ग़ज़लें : अब्दुल हमीद अदम

Ghazals : Abdul Hameed Adam

अगरचे रोज़-ए-अज़ल भी यही अँधेरा था

अगरचे रोज़-ए-अज़ल भी यही अँधेरा था
तिरी जबीं से निकलता हुआ सवेरा था

पहुँच सका न मैं बर-वक़्त अपनी मंज़िल पर
कि रास्ते में मुझे रहबरों ने घेरा था

तिरी निगाह ने थोड़ी सी रौशनी कर दी
वगर्ना अर्सा-ए-कौनैन में अँधेरा था

ये काएनात और इतनी शराब-आलूदा
किसी ने अपना ख़ुमार-ए-नज़र बिखेरा था

सितारे करते हैं अब उस गली के गिर्द तवाफ़
जहाँ 'अदम' मिरे महबूब का बसेरा था

अपनी ज़ुल्फों को सितारों के हवाले कर दो

अपनी ज़ुल्फों को सितारों के हवाले कर दो
शहर-ए-गुल बादा गुसारों के हवाले कर दो

तल्ख़ी-ए-होश हो या मस्ती-ए-इदराक-ए-जनूं
आज हर चीज़ बहारों के हवाले कर दो

मुझको यारो ना करो राह-नुमांओं के सपुर्द
मुझको तुम राह-गुज़ारों के हवाले कर दो

जागने वालों का तूफ़ां से कर दो रिश्ता
सोने वालों को किनारों के हवाले कर दो

मेरी तौबा का बजा है यही एजाज़ “अदम”
मेरा साग़र मेरे यारों के हवाले कर दो

अब दो-आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे

अब दो-आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे
दिल की आहट से तिरी आवाज़ आती है मुझे

झाड़ कर गर्द-ए-ग़म-ए-हस्ती को उड़ जाऊँगा मैं
बे-ख़बर ऐसी भी इक पर्वाज़ आती है मुझे

या समाअ'त का भरम है या किसी नग़्मे की गूँज
एक पहचानी हुई आवाज़ आती है मुझे

किस ने खोला है हवा में गेसुओं को नाज़ से
नर्म-रौ बरसात की आवाज़ आती है मुझे

उस की नाज़ुक उँगलियों को देख कर अक्सर 'अदम'
एक हल्की सी सदा-ए-साज़ आती है मुझे

अरे मय-गुसारो सवेरे सवेरे

अरे मय-गुसारो सवेरे सवेरे
ख़राबात के गिर्द फेरे पे फेरे

बड़ी रौशनी बख़्शते हैं नज़र को
तेरे गेसुओं के मुक़द्दस अँधेरे

किसी दिन इधर से गुज़र कर तो देखो
बड़ी रौनक़ें हैं फ़क़ीरों के डेरे

ग़म-ए-ज़िंदगी को 'अदम' साथ ले कर
कहाँ जा रहे हो सवेरे सवेरे

आगही में इक ख़ला मौजूद है

आगही में इक ख़ला मौजूद है
इस का मतलब है ख़ुदा मौजूद है

है यक़ीनन कुछ मगर वाज़ेह नहीं
आप की आँखों में क्या मौजूद है

बाँकपन में और कोई शय नहीं
सादगी की इंतिहा मौजूद है

है मुकम्मल बादशाही की दलील
घर में गर इक बोरिया मौजूद है

शौक़िया कोई नहीं होता ग़लत
इस में कुछ तेरी रज़ा मौजूद है

इस लिए तन्हा हूँ मैं गर्म-ए-सफ़र
क़ाफ़िले में रहनुमा मौजूद है

हर मोहब्बत की बिना है चाशनी
हर लगन में मुद्दआ' मौजूद है

हर जगह हर शहर हर इक़्लीम में
धूम है उस की जो ना-मौजूद है

जिस से छुपना चाहता हूँ मैं 'अदम'
वो सितमगर जा-ब-जा मौजूद है

आज फिर रूह में इक बर्क़ सी लहराती है

आज फिर रूह में इक बर्क़ सी लहराती है
दिल की गहराई से रोने की सदा आती है

यूँ चटकती हैं ख़राबात में जैसे कलियाँ
तिश्नगी साग़र-ए-लबरेज़ से टकराती है

शोला-ए-ग़म की लपक और मिरा नाज़ुक सा मिज़ाज
मुझ को फ़ितरत के रवय्ये पे हँसी आती है

मौत इक अम्र-ए-मुसल्लम है तो फिर ऐ साक़ी
रूह क्यूँ ज़ीस्त के आलाम से घबराती है

सो भी जा ऐ दिल-ए-मजरूह बहुत रात गई
अब तो रह रह के सितारों को भी नींद आती है

और तो दिल को नहीं है कोई तकलीफ़ 'अदम'
हाँ ज़रा नब्ज़ किसी वक़्त ठहर जाती है

आता है कौन दर्द के मारों के शहर में

आता है कौन दर्द के मारों के शहर में
रहते हैं लोग चाँद सितारों के शहर में

मिलता तो है ख़ुशी की हक़ीक़त का कुछ सुराग़
लेकिन नज़र-फ़रेब इशारों के शहर में

उन अँखड़ियों को देख के होता है ये गुमाँ
हम आ बसे हैं बादा-गुसारों के शहर में

ऐ दिल तिरे ख़ुलूस के सदक़े! ज़रा सा होश
दुश्मन भी बे-शुमार हैं यारों के शहर में

देखें 'अदम' नसीब में है क्या लिखा हुआ
दिल बेचने चले हैं निगारों के शहर में

आप अगर हमको मिल गये होते

आप अगर हमको मिल गये होते
बाग़ में फूल खिल गये होते

आप ने यूँ ही घूर कर देखा
होंठ तो यूँ भी सिल गये होते

काश हम आप इस तरह मिलते
जैसे दो वक़्त मिल गये होते

हमको अहल-ए-ख़िरद मिले ही नहीं
वरना कुछ मुन्फ़ईल गये होते

उसकी आँखें ही कज-नज़र थीं 'अदम'
दिल के पर्दे तो हिल गये होते

आँखों से तिरी ज़ुल्फ़ का साया नहीं जाता

आँखों से तिरी ज़ुल्फ़ का साया नहीं जाता
आराम जो देखा है भुलाया नहीं जाता

अल्लाह-रे नादान जवानी की उमंगें!
जैसे कोई बाज़ार सजाया नहीं जाता

आँखों से पिलाते रहो साग़र में न डालो
अब हम से कोई जाम उठाया नहीं जाता

बोले कोई हँस कर तो छिड़क देते हैं जाँ भी
लेकिन कोई रूठे तो मनाया नहीं जाता

जिस तार को छेड़ें वही फ़रियाद-ब-लब है
अब हम से 'अदम' साज़ बजाया नहीं जाता

उन को अहद-ए-शबाब में देखा

उन को अहद-ए-शबाब में देखा
चाँदनी को शराब में देखा

आँख का ए'तिबार क्या करते
जो भी देखा वो ख़्वाब में देखा

दाग़ सा माहताब में पाया
ज़ख़्म सा आफ़्ताब में देखा

जाम ला कर क़रीब आँखों के
आप ने कुछ शराब में देखा

किस ने छेड़ा था साज़-ए-मस्ती को?
एक शो'ला रुबाब में देखा

लोग कुछ मुतमइन भी थे फिर भी
जिस को देखा अज़ाब में देखा

हिज्र की रात सो गए थे 'अदम'
सुब्ह-ए-महशर को ख़्वाब में देखा

एक ना-मक़बूल क़ुर्बानी हूँ मैं

एक ना-मक़बूल क़ुर्बानी हूँ मैं
सर-फिरी उल्फ़त में ला-सानी हूँ मैं

मैं चला जाता हूँ वाँ तकलीफ़ से
वो समझते हैं कि ला-सानी हूँ मैं

कान धरते ही नहीं वो बात पर
कब से मसरूफ़-ए-सना-ख़्वानी हूँ मैं

ज़िंदगी है इक किराए की ख़ुशी
सूखते तालाब का पानी हूँ मैं

मुझ से बढ़ कर क्या कोई होगा अमीर
क़ीमती विर्से की अर्ज़ानी हूँ मैं

चाँदनी रातों में यारों के बग़ैर
चाँदनी रातों की वीरानी हूँ मैं

कहना सुनना उन से मुझ को कुछ नहीं
सिर्फ़ इक तम्हीद-ए-तूलानी हूँ मैं

मुझ को पछताना नहीं आता 'अदम'
एक दौलत-मंद नादानी हूँ मैं

ऐ यार-ए-ख़ुश ख़राम ज़माना ख़राब है

ऐ यार-ए-ख़ुश ख़राम ज़माना ख़राब है
हर कुन्ज में है दाम ज़माना ख़राब है

मलबूस ज़द में है हवास की जवान परी
क्या शेख़ क्या इमाम ज़माना ख़राब है

उड़ती हैं सूफ़ियों के लिबादों में बोतलें
अरबाब-ए-इन्तज़ाम ज़माना ख़राब है

सैर-ए-चमन को गेसू-ए-मुश्कीं बिख़ेर कर
जाओ न वक्त-ए-शाम ज़माना ख़राब है

कह तो रहा हूँ उनसे बड़ी देर से ‘अदम‘
कर लो यहीं क़याम ज़माना ख़राब है

ऐ साक़ी-ए-मह-वश ग़म-ए-दौराँ नहीं उठता

ऐ साक़ी-ए-मह-वश ग़म-ए-दौराँ नहीं उठता
दरवेश के हुजरे से ये मेहमाँ नहीं उठता

कहते थे कि है बार-ए-दो-आलम भी कोई चीज़
देखा है तो अब बार-ए-गरेबाँ नहीं उठता

क्या मेरे सफ़ीने ही की दरिया को खटक थी
क्या बात है अब क्यूँ कोई तूफ़ाँ नहीं उठता

किस नक़्श-ए-क़दम पर है झुका रोज़-ए-अज़ल से
किस वहम में सज्दे से बयाबाँ नहीं उठता

बे-हिम्मत-ए-मर्दाना मसाफ़त नहीं कटती
बे-अज़्म-ए-मुसम्मम क़दम आसाँ नहीं उठता

यूँ उठती हैं अंगड़ाई को वो मरमरीं बाँहें
जैसे कि 'अदम' तख़्त-ए-सुलैमाँ नहीं उठता

कश्ती चला रहा है मगर किस अदा के साथ

कश्ती चला रहा है मगर किस अदा के साथ
हम भी न डूब जाएँ कहीं ना-ख़ुदा के साथ

दिल की तलब पड़ी है तो आया है याद अब
वो तो चला गया था किसी दिलरुबा के साथ

जब से चली है आदम ओ यज़्दाँ की दास्ताँ
हर बा-वफ़ा का रब्त है इक बेवफ़ा के साथ

मेहमान मेज़बाँ ही को बहका के ले उड़ा
ख़ुश्बू-ए-गुल भी घूम रही है सबा के साथ

पीर-ए-मुग़ाँ से हम को कोई बैर तो नहीं
थोड़ा सा इख़्तिलाफ़ है मर्द-ए-ख़ुदा के साथ

शैख़ और बहिश्त कितने तअ'ज्जुब की बात है
या-रब ये ज़ुल्म ख़ुल्द की आब-ओ-हवा के साथ

