गोपी विरह-मथुरा गमन : भक्त सूरदास जी

Gopi Virah-Mathura Gaman : Bhakt Surdas Ji

गोपी विरह

चलत गुपाल के सब चले ।
यह प्रीतम सौं प्रीति निरंतर, रहे न अर्ध पले ।
धीरज पहिल करी चलिबैं की, जैसी करत भले ।
धीर चलत मेरे नैननि देखे, तिहिं छिनि आँसु हले ॥
आँसु चलत मेरी बलयनि देखे, भए अंग सिथिले ।
मन चलि रह्यौ हुतौ पहिलैं ही,चले सबै बिमले ।
एक न चलै प्रान सूरज प्रभु, असलेहु साल सले ॥1॥

करि गए थोरे दिन की प्रीति ।
कहँ वह प्रीति कहाँ यह बिछुरनि, कहँ मधुबन की रीति ॥
अब की बेर मिलौ मनमोहन, बहुत भई बिपरीत ।
कैसैं प्रान रहत दरसन बिनु, मनहु गए जुग बीति ॥
कृपा करहु गिरिधर हम ऊपर, प्रेम रह्यौ तन जीति ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु, भईं भुस पर की भीति ॥2॥

प्रीति करि दीन्ही गरैं छुरी ।
जैसैं बधिक चुगाइ कपट-कन, पाछैं करत बुरी ॥
मुरली मधुर चेप काँपा करि , मोर चंद्र फँदवारि ।
बंक बिलोकनि लगी, लोभ बस, सकी न पंख पसारि ॥
तरफत गए मधुबन कौं , बहुरि न कीन्ही सार ।
सूरदास प्रभु संग कल्पतरु, उलटि न बैठी डार ॥3॥

नाथ अनाथिन की सुधि लीजै ।
गोपी, ग्वाल, गाइ, गोसुत सब, दीन मलीन दिनहिं दिन छीजैं ॥
नैननि जलधारा बाढ़ी अति, बूड़त ब्रज किन कर गहि लीजै ॥
इतनी बिनती सुनहु हमारी, बारक हूँ पतिया लिखि दीजै ॥
चरन कमल दरसन नव नवका, करुनासिंधु जगत जस लीजै ।
सूरदास प्रभु आस मिलन की, एक बार आवन ब्रज लीजै ॥4॥

देखियत कालिंदी अति कारी ।
अहौ पथिक कहियौ उन हरि सौं, भयौ बिरह जुर जारी ॥
गिरि-प्रजंक तैं गिरति धरनि धसि, तरंग तरफ तन भारी ।
तट बारू उपचार चूर, जल-पूर प्रस्वेद पनारी ॥
बिगलित कच कुस काँस कूल पर पंक जु काजल सारी ।
भौंर भ्रमत अति फिरति भ्रमित गति, निसि दिन दीन दुखारी ॥
निसि दिन चकई पिय जु रटति है, भई मनौ अनुहारी ।
सूरदास-प्रभु जो जमुना गति, सो गति भई हमारी ॥5॥

परेखौ कौन बोल कौ कीजै ।
ना हरि जाति न पाँति हमारी, कहा मानि दुख लीजै ॥
नाहि न मोर-चंद्रिका माथैं, नाहि न उर बनमाल ।
नहिं सोभित पुहुपनि के भूषन, सुंदर स्याम तमाल ॥
नंद-नँदन गोपी-जन-वल्लभ, अब नहिं कान्ह कहावत ।
बासुदेव, जादवकुल-दीपक, बंदी जन बरनावत ॥
बिसर्‌यौ सुख नातौ गोकुल को, और हमारे अंग ।
सूर स्याम वह गई सगाई , वा मुरली कैं संग ॥6॥

