिर नेहरु जी अमर हो गए ।
अमर हो गए तो उनके लिए भी चाहिए
एक समाधि,
एक यादगार-
खुद गाँधी जी ने माना था अपनी गद्दी पर
उनका उत्तराधिकार-
फिर वे स्वतन्त्र भारत के पहले प्रधान मन्त्री थे आख़िरकार-
जो उनका निवास था
वही उनका स्मारक बना दिया गया-तीन मूरती भवन-,
समाधि को नाम दिया गया 'शान्ति वन',
आबाद रहे जमुना का कछार ।

फिर लाल बहादुर शास्त्री अमर हो गए।
अमर हो गए तो उनके लिए भी चाहिए
एक समाधि,
एक यादगार-
वे स्वतन्त्र भारत के ग़रीब जनता से उभरे,
पहले प्रधान मन्त्री थे-
(इसीसे उन्होंने शून्य इकाई और एक दहाई के
जनपथ को अपना निवास बनाया था ।-
टेन डाउनिंग स्ट्रीट पर
ब्रिटेन के प्रधान मन्त्री का निवास
तो न कहीं अवचेतन में समाया था ?)
पहले विजेता प्रधान मन्त्री तो थे ही,
इसीसे उनकी समाधि का नाम विजय घाट हुआ,
ललिता जी के इसरार को दुआ;
राजघाट को अपना साथी मिला,
आख़िर दो अक्टूबर को उनका जन्म भी तो था हुआ।
स्मारक उनका अभी तक नहीं बना; बनना चाहिए ।
हरी बहादुर को अपने पिता का उत्तराधिकार मिलता
तो यह काम बड़ी आसानी से हो जाता,
गो दोनों बातों में ज़ाहिरा कोई नहीं नाता ।
कूछ काम मजबूरन करना पड़ता है ।
जिस मकान में सिर्फ़ अठारह महीने प्रधान मन्त्री रहकर
वे अमर हो गए
उस मनहूस मकान में भी प्रधान मन्त्री,
कोई मन्त्री,
कोई हाकिम क्यों रहने लगा ।
दस जनपथ है सालों से खाली पड़ा ।
क्यों न उसमें शास्त्री भी का स्मारक कर …दिया जाए खड़ा ।
उनकी धोती, टोपी, रजाई, चारपाई का उपयोग
हो सकता है बड़ा;
देश के ग़रीब युवकों को प्रधान मन्त्री पद तक
प्रेरित करने के लिए ।

औ' हमारी वर्तमान प्रधान मन्त्री कभी अमर हुईं
(भगवान करें वे कभी न हों । )
तो उनके लिए भी एक समाधि,
एक यादगार बनानी होगी ही ।
आख़िर वे स्वतन्त्र भारत की पहली महिला प्रधान मन्त्री हैं ।
समाधि का नाम होगा शायद महिला-उद्यान--
वन की लाडली संतान-
स्मारक होगा एक सफ़दरजंग का उनका निवास स्थान
प्रदर्शित करने को मिल ही जाएगा उनका बहुत-सा सामान-
साड़ी,
जम्पर,
सिंगारदान;
चुनाव के दौरान उनकी नाक पर पड़ा पाषाण;
अन्न-संकट के समय उनके लान में बोया,
उनके कर-कमलों से काटा गया धान;
और बड़ी यादगारों के और बड़े उपादान ।
विविधतायों से भरे अपने देश में
हर एक प्रधान मन्त्री को
किसी न किसी हिसाब से पहला स्थान
दे सकना होगा कितना आसान,
सब को करना होगा महत्त्व प्रदान,
सब के लिए बनानी होगी समाधि,
सब की बनानी होगी यादगार,
सब के नाम पर छोड़े जाते रहेंगे मकान
जैसे पहले छोड़े जाते थे साँड-
सब के नाम पर लगाए जाते रहेंगे
वन, उद्यान, पार्क ।
कहां तक खींचा जा सकेगा जमुना का कछार ।

इसलिए, हे भगवान,
तुमसे एक प्रार्थना,
भारत का हर प्रधान मन्त्री
सौ-सौ बरस तक अपनी गद्दी पर रहे बना,
क्योंकि हरेक अमर होकर अगर घेरेगा
कई-कई वर्गमील,
दिल्ली बेचारी इतनी ज़मीन कहाँ से लाएगी !
बदक़िस्मत आख़िर को
समाधि और स्मारकों की नगरी बन के रह जाएगी !

