ग़ज़लें शेख़ इब्राहिम ज़ौक (भाग-2)
Ghazals Sheikh Ibrahim Zauq (Part-2)

तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर

तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर
चुपके ही बैठे रहे दम को मसीहा लेकर

शर्ते-हिम्मत नहीं मुज़रिम हो गिरफ्तारे-अज़ाब
तूने क्या छोड़ा अगर छोड़ेगा बदला लेकर

मुझसा मुश्ताक़े-जमाल एक न पाओगे कहीं
गर्चे ढूँढ़ोगे चिराग़े-रुखे-ज़ेबा लेकर

तेरे क़दमों में ही रह जायेंगे, जायेंगे कहाँ
दश्त में मेरे क़दम आबलाए-पा लेकर

वाँ से याँ आये थे ऐ 'ज़ौक़' तो क्या लाये थे
याँ से तो जायेंगे हम लाख तमन्ना लेकर

(गिरफ्तारे-अज़ाब=कष्टों में फँसा,
मुश्ताक़े-जमाल=सौंदर्य प्रेमी,
चिराग़े-रुखे-ज़ेबा=ख़ूबसूरत रोशनी
वाला, दश्त=जंगल)

तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं

तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं
सब्र ओ ताक़त के वहाँ पाँव उखड़ जाते हैं

इतने बिगड़े हैं वो मुझ से कि अगर नाम उन के
ख़त भी लिखता हूँ तो सब हर्फ़ बिगड़ जाते हैं

क्यूँ न लड़वाएँ उन्हें ग़ैर कि करते हैं यही
हम-नशीं जिन के नसीबे कहीं लड़ जाते हैं

तेरे कूचे को वोह बीमारे-ग़म दारुलशफा समझे

तेरे कूचे को वोह बीमारे-ग़म दारुलशफा समझे
अज़ल को जो तबीब और मर्ग को अपनी दवा समझे

सितम को हम करम समझे जफ़ा को हम वफ़ा समझे
और इस पर भी न समझे वोह तो उस बुत से ख़ुदा समझे

समझ ही में नहीं आती है कोई बात ‘ज़ौक़’ उसकी
कोई जाने तो क्या जाने,कोई समझे तो क्या समझे

(दारुलशफा=आरोग्य मंदिर, अज़ल=यमराज,
तबीब=वैद्य,चिकित्सक, मर्ग=मृत्यु)

दरिया-ए-अश्क चश्म से जिस आन बह गया

दरिया-ए-अश्क चश्म से जिस आन बह गया
सुन लीजियो कि अर्श का ऐवान बह गया

बल-बे-गुदाज़-ए-इश्क़ कि ख़ूँ हो के दिल के साथ
सीने से तेरे तीर का पैकान बह गया

ज़ाहिद शराब पीने से काफ़िर हुआ मैं क्यूँ
क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया

है मौज-ए-बहर-ए-इश्क़ वो तूफ़ाँ कि अल-हफ़ीज़
बेचारा मुश्त-ए-ख़ाक था इंसान बह गया

दरिया-ए-अश्क से दम-ए-तहरीर हाल-ए-दिल
कश्ती की तरह मेरा क़लम-दान बह गया

ये रोए फूट फूट के पानी के आबले
नाला सा एक सू-ए-बयाबान बह गया

था तू बहा में बेश पर उस लब के सामने
सब मोल तेरा लाल-ए-बदख़्शान बह गया

कश्ती सवार-ए-उम्र हूँ बहर-ए-फ़ना में 'ज़ौक़'
जिस दम बहा के ले गया तूफ़ान बह गया

था 'ज़ौक़' पहले देहली में पंजाब का सा हुस्न
पर अब वो पानी कहते हैं मुल्तान बह गया

दिखला न ख़ाल-ए-नाफ़ तू ऐ गुल-बदन मुझे

दिखला न ख़ाल-ए-नाफ़ तू ऐ गुल-बदन मुझे
हर लाला याँ है नाफ़ा-ए-मुश्क-ए-ख़ुतन मुझे

हमदम वबाल-ए-दोश न कर पैरहन मुझे
काँटा सा है खटकता मिरा तन बदन मुझे

फिरता लिए चमन में है दीवाना-पन मुझे
ज़ंजीर-ए-पा है मौज-ए-नसीम-ए-चमन मुझे

तस्बीह-ए-दौर-ए-बज़्म में देखो इमाम को
बख़्शी है हक़ ने ज़ेब-ए-सर-ए-अंजुमन मुझे

ऐ मेरे यासमन तिरे दंदान-ए-आबदार
गुलशन में हैं रुलाते गुल-ए-यासमन मुझे

मेहराब-ए-काबा जब से है तेरा ख़म-ए-कमाँ
सैद-ए-हरम समझते हैं नावक-फ़गन मुझे

है तन में रीशा-हा-ए-नए ख़ुश्क उस्तुख़्वाँ
क्यूँ खींचता है काँटों में ऐ ज़ोफ़-ए-तन मुझे

ऐ लब मिसी को फेंक कि नीलम है कम-बहा
याक़ूत दे या दे कोई लाल-ए-यमन मुझे

हूँ शम्अ या कि शोला ख़बर कुछ नहीं मगर
फ़ानूस हो रहा है मिरा पैरहन मुझे

इक सरज़मीन-ए-लाला बहार ओ ख़िज़ाँ में हूँ
यकसाँ है दाग़-ए-ताज़ा ओ दाग़-ए-कुहन मुझे

ख़ुसरव से तेशा बोला जो चाटूँ न तेरा ख़ूँ
शीरीं न होवे ख़ून-ए-सर-ए-कोह-कन मुझे

रुख़ पर तुम्हारे दाम जो डाला है सब्ज़े ने
आता नज़र है दीदा-ए-अन्क़ा-दहन मुझे

ये दिल वो है कि कर दे ज़मीं आसमाँ को ख़ाक
इक दम को बर्क़ दे जो पिन्हा पैरहन मुझे

कूचे में तेरे कौन था लेता भला ख़बर
शब चाँदनी ने आ के पहनाया कफ़न मुझे

दिखलाता आसमाँ से है रू-ए-ज़मीं की सैर
ऐ रश्क-ए-माह तेरी जबीं का शिकन मुझे

रखता है चश्म-ए-लुत्फ़ पे किस किस अदा के साथ
देता है जाम साक़ी-ए-पैमाँ-शिकन मुझे

है जज़्ब-ए-दिल दुरुस्त तो चाह-ए-फ़िराक़ से
खींचेगी तेरी ज़ुल्फ़ शिकन-दर-शिकन मुझे

दिखलाता इक अदा में है सौ सौ तरह बनाओ
इस सादा-पन के साथ तिरा बाँकपन मुझे

जैसे कुएँ में हो कोई तारा चमक रहा
दिल सूझता है यूँ तह-ए-चाह-ए-ज़क़न मुझे

आ कर उसे भी दो कभी आँखें ज़रा दिखा
आँखें दिखा रहा है ग़ज़ाल-ए-ख़ुतन मुझे

आ ऐ मिरे चमन कि हुआ में तिरी हवा
सहरा-ए-दिल हुआ है चमन-दर-चमन मुझे

या रब ये दिल है या कि है आईना-ए-नज़र
दिखला रहा है सैर ओ सफ़र दर वतन मुझे

आया हूँ नूर ले के मैं बज़्म-ए-सुख़न में 'ज़ौक़'
आँखों पे सब बिठाएँगे अहल-ए-सुख़न मुझे