पढ़ता नमाज़ मैं भी हूँ पर इत्तिफ़ाक़ से
उठता हूँ निस्फ़ रात को दिल की सदा के साथ

महशर का ख़ैर कुछ भी नतीजा हो ऐ 'अदम'
कुछ गुफ़्तुगू तो खुल के करेंगे ख़ुदा के साथ

कितनी बे-साख़्ता ख़ता हूँ मैं

कितनी बे-साख़्ता ख़ता हूँ मैं
आप की रग़बत-ओ-रज़ा हूँ मैं

मैं ने जब साज़ छेड़ना चाहा
ख़ामुशी चीख़ उठी सदा हूँ मैं

हश्र की सुब्ह तक तो जागूँगा
रात का आख़िरी दिया हूँ मैं

आप ने मुझ को ख़ूब पहचाना
वाक़ई सख़्त बेवफ़ा हूँ मैं

मैं ने समझा था मैं मोहब्बत हूँ
मैं ने समझा था मुद्दआ' हूँ मैं

काश मुझ को कोई बताए 'अदम'
किस परी-वश की बद-दुआ हूँ मैं

क्या बात है ऐ जान-ए-सुख़न बात किए जा

क्या बात है ऐ जान-ए-सुख़न बात किए जा
माहौल पे नग़्मात की बरसात किए जा

दुनिया की निगाहों में बड़ी हिर्स भरी है
ना-अहल ज़माने से हिजाबात किए जा

नेकी का इरादा है तो फिर पूछना कैसा
दिन रात फ़क़ीरों की मुदारात किए जा

चलते रहें मदहोश पियालों की रविश पर
नादान सितारों को हिदायात किए जा

अल्लाह तिरा हुस्न करे और ज़ियादा
हम राह-नशीनों से मुलाक़ात किए जा

बन आए जवाबात तो मिल जाएँगे ख़ुद ही
ऐ दावर-ए-महशर तू सवालात किए जा

हस्ती ओ अदम क्या हैं ब-जुज़ जुम्बिश-ए-अबरू
ऐ जान-ए-किनायात इशारात किए जा

कहता है 'अदम' मुझ को हर इक गोशा-ए-हस्ती
आया है तो कुछ सैर-ए-ख़राबात किए जा

खुली वो ज़ुल्फ़ तो पहली हसीन रात हुई

खुली वो ज़ुल्फ़ तो पहली हसीन रात हुई
उठी वो आँख तो तख़लीक़-ए-काएनात हुई

ख़ुदा ने गढ़ तो दिया आलम-ए-वजूद मगर
सजावटों की बिना औरतों की ज़ात हुई

गिले बहुत थे मगर जब नज़र नज़र से मिली!
न मुझ से बात हुई और न उन से बात हुई

दिल-ए-तबाह को कुछ और कर गई ज़ख़्मी!
वो इक निगाह जो लबरेज़-ए-इल्तिफ़ात हुई

हयात ओ मौत की ग़ारत-गरी का हाल न पूछ
जो मौत न बन सकी वो 'अदम' हयात हुई

ख़ाली है अभी जाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

ख़ाली है अभी जाम मैं कुछ सोच रहा हूँ
ऐ गर्दिश-ए-अय्याम मैं कुछ सोच रहा हूँ

साक़ी तुझे इक थोड़ी सी तकलीफ़ तो होगी
साग़र को ज़रा थाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

पहले बड़ी रग़बत थी तिरे नाम से मुझ को
अब सुन के तिरा नाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

इदराक अभी पूरा तआ'वुन नहीं करता
दय बादा-ए-गुलफ़ाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

हल कुछ तो निकल आएगा हालात की ज़िद का
ऐ कसरत-ए-आलाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

फिर आज 'अदम' शाम से ग़मगीं है तबीअ'त
फिर आज सर-ए-शाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

ख़ुश हूँ कि ज़िंदगी ने कोई काम कर दिया

ख़ुश हूँ कि ज़िंदगी ने कोई काम कर दिया
मुझ को सुपुर्द-ए-गर्दिश-ए-अय्याम कर दिया

साक़ी सियाह-ख़ाना-ए-हस्ती में देखना
रौशन चराग़ किस ने सर-ए-शाम कर दिया

पहले मिरे ख़ुलूस को देते रहे फ़रेब
आख़िर मिरे ख़ुलूस को बदनाम कर दिया

कितनी दुआएँ दूँ तिरी ज़ुल्फ़-ए-दराज़ को
कितना वसीअ सिलसिला-ए-दाम कर दिया

वो चश्म-ए-मस्त कितनी ख़बर-दार थी 'अदम'
ख़ुद होश में रही हमें बदनाम कर दिया

ख़ैरात सिर्फ़ इतनी मिली है हयात से

ख़ैरात सिर्फ़ इतनी मिली है हयात से
पानी की बूँद जैसे अता हो फ़ुरात से

शबनम इसी जुनूँ में अज़ल से है सीना-कूब
ख़ुर्शीद किस मक़ाम पे मिलता है रात से

नागाह इश्क़ वक़्त से आगे निकल गया
अंदाज़ा कर रही है ख़िरद वाक़िआत से

सू-ए-अदब न ठहरे तो दें कोई मशवरा
हम मुतमइन नहीं हैं तिरी काएनात से

साकित रहें तो हम ही ठहरते हैं बा-क़ुसूर
बोलें तो बात बढ़ती है छोटी सी बात से

आसाँ-पसंदियों से इजाज़त तलब करो
रस्ता भरा हुआ है 'अदम' मुश्किलात से

गिरते हैं लोग गर्मी-ए-बाज़ार देख कर

गिरते हैं लोग गर्मी-ए-बाज़ार देख कर
सरकार देख कर मिरी सरकार देख कर

आवारगी का शौक़ भड़कता है और भी
तेरी गली का साया-ए-दीवार देख कर

तस्कीन-ए-दिल की एक ही तदबीर है फ़क़त
सर फोड़ लीजिए कोई दीवार देख कर

हम भी गए हैं होश से साक़ी कभी कभी
लेकिन तिरी निगाह के अतवार देख कर

क्या मुस्तक़िल इलाज किया दिल के दर्द का
वो मुस्कुरा दिए मुझे बीमार देख कर

देखा किसी की सम्त तो क्या हो गया 'अदम'
चलते हैं राह-रौ सर-ए-बाज़ार देख कर

गिरह हालात में क्या पड़ गई है

गिरह हालात में क्या पड़ गई है
नज़र इक महज़बीं से लड़ गई है

निकालें दिल से कैसे उस नज़र को
जो दिल में तीर बनकर गड़ गई है

मुहव्बत की चुभन है क़्ल्बो-जाँ में
कहाँ तक इस मरज़ की जड़ गई है

ज़रा आवाज़ दो दारो-रसन को
जवानी अपनी ज़िद्द पे अड़ गई है

हमें क्या इल्म था ये हाल होगा
"अदम" साहब मुसीबत पड़ गई है

(क़्ल्बो-जाँ=दिल और जान, दारो-रसन-फाँसी)

गुनाह-ए-जुरअत-ए-तदबीर कर रहा हूँ मैं

गुनाह-ए-जुरअत-ए-तदबीर कर रहा हूँ मैं
ये किस क़िमाश की तक़्सीर कर रहा हूँ मैं

मैं जानता हूँ अलामत है ज़ोफ़ हिम्मत की
जिसे नसीब से ता'बीर कर रहा हूँ मैं

अभी तदब्बुर-ओ-तदबीर का नहीं मौक़ा'
अभी हिमायत-ए-तक़दीर कर रहा हूँ मैं

हुजूम-ए-हश्र में खोलूँगा अद्ल का दफ़्तर
अभी तो फ़ैसले तहरीर कर रहा हूँ मैं

जवाब देने की आदत नहीं ख़ुदा को अगर
तो क्या परस्तिश-ए-तस्वीर कर रहा हूँ मैं

तबाह हो के हक़ाएक़ के खुरदुरे-पन से
तसव्वुरात की ता'मीर कर रहा हूँ मैं

ख़ुदा के आगे 'अदम' ज़िक्र-ए-अज़्मत-ए-इंसाँ
ग़लत मक़ाम पे तक़रीर कर रहा हूँ मैं

गो तिरी ज़ुल्फ़ों का ज़िंदानी हूँ मैं

गो तिरी ज़ुल्फ़ों का ज़िंदानी हूँ मैं
भूल मत जाना कि सैलानी हूँ मैं

ज़िंदगी की क़ैद कोई क़ैद है
सूखते तालाब का पानी हूँ मैं

चाँदनी रातों में यारों के बग़ैर
चाँदनी रातों की वीरानी हूँ मैं

जिस क़दर मौजूद हूँ मफ़क़ूद हूँ
जिस क़दर ग़ाएब हूँ लाफ़ानी हूँ मैं

मुझ को तन्हाई में सुनना बैठ कर
मुतरिब-ए-लम्हात-ए-वजदानी हूँ मैं

जिस क़दर करता हूँ अंदेशा 'अदम'
उस क़दर तस्वीर-ए-हैरानी हूँ मैं

अक़्ल से क्या काम मुझ नाचीज़ का
एक मा'मूली सी नादानी हूँ मैं

हूँ अगर तो हूँ भी क्या इस के सिवा
क़ीमती विर्से की अर्ज़ानी हूँ मैं

दिल की धड़कन बढ़ती जाती है 'अदम'
किस हसीं के ज़ेर-ए-निगरानी हूँ मैं

गोरियों कालियों ने मार दिया

गोरियों कालियों ने मार दिया
जामुनों वालियों ने मार दिया

अंग हैं या रिकाबियॉं धन की
मोहनी थालियों ने मार दिया

गुनगुनाते हसीन कानों की
डोलती बालियों ने मार दिया

ऊदे ऊदे सहाब से आँचल
रंग की जालियों ने मार दिया

ज़ुल्फ़ की निकहतों ने जाँ ले ली
होंट की लालियों ने मार दिया

उफ़ वो प्यासे मोअज़्ज़ेज़ीन जिन्हें
रस-भरी गालियों ने मार दिया

झूमती डालियों से जिस्म 'अदम'
झूमती डालियों ने मार दिया

ग़म-ए-मोहब्बत सता रहा है ग़म-ए-ज़माना मसल रहा है

ग़म-ए-मोहब्बत सता रहा है ग़म-ए-ज़माना मसल रहा है
मगर मिरे दिन गुज़र रहे हैं मगर मिरा वक़्त टल रहा है

