एक कंठ विषपायी (दृश्य: 3-4) : दुष्यन्त कुमार (हिन्दी कविता)

Ek Kanth Vishpayi (Scene: 3-4) : Dushyant Kumar

शंकर

देवत्व और आदर्शों का परिधान ओढ़
मैंने क्या पाया...?
निर्वासन !
प्रेयसि-वियोग !!
हर परम्परा के मरने का विष
मुझे मिला,
हर सूत्रपात का श्रेय
ले गए और लोग ।

...मैं ऊब चुका हूँ
इस महिमा-मंडित छल से... ।

दृश्य: तीन

(स्थान : हिम-मंडित कैलास-पर्वत का एक
शिखर, जहाँ अपनी, पत्नी सती के अपार
शोक में मग्न विभ्रान्त-से महादेव-शंकर,
अपने कंधे पर उसका शव रखे हुए दुख
में निमग्न-से खड़े हैं)

शंकर

(स्वगत)

आह, शोक ने मुझे
अचीन्ही स्थितियों से जोड़ दिया,
महाशून्य के अन्तराल में
निपट अकेला छोड़ दिया,
सारा धीरज सोख लिया है
सारा रक्त निचोड़ दिया,
प्रिया-हीन व्यक्तित्व-विखंडित
जगह-जगह से तोड़ दिया ।

(सती के अस्त-व्यस्त केशों को अपनी
उंगलियों से सहलाते, जैसे उससे बातें
करते हुए)

प्रिया-हीन संसार
और मैं देख रहा हूँ !
अपने जीवन पर
तन का निस्तार
और मैं देख रहा हूँ !
ये अपने से ही
अपने की हार
और मैं देख रहा हूँ !

(सहसा कंधे पर पीछे की ओर झुका
हुआ सती का मुख अपने सामने
कर लेते हैं, और उसे देखकर अपने
ही प्रति कुपित और क्षुब्ध हो उठते हैं)

धिक् मेरा देवत्व !
कि जिसकी कायर गाथा,
धिक् मेरी सामर्थ्य !
कि जिसने टेका माथा,
धिक् मेरा पुंसत्व !
कि जिसका बोध अधूरा,
धिक् मेरा जीवन !
जिसका प्रतिशोध अधूरा ।

(दाँत पीसते हुए, बेचैनी से मंच पर
इधर-उधर टहलते हैं फिर तड़प कर
सती के शव की ओर संकेत करके
खड़े हो जाते हैं)

जिस भाषा में
मिला मुझे यह प्रश्न भयंकर
मुझे उसी भाषा में
देना होगा उत्तर !

(एक पल रुककर)

सम्प्रति बस प्रतिकार
देव, ऋषि, दानव सबसे ।
आह ! तीसरा नेत्र
रक्त का प्यासा कब से ।

(तभी नेपथ्य से शंकर-स्तुति के स्तोत्र सुनाई
पड़ते हैं -जो देर तक चलते रहते हैं । उन्हें
सुनकर शंकर के मनोभावों में कुछ परिवर्तन
होता है और उनकी उद्विग्नता तथा आवेश
कम होता हुआ, कौतूहल में बदल जाता है)

वरुण का स्वर

देवदेव महादेव लौकिकाचार कृत्प्रभो
ब्रह्म त्वामीश्वरं शंभुं जानीम: कृपया तव
किं मोहयसि नस्तात मायया परया तव
दुर्ज्ञेयया सदा पुंसां मोहिन्या परमेश्वर
प्रकृते: पुरुषस्यापि जगतो योनिबीजयो:
परब्रह्म परस्त्वं च मनोवाचामगोचर:
त्वमेव विश्वं सृजसि पास्यत्सि निजतंत्रत:
सर्वकर्मफलानां हि सदा दाता त्वमेव हि
भगवन् परमेशान कृपां कुरु पर प्रभो
नमो रुद्राय शांताय ब्रह्मने परमात्मने ।

(नेपथ्य में इस संस्कृत स्तोत्र के ऊपर
एक अन्य उद्घोषक इसका हिन्दी
अनुवाद भी प्रस्तुत करता है)

