ग़ज़लें अहमद नदीम क़ासमी
Ghazlein Ahmad Nadeem Qasmi

1. अजब सुरूर मिला है मुझे दुआ कर के

अजब सुरूर मिला है मुझे दुआ कर के
कि मुस्कुराया ख़ुदा भी सितारा वा कर के

गदा-गरी भी इक उस्लूब-ए-फ़न है जब मैं ने
उसी को माँग लिया उस से इल्तिजा कर के

शब-ए-फ़िराक़ के हर जब्र को शिकस्त हुई
कि मैं ने सुब्ह तो कर ली ख़ुदा ख़ुदा कर के

ये सोच कर कि कभी तो जवाब आएगा
मैं उस के दर पे खड़ा रह गया सदा कर के

ये चारा-गर हैं कि इक इजतिमा-ए-बद-ज़ौक़ाँ
वो मुझ को देखें तिरी ज़ात से जुदा कर के

ख़ुदा भी उन को न बख़्शे तो लुत्फ़ आ जाए
जो अपने-आप से शर्मिंदा हूँ ख़ता कर के

ख़ुद अपनी ज़ात पे तो ए'तिमाद पुख़्ता हुआ
'नदीम' यूँ तो मुझे क्या मिला वफ़ा कर के

2. अजीब रंग तिरे हुस्न का लगाव में था

अजीब रंग तिरे हुस्न का लगाव में था
गुलाब जैसे कड़ी धूप के अलाव में था

है जिस की याद मिरी फ़र्द-ए-जुर्म की सुर्ख़ी
उसी का अक्स मिरे एक एक घाव में था

यहाँ वहाँ से किनारे मुझे बुलाते रहे
मगर मैं वक़्त का दरिया था और बहाव में था

उरूस-ए-गुल को सबा जैसे गुदगुदा के चली
कुछ ऐसा प्यार का आलम तिरे सुभाव में था

मैं पुर-सुकूँ हूँ मगर मेरा दिल ही जानता है
जो इंतिशार मोहब्बत के रख-रखाव में था

ग़ज़ल के रूप में तहज़ीब गा रही थी 'नदीम'
मिरा कमाल मिरे फ़न के इस रचाव में था

3. अंदाज़ हू-ब-हू तिरी आवाज़-ए-पा का था

अंदाज़ हू-ब-हू तिरी आवाज़-ए-पा का था
देखा निकल के घर से तो झोंका हवा का था

इस हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ पे लुट कर भी शाद हूँ
तेरी रज़ा जो थी वो तक़ाज़ा वफ़ा का था

दिल राख हो चुका तो चमक और बढ़ गई
ये तेरी याद थी कि अमल कीमिया का था

इस रिश्ता-ए-लतीफ़ के असरार क्या खुलें
तू सामने था और तसव्वुर ख़ुदा का था

छुप छुप के रोऊँ और सर-ए-अंजुमन हँसूँ
मुझ को ये मशवरा मिरे दर्द-आश्ना का था

उट्ठा अजब तज़ाद से इंसान का ख़मीर
आदी फ़ना का था तो पुजारी बक़ा का था

टूटा तो कितने आइना-ख़ानों पे ज़द पड़ी
अटका हुआ गले में जो पत्थर सदा का था

हैरान हूँ कि वार से कैसे बचा 'नदीम'
वो शख़्स तो ग़रीब ओ ग़यूर इंतिहा का था

4. अपने माहौल से थे क़ैस के रिश्ते क्या क्या

अपने माहौल से थे क़ैस के रिश्ते क्या क्या
दश्त में आज भी उठते हैं बगूले क्या क्या

इश्क़ मे'आर-ए-वफ़ा को नहीं करता नीलाम
वर्ना इदराक ने दिखलाए थे रस्ते क्या क्या

ये अलग बात कि बरसे नहीं गरजे तो बहुत
वर्ना बादल मिरे सहराओं पे उमडे क्या क्या

आग भड़की तो दर-ओ-बाम हुए राख के ढेर
और देते रहे अहबाब दिलासे क्या क्या

लोग अशिया की तरह बिक गए अशिया के लिए
सर-ए-बाज़ार तमाशे नज़र आए क्या क्या

लफ़्ज़ किस शान से तख़्लीक़ हुआ था लेकिन
उस का मफ़्हूम बदलते रहे नुक़्ते क्या क्या

इक किरन तक भी न पहुँची मिरे बातिन में 'नदीम'
सर-ए-अफ़्लाक दमकते रहे तारे क्या क्या

5. अब तक तो नूर-ओ-निक़हत-ओ-रंग-ओ-सदा कहूँ

अब तक तो नूर-ओ-निक़हत-ओ-रंग-ओ-सदा कहूँ,
मैं तुझको छू सकूँ तो ख़ुदा जाने क्या कहूँ

लफ़्ज़ों से उन को प्यार है मफ़हूम् से मुझे,
वो गुल कहें जिसे मैं तेरा नक्श-ए-पा कहूँ

अब जुस्तजू है तेरी जफ़ा के जवाज़ की,
जी चाहता है तुझ को वफ़ा आशना कहूँ

सिर्फ़ इस के लिये कि इश्क़ इसी का ज़हूर है,
मैं तेरे हुस्न को भी सबूत-ए-वफ़ा कहूँ

तू चल दिया तो कितने हक़ाइक़ बदल गये,
नज़्म-ए-सहर को मरक़द-ए-शब का दिया कहूँ

क्या जब्र है कि बुत को भी कहना पड़े ख़ुदा,
वो है ख़ुदा तो मेरे ख़ुदा तुझको क्या कहूँ

जब मेरे मुँह में मेरी ज़ुबाँ है तो क्यूँ न मैं
जो कुछ कहूँ यक़ीं से कहूँ बर्मला कहूँ

क्या जाने किस सफ़र पे रवाँ हूँ अज़ल से मैं,
हर इंतिहा को एक नयी इब्तिदा कहूँ

हो क्यूँ न मुझ को अपने मज़ाक़-ए-सुख़न पे नाज़,
ग़ालिब को कायनात-ए-सुख़न का ख़ुदा कहूँ

6. अब तो शहरों से ख़बर आती है दीवानों की

अब तो शहरों से ख़बर आती है दीवानों की
कोई पहचान ही बाक़ी नहीं वीरानों की

अपनी पोशाक से हुश्यार कि ख़ुद्दाम-ए-क़दीम
धज्जियाँ माँगते हैं अपने गरेबानों की

सनअतें फैलती जाती हैं मगर इस के साथ
सरहदें टूटती जाती हैं गुलिस्तानों की

दिल में वो ज़ख़्म खिले हैं कि चमन क्या शय है
घर में बारात सी उतरी हुई गुल-दानों की

उन को क्या फ़िक्र कि मैं पार लगा या डूबा
बहस करते रहे साहिल पे जो तूफ़ानों की

तेरी रहमत तो मुसल्लम है मगर ये तो बता
कौन बिजली को ख़बर देता है काशानों की

मक़बरे बनते हैं ज़िंदों के मकानों से बुलंद
किस क़दर औज पे तकरीम है इंसानों की

एक इक याद के हाथों पे चराग़ों भरे तश्त
काबा-ए-दिल की फ़ज़ा है कि सनम-ख़ानों की

7. इक मोहब्बत के एवज़ अर्ज़-ओ-समा दे दूँगा

इक मोहब्बत के एवज़ अर्ज़-ओ-समा दे दूँगा
तुझ से काफ़िर को तो मैं अपना ख़ुदा दे दूँगा

जुस्तुजू भी मिरा फ़न है मिरे बिछड़े हुए दोस्त
जो भी दर बंद मिला उस पे सदा दे दूँगा

एक पल भी तिरे पहलू में जो मिल जाए तो मैं
अपने अश्कों से उसे आब-ए-बक़ा दे दूँगा

रुख़ बदल दूँगा सबा का तिरे कूचे की तरफ़
और तूफ़ान को अपना ही पता दे दूँगा

जब भी आएँ मिरे हाथों में रुतों की बागें
बर्फ़ को धूप तो सहरा को घटा दे दूँगा

तू करम कर नहीं सकता तो सितम तोड़ के देख
मैं तिरे ज़ुल्म को भी हुस्न-ए-अदा दे दूँगा