वो अब्र आया वो रंग बरसे वो कैफ़ जागा वो जाम खनके
चमन में ये कौन आ गया है तमाम मौसम बदल रहा है

मिरी जवानी के गर्म लम्हों पे डाल दे गेसुओं का साया
ये दोपहर कुछ तो मो'तदिल हो तमाम माहौल जल रहा है

ये भीनी भीनी सी मस्त ख़ुश्बू ये हल्की हल्की सी दिल-नशीं बू
यहीं कहीं तेरी ज़ुल्फ़ के पास कोई परवाना जल रहा है

न देख ओ मह-जबीं मिरी सम्त इतनी मस्ती-भरी नज़र से
मुझे ये महसूस हो रहा है शराब का दौर चल रहा है

'अदम' ख़राबात की सहर है कि बारगाह-ए-रुमूज़-ए-हस्ती
इधर भी सूरज निकल रहा है उधर भी सूरज निकल रहा है

छेड़ो तो उस हसीन को छेड़ो जो यार हो

छेड़ो तो उस हसीन को छेड़ो जो यार हो
ऐसी ख़ता करो जो अदब में शुमार हो

बैठी है तोहमतों में वफ़ा यूँ घिरी हुई
जैसे किसी हसीन की गर्दन में बार हो

दिन रात मुझ पे करते हो कितने हसीन ज़ुल्म
बिल्कुल मिरी पसंद के मुख़्तार-ए-कार हो

कितने उरूज पर भी हो मौसम बहार का
है फूल सिर्फ़ वो जो सर-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार हो

इक सच्चा प्यार ही नहीं बस यार ऐ 'अदम'
जाँ वार दो अगर कोई झूटा भी यार हो

जब गर्दिशों में जाम थे

जब गर्दिशों में जाम थे
कितने हसीं अय्याम थे

हम ही न थे रुसवा फ़क़त
वो आप भी बदनाम थे

कहते हैं कुछ अर्सा हुआ
क़ाबे में भी असनाम थे

अंजाम की क्या सोचते
ना-वाक़िफ़-ए- अंजाम थे

अहद-ए-जवानी में 'अदम'
सब लोग गुलअन्दां थे

जब तिरे नैन मुस्कुराते हैं

जब तिरे नैन मुस्कुराते हैं
ज़ीस्त के रंज भूल जाते हैं

क्यूँ शिकन डालते हो माथे पर
भूल कर आ गए हैं जाते हैं

कश्तियाँ यूँ भी डूब जाती हैं
नाख़ुदा किस लिए डराते हैं

इक हसीं आँख के इशारे पर
क़ाफ़िले राह भूल जाते हैं

जहाँ वो ज़ुल्फ़-ए-बरहम कारगर महसूस होती है

जहाँ वो ज़ुल्फ़-ए-बरहम कारगर महसूस होती है
वहाँ ढलती हुई हर दोपहर महसूस होती है

वही शय मक़सद-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र महसूस होती है
कमी जिस की बराबर उम्र भर महसूस होती है

जतन भी क्या हसीं सूझा है तुझ को प्यार करने का
तिरी सूरत मुझे अपनी नज़र महसूस होती है

गली कूचों में सेहन-ए-मय-कदा का रंग होता है
मुझे दुनिया तिरा कैफ़-ए-नज़र महसूस होती है

ज़रा आगे चलोगे तो इज़ाफ़ा इल्म में होगा
मोहब्बत पहले पहले बे-ज़रर महसूस होती है

ये दो पत्थर न जाने कब से आपस में हैं वाबस्ता
जबीं अपनी तुम्हारा संग-ए-दर महसूस होती है

कभी सच तो नहीं उस आँख ने बोला मगर फिर भी
रवय्ये में निहायत मो'तबर महसूस होती है

अदम अब दोस्तों की बे-रुख़ी की है ये कैफ़िय्यत
खटकती तो नहीं इतनी मगर महसूस होती है

जिस वक़्त भी मौज़ूँ सी कोई बात हुई है

जिस वक़्त भी मौज़ूँ सी कोई बात हुई है
माहौल से नग़्मात की बरसात हुई है

मय-ख़ाने में है शब के गुज़रने का ये आलम
महसूस ये होता है अभी रात हुई है

है अरसा-ए-महशर भी कोई कुंज-ए-गुलिस्ताँ!
देखो तो कहाँ उन से मुलाक़ात हुई है

ये देख कि किस हाल में हम ज़िंदा हैं अब तक
मत पूछ कि कैसे बसर-औक़ात हुई है

इम्काँ निकल आए हैं 'अदम' सुल्ह के कुछ कुछ
कल शब ग़म-ए-हस्ती से मिरी बात हुई है

जुम्बिश-ए-काकुल-ए-महबूब से दिन ढलता है

जुम्बिश-ए-काकुल-ए-महबूब से दिन ढलता है
हाए किस ख़ूबी-ए-उस्लूब से दिन ढलता है

फेंक कुल्फ़त-ज़दा सूरज पे भी छींटे उस के
जिस मय-ए-दिलकश-ओ-मर्ग़ूब से दिन ढलता है

कोशिश-ए-बंदा-ए-दाना नहीं कामिल होती
सोहबत-ए-बंदा-ए-मज्ज़ूब से दिन ढलता है

मेहर के वलवला-ए-रास्त से पौ फटती है
मेहर के जज़्बा-ए-मक़्लूब से दिन ढलता है

साक़िया एक 'अदम' को भी फुरेरी उस की
जिस खनकते हुए मशरूब से दिन ढलता है

जो भी तेरे फ़क़ीर होते हैं

जो भी तेरे फ़क़ीर होते हैं
आदमी बे-नज़ीर होते हैं

तेरी महफ़िल में बैठने वाले
कितने रौशन-ज़मीर होते हैं

फूल दामन में चंद ले लीजे
रास्ते में फ़क़ीर होते हैं

जो परिंदे की आँख रखते हैं
सब से पहले असीर होते हैं

देखने वाला इक नहीं मिलता
आँख वाले कसीर होते हैं

जिन को दौलत हक़ीर लगती है
उफ़ वो कितने अमीर होते हैं

जिन को क़ुदरत ने हुस्न बख़्शा हो
क़ुदरतन कुछ शरीर होते हैं

है ख़ुशी भी अजीब शय लेकिन
ग़म बड़े दिल-पज़ीर होते हैं

ऐ 'अदम' एहतियात लोगों से
लोग मुनकिर-नकीर होते हैं

जो लोग जान बूझ के नादान बन गए

जो लोग जान बूझ के नादान बन गए
मेरा ख़्याल है कि वो इन्सान बन गए

हम हश्र में गए मगर कुछ न पूछिए
वो जान बूझ कर वहाँ अनजान बन गए

हँसते हैं हम को देख के अर्बाब-ए-आग,
हम आप की मिज़ाज की पहचान बन गए

इन्सानियत की बात तो इतनी है शेख़ जी
बदक़िस्मती से आप भी इन्सान बन गए

काँटे बहुत थे दामन-ए-फ़ितरत में ऐ “अदम”
कुछ फूल और कुछ मेरे अरमान बन गए

ज़ख़्म दिल के अगर सिए होते

ज़ख़्म दिल के अगर सिए होते
अहल-ए-दिल किस तरह जिए होते

वो मिले भी तो इक झिझक सी रही
काश थोड़ी सी हम पिए होते

आरज़ू मुतमइन तो हो जाती
और भी कुछ सितम किए होते

लज़्ज़त-ए-ग़म तो बख़्श दी उस ने
हौसले भी 'अदम' दिए होते

ज़बाँ पर आप का नाम आ रहा था

ज़बाँ पर आप का नाम आ रहा था
ग़म-ए-हस्ती को आराम आ रहा था

ख़ुदा का शुक्र तेरी ज़ुल्फ़ बिखरी
बड़ी गर्मी का हंगाम आ रहा था

सितारे सो गए अंगड़ाई ले कर
कि अफ़्साने का अंजाम आ रहा था

तड़प कर मैं ने तौबा तोड़ डाली
तिरी रहमत पे इल्ज़ाम आ रहा था

'अदम' दिल खो के आसूदा नहीं हम
बुरा था या भला काम आ रहा था

ज़ुल्फ़-ए-बरहम सँभाल कर चलिए

ज़ुल्फ़-ए-बरहम सँभाल कर चलिए
रास्ता देख-भाल कर चलिए

मौसम-ए-गुल है अपनी बाँहों को
मेरी बाँहों में डाल कर चलिए

मय-कदे में न बैठिए ताहम
कुछ तबीअ'त बहाल कर चलिए

कुछ न देंगे तो क्या ज़ियाँ होगा
हर्ज क्या है सवाल कर चलिए

है अगर क़त्ल-ए-आम की निय्यत
जिस्म की छब निकाल कर चलिए

किसी नाज़ुक-बदन से टकरा कर
कोई कस्ब-ए-कमाल कर चलिए

या दुपट्टा न लीजिए सर पर
या दुपट्टा सँभाल कर चलिए

यार दोज़ख़ में हैं मुक़ीम 'अदम'
ख़ुल्द से इंतिक़ाल कर चलिए

डाल कर कुछ तही प्यालों में

डाल कर कुछ तही प्यालों में
रंग भर दो मेरे ख़यालों में

ख्वाहिशें मर गईं ख़यालों में
पेच आया न उनके बालों में

उसने कोई जवाब ही न दिया
लोग उलझे रहे सवालों में

दैरो-काबे की बात मत पूछॊ
वाकि़यत गुम है इन मिसालों में

आज तक दिल में रौशनी है "अदम"
घिर गए थे परी जमालों में

(तही=खाली, वाकि़यत=असलियत)