दिल बचे क्यूँकर बुतों की चश्म-ए-शोख़-ओ-शंग से

दिल बचे क्यूँकर बुतों की चश्म-ए-शोख़-ओ-शंग से
अपना घर तो सूझता है सैकड़ों फ़रसंग से

एक भी निकले न मेरी सी फ़ुग़ान-ए-दिल-ख़राश
गरचे ख़ूँ टपके गुलू-ए-मुर्ग़-ए-ख़ुश-आहंग से

छुप के बैठेगा कहाँ तू हम से ऐ रंगीं-नवा
होगा तू जिस रंग में मिल जाएँगे उस रंग से

बल बे-बारीकी कि गोया हर तिरा तार-ए-सुख़न
जंतरी में खिंच के निकला है दहान-ए-तंग से

ऐ तग़ाफ़ुल-केश जल्दी आ कि तू वाक़िफ़ नहीं
इस दिल-ए-बेताब ओ जान-ए-मुज़्तरिब के ढंग से

जोश-ए-गिर्या से रही बरसात बरसों पर कभी
उस की तेग़-ए-तेज़ आलूदा न देखी ज़ंग से

मेरे गिर्ये के असर से हो गए पत्थर भी आब
झड़ते हैं जा-ए-शरर पानी के क़तरे संग से

पहले ये नीयत वज़ू की है नमाज़-ए-इश्क़ में
दिल से कह दीजे कि धोवे हाथ नाम ओ नंग से

'ज़ौक़' ज़ेबा है जो हो रीश-ए-सफ़ेद-ए-शैख़ पर
वसमा आब-ए-बंग से मेहंदी मय-ए-गुल-रंग से

दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में

दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में
शम्अ' है इक सोज़न-ए-गुम-गश्ता इस काशाना में

मैं हूँ वो ख़िश्त-ए-कुहन मुद्दत से इस वीराने में
बरसों मस्जिद में रहा बरसों रहा मय-ख़ाना में

मैं वो कैफ़ी हूँ कि पानी हो तो बन जाए शराब
जोश-ए-कैफ़िय्यत से मेरी ख़ाक के पैमाना में

बर्क़-ए-ख़िर्मन-सोज़ दानाई है ना-फ़हमी तिरी
वर्ना क्या क्या लहलहाते खेत हैं हर दाना में

किस नज़ाकत से है देखो इत्तिहाद-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
ज़ुल्फ़ वाँ शाने ने खींची दर्द है याँ शाना में

वहशत ओ ना-आश्नाई मस्ती ओ बेगानगी
या तिरी आँखों में देखी या तिरे दीवाना में

इश्क़ को नश्व-ओ-नुमा मंज़ूर है कब वर्ना सब्ज़
तुख़्म-ए-अश्क-ए-शम्अ हो ख़ाकिस्तर-ए-परवाना में

होश का दावा है बेहोशों को ज़ेर-ए-आसमाँ
ख़ुम-नशीं मिस्ल-ए-फ़लातूँ सब हैं इस ख़ुम-ख़ाना में

पत्थरों में ठोकरें खाता है नाहक़ सैल-ए-आब
पूछो क्या ले जाएगा आ कर मिरे ग़म-ख़ाना में

एक पत्थर पूजने को शैख़-जी का'बे गए
'ज़ौक़' हर बुत क़ाबिल-ए-बोसा है इस बुत-ख़ाना में

न करता ज़ब्त मैं नाला तो फिर ऐसा धुआँ होता

न करता ज़ब्त मैं नाला तो फिर ऐसा धुआँ होता
कि नीचे आसमाँ के और पैदा आसमाँ होता

कहे है मुर्ग़-ए-दिल ऐ काश में ज़ाग़-ए-कमाँ होता
कि ता शाख़-ए-कमाँ पर उस की मेरा आशियाँ होता

अभी क्या सर्द क़ातिल ये शहीद-ए-तुफ़्ता-जाँ होता
कोई दम शम-ए-मुर्दा में भी है बाक़ी धुआँ होता

न होती दिल में काविश गर किसी की नोक-ए-मिज़्गाँ की
तो क्यूँ हक़ में मिरे हर मू-ए-तन मिस्ल-ए-सिनाँ होता

अज़ा-दारी में है किस की ये चर्ख़-ए-मातमी-जामा
कि हबीब-ए-चाक की सूरत है ख़त्त-ए-कहकहशाँ होता

बगूला गर न होता वादी-ए-वहशत में ऐ मजनूँ
तो गुम्बद हम से सर-गश्तों की तुर्बत पर कहाँ होता

जो रोता खोल कर दिल तंगना-ए-दहर में आशिक़
तो जू-ए-कहकहशाँ में भी फ़लक पर ख़ूँ रवाँ होता

न रखता गर न रखता मुँह पे ये दाना मरीज़-ए-ग़म
मगर तेरा मयस्सर बोसा-ए-ख़ाल-ए-दहाँ होता

तिरे ख़ूनीं जिगर की ख़ाक पर होता अगर सब्ज़ा
तो मिज़्गाँ की तरह उस से भी पैहम ख़ूँ रवाँ होता

रुकावट दिल की उस काफ़िर के वक़्त-ए-ज़ब्ह ज़ाहिर है
कि ख़ंजर मेरी गर्दन पर है रुक रुक कर रवाँ होता

न करता ज़ब्त मैं गिर्या तो ऐ 'ज़ौक़' इक घड़ी भर में
कटोरे की तरह घड़ियाल के ग़र्क़ आसमाँ होता

न खींचो आशिक़-तिश्ना-जिगर के तीर पहलू से

न खींचो आशिक़-तिश्ना-जिगर के तीर पहलू से
निकाले पर है मिस्ल-ए-माही-ए-तस्वीर पहलू से

न ले ऐ नावक-अफ़गन दिल को मेरे चीर पहलू से
कि वो तो जा चुका साथ आह के जूँ तीर पहलू से

दिल-ए-सीपारा को ले टाँक तावीज़ों में हैकल के
न सरका ये हमाइल ऐ बुत-ए-बे-पीर पहलू से

वो हों बे-दस्त-ओ-पा बिस्मिल रसाई जब न हाथ आई
किया ता पा-ए-क़ातिल अज़ तह-ए-शमशीर पहलू से

असीर-ए-ज़ुल्फ़ दीवाने हैं देख ऐ पासबाँ शब को
दबा कर बैठ उन के पाँव की ज़ंजीर पहलू से

मुसव्विर लैला ओ मजनूँ की नाकामी पे हैराँ हैं
कभी बैठा न मिल कर पहलू-ए-तस्वीर पहलू से

ये दिल लब-तिश्ना तेग़-ए-यार का है रात भर करता
सदा-ए-अल-अतश जूँ नाला-ए-शब-गीर पहलू से

अजब हसरत का आलम था कि मजनूँ कहता था पैहम
छुटे पहलू मिरे महमिल का या तक़दीर पहलू से

न कहना उस्तुख़्वाँ उन को ये आलम लाग़री का है
कि है दिखला रहा मेरा दिल-ए-दिल-गीर पहलू से

ख़याल-ए-अबरू-ए-जानाँ नहीं अब भूलता इक दम
सिपाही है जुदा करता नहीं शमशीर पहलू से

तमाम अहल-ए-सुख़न बज़्म-ए-सुख़न में 'ज़ौक़' हैराँ हैं
मिला जो क़ाफ़िया तू ने किया तहरीर पहलू से