ख़त्म गर हो न सकी उज़्र-तराशी तेरी
इक सदी तक तुझे जीने की दुआ दे दूँगा

8. इक सहमी सहमी सी आहट है, इक महका महका साया है

इक सहमी सहमी सी आहट है, इक महका महका साया है
एहसास की इस तन्हाई में यह रात गए कौन आया है

ए शाम आलम कुछ तू ही बता, यह ढंग तुझे क्यों भाया है
वोह मेरी खोज में निकला था और तुझ को ढूँढ के आया है

मैं फूल समझ के चुन लूंगा इस भीगे से अंगारों को
आँखों की इबादत का मैं ने बस एक ये ही फल पाया है

कुछ रोज़ से बरपा चार तरफ हैं शादी-ओ-ग़म के हंगामे
सुनते हैं चमन को माली ने फूलों का कफ़न पहनाया है

9. इंक़लाब अपना काम करके रहा

इंक़लाब अपना काम करके रहा
बादलों में भी चांद उभर के रहा

है तिरी जुस्तजू गवाह, कि तू
उम्र-भर सामने नज़र के रहा

रात भारी सही कटेगी जरूर
दिन कड़ा था मगर गुज़र के रहा

गुल खिले आहनी हिसारों के
ये त' आत्तर मगर बिखर के रहा

अर्श की ख़िलवतों से घबरा कर
आदमी फ़र्श पर उतर के रहा

हम छुपाते फिरे दिलों में चमन
वक़्त फूलों में पाँव धर के रहा

मोतियों से कि रेगे-साहिल से
अपना दामन 'नदीम' भर के रहा

(जुस्तजू=तलाश; आहनी हिसारों के=लौह दुर्गों के;
आत्तर=इत्र,ख़ुश्बू; अर्श की खिल्वतों= सबसे ऊँची
कुरसी द्वारा दी गई नियामत; रेगे-साहिल=तट
की रेत)

10. एजाज़ है ये तेरी परेशाँ-नज़री का

एजाज़ है ये तेरी परेशाँ-नज़री का
इल्ज़ाम न धर इश्क़ पे शोरीदा-सरी का

इस वक़्त मिरे कल्बा-ए-ग़म में तिरा आना
भटका हुआ झोंका है नसीम-ए-सहरी का

तुझ से तिरे कूचे का पता पूछ रहा हूँ
इस वक़्त ये आलम है मिरी बे-ख़बरी का

ये फ़र्श तिरे रक़्स से जो गूँज रहा है
है अर्श-ए-मोअल्ला मिरी आली-नज़री का

कोहरे में तड़पते हुए ऐ सुब्ह के तारे
एहसान है शाइर पे तिरी चारागरी का
उम्र भर उस ने इसी तरह लुभाया है मुझे वो जो इस दश्त के उस पार से लाया है मुझे कितने आईनों में इक अक्स दिखाया है मुझे ज़िंदगी ने जो अकेला कभी पाया है मुझे तू मिरा कुफ़्र भी है तू मिरा ईमान भी है तू ने लूटा है मुझे तू ने बसाया है मुझे मैं तुझे याद भी करता हूँ तो जल उठता हूँ तू ने किस दर्द के सहरा में गँवाया है मुझे तू वो मोती कि समुंदर में भी शो'ला-ज़न था मैं वो आँसू कि सर-ए-ख़ाक गिराया है मुझे इतनी ख़ामोश है शब लोग डरे जाते हैं और मैं सोचता हूँ किस ने बुलाया है मुझे मेरी पहचान तो मुश्किल थी मगर यारों ने ज़ख़्म अपने जो कुरेदे हैं तो पाया है मुझे वाइज़-ए-शहर के नारों से तो क्या खुलती आँख ख़ुद मिरे ख़्वाब की हैबत ने जगाया है मुझे ऐ ख़ुदा अब तिरे फ़िरदौस पे मेरा हक़ है तू ने इस दौर के दोज़ख़ में जलाया है मुझे

11. एहसास में फूल खिल रहे हैं

एहसास में फूल खिल रहे हैं
पतझड़ के अजीब सिलसिले हैं

कुछ इतनी शदीद तीरगी है
आँखों में सितारे तैरते हैं

देखें तो हवा जमी हुई है
सोचें तो दरख़्त झूमते हैं

सुक़रात ने ज़हर पी लिया था
हम ने जीने के दुख सहे हैं

हम तुझ से बिगड़ के जब भी उठे
फिर तेरे हुज़ूर आ गए हैं

हम अक्स हैं एक दूसरे का
चेहरे ये नहीं हैं आइने हैं

लम्हों का ग़ुबार छा रहा है
यादों के चराग़ जल रहे हैं

सूरज ने घने सनोबरों में
जाले से शुआ'ओं के बुने हैं

यकसाँ हैं फ़िराक़-ओ-वस्ल दोनों
ये मरहले एक से कड़े हैं

पा कर भी तो नींद उड़ गई थी
खो कर भी तो रत-जगे मिले हैं

जो दिन तिरी याद में कटे थे
माज़ी के खंडर बने खड़े हैं

जब तेरा जमाल ढूँडते थे
अब तेरा ख़याल ढूँडते हैं

हम दिल के गुदाज़ से हैं मजबूर
जब ख़ुश भी हुए तो रोए हैं

हम ज़िंदा हैं ऐ फ़िराक़ की रात
प्यारी तिरे बाल क्यूँ खुले हैं

12. क़लम दिल में डुबोया जा रहा है

क़लम दिल में डुबोया जा रहा है
नया मंशूर लिक्खा जा रहा है

मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ
मिरे हमराह दरिया जा रहा है

सलामी को झुके जाते हैं अश्जार
हवा का एक झोंका जा रहा है

मुसाफ़िर ही मुसाफ़िर हर तरफ़ हैं
मगर हर शख़्स तन्हा जा रहा है

मैं इक इंसाँ हूँ या सारा जहाँ हूँ
बगूला है कि सहरा जा रहा है

'नदीम' अब आमद आमद है सहर की
सितारों को बुझाया जा रहा है

13. क्या भरोसा हो किसी हमदम का

क्या भरोसा हो किसी हमदम का
चांद उभरा तो अंधेरा चमका

सुबह को राह दिखाने के लिए
दस्ते-गुल में है दीया शबनम का

मुझ को अबरू, तुझे मेहराब पसन्द
सारा झगड़ा इसी नाजुक ख़म का

हुस्न की जुस्तजू-ए-पैहम में
एक लम्हा भी नहीं मातम का

मुझ से मर कर भी न तोड़ा जाए
हाय ये नशा ज़मीं के नम का

(दस्ते-गुल=फूल के हाथ; अबरू= भौंह;
ख़म=टेढ़ापन; जुस्तजू-ए-पैहम=ख़ूबसूरती
की लगातार चलने वाली चर्चा)

14. क्या भला मुझ को परखने का नतीजा निकला

क्या भला मुझ को परखने का नतीजा निकला
ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला

तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला

जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने
बू उड़ी धूप से, तसवीर से साया निकला

तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठों पर
डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला

(तिश्नगी: प्यास)

15. किस को क़ातिल मैं कहूं किस को मसीहा समझूं

किस को क़ातिल मैं कहूं किस को मसीहा समझूं
सब यहां दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूं

वो भी क्या दिन थे की हर वहम यकीं होता था
अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूं

दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे
ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूं

ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी
लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूं

16. कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा

कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूं, समन्दर में उतर जाऊँगा

तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा, सहरा में बिखर जाऊँगा

तेरे पहलू से जो उठूँगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा, जिधर जाऊँगा

अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा

तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना
वरना सोचा था कि जब चाहूँगा, मर जाऊँगा

चारासाज़ों से अलग है मेरा मेआ'र कि मैं
ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और संवर जाऊँगा

अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं
अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-ब-सहर जाऊँगा

ज़िन्दगी शम्अ' की मानिंद जलाता हूँ 'नदीम'
बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा

17. खड़ा था कब से ज़मीं पीठ पर उठाए हुए

खड़ा था कब से ज़मीं पीठ पर उठाए हुए
आब आदमी है क़यामत से लौ लगाए हुए

ये दश्त से उमड आया है किस का सैल-ए-जुनूँ
कि हुस्न-ए-शहर खड़ा है नक़ाब उठाए हुए

ये भेद तेरे सिवा ऐ ख़ुदा किसे मालूम
अज़ाब टूट पड़े मुझ पे किस के लाए हुए

ये सैल-ए-आब न था ज़लज़ला था पानी का
बिखर बिखर गए क़र्ये मिरे बसाए हुए

अजब तज़ाद में काटा है ज़िंदगी का सफ़र
लबों पे प्यास थी बादल थे सर पे छाए हुए

सहर हुई तो कोई अपने घर में रुक न सका
किसी को याद न आए दिए जलाए हुए

ख़ुदा की शान कि मुंकिर हैं आदमिय्यत के
ख़ुद अपनी सुकड़ी हुई ज़ात के सताए हुए

जो आस्तीन चढ़ाएँ भी मुस्कुराएँ भी
वो लोग हैं मिरे बरसों के आज़माए हुए

ये इंक़िलाब तो ता'मीर के मिज़ाज में है
गिराए जाते हैं ऐवाँ बने-बनाए हुए

ये और बात मिरे बस में थी न गूँज इस की
मुझे तो मुद्दतें गुज़रीं ये गीत गाए हुए

मिरी ही गोद में क्यूँ कट के गिर पड़े हैं 'नदीम'
अभी दुआ के लिए थे जो हाथ उठाए हुए

18. ख़ुदा नहीं, न सही, ना-ख़ुदा नहीं, न सही

ख़ुदा नहीं, न सही, ना-ख़ुदा नहीं, न सही
तेरे बगै़र कोई आसरा नहीं, न सही

तेरी तलब का तक़ाज़ा है ज़िन्दगी मेरी
तेरे मुक़ाम का कोई पता नहीं, न सही

तुझे सुनाई तो दी, ये गुरूर क्या कम है
अगर क़बूल मेरी इल्तिजा नहीं, न सही

तेरी निगाह में हूँ, तेरी बारगाह में हूँ
अगर मुझे कोई पहचानता नहीं, न सही

नहीं हैं सर्द अभी हौसले उड़ानों के
वो मेरी जात से भी मावरा नहीं, न सही

(ना-ख़ुदा=नाविक अथवा कर्णधार; तलब का
तक़ाज़ा=चाह की ज़रूरत; इल्तिजा=प्रार्थना;
बारगाह=कचहरी; मावरा=परे)

19. गुल तेरा रंग चुरा लाए हैं गुलज़ारों में

गुल तेरा रंग चुरा लाए हैं गुलज़ारों में
जल रहा हूँ भरी बरसात की बौछारों में

मुझसे कतरा के निकल जा, मगर ऐ जान-ए-हया
दिल की लौ देख रहा हूं तेरे रुख़सारों में

हुस्न-ए-बेगाना-ए-एहसास-जमाल अच्छा है
ग़ुन्चे खिलते हैं तो बिक जाते हैं बाज़ारों में

जि़क्र करते हैं तेरा मुझसे बाउनवान-ए-जफ़ा
चारागर फूल पिरो लाए हैं तलवारों में

ज़ख्म छुप सकते हैं लकिन मुझे फ़न ही सौगंध
ग़म की दौलत भी है शामिल मेरे शहकारों में

मुझको नफ़रत से नहीं प्यार से मसलूब करो
मैं तो शामिल हूं मोहब्बत के गुनाहवरों

20. गो मेरे दिल के ज़ख़्म ज़ाती हैं

गो मेरे दिल के ज़ख़्म ज़ाती हैं
उनकी टीसें तो कायनाती हैं

आदमी शशजिहात का दूल्हा
वक़्त की गर्दिशें बराती हैं

फ़ैसले कर रहे हैं अर्शनशीं
आफ़तें आदमी पर आती हैं

कलियाँ किस दौर के तसव्वुर में
ख़ून होते ही मुस्कुराती हैं

तेरे वादे हों जिनके शामिल-ए=हाल
वो उमंगें कहाँ समाती हैं

(ज़ाती=निजी; कायनाती=सांसारिक;
शशजिहात=छह दिशाओं का; अर्शनशीं=
कुरसी पर बैठे हुए व्यक्ति)

21. जब तिरा हुक्म मिला तर्क मोहब्बत कर दी

जब तिरा हुक्म मिला तर्क मोहब्बत कर दी
दिल मगर इस पे वो धड़का कि क़यामत कर दी

तुझ से किस तरह मैं इज़्हार-ए-तमन्ना करता
लफ़्ज़ सूझा तो मआ'नी ने बग़ावत कर दी

मैं तो समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले
तू ने जा कर तो जुदाई मिरी क़िस्मत कर दी

तुझ को पूजा है कि असनाम-परस्ती की है
मैं ने वहदत के मफ़ाहीम की कसरत कर दी

मुझ को दुश्मन के इरादों पे भी प्यार आता है
तिरी उल्फ़त ने मोहब्बत मिरी आदत कर दी

पूछ बैठा हूँ मैं तुझ से तिरे कूचे का पता
तेरे हालात ने कैसी तिरी सूरत कर दी

क्या तिरा जिस्म तिरे हुस्न की हिद्दत में जला
राख किस ने तिरी सोने की सी रंगत कर दी

22. जब भी आँखों में तिरी रुख़्सत का मंज़र आ गया

जब भी आँखों में तिरी रुख़्सत का मंज़र आ गया
आफ़्ताब-ए-वक़्त नेज़े के बराबर आ गया

दोस्ती की जब दुहाई दी तो शर्क़-ओ-ग़र्ब से
हाथ में पत्थर लिए यारों का लश्कर आ गया

इस सफ़र में गो तमाज़त तो बहुत थी हिज्र की
मैं तिरी यादों की छाँव सर पे ले कर आ गया

गो ज़मीन-ओ-आसमाँ मसरूफ़-ए-गर्दिश हैं मगर
जब भी गर्दिश का सबब सोचा तो चक्कर आ गया

आदमी को हश्र के मंज़र नज़र आने लगे
उस के क़ब्ज़े में जब इक ज़र्रे का जौहर आ गया

हुस्न-ए-इंसाँ दफ़्न हो जाने से मिटता है कहाँ
फूल बन कर ख़ाक के पर्दे से बाहर आ गया