हिन्दी उद्घोषक

हे देव-देव महादेव ! हे लौकिक
आचार करने वाले महाप्रभो ! हम सब
आपकी कृपा से, आपको ब्रह्म, ईश्वर
तथा शिव जानते हैं । हे ताप परमाया
से आप हमको क्यों मोहित करते हैं
हे महेश्वर ! वह आपकी मोहिनी
माया प्राणियों को सदा दुर्ज्ञेय है ।
जगत के योनि बीज प्रकृति पुरुष
से भी आप परे हैं । मन वचन
इन्दियों से परे, आप, मन वाणी
से भी परे हैं । आप ही विश्व
को उत्पन्न कर फिर पालन करते हैं ।
सब कर्मों के फल देने वाले सदा
आप ही हैं । हे भगवन्, हे परमेशान
अब आप देवताओं पर कृपा करें ।
हे रुद्र, शांत, ब्रह्म, परमात्मा आपको
प्रणाम है ।

कुबेर का स्वर

नमस्ते भगवन् रुद्र भास्करामित तेज से
नमो भवाय देवाय रसायांबुमयाय ते
वीरात्मने सुविद्याय श्रीकंठाय पिनाकिने
नमोनंताय सूक्ष्माय नमस्ते मृत्युमन्यवे
दयासिन्धो महेशान प्रसीद परमेश्वर
रक्ष-रक्ष सदैवास्मान् भस्मान्नष्टान् विचेतस:
रक्षित: सततं नाथ त्वयैव करुणानिधे
नानापद्म्यो वयं शंभो तथैवाद्य प्रपाहि न:
यज्ञस्योंद्धरणं नाथ कुरु शीघ्रं प्रसादकृत्
असमाप्तस्य दुर्गेश दक्षस्य च प्रजापते: ।

हिन्दी उद्घोषक

हे रुद्र, हे भास्कर, हे अमित तेजस्वी
आपको प्रणाम है । वीरारमा श्रेष्ठ बुद्धि-
वाले श्रीकंठ पिनाकधारी अत्यंत सूक्ष्म-
रूप मृत्यु क्रोधरूप, आपको प्रणाम है ।
हे दयासागर महेशान परमेश्वर अब आप
प्रसन्न होकर हमारी रक्षा करें क्योंकि हम
विनश्वर हैं । हे करुणानिधान, करुणा-सागर
आप सदा हमारी रक्षा करें । हे शंभु !
अनेक आपत्तियों से आपको हमारी रक्षा
करनी चाहिए । हे नाथ कृपा कर शीघ्र
ही यज्ञ का उद्धार कीजिए । हे दुर्गेश,
प्रजापति दक्ष के यज्ञ की समाप्ति नहीं है ।

शंकर

(स्तोत्रों की समाप्ति पर शंकर विस्मित, आशंक्ति
और फिर आवेश-युक्त हो उठते हैं)

ये कौन ?
कौन, कैलास-शिखर पर
अनाहूत आया ?

ये किसका स्वर है
जो मेरे निश्चय से टकराया ?
स्तुति करता
सामने नहीं आता है
बचता है ।
यह कौन मुझे
सम्मोहित करने को
छल रचता है ।

वरुण

(मंच के दक्षिण भाग से प्रगट होते हुए)

हे पारब्रह्म !
कैलासनाथ,
हे कालजई,
हे कालकूट विषपायी स्रष्टा
अष्टनाम !
मैं वरुण आपके चरणों में
करता प्रणाम !

शंकर

(वरुण की ओर ईषत् घृणा से)

मैं पारब्रह्म ?
कैलाशनाथ !
मैं निर्माता ?
मैं कालजई व्यक्तित्व ?
स्वयंभू महादेव !