तकलीफ़ मिट गई मगर एहसास रह गया

तकलीफ़ मिट गई मगर एहसास रह गया
ख़ुश हूँ कि कुछ न कुछ तो मिरे पास रह गया

पल-भर में उस की शक्ल न आई अगर नज़र
यक-दम उलझ के रिश्ता-ए-अन्फ़ास रह गया

फोटो में दिल की चोट न तब्दील हो सकी
नक़लें उतार उतार के अक्कास रह गया

वो झूटे मोतियों की चमक पर फिसल गई
मैं हाथ में लिए हुए अल्मास रह गया

इक हम-सफ़र को खो के ये हालत हुई 'अदम'
जंगल में जिस तरह कोई बे-आस रह गया

तही सा जाम तो था गिर के बह गया होगा

तही सा जाम तो था गिर के बह गया होगा
मिरा नसीब अज़ल में ही रह गया होगा

है अहरमन से न मालूम क्यूँ ख़फ़ा यज़्दाँ
ग़रीब कोई खरी बात कह गया होगा

हम और लोग हैं हम से बहुत ग़ुरूर न कर
कलीम था जो तिरा नाज़ सह गया होगा

क़रीब-ए-का'बा पहुँच कर 'अदम' को मत ढूँडो
वो हीला-जू कहीं रस्ते में रह गया होगा

तेरे दर पे वो आ ही जाते हैं

तेरे दर पे वो आ ही जाते हैं
जिन को पीने की आस है साक़ी

आज इतनी पिला दे आँखों से
ख़त्म रिन्दों की प्यास हो साक़ी

हल्का हल्का सुरूर है साक़ी
बात कोई ज़रूर है साक़ी

तेरी आँखें किसी को क्या देंगी
अपना अपना सुरूर है साक़ी

तेरी आँखों को कर दिया सजदा
मेरा पहला कुसूर है साक़ी

तेरे रुख़ पे ये परेशां ज़ुल्फें
इक अन्धेरे में नूर है साक़ी

पीने वालों को भी नहीं मालूम
मैकदा कितनी दूर है साक़ी

तौबा का तकल्लुफ़ कौन करे हालात की निय्यत ठीक नहीं

तौबा का तकल्लुफ़ कौन करे हालात की निय्यत ठीक नहीं
रहमत का इरादा बिगड़ा है बरसात की निय्यत ठीक नहीं

ऐ शम्अ बचाना दामन को इस्मत से मोहब्बत अर्ज़ां है
आलूदा-नज़र परवानों के जज़्बात की निय्यत ठीक नहीं

कल क़त्अ तअ'ल्लुक़ कर लेना इस वक़्त तो दुनिया मेरी है
ये रात की क़स्में झूटी हैं ये रात की निय्यत ठीक नहीं

ऐसा नज़र आता है जैसे ये शय मुझे पागल कर देगी
थोड़ी सी तवज्जोह बर-हक़ है बोहतात की निय्यत ठीक नहीं

रफ़्तार-ए-ज़माना का लहजा सफ़्फ़ाक दिखाई देता है
बर-वक़्त कोई तदबीर करो आफ़ात की निय्यत ठीक नहीं

मय-ख़ाने की रस्म-ओ-राह में भी हो जाए न शामिल खोट कहें
ख़ुद्दाम फ़रेब-आमादा हैं ख़िदमात की निय्यत ठीक नहीं

थोड़ा सा कड़ा गर दिल को करूँ आदात बदल तो सकती हैं
पर अस्ल मुसीबत तो ये है आदात की निय्यत ठीक नहीं

डरता हूँ 'अदम' फिर आज कहीं शो'ला न उठे बिजली न गिरे
बरबत की तबीअ'त उलझी है नग़्मात की निय्यत ठीक नहीं

दरोग़ के इम्तिहाँ-कदे में सदा यही कारोबार होगा

दरोग़ के इम्तिहाँ-कदे में सदा यही कारोबार होगा
जो बढ़ के ताईद-ए-हक़ करेगा वही सज़ावार-ए-दार होगा

बिला-ग़रज़ सादा सादा बातों से डाल दें रस्म दोस्ती की
जो सिलसिला इस तरह चलेगा वो लाज़िमन पाएदार होगा

चलो मोहब्बत की बे-ख़ुदी के हसीन ख़ल्वत-कदे में बैठें
अजीब मसरूफ़ियत रहेगी न ग़ैर होगा न यार होगा

तिरे गुलिस्ताँ की आबरू है महक तिरी इन्फ़िरादियत की
तू कस्मपुर्सी से बुझ भी जाए तो ग़ैरत-ए-नौ-बहार होगा

जहाँ न तू हो न कोई हमदर्द हो न कोई शरीफ़ दुश्मन
मैं सोचता हूँ मुझे वो माहौल किस तरह साज़गार होगा

बहिश्त में भी जनाब-ए-ज़ाहिद तुम्हें न तरजीह मिल सकेगी
वहाँ भी ख़ुश-ज़ौक़ आसियों का तपाक से इंतिज़ार होगा

'अदम' की शब-ख़ेज़ियों के अहवाल यूँ सुनाते हैं उस के महरम
कि सुनने वाले ये मान जाएँ कोई तहज्जुद-गुज़ार होगा

दिल डूब न जाएँ प्यासों के तकलीफ़ ज़रा फ़रमा देना

दिल डूब न जाएँ प्यासों के तकलीफ़ ज़रा फ़रमा देना
ऐ दोस्त किसी मय-ख़ाने से कुछ ज़ीस्त का पानी ला देना

तूफ़ान-ए-हवादिस से प्यारे क्यूँ इतना परेशाँ होता है
आसार अगर अच्छे न हुए इक साग़र-ए-मय छलका देना

ज़ुल्मात के झुरमुट वैसे तो बिजली की चमक से डरते हैं
पर बात अगर कुछ बढ़ जाए तारों से सुबू टकरा देना

हम हश्र में आते तो उन की तश्हीर का बाइ'स हो जाते
तश्हीर से बचने वालों को ये बात ज़रा समझा देना

मैं पैरहन-ए-हस्ती में बहुत उर्यां सा दिखाई देता हूँ
ऐ मौत मिरी उर्यानी को मल्बूस-ए-'अदम' पहना देना

दिल को दिल से काम रहेगा

दिल को दिल से काम रहेगा
दोनों तरफ़ आराम रहेगा

सुब्ह का तारा पूछ रहा है
कब तक दौर-ए-जाम रहेगा

बदनामी से क्यूँ डरते हो
बाक़ी किस का नाम रहेगा

ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ ही अच्छी है
आलम ज़ेर-ए-दाम रहेगा

मुफ़्ती से झगड़ा न 'अदम' कर
उस से अक्सर काम रहेगा

दिल है बड़ी ख़ुशी से इसे पाएमाल कर

दिल है बड़ी ख़ुशी से इसे पाएमाल कर
लेकिन तिरे निसार ज़रा देख-भाल कर

इतना तो दिल-फ़रेब न था दाम-ए-ज़िंदगी
ले आए ए'तिबार के साँचे में ढाल कर

साक़ी मिरे ख़ुलूस की शिद्दत को देखना
फिर आ गया हूँ गर्दिश-ए-दौराँ को टाल कर

ऐ दोस्त तेरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की ख़ैर हो
मेरी तबाहियों का न इतना ख़याल कर

आया हूँ यूँ बचा के हवादिस से ज़ीस्त को
लाते हैं जैसे कोह से चश्मा निकाल कर

थोड़े से फ़ासले में भी हाएल हैं लग़्ज़िशें
साक़ी सँभाल कर मिरे साक़ी सँभाल कर

हम से 'अदम' छुपाओ तो ख़ुद भी न पी सको
रक्खा है तुम ने कुछ तो सुराही में डाल कर

दुआएँ दे के जो दुश्नाम लेते रहते हैं

दुआएँ दे के जो दुश्नाम लेते रहते हैं
वो जाम देते हैं और जाम लेते रहते हैं

ख़फ़ा न हो कि हमारा क़ुसूर कोई नहीं
बिला-इरादा तिरा नाम लेते रहते हैं

हुजूम-ए-ग़म में तिरा नाम भूल भी जाए
तो फिर भी जैसे तिरा नाम लेते रहते हैं

ये नाम ऐसा है बिल्कुल ही गर न लें उस को
तो फिर भी हम सहर-ओ-शाम लेते रहते हैं

तिरी निगाह का क्या क़र्ज़ हम उतारेंगे
तिरी नज़र से बड़े काम लेते रहते हैं

मैं वो मुसाफ़िर-ए-रौशन-ख़याल हूँ यारो
जो रास्ते में भी आराम लेते रहते हैं

ग़म-ए-हयात की तालीम-ओ-तर्बियत के लिए
तिरी निगाह के अहकाम लेते रहते हैं

पड़ी है यूँ हमें बद-नामियों की चाट 'अदम'
कि मुस्कुरा के हर इल्ज़ाम लेते रहते हैं

देख कर दिल-कशी ज़माने की

देख कर दिल-कशी ज़माने की
आरज़ू है फ़रेब खाने की

ऐ ग़म-ए-ज़िंदगी न हो नाराज़
मुझ को आदत है मुस्कुराने की

ज़ुल्मतों से न डर कि रस्ते में
रौशनी है शराब-ख़ाने की

आ तिरे गेसुओं को प्यार करूँ
रात है मिशअलें जलाने की

किस ने साग़र 'अदम' बुलंद किया
थम गईं गर्दिशें ज़माने की

फूलों की आरज़ू में बड़े ज़ख़्म खाये हैं

फूलों की आरज़ू में बड़े ज़ख़्म खाये हैं
लेकिन चमन के ख़ार भी अब तक पराये हैं

उस पर हराम है ग़म-ए-दौराँ की तल्ख़ियाँ
जिसके नसीब में तेरी ज़ुल्फ़ों के साये हैं

महशर में ले गैइ थी तबियत की सादगी
लेकिन बड़े ख़ुलूस से हम लौट आये हैं

आया हूँ याद बाद-ए-फ़ना उनको भी 'अदम
क्या जल्द मेरे सीख पे इमान लाये हैं

फूलों की टहनियों पे नशेमन बनाइये

फूलों की टहनियों पे नशेमन बनाइये
बिजली गिरे तो जश्ने-चिरागां मनाइये

कलियों के अंग अंग में मीठा सा दर्द है
बिमार निकाहतों को ज़रा गुदगुदाइये

कब से सुलग रही है जवानी की गर्म रात
ज़ुल्फें बिखेर कर मेरे पहलू में आईये

बहकी हुई सियाह घटाओं के साथ साथ
जी चाहता है शाम-ए-अबद तक तो जाईये

सुन कर जिस हवास में ठंडक सी आ बसे
ऐसी काई उदास कहानी सुनाईये

रस्ते पे हर कदम पे ख़राबात हैं ”अदम”
ये हाल हो तो किस तरह दामन बचाईये

फ़क़ीर किस दर्जा शादमाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

फ़क़ीर किस दर्जा शादमाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा
हुज़ूर किस दर्जा मेहरबाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

वो मय-कदा था सनम-कदा था कि बाब-ए-जन्नत खुले हुए थे
तमाम शब आप हम कहाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