अश्क जब टपके किसी बेकस की आँखों से 'नदीम'
यूँ लगा तूफ़ान की ज़द में समुंदर आ गया

23. जाने कहाँ थे और चले थे कहाँ से हम

जाने कहाँ थे और चले थे कहाँ से हम
बेदार हो गए किसी ख़्वाब-ए-गिराँ से हम

ऐ नौ-बहार-ए-नाज़ तिरी निकहतों की ख़ैर
दामन झटक के निकले तिरे गुल्सिताँ से हम

पिंदार-ए-आशिक़ी की अमानत है आह-ए-सर्द
ये तीर आज छोड़ रहे हैं कमाँ से हम

आओ ग़ुबार-ए-राह में ढूँडें शमीम-ए-नाज़
आओ ख़बर बहार की पूछें ख़िज़ाँ से हम

आख़िर दुआ करें भी तो किस मुद्दआ' के साथ
कैसे ज़मीं की बात कहें आसमाँ से हम

24. जी चाहता है फ़लक पे जाऊँ

जी चाहता है फ़लक पे जाऊँ
सूरज को ग़ुरूब से बचाऊँ

बस मेरा चले जो गर्दिशों पर
दिन को भी न चाँद को बुझाऊँ

मैं छोड़ के सीधे रास्तों को
भटकी हुई नेकियाँ कमाऊँ

इम्कान पे इस क़दर यक़ीं है
सहराओं में बीज डाल आऊँ

मैं शब के मुसाफ़िरों की ख़ातिर
मिशअल न मिले तो घर जलाऊँ

अशआ'र हैं मेरे इस्तिआरे
आओ तुम्हें आइने दिखाऊँ

यूँ बट के बिखर के रह गया हूँ
हर शख़्स में अपना अक्स पाऊँ

आवाज़ जो दूँ किसी के दर पर
अंदर से भी ख़ुद निकल के आऊँ

ऐ चारागरान-ए-अस्र-ए-हाज़िर
फ़ौलाद का दिल कहाँ से लाऊँ

हर रात दुआ करूँ सहर की
हर सुब्ह नया फ़रेब खाऊँ

हर जब्र पे सब्र कर रहा हूँ
इस तरह कहीं उजड़ न जाऊँ

रोना भी तो तर्ज़-ए-गुफ़्तुगू है
आँखें जो रुकें तो लब हिलाऊँ

ख़ुद को तो 'नदीम' आज़माया
अब मर के ख़ुदा को आज़माऊँ

25. ज़ीस्त आज़ार हुई जाती है

ज़ीस्त आज़ार हुई जाती है ।
साँस तलवार हुई जाती है

जिस्म बेकार हुआ जाता है,
रूह बेदार हुई जाती है

कान से दिल में उतरती नहीं बात,
और गुफ़्तार हुई जाती है

ढल के निकली है हक़ीक़त जब से,
कुछ पुर-असरार हुई जाती है

अब तो हर ज़ख़्म की मुँहबन्द कली,
लब-ए-इज़हार हुई जाती है

फूल ही फूल हैं हर सिम्त 'नदीम',
राह दुश्वार हुई जाती है

26. जेहनों में ख़याल जल रहे हैं

जेहनों में ख़याल जल रहे हैं
सोचों के अलाव-से लगे हैं

दुनिया की गिरिफ्त में हैं साये,
हम अपना वुजूद ढूंढते हैं

अब भूख से कोई क्या मरेगा,
मंडी में ज़मीर बिक रहे हैं

माज़ी में तो सिर्फ़ दिल दुखते थे,
इस दौर में ज़ेहन भी दुखे हैं

सिर काटते थे कभी शहनशाह,
अब लोग ज़ुबान काटते हैं

हम कैसे छुड़ाएं शब से दामन,
दिन निकला तो साए चल पड़े हैं

लाशों के हुजूम में भी हंस दें,
अब ऐसे भी हौसले किसे हैं

27. जो लोग दुश्मन-ए-जाँ थे वही सहारे थे

जो लोग दुश्मन-ए-जाँ थे वही सहारे थे
मुनाफ़े थे मोहब्बत में ने ख़सारे थे

हुज़ूर-ए-शाह बस इतना ही अर्ज़ करना है
जो इख़्तियार तुम्हारे थे हक़ हमारे थे

ये और बात बहारें गुरेज़-पा निकलीं
गुलों के हम ने तो सदक़े बहुत उतारे थे

ख़ुदा करे कि तिरी उम्र में गिने जाएँ
वो दिन जो हम ने तिरे हिज्र में गुज़ारे थे

अब इज़्न हो तो तिरी ज़ुल्फ़ में पिरो दें फूल
कि आसमाँ के सितारे तो इस्तिआरे थे

क़रीब आए तो हर गुल था ख़ाना-ए-ज़ंबूर
'नदीम' दूर के मंज़र तो प्यारे प्यारे थे

28. तंग आ जाते हैं दरिया जो कुहिस्तानों में

तंग आ जाते हैं दरिया जो कुहिस्तानों में
साँस लेने को निकल जाते हैं मैदानों में

ख़ैर हो दश्त-ए-नवर्दान-ए-मोहब्बत की अब
शहर बस्ते चले जाते हैं बयाबानों में

अब तो ले लेता है बातिन से यही काम जुनूँ
नज़र आते नहीं अब चाक गरेबानों में

माल चोरी का जो तक़्सीम किया चोरों ने
निस्फ़ तो बट गया बस्ती के निगहबानों में

कौन तारीख़ के इस सिद्क़ को झुटलाएगा
ख़ैर-ओ-शर दोनों मुक़य्यद रहे ज़िंदानों में

जुस्तुजू का कोई अंजाम तो ज़ाहिर हो 'नदीम'
इक मुसलमाँ तो नज़र आए मुसलमानों में

29. तुझे इज़हार-ए-मुहब्बत से अगर नफ़रत है

तुझे इज़हार-ए-मुहब्बत से अगर नफ़रत है
तूने होठों के लरज़ने को तो रोका होता

बे-नियाज़ी से, मगर कांपती आवाज़ के साथ
तूने घबरा के मिरा नाम न पूछा होता

तेरे बस में थी अगर मशाल-ए-जज़्बात की लौ
तेरे रुख्सार में गुलज़ार न भड़का होता

यूं तो मुझसे हुई सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातें
अपने टूटे हुए फ़िरक़ों को तो परखा होता

यूं ही बेवजह ठिठकने की ज़रूरत क्या थी
दम-ए-रुख्सत में अगर याद न आया होता

30. तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ

तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ
हुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं

तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था
मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ

सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें
मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ

मेरे वीराना-ए-जाँ में तिरी यादों के तुफ़ैल
फूल खिलते नज़र आते हैं जहाँ तक देखूँ

वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल
यूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँ

दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ

इक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद
हुस्न-ए-इंसाँ से निमट लूँ तो वहाँ तक देखूँ
दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ

(हुस्न-ए-यज़्दां=भगवान की सुन्दरता,
हुस्न-ए-बुतां=बुत/मूर्ति की सुन्दरता,
खद्द-ओ-खाल=यादें/सूरत, फ़क़त=सिर्फ़)

31. तू जो बदला तो ज़माना भी बदल जाएगा

तू जो बदला तो ज़माना भी बदल जाएगा
घर जो सुलगा तो भरा शहर भी जल जाएगा

सामने आ कि मिरा इश्क़ है मंतिक़ में असीर
आग भड़की तो ये पत्थर भी पिघल जाएगा

दिल को मैं मुंतज़िर-ए-अब्र-ए-करम क्यूँ रक्खूँ
फूल है क़तरा-ए-शबनम से बहल जाएगा

मौसम-ए-गुल अगर इस हाल में आया भी तो क्या
ख़ून-ए-गुल चेहरा-ए-गुलज़ार पे मल जाएगा

वक़्त के पाँव की ज़ंजीर है रफ़्तार-ए-'नदीम'
हम जो ठहरे तो उफ़ुक़ दूर निकल जाएगा

32. तू बिगड़ता भी है ख़ास अपने ही अंदाज़ के साथ

तू बिगड़ता भी है ख़ास अपने ही अंदाज़ के साथ
फूल खिलते हैं तिरे शोला-ए-आवाज़ के साथ

एक बार और भी क्यूँ अर्ज़-ए-तमन्ना न करूँ
कि तू इंकार भी करता है अजब नाज़ के साथ

लय जो टूटी तो सदा आई शिकस्त-ए-दिल की
रग-ए-जाँ का कोई रिश्ता है रग-ए-साज़ के साथ

तू पुकारे तो चमक उठती हैं मेरी आँखें
तेरी सूरत भी है शामिल तिरी आवाज़ के साथ

जब तक अर्ज़ां है ज़माने में कबूतर का लहू
ज़ुल्म है रब्त रखूँ गर किसी शहबाज़ के साथ

पस्त इतनी तो न थी मेरी शिकस्त ऐ यारो
पर समेटे हैं मगर हसरत पर्वाज़ के साथ

पहरे बैठे हैं क़फ़स पर कि है सय्याद को वहम
पर-शिकस्तों को भी इक रब्त है पर्वाज़ के साथ

उम्र भर संग-ज़नी करते रहे अहल-ए-वतन
ये अलग बात कि दफ़नाएँगे ए'ज़ाज़ के साथ

33. तेरी महफ़िल भी मुदावा नहीं तन्हाई का

तेरी महफ़िल भी मुदावा नहीं तन्हाई का
कितना चर्चा था तिरी अंजुमन-आराई का

दाग़-ए-दिल नक़्श है इक लाला-ए-सहराई का
ये असासा है मिरी बादिया-पैमाई का

जब भी देखा है तुझे आलम-ए-नौ देखा है
मरहला तय न हुआ तेरी शनासाई का

वो तिरे जिस्म की क़ौसें हों कि मेहराब-ए-हरम
हर हक़ीक़त में मिला ख़म तिरी अंगड़ाई का

