गुल-ए-नग़मा/गुले-नग़मा : फ़िराक़ गोरखपुरी

Gul-e-Naghma : Firaq Gorakhpuri

1. आँखों में जो बात हो गई है

आँखों में जो बात हो गई है
एक शरहे-हयात हो गई है।

जब दिल की वफ़ात हो गई है
हर चीज की रात हो गई है।

ग़म से छुट कर ये ग़म है मुझको
क्यों ग़म से नजात हो गई है।

मुद्दत से खबर मिली न दिल को
शायद कोई बात हो गई है।

जिस शै पर नज़र पड़ी है तेरी
तस्वीरे-हयात हो गई है।

दिल में तुझ से थी जो शिकायत
अब ग़म के निकात हो गई है।

इक़रारे-गुनाहे-इश्क़ सुन लो
मुझसे इस बात हो गई है।

जो चीज भी मुझको हाथ आई
तेरी सौगात हो गई है।

क्या जानिये पहले मौत क्या थी
अब मेरी हयात हो गई है।

घटते-घटते तेरी इनायत
मेरी औक़ात हो गई है।

उस चस्मे-सियह की याद अक्सर
शामे-जुल्मात हो गई है।

इस दौर में जिन्दगी बसर की
बीमार की रात हो गई है।

जीती हुई बाज़ी-ए-मुहब्बत
खेला हूँ तो मात हो गई है।

मिटने लगीं ज़िन्दगी की कद्रें
जब ग़म से नजात हो गई है।

वो चाहें तो वक़्त भी बदल जाय
जब आये हैं, रात हो गई है।

दुनिया है कितनी बे-ठिकाना
आशिक़ की बरात हो गई है।

पहले वो निगाह इक किरन थी
अब बर्क़-सिफ़ात हो गई है।

जिस चीज को छू दिया है तूने
एक बर्गे-नबात हो गई है।

इक्का-दुक्का सदाये-जंजीर
जिन्दाँ में रात हो गई है।

एक-एक सिफ़त ’फ़िराक़’ उसकी
देखा है तो ज़ात हो गई है।

(शरहे-हयात=जीवन की व्याख्या, तस्वीरे-हयात=
जीवन का चित्र, निकात=मर्म, इक़रारे-गुनाहे-इश्क़=
इश्क़ के गुनाह का इक़रार, बसर=मानव, नजात=
मुक्ति, बर्क़-सिफ़ात=बिजली की विशेषता रखने
वाली, बर्गे-नबात=हरी डाली, जिन्दाँ=कारागार)

2. ये सुरमई फ़ज़ाओं की कुछ कुनमुनाहटें

ये सुरमई फ़ज़ाओं की कुछ कुनमुनाहटें
मिलती हैं मुझको पिछले पहर तेरी आहटें।

इस कायनाते-ग़म की फ़सुर्दा फ़ज़ाओं में
बिखरा गये हैं आ के वो कुछ मुस्कुराहटें।

ऐ जिस्मे-नाज़नीने-निगारे-नज़रनवाज़
शुब्‍हे-शबे-विसाल तेरी मलगज़ाहटें।

पड़ती है आसमाने-मुहब्बत पे छूट-सी
बल-बे-जबीने-नाज़ तेरी जगमगाहटें।

चलती है जब नसीमे-ख़याले-ख़रामे-नाज़
सुनता हूँ दामनों की तेरे सरसराहटें।

चश्मे-सियह तबस्सुमे-पिनहाँ लिये हुये
पौ फूटने से पहले उफ़ुक़ की उदाहटें।

जुम्बिश में जैसे शाख़ हो गुलहा-ए-नग़्मा की
इक पैकरे-जमील की ये लहलहाहटें।

झोकों की नज़्र है, चमने-इन्तिज़ारे-दोस्त
बादे-उम्मीदो-बाम की ये सनसनाहटें।

हो सामना अगर तो ख़िजिल हो निगाहे-बर्क़
देखी हैं अज़्व-अज़्व में वो अचपलाहटें।

किस देस को सिधार गईं ऐ जमाले-यार
रंगीं लबों प खेल के कुछ मुस्कुराहटें।

रुख़सारे-तर से ताज़ा हो बाग़े-अदन की याद
और उसकी पहली सुब्‍ह की वो रसमसाहटें।

साज़े-जमाल के नवाहा-ए-सर्मदी
जोबन तो वो फ़रिश्ते सुनें गुनगुनाहटें।

आज़ुर्दगी-ए-हुस्न भी किस दर्जा शोख़ है
अश्कों में तैरती हुई कुछ मुस्कुराहटें।

होने लगा है ख़ुद से करीं ऐ शबे-अलम
मैं पा रहा हूँ हिज्र में कुछ अपनी आहटें।

मेरी ग़ज़ल की जान समझना उन्हें ’फ़िराक़’
शम्‍मअ-ए-ख़याले-यार की ये थरथराहटें।

गोर्की की सुप्रसिद्ध कहानी ’छब्बिस आदमी
और एक लड़की’ पढ़कर-’फ़िराक़’

(फ़ज़ाओं=वायुमण्डल, फ़सुर्दा=उदास,
जिस्मे-नाज़नीने-निगारे-नज़रनवाज़=
नज़र को भला लगने वाले प्रिय का
कोमल शरीर, नसीमे-ख़याले-ख़रामे-
नाज़=प्रेमिका के चलने की वायु की
कल्पना, तबस्सुमे-पिनहाँ=छिपी
मुस्कुराहट, नवाहा-ए-सर्मदी=दैवी
आवाजें, आज़ुर्दगी=दुःख, करीं=
निकट, शबे-अलम=दुख की रात)

3. है अभी महताब बाक़ी और बाक़ी है शराब

है अभी महताब बाक़ी और बाक़ी है शराब
और बाक़ी मेरे तेरे दरम्याँ सदहा हिसाब।

दीद अन्दर दीद, हैरानम हेजाब अन्दर हेजाब
वाय बावस्फ़े ईं क़दर-राजो-नयाज़ ईं इजतेनाब।

दिल में यूँ बेदार होते हैं ख़यालाते-ग़ज़ल
आँख मलते जिस तरह उट्ठे कोई मस्ते-शबाब।

गेसू-ए-ख़मदार में अशाआरे-तर की ठँढकें
आतशे-रुख़सार में कल्बे-तपाँ का इल्तहाब।

चूड़ियाँ बजती हैं दिल में, मरहबा, बज़्मे-ख़याल
खिलते जाते हैं निगाहों में जबीनों के गुलाब।

काश पढ़ सकता किसी सूरत से तू आयाते-इश्क़
अहले-दिल भी तो हैं ऐ शेख़े-ज़मा अहले-किताब।

एक आलम पर नहीं रहती है कैफ़ीयाते इश्क़
गाह रेगिस्ताँ भी दरिया, गाह दरिया भी सुराब।

कौन रख सकता है इसको साकिनो-जामिद कि ज़ीस्त
इनक़लाबो-इनक़लाबो-इनक़लाबो-इनक़लाब ।

ढूँढिये क्यों इस्तेआरे और तशबीहो-मिसाल
हुस्न तो वो है बतायें जिसको हुस्ने-लाजवाब ।

हस्त जन्नत की बहारें चन्द पंखडि़यों में बन्द
गुन्चा खिलता है तो फ़िरदौसों के खुल जाते हैं बाब।

आ रहा है नाज़ से सिम्ते-चमन को ख़ुशख़िराम
दोश पर वो गेसू-ए-शबगूँ के मँडलाते सहाब।

हुस्न ख़ुद अपना नक़ीब, आँखों को देता है पयाम
आमद-आमद आफ़्ताब आमद दलीले-आफ़्ताब।

अज़मते-तक़दीरे-आदम अहले-मज़हब से न पूँछ
जो मशीअत ने न देखे दिल ने देखे हैं वो ख़्वाब।

हुस्न वो जो एक कर दे मानी-ए-फ़त्‍हो-शिकस्त
रह गई सौ बार झुक-झुक कर निगाहे कामयाब।

ग़ैब की नज़रें बचा कर कुछ चुरा ले वक़्त से
फिर न हाथ आयेगा कुछ हर लम्हा है पा-दर-रिकाब।

हर नज़र जलवा है हर जलवा नज़र हैरान हूँ
आज किस बैतुलहरम में हो गया हूँ बारयाब।

बारहा, हाँ बारहा मैने दमे-फ़िक्रे-सुखन
छू लिया है उस सुकूँ को जो है जाने-इज़्तेराब।

सर से पा तक हुस्न है साज़े-नुमू राज़े-नुमू
आ रहा है एक कमसिन पर दबे पाँवों शबाब।

बज़्मे-फ़ितरत सर-बसर होती है इक बज़्मे-समाअ
वो सुकूते-नीमशब का नग़्मा-ए- चंगो-रबाब।

ऐ ’फ़िराक़’ उठती है हैरत की निगाहें बा अदब
अपने दिल की खिलवतों से हो रहा हूँ बारयाब।

(सदहा=सैकड़ों, बेदार=जाग्रत, मरहबा=धन्य हो,
जबीन=माथा, सुराब=मृगतृष्णा, इस्तेआरे=रूपक,
तशबीह=उपमा, फ़िरदौसों=स्वर्ग, बाब=द्वार,
ख़ुशख़िराम=अच्छी चाल वाला, दोश=कंधा,
गेसू-ए-शबगूँ=रात की तरह केश वाला, सहाब=
बादल, ग़ैब=परोक्ष, पा-दर-रिकाब=रिकाब में
पैर जा रहा, बैतुलहरम=अल्लाह का घर
मस्जिद, बारयाब=प्रवेश प्राप्त, दमे-फ़िक्रे-
सुखन=काव्य चिन्तन के समय, जाने-
इज़्तेराब=व्याकुलता की आत्मा, नुमू=
उभरने, राज़े-नुमू=उत्पत्ति का मर्म)

4. दीदनी है नरगिसे-ख़ामोश का तर्ज़े-ख़िताब

दीदनी है नरगिसे-ख़ामोश का तर्ज़े-ख़िताब
गह सवाल अन्दर सवालो-गह जवाब अन्दर जवाब।

जौहरे-शमशीर क़ातिल हैं कि हैं रगहा-ए-नाब
साकिया तलवार खिचती है कि खिचती है शराब।

इश्क़ के आगोश में बस इक दिले-ख़ानाख़राब
हुस्न के पहलू में सदहा आफ़्ताबो-माहताब।

सरवरे- कुफ़्फ़ार है इश्क़ और अमीरुल-मोमनीं
काबा-ओ-बुतख़ाना औक़ाफ़े-दिले-आलीजनाब।

राज़ के सेगे में रक्खा था मशीअत ने जिन्हें
वो हक़ायक़ हो गये मेरी ग़ज़ल में बेनक़ाब।

एक गँजे-बेबहा है, अहले-दिल को उनकी याद
तेरे जौरे-बे नहायत, तेरे जौरे-बेहिसाब।

आदमीयों से भरी है, ये भरी दुनिया मगर
आदमी को आदमी होता नहीं है दस्तयाब।

साथ ग़ुस्से में न छोड़ा शोख़ियों ने हुस्न का
बरहमी की हर अदा में मुस्कुराता है इताब।

इश्क़ की सरमस्तियों का क्या हो अन्दाजा कि इश्क़
सद शराब, अन्दर शराब, अन्दर शराब, अन्दर शराब।

इश्क़ पर ऐ दिल कोई क्योंकर लगा सकता है हुक़्म
हम सवाब अन्दर सबाबो-हम अज़ाब अन्दर अज़ाब।

नाम रह जाता है वरना दह्र में किसको सबात
आज दुनिया में कहाँ हैं रुस्तमों-अफ़रासियाब।

रास आया दह्र को खू़ने-जिगर से सींचना
चेहरा-ए-अफ़ाक पर कुछ आ चली है आबो-ताब।

इस क़दर रश्क़, ऐ तलबगाराने-सामाने-निशात
इश्क़ के पास इक दिले-पुरसोज़, इक चश्मे-पुर‍आब।

अब इसे कुछ और कहते हैं कि हुस्ने इत्तेफ़ाक
इक नज़र उड़ती हुई-सी कर गई मुझको ख़राब।

एक सन्नाटा अटूट, अक्सर और अक्सर ऐ नदीम
दिल की हर धड़कन में सद ज़ेरो-बमे-चंगो-रबाब।

आ रहे हैं गुलसिताँ में ख़ैरो-बरक़त के पयाम
है सदा बादे-सबा की या दुआ ए-मुस्तजाब।

मुर्ग़ है उस दश्त का कोई न मारे पर जहाँ
एक ही पंजे के हैं, ऐ चर्ख़ शाहीनो-उक़ाब।

हम समन्दर मथ के लाये गौहरे-राजे-दवाम
दास्तानें मिल्लतों की हैं जहाँ नक्शे-बरआब।

गिर गईं मेरी नज़र से आज अपनी सब दुआयें
वाँ गया भी मैं तो उनकी गालियों का क्या जवाब।