वहाँ बहारों के ज़मज़मे थे वहाँ निगारों के जमगठे थे
वहाँ सितारों के कारवाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

पहन के फूलों के ताज सर पर हसीन-ओ-शादाब मसनदों पर
सुबू-ब-कफ़ कौन हुक्मराँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

मराहिल-ए-राहत-ओ-अमाँ थे मसाइल-ए-माह-ओ-कहकशाँ थे
मशाग़िल-ए-हर्फ़-ओ-दास्ताँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

अगरचे शौक़-ओ-तलब थे बे-साख़्ता हम-आग़ोशियों पे माइल
कई तकल्लुफ़ भी दरमियाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

लतीफ़ शामें तबीअतों के ज़मीर से ख़ूब आश्ना थीं
हसीं सवेरे मिज़ाज-दाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

नज़र की हद तक मुहीत था सिलसिला महकते हुए गुलों का
गुलों में परियों के घर निहाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

अजीब साँचे की कश्तियाँ बह रही थीं लहरों के ज़ेर-ओ-बम पर
अजीब सूरत के बादबाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

उलूहियत आप इस हसीं इत्तिफ़ाक़ पर मुस्कुरा रही थी
सनम ख़ुदाओं के मेहमाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

जो वाक़िए थे वो गूँजते ज़मज़मों के मानिंद मौजज़न थे
जो ख़्वाब थे सर्व-ए-बोस्ताँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

कहीं कहीं सलसबील ओ कौसर की जोत मौजूद थी ज़मीं पर
कहीं कहीं अर्श-ओ-आसमाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

शब-ए-मोहब्बत हुज़ूर की काकुलों के खुलने के सिलसिले में
'अदम' के इसरार क्या जवाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा

बस इस क़दर है ख़ुलासा मिरी कहानी का

बस इस क़दर है ख़ुलासा मिरी कहानी का
कि बन के टूट गया इक हबाब पानी का

मिला है साक़ी तो रौशन हुआ है ये मुझ पर
कि हज़्फ़ था कोई टुकड़ा मिरी कहानी का

मुझे भी चेहरे पे रौनक़ दिखाई देती है
ये मो'जिज़ा है तबीबों की ख़ुश-बयानी का

है दिल में एक ही ख़्वाहिश वो डूब जाने की
कोई शबाब कोई हुस्न है रवानी का

लिबास-ए-हश्र में कुछ हो तो और क्या होगा
बुझा सा एक छनाका तिरी जवानी का

करम के रंग निहायत अजीब होते हैं
सितम भी एक तरीक़ा है मेहरबानी का

'अदम' बहार के मौसम ने ख़ुद-कुशी कर ली
खुला जो रंग किसी जिस्म-ए-अर्ग़वानी का

बहुत से लोगों को ग़म ने जिला के मार दिया

बहुत से लोगों को ग़म ने जिला के मार दिया
जो बच रहे थे उन्हें मय पिला के मार दिया

ये क्या अदा है कि जब उन की बरहमी से हम
न मर सके तो हमें मुस्कुरा के मार दिया

न जाते आप तो आग़ोश क्यूँ तही होती
गए तो आप ने पहलू से जा के मार दिया

मुझे गिला तो नहीं आप के तग़ाफ़ुल से
मगर हुज़ूर ने हिम्मत बढ़ा के मार दिया

न आप आस बँधाते न ये सितम होता
हमें तो आप ने अमृत पिला के मार दिया

किसी ने हुस्न-ए-तग़ाफ़ुल से जाँ तलब कर ली
किसी ने लुत्फ़ के दरिया बहा के मार दिया

जिसे भी मैं ने ज़ियादा तपाक से देखा
उसी हसीन ने पत्थर उठा के मार दिया

वो लोग माँगेंगे अब ज़ीस्त किस के आँचल से?
जिन्हें हुज़ूर ने दामन छुड़ा के मार दिया

चले तो ख़ंदा-मिज़ाजी से जा रहे थे हम
किसी हसीन ने रस्ते में आ के मार दिया

रह-ए-हयात में कुछ ऐसे पेच-ओ-ख़म तो न थे
किसी हसीन ने रस्ते में आ के मार दिया

करम की सूरत-ए-अव्वल तो जाँ-गुदाज़ न थी
करम का दूसरा पहलू दिखा के मार दिया

अजीब रस-भरा रहज़न था जिस ने लोगों को
तरह तरह की अदाएँ दिखा के मार दिया

अजीब ख़ुल्क़ से इक अजनबी मुसाफ़िर ने
हमें ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो बुला के मार दिया

'अदम' बड़े अदब-आदाब से हसीनों ने
हमें सितम का निशाना बना के मार दिया

तअ'य्युनात की हद तक तो जी रहा था 'अदम'
तअ'य्युनात के पर्दे उठा के मार दिया

बातें तेरी वो वो फ़साने तेरे

बातें तेरी वो वो फ़साने तेरे
शगुफ़्ता शगुफ़्ता बहाने तेरे

बस एक ज़ख़्म नज़्ज़ारा हिस्सा मेरा
बहारें तेरी आशियाने तेरे

बस एक दाग़-ए-सज्दा मेरी क़ायनात
जबीनें तेरी आस्ताने तेरे

ज़मीर-ए-सदफ़ में किरन का मुक़ाम
अनोखे अनोखे ठिकाने तेरे

फ़क़ीरों का जमघट घड़ी दो घड़ी
शराबें तेरी बादाख़ाने तेरे

बहार-ओ-ख़िज़ाँ कम निगाहों के वहम
बुरे या भले सब ज़माने तेरे

'अदम' भी है तेरा हिकायतकदाह
कहाँ तक गये हैं फ़साने तेरे

बे-जुम्बिश-ए-अब्रू तो नहीं काम चलेगा

बे-जुम्बिश-ए-अब्रू तो नहीं काम चलेगा
आ कर मिरे क़िस्से में तिरा नाम चलेगा

ठहरा है मिरे ज़ेहन में जो क़ाफ़िला-ए-गुल
थोड़ा सा तो ले कर यहाँ आराम चलेगा

ज़ुहहाद की माला नहीं जो रात को निकले
रिंदों का पियाला है सर-ए-शाम चलेगा

तू रक़्स करे गिर्द मिरे और मैं गाऊँ
ये खेल भी ऐ गर्दिश-ए-अय्याम चलेगा

छुप छुप के जो आता है अभी मेरी गली में
इक रोज़ मिरे साथ सर-ए-आम चलेगा

बे-सबब क्यूँ तबाह होता है

बे-सबब क्यूँ तबाह होता है
फ़िक्र-ए-फ़र्दा गुनाह होता है

तुझ को क्या दूसरों के ऐबों से
क्यूँ अबस रू-सियाह होता है

मुझ को तन्हा न छोड़ कर जाओ
ये ख़ला बे-पनाह होता है

ज़क उसी से बहुत पहुँचती है
जो मिरा ख़ैर-ख़्वाह होता है

उस घड़ी उस से माँग लो सब कुछ
जब 'अदम' बादशाह होता है

भूली-बिसरी बातों से क्या तश्कील-ए-रूदाद करें

भूली-बिसरी बातों से क्या तश्कील-ए-रूदाद करें
हम को तो कुछ याद नहीं है आप ही कुछ इरशाद करें

पहले-पहल जब आप का जोबन इतना शहर-आशोब न था
इक मुश्ताक़ से सादा-दिल इंसाँ की परस्तिश याद करें

आप से मुमकिन है दिल-जूई यज़्दाँ की ये रीत नहीं
जिस को सुन कर चुप रहना है उस से क्या फ़रियाद करें

इश्क़ ने सौंपा है काम अपना अब तो निभाना ही होगा
मैं भी कुछ कोशिश करता हूँ आप भी कुछ इमदाद करें

जुज़्व-ए-तबीअ'त बन जाएँ तो जौर करम हो जाते हैं
लुत्फ़ न अब राइज फ़रमाएँ सिर्फ़ सितम ईजाद करें

भूले से कभी ले जो कोई नाम हमारा

भूले से कभी ले जो कोई नाम हमारा
मर जाए ख़ुशी से दिल-ए-नाकाम हमारा

ले जाती है उस सम्त हमें गर्दिश-ए-दौराँ
ऐ दोस्त ख़राबात से क्या काम हमारा

कर लेते हैं तख़्लीक़ कोई वज्ह-ए-अज़िय्यत
भाता नहीं ख़ुद हम को भी आराम हमारा

ऐ गर्दिश-ए-दौराँ ये कोई सोच की रुत है
कम-बख़्त अभी दौर में है जाम हमारा

इस बार तो आया था इधर क़ासिद-ए-जाँ ख़ुद
सरकार को पहुँचा नहीं पैग़ाम हमारा

पहुँचाई है तकलीफ़ बहुत पहले ही तुझ को
ऐ राह-नुमा हाथ न अब थाम हमारा

ऐ क़ाफ़िला-ए-होश गँवा वक़्त न अपना
पड़ता नहीं कुछ ठीक अभी गाम हमारा

देखा है हरम तेरा मगर हाए-रे ज़ाहिद
महका हुआ वो कूचा-ए-असनाम हमारा

ग़िलमान भी जन्नत के बड़ी चीज़ हैं लेकिन
तौबा मिरी वो साक़ी-ए-गुलफ़ाम हमारा

गुल नौहा-कुनाँ ओ सनम-ए-दस्त-ब-सीना
अल्लाह ग़नी! लम्हा-ए-अंजाम हमारा

कर बैठे हैं हम भूल के तौबा जो सहर को
शीशे को तआ'क़ुब है सर-ए-शाम हमारा

मय पीना 'अदम' और क़दम चूमना उन के
है शग़्ल यही अब सहर-ओ-शाम हमारा

मतलब मुआ'मलात का कुछ पा गया हूँ मैं

मतलब मुआ'मलात का कुछ पा गया हूँ मैं
हँस कर फ़रेब-ए-चश्म-ए-करम खा गया हूँ मैं

बस इंतिहा है छोड़िए बस रहने दीजिए
ख़ुद अपने ए'तिमाद से शर्मा गया हूँ मैं

साक़ी ज़रा निगाह मिला कर तो देखना
कम्बख़्त होश में तो नहीं आ गया हूँ मैं

शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आप
महफ़िल में इस ख़याल से फिर आ गया हूँ मैं