उफ़ुक़-ए-ज़ेहन पे चमका तिरा पैमान-ए-विसाल
चाँद निकला है मिरे आलम-ए-तन्हाई का

भरी दुनिया में फ़क़त मुझ से निगाहें न चुरा
इश्क़ पर बस न चलेगा तिरी दानाई का

हर नई बज़्म तिरी याद का माहौल बनी
मैं ने ये रंग भी देखा तिरी यकताई का

नाला आता है जो लब पर तो ग़ज़ल बनता है
मेरे फ़न पर भी है परतव तिरी रानाई का

34. दावा तो किया हुस्न-ए-जहाँ-सोज़ का सब ने

दावा तो किया हुस्न-ए-जहाँ-सोज़ का सब ने
दुनिया का मगर रूप बढ़ाया तिरी छब ने

तू नींद में भी मेरी तरफ़ देख रहा था
सोने न दिया मुझ को सियह-चश्मी-ए-शब ने

हर ज़ख़्म पे देखी हैं तिरे प्यार की मोहरें
ये गुल भी खिलाए हैं तेरी सुर्ख़ी-ए-लब ने

ख़ुशबू-ए-बदन आई है फिर मौज-ए-सबा से
फिर किस को पुकारा है तिरे शहर तरब ने

दरकार है मुझ को तो फ़क़त इज़्न-ए-तबस्सुम
पत्थर से अगर फूल उगाए मिरे रब ने

वो हुस्न है इंसान की मेराज-ए-तसव्वुर
जिस हुस्न को पूजा है मिरे शेर ओ अदब ने

35. दिल में हम एक ही जज्बे को समोएँ कैसे

दिल में हम एक ही जज्बे को समोएँ कैसे
अब तुझे पा के यह उलझन है के खोये कैसे

ज़हन छलनी जो किया है, तो यह मजबूरी है
जितने कांटे हैं, वोह तलवों में पिरोयें कैसे

हम ने माना के बहुत देर है हश्र आने तक,
चार जानिब तेरी आहट हो तो सोयें कैसे

कितनी हसरत थी, तुझे पास बिठा कर रोते
अब यह-यह मुश्किल है, तेरे सामने रोयें कैसे

36. दिलों से आरज़ू-ए-उम्र-ए-जावेदाँ न गई

दिलों से आरज़ू-ए-उम्र-ए-जावेदाँ न गई
कोई निगाह पस-ए-गर्द-ए-कारवाँ न गई

वो और चीज़ है होते हैं जिस से दिल शादाब
तिरी बहार से वीरानी-ए-ख़िज़ाँ न गई

निकल के ख़ुल्द से भी आदमी न पछताया
ज़मीं पे भी चमन-आराई-ए-गुमाँ न गई

बस एक कुंज-ए-क़फ़स तक न आ सकी वर्ना
सबा चली तो चमन में कहाँ कहाँ न गई

कहाँ कहाँ न हुईं सब्त हुस्न की मोहरें
कली हवा में बिखर कर भी राएगाँ न गई

मिरी दुआ की ये ग़ैरत है कितनी क़ाबिल-ए-दाद
कि लब तक आई मगर सू-ए-आसमाँ न गई

दयार-ए-इश्क़ खंडर और दश्त-ए-दिल सुनसान
मगर 'नदीम' की रंगीनी-ए-बयाँ न गई

37. न वो सिन है फ़ुर्सत-ए-इश्क़ का

न वो सिन है फ़ुर्सत-ए-इश्क़ का, न वो दिन हैं कशफ़-ए-जमाल के
मगर अब भी दिल को जवाँ रखे, के मुद्दे ख़त-ओ-ख़ाल के

ये तो गर्दाब-ए-हयात है, कोई इसकी जब्त से बचा नही
मगर आज तक तेरी याद को मैं रखूं सम्हाल-सम्हाल के

मैं अमीन-ओ-कद्र शनाज़ था, मुझे साँस-साँस का पाज़ था
ये जबीं पे हैं जो लिखे हुए ये हिसाब हैं माहो साल के

शब-ए-तार न डरा मुझे ए ख़ुदा जमाल दिखा मुझे
कि तेरे सबूत है बेशतर्, तेरी शान है ज़ाह-ओ-ज़लाल के

कोई "कोहकन" हो,कि "कैस" हो, कोई "मीर" हो, कि "नदीम" हो
सभी नाम एक ही शख़्स के, सभी फूल एक ही डाल के

38. फ़ासले के मअ'नी का क्यूँ फ़रेब खाते हो

फ़ासले के मअ'नी का क्यूँ फ़रेब खाते हो
जितने दूर जाते हो उतने पास आते हो

रात टूट पड़ती है जब सुकूत-ए-ज़िंदाँ पर
तुम मिरे ख़यालों में छुप के गुनगुनाते हो

मेरी ख़ल्वत-ए-ग़म के आहनी दरीचों पर
अपनी मुस्कुराहट की मिशअलें जलाते हो

जब तनी सलाख़ों से झाँकती है तन्हाई
दिल की तरह पहलू से लग के बैठ जाते हो

तुम मिरे इरादों के डोलते सितारों को
यास के ख़लाओं में रास्ता दिखाते हो

कितने याद आते हो पूछते हो क्यूँ मुझ से
जितना याद करते हो उतने याद आते हो

39. फिर भयानक तीरगी में आ गए

फिर भयानक तीरगी में आ गए
हम गजर बजने से धोका खा गए

हाए ख़्वाबों की ख़याबाँ-साज़ियाँ
आँख क्या खोली चमन मुरझा गए

कौन थे आख़िर जो मंज़िल के क़रीब
आइने की चादरें फैला गए

किस तजल्ली का दिया हम को फ़रेब
किस धुँदलके में हमें पहुँचा गए

उन का आना हश्र से कुछ कम न था
और जब पलटे क़यामत ढा गए

इक पहेली का हमें दे कर जवाब
इक पहेली बन के हर सू छा गए

फिर वही अख़्तर-शुमारी का निज़ाम
हम तो इस तकरार से उकता गए

रहनुमाओ रात अभी बाक़ी सही
आज सय्यारे अगर टकरा गए

क्या रसा निकली दुआ-ए-इज्तिहाद
वो छुपाते ही रहे हम पा गए

बस वही मेमार-ए-फ़र्दा हैं 'नदीम'
जिन को मेरे वलवले रास आ गए

40. फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ

फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ
आँखों को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूँ

हक़ बात कहूंगा मगर है जुर्रत-ए-इज़हार
जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूँ

हर सोच पे ख़ंजर-सा गुज़र जाता है दिल से
हैराँ हूँ कि सोचूँ तो किस अन्दाज़ में सोचूँ

आँखें तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़-से पैकर
जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूँ

चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें
बाज़ार में या शहरे-ख़मोशाँ में खड़ा हूँ

सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाज़ के पुर्ज़े
यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ

मिलती नहीं जब मौत भी मांगे से, तो या रब
हो इज़्न तो मैं अपना सलीब आप उठा लूँ

(हक़=सच; जुर्रते-इज़हार=स्वीकार करने का साहस;
पैकर=चेहरे; लौहें=कब्र पर लगा पत्थर; शहरे-ख़मोशाँ=
कब्रिस्तान; दश्ते-मुसीबत=मुसीबतों का जंगल;
इज़्न=इजाज़त)

41. बारिश की रुत थी रात थी पहलू-ए-यार था

बारिश की रुत थी रात थी पहलू-ए-यार था
ये भी तिलिस्म-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार था

कहते हैं लोग औज पे था मौसम-ए-बहार
दिल कह रहा है अरबदा-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार था

अब तो विसाल-ए-यार से बेहतर है याद-ए-यार
मैं भी कभी फ़रेब-ए-नज़र का शिकार था

तू मेरी ज़िंदगी से भी कतरा के चल दिया
तुझ को तो मेरी मौत पे भी इख़्तियार था

ओ गाने वाले टूटते तारों के साज़ पर
मैं भी शहीद-ए-तूल-ए-शब-ए-इंतिज़ार था

पलकें उठीं झपक के गिरीं फिर न उठ सकीं
ये ए'तिबार है तो कहाँ ए'तिबार था

यज़्दाँ से भी उलझ ही पड़ा था तिरा 'नदीम'
या'नी अज़ल से दिल में यही ख़लफ़शार था

42. मरूँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ

मरूँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ
नदीम! काश यही एक काम कर जाऊँ

ये दश्त-ए-तर्क-ए-मुहब्बत ये तेरे क़ुर्ब की प्यास,
जो इज़ाँ हो तो तेरी याद से गुज़र जाऊँ