अब वै बातैं उलटि गईं ।
जिन बातनि लागत सुख आली, तेऊ दुसह भई ॥
रजनी स्याम सुंदर सँग, अरु पावस की गरजनि ।
सुख समूह की अवधि माधुरी, पिय रस बस की तरजनि ॥
मोर पुकार गुहार कोकिला , अलि गुंजार सुहाई ।
अब लागति पुकार दादुर सम, बिनही कुँवर कन्हाई ।
चंदन चंद समीर अगिन सम, तनहिं देत दव लाई ।
कालिंदी अरु कमल कुसुम सब, दरसन ही दुखदाई ॥
सरद बसंत सिसिर अरु ग्रीषम, हिम-रितु की अधिकाई ।
पावस जरैं सूर के प्रभु बिनु, तरफत रैनि बिहाई ॥7॥

मिलि बिछुरन की बेदन न्यारी ।
जाहि लगै सोई पै जानै, बिरह-पीर अति भारी ॥
जब यह रचना रची बिधाता, तबहीं क्यौं न सँभारी ।
सूरदास प्रभु काहैं, जिवाई, जनमत ही किन मारी ॥8॥

मधुबन तुम क्यौं रहत हरे ।
बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे ॥
मोहन बेनु बनावत तुम तर, साखा टेकि खरे ।
मोहे थावर अरु जड़ जंगम, मनि जन ध्यान टरे ॥
वह चितवनि तू मन न धरत है, फिरि फिरि पुहुप धरे ।
सूरदास प्रभु बिरह दवानल, नख सिख लौं न जरे ॥9॥

बहुरौ देखिबौ इहि भाँति ।
असन बाँटत खात बैठे, बालकन की पाँति ॥
एक दिन नवनीत चोरत, हौं रही दुरि जाइ ।
निरखि मम छाया भजे, मैं दौरि पकरे धाइ ॥
पोंछि कर मुख लई कनियाँ, तब गई रिस भागि ।
वह सुरति जिय जाति नाहीं, रहे छाती लागि ॥
जिन घरनि वह सुख बिलोक्यौ, ते लगत अब खान ।
सूर बिनु ब्रजनाथ देखे, रहत पापी प्रान ॥10॥

कब देखौं इहिं भाँति कन्हाई ।
मोरनि के चँदवा माथे पर, काँध कामरी लकुट सुहाई ॥
बासर के बीतैं सुरभिन सँग, आवत एक महाछबि पाई ।
कान अँगुरिया घालि निकट पुर, मोहन राग अहीरी गाई ॥
क्यौं हुँ न रहत प्रान दरसन बिनु, अब कित जतन करै री माई ।
सूरदास स्वामी नहिं आए, बदि जु गए अवध्यौऽब भराई ॥11॥

गोपालहिं पावौं धौं किहि देस ।
सिंगी मुद्रा कर खप्पर लै, करिहौं जोगिनि भेस ।
कंथा पहिरि बिभूती लगाऊँ, जटा बँधाऊँ केस ।
हरि कारन गोरखहिं जगाऊँ, जैसैं स्वाँग महेस ॥
तन मन जारौं भस्म चढ़ाऊँ, बिरहाके उपदेस ।
सूर स्याम बिनु हम हैं ऐसी, जैसें मनि बिनु सेस ॥12॥

फिरि ब्रज बसौ गोकुलनाथ ।
अब न तुमहिं जगाइ पठवैं, गोधननि के साथ ॥
बरजैं न माखन खात कबहूँ, दह्यौ देत लुठाइ ।
अब न देहिं उराहनौ, नँद-घरनि आगैं जाइ ॥
दौरि दावरि देहिं नहिं, लकुटी जसोदा पानि ।
चोरि न देहिं उघारि कै, औगुन न कहिहैं आनि ॥
कहिहैं न चरननि देन जावक, गहन बेनी फूल ।
कहिहैं न करन सिंगार कबहूँ, बसन जमुना कूल ॥
करिहैं न कबहूँ मान हम, हठिहैं न माँगत दान ।
कहिहैं न मृदु मुरली बजावन, करन तुमसौं गान ॥
देहु दरसन नंद-नंदन, मिलन की जय आस ।
सूर हरि के रूप कारन, मरत लोचन प्यास ॥13॥

