शहीद भगत सिंह की पसन्दीदा कवितायें/रचनायें

Favourite Poetry of Shaheed Bhagat Singh

मिर्ज़ा ग़ालिब
1

यह न थी हमारी किस्मत जो विसाले यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तेज़ार होता

तेरे वादे पर जिऐं हम तो यह जान छूट जाना
कि खुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता

तेरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अहदे फ़र्दा
कभी तू न तोड़ सकता अगर इस्तेवार होता

यह कहाँ की दोस्ती है (कि) बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म गुसार होता

संपूर्ण ग़ज़ल

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता

तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता

तिरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता

रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता

ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता

कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता

हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता

उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता

ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता
(विसाल=मिलन, नाज़ुकी=कोमलता, अ़हद=प्रतिज्ञा,
बोदा=खोखला, उस्तुवार=दृढ़,अटल, तीर-ए-नीमकश=
आधा खिंचा हुआ तीर, ख़लिश=चुभन, नासेह=
उपदेशक, चारासाज़=सहायक, रग-ए-संग=पत्थर की
नस, शरार=अंगारा, जाँ-गुसिल=प्राणघातक, ग़र्क़=
डूब जाना, यगाना=बेमिसाल, यकता=अद्वितीय,
दोगलापन, मसाइल-ए-तसव्वुफ़=सूफीवाद की
समस्याएं, वली=पीर,औलिया, बादा-ख़्वार=
शराबी)

मिर्ज़ा ग़ालिब
2

इशरते कत्ल गहे अहले तमन्ना मत पूछ
इदे-नज्जारा है शमशीर की उरियाँ होना

की तेरे क़त्ल के बाद उसने ज़फा होना
कि उस ज़ुद पशेमाँ का पशेमां होना

हैफ उस चारगिरह कपड़े की क़िस्मत ग़ालिब
जिस की किस्मत में लिखा हो आशिक़ का गरेबां होना

संपूर्ण ग़ज़ल

बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना

गिरियां चाहे है ख़राबी मिरे काशाने की
दर ओ दीवार से टपके है बयाबाँ होना

वा-ए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हर दम मुझ को
आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना

जल्वा अज़-बस-कि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है
जौहर-ए-आइना भी चाहे है मिज़्गाँ होना

इशरत-ए-क़त्ल-गह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना

ले गए ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-नशात
तू हो और आप ब-सद-रंग-ए-गुलिस्ताँ होना

इशरत-ए-पारा-ए-दिल ज़ख़्म-ए-तमन्ना खाना
लज़्ज़त-ए-रीश-ए-जिगर ग़र्क़-ए-नमक-दाँ होना

की मिरे क़त्ल के बा'द उस ने जफ़ा से तौबा
हाए उस ज़ूद-पशीमाँ का पशेमाँ होना

हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबाँ होना
(मयस्सर=आसान, गिरियां=रुदन, काशाने=घर,
बयाबां=रेगिस्तान, वा=हाय, अज़-बसकि=इस हद तक,
तक़ाज़ा[=दावा, जौहर-ए-आईना=आईने का दाग, मिज़गां=
पलकें, इशरते-क़त्लगहे-अहले-तमन्ना=चाहने वालों का
वध-स्थल का ऐशवर्य, उरियां=म्यान से बाहर निकलना,
नग्न, निशात=खुशी, बसद-रंग=सैंकड़ों रंगों में, इशरत-
ए-पारा-ए-दिल=दिल के टुकड़ों का मज़ा, लज़्ज़त-ए-रेश-
ए-जिगर=जिगर के घाव का मज़ा, ग़र्क़-ए-नमकदां=
नमकदान मे डूबना, ज़ूद-पशेमां=शीघ्र लज्जित होने
वाला, पशेमां=शर्मिंदा)

डा. मुहम्मद इकबाल
1

जो शाख-ए- नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना पाएदार होगा

2

खुदा के आशिक़ तो हैं हजारों बनों में फिरते हैं मारे-मारे
मै उसका बन्दा बनूंगा जिसको खुदा के बन्दों से प्यार होगा