नहीं सबात बुलंदी-ए-इज्ज़-ओ-शाँ के लिए

नहीं सबात बुलंदी-ए-इज्ज़-ओ-शाँ के लिए
कि साथ औज के पस्ती है आसमाँ के लिए

हज़ार लुत्फ़ हैं जो हर सितम में जाँ के लिए
सितम-शरीक हुआ कौन आसमाँ के लिए

मज़े ये दिल के लिए थे न थे ज़बाँ के लिए
सो हम ने दिल में मज़े सोज़िश-ए-निहाँ के लिए

फ़रोग़-ए-इश्क़ से है रौशनी जहाँ के लिए
यही चराग़ है इस तीरा-ख़ाक-दाँ के लिए

सबा जो आए ख़स-ओ-ख़ार-ए-गुलिस्ताँ के लिए
क़फ़स में क्यूँकि न फड़के दिल आशियाँ के लिए

दम-ए-उरूज है क्या फ़िक्र-ए-नर्दबाँ के लिए
कमंद-ए-आह तो है बम-ए-आसमाँ के लिए

सदा तपिश पे तपिश है दिल-ए-तपाँ के लिए
हमेशा ग़म पे है ग़म जान-ए-ना-तवाँ के लिए

वबाल-ए-दोश है इस ना-तवाँ को सर लेकिन
लगा रखा है तिरे ख़ंजर ओ सिनाँ के लिए

बयान-ए-दर्द-ओ-मोहब्बत जो हो तो क्यूँकर हो
ज़बान दिल के लिए है न दिल ज़बाँ के लिए

मिसाल-ए-नय है मिरे जब तलक कि दम में दम
फ़ुग़ाँ है मेरे लिए और मैं फ़ुग़ाँ के लिए

बुलंद होवे अगर कोई मेरा शोला-ए-आह
तो एक और हो ख़ुर्शीद आसमाँ के लिए

चले हैं दैर को मुद्दत में ख़ानक़ाह से हम
शिकस्त-ए-तौबा लिए अर्मुग़ाँ मुग़ाँ के लिए

हजर के चूमने ही पर है हज्ज-ए-काबा अगर
तो बोसे हम ने भी उस संग-ए-आस्ताँ के लिए

न छोड़ तू किसी आलम में रास्ती कि ये शय
असा है पीर को और सैफ़ है जवाँ के लिए

जो पस-ए-मेहर-ओ-मोहब्बत कहीं यहाँ बिकता
तो मोल लेते हम इक अपने मेहरबाँ के लिए

ख़लिश से इश्क़ की है ख़ार-ए-पैरहन तन-ए-ज़ार
हमेशा इस तिरे मजनून-ए-ना-तवाँ के लिए

तपिश से दिल की ये अहवाल है मिरा गोया
बजा-ए-मग़्ज़ है सीमाब उस्तुख़्वाँ के लिए

मिरे मज़ार पे किस वजह से न बरसे नूर
कि जान दी तिरे रू-ए-अरक़-फ़िशाँ के लिए

इलाही कान में क्या उस सनम ने फूँक दिया
कि हाथ धरते हैं कानों पे सब अज़ाँ के लिए

नहीं है ख़ाना-ब-दोशों को हाजत-ए-सामाँ
असासा चाहिए क्या ख़ाना-ए-कमाँ के लिए

न दिल रहा न जिगर दोनों जल के ख़ाक हुए
रहा है सीने में क्या चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ के लिए

न लौह गोर पे मस्तों की हो न हो तावीज़
जो हो तो ख़िश्त-ए-ख़ुम-ए-मय कोई निशाँ के लिए

अगर उम्मीद न हम-साया हो तो ख़ाना-ए-यास
बहिश्त है हमें आराम-ए-जावेदाँ के लिए

वो मोल लेते हैं जिस दम कोई नई तलवार
लगाते पहले मुझी पर हैं इम्तिहाँ के लिए

सरीह चश्म-ए-सुख़न-गो तिरी कहे न कहे
जवाब साफ़ है पर ताक़त ओ तवाँ के लिए

इशारा चश्म का तेरी यकायक ऐ क़ातिल
हुआ बहाना मिरी मर्ग-ए-ना-गहाँ के लिए

रहे है हौल कि बरहम न हो मिज़ाज कहीं
बजा है हौल-ए-दिल उन के मिज़ाज-दाँ के लिए

बनाया आदमी को 'ज़ौक़' एक जुज़्व-ए-ज़ईफ़
और इस ज़ईफ़ से कुल काम दो-जहाँ के लिए

नाला इस शोर से क्यूँ मेरा दुहाई देता

नाला इस शोर से क्यूँ मेरा दुहाई देता
ऐ फ़लक गर तुझे ऊँचा न सुनाई देता

देख छोटों को है अल्लाह बड़ाई देता
आसमाँ आँख के तिल में है दिखाई देता

लाख देता फ़लक आज़ार गवारा थे मगर
एक तेरा न मुझे दर्द-ए-जुदाई देता

दे दुआ वादी-ए-पुर-ख़ार-ए-जुनूँ को हर गाम
दाद ये तेरी है ऐ आबला-पाई देता

रविश-ए-अश्क गिरा देंगे नज़र से इक दिन
है इन आँखों से यही मुझ को दिखाई देता

मुँह से बस करते कभी ये न ख़ुदा के बंदे
गर हरीसों को ख़ुदा सारी ख़ुदाई देता

पंजा-ए-मेहर को भी ख़ून-ए-शफ़क़ में हर रोज़
ग़ोते क्या क्या है तिरा दस्त-ए-हिनाई देता

कौन घर आईने के आता अगर वो घर में
ख़ाकसारी से न जारूब-ए-सफ़ाई देता

मैं हूँ वो सैद कि फिर दाम में फँसता जा कर
गर क़फ़स से मुझे सय्याद रिहाई देता

ख़ूगर-ए-नाज़ हूँ किस किस का कि मुझे साग़र-ए-मय
बोसा-ए-लब नहीं बे-चश्म-नुमाई देता

देख गर देखना है 'ज़ौक़' कि वो पर्दा-नशीं
दीदा-ए-रौज़न-ए-दिल से है दिखाई देता

निगह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी

निगह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी
चली थी बरछी किसी पर किसी के आन लगी