8. संघर्ष-क्रम

एक दिन इंसान को संघर्ष करना पड़ा था
अपने को बचाने को
अंध प्रकृति के आघातों से-
बर्फ़ीली, काटती-सी बयारों से,
गर्दीली, मुँह नोचती-सी लूओं से,
छर्रे बरसाती बौछारों से
जंगलों से, दलदलों से, नदियों-
प्रपातों से।

एक दिन इंसान को संघर्ष करना पड़ा था ।
अपने को बचाने को
सरी-सृप, परिंदों औ' दरिंदों से-
गोजर, बिच्छु, सर्पों से,
गरुड़ों से, गिद्धों से,
लकड़बग्घों, कुत्तों से,
भेड़ियों से, चीतों से,
सिंहों से।

एक दिन इंसान को संघर्ष करना पड़ा था
अपने को बचाने को
राजाओं, शाहों, सुल्तानों से,
हमलावर खड़्गधर लुटेरों से,
शोषण पर तुले धनकुबेरों से,
संप्रदाय, रुढ़ि, रीति के
स्वयं-नियुक्त ठेकेदारों से,
निर्दय बटमारों से ।

एक दिन इंसान को संघर्ष करना पड़ा था
अपने को बचाने को
आदम की आदमी कहलाती औलादों से-
तर्क-लुप्त, लक्ष्य-भ्रष्ट भीड़ों से-
संज्ञा-व्यक्तित्वहीन कीड़ों से,-
अस्त्र-शस्त्र-यन्त्र बने जीवों से-
शासन में आत्महीन पुरजों से, क्लीवों से-
और जन्तुयों से जो
नेता, निर्णायक, जननायक, विधायक का
स्वांग भर निकलते थे
मन्त्रालय, न्यायालय, सचिवालय,
संसद की मांदों से ।

9. सन् 2068 की हिंदी कक्षा में

..बड़ा दुःख,
दुर्भाग्य बड़ा है !
इन कवि का केवल
अभिनन्दन ग्रन्थ प्राप्य है ।
कोई पुस्तक नहीं, किसी पुस्तकागार,
अभिलेखालय में;
और किसी को याद नहीं,
दो-चार पंक्तियाँ भी
इन कवि की ।
कितने नकली, कितने छिछले
और गलत मूल्यों का
होगा युग वह
जिसमें,
जिसके साथ
राष्ट्रपति और
वजीरे आजम
औ’ नेतागण
भारी-भरकम
अपने फोटो
खिचवाने को
लुलुवाते थे,
उनकी कोई
रचना नहीं
ख़रीदा या
बांचा करते
थे-

कहाँ देश-सेवा, समाज-सेवा से
उनको
दम लेने
की फुरसत
होगी-
औ’ उनकी
सेवा लेने
में
और प्रशंसा
और चाटुकारी
उनकी करने
में लिपटी
रहती होगी
जनता सारी
कुछ अपने
मतलब की
बात करा
लेने में
किसे दिशा
दे सकती
होगी
हिंदी की
कविता दयमारी !

