ग़ज़लें-1 : नज़ीर अकबराबादी

Ghazals in Hindi-1 : Nazeer Akbarabadi

1. अदा-ओ-नाज़ में कुछ कुछ जो होश उस ने सँभाला है

अदा-ओ-नाज़ में कुछ कुछ जो होश उस ने सँभाला है
तो अपने हुस्न का क्या क्या दिलों में शोर डाला है

अभी क्या उम्र है क्या अक़्ल है क्या फ़हम है लेकिन
अभी से दिल-फ़रेबी का लहर इक नक़्शा निराला है

तबस्सुम क़हर हँस देना क़यामत देखना आफ़त
पलक देखो तो नश्तर है निगह देखो तो भाला है

अभी नोक-ए-निगह में इस क़दर तेज़ी नहीं तिस पर
कई ज़ख़्मी किए हैं और कई को मार डाला है

अकड़ना तन के चलना धज बनाना वज़्अ दिखलाना
कभी नीमा कभी चपकन कभी ख़ाली दोशाला है

किसी के साथ काँधे पर किसी के लात सीने पर
कहीं नफ़रत कहीं उल्फ़त कहीं हीला-हवाला है

'नज़ीर' ऐसा ही दिलबर शोहरा-ए-आफ़ाक़ होता है
अभी से देखिए फ़ित्ने ने कैसा ढब निकाला है

2. अव्वलन उस बे-निशाँ और बा-निशाँ को इश्क़ है

अव्वलन उस बे-निशाँ और बा-निशाँ को इश्क़ है
बअद-अज़ाँ सर हल्क़ा-ए-पैग़मबराँ को इश्क़ है

ला-फ़ता-इल्ला-अली है शान में जिस की नुज़ूल
दोस्ताँ उस शाह-ए-मर्दां से जवाँ को इश्क़ है

फिर जो है बाग़-ए-नबुव्वत और इमामत की बहार
ग़ुंचा-ए-गुल सब्ज़ा-ए-अम्बर-फ़िशाँ को इश्क़ है

अर्श ओ कुर्सी हूर ओ ग़िल्माँ और मलाएक ख़ास ओ आम
आलम-ए-बाला के सब बाशिंदगाँ को इश्क़ है

हैं जो ये चौदह तबक़ मुतहर्रिक ओ साकिन सदा
बे-सुख़न उन सब ज़मीन-ओ-आसमाँ को इश्क़ है

मुख़्तलिफ़ हैं और मिले रहते हैं बाहम रोज़-ओ-शब
ख़ाक बाद ओ आतिश ओ आब-ए-रवाँ को इश्क़ है

है जहाँ में जिन से रौशन अद्ल के घर का चराग़
दम-ब-दम उन बादशाहान-ए-जहाँ को इश्क़ है

और ख़ुरासाँ असफ़हान ईरान और तूरान को
फिर हमारे गुलशन-ए-हिन्दोस्ताँ को इश्क़ है

हैं जहाँ तक सिलसिले फ़ुक़रा के अज़-कह-ता-बह-मह
आरिफ़ाँ और कामिलाँ और आशिक़ाँ को इश्क़ है

कोह थर्राते हैं लर्ज़ें हैं ज़मीन ओ आसमान
आशिक़-ए-मौला की फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ को इश्क़ है

हर तरफ़ गुलज़ार है सब्ज़ान और आब-ए-रवाँ
अपनी नज़रों में बहार-ए-गुल-फ़शाँ को इश्क़ है

वो जो हैं इस गुलशन-ए-हस्ती में अब महव-ए-फ़ना
उन के आगे मौसम-ए-बाद-ए-ख़िज़ाँ को इश्क़ है

गर्द के मानिंद फिरती हैं पड़ी उड़ती ख़राब
लुट गई दस्त-ए-जुनूँ की कारवाँ को इश्क़ है

लोटते हैं मस्त मय-ख़ाने के दर पर जा-ब-जा
जाम ओ सहबा साक़ी ओ पीर-ए-मुग़ाँ को इश्क़ है

कल ही नक़्श-ए-ज़ाइक़ा सुन कर भी हम आमिल रहे
ऐ अज़ीज़ाँ इस हयात-ए-राएगाँ को इश्क़ है

ख़िल्क़त-ए-कौनैन में क्या जिन ओ क्या इंसाँ 'नज़ीर'
वहशी ओ ताइर ज़बाँ ओ बे-ज़बाँ को इश्क़ है

3. अंदाज़ कुछ और नाज़-ओ-अदा और ही कुछ है

अंदाज़ कुछ और नाज़-ओ-अदा और ही कुछ है
जो बात है वो नाम-ए-ख़ुदा और ही कुछ है

न बर्क़ न ख़ुर्शीद न शोला न भभूका
क्यूँ साहिबो ये हुस्न है या और ही कुछ है

बिल्लोर की चमकें हैं न अल्मास की झुमकें
उस गोरे से सीने की सफ़ा और ही कुछ है

पीछे को नज़र की तो वो गुद्दी है क़यामत
आगे को जो देखा तो गिला और ही कुछ है

सीने पे कहा मैं ने ये दो सेब हैं क्या हैं
शर्मा के ये चुपके से कहा और ही कुछ है

तुम बातें हमें कहते हो और सुनते हैं हम चुप
अपनी भी ख़मोशी में सदा और ही कुछ है

हैं आप की बातें तो शकर-रेज़ पर ऐ जाँ
इस गूँगे के गुड़ में भी मज़ा और ही कुछ है

पूछी जो दवा हम ने तबीबों से तो बोले
बीमारी नहीं है ये बला और ही कुछ है

उन्नाब न ख़ुतमी न बनफ़शा न ख़ियारीन
इस ढब के मरीज़ों की दवा और ही कुछ हैं

हम को तो 'नज़ीर' उन से शिकायत है जफ़ा की
और उन का जो सुनिए तो गिला और ही कुछ है

4. आग़ोश-ए-तसव्वुर में जब मैं ने उसे मस़्का

आग़ोश-ए-तसव्वुर में जब मैं ने उसे मस़्का
लब-हा-ए-मुबारक से इक शोर था बस बस का

सौ बार हरीर उस का मस़्का निगह-ए-गुल से
शबनम से कब ऐ बुलबुल पैराहन-ए-गुल मस़्का

उस तन को नहीं ताक़त शबनम के तलब्बुस से
ऐ दस्त-ए-हवस इस पर तू क़स्द न कर मस का

मलती है परी आँखें और हूर जबीं सा है
है नक़्श-ए-जहाँ यारो उस पा-ए-मुक़द्दस का

तर रखियो सदा या-रब तू इस मिज़ा-ए-तर को
हम इत्र लगाते हैं गर्मी में इसी ख़स का

इस गिर्या-ए-ख़ूनीं की दौलत से नज़ीर अपने
अब कुलबा-ए-अहज़ाँ में कुल फ़र्श है अतलस का

5. आज तो हमदम अज़्म है ये कुछ हम भी रस्मी काम करें

आज तो हमदम अज़्म है ये कुछ हम भी रस्मी काम करें
क्लिक उठा कर यार को अपने नामा-ए-शौक़ अरक़ाम करें

ख़ूबी से अलक़ाब लिखें आदाब भी ख़ुश-आईनी से
बअद इस के हम तहरीर मुफ़स्सल फ़ुर्क़त के आलाम करें

या ख़ुद आवे आप इधर या जल्द बुलावे हम को वहाँ
इस मतलब के लिखने को भी ख़ूब सा सर-अंजाम करें

