ईद और शब-बरात पर कविताएँ : नज़ीर अकबराबादी

Poems on Id and Shab-Barat : Nazeer Akbarabadi

1. ईद-1

शाद था जब दिल वह था और ही ज़माना ईद का ।
अब तो यक्साँ है हमें आना न जाना ईद का ।।

दिल का ख़ून होता है जब आता है अपना हमको याद ।
आधी-आधी रात तक मेंहदी लगाना ईद का ।।

आँसू आते हैं भरे जब ध्यान में गुज़रे है आह ।
पिछले पहर से वह उठ-उठ कर नहाना ईद का ।।

हश्र तक जाती नहीं ख़ातिर से इस हसरत की बू ।
इत्र बग़लों में वह भर-भर कर लगाना ईद का ।।

होंठ जब होते थे लाल, अब आँखें हो जाती हैं सुर्ख़ ।
याद आता है जो हमको पान खाना ईद का ।।

दिल के हो जाते हैं टुकड़े जिस घड़ी आता है याद ।
ईदगाह तक दिलबरों के साथ जाना ईद का ।।

गुल‍इज़ारों के मियाँ मिलने की ख़ातिर जब तो हम ।
ठान रखते थे महीनों से बहाना ईद का ।।

अब तो यूँ छुपते हैं जैसे तीर से भागे कोई ।
तब बने फिरते थे हम आप ही निशाना ईद का ।।

नींद आती थी न हरगिज़, भूक लगती थी ज़रा ।
यह ख़ुशी होती थी जब होता था आना ईद का ।।

(हश्र=क़यामत,प्रलय, गुल‍इज़ारों=गुलाब जैसे
सुकुमार और कोमल गालों वाली)

2. ईद-2

यूं लब से अपने निकले हैं अब बार-बार आह।
करता है जिस तरह कि दिले बेक़रार आह।
आलम ने क्या ही ऐश की लूटी बहार आह।
हमसे तो आज भी न मिला वह निगार आह।
हम ईद के, भी दिन रहे उम्मीदवार, आह!॥1॥

हो जी में अपने ईद की फ़रहत से शाद काम ।
खूबां से अपने-अपने लिए सबसे दिल के काम।
दिल खोल-खोल सब मिले आपस में ख़ासो-आम।
आग़ोशे-ख़ल्क़ गुल बदनों से भरे तमाम।
खाली रहा पर एक हमारा किनार आह॥2॥

क्या पूछते हो शोख से मिलने की अब खबर।
कितना ही जुस्तुजू में फिरे हम इधर-उधर।
लेकिन मिला न हमसे वह अय्यार फ़ितनागर ।
मिलना तो एक तरफ़ है, अज़ीज़ो ! कि भर नज़र।
पोशाक की भी हमने न देखी बहार, आह!॥3॥

रखते थे हम उम्मीद यह दिल में कि ईद को।
क्या-क्या गले लगायेंगे दिलबर को शाद हो।
सो तो वह आज भी न मिला शोख़ हीलागो।
थी आस ईद की सो गई वह भी दोस्तो।
अब देखें क्या करे दिले उम्मीदवार, आह!॥4॥

उस संगदिल की हमने ग़रज़ जबसे चाह की।
देखा न अपने दिल को कभी एकदम खु़शी।
कुछ अब ही उसकी ज़ोरो तअद्दी नहीं नयी।
हर ईद में हमें तो सदा यास ही रही।
काफ़िर कभी न हमसे हुआ हम किनार, आह!॥5॥

इक़रार हमसे था कई दिन आगे ईद से।
यानी कि ईदगाह को जायेंगे तुमको ले।
आखि़र को हमको छोड़ गए साथ और के।
हम हाथ मलते रह गए और राह देखते।
क्या-क्या गरज़ सहा, सितमे-इन्तज़ार आह!॥6॥

क्योंकर लगें न दिल में मेरे हस्रतों के तीर।
दिन ईद के भी मुझसे हुआ वह किनारा गीर।
इस दर्द को वह समझे जो हो इश्क़ का असीर।
जिस ईद में कि यार से मिलना न हो ‘नज़ीर’।
उसके ऊपर तो हैफ़ है और सद हज़ार आह!॥7॥