पूँछता है मुझसे तू ऐ शख़्स क्या हूँ, कौन हूँ
मैं वही रुसवाये-आलम, शायरों में इन्तेख़ाब।

ऐ फ़िराक़ आफ़ाक़ है कोई तिलिस्म अन्दर तिलिस्म
है हर इक ख़ाब हक़ीक़त हर हकी़क़त एक ख़ाब।

(दीदनी=देखने योग्य, मशीअत=ईश्वरेच्छा,
हक़ायक़=तथ्य, इताब=रोष, चेहरा-ए-अफ़ाक=
संसार के मुख पर, तलबगाराने-सामाने-निशात=
विलास सामग्री के इच्छुक, चश्मे-पुर‍आब=
आँसुओं से भरी आँख, गौहरे-राजे-दवाम=
अमरत्व के मर्म का मोती, मिल्लतों=राष्ट्रों,
नक्शे-बरआब=पानी पर अंकित रेखायें,
जिनकी कोई हैसियत न हो)

5. रात भी नींद भी, कहानी भी

रात भी नींद भी कहानी भी
हाय, क्या चीज है जवानी भी

एक पैग़ामे-ज़िन्दगानी भी
आशिक़ी मर्गे-नागहानी भी।

इस अदा का तेरे जवाब नहीं
मेह्रबानी भी सरगरानी भी।

दिल को अपने भी ग़म थे दुनिया में
कुछ बलायें थीं आसमानी भी।

मनसबे-दिल ख़ुशी लुटाना है
ग़मे-पिनहाँ की पासबानी भी।

दिल को शोलों से करती है सेराब
ज़िन्दगी आग भी है पानी भी।

शादकामों को ये नहीं तौफ़ीक़
दिले ग़मग़ीं की शादमानी भी।

लाख हुस्ने-यक़ीं से बढ़कर है
उन निगाहों की बदगुमानी भी।

तंगना-ए-दिले-मलूल में है
बह्रे-हस्ती की बेकरानी भी।

इश्क़े-नाकाम की है परछाईं
शादमानी भी, कामरानी भी।

देख दिल के निगारखाने में
जख़्में-पिनहाँ की है निशानी भी।

ख़ल्क़ क्या-क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूँ मैं तेरी ज़बानी भी।

आये तारीख़े-इश्क़ में सौ बार
मौत के दौरे-दरम्यानी भी।

अपनी मासूमियों के पर्दे में
हो गई वो नज़र सियानी भी।

दिन को सूरजमुखी है वो नौगुल
रात को है वो रातरानी भी।

दिले-बदनाम तेरे बारे में
लोग कहते हैं इक कहानी भी।

वज़्‍अ करते कोई नई दुनिया
कि ये दुनिया हुई पुरानी भी।

दिल को आदाबे-बन्दगी भी न आये
कर गये लोग हुक्मरानी भी।

जौरे-कमकम का शुक्रिया बस है
आपकी इतनी मेह्रबानी भी।

दिल में इक हूक भी उठी ऐ दोस्त
याद आई तेरी जवानी भी।

सर से पा तक सिपुर्दगी की अदा
एक अंदाजे-तुर्कमानी भी।

पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी मेज़बानी भी।

हो न अक्से-जबीने-नाज़ कि है
दिल में इक नूरे-कहकशानी भी।

ज़िन्दगी ऐन दीदे-यार ’फ़िराक़’
ज़िन्दगी हिज्र की कहानी भी।

(सरगरानी=नाराज़गी, मनसबे-दिल=
दिल का काम, ग़मे-पिनहाँ=आन्तरिक
दुख, तंगना-ए-दिले-मलूल=दुखी हृदय
की सीमा, जख़्में-पिनहाँ=आन्तरिक
आहत, ख़ल्क़=दुनिया, वज़्‍अ=बनाते,
आदाबे-बन्दगी=सेवाभाव, अंदाजे-
तुर्कमानी=तुर्को की अदा)

6. एक शबे-ग़म वो भी थी जिसमें जी भर आये तो अश्क़ बहायें

एक शबे-ग़म वो भी जिसमें जी भर आये तो अश्क़ बहाएँ
एक शबे-ग़म ये भी है जिसमें ऐ दिल रो-रो के सो जाएँ।

जाने वाला घर जायेगा काश, ये पहले सोचा होता
हम तो मुन्तज़िर इसके थे, बस कब मिलने की घड़ियाँ आएँ।

अलग-अलग बहती रहती है हर इंसा की जीवनधारा
देख मिले कब आज के बिछड़े, ले लूँ बढ़के तेरी बलाएँ।

सुनते हैं कुछ रो लेने से, जी हल्का हो जाता है
शायद थोड़ी देर बरसकर छट जाएँ कुछ ग़म की घटाएँ।

अपने दिल से ग़ाफ़िल रहना अहले-इश्क़ का काम नहीं
हुस्न भी है जिसकी परछाईं, आज वो मन की जोत जगाएँ।

सबको अपने-अपने दुख हैं सबको अपनी-अपनी पड़ी है
ऐ दिले-ग़मग़ीं तेरी कहानी कौन सुनेगा किसको सुनाएँ।

जिस्मे-नाज़नीं में सर-ता-पा नर्म लवें लहराई हुई-सी
तेरे आते ही बज़्मे-नाज़ में जैसे कई शमए जल जाएँ।

हाँ-हाँ तुझको देख रहा हूँ क्या जलवा है क्या परदा है
दिल दे नज़्ज़ारे की गवाही और ये आँखें क़स्में खाएँ।

लफ़्जों में चेहरे नज़र आयेंगे चश्मे-बीना की है शर्त
कई ज़ावियों से ख़िलक़त को शेर मेरे आईना दिखाएँ।

मुझको गुनाहो-सवाब से मतलब? लेकिन इश्क़ में अक्सर आये
वो लम्हें ख़ुद मेरी, हस्ती जैसे मुझे देती हो दुआएँ।

छोड़ वफ़ा-ओ-जफ़ा की बहसें, अपने को पहचान ऐ इश्क़!
ग़ौर से देख तो सब धोखा है, कैसी वफ़ाएँ कैसी जफ़ाएँ।

हुस्न इक बे-बेंधा हुआ मोती या इक बे-सूँघा हुआ फूल
होश फ़रिस्तों के भी उड़ा दें तेरी ये दोशीज़ा अदाएँ।

बातें उसकी याद आती हैं लेकिन हम पर ये नहीं खुलता
किन बातों पर अश्क़ बहायें किन बातों से जी बहलाएँ।

साक़ी अपना ग़मख़ना भी, मयख़ाना बन जाता है
मस्ते-मये-ग़म होकर जब हम, आँखों से सागर छलकाएँ।

अहले-मसाफ़त एक रात का ये भी साथ ग़नीमत है
कूच करो तो सदा दे देना, हम न कहीं सोते रह जाएँ।

होश में कैसे रह सकता हूँ आख़िर शायरे-फ़ितरत हूँ
सुब्‍ह के सतरंगे झुर्मुट से जब वो उँगलियाँ मुझे बुलाएँ।

एक ग़ज़ाले-रमख़ुर्दा का मुँह फेरे ऐसे में गुज़रना
जब महकी हुई ठंडी हवाएँ दिन डूबे आँखें झपकाएँ।

देंगे सुबूते-आलीज़र्फ़ी हम मयकश सरे-मयख़ाना
साक़ी-ए-चश्में-सियह की बातें, ज़गर भी हो तो हम पी जाएँ।

मौजूँ करके सस्ते जज़्बे, मण्डी-मण्डी बेंच रहे हैं
हम भी ख़रीदें जो ये सुख़नवर इक दिन ऐसी ग़ज़ल कहलाएँ।

राह चली है जोगन होकर, बाल सँवारे, लट छिटकाएँ
छिपे 'फ़िराक़' गगन पर तारे, दीप बुझे हम भी सो जाएँ।

(ख़िलक़त=सृष्टि, दोशीज़ा=कुँवारी, अहले-मसाफ़त=
यात्रा-साथी, शायरे-फ़ितरत=प्रकृति-कवि)

7. बन्दगी से कभी नहीं मिलती

बन्दगी से कभी नहीं मिलती
इस तरह ज़िन्दगी नहीं मिलती।

लेने से ताज़ो-तख़्त मिलता है
मागे से भीख भी नहीं मिलती।

ग़ैबदां है मगर ख़ुदा को भी
नीयते-आदमी नहीं मिलती।

वो जो इक चीज दारे-फ़ानी में
वो तो जन्नत में भी नहीं मिलती।

एक दुनिया है मेरी नज़रों में
पर वो दुनिया अभी नहीं मिलती।

रात मिलती है तेरी जु्फ़ों में
पर वो आरास्तगी नहीं मिलती।

यूँ तो हर इक का हुस्न काफ़िर है
पर तेरी काफ़िरी नहीं मिलती।

बासफ़ा दोस्ती को क्या रोयें
बासफ़ा दुश्मनी नहीं मिलती।

आँख ही आँख है मगर मुझसे
नरगिसे-सामरी नहीं मिलती।

जब तक ऊँची न हो जमीर की लौ
आँख को रौशनी नहीं मिलती।

सोज़े-ग़म से न हो जो मालामाल
दिल को सच्ची खुशी नहीं मिलती।

रू-ए-जानाँ, कुजा गुले-ख़ुल्द
वो तरो-ताज़गी नहीं मिलती।

तुझमें कोई कमी नहीं पाते
तुझमें कोई कमी नहीं मिलती।

है सिवा मेरे और नर्म नवा
पर वो आहिस्तगी नहीं मिलती।

यूँ तो पड़ती है एक आलम पर
निगहे-सरसरी नहीं मिलती।

सहने-आलम की सरज़मीनों में
दिल की उफ़्तादगी नहीं मिलती।

आह वो मुशकबेज़ जुल्फ़े-सियाह
जिसकी हमसायगी नहीं मिलती।

इश्के़-आज़ुर्दा बादशाहों को
तेरी आज़ुर्दगी नहीं मिलती।

ज़ुहदो-सौमो-सलातो-तक़वा से
इश्क़ की सादगी नहीं मिलती।

हुस्न जिसका भी है निराला है
पर तेरी तुर्फ़गी नहीं मिलती।

रंगे-दीवानगी-ए-आलम से
मेरी दीवानगी नहीं मिलती।

इल्म है दस्तियाब बाइफ़रात
इश्क़ की आगही नहीं मिलती।

दिल को बेइन्तेहा-ए-आगाही
इश्क़ की बेख़ुदी नहीं मिलती।

आज रुतबुल्लेसाँ हैं हज़रते-दिल
आपकी बात ही नहीं मिलती।

दोस्तो, महज़ तब्‍आ-ए-मौज़ूँ से
दौलते-शाएरी नहीं मिलती।

है जो उन रसमसाते होंटों में
आँख को वो नमी नहीं मिलती।

निगहे-लुत्फ़ से जो मिलती है
हाय वो जिन्दगी नहीं मिलती।

यूँ तो मिलन को मिल गया है ख़ुदा
पर तेरी दोस्ती नहीं मिलती।

मेरी आवाज़ में जो मुज़मर है
ऐसी शादी-ग़मी नहीं मिलती।

वो तो कोई ख़ुशी नहीं जिसमें
दर्द की चाशनी नहीं मिलती।

मेरे अश‍आर में सिरे से नदीम
रुज‍अते-क़हक़री नहीं मिलती।

बस वो भरपूर जिन्दगी है ’फ़िराक़’
जिसमें आसूदगी नहीं मिलती।

(दारे-फ़ानी=नाश होने वाली जगह,
बासफ़ा=सच्ची,अंतरात्मा, कुजा=कहाँ,
उफ़्तादगी=कमजोरी, मुशकबेज़=
ख़ुशबूदार, इश्के़-आज़ुर्दा=दुखी प्रेम,
ज़ुहदो-सौमो-सलातो-तक़वा=परहेज़गारी,
रोज़ा व नमाज़ व बुरी बातों से बचना,
तुर्फ़गी=अनोखापन, दस्तियाब=प्राप्त,
बेइन्तेहा-ए-आगाही=अपार ज्ञान,
मुज़मर=निहित)

8. बे ठिकाने है दिले-ग़मगीं ठिकाने की कहो

बे-ठिकाने है दिले-ग़मगीं ठिकाने की कहो
शामे-हिज्राँ, दोस्तो, कुछ उसके आने की कहो।

हाँ न पूछो इक गिरफ़्तारे-कफ़स की ज़िन्दगी
हमसफ़ीराने-चमन कुछ आशियाने की कहो

उड़ गया है मंजिले-दुशवार से ग़म का समन्द
गेसू-ए-पुर पेचो-ख़म के ताज़याने की कहो।

बात बनती और बातों से नज़र आती नहीं
उस निगाहे-नाज़ के बातें बनाने की कहो।

दास्ताँ वो थी जिसे दिल बुझते-बुझते कह गया
शम्‍ए-बज़्मे-ज़िन्दगी के झिलमिलाने की कहो।