हुस्न ज़ियादा आन मोअस्सिर नाज़ की शोख़ी हो वो चंद
ऐसे कितने हर्फ़ लिखें और नाए को अशमाम करें

सुन कर वो हँस कर यूँ बोला ये तो तुम्हें है फ़िक्र अबस
अक़्ल जिन्हें है वो तो हरगिज़ अब न ख़याल-ए-ख़ाम करें

काम यक़ीनन है वही अच्छा जो कि हो अपने मौक़ा से
बात कहें या नामा लिखें यारो सुब्ह से शाम करें

इस में भला क्या हासिल होगा सोच तो देखो मियाँ 'नज़ीर'
वो तो ख़फ़ा हो फेंक दे ख़त और लोग तुम्हें बद-नाम करें

6. आन रखता है अजब यार का लड़ कर चलना

आन रखता है अजब यार का लड़ कर चलना
हर क़दम नाज़ के ग़ुस्से में अकड़ कर चलना

जितने बन बन के निकलते हैं सनम नाम-ए-ख़ुदा

ना-तवानी का भला हो जो हुआ मुझ को नसीब
उस की दीवार की ईंटों को रगड़ कर चलना

उस की काकुल है बुरी मान कहा ऐ अफ़ई
देखियो उस से तू कांधा न रगड़ कर चलना

फ़ाएदा क्या है कमीने से झगड़ कर चलना
चलते चलते न ख़लिश कर फ़लक-ए-दूँ से नज़ीर

7. आया नहीं जो कर कर इक़रार हँसते हँसते

आया नहीं जो कर कर इक़रार हँसते हँसते
जुल दे गया है शायद अय्यार हँसते हँसते

इतना न हँस दिल उस से ऐसा न हो कि चंचल
लड़ने को तुझ से होवे तयार हँसते हँसते

ले कर सरीह दिल को वो गुल-इज़ार यारो
ज़ाहिर करे है क्या क्या इंकार हँसते हँसते

हँस हँस के छेड़ उस को ज़िन्हार तू न ऐ दिल
होगा गले का तेरे ये हार हँसते हँसते

हँसने की आन दिखला लेता है दिल को गुल-रू
करता है शोख़ यारो बे-कार हँसते हँसते

झुँझला के हाल दिल का कहना नहीं रवा है
लाएक़ यहाँ तो करना इंकार हँसते हँसते

दस्तार सुर्ख़ सज कर तुर्रा ज़री का रख कर
आया जो दिल को लेने दिलदार हँसते हँसते

आँखें लड़ा के उस ने हँस कर निगह की ऐसी
जो ले गया दिल आख़िर खूँ-ख़्वार हँसते हँसते

आया है देखने को तेरे 'नज़ीर' ऐ गुल
दिखला दे टुक तू उस को दीदार हँसते हँसते

8. इधर यार जब मेहरबानी करेगा

इधर यार जब मेहरबानी करेगा
तो अपना भी जी शादमानी करेगा

दया दिल नज़ीर उस को यूँ कह के ऐ जाँ
कहोगे तो ये पासबानी करेगा

पढ़ेगा ये अशआर बैठोगे जब तक
जो लेटोगे अफ़्साना-ख़्वानी करेगा

बिठाओगे दर पर तो होगा ये दरबाँ
लड़ाओगे तो पहलवानी करेगा

इताअत में ख़िदमत में फ़रमाँ-बरी में
ग़रज़ हर तरह जाँ-फ़िशानी करेगा

9. इश्क़ का मारा न सहरा ही में कुछ चौपट पड़ा

इश्क़ का मारा न सहरा ही में कुछ चौपट पड़ा
है जहाँ उस का अमल वो शहर भी है पट पड़ा

आशिक़ों के क़त्ल को क्या तेज़ है अबरू की तेग़
टुक उधर जुम्बिश हुई और सर इधर से कट पड़ा

अश्क की नोक-ए-मिज़ा पर शीशा-बाज़ी देखिए
क्या कलाएँ खेलता है बाँस पर ये नट पड़ा

शायद उस ग़ुंचा-दहन को हँसते देखा बाग़ में
अब तलक ग़ुंचा बलाएँ लेता है चट चट पड़ा

देख कर उस के सरापा को ये कहती है परी
सर से ले कर पाँव तक याँ हुस्न आ कर फट पड़ा

क्या तमाशा है कि वो चंचल हटीला चुलबुला
और से तो हिट गया पर मेरे दिल पर हट पड़ा

क्या हुआ गो मर गया फ़रहाद लेकिन दोस्तो
बे-सुतूँ पर हो रहा है आज तक खट खट पड़ा

हिज्र की शब में जो खींची आन कर नाले ने तेग़
की पटे-बाज़ी वले तासीर से हट हट पड़ा

दिल बढ़ा कर उस में खींचा आह ने फिर नीमचा
ऐ 'नज़ीर' आख़िर वो उस का नीमचा भी पट पड़ा

10. इश्क़ फिर रंग वो लाया है कि जी जाने है

इश्क़ फिर रंग वो लाया है कि जी जाने है
दिल का ये रंग बनाया है कि जी जाने है

नाज़ उठाने में जफ़ाएँ तो उठाईं लेकिन
लुत्फ़ भी ऐसा उठाया है कि जी जाने है

ज़ख़्म उस तेग़-ए-निगह का मिरे दिल ने हँस कर
इस मज़े-दारी से खाया है कि जी जाने है

बाम पर चढ़ के तमाशे को हमें हुस्न अपना
इस तमाशे से दिखाया है कि जी जाने है

उस की फ़ुर्क़त में हमें चर्ख़-ए-सितमगार ने आह
ये रुलाया, ये रुलाया है कि जी जाने है

रंज मिलने के बहुत दिल ने सहे लेकिन 'नज़ीर'
यार भी ऐसा मिलाया है कि जी जाने है

11. इंकार हम से ग़ैर से इक़रार बस जी बस

इंकार हम से ग़ैर से इक़रार बस जी बस
देखे तुम्हारे हम ने ये अतवार बस जी बस

इतना हूँ जा-ए-रहम जो करता है वो जफ़ा
तो उस से रो के कहते हैं अग़्यार बस जी बस

साक़ी हमें पिलाइए यूँ जाम पै-ब-पै
जो हम-नशीन कह उठें यक-बार बस जी बस

हूँ ना-उमीद वस्ल से यूँ जैसे वक़्त-ए-नज़अ
रो कर कहे तबीब से बीमार बस जी बस

ग़श हूँ मैं वक़्त-ए-बोसा जो कहता है हँस के वो
मुँह को हटा हटा के ब-तकरार बस जी बस

उस का जो बस जी बस मुझे याद आवे है तो आह
पहरों तलक मैं कहता हूँ हर बार बस जी बस

कल वो जो बोला टुक तो कहा हम ने मुँह फिरा
ख़ैर अब न हम से बोलिए ज़िन्हार बस जी बस

हम दिल लगा के तुम से हुए याँ तलक ब-तंग
जो अपने जी से कहते हैं लाचार बस जी बस

सुन कर कहा कि क्या मिरे लगती है दिल में आग
शिकवा से जब करे है तू इज़हार बस जी बस

गर तू ने मुझ से फिर कहा एक बार बस जी बस
ऐसे तमांचे मारुँगा मुँह में तिरे 'नज़ीर'