(निगार=प्रेमपात्र, फ़रहत=खुशी, आग़ोशे=बगल,
ख़ल्क़=दुनियां के लोग, किनार=गोद,बगल, शोख=
चंचल, जुस्तुजू=तलाश, अय्यार=छली, फ़ितनागर=
बहुत ही नटखट, हीलागो=बहाने बनाने वाला,
संगदिल=बेरहम, तअद्दी=जुल्म, यास=निराशा,
हम किनार=आलिंगित, सितम=अत्याचार, हस्रत=
तमन्ना, किनारा गीर=कोना पकड़ने वाला,दूर,
असीर=बंदी, हैफ़=अफसोस, सद=सैकड़ों)

3. ईदुलफ़ित्र

है आबिदों को त’अत-ओ-तजरीद की ख़ुशी
और ज़ाहिदों को ज़ुहद की तमहीद की ख़ुशी
रिंद आशिक़ों को है कई उम्मीद की ख़ुशी
कुछ दिलबरों के वल की कुछ दीद की ख़ुशी
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी॥1॥

रोज़े की ख़ुश्कियों से जो हैं ज़र्द ज़र्द गाल
ख़ुश हो गये वो देखते ही ईद का हिलाल
पोशाकें तन में ज़र्द, सुनहरी सफ़ेद लाल
दिल क्या के हँस रहा है पड़ा तन का बाल बाल
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी॥2॥

पिछले पहर से उठ के नहाने की धूम है
शीर-ओ-शकर सिवईयाँ पकाने की धूम है
पीर-ओ-जवान को नेम’तें खाने की धूम है
लड़को को ईद-गाह के जाने की धूम है
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी॥3॥

बैठे हैं फूल-फूल के मैख़ाना में कलाल।
और भंग ख़ानों में भी है सरसब्जियां कमाल।
छनती हैं भंगें, उड़ते हैं चरसों के दम निढाल।
देखो जिधर को सैर मज़ा ऐश क़ीलोक़ाल।
ऐसी न शब्बरात न बक़रीद की खु़शी।
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की खु़शी॥4॥

कोई तो मस्त फिरता है जाम-ए-शराब से
कोई पुकरता है के छूटे अज़ाब से
कल्ला किसी का फूला है लड्डू की चाब से
चटकारें जी में भरते हैं नान-ओ-कबाब से
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी॥5॥

महबूब दिलबरों से है जिनकी लगी लगन।
उनके गले से आन लगा है जो गुल बदन।
सौ सौ तरह की चाह से मिल-मिल के तन से तन।
कहते हैं तुमको ईद मुबारक हो जानेमन।
ऐसी न शब्बरात न बक़रीद की खु़शी।
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की खु़शी॥6॥

क्या ही मुआन्क़े की मची है उलट पलट
मिलते हैं दौड़ दौड़ के बाहम झपट झपट
फिरते हैं दिल-बरों के भी गलियों में ग़त के ग़त
आशिक़ मज़े उड़ाते हैं हर दम लिपट लिपट
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी॥7॥

काजल हिना ग़ज़ब मसी-ओ-पान की धड़ी
पिशवाज़ें सुर्ख़ सौसनी लाही की फुल-झड़ी
कुर्ती कभी दिखा कभी अन्गिया कसी कड़ी
कह "ईद ईद" लूटेन हैं दिल को घड़ी घड़ी
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी॥8॥

जो जो के उन के हुस्न की रखते हैं दिल से चाह
जाते हैं उन के साथ ता बा-ईद-गाह
तोपों के शोर और दोगानों की रस्म-ओ-राह
मयाने, खिलोने, सैर, मज़े, ऐश, वाह-वाह
ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी॥9॥

रोज़ों की सख़्तियों में न होते अगर अमीर
तो ऐसी ईद की न ख़ुशी होती दिल-पज़ीर
सब शाद हैं गदा से लगा शाह ता वज़ीर
देखा जो हम ने ख़ूब तो सच है मियाँ "नज़ीर"
ऐसी न शब्बरात न बक़रीद की खु़शी।
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की खु़शी॥10॥

(आबिद=श्रद्धालु, त'अत=श्रद्धा, ज़ाहिद=पूजा करने वाला,
ज़ुहद की तमहीद=धर्म की बात की शुरुआत, पीर=पुराना,
नेम'त=इनाम,दया, अज़ाब=यातना, कल्ला=गाल,
मुआनिक़=आलिंगन, ग़ट=भीड़, पिश्वाज़= कुरती,
कलाल=शराब बेचने वाले, हिलाल= ईद का चांद)