क्या अब हिसाब भी तू मिरा लेगा हश्र में
क्या ये इ'ताब कम है यहाँ आ गया हूँ मैं

मैं इश्क़ हूँ मिरा भला क्या काम दार से
वो शरअ' थी जिसे वहाँ लटका गया हूँ मैं

निकला था मय-कदे से कि अब घर चलूँ 'अदम'
घबरा के सू-ए-मय-कदा फिर आ गया हूँ मैं

मय-कदा था चाँदनी थी मैं न था

मय-कदा था चाँदनी थी मैं न था
इक मुजस्सम बे-ख़ुदी थी मैं न था

इश्क़ जब दम तोड़ता था तुम न थे
मौत जब सर धुन रही थी मैं न था

तूर पर छेड़ा था जिस ने आप को
वो मिरी दीवानगी थी मैं न था

वो हसीं बैठा था जब मेरे क़रीब
लज़्ज़त-हम-सायगी थी मैं न था

मय-कदे के मोड़ पर रुकती हुई
मुद्दतों की तिश्नगी थी मैं न था

थी हक़ीक़त कुछ मिरी तो इस क़दर
उस हसीं की दिल-लगी थी मैं न था

मैं और उस ग़ुंचा-दहन की आरज़ू
आरज़ू की सादगी थी मैं न था

जिस ने मह-पारों के दिल पिघला दिए
वो तो मेरी शाएरी थी मैं न था

गेसुओं के साए में आराम-कश
सर-बरहना ज़िंदगी थी मैं न था

दैर ओ काबा में 'अदम' हैरत-फ़रोश
दो-जहाँ की बद-ज़नी थी मैं न था

मय-ख़ाना-ए-हस्ती में अक्सर हम अपना ठिकाना भूल गए

मय-ख़ाना-ए-हस्ती में अक्सर हम अपना ठिकाना भूल गए
या होश में जाना भूल गए या होश में आना भूल गए

अस्बाब तो बन ही जाते हैं तक़दीर की ज़िद को क्या कहिए
इक जाम तो पहुँचा था हम तक हम जाम उठाना भूल गए

आए थे बिखेरे ज़ुल्फ़ों को इक रोज़ हमारे मरक़द पर
दो अश्क तो टपके आँखों से दो फूल चढ़ाना भूल गए

चाहा था कि उन की आँखों से कुछ रंग-ए-बहाराँ ले लीजे
तक़रीब तो अच्छी थी लेकिन दो आँख मिलाना भूल गए

मालूम नहीं आईने में चुपके से हँसा था कौन 'अदम'
हम जाम उठाना भूल गए वो साज़ बजाना भूल गए

मिरा इख़्लास भी इक वज्ह-ए-दिल-आज़ारी है

मिरा इख़्लास भी इक वज्ह-ए-दिल-आज़ारी है
बंदा-परवर मुझे एहसास-ए-गुनहगारी है

आप अज़िय्यत का बनाते हैं जो ख़ूगर मुझ को
इस से बेहतर भला क्या सूरत-ए-ग़म-ख़्वारी है

महज़ तस्कीन-बरआरी के बहाने हैं सब
मैं तो कहता हूँ मोहब्बत भी रिया-कारी है

मश्क़ करता है नसीहत की जिन अय्याम में तू
वाइज़-ए-शहर वही मौसम-ए-मय-ख़्वारी है

कैसे आएगा न सर-दर्द को आराम 'अदम'
मेरे अहबाब को तक़रीर की बीमारी है

मुझ से चुनाँ-चुनीं न करो मैं नशे मैं हूँ

मुझ से चुनाँ-चुनीं न करो मैं नशे मैं हूँ
मैं जो कहूँ नहीं न करो मैं नशे में हूँ

इंसाँ नशे में हो तो वो छुपता नहीं कभी
हर-चंद तुम यक़ीं न करो मैं नशे में हूँ

ये वक़्त है फ़राख़-दिली के सुलूक का
तंग अपनी आस्तीं न करो मैं नशे में हूँ

बे-इख़्तियार चूम न लूँ मैं कहीं इन्हें
आँखों को ख़शमगीं न करो मैं नशे में हूँ

हर-चंद मेरे हक़ में है ये रहमत-ए-ख़ुदा
आँचल मिरे क़रीं न करो मैं नशे में हूँ

नश्शे में सुर्ख़ रंग तही-अज़-ख़तर नहीं?
होंटों को अहमरीं न करो मैं नशे में हूँ

देखो मैं कह रहा हूँ तुम्हें पय-ब-पय 'अदम'
मुझ को बहुत हज़ीं न करो मैं नशे में हूँ

मुश्किल ये आ पड़ी है कि गर्दिश में जाम है

मुश्किल ये आ पड़ी है कि गर्दिश में जाम है
ऐ होश वर्ना मुझ को तिरा एहतिराम है

फ़ुर्सत का वक़्त ढूँढ के मिलना कभी अजल
तुझ को भी काम है अभी मुझ को भी काम है

आती बहुत क़रीब से ख़ुश्बू है यार की
जारी इधर उधर ही कहीं दौर-ए-जाम है

कुछ ज़हर को तरसते हैं कुछ मय में ग़र्क़ हैं
साक़ी ये तेरी बज़्म का क्या इंतिज़ाम है

मय और हराम? हज़रत-ए-ज़ाहिद ख़ुदा का ख़ौफ़
वो तो कहा गया था कि मस्ती हराम है

ऐ ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं ज़रा लहरा के फैलना
इक रात इस चमन में मिरा भी क़याम है

ऐ ज़िंदगी तू आप ही चुपके से देख ले
जाम-ए-अदम पे लिक्खा हुआ किस का नाम है

मुस्कुरा कर ख़िताब करते हो

मुस्कुरा कर ख़िताब करते हो
आदतें क्यूँ ख़राब करते हो

मार दो मुझ को रहम-दिल हो कर
क्या ये कार-ए-सवाब करते हो

मुफ़्लिसी और किस को कहते हैं!
दौलतों का हिसाब करते हो

सिर्फ़ इक इल्तिजा है छोटी सी
क्या उसे बारयाब करते हो

हम तो तुम को पसंद कर बैठे
तुम किसे इंतिख़ाब करते हो

ख़ार की नोक को लहू दे कर
इंतिज़ार-ए-गुलाब करते हो

ये नई एहतियात देखी है
आइने से हिजाब करते हो

क्या ज़रूरत है बहस करने की
क्यूँ कलेजा कबाब करते हो

हो चुका जो हिसाब होना था
और अब क्या हिसाब करते हो

एक दिन ऐ 'अदम' न पी तो क्या
रोज़ शग़्ल-ए-शराब करते हो

कितने बे-रहम हो 'अदम' तुम भी
ज़िक्र-ए-अहद-ए-शबाब करते हो

हो किसी की ख़ुशी गर इस में 'अदम'
जुर्म का इर्तिकाब करते हो

मुंक़लिब सूरत-ए-हालात भी हो जाती है

मुंक़लिब सूरत-ए-हालात भी हो जाती है
दिन भले हों तो करामात भी हो जाती है

हुस्न को आता है जब अपनी ज़रूरत का ख़याल
इश्क़ पर लुत्फ़ की बरसात भी हो जाती है

दैर ओ काबा ही इस का न तअ'ल्लुक़ समझो
ज़िंदगी है ये ख़राबात भी हो जाती है

जब्र से ताअत-ए-यज़्दाँ भी है बार-ए-ख़ातिर
प्यार से आदत-ए-ख़िदमात भी हो जाती है

दावर-ए-हश्र मुझे अपना मुसाहिब न समझ
बाज़ औक़ात खरी बात भी हो जाती है

हश्र में ले के चलो मुतरिब ओ माशूक़ ओ सुबू
ग़ैर के घर में कभी रात भी हो जाती है

बाज़ औक़ात किसी और के मिलने से 'अदम'
अपनी हस्ती से मुलाक़ात भी हो जाती है

मोहतात ओ होशियार तो बे-इंतिहा हूँ मैं

मोहतात ओ होशियार तो बे-इंतिहा हूँ मैं
अमदन तिरा फ़रेब-ए-नज़र खा गया हूँ मैं

क्या ये सुबूत कम नहीं मेरी वफ़ाओं का
मैं आप कह रहा हूँ बहुत बेवफ़ा हूँ मैं

ऐसे गिरा हूँ तेरी ख़ुदाई के सामने
महसूस हो रहा है ख़ुदा हो गया हूँ मैं

मेरे सुकूत को मिरी आवाज़ मत समझ
इस पैरहन में तेरे सितम की सदा हूँ मैं

ये इंतिहा है मेरे अदब की कि ऐ 'अदम'
उस का वजूद हो के भी उस से जुदा हूँ मैं

ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है

ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है
मिरी समाअत खनक रही है कि तेरी आवाज़ आ रही है

हवादिस-ए-रोज़गार मेरी ख़ुशी से क्या इंतिक़ाम लेंगे
कि ज़िंदगी वो हसीन ज़िद है कि बे-सबब मुस्कुरा रही है

तिरा तबस्सुम फ़रोग़-ए-हस्ती तिरी नज़र ए'तिबार-ए-मस्ती
बहार इक़रार कर रही है शराब ईमान ला रही है

फ़साना-ख़्वाँ देखना शब-ए-ज़िंदगी का अंजाम तो नहीं है
कि शम्अ के साथ रफ़्ता रफ़्ता मुझे भी कुछ नींद आ रही है

अगर कोई ख़ास चीज़ होती तो ख़ैर दामन भिगो भी लेते
शराब से तो बहुत पुराने मज़ाक़ की बास आ रही है

ख़िरद के टूटे हुए सितारे 'अदम' कहाँ तक चराग़ बनते
जुनूँ की रौशन रविश है आख़िर दिलों को रस्ते दिखा रही है