12. ईसा की क़ुम से हुक्म नहीं कम फ़क़ीर का

ईसा की क़ुम से हुक्म नहीं कम फ़क़ीर का
अरिनी पुकारता है सदा दम फ़क़ीर का

ख़ूबी भरी है जिस में दो-आलम की कोट कोट
अल्लाह ने किया है वो आलम फ़क़ीर का

सब झूट है कि तुम को हमारा हो ग़म मियाँ
बाबा किसे ख़ुदा के सिवा ग़म फ़क़ीर का

हम क्यूँ न अपने-आप को रो लेवें जीते-जी
ऐ दोस्त कौन फिर करे मातम फ़क़ीर का

मर जावें हम तो पर न ख़बर हो ये तुम को आह
क्या जाने कब जहाँ से गया दम फ़क़ीर का

अब हम पे क्या गुज़रती है और क्या गुज़र गई
किस से कहें वो यार है महरम फ़क़ीर का

जब जीते-जी किसी ने न पूछा तो मेहरबाँ
फिर बअद-ए-मर्ग किस को रहा ग़म फ़क़ीर का

हो क्यूँ न उस को फ़क़्र की बातों में दस्त-गाह
है बालका 'नज़ीर' पुरातम फ़क़ीर का

13. उधर उस की निगह का नाज़ से आ कर पलट जाना

उधर उस की निगह का नाज़ से आ कर पलट जाना
इधर मरना तड़पना ग़श में आना दम उलट जाना

कहूँ क्या क्या मैं नक़्शे उस की नागिन ज़ुल्फ़ के यारो
लिपटना उड़ के आना काट खाना फिर पलट जाना

अगर मिलने की धुन रखना तो इस तरकीब से मिलना
सरकना दूर हटना भागना और फिर लिपट जाना

न मिलने का इरादा हो तो ये अय्यारियाँ देखो
हुमकना आगे बढ़ना पास आना और हट जाना

ये कुछ बहरूप-पन देखो कि बन कर शक्ल दाने की
बिखरना सब्ज़ होना लहलहाना फिर सिमट जाना

ये यकताई ये यक-रंगी तिस ऊपर ये क़यामत है
न कम होना न बढ़ना और हज़ारों घट में बट जाना

'नज़ीर' ऐसा जो चंचल दिलरुबा बहरूपिया होवे
तमाशा है फिर ऐसे शोख़ से सौदे का पट जाना

14. उस के बाला है अब वो कान के बीच

उस के बाला है अब वो कान के बीच
जिस की खेती है झूक जान के बीच

दिल को इस की हवा ने आन के बीच
कर दिया बावला इक आन के बीच

आते उस को इधर सुना जिस दम
आ गई इम्बिसात जान के बीच

राह देखी बहुत 'नज़ीर' उस की
जब न आया वो इस मकान के बीच

पान भी पाँदाँ में बंद रहे
इत्र भी क़ैद इत्र-दान के बीच

15. उस के शरार-ए-हुस्न ने शोला जो इक दिखा दिया

उस के शरार-ए-हुस्न ने शोला जो इक दिखा दिया ।
तूर को सर से पाँव तक फूँक दिया जला दिया ।

फिर के निगाह चार सू ठहरी उसी के रू-ब-रू,
उस ने तो मेरी चश्म को क़िबला-नुमा बना दिया ।

मेरा और उस का इख़्तिलात हो गया मिस्ल-ए-अब्र-ओ-बर्क़,
उस ने मुझे रुला दिया मैं ने उसे हँसा दिया ।

मैं हूँ पतंग काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में,
चाहा इधर घटा दिया चाहा उधर बढ़ा दिया ।

तेशे की क्या मजाल थी ये जो तराशे बे-सुतूँ,
था वो तमाम दिल का ज़ोर जिस ने पहाड़ ढा दिया ।

सुनके ये मेरा अर्ज़े-हाल यार ने यूं कहा 'नज़ीर'
"चल बे, ज़ियादा अब न बक तूने तो सर फिरा दिया"

16. उसी का देखना है ठानता दिल

उसी का देखना है ठानता दिल
जो है तीर-ए-निगह से छानता दिल

बहुत कहते हैं मत मिल उस से लेकिन
नहीं कहना हमारा मानता दिल

कहा उस ने ये हम से किस सनम को
तुम्हारा इन दिनों है मानता दिल

छुपाओगे तो छुपने का नहीं याँ
हमारा है निशाँ पहचानता दिल

कहा हम ने 'नज़ीर' उस से कि जिस ने
ये पूछा है उसी का जानता दिल

17. उसी की ज़ात को है दाइमन सबात-ओ-क़याम

उसी की ज़ात को है दाइमन सबात-ओ-क़याम
क़ादीर ओ हय ओ करीम ओ मुहैमिन ओ मिनआम

बुरूज बारा में ला कर रखी वो बारीकी
कि जिस को पहुँचे न फ़िक्रत न दानिश ओ औहाम

इधर फ़रिश्ता-ए-कर्रोबी और उधर ग़िल्माँ
क़लम को लौह पे बख़्शी है ताक़त-ए-इर्क़ाम

ये दो हैं शम्स ओ क़मर और साथ उन के यार
अतारद ओ ज़ुहल ओ ज़ोहरा मुश्तरी बहराम

जो चाहें एक पलक ठहरें ये सो ताक़त क्या
फिरा करेंगे ये आग़ाज़ से ले ता-अंजाम

बशर जो चाहे कि समझे उन्हें सो क्या इम्काँ
है याँ फ़रिश्तों की आजिज़ अक़ूल और इफ़हाम

निकाले उन से गुल ओ मेवा शाख़ ओ बर्ग-ओ-बार
सब उस के लुत्फ़-ओ-करम के हैं आम ये इनआम

इसी के बाग़ से दिल शाद हो के खाते हैं
छुहारे किशमिश ओ इंजीर ओ पिस्ता ओ बादाम

चमक रहा है उसी की ये क़ुदरतों का नूर
बहर-ज़माँ ओ बहर-साअत ओ बहर-हंगाम

कि उस का शुक्र करें शब से मा-ब-रोज़ अदा
इताअत उस की बजा लावें सुब्ह से ता-शाम

‘नज़ीर’ नुक्ता समझ मेहर-ओ-फ़ज़्ल-ए-ख़ालिक़ को
इसी के फ़ज़्ल से दोनों जहाँ में है आराम

18. ऐ दिल अपनी तू चाह पर मत फूल

ऐ दिल अपनी तू चाह पर मत फूल
दिलबरों की निगाह पर मत फूल

इश्क़ करता है होश को बर्बाद
अक़्ल की रस्म-ओ-राह पर मत फूल

दाम है वो अरे कमंद है वो
देख ज़ुल्फ़-ए-सियाह पर मत फूल

वाह कह कर जो है वो हँस देता
आह इस ढब की वाह पर मत फूल

गिर पड़ेगा 'नज़ीर' की मानिंद
तू ज़नख़दाँ की चाह पर मत फूल

19. ऐ मिरी जान हमेशा हो तिरी जान की ख़ैर

ऐ मिरी जान हमेशा हो तिरी जान की ख़ैर
नाज़ुकी दौर-ए-बला, हुस्न के सामान की ख़ैर

रात दिन शाम सहर पहर घड़ी पल साअत
माँगते जाती है हम को तिरी आन आन की ख़ैर

मेहंदी चोटी हो सिवाई हो चमक पेटी की
उम्र चोटी की बड़ी ज़ुल्फ़-ए-परेशान की ख़ैर

बे-तरह बोझ से झुमकों के झुके पड़ते हैं
कीजो अल्लाह तू उन झुमकों की और कान की ख़ैर