काहैं पीठि दई हरि मोसौं ।
तुमही पीठि भावते दीन्हौ, और कहा कहि कोसौं ॥
मलि बिछुरै की पीर सखी री, राम सिया पहिचाने ।
मिलि बिछुरे की पीर सखी री, पय पानि उर आने ॥
मिलि बिछुरे की पीर कठिन है, कहैं न कोऊ मानै ।
मिलि बिछुरे की पीर सखी री, बिछुर्‌यौ होइ सो जानै ॥
बिछुरे रामचंद्र औ दसरथ, प्रान तजे छिन माहीं ।
बिछुर्‌यौ पात गिर्‌यौ तरुवर तैं, फिर न लगे उहि ठाहीं ॥
बिछुर्‌यौ हँस काय घटहूँ तैं, फिरि न आव घट माहीं ।
मैं अपराधिनि जीवत बिछुरी, बिछुर्‌यौ जीवत नाहीं ॥
नाद कुरंग मीन जल बिछुरे, होइ कीट जरि खेहा ।
स्याम बियोगिनि अतिहिं सखी री, भई साँवरी देहा ॥
गरजि गरजि बादर उनये हैं, बूँदनि बरषत मेहा ।
सूरदास कहु कैसें निबहै, एक ओर कौ नेहा ॥14॥

बारक जाइयौ मिलि माधौ ।
को जानै तन छूटि जाइगौ, सूल रहै जिय साधौ ॥
पहुनैंहु नंदबबा के आबहु, देखि लेउँ पल आधौ ।
मिलैं ही मैं विपरीत करी बिधि, होत दरस कौ बाधौ ॥
सो सुख सिव सनकादि न पावत, जो सुख गोपिन लाधौ ।
सूरदास राधा बिलपति है, हरि कौ रूप अगाधौ ॥15॥

सखी इन नैननि तैं घन हारे ।
बिनहीं रितु बरषत निसि बासर, सदा मलिन दोउ तारे ॥
ऊरध स्वास समीर तेज अति, सुख अनेक द्रुम डारे ।
बदन सदन करि बसे बचन खग, दुख पावस के मारे ॥
दुरि दुरि बूँद परत कंचुकि पर, मिलि अंजन सौं कारे ।
मानौ परनकुटी सिव कीन्ही, बिबि मूरति धरि न्यारे ॥
घुमरि घुमरि बरषत जल छाँड़त, डर लागत अँधियारे ।
बूड़त ब्रहह सूर को राखै, बिनु गिरिवर धर प्यारे ॥16॥

निसि दिन बरषत नैन हमारे ।
सदा रहति बरषा रितु हम पर, जब तैं स्याम सिधारे ।
दृग अंजन न रहत निसि बासर, कर कपोल भए कारे ।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे ॥
आँसू सलिल सबै भइ काया, पल न जात रिस टारे ।
सूरदास प्रभु है परेखौ, गोकुल काहैं बिसारे ॥17॥

हर दरसन को तरसति अँखियाँ ।
झाँकति झखतिं झरोखा बैठी, कर मीड़तिं ज्यौं मखियाँ ॥
बिछुरीं बदन-सुधानिधि-रस तैं, लगतिं नहीं पल पँखियाँ ।
इकटक चितवतिं उड़ि न सकतिं जनु, थकित भईं लखि सखियाँ ॥
बार-बार सिर धूनतिं बिसूरतिं, बिरह ग्राह जनु भखियाँ ।
सूर सुरूप मिलै तैं जीवहिं, जीवहिं, काट किनारे नखियाँ ॥18॥

(मेरे) नैना बिरह की बेलि बई ।
सींचत नैन-नीर के सजनी, मूल पताल गई ।
बिगसित लता सुभाइ आपनैं, छाया सघन भई ।
अब कैसैं निरवारौं सजनी , सब तन पसरि छई ॥
को जानै काहू के जिय की, छिन छिन होत नई ।
सूरदास स्वामी के बिछुरैं, लागी प्रेम जई ॥19॥