3

मैं ज़ुल्मते शब में ले के निकलूंगा अपने दर मांदा कारवां को
शरर फ़शां होगी आह मेरी नफ़स मेरा शोला बार होगा

4

न पूछ इक़बाल का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की
कहीं सरेराह गुज़र बैठा सितमकशे इन्तेज़ार होगा

5

अच्छा है दिल के साथ रहे पासबाने अक़्ल
लेकिन कभी – कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे

6

नशा पिला के गिराना तो सबको आता है
मज़ा तो जब है कि गिरतों को थाम ले साकी

7

दहर को देते हैं मुए दीद-ए-गिरियाँ हम
आखिरी बादल हैं एक गुजरे हुए तूफां के हम

8

भला निभेगी तेरी हमसे क्यों कर ऍ वायज़
कि हम तो रस्में मोहब्बत को आम करते हैं
मैं उनकी महफ़िल-ए-इशरत से कांप जाता हूँ
जो घर को फूंक के दुनिया में नाम करते हैं।
(बांग-ए-दरा)

(उपरोक्त १,२,३,४ शेयर और मिसरे नीचे दी गई ग़ज़ल में से हैं)

ज़माना आया है बे-हिजाबी का आम दीदार-ए-यार होगा

ज़माना आया है बे-हिजाबी का आम दीदार-ए-यार होगा
सुकूत था पर्दा-दार जिस का वो राज़ अब आश्कार होगा

गुज़र गया अब वो दौर-ए-साक़ी कि छुप के पीते थे पीने वाले
बनेगा सारा जहान मय-ख़ाना हर कोई बादा-ख़्वार होगा

कभी जो आवारा-ए-जुनूँ थे वो बस्तियों में फिर आ बसेंगे
बरहना-पाई वही रहेगी मगर नया ख़ारज़ार होगा

सुना दिया गोश-ए-मुंतज़िर को हिजाज़ की ख़ामुशी ने आख़िर
जो अहद सहराइयों से बाँधा गया था फिर उस्तुवार होगा

निकल के सहरा से जिस ने रूमा की सल्तनत को उलट दिया था
सुना है ये क़ुदसियों से मैं ने वो शेर फिर होशियार होगा

किया मिरा तज़्किरा जो साक़ी ने बादा-ख़्वारों की अंजुमन में
तो पीर-ए-मय-ख़ाना सुन के कहने लगा कि मुँह-फट है ख़्वार होगा

दयार-ए-मग़रिब के रहने वालो ख़ुदा की बस्ती दुकाँ नहीं है
खरा जिसे तुम समझ रहे हो वो अब ज़र-ए-कम-अयार होगा

तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही ख़ुद-कुशी करेगी
जो शाख़-ए-नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना-पाएदार होगा

सफ़ीना-ए-बर्ग-ए-गुल बना लेगा क़ाफ़िला मोर-ए-ना-तावाँ का
हज़ार मौजों की हो कशाकश मगर ये दरिया से पार होगा

चमन में लाला दिखाता फिरता है दाग़ अपना कली कली को
ये जानता है कि इस दिखावे से दिल-जलों में शुमार होगा

जो एक था ऐ निगाह तू ने हज़ार कर के हमें दिखाया
यही अगर कैफ़ियत है तेरी तो फिर किसे ए'तिबार होगा

कहा जो क़ुमरी से मैं ने इक दिन यहाँ के आज़ाद पा-ब-गिल हैं
तू ग़ुंचे कहने लगे हमारे चमन का ये राज़दार होगा

ख़ुदा के आशिक़ तो हैं हज़ारों बनों में फिरते हैं मारे मारे
मैं उस का बंदा बनूँगा जिस को ख़ुदा के बंदों से प्यार होगा

ये रस्म-ए-बज़्म-ए-फ़ना है ऐ दिल गुनाह है जुम्बिश-ए-नज़र भी
रहेगी क्या आबरू हमारी जो तू यहाँ बे-क़रार होगा