पान खाया है तो इस वक़्त भी लाज़िम है यही
एक बोसा हमें दीजे लब-ओ-दंदान की ख़ैर

आँख उठा देखिए और देख के हँस भी दीजे
अपने काजल की ज़कात और मिसी-ओ-पान की ख़ैर

पहले जिस आन तुम्हारी ने लिया दिल हम से
अब तलक माँगते हैं दिल से हम उस आन की ख़ैर

क्या ग़ज़ब निकले है बन-ठन के वो काफ़िर यारो
आज होती नज़र आती नहीं ईमान की ख़ैर

जितने महबूब परी-ज़ाद हैं दुनिया में 'नज़ीर'
सब के अल्लाह करे हुस्न की और जान की ख़ैर

20. ऐ सफ़-ए-मिज़्गाँ तकल्लुफ़ बर-तरफ़

ऐ सफ़-ए-मिज़्गाँ तकल्लुफ़ बर-तरफ़
देखती क्या है उलट दे सफ़ की सफ़

देख वो गोरा सा मुखड़ा रश्क से
पड़ गए हैं माह के मुँह पर कलफ़

आ गया जब बज़्म में वो शोला-रू
शम्अ तो बस हो गई जल कर तलफ़

साक़ी भी यूँ जाम ले कर रह गया
जिस तरह तस्वीर हो साग़र-ब-कफ़

21. ऐश कर ख़ूबाँ में ऐ दिल शादमानी फिर कहाँ

ऐश कर ख़ूबाँ में ऐ दिल शादमानी फिर कहाँ
शादमानी गर हुई तो ज़िंदगानी फिर कहाँ

जिस क़दर पीना हो पी ले पानी उन के हाथ से
आब-ए-जन्नत तो बहुत होगा ये पानी फिर कहाँ

लज़्ज़तें जन्नत के मेवे की बहुत होंगी वहाँ
फिर ये मीठी गालियाँ ख़ूबाँ की खानी फिर कहाँ

वाँ तो हाँ हूरों के गहने के बहुत होंगे निशाँ
इन परी-ज़ादों के छल्लों की निशानी फिर कहाँ

उल्फ़त-ओ-महर-ओ-मोहब्बत सब हैं जीते-जी के साथ
मेहरबाँ ही उठ गए ये मेहरबानी फिर कहाँ

वाइज़ ओ नासेह बकें तो उन के कहने को न मान
दम ग़नीमत है मियाँ ये नौजवानी फिर कहाँ

जा पड़े चुप हो के जब शहर-ए-ख़मोशाँ में 'नज़ीर'
ये ग़ज़ल ये रेख़्ता ये शेर-ख़्वानी फिर कहाँ

22. क़त्ल पर बाँध चुका वो बुत-ए-गुमराह मियाँ

क़त्ल पर बाँध चुका वो बुत-ए-गुमराह मियाँ
देखें अब किस की तरफ़ होते हैं अल्लाह मियाँ

नज़अ में चश्म को दीदार से महरूम न रख
वर्ना ता-हश्र ये देखेंगी तिरी राह मियाँ

तू जिधर चाहे उधर जा कि सहर से ता-शाम
मैं भी साए की तरह हूँ तिरे हम-राह मियाँ

हम तिरी चाह से चाहेंगे उसे भी दिल से
जिस को जी चाहे उसे शौक़ से तू चाह मियाँ

लेकिन इतना है कि इस चाह में दरिया हैं कई
ऐसे ऐसे कई हैं जिन की नहीं थाह मियाँ

आगे मुख़्तार हो तुम हम जो तुम्हें चाहे हैं
इस सबब से तुम्हें हम करते हैं आगाह मियाँ

जब दम-ए-नज़अ न आया वो सितमगर तो ‘नज़ीर’
मर गया कह के ये हसरत-ज़दा ऐ वाह मियाँ

23. क़स्र-ए-रंगीं से गुज़र बाग़-ओ-गुलिस्ताँ से निकल

क़स्र-ए-रंगीं से गुज़र बाग़-ओ-गुलिस्ताँ से निकल
है वफ़ा-पेशा तू मत कूचा-ए-जानाँ से निकल

निकहत-ए-ज़ुल्फ़ ये किस की है कि जिस के आगे
हुई ख़जलत-ज़दा बू सुम्बुल-ओ-रैहाँ से निकल

गो बहार अब है वले रोज़-ए-ख़िज़ाँ ऐ बुलबुल
यक-क़लम नर्गिस ओ गुल जावेंगे बुसताँ से निकल

इम्तिहाँ करने को यूँ दिल से कहा हम ने रात
ऐ दिल-ए-ग़म-ज़दा इस काकुल-ए-पेचाँ से निकल

खा के सौ पेच कहा मैं तो निकलने का नहीं
मगर ऐ दुश्मन-ए-जाँ चल तू मिरे हाँ से निकल

हो परेशानी से जिस की मुझे सौ जमइय्यत
किस तरह जाऊँ मैं उस ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल

लाख ज़िंदान-ए-पुर-आफ़ात में होता है वो क़ैद
जो कोई जाता है इस तौर के ज़िंदाँ से निकल

मुझ से मुमकिन नहीं महबूब की क़त्अ-ए-उल्फ़त
गरचे मैं जाऊँगा इस आलम-ए-इम्काँ से निकल

चाह में मुझ को ये मुर्शिद का है इरशाद ‘नज़ीर’
आबरू चाहे तो मत चाह-ए-ज़नख़दाँ से निकल

24. कई दिन से हम भी हैं देखे उसे हम पे नाज़ ओ इताब है

कई दिन से हम भी हैं देखे उसे हम पे नाज़ ओ इताब है
कभी मुँह बना कभी रुख़ फिरा कभी चीं-जबीं पे शिताब है

है फँसा जो ज़ुल्फ़ में उस के दिल तो बता दें क्या तुझे हम-नशीं
कभी बल से बल कभी ख़म से ख़म कभी ताब-चीन से ताब है

वो ख़फ़ा जो हम से है ग़ुंचा-लब तो हमारी शक्ल ये है कि अब
कभी रंज-ए-दिल कभी आह-ए-जाँ कभी चश्म-ए-ग़म से पुर-आब है

नहीं आता वो जो इधर ज़रा हमीं इंतिज़ार में उस के याँ
कभी झाँकना कभी ताकना कभी बे-कली पए-ख़्वाब है

वो नज़ीर हम से जो आ मिला तो फिर उस घड़ी से ये ऐश हैं
कभी रुख़ पे रुख़ कभी लब पे लब कभी साग़र-ए-मय-ए-नाब है