तिरा ज़बाँ से मिलाना ज़बाँ जो याद आया
न हाए हाए में तालू से फिर ज़बान लगी

किसी के दिल का सुनो हाल दिल लगा कर तुम
जो होवे दिल को तुम्हारे भी मेहरबान लगी

तो वो है माह-जबीं मिस्ल-ए-दीदा-ए-अंजुम
रहे है तेरी तरफ़ चश्म-ए-यक-जहान लगी

ख़ुदा करे कहे तुझ से ये कुछ ख़ुदा-लगती
कि ज़ुल्फ़ ऐ बुत-ए-बद-केश तेरे कान लगी

उड़ाई हिर्स ने आ कर जहाँ में सब की ख़ाक
नहीं है किस को हवा ज़ेर-ए-आसमान लगी

किसी की काविश-ए-मिज़्गाँ से आज सारी रात
नहीं पलक से पलक मेरी एक आन लगी

तबाह बहर-ए-जहाँ में थी अपनी कश्ती-ए-उम्र
सो टूट-फूट के बारे किनारे आन लगी

तुम्हारे हाथ से सीने में दिल से ता-बा-जिगर
सिनान ओ ख़ंजर ओ पैकाँ की है दुकान लगी

ख़दंग-ए-यार मिरे दिल से किस तरह निकले
कि उस के साथ है ऐ 'ज़ौक़' मेरी जान लगी

नीमचा यार ने जिस वक़्त बग़ल में मारा

नीमचा यार ने जिस वक़्त बग़ल में मारा
जो चढ़ा मुँह उसे मैदान-ए-अजल में मारा

माल जब उस ने बहुत रद्द-ओ-बदल में मारा
हम ने दिल अपना उठा अपनी बग़ल में मारा

उस लब ओ चश्म से है ज़िंदगी ओ मौत अपनी
कि कभी पल में जलाया कभी पल में मारा

खींच कर इश्क़-ए-सितम-पेशा ने शमशीर-ए-जफ़ा
पहले इक हाथ मुझी पर था अज़ल में मारा

चर्ख़-ए-बद-बीं की कभी आँख न फूटी सौ बार
तीर नाले ने मिरे चश्म-ए-ज़ुहल में मारा

अजल आई न शब-ए-हिज्र में और हम को फ़लक
बे-अजल तू ने तमन्ना-ए-अजल में मारा

इश्क़ के हाथ से ने क़ैस न फ़रहाद बचा
इस को गर दश्त में तो उस को जबल में मारा

दिल को उस काकुल-ए-पेचाँ से न बल करना था
ये सियह-बख़्त गया अपने ही बल में मारा

कौन फ़रियाद सुने ज़ुल्फ़ में दिल की तू ने
है मुसलमान को काफ़िर के अमल में मारा

उर्स की शब भी मिरी गोर पे दो फूल न लाए
पत्थर इक गुम्बद-ए-तुर्बत के कँवल में मारा

आँख से आँख है लड़ती मुझे डर है दिल का
कहीं ये जाए न इस जंग-ओ-जदल में मारा

हम ने जाना था जभी इश्क़ ने मारा उस को
तेशा फ़रहाद ने जिस वक़्त जबल में मारा

न हुआ पर न हुआ 'मीर' का अंदाज़ नसीब
'ज़ौक़' यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा

बज़्म में ज़िक्र मिरा लब पे वो लाए तो सही

बज़्म में ज़िक्र मिरा लब पे वो लाए तो सही
वहीं मालूम करूँ होंट हिलाए तो सही

संग पर संग हर इक कूचे में खाए तो सही
पर बला से तिरे दीवाने खाए तो सही

गो जनाज़े पे नहीं क़ब्र पे आए वो मिरी
शिकवा क्या कीजे ग़नीमत है कि आए तो सही

क्यूँकि दीवार पे चढ़ जाऊँ कोई कहता है
पाँव काटूँगा अँगूठा वो जमाए तो सही

पारा-ए-मुसहफ़-ए-दिल थे तिरे कूचे में पड़े
आते पाँव के तले शुक्र कि पाए तो सही

साफ़ बे-पर्दा नहीं होता वो ग़ुर्फ़ा में न हो
रौज़न-ए-दर से कभी आँख लड़ाए तो सही

गह बढ़ाता है गहे मह को घटाता है फ़लक
पर शब-ए-हिज्र को हम देखें घटाए तो सही

करूँ इक नाले से मैं हश्र में बरपा सौ हश्र
शोर-ए-महशर मुझे सोते से जगाए तो सही

गिर पड़े थे कई उस कूचे में दिल के टुकड़े
आते पाँव के तले शुक्र कि पाए तो सही

थे तुम्हीं निकले जो उस दाम-ए-बला से ऐ 'ज़ौक़'
वर्ना थे पेच में उस ज़ुल्फ़ के आए तो सही

बर्क़ मेरा आशियाँ कब का जला कर ले गई

बर्क़ मेरा आशियाँ कब का जला कर ले गई
कुछ जो ख़ाकिस्तर बचा आँधी उड़ा कर ले गई

उस के क़दमों तक न बेताबी बढ़ा कर ले गई
हाए दो पलटे दिए और फिर हटा कर ले गई

ना-तवानी हम को हाथों हाथ उठा कर ले गई
च्यूँटी से च्यूँटी दाना छुड़ा कर ले गई

सुब्ह-ए-रुख़ से कौन शाम-ए-ज़ुल्फ़ में जाता था आह
ऐ दिल-ए-शामत-ज़दा शामत लगा कर ले गई

ख़ून से फ़रहाद के रंगीं हुआ दामान-ए-कोह
क्यूँ न मौज-ए-शीर ये धब्बा छुड़ा कर ले गई

तुम ने तो छोड़ा ही था ऐ हमरहान-ए-क़ाफ़िला
लेकिन आवाज़-ए-जरस हम को जगा कर ले गई

नोक-ए-मिज़्गाँ जब हुई सीना-फ़गारों से दो-चार
पारा-हा-ए-दिल से गुल-दस्ता बना कर ले गई

देखी कुछ दिल की कशिश लैला कि नाक़े को तिरे
सू-ए-मजनूँ आख़िरश रस्ता भुला कर ले गई

वाह ऐ सोज़-ए-दरूँ कूचे में उस के बर्क़-ए-आह
रात हम को हर क़दम मिशअल दिखा कर ले गई

वो गए घर ग़ैर के और याँ हमें दम भर के बाद
बद-गुमानी उन के घर सू घर फिरा कर ले गई

जो शहीद-ए-नाज़ कूचे में तुम्हारे था पड़ा
क्या कहूँ तक़दीर उसे क्यूँकर उठा कर ले गई

दश्त-ए-वहशत में बगूला था कि दीवाना तिरा
रूह-ए-मजनूँ बहर-ए-इस्तिक़बाल आ कर ले गई

आग में है कौन गिर पड़ता मगर परवाने को
आतिश-ए-सोज़-ए-मोहब्बत थी जला कर ले गई

ऐ परी पहलू से मेरे क्या कहूँ तेरी निगाह
दिल उड़ा कर ले गई या पर लगा कर ले गई

'ज़ौक़' मर जाने का तो अपने कोई मौक़ा न था
कू-ए-जानाँ में अजल नाहक़ लगा कर ले गई

बलाएँ आँखों से उन की मुदाम लेते हैं

बलाएँ आँखों से उन की मुदाम लेते हैं
हम अपने हाथों का मिज़्गाँ से काम लेते हैं

हम उन की ज़ुल्फ़ से सौदा जो वाम लेते हैं
तो अस्ल ओ सूद वो सब दाम दाम लेते हैं

शब-ए-विसाल के रोज़-ए-फ़िराक़ में क्या क्या
नसीब मुझ से मिरे इंतिक़ाम लेते हैं

क़मर ही दाग़-ए-ग़ुलामी फ़क़त नहीं रखता
वो मोल ऐसे हज़ारों ग़ुलाम लेते हैं

हम उन के ज़ोर के क़ाइल हैं हैं वही शह-ज़ोर
जो इश्क़ में दिल-ए-मुज़्तर को थाम लेते हैं