10. मेरा संबल

मैं जीवन की हर हल चल से
कुछ पल सुखमय,
अमरण-अक्षय,
चुन लेता हूँ।

मैं जग के हर कोलाहल में
कुछ स्वर मधुमय,
उन्मुक्त-अभय,
सुन लेता हूँ।

हर काल कठिन के बन्धन से
ले तार तरल
कुछ मुद-मंगल
मैं सुधि-पट पर
बुन लेता हूँ।

11. शरद् पूर्णिमा

पूरे चाँद की यह रात,
जैसे भूमि को हो
स्वर्ग की सौगात ।

पुलकित-से धरा के प्राण
सौ-सौ भावनायों से
अगम-अज्ञात ।
पूरे चाँद की यह रात ।

धरती तो अधूरी
सब तरह से,
सब तरफ़ से,
अंजली में धार
प्रत्युपहार क्या
ऊपर उठाए हाथ !
पूरे चाँद की यह रात ।

12. ...नई दिल्ली किसकी है?

यों तो यह राजधानी है,
यहाँ राष्ट्रपति रहते हैं,
प्रधान मन्त्री,
राज मन्त्री, उप मन्त्री
दर्जे-ब-दर्जे सचिव,
अफ़सर-अहलकार-ओहदेदार,
अख़बार-नवीस, सेठ-साहूकार ,
कवि, कलाकार, साहित्यकार,
जिनके नाम, कारनामों से
दिनभर
पथ-पथ, मार्ग-मार्ग ध्वनित,
गली-गली
गुंजित रहती है
पर नवम्बर की इस आधी रात की
नई दिल्ली तो
चाँद की है,
चाँदनी की है,
रातरानी की है,
और उस पखेरू की
जिसकी अकेली, दर्दीली आवाज़
राष्ट्रपति भवन के गुम्बद से लेकर
संसद-सचिवालयों पर होती
पुराने क़िले के मेहराबों तक गूँजती है,
और न जाने किससे,
न जाने क्या कहती है!
और उस नींद-हराम अभागे की भी,
जो उसे अनकती है ।

13. रेखाएँ

हस्तरेखाविदो, तुमने
देखकर मेरी हथेली
कह दिया है,
बन सका जो मैं,
किया जो प्राप्त मैंने,
बन सका जो नहीं,
अनपाया रहा जो,-
सब विधाता ने प्रथम ही लिख रखा था
खींच मेरे हाथ पर संकेत-गर्भित कुछ लकीरें।

पर समय ने
अनुभवों की झुर्रियों में
जो लिखा है
भाल पर भी,
गाल पर भी;
और मैंने कष्ट-संकट की घड़ी में,
ज़िन्दगी के बहुत नाजुक अवसरों पर
परेशानी, हलाकानी के क्षणों में,
रेख-राशि
दिमाग़ पर खींची-खरोंची जो
कि जैसे कील नोकीली चलाई जाय
बल-पूर्वक शिला पर;
.....................
.....................

14. एक पावन मूर्ति
(केवल वयस्‍कों के लिए)

तीर्थाधिराज
श्री जगन्‍नाथ जी की मंदिर की चौकी में
जो मिथुन मूर्तियाँ लगी हुई
मैं उन्‍हें एक जगह पर ठिठका हूँ-

प्राकृतिक नग्‍नता की सुषमा में ढली हुई
नारी घुटतनों के बल बैठी;
उसकी नंगी जंघा पर नंगा शिशु बैठा,
अपने नन्‍हें-नन्‍हें, सुकुमार,
अपरिभाषित सुख अनुभव करते हाथों से
अपनी जननी के पीन पयोधर को पकड़े,
ऊपर मुँह कर
दुद्ध पीता-
अधरों में जैसे तृषा दुग्‍ध की
तृष्‍णा स्‍तन की तरस परस की तृप्‍त हुई
भोली-भाली, नैसर्गिक-सी मुस्‍कान बनी
गालों, आँखों,पलकों, भौहों से छलक रही।
(मातृत्‍व-सफलता मूर्तित देखी और कहीं?)
प्राकृतिक नग्‍नता के तेजस में ढला हुआ
नर पास खड़ा;
नग्‍ना नारी
अपने कृतज्ञ, कामनापूर्ण, कोमल, रोमांचित हाथों से
पति-पुष्‍ट दीर्घ-दृढ़ शिश्‍न दंड क्रियाएँ पकड़,
हो उर्ध्‍वमुखी,
अपने रसमय अधरों से पीती,
अधरामृत-मज्जित करती-
मुख-मुद्रा से बिंबित होता
वह किस, कैसे, कितने सुख का
आस्‍वादन इस पल करती है!-
(पल काल-चाल में जो निश्‍चल)।
(जब कला पकड़ती ऐसे क्षण,
उसके ऊपर,
सच मान,
अमरता मरती है)