ब्रज बसि काके बोल सहौं ॥
इन लोभी नैननि के काजैं, परबस भइ जो रहौं ॥
बिसरि लाज गइ सुधि नहिं तन की, अबधौं कहा कहौं ।
मेरे जिय मैं ऐसी आवति, जमुना जाइ बहौं ॥
इक बन ढूँढ़ि सकल बन ढूँढ़ौं, कहूँ न स्याम लहौं।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस कौं, इहिं दुख अधिक दहौं ॥20॥

हो, ता दिन कजरा मैं देहौं ।
जा दिन नंदनंदन के नैननि, अपने नैन मिलैहौं ॥
सुनि री सखी यहै जिय मेरैं, भूलि न और चितैहौं ।
अब हठ सूर यहै ब्रत मेरौ, कौकिर खै मरि जैहौं ॥21॥

देखि सखी उत है वह गाउँ ।
जहाँ बसत नँदलाल हमारे, मोहन मथुरा नाउँ ॥
कालिंदी कैं कूल रहत हैं, परम मनोहे ठाउँ ।
जौ तब पंख होइँ सुनि सजनी, अबहि उहाँ उड़ि जाउँ ॥
होनी होइ होइ सो अबहीं, इहिं ब्रज अन्न न खाउँ ॥
सूर नंदनंदन सौं हित करि, लोगनि कहा डराउँ ॥22॥

लिखि नहिं पठवत हैं द्वै बोल ।
द्वै कौड़ी के कागद मसि कौ, लागत है बहु मोल ?
हम इहि पार, स्याम पैले तट, बीच बिरह कौ जोर ।
सूरदास प्रभु हमरे मिलन कौं, हिरदै कियौ कठोर ॥23॥

सुपनैं हरि आए हौं किलकी ।
नींद जु सौति भई रिपु हमकौं, सहि न सकी रति तिल को ।
जौ जागौं तौ कोऊ नाहीं, रोके रहति न हिलकी ।
तन फिरि जरनि भई नख सिख तैं, दिया बाति जनु मिलकी ॥
पहिली दसा पलटि लीन्ही है, त्वचा तचकि तनु पिलको ।
अब कैसैं सहि जाति हमारी, भई सूर गति सिल की ॥24॥

पिय बिनु नागिनि कारी रात ।
जौ कहूँ जामिनि उवति जुन्हैया, डसि उलटि ह्वै जात ॥
जंत्र न पूरत मंत्र नहिं लागत, प्रीति सिरानी जात ।
सूर स्याम बिनु बिकल बिरहनी, मुरि मुरि लहरैं खात ॥25॥

मौकौं माई जमुना जम ह्वै रही ।
कैसैं मिलीं स्यामसुंदर कौं, बैरिनि बीच बही ॥
कितिक बीच मथुरा अरु गोकुल, आवत हरि जु नहीं ।
हम अबला कछु मरम न जान्यौ, चलत न फेंट गही ॥
अब पछिताति प्रान दुख पावत, जाति न बात कही ।
सूरदास प्रभु सुमिरि-सुमिरि गुन, दिन दिन सूल सही ॥26॥

नैन सलोने स्याम, बहुरि कब आवहिंगे ।
वै जौ देखत राते राते, फुलनि फूली डार ।
हरि बिनु फूलझरी सी लागत, झरि झरि परत अँगार ॥
फूल बिनन नहिं जाउँ सखी री, हरि बिनु कैसे फूल ।
सुनि री सखि मोहिं राम दुहाई, लागत फूल त्रिसूल ।
जब मैं पनघट जाउँ सखि री, वा जमुना कै तीर ।
भरि भरि जमुना उमड़ि चलति है, इन नैननि कैं नीर ॥
इन नैननि कैं नीर सखी री, सेज भई घरनाउ ।
चाहति हौं ताही पै चढ़ि कै, हरि जू कैं ढिग जाउँ ॥
लाल पियारे प्रान हमारे, रहे अधर पर आइ ।
सूरदास प्रभु कुंज-बिहारी, मिलत नहीं क्यौं धाइ ॥27॥