मैं ज़ुल्मत-ए-शब में ले के निकलूँगा अपने दर-माँदा कारवाँ को
शरर-फ़िशाँ होगी आह मेरी नफ़स मिरा शोला-बार होगा

नहीं है ग़ैर-अज़-नुमूद कुछ भी जो मुद्दआ तेरी ज़िंदगी का
तू इक नफ़स में जहाँ से मिटना तुझे मिसाल-ए-शरार होगा

न पूछ 'इक़बाल' का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की
कहीं सर-ए-राहगुज़ार बैठा सितम-कश-ए-इंतिज़ार होगा
(बेहिजाबी=खुलापन, सुकूत=चुप्पी, आशकार=प्रत्यक्ष,
बादा-ख़्वार=शराब पीने वाला, बरहना-पाई=नंगे पाँव,
ख़ारज़ार=रेगिस्तान,कम पेड़ों वाली जगह, गोश-ए-
मुंतज़िर=सुनने की प्रतीक्षा, हिजाज़=अरब का प्रांत
जहाँ मक्का और मदीना हैं, उस्तवार=मजबूत,ठोस,
क़ुदसियों=हदीस बोलने वाले, तज़्किरा=ज़िक्र, दियार-
ए-मग़रिब=पश्चिमी देशों, नापाएदार=कमज़ोर, नातवाँ=
कमज़ोर, लाला=फूल,चिड़िया, गुन्चे=कली, जुम्बिश=
हलचल, दरमांदा=थका)

(उपरोक्त पाँचवाँ (५) शेयर नीचे दी गई ग़ज़ल में से है)

मजनूँ ने शहर छोड़ा तो सहरा भी छोड़ दे

मजनूँ ने शहर छोड़ा तो सहरा भी छोड़ दे
नज़्ज़ारे की हवस हो तो लैला भी छोड़ दे

वाइज़ कमाल-ए-तर्क से मिलती है याँ मुराद
दुनिया जो छोड़ दी है तो उक़्बा भी छोड़ दे

तक़लीद की रविश से तो बेहतर है ख़ुद-कुशी
रस्ता भी ढूँड ख़िज़्र का सौदा भी छोड़ दे

मानिंद-ए-ख़ामा तेरी ज़बाँ पर है हर्फ़-ए-ग़ैर
बेगाना शय पे नाज़िश-ए-बेजा भी छोड़ दे

लुत्फ़-ए-कलाम क्या जो न हो दिल में दर्द-ए-इश्क़
बिस्मिल नहीं है तू तो तड़पना भी छोड़ दे

शबनम की तरह फूलों पे रो और चमन से चल
इस बाग़ में क़याम का सौदा भी छोड़ दे

है आशिक़ी में रस्म अलग सब से बैठना
बुत-ख़ाना भी हरम भी कलीसा भी छोड़ दे

सौदा-गरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है
ऐ बे-ख़बर जज़ा की तमन्ना भी छोड़ दे

अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल
लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे

जीना वो क्या जो हो नफ़स-ए-ग़ैर पर मदार
शोहरत की ज़िंदगी का भरोसा भी छोड़ दे

शोख़ी सी है सवाल-ए-मुकर्रर में ऐ कलीम
शर्त-ए-रज़ा ये है कि तक़ाज़ा भी छोड़ दे

वाइज़ सुबूत लाए जो मय के जवाज़ में
'इक़बाल' को ये ज़िद है कि पीना भी छोड़ दे
(नज़्ज़ारे=आलौकिक दृश्य, वाइज़=उपदेशक, कमाल-ए-तर्क=
आत्म-समर्पण, उक़्बा=दूसरी दुनिया, तक़लीद=चापलूसी,
तक़लीद=नकल, सौदा=पगलपन, जज़ा=वापसी, पासबान-
ए-अक़्ल=तर्क-शक्ति का संरक्षण, नफ़स-ए-ग़ैर=उधार की
सांस, मदार=निर्भर, वाइज़=उपदेशक, जवाज़=विरोध में)