4. ईदगाह अकबराबाद (आगरा)

है धूम आज मदरसओ-ख़ानकाह में।
तांते बंधे हैं मस्जिदे-जामा की राह में।
गुलशन से खिल रहे हैं हर इक कज कुलाह में।
सौ-सौ चमन झमकते हैं एक-एक निगाह में।
क्या-क्या मजे़ हैं ईद के आज ईदगाह में॥1॥

झमका है हर तरफ़ का जो आ बादला ज़री।
पोशाक में झमकते हैं सब तन ज़री-ज़री।
गुलरू चमकते फिरते हैं जूं माहो-मुश्तरी।
हैं सबके ईद-ईद की दिल में खुशी भरी।
क्या-क्या मजे़ हैं ईद के आज ईदगाह में॥2॥

आते हैं घर सेस अपने जो बन-बन के कज कुलाह।
सहने चमन है जितनी है सब सहने ईदगाह।
छाती से लिपटे जाते हैं हंस-हंस के ख़्वामख़्वाह।
दिल बाग सबके होते हैं फरहत से वाह-वाह।
क्या-क्या मजे़ हैं ईद के आज ईदगाह में॥3॥

कुछ भीड़ सी है भीड़ कि बेहदो बेशुमार।
खल्क़त के ठठ के ठठ हैं बंधे हर तरफ़ हज़ार।
हाथी व घोड़े, बैलो, रथ व ऊंट की कतार।
गुलशोर बाले भोले खिलौनों की है पुकार।
क्या-क्या मजे़ हैं ईद के आज ईदगाह में॥4॥

पहने फिरें हैं शोख़ कड़े और हंसलियां।
फूलों की पगड़ियों में हैं शाखे़ उड़सलियां।
कमरें सभों ने मिलने की ख़ातिर हैं कस लियां।
मिलते हैं यूं कि छाती की कड़के हैं पसलियां।
क्या-क्या मजे़ हैं ईद के आज ईदगाह में॥5॥

आते हैं मिलते-मिलते जो आज़िज परीरुखां।
देते हैं मिलने वालों को घबरा के गालियां।
तिस पर भी लिपटे जाते हैं जू गुड़ पे मक्खियां।
दामन के टुकड़े उड़ते हैं फटती हैं चोलियां।
क्या-क्या मजे़ हैं ईद के आज ईदगाह में॥6॥

हैं मिलते-मिलते तन जो पसीनों में तर बतर।
मिलने के डर से फिरते हैं छिपते इधर-उधर।
छिपते फिरें हैं लोग भी जाते हैं वह जिधर।
ठट्ठा हंसी व सैर तमाशे जिधर जिधर।
क्या-क्या मजे़ हैं ईद के आज ईदगाह में॥7॥

हैं करते वस्ल शहर के सब खु़र्द और कबीर।
अदना, गरीब, अमीर से ले शाह ता वज़ीर।
हर दम गले लिपट के मेरे यार दिल पज़ीर।
हंस-हंस के मुझ से कहता है यूं क्यूं मियां ‘नज़ीर’।
क्या-क्या मजे़ हैं ईद के आज ईदगाह में॥8॥

(ख़ानकाह=फ़क़ीरों और साधुओं के रहने का
स्थान,आश्रम, जामा=वह मसजिद जिसमें जुमा,
शुक्रवार, की नमाज पढ़ी जाती है, जामा मसजिद,
कज कुलाह=टेढ़ी टोपी पहनने वाला, माशूक,
बादला ज़री=दो कपड़ों के नाम,बादला सोने और
चांदी के चिपटे चमकीले तार जो गोटा बुनने
और कलावत्तू बटने के काम आते हैं, ज़री का
कपड़ा रेशम और चांदी के तारों से बुना जाता है,
ज़री=सुनहरी, गुलरू=फूल जैसे सुन्दर सुकोमल
मुख वाली, माहो-मुश्तरी=चांद-वृहस्पति, बाग=
बहुत खुश, फरहत=खुशी, परीरुखां=परियों जैसी
शक़्ल सूरत वाले, खु़र्द और कबीर=छोटे और बड़े,
अदना=साधारण, दिल पज़ीर=दिलपसंद)