क़तील-ए-नाज़ बताते नहीं तुझे क़ातिल
जब उन से पूछो अजल ही का नाम लेते हैं

तिरे असीर जो सय्याद करते हैं फ़रियाद
तो फिर वो दम ही नहीं ज़ेर-ए-दाम लेते हैं

झुकाए है सर-ए-तस्लीम माह-ए-नौ पर वो
ग़ुरूर-ए-हुस्न से किस का सलाम लेते हैं

तिरे ख़िराम के पैरू हैं जितने फ़ित्ने हैं
क़दम सब आन के वक़्त-ए-ख़िराम लेते हैं

हमारे हाथ से ऐ 'ज़ौक़' वक़्त-ए-मय-नोशी
हज़ार नाज़ से वो एक जाम लेते हैं

बाग़-ए-आलम में जहाँ नख़्ल-ए-हिना लगता है

बाग़-ए-आलम में जहाँ नख़्ल-ए-हिना लगता है
दिल-ए-पुर-ख़ूँ का वहाँ हाथ पता लगता है

क्या तड़पना दिल-ए-बिस्मिल का भला लगता है
कि जब उछले है तिरे सीने से जा लगता है

दिल कहाँ सैर तमाशे पे मिरा लगता है
जी के लग जाने से जीना भी बुरा लगता है

जो हवादिस से ज़माने के गिरा फिर न उठा
नख़्ल आँधी का कहीं उखड़ा हुआ लगता है

दिल लगाने का मज़ा है कि गज़क में उस के
सब कबाबों से नमक दिल पे सिवा लगता है

न शब-ए-हिज्र में लगती है ज़बाँ तालू से
और न पहलू मिरा बिस्तर से ज़रा लगता है

हाए मोहताज हुआ मरहम-ए-ज़ंगार का तू
ज़ख़्म-ए-दिल ज़हर मुझे हँसना तिरा लगता है

आब-ए-ख़ंजर जो है ज़हराब वफ़ादारी को
पानी शायद कि सर-ए-मुल्क फ़ना लगता है

क़द-ए-मजनूँ कोई पहले से छड़ी बेद की है
जब ज़रा झुकता है क़द पाँव से जा लगता है

ज़र्द ज़ाहिद है तो क्या खोट अभी है दिल में
'ज़ौक़' उस ज़र को कसौटी पर कसा लगता है

बादाम दो जो भेजे हैं बटवे में डाल कर

बादाम दो जो भेजे हैं बटवे में डाल कर
ईमाँ ये है कि भेज दे आँखें निकाल कर

दिल सीने में कहाँ है न तू देख-भाल कर
ऐ आह कह दे तीर का नामा निकाल कर

उतरेगा एक जाम भी पूरा न चाक से
ख़ाक-ए-दिल-ए-शिकस्ता न सर्फ़-ए-कुलाल कर

ले कर बुतों ने जान जब ईमाँ पे डाला हाथ
दिल क्या किनारे हो गया सब को सँभाल कर

तस्वीर उन की हज़रत-ए-दिल खींच लीजे गर
रख देंगे हम भी पाँव पे आँखें निकाल कर

क़ातिल है किस मज़े से नमक-पाश-ए-ज़ख़्म-ए-दिल
बिस्मिल ज़रा तड़प के नमक तो हलाल कर

दिल को रफ़ीक़ इश्क़ में अपना समझ न 'ज़ौक़'
टल जाएगा ये अपनी बला तुझ पे टाल कर

मज़ा था हम को जो लैला से दू-ब-दू करते

मज़ा था हम को जो लैला से दू-ब-दू करते
कि गुल तुम्हारी बहारों में आरज़ू करते

मज़े जो मौत के आशिक़ बयाँ कभू करते
मसीह ओ ख़िज़्र भी मरने की आरज़ू करते

ग़रज़ थी क्या तिरे तीरों को आब-ए-पैकाँ से
मगर ज़ियारत-ए-दिल क्यूँ कि बे-वज़ू करते

अजब न था कि ज़माने के इंक़िलाब से हम
तयम्मुम आब से और ख़ाक से वज़ू करते

अगर ये जानते चुन चुन के हम को तोड़ेंगे
तो गुल कभी न तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते

समझ ये दार-ओ-रसन तार-ओ-सोज़न ऐ मंसूर
कि चाक-ए-पर्दा हक़ीक़त का हैं रफ़ू करते

यक़ीं है सुब्ह-ए-क़यामत को भी सुबुही-कश
उठेंगे ख़्वाब से साक़ी सुबू सुबू करते

न रहती यूसुफ़-ए-कनआँ की गर्मी-ए-बाज़ार
मुक़ाबले में जो हम तुझ को रू-ब-रू करते

चमन भी देखते गुलज़ार-ए-आरज़ू की बहार
तुम्हारी बाद-ए-बहारी में आरज़ू करते

सुराग़ उम्र-ए-गुज़िश्ता का कीजिए गर 'ज़ौक़'
तमाम उम्र गुज़र जाए जुस्तुजू करते

मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे

मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे
न दवा याद रहे और न दुआ याद रहे

तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
न ख़ुदाई की हो परवा न ख़ुदा याद रहे

लोटते सैकड़ों नख़चीर हैं क्या याद रहे
चीर दो सीने में दिल को कि पता याद रहे

रात का वादा है बंदे से अगर बंदा-नवाज़
बंद में दे लो गिरह ता कि ज़रा याद रहे

क़ासिद-ए-आशिक़-ए-सौदा-ज़दा क्या लाए जवाब
जब न मालूम हो घर और न पता याद रहे

देख भी लेना हमें राह में और क्यूँ साहब
हम से मुँह फेर के जाना ये भला याद रहे

तेरे मदहोश से क्या होश ओ ख़िरद की हो उम्मीद
रात का भी न जिसे खाया हुआ याद रहे

कुश्ता-ए-नाज़ की गर्दन पे छुरी फेरो जब
काश उस वक़्त तुम्हें नाम-ए-ख़ुदा याद रहे

ख़ाक बर्बाद न करना मिरी उस कूचे में
तुझ से कह देता हूँ मैं बाद-ए-सबा याद रहे

गोर तक आए तो छाती पे क़दम भी रख दो
कोई बे-दिल इधर आए तो पता याद रहे

तेरा आशिक़ न हो आसूदा ब-ज़ेर-ए-तूबा
ख़ुल्द में भी तिरे कूचे की हवा याद रहे

बाज़ आ जाएँ जफ़ा से जो कभी आप तो फिर
याद आशिक़ को न कीजेगा भला याद रहे

दाग़-ए-दिल पर मिरे फाहा नहीं है अँगारा
चारागर लीजो न चुटकी से उठा याद रहे

ज़ख़्म-ए-दिल बोले मिरे दिल के नमक-ख़्वारों से
लो भला कुछ तो मोहब्बत का मज़ा याद रहे

हज़रत-ए-इश्क़ के मकतब में है तालीम कुछ और
याँ लिक्खा याद रहे और न पढ़ा याद रहे

गर हक़ीक़त में है रहना तो न रख ख़ुद-बीनी
भूले बंदा जो ख़ुदी को तो ख़ुदा याद रहे

आलम-ए-हुस्न ख़ुदाई है बुतों की ऐ 'ज़ौक़'
चल के बुत-ख़ाने में बैठो कि ख़ुदा याद रहे

मरते हैं तेरे प्यार से हम और ज़्यादा

मरते हैं तेरे प्यार से हम और ज़्यादा
तू लुत्फ़ में करता है सितम और ज़्यादा

दें क्यों की न वो दाग़-ए-अलम और ज़्यादा
कीमत में भड़े दिल के दिरम् और ज़्यादा

क्या होवेगा दो-चार क़दा से मुझे साक़ी
मैं लूँगा तेरे सर की कसम और ज़्यादा

वो दिल को चुराकर जो लगे आँख चुराने
यारों का गया उनपे भरम और ज़्यादा

क्यों मैंने कहा तुझसा ख़ुदाई में नहीं और
मग़रूर हुआ अब वो सनम और ज़्यादा

लेते हैं समर शाख़-ए-समरवर को झुकाकर
झुकते हैं सकी वक़्त-ए-करम और ज़्यादा

जो कुंज-ए-क़नात में है तक़दीर पे शाक़िर
है 'ज़ौक़' बराबर उन्हें काम बहुत ज़्यादा

महफ़िल में शोर-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना-ए-मुल हुआ

महफ़िल में शोर-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना-ए-मुल हुआ
ला साक़िया प्याला कि तौबा का क़ुल हुआ