25. कब ग़ैर ने ये सितम सहे चुप

कब ग़ैर ने ये सितम सहे चुप
ऐसे थे हमें जो हो रहे चुप

शिकवा तो करें हम उस से अक्सर
पर क्या करें दिल ही जब कहे चुप

सुन शोर गली में अपनी हर दम
बोला कभी तुम न याँ रहे चुप

सोचो तो कभी चमन में ऐ जाँ
बुलबुल ने किए हैं चहचहे चुप

जब हम ने कहा 'नज़ीर' इस से
हम रहने के याँ नहीं गहे चुप

26. कभी तो आओ हमारे भी जान कोठे पर

कभी तो आओ हमारे भी जान कोठे पर
लिया है हम ने अकेला मकान कोठे पर

खड़े जो होते हो तुम आन आन कोठे पर
करोगे हुस्न की क्या तुम दुकान कोठे पर

तुम्हें जो शाम को देखा था बाम पर मैं ने
तमाम रात रहा मेरा ध्यान कोठे पर

यक़ीं है बल्कि मिरी जान जब कि निकलेगी
तो आ रहेगी तुम्हारे ही जान कोठे पर

मुझे ये डर है किसी की नज़र न लग जावे
फिरो न तुम खुले बालों से जान कोठे पर

बशर तो क्या है फ़रिश्ते का जी निकल जावे
तुम्हारे हुस्न की देख आन-बान कोठे पर

झमक दिखा के हमें और भी फँसाना है
जभी तो चढ़ते हो तुम जान जान कोठे पर

तुम्हें तो क्या है व-लेकिन मिरी ख़राबी हो
किसी का आन पड़े अब जो ध्यान कोठे पर

गो चूने-कारी में होती है सुर्ख़ी तो ऐसी
किसी के ख़ून का ये है निशान कोठे पर

ये आरज़ू है किसी दिन तो अपने दिल का दर्द
करें हम आन के तुम से बयान कोठे पर

लड़ाओ ग़ैर से आँखें कहो हो हम से आह
कि था हमें तो तुम्हारा ही है ध्यान कोठे पर

ख़ुदा के वास्ते इतना तो झूट मत बोलो
कहीं न टूट पड़े आसमान कोठे पर

कमंद ज़ुल्फ़ की लटका के उस सनम ने ‘नज़ीर’
चढ़ा लिया मुझे अपने निदान कोठे पर

27. कर लेते अलग हम तो दिल इस शोख़ से कब का

कर लेते अलग हम तो दिल इस शोख़ से कब का
गर और भी होता कोई इस तौर की छब का

बोसा की एवज़ होते हैं दुश्नाम से मसरूर
इतना तो करम हम पे भी है यार के लब का

उस कान के झुमके की लटक देख ली शायद
हर ख़ोशा इसी ताक में रहता है एनब का

देखा जो बड़ी देर तलक उस ने मुँह अपना
ले दस्त-ए-हिना-बस्ता में आईना हलब का

जब हम ने कहा रखिए अब आईना को ये तो
हिस्सा है किसी और भी दीदार-तलब का

ये सुन के उधर उस ने किया ग़ुस्से में मुँह सुर्ख़
भबका इधर आईना भी हम-सर हो ग़ज़ब का

तुम रब्त के ढब जिस से लड़ाते हो ‘नज़ीर’ आह
वो दिलबर-ए-अय्यार है कुछ और ही ढब का

28. कल नज़र आया चमन में इक अजब रश्क-ए-चमन

कल नज़र आया चमन में इक अजब रश्क-ए-चमन
गल-रुख़ ओ गुल-गूं क़बा ओ गुल-अज़ार ओ गुल-बदन

महर-ए-तलअत ज़ोहरा-पैकर मुश्तरी-रू मह-जबीं
सीम-बर सीमाब-तब ओ सीम-साक़ ओ सीम-तन

नाज़नीं नाज़-आफ़रीं नाज़ुक-बदन नाज़ुक-मिज़ाज
ग़ुंचा-लब रंगीं-अदा शक्कर-दहाँ शीरीं-सुख़न

बे-मुरव्वत बेवफ़ा बेदर्द बे-परवा ख़िराम
जंग-जू क़त्ताल-वज़ ओ सरफ़राज़ ओ सर-फ़गन

मुब्तला ऐसे ही ख़ुश-वज़ओं के होते हैं नज़ीर
बे-क़रार ओ दिल-फ़िगार ओ ख़स्ता-हाल बे-वतन

29. कल मिरे क़त्ल को इस ढब से वो बाँका निकला

कल मिरे क़त्ल को इस ढब से वो बाँका निकला
मुँह से जल्लाद-ए-फ़लक के भी अहाहा निकला

आगे आहों के निशाँ समझे मिरे अश्कों के
आज इस धूम से ज़ालिम तिरा शैदा निकला

यूँ तो हम कुछ न थे पर मिस्ल-ए-अनार-ओ-महताब
जब हमें आग लगाई तो तमाशा निकला

क्या ग़लत-फ़हमी है सद-हैफ़ कि मरते दम तक
जिस को हम समझे थे क़ातिल वो मसीहा निकला

ग़म में हम भान-मती बन के जहाँ बैठे थे
इत्तिफ़ाक़न कहीं वो शोख़ भी वाँ आ निकला

सीने की आग दिखाने को दहन से मेरे
शोले पर शोला भभूके पे भभूका निकला

मत शफ़क़ कह ये तिरा ख़ून फ़लक पर है ‘नज़ीर’
देख टपका था कहाँ और कहाँ जा निकला

30. कहते हैं जिस को नज़ीर सुनिए टुक उस का बयाँ

कहते हैं जिस को नज़ीर सुनिए टुक उस का बयाँ
था वो मोअल्लिम ग़रीब बुज़दिल ओ तरसंदा-जाँ

कोई किताब इस के तईं साफ़ न थी दर्स की
आए तो मअनी कहे वर्ना पढ़ाई रवाँ

फ़हम न था इल्म से कुछ अरबी के उसे
फ़ारसी में हाँ मगर समझे था कुछ ईन ओ आँ

लिखने की ये तर्ज़ थी कुछ जो लिखे था कभी
पुख़्तगी ओ ख़ामी के उस का था ख़त दरमियाँ

शेर ओ ग़ज़ल के सिवा शौक़ न था कुछ उसे
अपने इसी शग़्ल में रहता था ख़ुश हर ज़माँ

सुस्त रविश पस्त क़द साँवला हिन्दी-नज़ाद
तन भी कुछ ऐसा ही था क़द के मुआफ़िक़ अयाँ

माथे पे इक ख़ाल था छोटा सा मस्से के तौर
था वो पड़ा आन कर अबरुओं के दरमियाँ

वज़्अ सुबुक उस की थी तिस पे न रखता था रीश
मूछैं थीं और कानों पर पट्टे भी थे पुम्बा-साँ

पीरी में जैसी कि थी उस को दिल-अफ़्सुर्दगी
वैसी ही रही थी उन दिनों जिन दिनों मैं था जवाँ

जितने ग़रज़ काम हैं और पढ़ाने सिवा
चाहिए कुछ उस से हों उतनी लियाक़त कहाँ

फ़ज़्ल ने अल्लाह के उस को दिया उम्र भर
इज़्ज़त-ओ-हुर्मत के साथ पारचा ओ आब-ओ-नाँ

31. कहते हैं याँ कि मुझ सा कोई महजबीं नहीं

कहते हैं याँ कि मुझ सा कोई महजबीं नहीं
प्यारे जो हम से पूछो तो याँ क्या कहीं नहीं

तुझ सा तो कोई हुस्न में याँ नाज़नीं नहीं
यूँ नाज़नीं बहुत हैं ये नाज़-आफ़रीं नहीं

साक़ी को जाम देने में उस ख़ुश-निगह को आह
हर दम इशारतें हैं कि उस के तईं नहीं

जब उस नहीं के कहने से माने है वो बुरा
आफी फिर उस को कहता हूँ हँस कर नहीं नहीं

इतना तो छेड़ता हूँ कि कहता है जब वो शोख़
बंदा तू मेरा मोल ख़रीदा नहीं नहीं

साक़ी तुझे क़सम है दिए जा मुझे तू जाम
याँ दम में दम है होती नहीं जब नहीं नहीं

पूछे है उस से जब कोई क़त्ल-ए-नज़ीर को
कहता है हम ने मारा है हाँ हाँ नहीं नहीं

32. कहने उस शोख़ से दिल का जो मैं अहवाल गया

कहने उस शोख़ से दिल का जो मैं अहवाल गया
वाँ न तफ़्सील गई पेश न इज्माल गया

दाम-ए-काकुल से गिला क्या ये जो है ताइर-ए-दिल
आप अपने ये फँसाने को पर-ओ-बाल गया

दिल-ए-बे-ताब की क्या जाने हुई क्या सूरत
पीछे उस शोख़ सितम-गर के जो फ़िलहाल गया

ले गया साथ लगा वो बुत-ए-क़ातिल घर तक
या उसे मार के रस्ते में कहीं डाल गया

ख़ैर वो हाल हुआ या ये हुई शक्ल ‘नज़ीर’
कुछ तअस्सुफ़ न करो जाने दो जंजाल गया

33. कहा जो हम ने “हमें दर से क्यूँ उठाते हो”