(उपरोक्त छटा (६) शेयर नीचे दी गई रचना में से है)

साक़ी

नशा पिला के गिराना तो सबको आता है,
मज़ा तो तब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी।

जो बादाकश थे पुराने वे उठते जाते हैं
कहीं से आबे-बक़ाए-दवाम ले साक़ी।

कटी है रात तो हंगामा-गुस्तरीं में तेरी,
सहर क़रीब है अल्लाह का नम ले साक़ी।
(बादाकश=शराब पीने वाले)

(उपरोक्त सातवां (७) शेयर नीचे दी गई रचना में से है)

गोरिस्तान-ए-शाही

आसमाँ बादल का पहने ख़िरक़ा-ए-देरीना है
कुछ मुकद्दर सा जबीन-ए-माह का आईना है
चाँदनी फीकी है इस नज़्ज़ारा-ए-ख़ामोश में
सुब्ह-ए-सादिक़ सो रही है रात की आग़ोश में
किस क़दर अश्जार की हैरत-फ़ज़ा है ख़ामुशी
बरबत-ए-क़ुदरत की धीमी सी नवा है ख़ामुशी
बातिन-ए-हर-ज़र्रा-ए-आलम सरापा दर्द है
और ख़ामोशी लब-ए-हस्ती पे आह-ए-सर्द है
आह जौलाँ-गाह-ए-आलम-गीर यानी वो हिसार
दोश पर अपने उठाए सैकड़ों सदियों का बार
ज़िंदगी से था कभी मामूर अब सुनसान है
ये ख़मोशी उस के हंगामों का गोरिस्तान है
अपने सुक्कान-ए-कुहन की ख़ाक का दिल-दादा है
कोह के सर पर मिसाल-ए-पासबाँ इस्तादा है
अब्र के रौज़न से वो बाला-ए-बाम-ए-आसमाँ
नाज़िर-ए-आलम है नज्म-ए-सब्ज़-फ़ाम-ए-आसमाँ
ख़ाक-बाज़ी वुसअत-ए-दुनिया का है मंज़र उसे
दास्ताँ नाकामी-ए-इंसाँ की है अज़बर उसे
है अज़ल से ये मुसाफ़िर सू-ए-मंज़िल जा रहा
आसमाँ से इंक़िलाबों का तमाशा देखता
गो सुकूँ मुमकिन नहीं आलम में अख़्तर के लिए
फ़ातिहा-ख़्वानी को ये ठहरा है दम भर के लिए
रंग-ओ-आब-ए-ज़िंदगी से गुल-ब-दामन है ज़मीं
सैकड़ों ख़ूँ-गश्ता तहज़ीबों का मदफ़न है ज़मीं
ख़्वाब-गह शाहों की है ये मंज़िल-ए-हसरत-फ़ज़ा
दीदा-ए-इबरत ख़िराज-ए-अश्क-ए-गुल-गूँ कर अदा
है तो गोरिस्ताँ मगर ये ख़ाक-ए-गर्दूं-पाया है
आह इक बरगश्ता क़िस्मत क़ौम का सरमाया है
मक़बरों की शान हैरत-आफ़रीं है इस क़दर
जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ से है चश्म-ए-तमाशा को हज़र
कैफ़ियत ऐसी है नाकामी की इस तस्वीर में
जो उतर सकती नहीं आईना-ए-तहरीर में
सोते हैं ख़ामोश आबादी के हंगामों से दूर
मुज़्तरिब रखती थी जिन को आरज़ू-ए-ना-सुबूर
क़ब्र की ज़ुल्मत में है इन आफ़्ताबों की चमक
जिन के दरवाज़ों पे रहता है जबीं-गुस्तर फ़लक
क्या यही है इन शहंशाहों की अज़्मत का मआल
जिन की तदबीर-ए-जहाँबानी से डरता था ज़वाल
रोब-ए-फ़ग़्फ़ूरी हो दुनिया में कि शान-ए-क़ैसरी
टल नहीं सकती ग़नीम-ए-मौत की यूरिश कभी
बादशाहों की भी किश्त-ए-उम्र का हासिल है गोर
जादा-ए-अज़्मत की गोया आख़िरी मंज़िल है गोर
शोरिश-ए-बज़्म-ए-तरब क्या ऊद की तक़रीर क्या
दर्दमंदान-ए-जहाँ का नाला-ए-शब-गीर क्या
अरसा-ए-पैकार में हंगामा-ए-शमशीर क्या
ख़ून को गरमाने वाला नारा-ए-तकबीर क्या
अब कोई आवाज़ सोतों को जगा सकती नहीं
सीना-ए-वीराँ में जान-ए-रफ़्ता आ सकती नहीं
रूह-ए-मुश्त-ए-ख़ाक में ज़हमत-कश-ए-बेदाद है
कूचा गर्द-ए-नय हुआ जिस दम नफ़स फ़रियाद है
ज़िंदगी इंसाँ की है मानिंद-ए-मुर्ग़-ए-ख़ुश-नवा
शाख़ पर बैठा कोई दम चहचहाया उड़ गया
आह क्या आए रियाज़-ए-दहर में हम क्या गए