ये सारे संबोधन
हैं कितने क्रूर व्यंग्य !
जो करते आए हैं मेरे संग
छल सदैव ।

(तभी उनके पीछे-पीछे कुबेर प्रगट होते हैं)

कुबेर

हे सर्वारंभ प्रवर्त्तक
धाता, प्रपितामह !
हे ओंकार,
हे वषट्कार,
हे स्वधाकार !
त्रिगुणात्मा, निर्गुण,
प्रकृति-पुरुष से भरे शंभु,
हे सकल प्रजापतियों के स्रष्टा नमस्कार ।
मैं हूँ कुबेर,
आपका दास ।

शंकर

(व्यंग्य से)

तुम दास समझते हो
मैं मित्र समझता था ।

कुबेर

ये महादेव
देवाधिदेव की अनुकंपा ।

शंकर

संबोधन
और सर्वनामों की सृष्टि रोक,
उत्तर दो
मेरे एक प्रश्न का मित्र मान,

दक्ष के यज्ञ में
आमंत्रित थे सभी देव;
था किन्तु उपेक्षित मैं,
पर तुमने दिया ध्यान ?

कुबेर

आपकी अवज्ञा
प्रभु ! मुझको भी बहुत खली,
सोचा था
दूँ दक्ष को क्रुद्ध हो, कठिन श्राप ।
...फिर सोचा-
यह तो बात बहुत साधारण है;
देवत्व और आदर्शों से
परिपूर्ण आप !

शंकर

(उसी व्यंग्य से)

देवत्व और आदर्शों का परिधान ओढ़
मैंने क्या पाया ?
निर्वासन !
प्रेयसि-वियोग !!

(गहरी पीड़ा से)

हर परम्परा के मरने का विष,
मुझे मिला,
हर सूत्रपात का
श्रेय ले गये और लोग ।

(क्षण भर रुक कर)

मैं ऊब चुका हूँ
इस महिमा-मंडित छल से,
अब मुझे स्वयं का
वास्तव-सत्य पकड़ना है,
जिन आदर्शों ने
मुझे छला है कई बार
मेरा सुख लूटा है
अब उनसे लड़ना है ।

(फटकारते हुए)

बोलो
क्यों आए हो ?
क्या और अपेक्षित है ?

कुबेर

हे शिव शंकर
आपकी कृपा है ओ मेरा सौभाग्य,
चराचर,
मुझे आपका मित्र मानकर चलते हैं
फिर अलकापुरी निकट ही है,
कैलासधाम के स्वामी का
प्रतिवेशी होने के कारण
इतना अधिकार समझता हुँ,
जो बिना प्रयोजन
बिना अपेक्षा आ जाऊँ ।

(स्वर बदलकर)

हे महादेव !
भगवती सती की पीड़ा में आपाद-मग्न
आपको देख,
मेरा भी ह्रदय कचोट उठा ।
मैं मात्र सहज-कर्त्तव्य
और संवेदन-वश ही आया हुँ ।

शंकर

कर्तव्य तुम्हारा
धन-संचय से इतर
और भी है कोई ?
यदि है तो, हे धनपति कुबेर !
यह है कुयोग;

मैं तो समझा था
धन के दृष्टि नहीं होती
भावना-शून्य हो जाते हैं
धनवान लोग ।
आत्मस्थ बना देती है सत्ता मित्रों को
आचरण बदलते जाते हैं उनके क्षण-क्षण,
अपनत्व खत्म हो जाता है,
बच रहता है थोड़ा सा शिष्टाचार
और औपचारिकता,
प्रभुता का ऐसा ही होता आकर्षण ।

वरुण

यह कोरा शिष्टाचार नहीं
यह औपचारिकता नहीं प्रभो !

कुबेर

सचमुच
यह शिष्टाचार नहीं;
भावना-भरा संवेदनशील ह्रदय
हम कैसे दिखलाएँ ?
कैसे बतलाएँ यह कि आज
कर्तव्य विवश हो
सहज
मित्र के नाते ही हैं हम आए ।

शंकर

(अकस्मात् उत्तेजित होकर)

बंद करो अपना प्रलाप अब ।

बार-बार संवेदन
अथवा कर्त्तव्यों की बात उठाते,
बार-बार ये कहना
मैं तो आया यहाँ मित्र के नाते,
ग्लानि नहीं होती है तुमको ?
डूब नहीं मरते हो
अंजुलियों के जल में

(गहरी पीड़ा से)

मित्र अगर होते तुम
मेरा अपयश या अपमान न होता,
या तो यज्ञ न होता
अथवा ऐसा कल्कि विधान न होता ।
मित्र अगर होते तुम
मेरी आत्मा यों विद्रोह न करती,
भरी सभा में मेरी प्रिया
निरादृत होती और न मरती ।

(प्रिया शब्द के उच्चारण मात्र मे उनका
कंठ भारी हो उठता है और तुरन्त कंधे
पर पड़ा शव निहारने में तल्लीन होकर
वे वस्तुस्थिति को भूल से जाते हैं)

शंकर

(कुछ क्षण बाद)

आह !
कैसे पी सका यह फूल-सा तन ज्वाल !
लोग
कैसे देख पाये दृश्य वह विकराल !