प्रीति करि काहू सुख न लह्यौ ।
प्रीति पतंग करी पावक सौं, आप प्रान दह्यौ ॥
अलि-सुत प्रीति करी जल-सुत सौं, संपुट मांझ गह्यौ ।
सारंग प्रीति करी जु नाद सौं, सन्मुख बान सह्यौ ॥
हम जौ प्रीति करी माधव सौं, चलत न कछू कह्यौ ॥
सूरदास प्रभु बिनु दुख पावत, नैननि नीर बह्यौ ॥28॥

प्रीति तौ मरिबौऊ न बिचारै ।
निरखि पतंग ज्योति-पावक ज्यौं, जरत न आपु सँभारै ॥
प्रीति कुरंग नाद मन मोहित, बधिक निकट ह्वै मारै ।
प्रीति परेवा उड़त गगन तैं, गिरत न आपु सँभारै ।
सावन मास पपीहा बोलत, पिय पिय करि जु पुकारै ।
सूरदास-प्रभु दरसन कारन, ऐसी भाँति बिचारै ॥29॥

जनि कोउ काहू कैं बस होहि ।
ज्यौ चकई दिनकर बस डोलत, मोहिं फिरावत मोहि ॥
हम तौ रीझि लटू भई लालन, महा प्रेम तिय जानि ।
बंधन अवधि भ्रमित निसि-बासर, को सुरझावत आनि ॥
उरझे संग अंग अंगनि प्रति, बिरह बेलि की नाईं ।
मुकुलित कुसुम नैन निद्रा तजि, रूप सुधा सियराई ॥
अति आधीन हीन-मति व्याकुल, कहँ लौं कहौं बनाई ।
ऐसी प्रीति-रीति रचना पर, सूरदास बलि जाई ॥30॥

हरि परदेस बहुत दिन लाए ।
कारी घटा देखि बादर की, नैन नीर भरि आए ॥
बीर बटअऊ पंथी हौ तुम, कौन देस तैं आए ।
यह पाती हमरौ लै दीजौ, जहाँ साँवरै छाए ॥
दादुर मोर पपीहा बोलत, सोवत मदन जगाए ।
सूर स्याम गोकुल तैं बिछरे, आपुन भए पराए ॥31॥

ये दिन रूसिबे के नाहीं ।
कारी घटा पौन झकझोरै, लता तरुन लपटाहीं ॥
दादुर मोर चकोर मधुप पिक, बोलत अमृत बानी ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, बैरिन रितु नियरानी ॥32॥

अब बरषा कौ आगम आयो ।
ऐसे निठुर भए नँदनंदन, संदैसौ न पठायौ ।
बादर घेरि उठे चहुँ दिसि तैं, जलधर गरजि सुनायौ ।
अकै सूल रही मेरैं जिय, बहरि नहीं ब्रज छायौ ॥
दादुर मोर पपीहा बोलत, कोकिल सब्द सुनायौ ।
सूरदास के प्रभु सौं कहियौ, नैननि है झर लायौ ॥33॥

सँदेसनि मधुबन कूप भरे ।
अपने तौ पठवत नहिं मोहन, हमरे फिरि न फिरे ॥
जिते पथिक पठए मधुवन कों, बहुरि न सोध करे ।
कै वै स्याम सिखाइ प्रमोधे, कै कहूँ बीच मरे ॥
कागद गरे मेघ, मसि खूटी, सर दव लागि जरे ।
सेवक सूर लिखन कौ आँधौ, पलक कपाट अरे ॥34॥

ब्रज पर बदरा आए गाजन ।
मधुबन को पठए सुनि सजनी, फौज मदन लाग्यौ साजन ॥
ग्रीवा रंध्र नैन चातक जल, पिक मुख बाजे बाजन ।
चहुँदिसि तैं तन बिरहा घेर्‌यौ, कैसैं पावति भाजन ॥
कहियत हुते स्याम पर पीरक, आए संकट काजन ।
सूरदास श्रीपति की महिमा, मथुरा लागे राजन ॥35॥