कहा जो हम ने “हमें दर से क्यूँ उठाते हो”
कहा कि इस लिए तुम याँ जो ग़ुल मचाते हो

कहा “लड़ाते हो क्यूँ हम से ग़ैर को हमदम”
कहा कि तुम भी तो हम से निगह लड़ाते हो

कहा जो हाल-ए-दिल अपना तो उस ने हँस हँस कर
कहा “ग़लत है ये बातें जो तुम बनाते हो”

कहा जताते हो क्यूँ हम से रोज़ नाज़-ओ-अदा”
कहा कि तुम भी तो चाहत हमें जताते हो

कहा कि अर्ज़ करें हम पे जो गुज़रता है?
कहा “ख़बर है हमें क्यूँ ज़बाँ पे लाते हो”

कहा कि रूठे हो क्यूँ हम से क्या सबब इस का
कहा “सबब है यही तुम जो दिल छुपाते हो”

कहा कि हम नहीं आने के याँ तो उस ने ‘नज़ीर’
कहा कि सोचो तो क्या आप से तुम आते हो

34. कहा था हम ने तुझे तो ऐ दिल कि चाह की मय को तू न पीना

कहा था हम ने तुझे तो ऐ दिल कि चाह की मय को तू न पीना
जो इस को पी कर तू ऐसा बहका कि हम को मुश्किल हुआ है जीना

जो आँखें चंचल की देखें हम ने तो नोक-ए-मिज़्गाँ ने दिल को छेदा
निगह ने होश-ओ-ख़िरद को लूटा अदा ने सब्र-ओ-क़रार छीना

कहा जो हम ने कि आन लगिए हमारे सीने से इस दम ऐ जाँ
तो सुन के उस ने हया की ऐसी कि आया मुँह पर वहीं पसीना

किया है ग़ुस्सा में हाथ ला कर मिरा गरेबाँ जो टुकड़े उस ने
फटा ही रहना है अब तो बेहतर नहीं मुनासिब कुछ इस को सीना

कहा था आऊँगा दो ही दिन में वले न आया वो शोख़ अब तक
गिना जो हम ने ‘नज़ीर’ दिल में तो उस सुख़न को हुआ महीना

35. कहा ये आज हमें फ़हम ने सुनो साहिब

कहा ये आज हमें फ़हम ने सुनो साहिब
ये बाग़दह-ए-र ग़नीमत है देख लो साहिब

जो रंग-ओ-बू के उठाने में हज़ उठा लीजे
मबादा फिर कफ़-ए-अफ़्सोस को मलो साहिब

ये वो चमन है नहीं एक से नहीं जिस में
तबद्दुल इस का हर इक गुल से सोच लो साहिब

कि था जो सुब्ह-ए-शगुफ़्ता न था वो शाम के वक़्त
जो शाम था सो न देखा वो सुब्ह को साहिब

पस इस मिसाल से ज़ाहिर है ये सुख़न यानी
इसी तरीक़ से आलम में तुम भी हो साहिब

जो सरनविश्त है होगा इसी तरह से नज़ीर
क़ज़ा क़ज़ा नहीं होने की कुछ करो साहिब

36. किधर है आज इलाही वो शोख़ छलबलिया

किधर है आज इलाही वो शोख़ छलबलिया-
कि जिस के ग़म से मिरा दिल हुआ है बावलिया

तमाम गोरों के हैरत से रंग उड़ जाते
जो घर से आज निकलता वो मेरा साँवलिया

तुझे ख़बर नहीं बुलबुल के बाग़ से गुलचें
बड़ी सी फूलों की इक भर के ले गया डलिया

‘नज़ीर’ यार की हम ने जो कल ज़ियाफ़त की
पकाया क़र्ज़ मँगा कर पोलाव और क़ुलिया

सो यार आप न आया रक़ीब को भेजा
हज़ार हैफ़ हम ऐसे नसीब के बलिया

इधर तो क़र्ज़ हुआ और उधर न आया यार
पकाई खीर थी क़िस्मत से हो गया दलिया

37. किस के लिए कीजिए जामा-ए-दीबा-तलब

किस के लिए कीजिए जामा-ए-दीबा-तलब
दिल तो करे है मुदाम दामन-ए-सहरा-तलब

काम रवा हों भला उस से हम अब किस तरह
उस को तमन्ना नहीं हम हैं तमन्ना-तलब

किस से कहीं क्या करें है ये तमाशा की बात
वो तो है पर्दानशीं हम हैं तमाशा-तलब

कहिए तो किस किस के अब ग़ौर करे वो तबीब
जिस के तलबगार हों लाख मुदावा-तलब

एक तमन्ना हो तो यार से कहिए ‘नज़ीर’
दिल है पुर-अज़- आरज़ू कीजिए क्या क्या तलब

38. किसी ने रात कहा उस की देख कर सूरत

किसी ने रात कहा उस की देख कर सूरत
कि मैं ग़ुलाम हूँ इस शक्ल का बहर-सूरत

हैं आइने के भी क्या ताले अब सिकंदर वाह
कि उस निगार की देखे है हर सहर सूरत

अजब बहार हुई कल तो वक़्त-ए-नज़्ज़ारा
जो मैं इधर को हुआ उस ने की उधर सूरत

उधर को जब मैं गया उस ने ली इधर को फेर
फिरा मैं उस ने फिराई जिधर जिधर सूरत

हज़ारों फूर्तियाँ मैं ने तो कीं पर उस ने ‘नज़ीर’
न देखने दी मुझे अपनी आँख-भर सूरत

39. की तलब इक शह ने कुछ पंद अज़-हकीम-ए-नुक्ता-दाँ

की तलब इक शह ने कुछ पंद अज़-हकीम-ए-नुक्ता-दाँ
उस ने सुन के यूँ कहा ऐ साहिब-ए-इक़बाल-ओ-शाँ

याद रख और पास रख और सख़्त रख और जम्अ कर
खा छुपा, काट और उठा, दे ले, बख़ूबी हर ज़माँ

उस ने इस मुज्मल के तफ़सीलात जब पूछे तो फिर
लुत्फ़ से उस नुक्ता-रस ने यूँ किया इस का बयाँ

याद रख हर दम ख़ुदा को पास रख हुस्न-ए-वफ़ा
सख़्त रख दीं को मुदाम और जम्अ कर इल्म ऐ जवाँ

खा ग़ज़ब-ग़ुस्सा छुपा ऐब-ए-रफ़ीक़-ओ-आश्ना
काट रब्त-ए-हम-नशीन-ए-बद कि है इस में ज़ियाँ

और उठा हर दम ज़ईफ़-ओ-ना-तवाँ से ज़ुल्म-ओ-जौर
दाद मज़लूमों की दे और ले बहिश्त-ए-जावेदाँ