(कुछ समझने का प्रयत्न करते हुए)

आह !
देवों ने रची यह
दुरभिसंधि विरुध्द,
और इसका अर्थ...
केवल युद्ध...
केवल युद्ध…!!

(आवेश में कुबेर और वरुण की ओर
से उसी प्रकार मुँह फेरे, घूमते हुए
जैसे किसी निर्णय पर पहुँचते हैं)

सम्प्रति केवल
बल की भाषा
शक्ति-प्रदर्शन,
सम्प्रति केवल
युद्ध, व्यूह-रचना,
अरि-मर्दन,
ओ मेरे आत्मज योद्धाओ
अरे अभागो,
ओ डाकिनियो, शाकिनियो
ओ प्रेतो जागो ।

जागो वीरभद्र, त्वरिता
पर्पट, ईशानी,
जागो शंकुकर्न, गुह्यक,
वैष्णवी, भवानी ।

केकराक्ष, दुद्रम,
विष्टंभवीर, संदारक,
पिप्पल, आवेशन,
आदित्यमूर्ध, सन्तानक,

जागो कात्यायनी
भद्रकाली, सर्वांकक ।
समद, काकपादोदर
कुंडी; प्रमथ भयानक ।
कपालीश, कूष्णांड
और भैरव सन्नाधो,
उठो, तुरत संकेतों पर
ब्रह्मांड हिला दो...

(शव को सीने से लगा कर शंकर
मंच से जाने को उद्यत होते हैं)

वरुण

(फुसफुसाकर)

देख रहे हो मित्र,
त्रिलोकी शिव पर
हिंसा की छाया है
नेत्र तीसरा
शायद खुलने ही वाला है ।

कुबेर

(उसी स्वर में)

उसका समय नहीं आया है;

शंकर

(मंच से जाते हुए)

चलो
अलकनंदा की ओर चलें अब प्रेयसि !
वहाँ तुझे मैं
स्नान कराऊँगा उस जल में,
फिर चंदन से माँग भरूँगा ।
फूट-फूट रोऊँगा कुछ देर वहाँ पर ।
फिर बाहों में तुझे उठाकर,
हृदय लगाकर,
सुधियों का आह्वान करूँगा
फिर तुझको लेकर
मैं वन के हर उस कोने में विचरूँगा-
तेरे साथ जहाँ
जीवन के
सर्वोत्तम क्षण मैंने भोगे।
चलो... अलकनंदा की ओर चलें अब प्रेयसि !

(शव को सीने से चिपटा का शंकर
मंच से चले जाते हैं)

कुबेर

शिव शंकर को
दक्ष-सुता से गहन मोह है ।
देख रहे हो !

वरुण

पर अलकापति
ऐसा भी क्या मोह
कि शव को चिपटाए फिरते हैं तन से !
...क्या तुमको
दुर्गन्ध नहीं आई उस क्षण से ?
मैं तो खड़ा नहीं रह पाया
पास निमिष भर ।

कुबेर

और मुझे भी लगा
कि हमको क्यों भेजा है देवराज ने ?
यही देखने ?