मेरा वजूद मेरी रूह को पुकारता है,
तेरी तरफ़ भी चलूं तो ठहर ठहर जाऊँ

तेरे जमाल का परतो है सब हसीनों पर
कहाँ कहाँ तुझे ढूंढूँ किधर किधर जाऊँ

मैं ज़िन्दा था कि तेरा इन्तज़ार ख़त्म न हो,
जो तू मिला है तो अब सोचता हूँ मर जाऊँ

तिरे सिवा कोई शाइस्ता-वफ़ा भी तो हो
मैं तेरे दर से जो उठूँ तो किस के घर जाऊँ

ये सोचता हूं कि मैं बुत-परस्त क्यूँ न हुआ,
तुझे क़रीब जो पाऊँ तो ख़ुद से डर जाऊँ

किसी चमन में बस इस ख़ौफ़ से गुज़र न हुआ,
किसी कली पे न भूले से पाँव धर जाऊँ

ये जी में आती है, तख़्लीक़-ए-फ़न के लम्हों में,
कि ख़ून बन के रग-ए-संग में उतर जाऊँ

43. मुदावा हब्स का होने लगा आहिस्ता आहिस्ता

मुदावा हब्स का होने लगा आहिस्ता आहिस्ता
चली आती है वो मौज-ए-सबा आहिस्ता आहिस्ता

ज़रा वक़्फ़ा से निकलेगा मगर निकलेगा चाँद आख़िर
कि सूरज भी तो मग़रिब में छुपा आहिस्ता आहिस्ता

कोई सुनता तो इक कोहराम बरपा था हवाओं में
शजर से एक पत्ता जब गिरा आहिस्ता आहिस्ता

अभी से हर्फ़-ए-रुख़्सत क्यूँ जब आधी रात बाक़ी है
गुल ओ शबनम तो होते हैं जुदा आहिस्ता आहिस्ता

मुझे मंज़ूर गर तर्क-ए-तअल्लुक है रज़ा तेरी
मगर टूटेगा रिश्ता दर्द का आहिस्ता आहिस्ता

फिर इस के बाद शब है जिस की हद सुब्ह-ए-अबद तक है
मुग़न्नी शाम का नग़्मा सुना आहिस्ता आहिस्ता

शब-ए-फ़ुर्क़त में जब नज्म-ए-सहर भी डूब जाते हैं
उतरता है मिरे दिल में ख़ुदा आहिस्ता आहिस्ता

मैं शहर-ए-दिल से निकला हूँ सब आवाज़ों को दफ़ना कर
'नदीम' अब कौन देता है सदा आहिस्ता आहिस्ता

44. मैं कब से गोश-बर-आवाज़ हूँ पुकारो भी

मैं कब से गोश-बर-आवाज़ हूँ पुकारो भी
ज़मीं पर यह सितारे कभी उतारो भी

मेरी गय्यूर उमंगो, शबाब फानी है
गुरूर-ए-इश्क़ का देरीना खेल हारो भी

भटक रहा है धुन्धल्कों में कारवान-ए-ख़याल
बस अब खुदा के लिए काकुलें संवारो भी

मेरी तलाश की मेराज हो तुम्हीं लेकिन
नकाब उठाओ, निशान-ए-सफ़र उभारो भी

यह कायनात, अजल से सुपुर्द-ए-इन्सां है
मगर नदीम तुम इस बोझ को सहारो भी

(उम्मीद में=गोश-बर-आवाज़, गय्यूर=गैर,
काकुलें=लटें,ज़ुल्फें, मेराज=ऊँचाई)

45. मैं किसी शख़्स से बेज़ार नहीं हो सकता

मैं किसी शख़्स से बेज़ार नहीं हो सकता
एक ज़र्रा भी तो बे-कार नहीं हो सकता

इस क़दर प्यार है इंसाँ की ख़ताओं से मुझे
कि फ़रिश्ता मिरा मेआ'र नहीं हो सकता

ऐ ख़ुदा फिर ये जहन्नम का तमाशा किया है
तेरा शहकार तो फ़िन्नार नहीं हो सकता

ऐ हक़ीक़त को फ़क़त ख़्वाब समझने वाले
तू कभी साहिब-ए-असरार नहीं हो सकता

तू कि इक मौजा-ए-निकहत से भी चौंक उठता है
हश्र आता है तो बेदार नहीं हो सकता

सर-ए-दीवार ये क्यूँ निर्ख़ की तकरार हुई
घर का आँगन कभी बाज़ार नहीं हो सकता

राख सी मज्लिस-ए-अक़्वाम की चुटकी में है क्या
कुछ भी हो ये मिरा पिंदार नहीं हो सकता

इस हक़ीक़त को समझने में लुटाया क्या कुछ
मेरा दुश्मन मिरा ग़म-ख़्वार नहीं हो सकता

मैं ने भेजा तुझे ऐवान-ए-हुकूमत में मगर
अब तो बरसों तिरा दीदार नहीं हो सकता

तीरगी चाहे सितारों की सिफ़ारिश लाए
रात से मुझ को सरोकार नहीं हो सकता

वो जो शे'रों में है इक शय पस-ए-अल्फ़ाज़ 'नदीम'
उस का अल्फ़ाज़ में इज़हार नहीं हो सकता

46. मैं वो शाएर हूँ जो शाहों का सना-ख़्वाँ न हुआ

मैं वो शाएर हूँ जो शाहों का सना-ख़्वाँ न हुआ
ये है वो जुर्म जो मुझ से किसी उनवाँ न हुआ

इस गुनह पर मिरी इक उम्र अँधेरे में कटी
मुझ से इस मौत के मेले में चराग़ाँ न हुआ

कल जहाँ फूल खिले जश्न है ज़ख़्मों का वहाँ
दिल वो गुलशन है उजड़ कर भी जो वीराँ न हुआ

आँखें कुछ और दिखाती हैं मगर ज़ेहन कुछ और
बाग़ महके मगर एहसास-ए-बहाराँ न हुआ

यूँ तो हर दौर में गिरते रहे इंसान के निर्ख़
इन ग़ुलामों में कोई यूसुफ़-ए-कनआँ न हुआ

मैं ख़ुद आसूदा हूँ कम-कोश हूँ या पथर हूँ
ज़ख़्म खा के भी मुझे दर्द का इरफ़ाँ न हुआ

सारी दुनिया मुतलातिम नज़र आती है 'नदीम'
मुझ पे इक तंज़ हुआ रौज़न-ए-ज़िंदाँ न हुआ

47. मैं हूँ या तू है ख़ुद अपने से गुरेज़ाँ जैसे

मैं हूँ या तू है ख़ुद अपने से गुरेज़ाँ जैसे
मरे आगे कोई साया है ख़िरामाँ जैसे

तुझ से पहले तो बहारों का ये अंदाज़ न था
फूल यूँ खिलते हैं जलता हो गुलिस्ताँ जैसे

यूँ तिरी याद से होता है उजाला दिल में
चाँदनी में चमक उठता है बयाबाँ जैसे

दिल में रौशन हैं अभी तक तिरे वा'दों का चराग़
टूटती रात के तारे हों फ़रोज़ाँ जैसे

तुझे पाने की तमन्ना तुझे खोने का यक़ीं
तेरे गेसू मिरे माहौल में ग़लताँ जैसे

वक़्त बदला प न बदला मिरा मे'आर-ए-वफ़ा
आँधियों में सर-ए-कोहसार चराग़ाँ जैसे

अश्क आँखों में चमकते हैं तबस्सुम बन कर
आ गया हाथ तिरा गोशा-ए-दामाँ जैसे

तुझ से मिल कर भी तमन्ना है कि तुझ से मिलता
प्यार के बा'द भी लब रहते हैं लर्ज़ां जैसे

भरी दुनिया में नज़र आता हूँ तन्हा तन्हा
मर्ग़-ज़ारों में कोई क़र्या-ए-वीराँ जैसे

ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-दौराँ की तरफ़ यूँ आया
जानिब-ए-शहर चले दुख़्तर-ए-दहक़ाँ जैसे

अस्र-ए-हाज़िर को सुनाता हूँ इस अंदाज़ में शे'र
मौसम-ए-गुल हो मज़ारों पे गुल-अफ़शाँ जैसे