ज़िंदगी की शाख़ से फूटे खिले मुरझा गए
मौत हर शाह ओ गदा के ख़्वाब की ताबीर है
इस सितमगर का सितम इंसाफ़ की तस्वीर है
सिलसिला हस्ती का है इक बहर-ए-ना-पैदा-कनार
और इस दरिया-ए-बे-पायाँ की मौजें हैं मज़ार
ऐ हवस ख़ूँ रो कि है ये ज़िंदगी बे-ए'तिबार
ये शरारे का तबस्सुम ये ख़स-ए-आतिश-सवार
चाँद जो सूरत-गर-ए-हस्ती का इक एजाज़ है
पहने सीमाबी क़बा महव-ए-ख़िराम-ए-नाज़ है
चर्ख़-ए-बे-अंजुम की दहशतनाक वुसअत में मगर
बेकसी इस की कोई देखे ज़रा वक़्त-ए-सहर
इक ज़रा सा अब्र का टुकड़ा है जो महताब था
आख़िरी आँसू टपक जाने में हो जिस की फ़ना
ज़िंदगी अक़्वाम की भी है यूँही बे-ए'तिबार
रंग-हा-ए-रफ़्ता की तस्वीर है उन की बहार
इस ज़ियाँ-ख़ाने में कोई मिल्लत-ए-गर्दूं-वक़ार
रह नहीं सकती अबद तक बार-ए-दोश-ए-रोज़गार
इस क़दर क़ौमों की बर्बादी से है ख़ूगर जहाँ
देखता बे-ए'तिनाई से है ये मंज़र जहाँ
एक सूरत पर नहीं रहता किसी शय को क़रार
ज़ौक़-ए-जिद्दत से है तरकीब-ए-मिज़ाज-ए-रोज़गार
है नगीन-ए-दहर की ज़ीनत हमेशा नाम-ए-नौ
मादर-ए-गीती रही आबस्तन-ए-अक़्वाम-ए-नौ
है हज़ारों क़ाफ़िलों से आश्ना ये रहगुज़र
चश्म-ए-कोह-ए-नूर ने देखे हैं कितने ताजवर
मिस्र ओ बाबुल मिट गए बाक़ी निशाँ तक भी नहीं
दफ़्तर-ए-हस्ती में उन की दास्ताँ तक भी नहीं
आ दबाया मेहर-ए-ईराँ को अजल की शाम ने
अज़्मत-ए-यूनान-ओ-रूमा लूट ली अय्याम ने
आह मुस्लिम भी ज़माने से यूँही रुख़्सत हुआ
आसमाँ से अब्र-ए-आज़ारी उठा बरसा गया
है रग-ए-गुल सुब्ह के अश्कों से मोती की लड़ी
कोई सूरज की किरन शबनम में है उलझी हुई
सीना-ए-दरिया शुआओं के लिए गहवारा है
किस क़दर प्यारा लब-ए-जू मेहर का नज़्ज़ारा है
महव-ए-ज़ीनत है सनोबर जूएबार-ए-आईना है
ग़ुंचा-ए-गुल के लिए बाद-ए-बहार-ए-आईना है
नारा-ज़न रहती है कोयल बाग़ के काशाने में
चश्म-ए-इंसाँ से निहाँ पत्तों के उज़्लत-ख़ाने में
और बुलबुल मुतरिब-ए-रंगीं नवा-ए-गुलसिताँ
जिस के दम से ज़िंदा है गोया हवा-ए-गुलसिताँ
इश्क़ के हंगामों की उड़ती हुई तस्वीर है
ख़ामा-ए-क़ुदरत की कैसी शोख़ ये तहरीर है
बाग़ में ख़ामोश जलसे गुलसिताँ-ज़ादों के हैं
वादी-ए-कोहसार में नारे शबाँ-ज़ादों के हैं
ज़िंदगी से ये पुराना ख़ाक-दाँ मामूर है
मौत में भी ज़िंदगानी की तड़प मस्तूर है
पत्तियाँ फूलों की गिरती हैं ख़िज़ाँ में इस तरह
दस्त-ए-तिफ़्ल-ए-ख़ुफ़्ता से रंगीं खिलौने जिस तरह
इस नशात-आबाद में गो ऐश बे-अंदाज़ा है
एक ग़म यानी ग़म-ए-मिल्लत हमेशा ताज़ा है
दिल हमारे याद-ए-अहद-ए-रफ़्ता से ख़ाली नहीं
अपने शाहों को ये उम्मत भूलने वाली नहीं
अश्क-बारी के बहाने हैं ये उजड़े बाम ओ दर
गिर्या-ए-पैहम से बीना है हमारी चश्म-ए-तर
दहर को देते हैं मोती दीदा-ए-गिर्यां के हम
आख़िरी बादल हैं इक गुज़रे हुए तूफ़ाँ के हम
हैं अभी सद-हा गुहर इस अब्र की आग़ोश में
बर्क़ अभी बाक़ी है इस के सीना-ए-ख़ामोश में
वादी-ए-गुल ख़ाक-ए-सहरा को बना सकता है ये
ख़्वाब से उम्मीद-ए-दहक़ाँ को जगा सकता है ये
हो चुका गो क़ौम की शान-ए-जलाली का ज़ुहूर
है मगर बाक़ी अभी शान-ए-जमाली का ज़ुहूर