बहुरि हरि आवहिंगे किहि काम ।
रितु बसंत अरु ग्रीषम बीते, बादर आए स्याम ॥
छिन मंदिर छिन द्वारैं ठाढ़ी, यौं सूखति हैं घाम ।
तारे गनत गगन के सजनी, बीतैं चारौ जाम ॥
औरौ कथा सबै बिसराई, लेत तुम्हारौ नाम ।
सूर स्याम ता दिन तैं बिछुरे, अस्थि रहै कै चाम ॥36॥

किधौं घन गरजत नहिं उन देसनि।
किधौं हरि हरषि इंद्र हठि बरजे, दादुर खाए सेषनि ॥
किधौं उहिं देस बगनि मग छाँड़े, घरनि न बूँद प्रवेसनि ।
चातक मोर कोकिला उहिं बन, बधिकनि बधे बिसेषनि ॥
किधौं उहिं देस बाल नहिं झूलतिं, गावतिं सखि न सुदेसनि ।
सूरदास प्रभु पथिक न चलहीं, कासौं, कहौं सँदेसनि ॥37॥

आजु घन स्याम की अनुहारि ।
आए उनइ साँवरे सजनी, देखि रूप की आरि ॥
इंद्र धनुष मनु पीत बसन छबि, दामिनि दसन बिचारि ।
जनु बगपाँति माल मोतिनि की, चितवत चित्त निहारि ॥
गरजत गगन गिरा गोविंद मनु, सुनत नयन भरे वारि ।
सूरदास गुन सुमिरि स्याम के, बिकल भईं ब्रजनारि ॥38॥

हमारे माई मोरवा बैर परे ।
घन गरजत बरज्यौ नहिं मानत, त्यौं त्यौं रटत खरे ॥
करि करि प्रगट पंख हरि इनके, लै लै सीस धरे ।
याही तैं न बदत बिरहनि कौं, मोहन ठीठ करे ॥
को जाने काहे तैं सजनी, हमसौं रहत अरे ।
सूरदास परदेस बसे हरि, ये बन तैं न टरे ॥39॥

बहुरि पपीहा बौल्यौ माई ।
नींद गई चिंता चित बाढ़ी, सूरतिस्याम की आई ॥
सावन मास मेघ की बररषा, हौं उठि आँगन आई ।
चहुँदिसि गगन दामिनी कौंधति, तिहिं जिय अधिक डराई ॥
काहूँ राग मलार अलाप्यौ, मुरलि मधुर सुर गाई ।
सूरदास बिरहिनि भइ ब्याकुल, धरनि परी मुरझाई ॥40॥

सखी री चातक मोहिं जियावत ।
जैसेंहि रैनि रटति हौं पिय पिय, तैसैंहि वह पुनि गावत ॥
अतिहिं सुकंठ, दाह प्रीतम कैं, तारू जीभ न लावत ।
आपुन पियत सुधा-रस अमृत, बोलि बिरहिनी प्यावत ॥
यह पंछी जु सहाइ न होतौ, प्रान महा दुख पावत ।
जीवन सुफल सूर ताही कौ, काज पराए आवत ॥41॥

कोकिल हरि कौ बोल सुनाउ।
मधुबन तैं उपटारि स्याम कौं, इहिं ब्रज कौं लै आउ ॥
जा जस कारन देत सयाने, तन मन धन सब साज ।
सुजस बिकात बचन के बदलैं, क्यौं न बिसाहतु आज ॥
कीजै कछु उपकार परायौ, इहै सयानौ काज ।
सूरदास पुनि कहँ यह अवसर, बिनु बसंत रितुराज ॥42॥

अब यह बरषौ बीति गई ।
जनि सोचहि, सुख मानि सयानी, भली रितु सरद भई ॥
फुल्ल सरोज सरोवर सुंदर, नव बिधि नलिनि नई ।
उदित चारु चंद्रिका किरन, उर अंतर अमृत मई ॥
घटी घटा अभिमान मोह मद, तमिता तेज हई ।
सरिता संजम स्वच्छ सलिल सब, फाटी काम कई ॥
यहै सरद संदेस सूर सुनि, करुना कहि पठई ।
यह सुनि सखी सयानी आईं, हरि-रति अवधि हई ॥43॥