नस्र में मुझ को ‘नज़ीर’ आए थे ये नुक्ते नज़र
मैं ने नज़्म इन को किया तो दिल हो हर दम शादमाँ

40. कौन याँ साथ लिए ताज-ओ-सरीर आया है

कौन याँ साथ लिए ताज-ओ-सरीर आया है
याँ तो जो आया है पहले सो फ़क़ीर आया है

इश्क़ लाया है फ़क़त एक ही सीने की सिपर
हुस्न बाँधे हुए सौ तरकश-ओ-तीर आया है

कल किसी शख़्स ने उस शोख़ से जा कर ये कहा
आज दर पर तिरे इक आशिक़-ए-पीर आया है

पुश्त ख़म-कर्दा असा हाथ में गर्दन हिलती
ज़ोफ़-ए-पीरी से निहायत ही हक़ीर आया है

सुन के ये शक्ल-ओ-शबाहत तेरी उस शोख़ ने आह
वहीं मालूम क्या ये कि ‘नज़ीर’ आया है

41. क्या अदा किया नाज़ है क्या आन है

क्या अदा किया नाज़ है क्या आन है
याँ परी का हुस्न भी हैरान है

हूर भी देखे तो हो जावे फ़िदा
आज इस आलम का वो इंसान है

उस के रंग-ए-सब्ज़ की है चीं में धूम
क्यूँ न हो आख़िर को हिन्दोस्तान है

जान-ओ-दिल हम नज़्र को लाए हैं आज
लीजिए ये दिल है और ये जान है

दिल भी है दिल से तसद्दुक़ आप पर
जान भी जी-जान से क़ुर्बान है

दिल कहाँ पहलू में जो हम दें तुम्हें
ये तो घर इक उम्र से वीरान है

अक़्ल ओ होश ओ सब्र सब जाते रहे
हाँ मगर इक-आध मुइ सी जान है

वो भी गर लेनी हों तो ले जाइए
ख़ैर ये भी आप का एहसान है

आन कर मिल तू नज़ीर अपने से जान
अब वो कोई आन का मेहमान है

42. क्या कासा-ए-मय लीजिए इस बज़्म में ऐ हम-नशीं

क्या कासा-ए-मय लीजिए इस बज़्म में ऐ हम-नशीं
दौर-ए-फ़लक से क्या ख़बर पहुँचेगा लब तक या नहीं

ये कासा-ए-फ़ीरोज़गूँ है शीशा-बाज़-ए-पुर-फ़ुनूँ
जितने हियल हैं और फ़ुसूँ सब उस के हैं ज़ेर-ए-नगीं

हो एतिमाद उस का किसे है शीशा-बाज़ी याद उसे
रखता है शाद इक दम जिसे करता है फिर अंदोहगीं

कल दामन-ए-सहरा में हम गुज़रे जो वक़्त-ए-सुब्ह-दम
इक कासा-ए-सर पर अलम आया नज़र अपने वहीं

बोला ब-फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ क्या देखता है ओ मियाँ
थे हम भी सर-बर-आसमाँ गो अब तो हैं ज़ेर-ए-ज़मीं

गुल-बर्ग से नाज़ुक-बदन सर पाँव से रश्क-ए-चमन
ज़र्रीं ओ सीमीं पैरहन दिलकश मकानों के मकीं

दिन रात नाज़ ओ नेमतें मह-तलअतों की सोहबतें
ऐश-ओ-नशात-ओ-इशरतें साक़ी क़िराँ मुतरिब क़रीं

बाग़-ओ-चमन पेश-ए-नज़र बज़्म-ए-तरब शाम-ओ-सहर
हर-सू ब-कसरत जल्वा-गर हुस्न-ए-बुतान-ए-नाज़नीं

एक आसमाँ के दौर से इक गर्दिश-ए-फ़िल-फ़ौर से
अब सोचिएगा ग़ौर से दर-लहज़ा-आँ दर-लहज़ा-ईं

सुनते ही जी थर्रा गया रुख़्सार पर अश्क आ गया
दिल इब्रतों से छा गया ख़ातिर हुई बस सहमगीं

उस में सर अपना ना-गहाँ हर मू हुआ मिस्ल-ए-ज़बाँ
बोला नज़ीर आगह हो हाँ मन-नीज़-रोज़े हमचुनीं

43. क्या दिन थे वो जो वाँ करम-ए-दिल-बराना था

क्या दिन थे वो जो वाँ करम-ए-दिल-बराना था
अपना भी उस तरफ़ गुज़र आशिक़ाना था

मिल बैठने के वास्ते आपस में हर घड़ी
था कुछ फ़रेब वाँ तो इधर कुछ बहाना था

चाहत हमारी ताड़ते हैं वाँ के ताड़-बाज़
तिस पर हनूज़ ख़ूब तरह दिल लगा न था

क्या क्या दिलों में होती थी बिन देखे बे-कली
है कल की बात हैफ़ कि ऐसा ज़माना था

अब इस क़दर हुआ वो फ़रामोश ऐ ‘नज़ीर’
क्या जाने वो मुआमला कुछ था भी या न था

44. क्या नाम-ए-ख़ुदा अपनी भी रुस्वाई है कम-बख़्त

क्या नाम-ए-ख़ुदा अपनी भी रुस्वाई है कम-बख़्त
रुस्वाइ-ए-मजनूँ भी तमाशाई है कम-बख़्त

लड़ने को लड़े उस से पर अब करते हैं अफ़सोस
अफ़सोस अजब अपनी भी दानाई है कम-बख़्त

इक बात भी मिल कर न करें उस से हम ऐ चर्ख़
क्या तुझ को यही बात पसंद आई है कम-बख़्त

हमदम तो यही कहते हैं चल बज़्म में उस की
क्या कहिए उसे अपनी जो ख़ुद-राई है कम-बख़्त

वो तो नहीं वाक़िफ़ प हमीं दिल में ख़जिल हैं
किस मुँह से कहें हम ने क़सम खाई है कम-बख़्त

यारो हमें तकलीफ़ न दो सैर-ए-चमन की
आने दो बला से जो बहार आई है कम-बख़्त

रहने दो हमें कुंज-ए-क़फ़स में कि हमारे
क़िस्मत में यही गोशा-ए-तन्हाई है कम-बख़्त

इस जाम-ए-निगूँ से मय-ए-राहत न तलब कर
याँ बादा नहीं बादिया-पैमाई है कम-बख़्त

तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने ‘नज़ीर’ आह
फिर चर्ख़ वही गुम्बद-ए-मीनाई है कम-बख़्त

45. ख़याल-ए-यार सदा चश्म-ए-नम के साथ रहा

ख़याल-ए-यार सदा चश्म-ए-नम के साथ रहा
मिरा जो चाह में दम था वो दम के साथ रहा

गया सहर वो परी-रू जिधर जिधर यारो
मैं उस के साया-सिफ़त हर क़दम के साथ रहा

फिरा जो भागता मुझ से वो शोख़ आहू-चश्म
तो मैं भी थक न रहा गो वो रम के साथ रहा

अकेला उस को न छोड़ा जो घर से निकला वो
हर इक बहाने से मैं उस सनम के साथ रहा

'नज़ीर' पीर हुआ तो भी बार-ए-नाज़-ए-बुताँ
कुछ उस के दोश के कुछ पुश्त-ए-ख़म के साथ रहा

46. खींच कर इस माह-रू को आज याँ लाई है रात

खींच कर इस माह-रू को आज याँ लाई है रात
ये ख़ुदा ने मुद्दतों में हम को दिखलाई है रात