मीर तक़ी मीर

शमए-आख़ीर-शब हूं सुन सरगुज़शत मेरी
फिर सुबह होने तक तो किस्सा ही मुख़तसर है

संपूर्ण ग़ज़ल

ऐ हुबे-जाह वालो जो आज ताजवर है
कल उसको देखीयो तुम न ताज है न सर है

अब के हवा-ए-गुल में सेराबी है निहायत
जू-ए-चमन पे सबज़ा मिज़गाने-चशमेतर है

शमए-अख़ीरे-शब हूं सुन सरगुज़शत मेरी
फिर सुबह होने तक तो किस्सा ही मुख़तसर है

अब फिर हमारा उसका महशर में माजिरा है
देखें तो उस जगह क्या इनसाफ़े-दादगर है

आफ़त-रसीद हम क्या सर खेंचें इस चमन में
जूं-नख़ले-ख़ुशक हमको न साया न समर है

(हुबे-जा=धन मान, ताजवर=ताज पहने हुए,
सेराबी=नमी, निहायत=बहुत, जू-ए-चमन=बाग
वाली नहर, मिज़गाने-चशमेतर=भीगी आंखों
की पलकें, सरगुज़शत=कहानी, महशर,कयामत,
माजिरा=मामला, इनसाफ़े-दादगर=जज्ज का
न्याय, आफ़त-रसीद=मुसीबत में, सर खेंचे=
सिर उठाएँ, जूँ-नख़ले-ख़ुष्क=सूखे वृक्ष की तरह,
समर=फल)
(इस रचना पर काम जारी है)

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