5. शब-बरात-1

क्योंकर करे न अपनी नमूदारी शब्बरात।
चल्पक, चपाती, हलवे से है भारी शब्बरात॥
ज़िन्दों की है जुवां की मजे़दारी शब्बरात।
मुर्दों की रूह की है मददगारी शब्बरात॥
लगती है सबके दिल को गरज़ प्यारी शब्बरात॥1॥

शक्कर का जिनके हलवा हुआ वह तो पूरे हैं।
गुड़ का हुआ है जिनके वह उनसे अधूरे हैं॥
शक्कर न गुड़ का जिनके वह परकट लंडूरे हैं।
औरों के बैठे हलवे चपाती को घूरे हैं॥
उनकी न आधी पाव न कुछ सारी शब्बरात॥2॥

दुनियां की दौलतों में जो ज़रदार हैं बड़े।
क़न्दों के हलवे, रोग़नी नाने, नए घड़े॥
पहुंचाते ख़्वान फिरते हैं नौकर कई पड़े।
जिंदे भी राह तकते हैं, मुर्दे भी हैं खड़े॥
इन खूबियों की रखती है तैयारी शब्बरात॥3॥

ठिलिया, चपाती हलवे की तो सबमें चाल है।
अदना ग़रीब के तईं यह भी मुहाल है॥
काले से गुड़ की लपटी कढ़ी की मिसाल है।
पानी की हांड़ी, गेंहू की रोटी भी लाल है॥
करती है ऐसी दुखिया पिसनहारी शब्बरात॥4॥

और मुफ़्लिसों की है यह तमन्ना कि फ़ातिहा।
दरिया पे जाके देते हैं बाबा की फा़तिहा॥
भटियारी के तनूर पै नाना की फ़ातिहा।
हलवाई की दुकान पे दादा की फ़ातिहा॥
यां तक तो उनपे लाती है नाचारी शब्बरात॥5॥

वारिस हैं जिनके जीते वह मुर्दे भी आनकर।
हलवे चपाती खूब ही चखते हैं पेट भर॥
जिनका कोई नहीं है वह फिरते हैं दरबदर।
औरों के लगते फिरते हैं कोनों से घर व घर॥
उनकी है खारी नोंन से भी खारी शब्बरात॥6॥

छोड़ें हैं लट्टू तोंबड़ी हरदम बनाके जो।
हाकिम का प्यादा कहता है यूं उससे तल्ख़ हो॥
कपड़े, बदन बचाके जो चाहो सो छोड़ दो।
छप्पर जलाओगे तो दिलावेगी सुबह को॥
तुमसे चबूतरे में गुनहगारी शब्बरात॥8॥

फिरते हैं इश्क़ बाज़ जो लड़के की घात में।
टोंटा ही लेके देते हैं लड़के के हाथ में॥
महताबी आके छोड़े हैं लड़के जो रात में।
क्या ज़रकियां सी छोड़े हैं हंस हंस के हाथ में॥
करती है काम उनके भी यूं जारी शब्बरात॥9॥

जो रंडीबाज हैं वह बहुत दिल में शाद हो।
क्या-क्या अनार छोड़े हैं बश्नी हो रूबरू॥
ऐ बी! तुम अपनी कुल्हिया हमें छोड़ने को दो।
और चाहो तुम हमारा यह हतफूल छोड़ लो॥
हो जाए जिसके छूटते ही फुलवारी शब्बरात॥10॥

और जो बहारें हुस्न के हैं पाक बाज़ यार।
गुलकारी छोड़े हैं जहां महबूब गुल अज़ार॥
कहते हैं उनको देख के आंखों में करके प्यार।
क्या चाहिए मियां तुम्हें हतफूल और अनार॥
तुम पै तो आप होती है अब वारी शब्बरात॥11॥

घनचक्कर अपने दम में कहीं चर्ख़ खाते हैं।
टोंटे हवाई सींक कहीं क़हक़हाते हैं॥
ज़ींपट ज़पट पटाखे कहीं गुल मचाते हैं।
लड़कों के बांध ग़ोल कहीं लड़ने जाते हैं॥
करती है फिर तो ऐसी धुँआधारी शब्बरात॥12॥