सरद समै हू स्याम न आए ।
को जानै काहे तैं सजनी, किहिं बैरिनि बिरमाए ॥
अमल अकास कास कुसुमति छिति, लच्छन स्वच्छ जनाए ।
सर सरिता सागर जल-उज्ज्वल, अति कुल कमल सुहाए ॥
अहि मयंक, मकरंद कंज अलि, दाहक गरज जिबाए ।
प्रीतम रँग संग मिलि सुंदरि, रचि सचि सींच सिराए ॥
सूनी सेज तुषार जमत चिर, बिरह सिंधु उपजाए ।
अब गई आस सूर मिलिबे की, भए ब्रजनाथ पराए ॥44॥

दूरि करहि बीना कर धरिबौ ।
रथ थाक्यौ, मानौ मृग मोहे, नाहिंन होत चंद्र को ढरिबौ ॥
बीतै जाहि सोइ पै जानै, कठिन सु प्रेम पास कौ परिबौ ।
प्राननाथ संगहिं तैं बिछुरे, रहत न नैन नीर कौ झरिबौ ॥
सीतल चंद अगिन सम लागत, कहिए धीर कौन बिधि धरिबौ ।
सूर सु कमलनयन के बिछरैं, झूठौ सब जतननि कौ करिबौ ॥45॥

कोउ माई बरजै री या चंदहिं ।
अति हीं क्रोध करत है हम पर, कुमुदिनि कुल आनंदहिं ॥
कहाँ कहौ बरषा रबि तमचुर, कमल बकाहक कारे ।
चलत न चपल रहत थिर कै रथ, बिरहिनि के तन जारे ॥
निंदतिं सैल उदधि पन्नग कौं, स्रीपति कमठ कठोरहिं ।
देतिं असीस जरा देवी कौ, राहु केतु किन जोरहिं ॥
ज्यौं जल-हीन मीन तन तलफतिं, ऐसी गति ब्रजबालहिं ।
सूरदास अब आनि मिलावहु, मोहन मदन गुपालहिं ॥46॥

माई मोकौं चंद लग्यौ दुख दैन ।
कहँ वै स्याम कहाँ वै बतियाँ, कहँ वै सुख की रैन ॥
तारे गनत गनत हौं हारी, टपकत लागे नैन ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, बिरहिनि कौं नहिं चैन ॥47॥

अब या तनहिं राखि कह कीजै ।
सुनि री सखी स्याम सुंदर बिनु, बाँटि बिषम बिष पीजै ॥
कै गिरिऐ गिरि चढ़ि सुनि सजनी, सीस संकरहि दीजै ।
कै दहिऐ दारून दावानल, जाइ जमुन धँसि लीजै ॥
दुसह बियोग बिरह माधौ के , कौ दिन ही दिन छीजै ।
सूर स्याम प्रीतम बिनु राधे, सोचि सोचि कर मींजै ॥48॥

काहे कौं पिय पियहिं रटति हौ, पिय कौ प्रेम तेरो प्रान हरैगौ ।
काहे कौं लेति नयन जल भरि भरि, नैन भरै कैसैं सूल टरैगौ ॥
काहे कौं स्वास उसास लेति हौ बिरह कौ दबा बरैगौ ।
छार सुगंध सेज पुहपावलि, हार छुवै, हिय हार जरैगो ॥
बदन दुराइ बैठि मंदिर मैं, बहुरि निसापति उदय करैगौ ।
सूर सखी अपने इन नैननि, चंद चितै जनि चंद जरैगौ ॥49॥

बिछुरे री मेरे बाल-सँघाती ।
निकसि न जात प्रान ये पापी, फाटनि नाहिंन छाती ॥
हौं अपराधिनि दही मथति ही, भरी जोबन मदमाती ।
जौ हौं जानति हरि कौ चलिबौ, लाज छाँड़ि सँग जाती ॥
ढरकत नीर नैन भरि सुंदरि, कछु न सोह दिन-राती ।
सूरदास प्रभु दरसन कारन , सखियनि मिलि लिखी पाती ॥50॥