कुछ दिले-मरहूम बातें करो, ऐ अहले-ग़म
जिससे वीराने थे आबाद, उस दिवाने की कहो।

दास्ताने-ज़िन्दगी भी किस तरह दिलचस्प है
जो अज़ल से छिड़ गया है उस फ़साने की कहो।

ये फ़ुसूने-नीमशब ये ख़्वाब-सामाँ ख़ामुशी
सामरी फ़न आँख के जादू जगाने की कहो।

कोई क्या खायेगा यूँ सच्ची क़सम, झूठी क़सम
उस निगाहे-नाज़ के सौगन्द खाने की कहो।

शाम से ही गोश-बर-आवाज़ है बज़्मे-सुख़न
कुछ फ़िराक़ अपनी सुनाओ कुछ ज़माने की कहो।

(शामे-हिज्राँ=विरह की शाम, गिरफ़्तारे-कफ़स=
पिंजरे में क़ैद, हमसफ़ीराने-चमन=चमन के साथी,
समन्द=घोड़ा, ताज़याने=कोड़ा, दिले-मरहूम=मरा
हुआ दिल, अज़ल=सृष्टि के प्रारम्भ से, फ़ुसूने-
नीमशब=आधी रात का जादू, गोश-बर-आवाज़=
आवाज़ पर कान लगाए हुए)

9. उजाड़ बन के कुछ आसार से चमन में मिले

उजाड़ बन में कुछ आसार से चमन के मिले
दिले-ख़राब से वो अपकी याद बन के मिले।

हर-इक मशामाम में आलम है युसुफ़िस्ताँ का
परखने वाले तो कुछ बू-ए-पैरहन के मिले

थी एक बू-ए-परेशाँ भी दिल के सहरा में
निशाने-पा भी किसी आहू-ए-ख़ुतन के मिले।

अजीब राज है तनहाई-ए-दिले-शाएर
कि खिलवतों में भी आसार अन्जुमन के मिले।

वो हुस्नो-इश्क़ जो सुब्‍हे-अज़ल से बिछड़े थे
मिले हैं वदी-ए-ग़ुर्बत मएं फिर वतन के मिले।

कुछ अहले-बज़्मे-सुख़न समझे, कुछ नहीं समझे
बशक्ले-शोहरते-मुबहम, सिले सुख़न के मिले।

था जुर्‌आ-जुर्‌आ नई ज़िन्दगी का इक पैग़ाम
जो चन्द जाम किसी बादा-ए-कुहन के मिले।

बज़ोरे-तबा हर इक तीर को कमान किया
हुये हैं झुक के वो रुख़्सत, जो मुझसे तन के मिले।

कमन्दे-फ़िक्रे-रसा में हरीफ़ मान गये
वो पेंचो-ताब तेरी ज़ुल्फ़े-पुर्शिकन के मिले।

नज़र से मतला-ए-अनवार हो गई हस्ती
कि आफ़ताब मिला मुझको, इस किरन के मिले।

हर-एक नक़्शे-निगारीं, हर-एक निक्‍हतो-रंग
लक़ा-ए-नाज़ में जल्वे चमन-चमन के मिले।

मिज़ाजे-हुस्न चलो ऐतदाल पर आया
जो रोज़ रूठ के मिलते थे, आज मन के मिले।

अरे इसी से तो जलते है शादकामे-हयात
कि अह्ले-दिल को ख़ज़ाने-ग़मो-मेहन के मिले।

इसी से इश्क़ की नीयत भी हो गई मशक़ूक
गवाँ दिये कई मौके, जो हुस्नेजन के मिले।

अदा में खिंचती थी तस्वीर कृष्नो-राधा की
निगाह में कई अफ़्साने नल-दमन के मिले।

हवासे-ख़मसा पुकार उट्ठे, यकजबाँ होकर
कई सुबूत तेरी ख़ूबी-ए-बदन के मिले।

निसारे-कज़कुलही, शोख़ी-ए- बहारे-चमन
गुर इस अदा से शगूफ़ों को बाँकपन के मिले

हयात वो निगहे-शर्मगीं जिसे बाँटे
वही शराब जो तेरी मिज़ह से छन के मिले।

ख़ुदा गवाह कि हर-दौरे-जिन्दगी में ’फ़िराक़’
नये पयामे-गुनह मुझको अह्रमन के मिले।

(मशामाम=श्रवण शक्ति, आहू-ए-ख़ुतन=
ख़ुतन की हिरन, खिलवतों=एकान्त,
जुर्‌आ=घूँट, लक़ा-ए-नाज़=देखने लायक,
महबूब, ऐतदाल=संतुलन, शादकामे-हयात=
सुखी जीवन वाले, ख़ज़ाने-ग़मो-मेहन=
दुखदर्द)

10. वो आँख जबान हो गई है

वो आँख ज़बान हो गई है
हर बज़्म की जान हो गई है।

आँखें पड़ती है मयकदों की,
वो आँख जवान हो गई है।

आईना दिखा दिया ये किसने,
दुनिया हैरान हो गई है।

उस नरगिसे-नाज़ में थी जो बात,
शायर की ज़बान हो गई है।

अब तो तेरी हर निगाहे-काफ़िर,
ईमान की जान हो गई है।

तरग़ीबे-गुनाह लहज़ह-लहज़ह,
अब रात जवान हो गई है।

तौफ़ीके-नज़र से मुश्किले-ज़ीस्त,
कितनी आसान हो गई है।

तस्वीरे-बशर है नक़्शे-आफ़ाक,
फ़ितरत इंसान हो गई है।

पहले वो निगाह इक किरन थी,
अब इक जहान हो गई है।

सुनते हैं कि अब नवा-ए-शाएर,
सहरा की अज़ान हो गई है।

ऐ मौत बशर की ज़िन्दगी आज,
तेरा एहसान हो गई है।

कुछ अब तो अमान हो कि दुनिया,
कितनी हलकान हो गई है।

ये किसकी पड़ी ग़लत निगाहें,
हस्ती बुहतान हो गई है।

इन्सान को ख़रीदता है इन्सान,
दुनिया भी दुकान हो गई है।

अक्सर शबे-हिज़्र दोस्त की याद,
तनहाई की जान हो गई है।

शिर्कत तेरी बज़्मे-क़िस्सागो में,
अफ़्साने की जान हो गई है।

जो आज मेरी ज़बान थी, कल,
दुनिया की ज़बान हो गई है।

इक सानिहा-ए-जहाँ है वो आँख,
जिस दिन से जवान हो गई है।

दिल में इक वार्दाते-पिनहाँ,
बेसान गुमान हो गई है।

सुनता हूँ क़ज़ा-ए-कह्‍रमाँ भी,
अब तो रहमान हो गई है।

वाएज़ मुझे क्या ख़ुदा से,
मेरा ईमान हो गई है।

मेरी तो ये कायनाते-ग़म भी,
जानो-ईमान हो गई है।

मेरी हर बात आदमी की,
अज़मत का निशान हो गई है।

यादे-अय्यामे-आशिक़ी अब,
अबदीयत इक आन हो गई है।

जो शोख़ नज़र थी दुश्मने-जाँ,
वो जान की जान हो गई है।

हर बैत ’फ़िराक़’ इस ग़ज़ल की
अबरू की कमान हो गई है।

(तरग़ीबे-गुनाह=पाप की ओर
उकसाना, लहज़ह-लहज़ह=क्षण-
प्रतिक्षण, नक़्शे-आफ़ाक=विश्व
का प्रतीक, फ़ितरत=प्रकृति,
नवा-ए-शाएर=कवि की वाणी,
बज़्मे-क़िस्सागो=कहानी सुनाने
वालों की सभा, वार्दाते-पिनहाँ=
आन्तरिक घटना, अज़मत=
महत्ता, बैत=पंक्ति)

11. हाल सुना फ़सानागो, लब की फ़ुसूँगरी के भी

हाल सुना फ़सानागो, लब की फ़ुसूँगरी के भी
क़िस्से सुना उस आँख के जादू-ए-सामिरी के भी।

काबा-ए-दिल में हैं निशाँ, कुछ फ़ने-आज़री के भी
बारगहे-इलाह में, जल्वे हैं क़ाफ़िरी के भी।

तुर्फ़ा तिलिस्मे-रंगो-बू, चेहरे की ताज़गी भी है
कितने अजीब राज़ हैं, ज़ुल्फ़ों की अबतरी के भी।

अहले-नज़र है बेपनाह, शाने-जमाले-आदमी
गुम हों हवास हूर के, होश उड़ें परी के भी।

धोके न बन्दगी के खा, सिजदा-ए-इश्क़ पर न जा
नासिया-ए-नयाज़ में, जलवे हैं दावरी के भी।

हुस्ने-रुख़े-नज़ारासोज़, देख सका न तू जिसे
ढूँढ उसी में रंगो-नूर, आईना-परवरी के भी।

तू कि है मुनकिरे-अवाम, हैं जो अभी तेरे ग़ुलाम
तेवर उन्हीं में देख आज रोबे-सिकन्दरी के भी।

बह्‌रे- हयात से न डर, उससे न ढूँढ तू मफ़र
तुझको यही सिखायेगा, राज़ शनावरी के भी।

पूछ न मुझसे हमनशीं, तुर्फ़ागी-ए-दिले-ग़मीं
साज़े-सिकन्दरी के भी, सोज़े-कलन्दरी के भी।

मिस्ले-फ़क़ीरे-बेनवा, फिरते हैं जिनको हम लिये
हाँ, उन्ही झोलियों में हैं राज़ तवनगरी के भी।

सर भी झुका चुका है इश्क़, हुस्न के पाये-नाज़ पर
नाज़ उठा चुका है हुस्न, इश्क़ की ख़ुदसरी के भी।

रात तेरी निगाहे-नाज़ कितने फ़साने कह गई
ग़मज़ा-ए-क़ाफ़िरी के भी, उशवा-ए-दिलबरी के भी।

शोले उठे ज़मीन के देख, करिश्मे ऐ निगाह
उसके ख़रामे-नाज़ के, फ़ितना-ए-सरसरी के भी।

पढ़ कभी आयते-शफ़क़, क़ल्बो-नज़र का वास्ता
जल्वा-ए-रंगरंग में, रंग पयम्बरी के भी।

छेड़ दिया ग़ज़ल में आज मैंने वो नग़्मा-ए-ज़मीं
उठ गये घूँघट ऐ ’फ़िराक़’, ज़ुहरा-ओ-मुशतरी के भी।

(फ़ुसूँगरी=जादूगरी, फ़ने-आज़री=मूर्ति-कला,आज़र
प्रसिद्ध पैग़ंबर इब्राहीम के चाचा थे, जो मूर्तिकला
में निपुण थे, बारगहे-इलाह=ईश्‍वरीय सभा,
नासिया-ए-नयाज़=भक्ति का माथा, मुनकिरे-
अवाम=जनता को न मानने वाला,
ज़ुहरा-ओ-मुशतरी=शुक्र और बृहस्पति)

12. ज़मी बदली, फ़लक बदला, मज़ाके-ज़िन्दगी बदला

ज़मी बदली, फ़लक बदला, मज़ाके-ज़िन्दगी बदला
तमद्दुन के कदीम अक़दार बदले आदमी बदला।

ख़ुदा-ओ-अह्रमन बदले वो ईमाने-दुई बदला
हुदूदे-ख़ैरो-शर बदले, मज़ाके-काफ़िरी बदला।

नये इंसान का जब दौरे-ख़ुदनाआगही बदला
रमूज़े-बेखुदी बदले, तक़ाज़ा-ए-ख़ुदी बदला।

बदलते जा रहे हम भी दुनिया को बदलने में
नहीं बदली अभी दुनिया? तो दुनिया को अभी बदला।

नई मंज़िल के मीरे-कारवाँ भी और होते हैं
पुराने ख़िज़्रे-रह बदले वो तर्ज़े-रहबरी बदला।

कभी सोचा भी है, ऐ नज़्मे-कोहना के ख़ुदावन्दों
तुम्हारा हश्र क्या होगा, जो ये आलम कभी बदला।

इधर पिछले से अहले-मालो-ज़र पर रात भारी है
उधर बेदारी-ए-जमहूर का अन्दाज़ भी बदला।

ज़हे-सोज़े-ग़मे-आदम, ख़ुशा साज़े-दिले-आदम
इसी इक शम्‍अ की लौ ने जहाने-तीरगी बदला।

नये मनसूर हैं, सदियों पुराने शैख़ो-क़ाज़ी हैं
न फ़तवे क़ुफ़्र के बदले, न उज्रे-दार ही बदला।

बताये तो बताये उसको तेरी शोख़ी-ए-पिनहाँ
तेरी चश्मे-तवज्जुह है तज्रे-बेरुख़ी बदला।