...किन्तु मुझे बातें करनी थीं
यदि मैँ अरुचि प्रर्दशित करता
शव से
या दुर्गन्ध मात्र से,
तो हम दोनों
महाकोप के भाजन बनते,
देवलोक वापस जा पाना
बहुत कठिन था ।

वरुण

किंतु बतायो तो कुबेर,
क्या मोह
ज्ञान को,
इतना अंधा कर देता है,
जो कि मृत्यु को भी हम
सत्य नहीं कहते हैं ।
परिवर्तन पर होते हैं
विक्षुब्ध ह्रदय में,
सुन्दर और सनातन कह कर
शव से ही चिपके रहते हैं ।

कुबेर

शायद ऐसा ही होता है ।
इसीलिये संभवत: जग में
जब परम्परा का खण्डन कर
कोई नया मूल्य उठता है-
लोग उसे मिथ्या कहते हैं ।
और जहाँ तक, जब तक संभव हो पाता है
मृत परम्परा के शव से चिपके रहते हैं ।
पूजा के घड़ियाल बजाते
भाव-लहरियों में बहते हैं ।

वरुण

लेकिन कब तक ?
थोड़े दिन पश्चात् भावना मर जाती है,
या दुर्गन्ध,
समूचे युग में भर जाती है ।

कुबेर

अब तुम सोचो ।
यह दुर्गन्ध
जिसे शंकर ने ओढ़ रखा है,
जिसको हमने पल भर भोगा,
कितनी कटु है
कितनी विषमय !!
सारे युग में फैल गई यदि,
तो क्या होगा ?

वरुण

हमको क्या
कुछ भी हो जाए
जब सृष्टि के नियंता होकर
स्वयं शंभु ही
अपने रचे हुए नियमों की करें अवज्ञा
रक्षक ही भक्षक हो जाए
तो कोई क्या कर सकता है ?

हाँ, यह विष,
हम अपनी ओर न आने देंगे ।

कुबेर

(अपेक्षाकृत धीमे स्वर में इधर-उधर देखते हुए)

धीरे बोलो
शायद शिव शंकर आते हैं ।

(तभी मंच के एक कोने में प्रकाश पड़ता है
जिसमें शंकर का आगमन होता है । अब
शव उनके कंधे पर नहीं, बल्कि - सामने
खुली हुई दोनों बाँहों पर रखा है और
पुष्पों से सज्जित है)

कुबेर

(धीरे से)

महादेव शंकर आते हैं
मेरुमाल सी
सन्मुख खुली भुजाओं पर
सज्जित शव धारे,
जिससे
मेघों-जैसे केश लटकते नीचे-
हिम पर ऐसे फिसल रहे हैं
जैसे मध्याह्न में धरा पर
तार-तार हो कंपती-कंपती
निशा गिर पड़े ।

(शंकर खोए हुए, विंग से कुछ और आगे
आ जाते हैं और सती का झुलसा हुआ
मुख, सीधा करके देखते हैं जो फिर
दर्शकों की ओर हो जाता है)

कुबेर

लो, अक्षत सौंदर्य-शालिनी
सती भगवती का मुख देखो ।
...कुछ पहचाना ?

(रुककर)

बोलो,
क्या ये वही रूप है,
जिसे देखकर पूर्ण चंद्र की
सभी कलाएँ छिप जाती थीं ?
...जिसे देखकर स्वयं-सिध्द प्रभु
ब्रह्मा का मन डोल गया था,
जिसका पा स्पर्श
मुखर हो जाती जड़ताएँ थीं ।
बोलो
क्या ये वही रूप है ?

वरुण

(सिहर कर)

आह !
नहीं देखा जाता है यह परिवर्तन !
ऐसी विकृति !
झुलसे हुए रूप का ऐसा
कटु अपकर्षण !

मित्र बताओ,
महादेव यदि अपने तप से
और तेज से,
आग्रहवश
भगवती सती के
शव में प्राण प्रतिष्ठा कर दें,
तो भी क्या यह रूप
भोगने योग्य रहेगा ?

कुबेर

(अधर पर उंगली रख कर फुसफुसाते हुए)

चुप हो जायो ।
वह देखो…
गाते-चिल्लाते
महादेव शंकर आते हैं ।

(तभी शंकर, महाशोक से ग्रस्त, कोने
से मंच के अग्र-भाग के प्रकाश में
आते हैं)

शंकर

आह प्रिया !
अब क्या रह गया शेष ?
सूना सा लगता है
सारा कैलास-देश ।
नंदा का मलिन वेश ।
हिम तक पर व्याप्त क्लेश ।
सारे संदर्भ व्यर्थ,
जीवन का कुछ न अर्थ,
अब ऐसा एक नहीं
जो मेरे भाव ग्रहण करने में
हो समर्थ ।

आह प्रिया !
मेरा हर एक शब्द
था तुझको पूर्ण वाक्य ।
मेरे हित
तूने क्यों राज्य भोग त्याग दिया ?
नंदा-व्रत पूर्ण किया ?
क्यों मुझसे
मुझको ही माँग लिया ?
...फिर मेरा हाथ छोड़
अधबर में साथ छोड़
चली गई...