आकर किसी के सर पै छछूंदर लगी कड़ी।
ऊपर से और हवाई की आकर पड़ी छड़ी॥
हो गई गले का हार पटाखे की हर लड़ी।
पांव से लिपटी शोर मचाकर क़लमतड़ी॥
करती है फिर तो ऐसी सितमगारी शब्बरात॥13॥

चेहरा किसी का जल गया आंखें झुलस गईं।
छाती किसी की जल गई बाहें झुलस गईं॥
टांगें बची किसी की तो रानें झुलस गईं।
मूंछें किसी की फुंक गई पलकें झुलस गईं॥
रक्खे किसी की दाढ़ी पै चिनगारी शब्बरात॥14॥

कोई दोस्तों को दिल में समझता है अपने गै़र।
कोई दुश्मनों से दिल का निकाले है अपने वैर॥
कहता है वां "नज़ीर" भी आतिश की देख सैर।
"यारब तू सबकी कीजियो बरसा बरस की ख़ैर॥
बेतरह कर रही है नमूदारी शब्बरात ॥15॥

(नमूदारी=ज़ाहिरी, चल्पक=पूड़ी, ज़रदार=धनवान,
क़न्दों=शकर, नाने=चुपड़ी रोटी, ख़्वान=थाल,
मुहाल=कठिन, लपटी=बुरी किस्म का हल्वा
जिसका क़िवाम गोंद या सरेश का सा मैला
ओ नफरत-अंग़ेज हो, आटे-गुड़ को मिलाकर
तेल में पकाई हुई लपसी, मुफ़्लिसों=गरीब
लोग, फ़ातिहा=कुरान शरीफ की आयतें पढ़कर
खाने का सवाब मृतक अज़ीज़ों की रूहों को
भेजना,नियाज़ दिलाना, तल्ख़=नाराज़, चबूतरे=
कोतवाली या थाना,उस काल में ऊंचे चबूतरे
पर थाना बगैरह होता था, टोंटा=एक प्रकार
की आतिशबाज़ी, महताबी=आतिशबाज़ी जिसे
छोड़ने से चांदनी सी छिटक जाती है, ज़रकियां=
सोने के वर्कों का चूरा, अनार=एक आतिशबाज़ी,
बश्नी=आश्ना,मित्र, पाक बाज़=सदाचारी, गुलकारी=
फुलझड़ी, गुल अज़ार=गुलाब जैसे कोमल गालों
वाला, घनचक्कर=गोलाकार में छूटने वाली
आतिशबाज़ी)

6. शब-बरात-2

आलम के बीच जिस घड़ी आती है शब-बरात ।
क्या-क्या जहूरे नूर दिखाती है शब-बरात ।।

देखे है बन्दिगी में जिसे जागता तो फिर ।
फूली नहीं बदन में समाती है शब-बरात ।।

रोशन हैं दिल जिन्हों के इबादत के नूर से ।
उनको तमाम रात जगाती है शब-बरात ।।

बख्शिश ख़ुदा की राह में करते हैं जो मुहिब ।
बरकत हमेशा उनकी बढ़ाती है शब-बरात ।।

ख़ालिक की बन्दिगी करो और नेकियों के दम ।
यह बात हर किसी को सुनाती है शब-बरात ।।

गाफ़िल न बन्दिगी से हो और ख़ैर से ज़रा ।
हर लहज़ा ये सभों को जताती है शब-बरात ।।

हुस्ने अमल करके जो भला आक़िबत में हो ।
सबको यह नेक राह बताती है शब-बरात ।।

लेकर हमीर हमज़ा के हर बार नाम को ।
ख़ल्क़त को उनकी याद दिलाती है शब-बरात ।।

क्या-क्या मैं इस शब-बरात की खूंबी कहूँ ’नज़ीर’ ।
लाखों तरह की ख़ूबियाँ लाती है शब-बरात ।।

(जहूर=प्रकट करना, नूर=प्रकाश, मुहिब=प्रेमी,
ख़ालिक=ईश्वर, गाफ़िल=बेख़बर, लहज़ा=समय,
आक़िबत=यमलोक)

7. शब-बरात-3

आई शबबरात खिला दिल का गुलझड़ा।
हलवे चपातियों का हर इक घर में फुलझड़ा॥
हथफूल और अनार की झड़ियों से गुलझड़ा।
तोड़े के आशिक़ों के यही आके गुलझड़ा॥
क्या छूटता है देखिए! यारों का फुलझड़ा॥1॥