बफ़ैज़े-आदमे-ख़ाकी, ज़मी सोना उगलती है
इसी ज़र्रे ने दौरे-मह्‌रो-माहो-मुशतरी बदला।

सितारे जागते हैं, रात लट छटकाये सोती है
दबे पाँव किसी ने आके ख़ाबे-ज़िन्दगी बदला।

’फ़िराक़े’-हमनवा-ए-मीर-ओ-ग़ालिब अब नये नग़्मे
वो बज़्मे-ज़िन्दगी बदली वो रंगे-शाएरी बदला।

(मज़ाके-ज़िन्दगी=जीवन की रुचि, तमद्दुन=
संस्कृति, कदीम=पुरातन, अक़दार=मूल्य,
ईमाने-दुई=द्वैतभाव, ख़ैरो-शर=शुभ-अशुभ,
मीरे-कारवाँ=नेता, नज़्मे-कोहना=पुरातन
व्यवस्था, ख़ुदावन्दों=स्वामियों, बेदारी-ए-
जमहूर=जन-जागरण, शोख़ी-ए-पिनहाँ=छिपी
हुई शोख़ी, हमनवा-ए-मीर-ओ-ग़ालिब=’मीर’
व ’ग़ालिब’ की आवाज़ से आवाज़ मिलाने
वाला)

13. निगाहों में वो हल कई मसायले-हयात के

निगाहों में वो हल कई मसायले-हयात के
वो गेसूओं के ख़म कई मआमिलात के ।

हमारी उँगलियों में धड़कने हैं साज़े-दह्र की
हम अह्‌ले-राज़ पारखी हैं, नब्ज़े कायनात के।

है आबो-गिल में शोलाज़न बस एक साज़े-सरमदी
हिजाबे-दह्‌र परदे हैं, तरन्नुमे-हयात के।

ये क़शक़ा-ए-सुर्ख़-सुर्ख़, रूकशे-चिराग़े-तूर है
जबीने कुफ़्र से अयाँ रमूज़ इलाहियात के।

असातज़ा के बस जो थे, सब मुझे सिखा दिये
सुकूते-सरमदी ने वो निकात शेरयात के।

नज़र जो साफ़ आ रहे हैं ख़ानाहा-ए-बेख़तर
वही बिसाते-गंजफ़ा में हैं मुक़ाम मात के।

हज़ारहा इशारे पायेंगे, तलाश शर्त है
क़दींम फ़िक्रयात में, जदीद फ़िक्रयात के।

निजात के लिये न इन्तेज़ारे-मर्गो-हश्र कर
कि कै़दो-बन्दे जिन्दगी में राज़ हैं निजात के।

ये सफ़-बसफ़ मनाज़िरे-ज़माना देख गौर से
है आईना-दर-आईना सबक़ तहय्युरात के।

जमाहियाँ सी ले रहे हैं आसमान पर नुज़ूम
सुना रही है ज़िन्दगी, फ़साने कटती रात के।

कहाँ से हाथ लाइये इन्हे उठाने के लिये
हिजाब-दर-हिजाब जल्वे हैं त‍अय्युनात के।

किताब में ये दर्सयात ढूँढना फ़ुज़ूल है
उन अँखड़ियों से सीख कुछ रमूज़ कुफ़्रियात के।

इन्ही में अपने ख़तो-खाल देखती है ज़िन्दगी
ये आबो-ताबे-शेर हैं कि आइने हयात के।

तमाम उम्र इश्क़ का जवाज़ ढूँढते रहे
ये अह्‌ले-रस्म हो रहे इन्ही तकल्लुफ़ात के।

क़लम की चंद जुंबिशों से और मैंने क्या किया
यही कि खुल गये हैं कुछ रमूज़-से हयात के।

उफ़ुक़ से ता उफ़ुक़ ये क़ायनात महवे-ख़ाब थी
न पूछ दे गये हैं क्या मुझे वो लमहे रात के।

नमाज़ शाएरी है और इमामे-फ़न ’फ़िराक़’ है
मकूअ और सुजूद ज़ेरो-बम हैं सौतियात के।

(मसायले-हयात=जीवन की समस्याओं,
नुज़ूम=सितारे, ख़तो-खाल=चेहरा-मोहरा,
मकूअ=झुकना, सुजूद=सिजदा, सौतियात=
ध्वनिशास्त्र)

14. ये सबाहत की ज़ौ महचकां

ये सबाहत की ज़ौ महचकाँ]-महचकाँ
ये पसीने की रौ कहकशाँ-कहकशाँ।

इश्क़ था एक दिन दास्ताँ-दास्ताँ
आज क्यों है वही बेज़बाँ-बज़बाँ।

दिल को पाया नहीं मंज़िलों-मंज़िलों
हम पुकार आये हैं कारवाँ-कारवाँ।

इश्क़ भी शादमाँ-शादमाँ इन दिनों
हुस्न भी इन दिनों मेहरबाँ-मेह्‌रबाँ।

है तेरा हुस्ने-दिलकश, सरापा सवाल
है तेरी हर अदा, चीस्ताँ-चीस्ताँ।

दम-बदम शबनमो-शोला की ये लवें
सर से पा तक बदन गुलसिताँ-गुलसिताँ।

बैठना नाज़ से अंजुमन-अंजुमन
देखना नाज़ से, दास्ताँ-दास्ताँ।

महकी-महकी फ़जाँ खु़शबू-ए-ज़ुल्फ़ से
पँखड़ी होंट की, गुलफ़शाँ-गुलफ़शाँ।

जिसके साये में इक ज़िन्दगी कट गई
उम्रे-ज़ुल्फ़े-रसा जाविदाँ-जाविदाँ।

ले उड़ी है मुझे बू-ए-ज़ुल्फ़े सियह
ये खिली चाँदनी बोसताँ-बोसताँ।

आज संगम सरासर जु-ए इश्क़ है
एक दरिया-ए-ग़म बेकराँ-बेकराँ।

जिस तरफ़ जाइये मतला-ए-नूर-नूर
जिस तरफ़ जाइये महवशाँ-महवशाँ।

बू ज़मी से मुझे आ रही है तेरी
तुझको क्यों ढूँढिये आसमाँ-आसमाँ।

सच बता मुझको, क्या यूँ ही कट जायेगी
ज़िन्दगी इश्क़ की रायगाँ-रायगाँ।

रूप की चाँदनी सोज़े-दिल सोज़े-दिल
मौज़े-गंगो-जमन साज़े-जाँ साज़े-जाँ।

अहदो-पैमाँ कोई, हुस्न भी क्या करे
इश्क़ भी तो है कुछ बदगुमाँ-बदगुमाँ।

जैसे कौनैन के दिल प हो बोझ सा
इश्क़ से हुस्न है सरगराँ-सरगराँ।

क्यों फ़ज़ाओं की आँखों में थे अश्क़ से
वो सिधारे हैं जब शादमाँ-शादमाँ।

लब प आई न वो बात ही हमनशीं
आये क्या-क्या सुख़न दरम्याँ-दरम्याँ।

ढूँढते-ढूँढते ढूँढ लेंगे तुझे
गो निशा है तेरा बेनिशाँ-बेनिशाँ।

मेरे दारुल-अमाँ, ऐ हरीमे-निगार
हम फिरें क्या युँही बेअमाँ-बेअमाँ।

यूँ घुलेगा-घुलेगा, तेरे इश्क़ में
रह गया इश्क़, अब उस्तुख़ाँ-उस्तुखाँ।

हमको सुनना बहरहाल तेरी ख़बर
माजरा-माजरा, दास्ताँ-दास्ताँ।

उसके तेवर पर क़ुर्बान लुत्फ़ो-करम
मेहरबाँ-मेहरबाँ क़ह्रमाँ-कह्रमाँ।

जी में आता है तुझको पुकारा करूँ
रहगुज़र-रहगुज़र आस्ताँ-आस्ताँ।

याद आने लगीं फिर अदायें तेरी
दिलनशीं-दिलनशीं जांसिताँ-जांसिताँ।

क्यों तेरे ग़म की चिंगारियाँ हो गईं
सोज़े-दिल सोज़े दिल सोज़े जाँ सोज़े जाँ।

साथ है रात की रात वो रश्के-मह
मेजबाँ-मेजबाँ मेहमाँ-मेहमाँ।

इश्क़ की ज़िन्दगी भी ग़रज़ कट गई
ग़मज़दा-ग़मज़दा शादमाँ-शादमाँ।

अब पड़े-अब पड़े उनके माथे प बल
अलहज़र-अलहज़र अल‍अमाँ-अल‍अमाँ।

इश्क़ ख़ुद अपनी तारीफ़ यूँ कर गया
अह्रमन-अह्रमन ईज़दाँ-ईज़दाँ।

कैफ़ो-मस्ती है इमकाँ-दर-इमकाँ, ’फ़िराक़’
चाँदनी है अभी नौजवाँ-नौजवाँ।

(सबाहत=गोरी रंगत, ज़ौ=चमक,
महचकाँ=चन्द्रमा का प्रकाश बिखेरने
वाला, कहकशाँ=आकाश गंगा, सोज़े-
दिल=दिल का दुख, साज़े-जाँ=जीवन
राग, कौनैन=विश्व, हमनशीं=साथी,
दारुल-अमाँ=शान्ति की जगह, हरीमे-
निगार=महबूब के घर की चहरदीवारी,
उस्तुख़ाँ=हड्डी, कह्रमाँ=कोपमान)

15. ज़हे-आबो-गिल की ये कीमिया, है चमन की मोजिज़ा-ए-नुमू

ज़हे-आबो-गिल की ये कीमिया, है चमन की मोजिज़ा-ए-नुमू
न ख़िज़ाँ है कुछ न बहार कुछ, वही ख़ारो-ख़स, वही रंगो-बू।

मेरी शाएरी का ये आईना, करे ऐसे को तेरे रू-ब-रू
जो तेरी ही तरह हो सर-बसर, जो तुझी से मिलता हो मू-ब-मू।

इसी सोज़ो-साज़ की मुन्तज़र, थी बहारे-गुलशने-आबरू
तेरे रंग-रंग निशात से, मेरे ग़म की आने लगी है बू।

वो चमन-परस्त भी हैं जिन्हें, ये ख़बर हुई ही न आज तक
कि गुलों की जिससे है परवरिश, रगे-ख़ार में है वही लहू।

हुई ख़त्म सोहबते-मयकशी, यही दाग़ सीनों में रह गया
कि तुल‍अ होने से रह गये, कई आफ़ताबे-ख़ुमो-सुबू।

कई लाख फूलों ने पैरहन सरे-बाग़ हँस के उड़ा दिये
ज़हे-फ़स्ले-गुल वो हवा चली, कि चमन की ले उड़ी आबरू।

जिसे आपने-आप से कहते भी, मुझे आज लाख हिजाब है
वो ज़माना इश्क़ को याद है, मेरा अर्ज़े-ग़म तेरे रू-ब-रू।

तुझे पाके ख़ुद को मैं पाऊँगा , कि तुझी में खोया हुआ हूँ मैं
ये तेरी तलाश है इसलिये, कि मुझे है अपनी ही जुस्तजू।

हुई वारदाते-सहर यहाँ, तो गुलों का सीना धड़क गया
ये चलो कि तेगे़-नसीम ने कई हाथ उछाल दिया लहू।

मेरे दिल में था कोई जलवागर, वो हो तो कि और कोई मगर
यही ख़ालो-ख़त थे ब-जिन्सही, यही रूप-रंग भी हू-ब-हू।

इधर एक चुप तो हजार चुप, उधर एक कह तो हजार सुन
वो नयाजे-इश्क़ की बेबसी, वो निगाहे-नाज़ के दू-ब-दू।

वही आँख जामे-मये-हया, वही आँख जामे-जहाँनुमा
जो निगाह उठती नहीं कभी, वो निगाह जाती है चार सू।

कभी पाये-पाये हुये तुझे, कभी खोये-खोये हुये तुझे
कभी बेनयाज़े-तलाश है, कभी इश्क़ मायले-जुस्तजू।

न ये भेद हुस्न का खुल सका, न भरम ये इश्क़ का मिट सका
किसी रूप में ये है तू कि मैं, किसी भेस में ये हूँ मैं कि तू।

ये कहाँ से बज़्मे-ख़याल में उमड़ आईं चेहरों की नद्दियाँ
कोई महचकाँ, कोई ख़ुरफ़ेशाँ, कोई ज़ोहरावश, कोई शोलारू।

गहे, बाग़े-हुस्न अदन-अदन, गहे, बाग़े-हुस्न खुतन-ख़ुतन
तबो-ताब रू-ए-नुमू-नुमू, ख़मो-पेच ज़ुल्फ़े-सियाह मू।

वो अदा-ए-उज्रे-सितम न थी, वो था कोई जादू-ए-सामरी
मुझे आज तक नहीं भूलती, वो निगाहे-नरगिसे-हीलाजू।