जिन की नज़र चढ़ा तिरा रुख़्सार-ए-आतिशीं
उन का चराग़-ए-गोर न ता-हश्र गुल हुआ

बंदा-नवाज़ियाँ तो ये देखो कि आदमी
जुज़्व-ए-ज़ईफ़ महरम-ए-असरार-ए-कुल हुआ

दरिया-ए-ग़म से मेरे गुज़रने के वास्ते
तेग़-ए-ख़मीदा यार की लोहे का पुल हुआ

परवाना भी था गर्म-ए-तपिश पर खुला न राज़
बुलबुल की तंग-हौसलगी थी कि ग़ुल हुआ

आई तही-दरों की न हरगिज़ समझ में बात
आवाज़ा गो बुलंद मिसाल-ए-दुहुल हुआ

उस बिन रहा चमन में भी मैं 'ज़ौक़' दिल-ख़राश
नाख़ुन से तेज़-तर मुझे हर बर्ग-ए-गुल हुआ

मार कर तीर जो वो दिलबर-ए-जानी माँगे

मार कर तीर जो वो दिलबर-ए-जानी माँगे
कह दो हम से न कोई दे के निशानी माँगे

ऐ सनम देख के हर दम की तिरी कम-सुख़नी
मौत घबरा के न क्यूँ ये ख़फ़क़ानी माँगे

ख़ाक से तिश्ना-ए-दीदार के सब्ज़ा जो उठे
तो ज़बाँ अपनी निकाले हुए पानी माँगे

मार-ए-पेचाँ तो बला हैगा मगर तू ऐ ज़ुल्फ़
है वो काफ़िर कि न काटा तिरा पानी माँगे

दहन-ए-यार हो और माँगे किसी से दिल को
वो जो माँगे तो ब-अंदाज़-ए-निहानी माँगे

दिल मिरा बोसा-ब-पैग़ाम नहीं है हमदम
यार लेता है तो ले अपनी ज़बानी माँगे

जल्वा उस आलम-ए-मअ'नी का जो देखे ऐ 'ज़ौक़'
लुत्फ़-ए-अल्फ़ाज़ न बे-हुस्न-ए-मआनी माँगे

मिरे सीने से तेरा तीर जब ऐ जंग-जू निकला

मिरे सीने से तेरा तीर जब ऐ जंग-जू निकला
दहान-ए-ज़ख़्म से ख़ूँ हो के हर्फ़-ए-आरज़ू निकला

मिरा घर तेरी मंज़िल-गाह हो ऐसे कहाँ तालए
ख़ुदा जाने किधर का चाँद आज ऐ माह-रू निकला

फिरा गर आसमाँ तो शौक़ में तेरे है सरगर्दां
अगर ख़ुर्शीद निकला तेरा गर्म-ए-जुस्तुजू निकला

मय-ए-इशरत तलब करते थे नाहक़ आसमाँ से हम
वो था लबरेज़-ए-ग़म इस ख़ुम-कदे से जो सुबू निकला

तिरे आते ही आते काम आख़िर हो गया मेरा
रही हसरत कि दम मेरा न तेरे रू-ब-रू निकला

कहीं तुझ को न पाया गरचे हम ने इक जहाँ ढूँडा
फिर आख़िर दिल ही में देखा बग़ल ही में से तू निकला

ख़जिल अपने गुनाहों से हूँ मैं याँ तक कि जब रोया
तो जो आँसू मिरी आँखों से निकला सुर्ख़-रू निकला

घिसे सब नाख़ुन-ए-तदबीर और टूटी सर-ए-सोज़ान
मगर था दिल में जो काँटा न हरगिज़ वो कभू निकला

उसे अय्यार पाया यार समझे 'ज़ौक़' हम जिस को
जिसे याँ दोस्त अपना हम ने जाना वो उदू निकला

ये इक़ामत हमें पैग़ाम-ए-सफ़र देती है

ये इक़ामत हमें पैग़ाम-ए-सफ़र देती है
ज़िंदगी मौत के आने की ख़बर देती है

ज़ाल-ए-दुनिया है अजब तरह की अल्लामा-ए-दहर
मर्द-ए-दीं-दार को भी दहरिया कर देती है

बढ़ती जाती है जो मश्क़-ए-सितम उस ज़ालिम की
कुछ मोहब्बत मिरी इस्लाह मगर देती है

फ़ाएदा दे तिरे बीमार को क्या ख़ाक दवा
अब तो इक्सीर भी दीजे तो ज़रर देती है

शम्अ घबरा न शब-ए-ग़म से कि कोई दम में
तुझ को काफ़ूर-ए-सफ़ेदी-ए-सहर देती है

ग़ुंचा हँसता है तिरे आगे जो गुस्ताख़ी से
चटख़ना मुँह पे वहीं बाद-ए-सहर देती है

शम्अ भी कम नहीं कुछ इश्क़ में परवाने से
जान देता है अगर वो तो ये सर देती है

दम-ब-दम ज़ख़्म पे इक ज़ख़्म है दम लेने की
मुझ को फ़ुर्सत नहीं वो तेग़-ए-नज़र देती है

कहते सुनते नहीं कुछ हम तो शब-ए-हिज्र में पर
नाला-ए-दिल का जवाब आह-ए-जिगर देती है

तीरा-बख़्ती मिरी करती है परेशाँ मुझ को
तोहमत इस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम पे धर देती है

नख़्ल-ए-मिज़्गाँ से है क्या जानिए क्या चश्म-ए-समर
चश्म पानी की जगह ख़ून-ए-जिगर देती है

देती शर्बत है किसे ज़हर भरी आँख तिरी
ऐन एहसान है वो ज़हर भी गर देती है

कोई ग़म्माज़ नहीं मेरी तरफ़ से ऐ 'ज़ौक़'
कान उस के मिरी फ़रियाद ही भर देती है

रिंद-ए-ख़राब-हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू

रिंद-ए-ख़राब-हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू
तुझ को पराई क्या पड़ी अपनी नबेड़ तू

नाख़ुन ख़ुदा न दे तुझे ऐ पंजा-ए-जुनूँ
देगा तमाम अक़्ल के बख़िये उधेड़ तू

इस सैद-ए-मुज़्तरिब को तहम्मुल से ज़ब्ह कर
दामान ओ आस्तीं न लहू में लथेड़ तू

छुटता है कौन मर के गिरफ़्तार-ए-दाम-ए-ज़ुल्फ़
तुर्बत पे उस की जाल का पाएगा पेड़ तू

ऐ ज़ाहिद-ए-दो-रंग न पीर आप को बना
मानिंद-ए-सुब्ह-ए-काज़िब अभी है अधेड़ तू

ये तंगनाए-दहर नहीं मंज़िल-ए-फ़राग़
ग़ाफ़िल न पाँव हिर्स के फैला सुकेड़ तू

हो क़त्अ नख़्ल-ए-उल्फ़त अगर फिर भी सब्ज़ हो
क्या हो जो फेंके जड़ ही से उस को उखेड़ तू