ज़ख़्म भरता है ज़माना मगर इस तरह 'नदीम'
सी रहा हो कोई फूलों के गरेबाँ जैसे

48. यूँ तो पहने हुए पैराहन-ए-ख़ार आता हूँ

यूँ तो पहने हुए पैराहन-ए-ख़ार आता हूँ
ये भी देखो कि ब-सौदा-ए-बहार आता हूँ

अर्श से जब नहीं उठती मिरी फ़रियाद की गूँज
मैं तुझे दिल के ख़राबे में पुकार आता हूँ

मुझे आता ही नहीं बस में किसी के आना
आऊँ भी तो ब-कफ़-ए-आबला-दार आता हूँ

तू यहाँ ज़ेर-ए-उफ़ुक़ चंद घड़ी सुस्ता ले
मैं ज़रा दिन से निमट कर शब-ए-तार! आता हूँ

तुझ से छुट कर भी तिरी सुर्ख़ी-ए-आरिज़ की क़सम
चुपके चुपके तिरे दिल में कई बार आता हूँ

ये अलग बात कि फूलों पे हो ज़ख़्मों का गुमाँ
मैं तो जब आता हूँ हमरंग-ए-बहार आता हूँ

दश्त-ए-हर-फ़िक्र से मैं अस्र-ए-रवाँ का इंसाँ
हो के ख़ुद अपनी ज़ेहानत का शिकार आता हूँ

इन्ही दो बातों में कट जाती है सब उम्र 'नदीम'
ऐ ग़म-ए-दहर न छेड़ ऐ ग़म-ए-यार आता हूँ

49. यूँ बे-कार न बैठो दिन भर यूँ पैहम आँसू न बहाओ

यूँ बे-कार न बैठो दिन भर यूँ पैहम आँसू न बहाओ
इतना याद करो कि बिल-आख़िर आसानी से भूल भी जाओ

सारे राज़ समझो लो लेकिन ख़ुद क्यूँ उन को लब पर लाओ
धोका देने वाला रो दे ऐसी शान से धोका खाओ

ज़ुल्मत से मानूस हैं आँखें चाँद उभरा तो मुँद जाएँगी
बालों को उलझा रहने दो इक उलझाव सौ सुलझाओ

कल को कल पर रक्खो जब कल आएगा देखा जाएगा
आज की रात बहुत भारी है आज की रात यहीं रह जाओ

कब तक यूँ पर्दे में हुस्न मोहब्बत को ठुकराता
मौत का दिन भी हश्र का दिन है छुपने वालो सामने आओ

50. लब-ए-ख़ामोश से इफ़्शा होगा

लब-ए-ख़ामोश से इफ़्शा होगा
राज़ हर रंग में रुस्वा होगा

दिल के सहरा में चली सर्द हवा
अबर् गुलज़ार पर बरसा होगा

तुम नहीं थे तो सर-ए-बाम-ए-ख़याल
याद का कोई सितारा होगा

किस तवक्क़ो पे किसी को देखें
कोई तुम से भी हसीं क्या होगा

ज़ीनत-ए-हल्क़ा-ए-आग़ोश बनो
दूर बैठोगे तो चर्चा होगा

ज़ुल्मत-ए-शब में भी शर्माते हो
दर्द चमकेगा तो फिर क्या होगा

जिस भी फ़नकार का शाहकार हो तुम
उस ने सदियों तुम्हें सोचा होगा

किस क़दर कबर् से चटकी है कली
शाख़ से गुल कोई टूटा होगा

उम्र भर रोए फ़क़त इस धुन में
रात भीगी तो उजाला होगा

सारी दुनिया हमें पहचानती है
कोई हम-स भी न तन्हा होगा

51. लबों पे नर्म तबस्सुम रचा कि धुल जाएँ

लबों पे नर्म तबस्सुम रचा कि धुल जाएँ
ख़ुदा करे मेरे आंसू किसी के काम आएँ

जो इब्तदा-ए-सफ़र में दिए बुझा बैठे
वो बदनसीब किसी का सुराग़ क्या पाएँ

तलाश-ए-हुस्न कहाँ ले चली ख़ुदा जाने
उमंग थी कि फ़क़त जि़न्दगी को अपनाएँ

बुला रहे है उफ़क़ पर जो ज़र्द-रू टीले
कहो तो हम भी फ़साने के राज़ हो जाएँ

न कर ख़ुदा के लिए बार-बार जि़क्र-ए-बहिश्त
हम आस्माँ का मुकरर्र फ़रेब क्यों खाएँ

तमाम मयकदा सुनसान मयगुसार उदास
लबों को खोल कर कुछ सोचती हैं मीनाएँ

52. वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे

वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे,
शजर से टूट के जो फ़स्ल-ए-गुल पे रोए थे

अभी अभी तुम्हें सोचा तो कुछ न याद आया,
अभी अभी तो हम एक दूसरे से बिछड़े थे

तुम्हारे बाद चमन पर जब इक नज़र डाली,
कली कली में ख़िज़ां के चिराग़ जलते थे

तमाम उम्र वफ़ा के गुनाहगार रहे,
ये और बात कि हम आदमी तो अच्छे थे

शब-ए-ख़ामोश को तन्हाई ने ज़बाँ दे दी,
पहाड़ गूँजते थे दश्त सन-सनाते थे

वो एक बार मरे जिनको था हयात से प्यार,
जो जि़न्दगी से गुरेज़ाँ थे रोज़ मरते थे

नए ख़याल अब आते है ढल के ज़ेहन में,
हमारे दिल में कभी खेत लह-लहाते थे

ये इर्तिक़ा का चलन है कि हर ज़माने में,
पुराने लोग नए आदमी से डरते थे

'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी,
कि एक चेहरे के पीछे हज़ार चेहरे थे

53. शाम को सुबह-ए-चमन याद आई

शाम को सुबह-ए-चमन याद आई,
किसकी ख़ुश्बू-ए-बदन याद आई

जब ख़यालों में कोई मोड़ आया,
तेरे गेसू की शिकन याद आई

याद आए तेरे पैकर के ख़ुतूत,
अपनी कोताही-ए-फ़न याद आई

चांद जब दूर उफ़क़ पर डूबा,
तेरे लहजे की थकन याद आई

दिन शुआओं से उलझते गुज़रा,
रात आई तो किरन याद आई

54. शुऊर में कभी एहसास में बसाऊँ उसे

शुऊर में कभी एहसास में बसाऊँ उसे
मगर मैं चार तरफ़ बे-हिजाब पाऊँ उसे

अगरचे फ़र्त-ए-हया से नज़र न आऊँ उसे
वो रूठ जाए तो सौ तरह से मनाऊँ उसे

तवील हिज्र का ये जब्र है कि सोचता हूँ
जो दिल में बस्ता है अब हाथ भी लगाऊँ उसे

उसे बुला के मिला उम्र भर का सन्नाटा
मगर ये शौक़ कि इक बार फिर बुलाऊँ उसे

अँधेरी रात में जब रास्ता नहीं मिलता
मैं सोचता हूँ कहाँ जा के ढूँड लाऊँ उसे

अभी तक उस का तसव्वुर तो मेरे बस में है
वो दोस्त है तो ख़ुदा किस लिए बनाऊँ उसे

'नदीम' तर्क-ए-मोहब्बत को एक उम्र हुई
मैं अब भी सोच रहा हूँ कि भूल जाऊँ उसे

55. साँस लेना भी सज़ा लगता है

साँस लेना भी सज़ा लगता है
अब तो मरना भी रवा लगता है

कोहे-ग़म पर से जो देखूँ,तो मुझे
दश्त, आगोशे-फ़ना लगता है

सरे-बाज़ार है यारों की तलाश
जो गुज़रता है ख़फ़ा लगता है

मौसमे-गुल में सरे-शाखे़-गुलाब
शोला भड़के तो वजा लगता है

मुस्कराता है जो उस आलम में
ब-ख़ुदा मुझ को ख़ुदा लगता है

इतना मानूस हूँ सन्नाटे से
कोई बोले तो बुरा लगता है

उनसे मिलकर भी न काफूर हुआ
दर्द ये सबसे जुदा लगता है

नुत्क़ का साथ नहीं देता ज़ेहन
शुक्र करता हूँ गिला लगता है

इस क़दर तुंद है रफ़्तारे-हयात
वक़्त भी रिश्ता बपा लगता है

(रवा=ठीक; कोहे-ग़म=ग़म के पहाड़; दश्त=जंगल;
आगोशे-फ़ना=मौत का आगोश; मौसमे-गुल=बहार
का मौसम; सरे-शाख़े-गुलाब=गुलाब की डाली पर;
ब-ख़ुदा= ख़ुदा के लिए; काफूर=गायब होना; तुंद=प्रचण्ड;
रफ़्तारे-हयात=जीवन की गति; बपा=पर बंधा पंछी जो उड़ न पाए)