गंधक हज़ार मन है तो शोरा है लाख मन।
और कोयलों के वास्ते फूकूंगा एक वन॥
लोहे के कूटने से भी टूटे हैं कई घन।
अब इस तरह के वज़्न का आकर खिला चमन॥
क्या छूटता है देखिए! यारों का फुलझड़ा॥2॥

पहले तो इसने छूट के मारा पहर का दम।
फिर तीन चार बार में ग्यारह पहर का दम॥
था उसका अगले बरस में बारह पहर का दम।
और अबके साथ में तो अठारह पहर का दम॥
क्या छूटता है देखिए! यारों का फुलझड़ा॥3॥

आगे तो छोड़ते थे इसे चढ़के झाड़ पर।
फिर कितनी बार छोड़ा है कड़ियों को पाड़ पर॥
और इसके रफ्ता रफ्ता एक ऊंचे से ताड़ पर।
और अबके इसको छोड़े हैं चढ़कर पहाड़ पर॥
क्या छूटता है देखिए! यारों का फुलझड़ा॥4॥

सहरी को हंसके देखियो ज़रा यार इस घड़ी।
मोटी बड़े सतूल से जिसकी है इक खड़ी॥
फूटा अनार, फुलझड़ी दर से उगल पड़ी।
भागे मचाके शोर छछूंदर, कलमनड़ी॥
क्या छूटता है देखिए! यारों का फुलझड़ा॥5॥

पहुंची है आसमान तलक उसकी धूमधाम।
इतना बड़ा है तिस पै धुंए का नहीं है नाम॥
उस्ताद जानते हैं यह क्या है, क्या है नाम?
आरिफ़ भी आज होता तो करता हमें सलाम॥
क्या छूटता है देखिए! यारों का फुलझड़ा॥6॥

हाथी जो शब्बरात के आए हैं रात हूल।
यह फुलझड़ा इस हाथी की है टाट का फिजूल॥
कोसों तलक ज़मीं पै पड़े छूटते हैं फूल।
क्यों कर भला न हम कहें इस वक़्त फूल-फूल॥
क्या छूटता है देखिए! यारों का फुलझड़ा॥7॥

छुटने में क्या मज़ाल जो उगले कहीं ज़रा।
बुर्राक इस क़दर है कि चांदी का क्या भला॥
उस्ताद ही खड़े हो तुम ऐ यार! जा बजाह।
ऐसा भला चढ़ाया है किसी ने वाह! वाह!
क्या छूटता है देखिए! यारों का फुलझड़ा॥8॥

महताबी इसके सामने मुंह ज़र्द हो गई।
नसरी व जाई जूही भी दिल सर्द हो गई॥
चादर भी उसके सामने पे पर्द हो गई।
गुलकारी किस क़द्र थी वह सब गर्द हो गई॥
क्या छूटता है देखिए! यारों का फुलझड़ा॥9॥

जी चाहता था इससे बनायें ज़रा बड़ा।
क़ालिद पड़ा हुआ बड़ा कोई ले गया चुरा॥
जल्दी में शब्बरात के कुछ भी न हो सका।
लाचार होके हमने यह इतना ही भर लिया॥
क्या छूटता है देखिए! यारों का फुलझड़ा॥10॥

बे रोज़गारियों से सभों के हैं दिलबुझे।
इस वक़्त में ज़रा कोई ज़र्की तो छोड़ते॥
सौ आफरीं हमें हैं कि सौ क़र्ज दाम ले।
छोटा सा इक अदद तो बनाके हैं छोड़ते॥
क्या छूटता है देखिए! यारों का फुलझड़ा॥11॥

पैसा हमारे पास जो होता तो यारो आह!
सौ दो सौ ऐसे छोड़ते हम आज ख़्वामख़्वाह॥
करना पड़ा है अब तो में पेट का निबाह।
वह भी मियां "नज़ीर" ग़नीमत है वाह! वाह!॥
क्या छूटता है देखिए! यारों का फुलझड़ा॥12॥

(घन=लुहार का भारी हथौड़ा, पहर=तीन घंटे
का समय, पाड़ पर=मचान, क़ालिद=ढांचा,
आफरीं=शाबाश)

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