जो सोती भीड़ बाइस-ए-ग़ौग़ा जगाए फिर
दरवाज़ा घर का उस सग-ए-दुनिया पे भेड़ तू

उम्र-ए-रवाँ का तौसन-ए-चालाक इस लिए
तुझ को दिया कि जल्द करे याँ से एड़ तू

आवारगी से कू-ए-मोहब्बत की हाथ उठा
ऐ 'ज़ौक़' ये उठा न सकेगा खखेड़ तू

लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले

लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले

हो उम्र-ए-ख़िज़्र भी तो हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग
हम क्या रहे यहाँ अभी आए अभी चले

हम से भी इस बिसात पे कम होंगे बद-क़िमार
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल-लगी चले

लैला का नाक़ा दश्त में तासीर-ए-इश्क़ से
सुन कर फ़ुग़ान-ए-क़ैस बजा-ए-हुदी चले

नाज़ाँ न हो ख़िरद पे जो होना है हो वही
दानिश तिरी न कुछ मिरी दानिश-वरी चले

दुनिया ने किस का राह-ए-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूँही जब तक चली चले

जाते हवा-ए-शौक़ में हैं इस चमन से 'ज़ौक़'
अपनी बला से बाद-ए-सबा अब कभी चले

(हयात=ज़िन्दगी, क़ज़ा=मौत, बिसात=जुए
के खेल में, बद-क़िमार=कच्चे जुआरी,
उम्र-ए-ख़िज़्र=अमरता, वक़्त-ए-मर्ग=मृत्यु
के समय, नाज़ाँ=घमंडी, ख़िरद=बुद्धि,
दानिश=समझदार, हवा-ए-शौक़=प्रेम की
हवा, बाद-ए-सबा=सुबह की शीतल वायु)

लेते ही दिल जो आशिक़-ए-दिल-सोज़ का चले

लेते ही दिल जो आशिक़-ए-दिल-सोज़ का चले
तुम आग लेने आए थे क्या आए क्या चले

तुम चश्म-ए-सुर्मगीं को जो अपनी दिखा चले
बैठे बिठाए ख़ाक में हम को मिला चले

दीवाना आ के और भी दिल को बना चले
इक दम तो ठहरो और भी क्या आए क्या चले

हम लुत्फ़-ए-सैर-ए-बाग़-ए-जहाँ ख़ाक उड़ा चले
शौक़-ए-विसाल दिल में लिए यार का चले

ग़ैरों के साथ छोड़ के तुम नक़्श-ए-पा चले
क्या ख़ूब फूल गोर पे मेरी चढ़ा चले

दिखला के मुझ को नर्गिस-ए-बीमार क्या चले
आवारा मिस्ल-ए-आहु-ए-सहरा बना चले

ऐ ग़म मुझे तमाम शब-ए-हिज्र में न खा
रहने दे कुछ कि सुब्ह का भी नाश्ता चले

बल-बे ग़ुरूर-ए-हुस्न ज़मीं पर न रक्खे पाँव
मानिंद-ए-आफ़्ताब वो बे-नक़्श-ए-पा चले

क्या ले चले गली से तिरी हम को जूँ नसीम
आए थे सर पे ख़ाक उड़ाने उड़ा चले

अफ़्सोस है कि साया-ए-मुर्ग़-ए-हवा की तरह
हम जिस के साथ साथ चलें वो जुदा चले

क्या देखता है हाथ मिरा छोड़ दे तबीब
याँ जान ही बदन में नहीं नब्ज़ क्या चले

क़ातिल जो तेरे दिल में रुकावट न हो तो क्यूँ
रुक रुक के मेरे हल्क़ पे ख़ंजर तिरा चले

ले जाएँ तेरे कुश्ते को जन्नत में भी अगर
फिर फिर के तेरे घर की तरफ़ देखता चले

आलूदा चश्म में न हुई सुरमे से निगाह
देखा जहाँ से साफ़ ही अहल-ए-सफ़ा चले

रोज़-ए-अज़ल से ज़ुल्फ़-ए-मोअम्बर का है असीर
क्या उड़ के तुझ से ताइर-ए-निकहत भला चले

साथ अपने ले के तौसन-ए-उम्र-ए-रवाँ को आह
हम इस सरा-ए-दहर में क्या आए क्या चले

सुलझाईं ज़ुल्फ़ें क्या लब-ए-दरिया पे आप ने
हर मौज मिस्ल-ए-मार-सियह तुम बना चले

दुनिया में जब से आए रहा इश्क़-ए-गुल-रुख़ाँ
हम इस जहाँ में मिस्ल-ए-सबा ख़ाक उड़ा चले

क़ातिल से दख़्ल क्या है कि जाँ-बर हो अपना होश
गर उड़ के मिस्ल-ए-ताएर रंग-ए-हिना चले

फ़िक्र-ए-क़नाअत उन को मयस्सर हुई कहाँ
दुनिया से दिल में ले के जो हिर्स-ओ-हवा चले

इस रू-ए-आतिशीं के तसव्वुर में याद-ए-ज़ुल्फ़
यानी ग़ज़ब है आग लगे और हवा चले

ऐ 'ज़ौक़' है ग़ज़ब निगह-ए-यार अल-हफ़ीज़
वो क्या बचे कि जिस पे ये तीर-ए-क़ज़ा चले

वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें

वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें
ऐसी हैं जैसे ख़्वाब की बातें

फिर मुझे ले चला उधर देखो
दिल-ए-ख़ाना-ख़राब की बातें

वाइज़ा छोड़ ज़िक्र-ए-नेमत-ए-ख़ुल्द
कह शराब-ओ-कबाब की बातें

मह-जबीं याद हैं कि भूल गए
वो शब-ए-माहताब की बातें

हर्फ़ आया जो आबरू पे मिरी
हैं ये चश्म-ए-पुर-आब की बातें

सुनते हैं उस को छेड़ छेड़ के हम
किस मज़े से इताब की बातें

जाम-ए-मय मुँह से तू लगा अपने
छोड़ शर्म ओ हिजाब की बातें

मुझ को रुस्वा करेंगी ख़ूब ऐ दिल
ये तिरी इज़्तिराब की बातें

जाओ होता है और भी ख़फ़क़ाँ
सुन के नासेह जनाब की बातें

क़िस्सा-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार दिल के लिए
हैं अजब पेच-ओ-ताब की बातें

ज़िक्र क्या जोश-ए-इश्क़ में ऐ 'ज़ौक़'
हम से हों सब्र ओ ताब की बातें

वो कौन है जो मुझ पे तअस्सुफ़ नहीं करता

वो कौन है जो मुझ पे तअस्सुफ़ नहीं करता
पर मेरा जिगर देख कि मैं उफ़ नहीं करता

क्या क़हर है वक़्फ़ा है अभी आने में उस के
और दम मिरा जाने में तवक़्क़ुफ़ नहीं करता

कुछ और गुमाँ दिल में न गुज़रे तिरे काफ़िर
दम इस लिए मैं सूरा-ए-यूसुफ़ नहीं करता

पढ़ता नहीं ख़त ग़ैर मिरा वाँ किसी उनवाँ
जब तक कि वो मज़मूँ में तसर्रुफ़ नहीं करता

दिल फ़क़्र की दौलत से मिरा इतना ग़नी है
दुनिया के ज़र-ओ-माल पे मैं तुफ़ नहीं करता

ता-साफ़ करे दिल न मय-ए-साफ़ से सूफ़ी
कुछ सूद-ओ-सफ़ा इल्म-ए-तसव्वुफ़ नहीं करता

ऐ 'ज़ौक़' तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर
आराम में है वो जो तकल्लुफ़ नहीं करता

सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है

सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है
कौन फिरता है ये मुर्दार लिए फिरती है

घर से बाहर न निकलता कभी अपने ख़ुर्शीद
हवस-ए-गर्मी-ए-बाज़ार लिए फिरती है

वो मिरे अख़्तर-ए-ताले की है वाज़ूँ गर्दिश
कि फ़लक को भी निगूँ-सार लिए फिरती है

कर दिया क्या तिरे अबरू ने इशारा क़ातिल
कि क़ज़ा हाथ में तलवार लिए फिरती है

जा के इक बार न फिरना था जहाँ वाँ मुझ को
बे-क़रारी है कि सौ बार लिए फिरती है

हम हैं और शुग़्ल-ए-इश्क़-बाज़ी है

हम हैं और शुग़्ल-ए-इश्क़-बाज़ी है
क्या हक़ीक़ी है क्या मजाज़ी है

दुख़्तर-ए-रज़ निकल के मीना से
करती क्या क्या ज़बाँ-दराज़ी है

ख़त को क्या देखते हो आइने में
हुस्न की ये अदा-तराज़ी है

हिन्दू-ए-चश्म ताक़-ए-अबरू में
क्या बना आन कर नमाज़ी है

नज़्र दें नफ़्स-कुश को दुनिया-दार
वाह क्या तेरी बे-नियाज़ी है

बुत-ए-तन्नाज़ हम से हो ना-साज़
कारसाज़ों की कारसाज़ी है

सच कहा है किसी ने ये ऐ 'ज़ौक़'
माल-ए-मूज़ी नसीब-ए-ग़ाज़ी है

हंगामा गर्म हस्ती-ए-ना-पाएदार का

हंगामा गर्म हस्ती-ए-ना-पाएदार का
चश्मक है बर्क़ की कि तबस्सुम शरार का

मैं जो शहीद हूँ लब-ए-ख़ंदान-ए-यार का
क्या क्या चराग़ हँसता है मेरे मज़ार का

हो राज़-ए-दिल न यार से पोशीदा यार का
पर्दा न दरमियाँ हो जो दिल के ग़ुबार का

उस रू-ए-ताबनाक पे हर क़तरा-ए-अरक़
गोया कि इक सितारा है सुब्ह-ए-बहार का

है ऐन-ए-वस्ल में भी मिरी चश्म सू-ए-दर
लपका जो पड़ गया है मुझे इंतिज़ार का

पहुँचेगा तेरे पास कबूतर से पेश-तर
मकतूब-ए-शौक़ उड़ा के तिरे बे-क़रार का

हो पाक-दामनों को ख़लिश गर से क्या ख़तर
खटका नहीं निगाह को मिज़्गाँ के ख़ार का

बुझने की दिल की आग नहीं ज़ेर-ए-ख़ाक भी
होगा दरख़्त गोर पे मेरी चिनार का

देख अपने दर-ए-गोश को आरिज़ से मुत्तसिल
देखा न हो सितारा जो सुब्ह-ए-बहार का

पूछे है क्या हलावत-ए-तलख़ाबा-ए-सरिश्क
शर्बत है बाग़-ए-ख़ुल्द-ए-बरीं के अनार का

है दिल की दाओ घात में मिज़्गाँ से चश्म-ए-यार
है शौक़ उस की टट्टी की ओझल शिकार का

क़ासिद लिखूँ लिफ़ाफ़ा-ए-ख़त को ग़ुबार से
ता जाने वो ये ख़त है किसी ख़ाकसार का

ऐ 'ज़ौक़' होश गर है तो दुनिया से दूर भाग
इस मय-कदे में काम नहीं होशियार का

हाथ सीने पे मिरे रख के किधर देखते हो

हाथ सीने पे मिरे रख के किधर देखते हो
इक नज़र दिल से इधर देख लो गर देखते हो

है दम-ए-बाज़-पसीं देख लो गर देखते हो
आईना मुँह पे मिरे रख के किधर देखते हो

ना-तवानी का मिरी मुझ से न पूछो अहवाल
हो मुझे देखते या अपनी कमर देखते हो

पर-ए-परवाना पड़े हैं शजर-ए-शम्अ के गिर्द
बर्ग-रेज़ी-ए-मोहब्बत का समर देखते हो

बेद-ए-मजनूँ को हो जब देखते ऐ अहल-ए-नज़र
किसी मजनूँ को भी आशुफ़्ता-बसर देखते हो

शौक़-ए-दीदार मिरी नाश पे आ कर बोला
किस की हो देखते राह और किधर देखते हो

लज़्ज़त-ए-नावक-ए-ग़म 'ज़ौक़' से हो पूछते क्या
लब पड़े चाटते हैं ज़ख़्म-ए-जिगर देखते हो

हुए क्यूँ उस पे आशिक़ हम अभी से

हुए क्यूँ उस पे आशिक़ हम अभी से
लगाया जी को नाहक़ ग़म अभी से

दिला रब्त उस से रखना कम अभी से
जता देते हैं तुझ को हम अभी से

तिरे बीमार-ए-ग़म के हैं जो ग़म-ख़्वार
बरसता उन पे है मातम अभी से

ग़ज़ब आया हिलें गर उस की मिज़्गाँ
सफ़-ए-उश्शाक़ है बरहम अभी से

अगरचे देर है जाने में तेरे
नहीं पर अपने दम में दम अभी से

भिगो रहवेगा गिर्या जैब ओ दामन
रहे है आस्तीं पुर-नम अभी से

तुम्हारा मुझ को पास-ए-आबरू था
वगरना अश्क जाते थम अभी से

लगे सीसा पिलाने मुझ को आँसू
कि हो बुनियाद-ए-ग़म मोहकम अभी से

कहा जाने को किस ने मेंह खुले पर
कि छाया दिल पे अब्र-ए-ग़म अभी से

निकलते ही दम उठवाते हैं मुझ को
हुए बे-ज़ार यूँ हमदम अभी से

अभी दिल पर जराहत सौ न दो सौ
धरा है दोस्तो मरहम अभी से

किया है वादा-ए-दीदार किस ने
कि है मुश्ताक़ इक आलम अभी से

मरा जाना मुझे ग़ैरों ने ऐ 'ज़ौक़'
कि फिरते हैं ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम अभी से

हैं दहन ग़ुंचों के वा क्या जाने क्या कहने को हैं

हैं दहन ग़ुंचों के वा क्या जाने क्या कहने को हैं
शायद उस को देख कर सल्ले-अला कहने को हैं

वस्फ़-ए-चश्म ओ वस्फ़-ए-लब उस यार का कहने को हैं
आज हम दर्स-ए-इशारात-ओ-शिफ़ा कहने को हैं

आज उन से मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को हैं
पर नहीं मालूम क्या कहवेंगे क्या कहने को हैं

जो वो क़द-क़ामत सदा कहने को हैं
और आशिक़ वस्फ़-ए-क़द-क़ामत तिरा कहने को हैं

पूछ आ क़ातिल से तो वो कब करेगा हम को क़त्ल
आज हम तारीख़-ए-मर्ग आप ऐ क़ज़ा कहने को हैं

मैं तिरे हाथों के क़ुर्बां वाह क्या मारे हैं तीर
सब दहान-ए-ज़ख़्म मुँह से मरहबा कहने को हैं

वो जनाज़े पर मिरे किस वक़्त आए देखना
जब कि इज़्न-ए-आम मेरे अक़रिबा कहने को हैं