मेरी शाएरी में खिलाये गुल, सरे-नोके-ख़ार चमन-चमन
जो किये ये दावे हरीफ़ ने, रगे-फ़िक्र देने लगी लहू।

तुझे अहले-दिल की ख़बर नहीं कि जहाँ में गंज लुटा गये
ये गदागराने-दयारे-ग़म, ये कलन्दराने-तही-कदू।

अब उसी का तकिया ज़माने में, ये सुना है मरजा-ए-खल्क है
जो ’फ़िराक़’ तेरे लिये फिरा, कभी दर-ब-दर, कभी कू-ब-कू।

(ज़हे-आबो-गिल=जल-धरती को धन्य, कीमिया=
रसायन, मोजिज़ा-ए-नुमू=उत्थान का चमत्कार,
मू-ब-मू=हूबहू, ख़ुमो-सुबू=घड़ा और मधुकलश,
तेगे़-नसीम=हवा की तलवार, ब-जिन्सही=पूर्णतः,
हूबहू, दू-ब-दू=आमने-सामने, जामे-जहाँनुमा=
जगप्रदर्शी कलश, मरजा-ए-खल्क=लोगों की
तवज़्ज़ुह की जगह)

16. ये कौल तेरा याद है साक़ी-ए-दौराँ

ये कौल तेरा याद है साक़ी-ए-दौराँ
अंगूर के इक बीच में सौ मयकदे पिनहाँ।

अँगड़ाइयाँ सुब्‍हों की सरे-आरिज़े-ताबाँ।
वो करवटे शामों की, सरे-काकुले-पेचाँ।

सद-मेह्‌र दरख़्‍शिन्दा, चराग़े-तहे-दामाँ।
सरता-ब-क़दम तू शफ़क़िस्ताँ-शफ़क़िस्ताँ।

पैकर ये लहकता है कि गुलज़ारे-इरम है
हर अज़्व चहकता है कि है सौते-हज़ाराँ।

ज़ेरो-बमे-सीने में वो मौसूक़ी-ए-बेसौत।
ये पंखड़ी होठों की है गुल्ज़ार बदामाँ।

ये मौजे-तबस्सुम हैं कि पिघले हुये कौंदे
शबनम-ज़दा ग़ुंचे’ लबे-लाली से पशेमाँ।

इन पुतलियों में जैसे हिरन मायले-रम हों
वहशत भरी आँखें हैं कि दश्ते-ग़िज़ालाँ।

हर अज़्वे-बदन जाम-बकफ़ है दमे-रफ़्तार
इक सर्वे चरागाँ नज़र आता है ख़रामाँ।

इक आलमे-शबताब है, बल खाई लटों में
रातों का कोई बन है कि है काकुले-पेचाँ।

तू साज़े-गुनह का है कोई परदा-ए-रंगीं
तू सोज़े-गुनह का है कोई, शोला-ए-रक़्साँ।

लहराई हुई ज़ुल्फ़, शिकन-ज़ेर-शिकन में
सौ पहलुओं से आलमें-जुल्मात में ग़लता।

अशआर मेरे तरसी हुई आँखों के कुछ खाब
हूँ सुब्‍हे-अज़ल से तेरे दीदार का ख़ाहाँ।

है दारो-मदार अह्‌ले-ज़माना का तुझी पर
तू क़त्बे-जहाँ, क़िबला-ए-दीं, काबा-ए-ईमाँ।

हम रिन्द हैं, वाक़िफ़े-असरारे-ज़माना
सीने में हमारे भी अमीने-ग़मे-दौराँ।

आँखों में नेहाँख़ाने हक़ीक़त के है महफ़ूज़
दुनाया-मजाज़ एक तवज्जुह की है ख़ाहाँ।

मस्ती में भी किस दर्जा है मुहतात अदाएँ
इक नीम-निगह रौशनी-ए-महफ़िले-रिन्दाँ।

परदा दरे-असरारे- नेहाँन नर्म निगाहें
नब्बाज़े-ग़मे-अह्रमानो-मरज़ी-ए-यज़दाँ।

कामत है कि कुहसार प चढ़ता हुआ दिन है
जोबन है कि है चश्मा-ए-ख़ुर्शीद में तूफ़ाँ।

साँचे में ढले शेर हैं, या अज़्वे-बदब के
ये फ़िक्र नुमा जिस्म, सरासर ग़ज़लिस्ताँ।

हर जुंबिशे-आज़ा में छलक जाते हैं सद जाम
हर गरदिसे-दीदा में कई गरदिसे-दौराँ।

ख़मयाज़ा-ए-पैकर में चटक जाते है गुंचें
रंगीनी-ए-क़ामत चमनिस्ताँ-चमनिस्ताँ।

हैं जलवादहे-बज़्म पसीने के ये क़तरे
जिस्मे-अरकआलूद से महफ़िल है चरागाँ।

अब गरदने-मीना भी है शाइसता-ए-जुन्नार
ज़रकारी-ए- ख़मदार से है साफ नुमायाँ।

इक शोला-ए-बेदूद है, या क़ुलक़ुले-मीना
ये नग़्मा है रोशन-कुने-तारीकी-ए-दौराँ।

साग़र की खनक, दर्द में डूबी हुई आवाज़
इस दौरे-तरक़्क़ी में दुखी है बहुत इंसाँ।

आतशकदा-ए-ग़ैब से ले आये हैं ये लोग
पहलू में हमारे हैं दिले-शोला-बदामाँ।

मयख़ाना भी है ग़मकदा-ए-ज़ीस्त की तस्वीर
नमदीदा हैं पैमाने, प्याले दिले-सोज़ाँ।

क्या होने को है कारगहे-दह्‌र में साकी!
जिस सम्त नज़र जाये, कयामत के हैं सामाँ।

कब होगी हुवेदा उफ़ुक़े-ख़ुम से नई सुब्‍ह
शीशे में छलकता तो है मुस्तक़बिले इन्साँ।

इस बादा-ए-सरजोश से उठती हैं जो मौजें
हैं आलमे-असरार की वो सिलसिला-जुंबाँ।

ये जिस्म है कि कृष्न की बंशी की कोई टेर
बल खाया हुआ रूप है या शोला-ए-पेचाँ।

सद मेहरो-क़मर, इसमें झलक जाते हैं साक़ी!
इक बूँद मये-नाब में सद आलमें इमकाँ।

मय जोशी-ए-सहबा में धड़कता है दिले-जाम
साग़र में हैं मौजे कि फड़कती है रगे-जाँ।

साक़ी तेरी आमद की बशारत है शबे-माह
निकला वो नसीबों को जगाता शबे-ताबाँ।

जामे-मये रंगी है कि ग़ुलहाये-शुगुफ़्ता
मयख़ाने की ये रात है जो सुब्‍हे-गुलिस्ताँ।

पूछे न हमें तू ही तो हम लोग कहाँ जायें
ऐ साक़ी-ए-दौराँ अरे ऐ साक़ी-ए-दौराँ।

साक़ी ये तेरा क़ौल हमें याद रहेगा
आरास्ता जिस वक़्त हुई महफ़िले-रिंदाँ।

बस फ़ुरसते-यक-लमहा है रिन्दों कि है उतरा
इस लम्हा अबद का तहे-नुह-गुम्बदे-दौराँ।

बरहक़ है ’फ़िराक़’ अहले-तरीक़त का ये कहना
ये मये-ग़मे-दुनिया को बना दे गमें-जानाँ।

(सरे-आरिज़े-ताबाँ=चमकते गालों पर,
दरख़्‍शिन्दा=चमकते, ज़ेरो-बमे-सीने=
सीने का उठना बैठना, मौसूक़ी-ए-बेसौत=
बिना आवाज़ का संगीत, शोला-ए-रक़्साँ=
नाचती लव, ख़ाहाँ=इच्छुक, वाक़िफ़े-
असरारे-ज़माना=समय के रहस्य से
परिचित, मुहतात=सतर्क, कामत=
लम्बाई, कुहसार=पहाड़ी, जुंबिशे-आज़ा=
अंगों के हिलने, शाइसता-ए-जुन्नार=
जनेव का अनुशासन, ग़मकदा-ए-
ज़ीस्त=जीवन की दुखशाला, नमदीदा=
गीला, हुवेदा=उत्पन्न, मेहरो-क़मर=
चाँद-सूरज, क़ौल=वचन, बरहक़=सत्य)

17. नैरंगे रोज़गार में कैफ़े-दवाम देख

नैरंगे-रोज़गार में कैफ़े-दवाम देख
साक़ी की मस्त आँख से गर्दिश में जाम देख।

क़ुदरत की सैर कर तेरे होशो-जुनूँ की ख़ैर
ये गुलसिताने सुब्‍ह, ये सहरा-ए-शाम देख।

बस इक निगाह हासिले-बज़्मे-निशात है
रू-ए-निगारो-मौजे-मये-लालाफ़ाम देख।

बे जुंबिशे-नज़र के हैं ये पुरसिशे-नेहाँ
ये ख़ास अदा-ए-हुस्न ब‍अन्दाज़े-आम देख।

रानाई-ए-ख़याल को समझा वेसाले-दोस्त
ये ज़ोमे-इश्क़ देख ये सौदा-ए-ख़ाम देख।

उठती है चश्मे-साक़िये-मयख़ाना बज़्म पर
ये वक़्त वो नहीं कि हलालो-हराम देख।

ज़ुल्मतसरा-ए-दह्‌र में कुछ रौशनी सी है
इक रात कारवाने-अदम का क़याम देख।

यूँ ही नहीं हैं नरगिसे-राना की गर्दिशें
हर दौर, हर सुकूने-नज़र, हर क़याम देख।

महरूमियाँ न देख दिले-तश्‍नाकाम की
बज़्मे-निशात, जलव-ए-मय, छलके जाम देख।

है मौजे-नूर गंगो-जमन जाम साक़िया
ये रात, ये मुक़ाम, ये माहे-तमाम देख।

चश्‍मे-सियाहकार मिटाती है मिट भी जा
हश्रे-हयात देख, लबों के पयाम देख।

उस ज़ुल्फ़े-ख़म-बख़म में है शामें-अबद की सैर
सुब्‍हे-अलस्त देख नज़र का पयाम देख।

क्या देखता है ग़फ़लतो-होश उस निगाह के
ग़फ़िल, हयाते-ग़म की फ़ना-ओ-दवाम देख।

कल तक खुला न था मेरे दिल का मुआमिला
आज अपने सोज़ो-दर्द को बेनंगो-नाम देख।

दुनिया को देख ले कि वो दुनिया नहीं रही
बर्क़े निगाह का असरे-नातमाम देख।

ख़ाबे-गराँने-रंजो-ग़मे-रोज़गार से
जाग और जल्वाहा-ए-निशाते-दवाम देख।

बेकस नहीं है इश्क़ बहुत, ऐ निगाहे-यार!
क्या तुझको मेरे दर्द से तू अपना काम देख।

हर साँस मौजे-बादा-ए-सरजोश है ’फ़िराक़’
हस्ती को मावरा-ए-फ़ना-ओ-दवाम देख।

(नैरंगे-रोज़गार=ज़माने की रंगारंगी में,
कैफ़े-दवाम=सदा रहने वाली मस्ती,
हश्रे-हयात=जीवन का अन्जाम)

18. वादे की रात मरहबा, आमदे-यार मेहरबाँ

वादे की रात मरहबा, आमदे-यार मेहरबाँ
जुल्फ़े-सियाह शबफ़शाँ, आरिजे़-नाज़ महचकाँ।

बर्क़े-जमाल में तेरी, ख़ुफ़्ता सुकूने-बेकराँ
और मेरा दिले-तपाँ, आज भी है तपाँ-तपाँ।

शाम भी थी धुआँ-धुआँ हुस्न भी था उदास-उदास
याद सी आके रह गईं दिल को कई कहानियाँ।

छेड़ के दास्ताने-ग़म, अहले-वतन के दरम्याँ
हम अभी बीच में ही थे और बदल गई जवाँ।

अपनी ग़ज़ल में हम जिसे कहते रहे हैं बारहा
वो तेरी दास्ताँ कहाँ वो तो है ज़ेबे-दास्ताँ।

कोई न कोई बात है, उसके सुकूते-यास में
भूल गया है सब गिले, आज तो इश्के़-बदगु़मा।

रात कमाल कर गईं, आलमे-कर्बो-दर्द में
दिल को मेरे सुला गईं तेरी नज़र की लोरियाँ।

सरहदे-ग़ैब तक तुझे, साफ़ मिलेंगे नक़्शे-पा
पूँछ न ये फिरा हूँ मैं तेरे लिये कहाँ-कहाँ।

कहते हैं मेरी मौत पर उसको भी छीन ही लिया
इश्क़ को मुद्दतों के बाद एक मिला था तर्जुमाँ।