नवयुवक नग्‍न
जैसे अपना संतोष और उल्‍लास
चरम सीमा तक पहुँचा देने को,
अपने उत्थित हाथों से पकड़ सुराही,
मदिरा से पूऋत,
मधु पीता है-आनंद-मग्‍न!
(लगता जिस पर यह घटता
वह कृतकृत्‍य मही।)
ईर्ष्‍या न किसे उससे
जो ऊपर से नीचे तक
ऐसा जीवन जिया
कि ऐसा जीता है।

(हर सच्‍चा-सीधा कलाकार
अभिव्‍यक्‍त वही करता
जो वह जीता,
जो उसपर बीता है।)
इस मूर्तिबंध का कण-कण
कैसी जिजीविषा घोषित करता!
यह जिजीविषा, या जो कुछ भी,
उसको मैं अपने पूरे तन, पूरे मन, पूरी वाणी से
नि:शंक समर्थित, अनुमोदित, पोषित करता।
अमृत पीकर के नहीं,
अमर वह होता है,
पा मर्त्य देह,
जो जीवन-रस हर एक रूप,
हर एक रंग में
छककर, जमकर पीता है।
इतने में ही कवि की सारी रामायाण,
सारी गीता है।

'मधुशाला' का पद एक
अचानक कौंध गया कानों में-
'नहीं जानता कौन, मनुज
आया बनका पीनेवाला?
कौन, अपरिचित उस साक़ी से
जिसने दूध पिला पाला?
जीवन पाकर मानव पीकर
मस्‍त रहे इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले
पाई उसने मधुशाला।'

क्‍या इसी भाव पर आधारित यह मूर्ति बनी?
क्‍या किसी पुरातन पूर्व योनि में
मैंने ही यह मूर्ति गढ़ी?
प्रस्‍थापित की इस पावनतम देवालय में,
साहस कर, दृढ़ विश्‍वास के लिए-
कोई समान धर्मा मेरा
तो कभी जन्‍म लेगा
जो मुझको समझेगा?

यदि मूर्ति देख यह
तेरी आँखें नीचे को गड़तीं
लगती है तुझे शर्म,
(जीवन के सबसे गहरे सत्‍य
प्रतीकों में बोला करते।)
तो तुझे अभी अज्ञात
कला का,
जीवन का,
धर्म का,
मूढ़मति,
गूढ़ मर्म।

15. विजयानगरम् की सुराही

यह मत्स्याकार सुराही
मिट्टी की
मैं विजयानगरम् से ले आया हूँ ।

यह मिट्टी की मछली कहती--
मैं जड़ होकर भी
कला-प्राण हूँ,
ज्ञानी हूँ।
जीवित मछली
तो पानी के भीतर बसकर भी
पानी को अपने से बाहर रखती है,
बस इसीलिए
वह पानी से बाहर आते ही मरती है ।
पानी से बाहर
मैं थी दुहरी मरी हुई
पर अब जीवन-धारिणी,
क्योंकि अब अन्दर रक्खे पानी हूँ ।

16. अकादमी पुरस्कार

"जिसने 'सार्त्र के नोबेल पुरस्कार ठुकरा देने पर' कविता
लिखी थी उसे चाहिए था कि वह अकादमी पुरस्कार ठुकरा
देता'"---कै.