एक द्यौस कुंजनि मैं माई ।
नाना कुसुम लेइ अपनैं कर, दिए मोहिं सो सुरति न जाई ॥
इतने मैं घन गरजि वृष्टि करी, तनु भीज्यौ मो भई जुड़ाई ।
कंपत देखि उढ़ाइ पीत पट, लै करुनामय कंठ लगाई ॥
कहँ वह प्रीति रीति मोहन की, कहँ अब धौं एती निठुराई ।
अब बलवीर सूर प्रभु सखि री, मधुबन बसि सब रति बिसराई ॥51॥

मेरे मन इतनी सूल रही ।
वे बतियाँ छतियाँ लिखि राखीं, जे नँदलाल कही ॥
एक द्यौस मेरैं गृह आए, हौं ही मथत दही ।
रति माँगत मैं मान कियौ सखि, सो हरि गुसा गही ॥
सोचति अति पछिताति राधिका, मुरछित धरनि ढही ।
सूरदास प्रभु के बिछुरे तैं, बिथा न जाति सही ॥52॥

हरि कौ मारग दिन प्रति जोवति ।
चितवत रहत चकोर चंद ज्यौं, सुमिरि-सुमिरि गुन रोवति ॥
पतियाँ पठवति मसि नहिं खूँटति, लिखि लिखि मानहु धोवति ।
भूख न दिन निसि नींद हिरानी, एकौ पल नहिं सोवति ॥
जे जे बसन स्याम सँग पहिरे, ते अजहूँ नहिं धोवति ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, बृथा जनम सुख खोवति ॥53॥

इहिं दुख तन तरफत मरि जैहैं ।
कबहुँ न सखी स्याम-सुंदर घन, मिलिहैं आइ अंक भरि लैहै ?
कबहुँ न बहुरि सखा सँग ललना, ललित त्रिभंगी छबिहिं दिखै हैं ?
कबहुँ न बेनु अधर धरि मोहन, यह मति लै लै नाम बुलैहैं ।
कबहुँ न कुंज भवन सँग जैहैं, कबहुँ न दूती लैन पठैहैं ?
कबहुँ न पकरि भुजा रस बस ह्वै, कबहुँन पग परि मान मिटैहैं ?
याही तै घट प्रान रहत हैं, कबहुँक फिरि दरसन हरि देहैं ?
सूरदास परिहरत न यातैं, प्रान तजैं नहिं पिय ब्रज ऐहैं ॥54॥

सबैं सुख ले जु गए ब्रजनाथ ।
बिलखि बदन चितवतिं मधुबन तन, इस न गईं उठि साथ ॥
वह मूरति चित तैं बिसरति नहिं, देखि साँवरे गात ।
मदन गोपाल ठगौरी मेली , कहत न आवै बात ।
नंद-नँदन जु बिदेस गबन कियौ, बैसी मींजतिं हाथ ।
सूदास प्रभु तुम्हरें बिछुरे, हम सब भईं अनाथ ॥55॥

करिहौ मोहन कहूँ सँभारि, गोकुल-जन सुखहारे ।
खग, मृग,तृन, बेली वृंदावन, गैया ग्वाल बिसारे ॥
नंद जसोदा मारग जोवैं, निसि दिन दीन दुखारे ।
छिन छिन सुरति करत चरननि की, बाल बिनोद तुम्हारे ॥
दीन दुखी ब्रज रह्यौ न परि है, सुंदर स्याम ललारे ।
दीनानाथ कृपा के सागर, सूरदास-प्रभु प्यारे ॥56॥

उनकौ ब्रज बसिबौ नहिं भावै ।
ह्वाँ वै भुप भए त्रिभवन के, ह्याँ कत ग्वाल कहावैं ॥
ह्वाँ वै छत्र सिंहासन राजत, की बछरनि सँग धावै ।
ह्वा तौ बिबिधँ वस्त्र पाटंबर, को कमरी सचु पावै ॥
नंद जसोदा हूँ कौ बिसर्‌यौ, हमरी कौन चलावै ॥
सूरदास प्रभु निठुर भए री, पातिहु लिखि न पठावै ॥57॥

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