रंग जमा के उठ गई कितने तमद्दुनो की बज़्म
याद नहीं ज़मीन को, भूल चुका है आसमाँ।

आर्ज़ियत का सोज भी देख तो सोजे-आर्ज़ी
बीते हुये जुगों से पूँछ किसको सबात है कहाँ।

कोई नहीं जो साथ दे तेरे हरीमे-राज़ तक
बिख़रे हुये महो-नुजूम, देते हैं सब तेरा निशाँ।

जिसको भी देखिये वही बज़्म में है ग़ज़लसरा
छिड़ गई दास्ताने-दिल, फिर बहदीसे-दीगराँ।

बीत गये हैं लाख जुग, सूये-वतन चले हुये
पहुँची है आदमी की जात, चार कदम कशाँ-कशाँ।

पाँव से फ़र्के-नाज़ तक बर्क़े-तबस्सुमे-निशात
हुस्ने-चमनफ़रोश को देख जहाँ है गुलसिताँ।

दादे-सुखनवरी मिली अबरू-ए-नाज़ उठ गये
है वही दास्ताने-दिल हुस्न भी कह उठे कि हाँ।

जैसे खिला हुआ गुलाब चाँद के पास लहलहाये
रात वह दस्ते-नाज़ में जामे-निशात अरग़वाँ।

राज़े-वज़ूद कुछ न पूँछ, सुब्‍हे-अज़ल से आज तक
कितने यक़ीन चल बसे, कितने गुजर गये गुमाँ।

नर्गिसे-नाज़ मरहबा ज़द में है जिसकी कायनात
चुटकी में नावके-निगाह जुटी भवें कमाँ-कमाँ।

तुझ से यही कहेंगी क्या गुज़री है मुझ पर रात भर
जो मेरी आस्तीं प हैं तेरे ग़मों की सुर्खि़याँ।

हुस्ने-अज़ल की जल्वागाह आईना-ए-सुकूते-राज़
देख तो है अयाँ-अयाँ पूछ तो है नेहाँ-नेहाँ।

दूर बहुत ज़मीन से पहुँची है इक किरन की चोट
नीम तबस्सुमे-खफ़ी! रह गईं पिस के बिजलियाँ।

कितने तसव्वुरात के, कितने ही वारदात के
लालो-गुहर लुटा गया दिल है कि गंजे-शायगाँ।

सीनो में दर्द भर दिया छेड़ के दास्ताने-हुस्न
आज तो काम कर गई इश्क़ की उम्रे-रायगाँ।

आह फरेबे-रंगो-बू. अपनी शिकस्त आप है
बाद नज़ारा-ए-बहार, बढ़ गई और उदासियाँ।

ऐ मेरी शामे-इन्तेज़ार, कौन ये आ गया, लिये
ज़ुल्फो़ में एक शबे-दराज़, आँखों में कुछ कहानियाँ।

मुझको ’फ़िराक़’ याद है, पैकरे-रंगो-बू-ए-दोस्त
पाँव से ता-जबीने-नाज़, महरफ़शाँ-ओ-महचकाँ।

(ख़ुफ़्ता=सोया हुआ, सुकूने-बेकराँ=अपार शान्ति,
दिले-तपाँ=व्याकुल हृदय, तर्जुमाँ=कहने वाला,
आर्ज़ियत=क्षणभंगुरता, सबात=स्थिरता, महो-नुजूम=
चाँद-तारे, अरग़वाँ=लाल, अयाँ=स्पष्ट, गंजे-शायगाँ=
बेहतरीन ख़जाना)

19. हमनवा कोई नहीं है वो चमन मुझको दिया

हमनवा कोई नहीं है वो चमन मुझको दिया
हमवतन बात न समझें वो वतन मुझको दिया।

ऐ जुनूँ आज उन आँखों की दिलाकर मुझे याद
तू ने सौ ख़ित्ता-ए-आहू-ए-ख़ुतन मुझको दिया।

मुज़दा-ए-कौसरो-तसनीम दिया औरों को
शुक्र, सदशुक्र! ग़मे-गँगो-जमन मुझको दिया।

ढक लिये तारों भरी रात ने हस्ती के उयूब
आँसुओं ने शबे-गु़र्बत में कफ़न मुझको दिया।

अर्ज़े-जन्नत के भी बस में नहीं जिसका देना
हिन्द की ख़ाक़ ने वो सोजे़-वतन मुझको दिया।

बहदते-आशिको-माशूक़ की तस्वीर हूँ मैं
नल का ईशार तो एख़लासे-दमन मुझको दिया।

क़दे-राना की क़सम, नर्म सबाहत की क़सम
इश्क़ ने क्या चमने-सर्वो-समन मुझको दिया।

मिल गया मुझको जमाले-रुखे़-रंगीं का चमन
दिले-सोजाँ का ये तपता हुआ बन, मुझको दिया।

तेरे बत्लान थे लाये जो मुझे हक़ की तरफ़
तूने ईमान मेरा शैखे़-जमन मुझको दिया।

मेरे दिल से मेरा हर शेर कह उट्ठा तूने
इशवाज़ारे-निगहे-सामरी-फ़न मुझको दिया।

नारा-ए-हक़ ने किया मर्तबाये-इश्क़ बलन्द
मनसबे-जल्वादहे-दारो-रसन मुझको दिया

दस्ते-क़ुदरत ने बस इक पैकरे-ख़ाकी, जिसमें
सहरे नौ की थी ख़ाबीदा किरन मुझको दिया।

ख़त्म है मुझ पर, गज़लगोई-ए-दौरे-हाज़िर
देने वाले ने वो अन्दाज़े-सुखन मुझको दिया।

शाएरे-अस्र की तक़दीर न कुछ पूछ ’फ़िराक़’
जो कहीं का भी न रक्खेगा वो फ़न मुझको दिया।

(हमनवा=साथी, अर्ज़े-जन्नत=जन्नत की ज़मीन,
सबाहत=नमकीनी, बत्लान=तत्त्व, इशवाज़ारे=
नाज़-नखरा)

20. बहुत पहले से उन कदमो की आहट जान लेते हैं

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं।

मेरी नजरें भी ऐसे काफ़िरों की जान ओ ईमाँ हैं
निगाहे मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं।

जिसे कहती दुनिया कामयाबी वाय नादानी
उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं।

निगाहे-बादागूँ, यूँ तो तेरी बातों का क्या कहना
तेरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं।

तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों के चादर तान लेते हैं

खुद अपना फ़ैसला भी इश्क में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुजरें जो दिल में ठान लेते हैं

हयाते-इश्क़ का इक-इक नफ़स जामे-शहादत है
वो जाने-नाज़बरदाराँ, कोई आसान लेते हैं।

हमआहंगी में भी इक चासनी है इख़्तलाफ़ों की
मेरी बातें ब‍उनवाने-दिगर वो मान लेते हैं।

तेरी मक़बूलियत की बज्‍हे-वाहिद तेरी रम्ज़ीयत
कि उसको मानते ही कब हैं जिसको जान लेते हैं।

अब इसको कुफ़्र माने या बलन्दी-ए-नज़र जानें
ख़ुदा-ए-दोजहाँ को देके हम इन्सान लेते हैं।

जिसे सूरत बताते हैं, पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मानी जान लेते हैं

तुझे घाटा ना होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तेरा ऎ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं

हमारी हर नजर तुझसे नई सौगन्ध खाती है
तो तेरी हर नजर से हम नया पैगाम लेते हैं

रफ़ीक़-ए-ज़िन्दगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आखिर है
तेरा ऎ मौत! हम ये दूसरा एअहसान लेते हैं

ज़माना वारदात-ए-क़्ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर आँखों पर मेरा दीवान लेते हैं

'फ़िराक़' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं

21. वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें

वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें
वो इक शख़्स के याद आने की रातें

शब-ए-मह की वो ठंडी आँचें वो शबनम
तिरे हुस्न के रस्मसाने की रातें

जवानी की दोशीज़गी का तबस्सुम
गुल-ए-ज़ार के वो खिलाने की रातें

फुवारें सी नग़्मों की पड़ती हों जैसे
कुछ उस लब के सुनने-सुनाने की बातें

मुझे याद है तेरी हर सुब्ह-ए-रुख़्सत
मुझे याद हैं तेरे आने की रातें

पुर-असरार सी मेरी अर्ज़-ए-तमन्ना
वो कुछ ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने की रातें

सर-ए-शाम से रतजगा के वो सामाँ
वो पिछले पहर नींद आने की रातें

सर-ए-शाम से ता-सहर क़ुर्ब-ए-जानाँ
न जाने वो थीं किस ज़माने की रातें

सर-ए-मै-कदा तिश्नगी की वो क़स्में
वो साक़ी से बातें बनाने की रातें

हम-आग़ोशियाँ शाहिद-ए-मेहरबाँ की
ज़माने के ग़म भूल जाने की रातें

'फ़िराक़' अपनी क़िस्मत में शायद नहीं थे
ठिकाने के दिन या ठिकाने की रातें

22. ये तो नहीं कि ग़म नहीं

ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ! मेरी आँख नम नहीं

तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं

अब न खुशी की है खुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं

मेरी नशिस्त है ज़मीं
खुल्द नहीं इरम नहीं

क़ीमत-ए-हुस्न दो जहाँ
कोई बड़ी रक़म नहीं

लेते हैं मोल दो जहाँ
दाम नहीं दिरम नहीं

सोम-ओ-सलात से फ़िराक़
मेरे गुनाह कम नहीं

मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नहीं

23. ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया

ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया
ये ज़मीं बनती गई ये आसमाँ बनता गया

दास्तान-ए-जौर-ए-बेहद ख़ून से लिखता रहा
क़तरा क़तरा अश्क-ए-ग़म का बे-कराँ बनता गया

इश्क़-ए-तन्हा से हुईं आबाद कितनी मंज़िलें
इक मुसाफ़िर कारवाँ-दर-कारवाँ बनता गया

मैं तिरे जिस ग़म को अपना जानता था वो भी तो
ज़ेब-ए-उनवान-ए-हदीस-ए-दीगराँ बनता गया

बात निकले बात से जैसे वो था तेरा बयाँ
नाम तेरा दास्ताँ-दर-दास्ताँ बनता गया

हम को है मालूम सब रूदाद-ए-इल्म-ओ-फ़ल्सफ़ा
हाँ हर ईमान-ओ-यक़ीं वहम-ओ-गुमाँ बनता गया

मैं किताब-ए-दिल में अपना हाल-ए-ग़म लिखता रहा
हर वरक़ इक बाब-ए-तारीख़-ए-जहाँ बनता गया

बस उसी की तर्जुमानी है मिरे अशआर में
जो सुकूत-ए-राज़ रंगीं दास्ताँ बनता गया

मैं ने सौंपा था तुझे इक काम सारी उम्र में
वो बिगड़ता ही गया ऐ दिल कहाँ बनता गया

वारदात-ए-दिल को दिल ही में जगह देते रहे
हर हिसाब-ए-ग़म हिसाब-ए-दोस्ताँ बनता गया

मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ
जो भी मैं कहता गया हुस्न-ए-बयाँ बनता गया

वक़्त के हाथों यहाँ क्या क्या ख़ज़ाने लुट गए
एक तेरा ग़म कि गंज-ए-शाईगाँ बनता गया

सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया

24. आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था

आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था
वही मील और वही संग-ए-निशाँ है कि जो था

फिर तिरा ग़म वही रुस्वा-ए-जहाँ है कि जो था
फिर फ़साना ब-हदीस-ए-दिगराँ है कि जो था

मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं
वही अंदाज़-ए-जहान-ए-गुज़राँ है कि जो था

ज़ुल्मत ओ नूर में कुछ भी न मोहब्बत को मिला
आज तक एक धुँदलके का समाँ है कि जो था

यूँ तो इस दौर में बे-कैफ़ सी है बज़्म-ए-हयात
एक हंगामा सर-ए-रित्ल-ए-गिराँ है कि जो था

लाख कर जौर-ओ-सितम लाख कर एहसान-ओ-करम
तुझ पे ऐ दोस्त वही वहम-ओ-गुमाँ है कि जो था

आज फिर इश्क़ दो-आलम से जुदा होता है
आस्तीनों में लिए कौन-ओ-मकाँ है कि जो था

इश्क़ अफ़्सुर्दा नहीं आज भी अफ़्सुर्दा बहुत
वही कम कम असर-ए-सोज़-ए-निहाँ है कि जो था

नज़र आ जाते हैं तुम को तो बहुत नाज़ुक बाल
दिल मिरा क्या वही ऐ शीशा-गिराँ है कि जो था

जान दे बैठे थे इक बार हवस वाले भी
फिर वही मरहला-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है कि जो था

आज भी सैद-गह-ए-इश्क़ में हुसन-ए-सफ़्फ़ाक
लिए अबरू की लचकती सी कमाँ है कि जो था

फिर तिरी चश्म-ए-सुख़न-संज ने छेड़ी कोई बात
वही जादू है वही हुस्न-ए-बयाँ है कि जो था