56. सूरज को निकलना है सो निकलेगा दोबारा

सूरज को निकलना है सो निकलेगा दोबारा
अब देखिए कब डूबता है सुब्ह का तारा

मग़रिब में जो डूबे उसे मशरिक़ ही निकाले
मैं ख़ूब समझता हूँ मशिय्यत का इशारा

पढ़ता हूँ जब उस को तो सना करता हूँ रब की
इंसान का चेहरा है कि क़ुरआन का पारा

जी हार के तुम पार न कर पाओ नदी भी
वैसे तो समुंदर का भी होता है किनारा

जन्नत मिली झूटों को अगर झूट के बदले
सच्चों को सज़ा में है जहन्नम भी गवारा

ये कौन सा इंसाफ़ है ऐ अर्श-नशीनो
बिजली जो तुम्हारी है तो ख़िर्मन है हमारा

मुस्तक़बिल-ए-इंसान ने एलान किया है
आइंदा से बे-ताज रहेगा सर-ए-दारा

57. हम उन के नक़्श-ए-क़दम ही को जादा करते रहे

हम उन के नक़्श-ए-क़दम ही को जादा करते रहे
जो गुमरही के सफ़र का इआदा करते रहे

कई सवाब तो निस्याँ में हो गए हम से
गुनाह कितने ही हम बे-इरादा करते रहे

न सिर्फ़ अहल-ए-ख़िरद ही का हम पे एहसाँ है
कि अहमक़ों से भी हम इस्तिफ़ादा करते रहे

कुछ इस सलीक़े से गुज़री है ज़िंदगी अपनी
हर एक तीर पे हम दिल कुशादा करते रहे

मिरे गिरोह का रिश्ता है उस क़बीले से
जो ज़िंदगी का सफ़र पा-पियादा करते रहे

हुआ है ऐसा कि फ़ारिग़ इरादतन भी कभी
हम अपनी राह में काँटे ज़ियादा करते रहे

58. हम कभी इश्क़ को वहशत नहीं बनने देते

हम कभी इश्क़ को वहशत नहीं बनने देते
दिल की तहज़ीब को तोहमत नहीं बनने देते

लब ही लब है तो कभी और कभी चश्म ही चश्म
नक़्श तेरे तिरी सूरत नहीं बनने देते

ये सितारे जो चमकते हैं पस-ए-अब्र-ए-सियाह
तेरे ग़म को मिरी आदत नहीं बनने देते

उन की जन्नत भी कोई दश्त-ए-बला ही होगी
ज़िंदा रहने को जो लज़्ज़त नहीं बनने देते

दोस्त जो दर्द बटाते हैं वो नादानी में
दर-हक़ीक़त मिरी सीरत नहीं बनने देते

फ़िक्र फ़न के लिए लाज़िम मगर अच्छे शायर
अपने फ़न को कभी हिकमत नहीं बनने देते

वो मोहब्बत का तअल्लुक़ हो कि नफ़रत का 'नदीम'
राब्ते ज़ीस्त को ख़ल्वत नहीं बनने देते

59. हम दिन के पयामी हैं मगर कुश्ता-ए-शब हैं

हम दिन के पयामी हैं मगर कुश्ता-ए-शब हैं
इस हाल में भी रौनक़-ए-आलम का सबब हैं

ज़ाहिर में हम इंसान हैं मिट्टी के खिलौने
बातिन में मगर तुंद अनासिर का ग़ज़ब हैं

हैं हल्क़ा-ए-ज़ंजीर का हम ख़ंदा-ए-जावेद
ज़िंदाँ में बसाए हुए इक शहर-ए-तरब हैं

चटकी हुई ये हुस्न-ए-गुरेज़ाँ की कली है
या शिद्दत-ए-जज़्बात से खुलते हुए लब हैं

आग़ोश में महकोगे दिखाई नहीं दोगे
तुम निकहत-ए-गुलज़ार हो हम पर्दा-ए-शब हैं

60. हमेशा ज़ुल्म के मंज़र हमें दिखाए गए

हमेशा ज़ुल्म के मंज़र हमें दिखाए गए
पहाड़ तोड़े गए और महल बनाए गए

तुलू-ए-सुब्ह की अफ़्वाह इतनी आम हुई
कि निस्फ़ शब को घरों के दिए बुझाए गए

अब एक बार तो क़ुदरत जवाब-दह ठहरे
हज़ार बार हम इंसान आज़माए गए

फ़लक का तनतना भी टूट कर ज़मीं पे गिरा
सुतून एक घरौंदे के जब गिराए गए

तिरी ख़ुदाई में शामिल अगर नशेब भी हैं
तो फिर कलीम सर-ए-तूर क्यूँ बुलाए गए

ये आसमाँ थे कि आईने थे ख़लाओं में
मह-ओ-नुजूम में झाँका तो हम ही पाए गए

दराज़-ए-शब में कोई अपना हम-सफ़र ही न था
मगर 'नदीम' सदाएँ तो हम लगाए गए

61. हर लम्हा अगर गुरेज़-पा है

हर लम्हा अगर गुरेज़-पा है
तू क्यूँ मिरे दिल में बस गया है

चिलमन में गुलाब सँभल रहा है
ये तू है कि शोख़ी-ए-सबा है

झुकती नज़रें बता रही हैं
मेरे लिए तू भी सोचता है

मैं तेरे कहे से चुप हूँ लेकिन
चुप भी तू बयान-ए-मुद्दआ है

हर देस की अपनी अपनी बोली
सहरा का सुकूत भी सदा है

इक उम्र के बअ'द मुस्कुरा कर
तू ने तो मुझे रुला दिया है

उस वक़्त का हिसाब क्या दूँ
जो तेरे बग़ैर कट गया है

माज़ी की सुनाऊँ क्या कहानी
लम्हा लम्हा गुज़र गया है

मत माँग दुआएँ जब मोहब्बत
तेरा मेरा मुआमला है

अब तुझ से जो रब्त है तो इतना
तेरा ही ख़ुदा मिरा ख़ुदा है

रोने को अब अश्क भी नहीं हैं
या इश्क़ को सब्र आ गया है

अब किस की तलाश में हैं झोंके
मैं ने तो दिया बुझा दिया है

कुछ खेल नहीं है इश्क़ करना
ये ज़िंदगी भर का रत-जगा है

62. हैरतों के सिल-सिले सोज़-ए-निहां तक आ गए

हैरतों के सिल-सिले सोज़-ए-निहां तक आ गए
हम तो दिल तक चाहते थे तुम तो जाँ तक आ गए

ज़ुल्फ़ में ख़ुश्बू न थी या रंग आरिज़ में न था
आप किस की जुस्तजू में गुलिस्तां तक आ गए

ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गिरेबां का शऊर आ जाएगा
तुम वहां तक आ तो जाओ हम जहां तक आ गए

उन की पलकों पे सितारे अपने होंठों पे हंसी
कि़स्सा-ए-ग़म कहते कहते हम यहां तक आ गए

63. होता नहीं ज़ौक़-ए-ज़िंदगी कम

होता नहीं ज़ौक़-ए-ज़िंदगी कम
बुनियाद-ए-हयात है तिरा ग़म

एहसास-ए-जमाल उभर रहा है
जब से तिरा इल्तिफ़ात है कम

तेरे ही ग़मों ने मुझ को बख़्शी
कौंदे की लपक ग़ज़ाल का रम

सामान-ए-सबात हैं सफ़र में
उम्मीद की पेच राह के ख़म

शम्ओं' की लवें हैं या ज़बानें
आँसू हैं कि एहतिजाज-ए-पैहम

अंजुम से खिलाएगी शगूफ़े
शबनम से लदी हुई शब-ए-ग़म

तूफ़ान का मुंतज़िर खड़ा है
ये ऐन सहर को शब का आलम