रक़्स करता हूँ जाम पीता हूँ

रक़्स करता हूँ जाम पीता हूँ
आम मिलती है आम पीता हूँ

झूट मैं ने कभी नहीं बोला
ज़ाहिदान-ए-किराम पीता हूँ

रुख़ है पुर-नूर तो तअ'ज्जुब क्या
बादा-ए-लाला-फ़ाम पीता हूँ

इतनी तेज़ी भी क्या पिलाने में
आबगीने को थाम पीता हूँ

काम भी इक नमाज़ है मेरी
ख़त्म करते ही काम पीता हूँ

तेरे हाथों से किस को मिलती है?
मेरे माह-ए-तमाम पीता हूँ

ज़िंदगी का सफ़र ही ऐसा है
दम-ब-दम गाम गाम पीता हूँ

मुझ को मय से बड़ी मोहब्बत है
मैं ब-सद-एहतिराम पीता हूँ

मय मिरे होंट चूम लेती है
ले के जब तेरा नाम पीता हूँ

शैख़ ओ मुफ़्ती 'अदम' जब आ जाएँ
बन के उन का इमाम पीता हूँ

रिंद और तर्के-ख़राबात, बड़ी मुश्किल है

रिंद और तर्के-ख़राबात, बड़ी मुश्किल है
शैख़ साहब ये करामात बड़ी मुश्किल है

आप अगर बात पे कुछ ग़ौर करें बन्दा-नवाज़
बात आसान नहीं, बात बड़ी मुश्किल है

लाइये कूज़ा-ए-सहबा कि कुदूरत धोलें
बेवुज़ू हम से मुनाजात, बड़ी मुश्किल है

दूसरों से बहुत आसान है मिलना साक़ी
अपनी हस्ती से मुलाक़ात बड़ी मुश्किल है

गो हर इक रात है तकलीफ़ से लबरेज़ ‘अदम’
लोग कहते हैं कि इक रात बड़ी मुश्किल है

लहरा के झूम झूम के ला मुस्कुरा के ला

लहरा के झूम झूम के ला मुस्कुरा के ला
फूलों के रस में चाँद की किरनें मिला के ला

कहते हैं उम्र-ए-रफ़्ता कभी लौटती नहीं
जा मय-कदे से मेरी जवानी उठा के ला

साग़र-शिकन है शैख़-ए-बला-नोश की नज़र
शीशे को ज़ेर-ए-दामन-ए-रंगीं छुपा के ला

क्यूँ जा रही है रूठ के रंगीनी-ए-बहार
जा एक मर्तबा उसे फिर वर्ग़ला के ला

देखी नहीं है तू ने कभी ज़िंदगी की लहर
अच्छा तो जा 'अदम' की सुराही उठा के ला

वो अबरू याद आते हैं वो मिज़्गाँ याद आते हैं

वो अबरू याद आते हैं वो मिज़्गाँ याद आते हैं
न पूछो कैसे कैसे तीर-ओ-पैकाँ याद आते हैं

वो जिन के तहत झुक जाता था सर असनाम के आगे
वही भूले हुए अहकाम-ए-यज़्दाँ याद आते हैं

जो अक्सर बार-वर होने से पहले टूट जाते थे
वही ख़स्ता शिकस्ता अहद-ओ-पैमाँ याद आते हैं

वो मरमर की तरह शफ़्फ़ाफ़ और हँसते हुए आ'ज़ा
हयात-ए-जाविदाँ के साज़-ओ-सामाँ याद आते हैं

गुमाँ होता है वहशी निकहतों ने भेंच डाला है
कुछ इतने बे-महाबा सुंबुलिस्ताँ याद आते हैं

वो गुल-अंदाज़ जिन का ख़ल्क़ सरमाया था जीने का
वो बन बन कर चराग़-ए-महफ़िल जाँ याद आते हैं

ख़याल आता है जब भी दिलबरों की हम-नशीनी का
तलातुम रंग के ख़ुशबू के तूफ़ाँ याद आते हैं

उड़ी फिरती थी बोसों की चटक जिन की फ़ज़ाओं में
वो एहसासात में डूबे शबिस्ताँ याद आते हैं

फ़क़ीह-ओ-शैख़ के ज़ेहनों में बुत होंगे ख़ुदाओं के
मैं इंसाँ हूँ मुझे तो सिर्फ़ इंसाँ याद आते हैं

पियाला शाम को रखता हूँ जब भी मैं 'अदम' आगे
जवाँ हम-जोलियों के रू-ए-ख़ंदाँ याद आते हैं

वो अहद-ए-जवानी वो ख़राबात का आलम

वो अहद-ए-जवानी वो ख़राबात का आलम
नग़्मात में डूबी हुई बरसात का आलम

अल्लाह-रे उस ज़ुल्फ़ के जाँ-बख़्श अँधेरे
जैसे कि महकते हुए ज़ुल्मात का आलम

ऐ राशा-ए-मस्ती का सबब पूछने वाले
देखा है कभी पहली मुलाक़ात का आलम

निकले थे मिरे साथ वो जब बज़्म-ए-अज़ल से
कुछ सुब्ह के आसार थे कुछ रात का आलम

यूँ उस की जवानी का कुछ अंदाज़ा था जैसे
मय-ख़ाने पे उमडी हुई बरसात का आलम

आँखों के तसादुम में हिकायात की दुनिया
होंटों के तसादुम में ख़राबात का आलम

आवाज़ में कलियों के चटकने की लताफ़त
रफ़्तार में बहते हुए नग़्मात का आलम

हँसती हुई आँखों से सवालात की बारिश
जलते हुए होंटों में जवाबात का आलम

कुछ मुझ को ख़बर थी न उन्हें होश था अपना
अल्लाह-रे मद-होशी ओ जज़्बात का आलम

आँखों में शफ़क़ जिस्म में मय ज़ुल्फ़ में ठंडक
आलम भी वो आलम कि ख़राबात का आलम

अन्फ़ास से आती हुई इक नर्म सी ख़ुशबू
सिमटा हुआ होंटों में मुदारात का आलम

वो चीज़ जिसे ज़िंदगी कहते हैं वो क्या है
हँसते हुए शफ़्फ़ाफ़ ख़यालात का आलम

बैठा हूँ 'अदम' ले के बड़ी देर से दिल में
कहते हैं जिसे हर्फ़-ओ-हिकायात का आलम

वो जो तेरे फ़क़ीर होते हैं

वो जो तेरे फ़क़ीर होते हैं
आदमी बे-नज़ीर होते हैं

देखने वाला इक नहीं मिलता
आँख वाले कसीर होते हैं

जिन को दौलत हक़ीर लगती है
उफ़! वो कितने अमीर होते हैं

जिन को क़ुदरत ने हुस्न बख़्शा हो
क़ुदरतन कुछ शरीर होते हैं

ज़िंदगी के हसीन तरकश में
कितने बे-रहम तीर होते हैं

वो परिंदे जो आँख रखते हैं
सब से पहले असीर होते हैं

फूल दामन में चंद रख लीजे
रास्ते में फ़क़ीर होते हैं

है ख़ुशी भी अजीब शय लेकिन
ग़म बड़े दिल-पज़ीर होते हैं

ऐ 'अदम' एहतियात लोगों से
लोग मुनकिर-नकीर होते हैं

वो बातें तिरी वो फ़साने तिरे

वो बातें तिरी वो फ़साने तिरे
शगुफ़्ता शगुफ़्ता बहाने तिरे

बस इक दाग़-ए-सज्दा मिरी काएनात
जबीनें तिरी आस्ताने तिरे

मज़ालिम तिरे आफ़ियत-आफ़रीं
मरासिम सुहाने सुहाने तिरे

फ़क़ीरों की झोली न होगी तही
हैं भरपूर जब तक ख़ज़ाने तिरे

दिलों को जराहत का लुत्फ़ आ गया
लगे हैं कुछ ऐसे निशाने तिरे

असीरों की दौलत असीरी का ग़म
नए दाम तेरे पुराने तिरे

बस इक ज़ख़्म-ए-नज़्ज़ारा हिस्सा मिरा
बहारें तिरी आशियाने तिरे

फ़क़ीरों का जमघट घड़ी-दो-घड़ी
शराबें तिरी बादा-ख़ाने तिरे

ज़मीर-ए-सदफ़ में किरन का मक़ाम
अनोखे अनोखे ठिकाने तिरे

बहार ओ ख़िज़ाँ कम-निगाहों के वहम
बुरे या भले सब ज़माने तिरे

'अदम' भी है तेरा हिकायत-कदा
कहाँ तक गए हैं फ़साने तिरे

वो सूरज इतना नज़दीक आ रहा है

वो सूरज इतना नज़दीक आ रहा है
मिरी हस्ती का साया जा रहा है

ख़ुदा का आसरा तुम दे गए थे
ख़ुदा ही आज तक काम आ रहा है

बिखरना और फिर उन गेसुओं का
दो-आलम पर अँधेरा छा रहा है

जवानी आइना ले कर खड़ी है
बहारों को पसीना आ रहा है

कुछ ऐसे आई है बाद-ए-मुआफ़िक़
किनारा दूर हटता जा रहा है

ग़म-ए-फ़र्दा का इस्तिक़बाल करने
ख़याल-ए-अहद-ए-माज़ी आ रहा है

वो इतने बे-मुरव्वत तो नहीं थे
कोई क़स्दन उन्हें बहका रहा है

कुछ इस पाकीज़गी से की है तौबा
ख़यालों पर नशा सा छा रहा है

ज़रूरत है कि बढ़ती जा रही है
ज़माना है कि घटता जा रहा है

हुजूम-ए-तिश्नगी की रौशनी में
ज़मीर-ए-मय-कदा थर्रा रहा है

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे कश्तियों को
बड़ी शिद्दत का तूफ़ाँ आ रहा है

कोई पिछले पहर दरिया-किनारे
सितारों की धुनों पर गा रहा है

ज़रा आवाज़ देना ज़िंदगी को
'अदम' इरशाद कुछ फ़रमा रहा है

शब की बेदारियाँ नहीं अच्छी

शब की बेदारियाँ नहीं अच्छी
इतनी मय-ख़्वारियाँ नहीं अच्छी

वो कहीं किब्रिया न बन जाएँ
नाज़-बर्दारियाँ नहीं अच्छी

हड्डियाँ गालने के गुर सीखूँ
सहल-अंगारियाँ नहीं अच्छी

कुछ रवादारियों की मश्क़ भी कर
सिर्फ़ अदाकारीयाँ नहीं अच्छी

हाथ से खो न बैठना उस को
इतनी ख़ुद्दारियाँ नहीं अच्छी

ऐ ग़फ़ूरुर-रहीम सच फ़रमा
क्या ख़ता-कारियाँ नहीं अच्छी

सर्दियों की तवील राते हैं

सर्दियों की तवील राते हैं
और सौदाईयों सी बातें हैं

कितनी पुर नूर थी क़दीम शबें
कितनी रौशन जदीद रातें हैं

हुस्न के बेहिसाब मज़हब हैं
इश्क़ की बेशुमार रातें हैं

तुमको फुर्सत अगर हो तो सुनो
करने वाली हज़ार बातें हैं

ज़ीस्त के मुख़्तसर से वक़्फ़े में
कितनी भरपूर वारदातें हैं

(तवील=लंबी, क़दीम=पुरानी,
जदीद=नई, वक़्फ़े=अवधि)

साग़र से लब लगा के बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

साग़र से लब लगा के बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी
सहन-ए-चमन में आके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

आ जाओ और भी ज़रा नज़दीक जान-ए-मन
तुम को करीब पाके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

होता कोई महल भी तो क्या पूछते हो
फिरबे-वजह मुस्कुरा के बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

साहिल पे भी तो इतनी शगुफ़्ता रविश है
तूफ़ां के बीच आके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