चाँदनी है रात है ख़ल्वत है सेहन-ए-बाग़ है
जाम भर साक़ी कि ये क़िस्मत से हाथ आई है रात

बे-हिजाब और बे-तकल्लुफ़ हो के मिलने के लिए
वो तो ठहराते थे दिन पर हम ने ठहराई है रात

जब मैं कहता हूँ किसी शब को तो काफ़िर याँ भी आ
हँस के कहता है मियाँ हाँ वो भी बनवाई है रात

क्या मज़ा हो हाथ में ज़ुल्फ़ें हों और यूँ पूछिए
ऐ मिरी जाँ सच कहो तो कितनी अब आई है रात

जब नशे की लहर में बाल उस परी के खुल गए
सुब्ह तक फिर तो चमन में क्या ही लहराई है रात

दौर में हुस्न-ए-बयाँ के हम ने देखा बार-हा
रुख़ से घबराया है दिन ज़ुल्फ़ों से घबराई है रात

है शब-ए-वस्ल आज तो दिल भर के सोवेगा 'नज़ीर'
उस ने ये कितने दिनों में ऐश की पाई है रात

47. खोली जो टुक ऐ हम-नशीं उस दिल-रुबा की ज़ुल्फ़ कल

खोली जो टुक ऐ हम-नशीं उस दिल-रुबा की ज़ुल्फ़ कल
क्या क्या जताए ख़म के ख़म क्या क्या दिखाए बल के बल

आता जो बाहर घर से वो होती हमें क्या क्या ख़ुशी
गर देख लेते हम उसे फिर एक दम या एक पल

दिन को तो बीम-ए-फ़ित्ना है हम उस से मिल सकते नहीं
आता है जिस दम ख़्वाब में जब देखते हैं बे-ख़लल

क्या बेबसी की बात है यारो 'नज़ीर' अब क्या करे
वो आने वाँ देता नहीं आती नहीं याँ जी में कल

48. गर ऐश से इशरत में कटी रात तो फिर क्या

गर ऐश से इशरत में कटी रात तो फिर क्या
और ग़म में बसर हो गई औक़ात तो फिर क्या

जब आई अजल फिर कोई ढूँडा भी न पाया
क़िस्सों में रहे हर्फ़-ओ-हिकायात तो फिर क्या

हद बोस-ओ-कनार और जो था उस के सिवा आह
गर वो भी मयस्सर हुआ हैहात तो फिर क्या

दो दिन अगर इन आँखों ने दुनिया में मिरी जाँ
की नाज़-ओ-अदाओं की इशारात तो फिर क्या

फिर उड़ गई इक आन में सब हशमत ओ सब शान
ले शर्क़ से ता ग़र्ब लगा हात तो फिर क्या

अस्प ओ शुतुर ओ फ़ील ओ ख़र ओ नौबत ओ लश्कर
गर क़ब्र तलक अपने चला सात तो फिर क्या

जब आई अजल फिर वहीं उठ भागे शिताबी
रिंदों में हुए अहल-ए-ख़राबात तो फिर क्या

दो दिन को जो तावीज़ ओ फ़तीला ओ अमल से
तस्ख़ीर किया आलम-ए-जिन्नात तो फिर क्या

इस उम्र-ए-दो-रोज़ा में अगर हो के नुजूमी
सब छान लिए अर्ज़ ओ समावात तो फिर क्या

इक दम में हवा हो गए सब अमली ओ नज़री
थे याद जो अस्बाब ओ अलामात तो फिर क्या

उस ने कोई दिन बैठ के आराम से खाया
वो माँगता दर दर फिरा ख़ैरात तो फिर क्या

दौलत ही का मिलना है बड़ी चीज़ नज़ीर आह
बिल-फ़र्ज़ हुई उस से मुलाक़ात तो फिर क्या

आख़िर को जो देखा तो हुए ख़ाक की ढेरी
दो दिन की हुई कश्फ़-ओ-करामात तो फिर क्या

जब आई अजल एक रियाज़त न गई पेश
मर मर के जो की कोशिश ओ ताआत तो फिर क्या

जब आई अजल आह तो इक दम में गए मर
गर ये भी हुई हम में करामात तो फिर क्या

49. गर हम ने दिल सनम को दिया फिर किसी को क्या

गर हम ने दिल सनम को दिया फिर किसी को क्या
इस्लाम छोड़ कुफ़्र लिया फिर किसी को क्या

क्या जाने किस के ग़म में हैं आँखें हमारी लाल
ऐ हम ने गो नशा भी पिया फिर किसी को क्या

आफी किया है अपने गिरेबाँ को हम ने चाक
आफी सिया सिया न सिया फिर किसी को क्या

उस बेवफ़ा ने हम को अगर अपने इश्क़ में
रुस्वा किया ख़राब किया फिर किसी को क्या

दुनिया में आ के हम से बुरा या भला 'नज़ीर'
जो कुछ कि हो सका सो किया फिर किसी को क्या

50. गर्म यां यूं तो बड़ा हुस्न का बाज़ार रहा

गर्म यां यूं तो बड़ा हुस्न का बाज़ार रहा
मैं फ़कत एक दुकां का ही ख़रीदार रहा

देखा मैं जब उसे फिर आइनए-चश्म के बीच
ता-दमे-मर्ग वही अक़्स नमूदार रहा

आ फंसा जो कोई इस दाम-गहे-हस्ती में
था जो दाना तो बहुत ज़ीसत से बेजार रहा

बस जो होता तो न रहता कभी दुनिया में ''नज़ीर''
था जो बेबस कोई दिन इसलिए लाचार रहा

(फ़कत=केवल, आइनए-चश्म=आँख रूपी शीशा,
ता-दमे-मर्ग=मरने तक, नमूदार=स्पष्ट,
दाम-गहे-हसती=जीवन का जाल, दाना=बुद्धिमान,
ज़ीस्त=ज़िन्दगी)

51. गले से दिल के रही यूँ है ज़ुल्फ़-ए-यार लिपट

गले से दिल के रही यूँ है ज़ुल्फ़-ए-यार लिपट
कि जूँ सपेरे की गर्दन में जाए मार लिपट

मज़े उठाते क़मर-बंद की तरह से अगर
कमर से यार की जाते हम एक बार लिपट

हमारे पास वो आया तो खोल कर आग़ोश
ये चाहा जावें हम उस से ब-इंकिसार लिपट

वहीं वो दूर सरक कर इताब से बोला
हमारे साथ न हो कर तू बे-क़रार लिपट

हमें जो चाहें तो लपटें 'नज़ीर' अब वर्ना
तू चाहे लिपटे सो मुमकिन नहीं हज़ार लिपट

52. गुलज़ार है दाग़ों से यहॉ तन बदन अपना

गुलज़ार है दाग़ों से यहाँ तन-बदन अपना
कुछ ख़ौफ़ ख़िज़ाँ का नहीं रखता चमन अपना

अश्कों के तसलसुल ने छुपाया तन-ए-उर्यां
ये आब-ए-रवाँ का है नया पैरहन अपना

किस तरह बने ऐसे से इंसाफ़ तो है शर्त
ये वज़्अ मिरी देखो वो देखो चलन अपना

इंकार नहीं आप के घर चलने से मुझ को
मैं चलने को मौजूद जो छोड़ो चलन अपना

मस्कन का पता ख़ाना-ब-दोशों से न पूछो
जिस जा पे कि बस गिर रहे वो है वतन अपना

  • नज़ीर अकबराबादी की ग़ज़लें (2)
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