रात भर हुस्न पर आए भी गए सौ सौ रंग
शाम से इश्क़ अभी तक निगराँ है कि जो था

जो भी कर जौर-ओ-सितम जो भी कर एहसान-ओ-करम
तुझ पे ऐ दोस्त वही वहम-ओ-गुमाँ है कि जो था

आँख झपकी कि इधर ख़त्म हुआ रोज़-ए-विसाल
फिर भी इस दिन पे क़यामत का गुमाँ है कि जो था

क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन
आज वो रब्त का एहसास कहाँ है कि जो था

तीरा-बख़्ती नहीं जाती दिल-ए-सोज़ाँ की 'फ़िराक़'
शम्अ के सर पे वही आज धुआँ है कि जो था

25. ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़

ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
तिरे ख़याल की ख़ुशबू से बस रहे हैं दिमाग़

दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूँ आई
कि जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चराग़

झलकती है खिंची शमशीर में नई दुनिया
हयात ओ मौत के मिलते नहीं हैं आज दिमाग़

हरीफ़-ए-सीना-ए-मजरूह ओ आतिश-ए-ग़म-ए-इश्क़
न गुल की चाक-गरेबानियाँ न लाले के दाग़

वो जिन के हाल में लौ दे उठे ग़म-ए-फ़र्दा
वही हैं अंजुमन-ए-ज़िंदगी के चश्म-ओ-चराग़

तमाम शोला-ए-गुल है तमाम मौज-ए-बहार
कि ता-हद-ए-निगह-ए-शौक़ लहलहाते हैं बाग़

नई ज़मीन नया आसमाँ नई दुनिया
सुना तो है कि मोहब्बत को इन दिनों है फ़राग़

जो तोहमतें न उठीं इक जहाँ से उन के समेत
गुनाह-गार-ए-मोहब्बत निकल गए बे-दाग़

जो छुप के तारों की आँखों से पाँव धरता है
उसी के नक़्श-ए-कफ़-ए-पा से जल उठे हैं चराग़

जहान-ए-राज़ हुई जा रही है आँख तिरी
कुछ इस तरह वो दिलों का लगा रही है सुराग़

ज़माना कूद पड़ा आग में यही कह कर
कि ख़ून चाट के हो जाएगी ये आग भी बाग़

निगाहें मतला-ए-नौ पर हैं एक आलम की
कि मिल रहा है किसी फूटती किरन का सुराग़

दिलों में दाग़-ए-मोहब्बत का अब ये आलम है
कि जैसे नींद में डूबे हों पिछली रात चराग़

'फ़िराक़' बज़्म-ए-चराग़ाँ है महफ़िल-ए-रिंदाँ
सजे हैं पिघली हुई आग से छलकते अयाग़

26. कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए
वाह-री ग़फ़लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम

पर्दा-ए-आज़ुर्दगी में थी वो जान-ए-इल्तिफ़ात
जिस अदा को रंजिश-ए-बेजा समझ बैठे थे हम

क्या कहें उल्फ़त में राज़-ए-बे-हिसी क्यूँकर खुला
हर नज़र को तेरी दर्द-अफ़ज़ा समझ बैठे थे हम

बे-नियाज़ी को तिरी पाया सरासर सोज़ ओ दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम

इंक़लाब-ए-पय-ब-पय हर गर्दिश ओ हर दौर में
इस ज़मीन ओ आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम

भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीअत का समझ बैठे थे हम

साफ़ अलग हम को जुनून-ए-आशक़ी ने कर दिया
ख़ुद को तेरे दर्द का पर्दा समझ बैठे थे हम

कान बजते हैं मोहब्बत के सुकूत-ए-नाज़ को
दास्ताँ का ख़त्म हो जाना समझ बैठे थे हम

बातों बातों में पयाम-ए-मर्ग भी आ ही गया
उन निगाहों को हयात-अफ़्ज़ा समझ बैठे थे हम

अब नहीं ताब-ए-सिपास-ए-हुस्न इस दिल को जिसे
बे-क़रार-ए-शिकव-ए-बेजा समझ बैठे थे हम

एक दुनिया दर्द की तस्वीर निकली इश्क़ को
कोह-कन और क़ैस का क़िस्सा समझ बैठे थे हम

रफ़्ता रफ़्ता इश्क़ मानूस-ए-जहाँ होता चला
ख़ुद को तेरे हिज्र में तन्हा समझ बैठे थे हम

हुस्न को इक हुस्न ही समझे नहीं और ऐ फ़िराक़
मेहरबाँ ना-मेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम

27. सितारों से उलझता जा रहा हूँ

सितारों से उलझता जा रहा हूँ
शब-ए-फ़ुर्क़त बहुत घबरा रहा हूँ

तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ
जहाँ को भी समझा रहा हूँ

यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमाँ ये है कि धोके खा रहा हूँ

असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे क़ाइल भी करता जा रहा हूँ

भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ

तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ

अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ

हदें हुस्न-ओ-इश्क़ की मिलाकर
क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ

ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मोहब्बत
तेरे हाथों में लुटाता जा रहा हूँ

जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ

मोहब्बत अब मोहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ

ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप
"फ़िराक़" अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ

28. अब तो हम हैं

अब तो हम हैं और भरी दुनियाँ की हैं तनहाईयाँ
"याद थीं हमको भी रंगारंग बज़्म अमराईयाँ "

जल्वा-ए-लैला हो ऐ दिल! या ज़ुनुने-क़ैस हो
इश्क़ कुछ सनकी हवाएँ,हुस्न कुछ परछाईयाँ

इश्क़ को समझा अगर कोई तो चश्मे-दोस्त ने
शोहरतें भी कम न थी,कुछ कम न थीं रुसवाईयाँ

टूटती जाती हैं आसन,डूब जाते हैं दिल
बढ़ती जाती हैं हयाते-इश्क़ की गहराईयाँ

क्या पयामे-ज़िन्दगी को हाजते-लफ्जों-बयाँ
तूने देखीं भी निगाहें-नाज़ की गोयाइयाँ

शोखियाँ-हुस्ने-हया-परवर में ये कब थीं 'फिराक़'
रंग लाई रफ़्ता-रफ़्ता इश्क़ की रुसवाईयाँ

29. छलक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं

छ्लक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं
निगाहे-नरगिसे-राना, तेरा जवाब नहीं

ज़मीन जाग रही है कि इन्क़लाब है कल
वो रात है कि कोई ज़र्रा भी महवे-ख़्वाब नहीं

ज़मीन उसकी, फ़लक उसका, कायनात उसकी
कुछ ऐसा इश्क़ तेरा ख़ानमा ख़राब नहीं

जो तेरे दर्द से महरूम हैं यहाँ उनको
ग़मे- ज़हाँ भी सुना है कि दस्तयाब नहीं

अभी कुछ और हो इन्सान का लहू पानी
अभी हयात के चेहरे पे आबो-ताब नहीं

दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने
ख़राब हो के भी ये ज़िन्दगी ख़राब नहीं

30. सर में सौदा भी नहीं, दिल में तमन्ना भी नहीं

सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं

दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं

शिकवा-ए-जौर करे क्या कोई उस शोख़ से जो
साफ़ क़ाएल भी नहीं साफ़ मुकरता भी नहीं

मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह अब मुझ से तिरी रंजिश-ए-बेजा भी नहीं

एक मुद्दत से तिरी याद भी आई नहीं हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं

आज ग़फ़लत भी उन आँखों में है पहले से सिवा
आज ही ख़ातिर-ए-बीमार शकेबा भी नहीं

बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मक़ाम
कुंज-ए-ज़िंदाँ भी नहीं वुसअत-ए-सहरा भी नहीं

अरे सय्याद हमीं गुल हैं हमीं बुलबुल हैं
तू ने कुछ आह सुना भी नहीं देखा भी नहीं

आह ये मजमा-ए-अहबाब ये बज़्म-ए-ख़ामोश
आज महफ़िल में फ़िराक़-ए-सुख़न-आरा भी नहीं

ये भी सच है कि मोहब्बत पे नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तिरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं

यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क़
मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं

फ़ितरत-ए-हुस्न तो मालूम है तुझ को हमदम
चारा ही क्या है ब-जुज़ सब्र सो होता भी नहीं

बदगुमाँ हो के मिल ऐ दोस्त, जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुऐ मिलना कोई मिलना भी नहीं

मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि 'फ़िराक़'
है तिरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं

31. शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो

शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
बे-ख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो

ये सुकूत-ए-नाज़ ये दिल की रगों का टूटना
ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें

निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ दास्तान-ए-शाम-ए-ग़म
सुब्ह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो

हर रग-ए-दिल वज्द में आती रहे दुखती रहे
यूँही उस के जा-ओ-बेजा नाज़ की बातें करो

जौ अदम की जान है जो है पयाम-ए-ज़िंदगी
इस सुकूत-ए-राज़ इस आवाज़ की बातें करो

इश्क़ रुस्वा हो चला बे-कैफ़ सा बेज़ार सा
आज इस की नर्गिस-ए-ग़म्माज़ की बातें करो

नाम भी लेना है जिस का इक जहान-ए-रंग-ओ-बू
दोस्तो उस नौ-बहार-ए-नाज़ की बातें करो

किस लिए उज़्र-ए-तग़ाफुल किस लिए इल्ज़ाम-ए-इश्क़
आज चर्ख़ख़-ए-तफ़्रक़ा पर्वाज़ की बातें करो

कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो

जो हयात-ए-जाविदाँ है जो है मर्ग-ए-ना-गहाँ
आज कुछ इस नाज़ उस अंदाज़ की बातें करो

इश्क़-ए-बे-परवा भी अब कुछ ना-शकेबा हो चला
शोख़ी-ए-हुस्न-ए-करिश्मा-साज़ की बातें करो

जिस की फ़ुर्क़त ने पलट दी इश्क़ की काया 'फ़िराक़'
आज उस ईसा-नफ़स दम-साज़ की बातें करो

32. किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी

हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी

कहूँ ये कैसे इधर देख या न देख उधर
कि दर्द दर्द है फिर भी नज़र नज़र फिर भी

ख़ुशा इशारा-ए-पैहम ज़हे सुकूत-ए-नज़र
दराज़ हो के फ़साना है मुख़्तसर फिर भी

झपक रही हैं ज़मान ओ मकाँ की भी आँखें
मगर है क़ाफ़िला आमादा-ए-सफ़र फिर भी

शब-ए-फ़िराक़ से आगे है आज मेरी नज़र
कि कट ही जाएगी ये शाम-ए-बे-सहर फिर भी

कहीं यही तो नहीं काशिफ़-ए-हयात-ओ-ममात
ये हुस्न ओ इश्क़ ब-ज़ाहिर हैं बे-ख़बर फिर भी

पलट रहे हैं ग़रीब-उल-वतन पलटना था
वो कूचा रू-कश-ए-जन्नत हो घर है घर फिर भी

लुटा हुआ चमन-ए-इश्क़ है निगाहों को
दिखा गया वही क्या क्या गुल ओ समर फिर भी

ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
यही कि तेरी नज़र है तिरी नज़र फिर भी

हो बे-नियाज़-ए-असर भी कभी तिरी मिट्टी
वो कीमिया ही सही रह गई कसर फिर भी

लिपट गया तिरा दीवाना गरचे मंज़िल से
उड़ी उड़ी सी है ये ख़ाक-ए-रहगुज़र फिर भी

तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
उतर गया रग-ए-जाँ में ये नेश्तर फिर भी

ग़म-ए-फ़िराक़ के कुश्तों का हश्र क्या होगा
ये शाम-ए-हिज्र तो हो जाएगी सहर फिर भी

फ़ना भी हो के गिराँ-बारी-ए-हयात न पूछ
उठाए उठ नहीं सकता ये दर्द-ए-सर फिर भी

सितम के रंग हैं हर इल्तिफ़ात-ए-पिन्हाँ में
करम-नुमा हैं तिरे जौर सर-ब-सर फिर भी

ख़ता-मुआफ़ तिरा अफ़्व भी है मिस्ल-ए-सज़ा
तिरी सज़ा में है इक शान-ए-दर-गुज़र फिर भी

अगरचे बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ को ज़माना हुआ
फ़िराक़ करती रही काम वो नज़र फिर भी