वीरान दिल है और ‘ज़िन्दगी‘ का रक़्स
जंगल में घर बनाके बहुत ख़ुश है ज़िन्दगी

सितारों के आगे जो आबादियाँ हैं

सितारों के आगे जो आबादियाँ हैं
तिरी ज़ुल्फ़ की गुम-शुदा वादियाँ हैं

ज़माना भी क्या रौनक़ों की जगह है
कहीं रोना-धोना कहीं शादियाँ हैं

तिरी काकुलें ही नहीं सब्ज़ परियाँ
मिरी आरज़ूएँ भी शहज़ादियाँ हैं

बड़ी शय है वाबस्तगी दो दिलों की
ये पाबंदियाँ ही तो आज़ादियाँ हैं

जहाँ क़द्र है कुछ न कुछ आदमी की
वो क्या क़ाबिल-ए-क़द्र आबादियाँ हैं

यकायक न दिल फेंकना आँख वालो
ये सब आँख की फ़ित्ना-ईजादियाँ हैं

ग़रीबों से क्या काम आसाइशों का
वो ऊँचे घरानों की शहज़ादियाँ हैं

'अदम' सूरतों की चमक पर न जाना
ये सब आँख की फ़ित्ना-ईजादियाँ हैं

जहाँ भी 'अदम' कोई दिलबर मकीं है
वहाँ कितनी गुंजान आबादियाँ हैं

सुना है लोग बड़े दिलनवाज़ होते है

सुना है लोग बड़े दिलनवाज़ होते है
मगर नसीब कहाँ कारसाज़ होते है

सुना है पीरे-मुगां से ये बारहा मैंने
छलक पड़े तो प्यालें भी साज़ होते है

किसी की ज़ुल्फ़ से वाबिस्तागी नहीं अच्छी
ये सिलसिले दिलेनादा दराज़ होते है

वो आईने के मुकाबिल हो जब खुदा बन कर
अदा-ओ-नाज़ सरापा नमाज़ होते है

'अदम' ख़ुलूस के बन्दों में एक खामी है
सितम ज़रीफ़ बड़े जल्दबाज़ होते है

सुबू को दौर में लाओ बहार के दिन हैं

सुबू को दौर में लाओ बहार के दिन हैं
हमें शराब पिलाओ बहार के दिन हैं

ये काम आईन-ए-इबादत है मौसम-ए-गुल में
हमें गले से लगओ बहार के दिन हैं

ठहर ठहर के न बरसो उमड़ पड़ो यक दम
सितमगरी से घटाओ बहार के दिन हैं

शिकस्ता-ए-तौबा का कब ऐसा आयेगा मौसम
'अदम' को घेर के लाओ बहार के दिन हैं

सूरज की हर किरन तेरी सूरत पे वार दूँ

सूरज की हर किरन तेरी सूरत पे वार दूँ
दोजख़ को चाहता हूँ कि जन्नत पे वार दूँ

इतनी सी है तसल्ली कि होगा मुक़ाबला
दिल क्या है जां भी अपनी क़यामत पे वार दूँ

इक ख़्वाब था जो देख लिया नींद में कभी
इक नींद है जो तेरी मुहब्बत पे वार दूँ

‘अदम‘ हसीन नींद मिलेगी कहाँ मुझे
फिर क्यूँ न ज़िन्दगानी को तुर्बत पे वार दूँ

सो के जब वो निगार उठता है

सो के जब वो निगार उठता है
मिस्ल-ए-अब्र-ए-बहार उठता है

तेरी आँखों के आसरे के बग़ैर
कब ग़म-ए-रोज़गार उठता है

दो घड़ी और दिल लुभाता जा
क्यूँ ख़फ़ा हो के यार उठता है

ऐसे जाती है ज़िंदगी की उमीद
जैसे पहलू से यार उठता है

ज़िंदगी शिरकतों से चलती है
किस से तन्हा ये बार उठता है

जो भी उठता है उस की महफ़िल से
ख़स्ता ओ दिल-फ़िगार उठता है

आज की रात ख़ैर से गुज़रे
दर्द-ए-दिल बार बार उठता है

आओ कुछ ज़िंदगी के नाज़ सहें
किस से तन्हा ये बार उठता है

होश में हो तो मय-कदे से 'अदम'
कब कोई बादा-ख़्वार उठता है

हम ने हसरतों के दाग़ आँसुओं से धो लिए

हम ने हसरतों के दाग़ आँसुओं से धो लिए
आप की ख़ुशी हुज़ूर बोलिए न बोलिए

क्या हसीन ख़ार थे जो मिरी निगाह ने
सादगी से बारहा रूह में चुभो लिए

मौसम-ए-बहार है अम्बरीं ख़ुमार है
किस का इंतिज़ार है गेसुओं को खोलिए

ज़िंदगी का रास्ता काटना तो था 'अदम'
जाग उठ तो चल दिए थक गए तो सो लिए

हम से चुनाँ-चुनीं न करो हम नशे में हैं

हम से चुनाँ-चुनीं न करो हम नशे में हैं
हम जो कहें नहीं न करो हम नशे में हैं

नश्शा कोई ढकी-छुपी तहरीक तो नहीं
हर-चंद तुम यक़ीं न करो हम नशे में हैं

ऐसा न हो कि आप की बाँहों में आ गिरें
आँखों को ख़शमगीं न करो हम नशे में हैं

बातें करो निगार ओ बहार ओ शराब की
अज़्कार-ए-शर-ओ-दीं न करो हम नशे में हैं

ये वक़्त है 'अदम' की तवाज़ो' का साहिबो
तंग अपनी आस्तीं न करो हम नशे में हैं

हर दुश्मन-ए-वफ़ा मुझे महबूब हो गया

हर दुश्मन-ए-वफ़ा मुझे महबूब हो गया
जो मोजज़ा हुआ वो बहुत ख़ूब हो गया

इश्क़ एक सीधी-सादी सी मंतिक़ की बात है
रग़बत मुझे हुई तो वो मर्ग़ूब हो गया

दीवानगी बग़ैर हयात इतनी तल्ख़ थी
जो शख़्स भी ज़हीन था मज्ज़ूब हो गया

मुजरिम था जो वो अपनी ज़ेहानत से बच गया
जिस से ख़ता न की थी वो मस्लूब हो गया

वो ख़त जो उस के हाथ से पुर्ज़े हुआ 'अदम'
दुनिया का सब से क़ीमती मक्तूब हो गया

हल्का हल्का सुरूर है साक़ी

हल्का हल्का सुरूर है साक़ी
बात कोई ज़रूर है साक़ी

तेरी आँखों को कर दिया सज्दा
मेरा पहला क़ुसूर है साक़ी

तेरे रुख़ पर है ये परेशानी
इक अँधेरे में नूर है साक़ी

तेरी आँखें किसी को क्या देंगी
अपना अपना सुरूर है साक़ी

पीने वालों को भी नहीं मालूम
मय-कदा कितनी दूर है साक़ी

हवा सनके तो ख़ारों को बड़ी तकलीफ़ होती है

हवा सनके तो ख़ारों को बड़ी तकलीफ़ होती है
मिरे ग़म की बहारों को बड़ी तकलीफ़ होती है

न छेड़ ऐ हम-नशीं अब ज़ीस्त के मायूस नग़्मों को
कि अब बरबत के तारों को बड़ी तकलीफ़ होती है

मुझे ऐ कसरत-ए-आलाम बस इतनी शिकायत है
कि मेरे ग़म-गुसारों को बड़ी तकलीफ़ होती है

कहो मौजों से लहरा कर न यूँ पलटें समुंदर से
कि बा-ग़ैरत किनारों को बड़ी तकलीफ़ होती है

गले मिलते हैं जब आपस में दो बिछड़े हुए साथी
'अदम' हम बे-सहारों को बड़ी तकलीफ़ होती है

हसीन नग़्मा-सराओ! बहार के दिन हैं

हसीन नग़्मा-सराओ! बहार के दिन हैं
लबों की जोत जलाओ! बहार के दिन हैं

तकल्लुफ़ात का मौसम गुज़र गया साहब!
नक़ाब रुख़ से उठाओ बहार के दिन हैं

गुलों की सेज तो तौहीन है हसीनों की
दिलों की सेज बिछाओ बहार के दिन हैं

बहार बीत गई तो तुम्हारी क्या इज़्ज़त
सितम-ज़रीफ़ घटाओ! बहार के दिन हैं

है उम्र-ए-रफ़्ता से परख़ाश क्या भला हम को
क़रीब है तो बुलाओ! बहार के दिन हैं

मुग़न्नियो! तुम्हें कहते हैं हातिफ़-ए-रंगीं
समन-ए-बरों को जगाओ! बहार के दिन हैं

ये अंगबीन सी रातें बड़ी मुक़द्दस हैं
दिलों के दीप जलाओ! बहार के दिन हैं

'अदम' ने तौबा तो कर ली मुग़न्नियो! लेकिन
तुम उस को राह पे लाओ बहार के दिन हैं

हँस के बोला करो बुलाया करो

हँस के बोला करो बुलाया करो
आप का घर है आया जाया करो

मुस्कुराहट है हुस्न का ज़ेवर
रूप बढ़ता है मुस्कुराया करो

हदसे बढ़कर हसीन लगते हो
झूठी क़स्में ज़रूर खाया करो

हुक्म करना भी एक सख़ावत है
हम को ख़िदमत कोई बताया करो

बात करना भी बादशाहत है
बात करना न भूल जाया करो

ता के दुनिय की दिलकशी न घटे
नित नये पैरहन में आया करो

कितने सादा मिज़ाज हो तुम 'अदम'
उस गली में बहुत न जाया करो
(सख़ावत=दानशीलता, दिलकशी=खूबसूरती,
पैरहन=लिबास)

हँस हँस के जाम जाम को छलका के पी गया

हँस हँस के जाम जाम को छलका के पी गया
वो ख़ुद पिला रहे थे मैं लहरा के पी गया

तौबा के टूटने का भी कुछ कुछ मलाल था
थम थम के सोच सोच के शर्मा के पी गया

साग़र-ब-दस्त बैठी रही मेरी आरज़ू
साक़ी शफ़क़ से जाम को टकरा के पी गया

वो दुश्मनों के तंज़ को ठुकरा के पी गए
मैं दोस्तों के ग़ैज़ को भड़का के पी गया

सदहा मुतालिबात के बा'द एक जाम-ए-तल्ख़
दुनिया-ए-जब्र-ओ-सब्र को धड़का के पी गया

सौ बार लग़्ज़िशों की क़सम खा के छोड़ दी
सौ बार छोड़ने की क़सम खा के पी गया

पीता कहाँ था सुब्ह-ए-अज़ल मैं भला 'अदम'
साक़ी के ए'तिबार पे लहरा के पी गया

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