सार्त्र के सामने गिरा एक फुटबाल
तो उन्होंने ऐसी किक मारी
कि देखती रह गई दुनिया सारी,
मैंने भी प्रशंसा में देर तक बजायी ताली;
एक रहीं मौन
तो सिमोन-दि-बुआ ।

मेरे मामने गिरा एक पिंग-पांग का बाल
तो मैंने उसे उठाया
और जेब में लिया डाल ।

कुछ मित्र और कुछ शत्रु
हुए निराश,
क्योंकि उन्हें थी आस
कि मैं भी पिंग-पांग के बाल को किक लगाऊँगा-
यानी अपना उपहास कराऊँगा ।

प्रतिभा के अनुकरन से भी होता है
कुछ अधिक उपहासास्पद?
एक मैं ही रह गया था कराने को अपनी भद ?
कमर में घड़ी
तो पंडित सुन्दरलाल ने भी बाँधी।
हो गए गाँधी ?
कोई सार्त्र की बराबरी करेगा
तो सृजन को उन्हीं की तरह निखारकर,
न कि उनकी तरह किक मारकर ।

कुछ जल्दबाज़ी,
कुछ नाराज़ी,
कुछ प्रदर्शन-प्रियता में
यह भी मैं कर सकता था,
पर भगवान की दुआ,
जो सुन रहा हूँ,
'देखने हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ ।'

17. प्रेम की मंद मृत्यु

................
................
लेकिन वह धागा अब काल-जीर्ण,
शक्ति-क्षीण,
सड़ा-गला;
हिलो नहीं,
खिंचो नहीं,
तनो नहीं-,
यह शोख़ी यौवन ही झेल-खेल सकता था--
जहाँ और जैसी हो,
बुत-सी बन बैठी रहो,
समय सहो;
बंधन गिरेगा जब तिनका उठेगा नहीं
करने को प्रकट खेद ।

18. लब्धि-उपलब्धि

उपलब्धि
कुछ करने को ही तो
मां-बाप-गुरूओं, बड़े-बूढ़ों ने सिखाया था;
और सिखाया था वही
जो उन्होंने संस्कारों से पाया था ।

उपलब्धि से क्या था उनका अर्थ-
विश्वविद्यालय की ऊँची उपाधि,
कार्यालय की ऊँची कुर्सी,
ऊँचा वेतन,
ऊँचे खानदान में ब्याह,
सन्तान,
ऊँचा मकान,
और चारों ओर सुख-सुविधा का सामान?
तब मेरे अन्दर से किसने किया था उनपर व्यंग्य-
हूँ-हैँ ये उपलब्धियां । उप-लब्धियां !
मेरे; लब्धियों के हैं अरमान,
उन्हीं के लिए होगा मेरा
अश्रु-स्वेद-रक्त प्रवहमान;
तुम्हारी परिभाषा की उपलब्धियां
................
................

19. स्वप्न और सीमाएँ

................
................
उठा लिया धन्वा एक
ढीली-सी तांत का;
कैसी थी विडम्बना !-
कर्म एक भाग्य-जना,
भाग्य एक कर्म-जना ।

दूर लक्ष्य,
उच्च लक्ष्य,
गगन लक्ष्य मुझको ललचाते रहे,
और मेरे वामन कर जोड़-जोड़
ढीली-सी डोरी पर ढीला शर
भूमि पर चुआते रहे,

स्वप्न रहा-
दण्ड-हस्त मुट्ठी में ग्रस्त चाप,
चुटकी में दबा हुआ वाण-मूल
अग्रशूल;
प्रत्यंचा खिंची हुई
कोण बनी हुई
कर्ण-स्पर्श प्राप्त
तदनुकल
सुता, कंसा, तना हुआ सब शरीर,
लक्ष्य साध मुक्त तीर,
मानों हो क्रुद्धमन महर्षि शाप !