33 मुझको मारा है हर एक दर्द-ओ-दवा से पहले

मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले
दी सज़ा इश्क़ ने हर जुर्म-ओ-ख़ता से पहले
आतिश-ए-इश्क़ भड़कती है हवा से पहले
होंट जलते हैं मोहब्बत में दुआ से पहले
फ़ित्ने बरपा हुए हर ग़ुंचा-ए-सर-बस्ता से
खुल गया राज़-ए-चमन चाक-ए-क़बा से पहले
चाल है बादा-ए-हस्ती का छलकता हुआ जाम
हम कहाँ थे तिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा से पहले
अब कमी क्या है तिरे बे-सर-ओ-सामानों को
कुछ न था तेरी क़सम तर्क-ए-वफ़ा से पहले
इश्क़-ए-बेबाक को दावे थे बहुत ख़ल्वत में
खो दिया सारा भरम शर्म-ओ-हया से पहले
ख़ुद-बख़ुद चाक हुए पैरहन-ए-लाला-ओ-गुल
चल गई कौन हवा बाद-ए-सबा से पहले
हम-सफ़र राह-ए-अदम में न हो तारों-भरी रात
हम पहुँच जाएँगे इस आबला-पा से पहले
मौत के नाम से डरते थे हम ऐ शौक़-ए-हयात
तू ने तो मार ही डाला था क़ज़ा से पहले
बे-तकल्लुफ़ भी तिरा हुस्न-ए-ख़ुद-आरा था कभी
इक अदा और भी थी हुस्न-ए-अदा से पहले
ग़फ़लतें हस्ती-ए-फ़ानी की बता देंगी तुझे
जो मिरा हाल था एहसास-ए-फ़ना से पहले
पर्दादा-ए-शर्म में सद-बर्क़-ए-तबस्सुम के निसार
होश जाते रहे नैरंग-ए-हया से पहले
हम उन्हें पा के 'फ़िराक़' और भी कुछ खोए गए
ये तकल्लुफ़ तो न थे अहद-ए-वफ़ा से पहले

34. कोई पैग़ाम-ए-मोहब्बत लब-ए-एजाज़ तो दे

कोई पैग़ाम-ए-मोहब्बत लब-ए-एजाज़ तो दे
मौत की आँख भी खुल जाएगी आवाज़ तो दे

मक़्सद-ए-इश्क़ हम-आहंगी-ए-जुज़्व-ओ-कुल है
दर्द ही दर्द सही दिल बू-ए-दम-साज़ तो दे

चश्म-ए-मख़मूर के उनवान-ए-नज़र कुछ तो खुलें
दिल-ए-रंजूर धड़कने का कुछ अंदाज़ तो दे

इक ज़रा हो नशा-ए-हुस्न में अंदाज़-ए-ख़ुमार
इक झलक इश्क़ के अंजाम की आग़ाज़ तो दे

जो छुपाए न छुपे और बताए न बने
दिल-ए-आशिक़ को इन आँखों से कोई राज़ तो दे

मुंतज़िर इतनी कभी थी न फ़ज़ा-ए-आफ़ाक़
छेड़ने ही को हूँ पुर-दर्द ग़ज़ल साज़ तो दे

हम असीरान-ए-क़फ़स आग लगा सकते हैं
फ़ुर्सत-ए-नग़्मा कभी हसरत-ए-परवाज़ तो दे

इश्क़ इक बार मशिय्यत को बदल सकता है
इंदिया अपना मगर कुछ निगह-ए-नाज़ तो दे

क़ुर्ब ओ दीदार तो मालूम किसी का फिर भी
कुछ पता सा फ़लक-ए-तफ़रक़ा-पर्दाज़ तो दे

मंज़िलें गर्द की मानिंद उड़ी जाती हैं
अबलक़-ए-दहर कुछ अंदाज़-ए-तग-ओ-ताज़ तो दे

कान से हम तो फ़िराक़ आँख का लेते हैं काम
आज छुप कर कोई आवाज़ पर आवाज़ तो दे

35. निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या

निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या
हिजाब अहल-ए-मोहब्बत को आए हैं क्या क्या

जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की
चराग़-ए-दैर-ओ-हरम झिलमिलाए हैं क्या क्या

दो-चार बर्क़-ए-तजल्ली से रहने वालों ने
फ़रेब नर्म-निगाही के खाए हैं क्या क्या

दिलों पे करते हुए आज आती जाती चोट
तिरी निगाह ने पहलू बचाए हैं क्या क्या

निसार नर्गिस-ए-मय-गूँ कि आज पैमाने
लबों तक आए हुए थरथराए हैं क्या क्या

वो इक ज़रा सी झलक बर्क़-ए-कम-निगाही की
जिगर के ज़ख़्म-ए-निहाँ मुस्कुराए हैं क्या क्या

चराग़-ए-तूर जले आईना-दर-आईना
हिजाब बर्क़-ए-अदा ने उठाए हैं क्या क्या

ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-नज़र दीद-ए-हुस्न क्या हो मगर
निगाह-ए-शौक़ में जल्वे समाए हैं क्या क्या

कहीं चराग़ कहीं गुल कहीं दिल-ए-बर्बाद
ख़िराम-ए-नाज़ ने फ़ित्ने उठाए हैं क्या क्या

तग़ाफ़ुल और बढ़ा उस ग़ज़ाल-ए-रअना का
फ़ुसून-ए-ग़म ने भी जादू जगाए हैं क्या क्या

हज़ार फ़ित्ना-ए-बेदार ख़्वाब-ए-रंगीं में
चमन में ग़ुंचा-ए-गुल-रंग लाए हैं क्या क्या

तिरे ख़ुलूस-ए-निहाँ का तो आह क्या कहना
सुलूक उचटटे भी दिल में समाए हैं क्या क्या

नज़र बचा के तिरे इश्वा-हा-ए-पिन्हाँ ने
दिलों में दर्द-ए-मोहब्बत उठाए हैं क्या क्या

पयाम-ए-हुस्न पयाम-ए-जुनूँ पयाम-ए-फ़ना
तिरी निगह ने फ़साने सुनाए हैं क्या क्या

तमाम हुस्न के जल्वे तमाम महरूमी
भरम निगाह ने अपने गँवाए हैं क्या क्या

'फ़िराक़' राह-ए-वफ़ा में सुबुक-रवी तेरी
बड़े-बड़ों के क़दम डगमगाए हैं क्या क्या

36. बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में

बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में
वहशतें बढ़ गईं हद से तिरे दीवानों में

निगह-ए-नाज़ न दीवानों न फ़र्ज़ानों में
जानकार एक वही है मगर अन-जानों में

बज़्म-ए-मय बे-ख़ुद-ओ-बे-ताब न क्यूँ हो साक़ी
मौज-ए-बादा है कि दर्द उठता है पैमानों में

मैं तो मैं चौंक उठी है ये फ़ज़ा-ए-ख़ामोश
ये सदा कब की सुनी आती है फिर कानों में

वुसअतें भी हैं निहाँ तंगी-ए-दिल में ग़ाफ़िल
जी बहल जाते हैं अक्सर इन्हीं मैदानों में

जान ईमान-ए-जुनूँ सिलसिला जुम्बान-ए-जुनूँ
कुछ कशिश-हा-ए-निहाँ जज़्ब हैं वीरानों में

ख़ंदा-ए-सुब्ह-ए-अज़ल तीरगी-ए-शाम-ए-अबद
दोनों आलम हैं छलकते हुए पैमानों में

देख जब आलम-ए-हू को तो नया आलम है
बस्तियाँ भी नज़र आने लगीं वीरानों में

जिस जगह बैठ गए आग लगा कर उट्ठे
गर्मियाँ हैं कुछ अभी सोख़्ता-सामानों में

वहशतें भी नज़र आती हैं सर-ए-पर्दा-ए-नाज़
दामनों में है ये आलम न गरेबानों में

एक रंगीनी-ए-ज़ाहिर है गुलिस्ताँ में अगर
एक शादाबी-ए-पिन्हाँ है बयाबानों में

जौहर-ए-ग़ुंचा-ओ-गुल में है इक अंदाज़-ए-जुनूँ
कुछ बयाबाँ नज़र आए हैं गरेबानों में

अब वो रंग-ए-चमन-ओ-ख़ंदा-ए-गुल भी न रहे
अब वो आसार-ए-जुनूँ भी नहीं दीवानों में

अब वो साक़ी की भी आँखें न रहीं रिंदों में
अब वो साग़र भी छलकते नहीं मय-ख़ानों में

अब वो इक सोज़-ए-निहानी भी दिलों में न रहा
अब वो जल्वे भी नहीं इश्क़ के काशानों में

अब न वो रात जब उम्मीदें भी कुछ थीं तुझ से
अब न वो बात ग़म-ए-हिज्र के अफ़्सानों में

अब तिरा काम है बस अहल-ए-वफ़ा का पाना
अब तिरा नाम है बस इश्क़ के ग़म-ख़ानों में

सैर कर उजड़े दिलों की जो तबीअत है उदास
जी बहल जाते हैं अक्सर इन्हीं वीरानों में

ता-ब-कै वादा-ए-मौहूम की तफ़्सील 'फ़िराक़'
शब-ए-फ़ुर्क़त कहीं कटती है इन अफ़्सानों में

37. अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभी लब खोलें हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोलें हैं

दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औक़ात
जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो लें हैं

फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी किसू के हो लें हैं

बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहज सहज जब डोलें हैं

उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें
हाय वो आलम-ए-जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ जब फ़ित्ने पर तोलें हैं

इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम हुए है नदीम
ख़ल्वत में वो नर्म उँगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोलें हैं

ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर्-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो लें हैं

हम लोग अब तो पराये-से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़"
अब तो तुम्हीं को प्यार करें हैं अब तो तुम्हीं से बोलें हैं

38. हमसे फ़िराक़ अकसर छुप-छुप कर पहरों-पहरों रोओ हो

हमसे फ़िराक़ अकसर छुप-छुप कर पहरों-पहरों रोओ हो
वो भी कोई हमीं जैसा है क्या तुम उसमें देखो हो

जिनको इतना याद करो हो चलते-फिरते साये थे
उनको मिटे तो मुद्दत गुज़री नामो-निशाँ क्या पूछो हो

जाने भी दो नाम किसी का आ गया बातों-बातों में
ऐसी भी क्या चुप लग जाना कुछ तो कहो क्या सोचो हो

पहरों-पहरों तक ये दुनिया भूला सपना बन जाए है
मैं तो सरासर खो जाऊं हूँ याद इतना क्यों आओ हो

क्या गमे-दौराँ की परछाईं तुम पर भी पड़ जाए है
क्या याद आ जाए है यकायक क्यों उदास हो जाओ हो

झूठी शिकायत भी जो करूँ हूँ पलक दीप जल जाए हैं
तुमको छेड़े भी क्या तुम तो हँसी-हँसी में रो दो हो

ग़म से खमीरे-इश्क उठा है हुस्न को देवें क्या इलज़ाम
उसके करम पर इतनी उदासी दिलवालो क्या चाहो हो

एक शख्स के मर जाये से क्या हो जाये है लेकिन
हम जैसे कम होये हैं पैदा पछताओगे देखो हो

इतनी वहशत इतनी वहशत सदके अच्छी आँखों के
तुम न हिरन हो मैं न शिकारी दूर इतना क्यों भागो हो

मेरे नग्मे किसके लिए हैं खुद मुझको मालूम नहीं
कभी न पूछो ये शायर से तुम किसका गुण गाओ हो

पलकें बंद अलसाई जुल्फ़ें नर्म सेज पर बिखरी हुई
होटों पर इक मौजे-तबस्सुम सोओ हो या जागो हो

इतने तपाक से मुझसे मिले हो फिर भी ये गैरीयत क्यों
तुम जिसे याद आओ हो बराबर मैं हूँ वही तुम भूलो हो

कभी बना दो हो सपनों को जलवों से रश्के-गुलज़ार
कभी रंगे-रुख बनकर तुम याद ही उड़ जाओ हो

गाह तरस जाये हैं आखें सजल रूप के दर्शन को
गाह नींद बन के रातों को नैन-पटों में आओ हो

इसे दुनिया ही में है सुने हैं इक दुनिया-ए-महब्बत भी
हम भी उसी जानिब जावें हैं बोलो तुम भी आओ हो

बहुत दिनों में याद किया है बात बनाएं क्या उनसे
जीवन-साथी दुःख पूछे हैं किसको हमें तुम सौंपो हो

चुपचुप-सी फ़ज़ा-ए-महब्बत कुछ कुछ न कहे है खलवते-राज़
नर्म इशारों से आँखों के बात कहाँ पहुँचाओ हो

अभी उसी का इंतज़ार था और कितना ऐ अहले-वफ़ा
चश्मे-करम जब उठने लगी है तो अब तुम शरमाओ हो

ग़म के साज़ से चंचल उंगलियां खेल रही हैं रात गए
जिनका सुकूत, सुकूते-आबाद है वे परदे क्यों छेड़ो हो

कुछ तो बताओ रंग-रूप भी तुम उसका ऐ अहले-नज़र
तुम तो उसको जब देखो हो देखते ही रह जाओ हो

अकसर गहरी सोच में उनको खोया-खोया पावें हैं
अब है फ़िराक़ का कुछ रोज़ो से जो आलम क्या पूछो हो

  • मुख्य पृष्ठ : फ़िराक़ गोरखपुरी की शायरी/कविता
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)