20. कड़ुआ पाठ

एक दिन मैंने प्‍यार पाया, किया था,
और प्‍यार से घृणा तक
उसके हर पहू को एकांत में जिया था,
और बहुत कुछ किया था,
जो मुझसे भाग्‍यवान-उभागे करते हैं, भोगते हैं,
मगर छिपाते हैं;
मैंने छिपाए को शब्‍दों में खोला था,
लिखा था, गया था, सुनाया था,
कह दिया था,
गीत में, काव्‍य में,
क्‍यों कि सत्‍य कविता में ही बोला जा सकता है।

X X X

निचाट में अकेला खड़ा वह प्रसाद
एक रहस्‍य था, भेद-भरा, भुतहा;
बहुतों ने सुनी थी
रात-विरात, आधी रात
एक चीख, पुकार, प्‍यार का मनुहार,
मदमस्‍तों का तुमुल उन्‍माद, अट्टहास,
कभी एक तान, कभी सामूहिक गान,
दुखिया की आह, चोट खाए घायल की कराह,
फिर मौन (मौत भी सुना जा सकता)
पूछता-सा क्‍या? कब? कहाँ? कौन? कौ...न?...
मैं भी भूत हो जाऊँ, उसके पूर्व सोचा,
एक पारदर्शी द्वार है जो खोला जा सकता है।

भूतों का भोजन है भेद, रहस्‍य, अंधकार;
भूतों को असह्य उजियार,
पार देखती आँख,
पार से उठता सवाल।
भूतों की कचहरी भी होती है।
हो चुका है मुझसे अपराध,
भूतों का दल तन्‍नाया-भिन्‍नाया, मुझ पर टूट
माँग रहा है मुझसे
अपने होने का सबूत।
दरिया में डूबता सूरज,
झुरमुट में अटका चाँद,
बादल में झाँकते तारे,
हरसिंगार के झरते फूल,
दम घोंटती सी हवा,
विष घोलती-सी रात,
पाँवों से दबी दूब,
घर दर दीवार,
चली, छनी राह
पल, छिन, दिन, पाख, मास-
समय का सारा परिवार-
मूक!

मेरे श्‍ब्‍दों के सिवा कोई नहीं है मेरा गवाह।
मैंने महसूस कर ली है अपनी भूल,
सीख लिया है कड़ुआ पाठ,
पारदर्शी द्वार नहीं खोला जा सकता है।
सत्‍य कविता में ही बोला जा सकता है।

21. उन्होंने कहा था

नहीं धूप में मैंने बाल सफेद किए हैं-
बहुत ज़माना देखा है,
दुनिया देखी है,
सुख-दुख देखा, विजय-पराजय देखी,
अपने भी, औरों के जीवन में भी
आई-गई बहुत देखी है;
उदय पेम का
और नशा भी उसका
और खुमारी उसकी
औ' उतार भी कई बार मैं देख चुका हूँ-
जो कहता हूँ अपने अनुभव से कहता हूँ;
शायद उसे कभी सच पाओ ।

वत्स, उमर ही यह ऐसी होती है जिसमें
लगती है हर गधी परी,
हर गधा शाह-नौशेरवान-
इंसान-कभी हैवान-कभी पाषाण-
देवता, और कभी भगवान
बराबर भी लगता है;
और प्रेम का मारा उनको
उसी तरह सम्बोधित कर
उनपर होता बलिहार
और पूजा उनकी करने लगता है ।

खुशक़िस्मत हैं
जो ऐसे भ्रम में अपने को
जीवन भर डाले रहते हैं
और देवता को भी अपने डाले रहते-
कमउम्री पर मौत बड़ी रहमत करती है;
किन्तु अभागे जो ज़्यादा दिन जीते
उनका नशा उतरता,
उनकी आँखों के ऊपर से पर्दा हटता
औ' जीवन की कटु-कठोर सच्चाई उनके आगे आती ।
सत्य जान लेना छोटी उपलब्धि नहीं है;-
किसी मूल्य पर-
बदक़िस्मत को भी मुआविज़ा कुछ मिलता है ।

वहीँ तुम्हारी उम्र,
तुम्हारी आँखों में है वही नशा-सा,
वही ग़लतियां तुम करते,
आराध्य तुम्हारे हैं मुग़ालते में वैसे ही ।
मैं कहता हूँ, शायद इसे कभी सच पायो ।-
जियो उम्र भी मेरी लेकर,
मैं तो यही दुआ करता हूँ-
मोह-भंग करना ही तो है काम वक़्त का।

सच्चाई टूटती, मनुष्य उसे सह लेता;
सपने जब टूटते, टूट वह खुद जाता है-
गोकि टूटना सदा बुरा ही नहीं-
टूटने से भी कोई-कोई कुछ बन जाया करते।
टूटोगे तो, वत्स, बड़े दयनीय लगोगे-
पातक इससे बड़ा नहीं दुनिया के अन्दर ।-

'लेकिन तुमसे
कहीं बड़ी दयनीय लगेगी परी,
प्रतिष्ठित हृदय-कुंज में,
जो धन-यश की लादी लादे
आज यहाँ कल वहाँ फिरेगी ।
पर सबसे दयनीय, वत्स, पाषाण लगेगा,
जो मन्दिर के एक उपेक्षित कोने में
लुढ़का-पुड़का रिरियाता होगा,
'मैं ही हूँ भगवान, भक्तगण,
भोग लगायो मुझको,
मुझपर द्रव्य चढ़ाओ!'

22. कामर

होगी जिसकी होगी
कामर
भीगी-भीगी,
भारी-भारी,
उसके तन से, मन से लिपटी ।

बली भुजाओं,
कसी मुट्ठियों,
लौह उँगलियों से
मैंने तो अपनी कसकर खूब निचोड़ी।

अब जिसका जी चाहे
उस पर बैठे, लेटे,
उसे समेटे,
देह लपेटे,
रक्खे, दे डाले या फेंके,
निर्ममता, निर्लिप्त भाव से
मैंने छोड़ी ।

23. बूढ़ा किसान

अब समाप्‍त हो चुका मेरा काम।
करना है बस आराम ही आराम।
अब न खुरपी, न हँसिया,
न पुरवट, न ल‍‍ढ़िया,
न रतरखाव, न हर, न हेंगा।

मेरी मिट्टी में जो कुछ निहित था,
उसे मैंने जोत-वो,
अश्रु स्‍वेद-रक्‍त से सींच निकाला,
काटा,
खलिहान का ख्‍लिहाल पाटा,
अब मौत क्‍या ले जाएगी मेरी मिट्टी से ठेंगा।

24. एक नया अनुभव

मैनें चिड़िया से कहा, मैं तुम पर एक
कविता लिखना चाहता हूँ।
चिड़िया नें मुझ से पूछा, 'तुम्हारे शब्दों में
मेरे परों की रंगीनी है?'
मैंने कहा, 'नहीं'।
'तुम्हारे शब्दों में मेरे कंठ का संगीत है?'
'नहीं।'
'तुम्हारे शब्दों में मेरे डैने की उड़ान है?'
'नहीं।'
'जान है?'
'नहीं।'
'तब तुम मुझ पर कविता क्या लिखोगे?'
मैनें कहा, 'पर तुमसे मुझे प्यार है'
चिड़िया बोली, 'प्यार का शब्दों से क्या सरोकार है?'
एक अनुभव हुआ नया।
मैं मौन हो गया!

25. मौन और शब्द

एक दिन मैंने
मौन में शब्द को धँसाया था
और एक गहरी पीड़ा,
एक गहरे आनंद में,
सन्निपात-ग्रस्त सा,
विवश कुछ बोला था;
सुना, मेरा वह बोलना
दुनियाँ में काव्य कहलाया था।

आज शब्द में मौन को धँसाता हूँ,
अब न पीड़ा है न आनंद है
विस्मरण के सिन्धु में
डूबता सा जाता हूँ,
देखूँ,
तह तक
पहुँचने तक,
यदि पहुँचता भी हूँ,
क्या पाता हूँ।

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