(क्रोध में सिसकते हुए)

बता मुझे
बोल तनिक,
कौन सी परिस्थिति थी
जिससे तू छली गई ?

(दाएँ हाथ में त्रिशूल उठाकर)

प्राण प्रिया !
तुमको यदि संध्या तक
मिली नहीं चेतनता,
यदि तुझसे यह विछोह, चिर होगा,
तो मैं सच कहता हूँ
महाकाल का तांडव फिर होगा;
तो तीनों लोकों में
मज्जा दिखेगी नहीं
केवल रुधिर होगा
...और प्रिया !
तेरे इन चरणों में
शीघ्र उस परिस्थिति का
उसके नियन्ता का शिर होगा ।

कुबेर

(घबराकर तेजी से)

महादेव कृपा करें ।
शोक तजें ।
आपकी व्यथा से आंदोलित है
सप्त-सिन्धु ।
दृष्टिगत नहीं होती आज कहीं…

शंकर

(जैसे परिस्थिति से अवगत होते हुए)

कौन ?
अलका पति !
तुम अब तक गए नहीं?

(क्षणिक विराम)

मन में अविनिश्चित संकल्प ठान,
जाने किस क्षण से प्रेरित अजान,
अभय दे दिया था तुमको मैंने ।
तुम अब तक गए नहीं?
मेरे प्रति सहानुभूति चुकी नहीं?

कुबेर

महादेव !
मुझे भले कुछ समझें ।
लेकिन मैं मनस्ताप
आपका समझता हूं ।
आपकी मन:स्थिति से
चिंतित है देवलोक ।

शंकर

(घृणा से)

देवलोक !
देवलोक !! देवलोक !!!
जो कि इस परिस्थिति का
नाथ है, नियन्ता है ।
मृत्यु का निमित
और प्रेयसि का हन्ता है ।
मैं उसको क्षमा नहीं कर सकता...

वरुण

प्रभु !

शंकर

(गरज कर)

जायो तुम !
पल भर में त्यागो कैलाश-भूमि
अन्यथा इसी क्षण
मैं तुम्हें भस्म करता हूँ।

(वरुण और कुबेर घबराकर पार्श्व
की ओर भागते हैं)

शंकर

(त्रिशूल उठाकर उन्हें रोकते हुए)

ठहरो ।
हाँ, कह देना विष्णु और ब्रह्मा से,
संध्या तक
सती में न आई यदि चेतनता
तो मेरा क्रोध देव भोगेंगे ।
...रुधिर वमन करेंगी दिशाएँ दश
आवर्ती पवन आग उगलेंगे,
चूर्ण-चूर्ण होंगी गिरि-मालाएँ,
सिंधु सूख जाएँगे ।
कह देना-
होगा दिग्दाह रुधिर वर्षण के साथ-साथ
पूरा ब्रह्मांड भस्म कर दूँगा ।

(अट्टहास)

(वरुण और कुबेर तेजी से जाते हैं और
शंकर त्रिशूल की टेक लगाकर एक टांग
पर खड़े होकर डमरू बजाने लगते हैं)

शंकर

(उसी अट्टहास के साथ)

डमर-डमर बजने दो डमरू
जब तक शक्ति विकास न पाए
जब तक मेरी मृतक प्रिया के
शव में वापस सांस न आए ।

(जोर से बजाकर)

डमर-डमर बजने दो डमरू
होने दो तांडव त्रिलोक में,
महादेव की प्रतिहिंसा भी
देखे देव-समाज शोक में ।

(डमरु की आवाज उभर कर धीरे-धीरे
मंद पड़ जाती है और परदा गिरता है)

ब्रह्मा

पर यदि मुझसे करो अपेक्षा
तो मैं आपने मुंह से
सेना को आदेश नहीं दे सकता ।
मैं पहले ही बता चुका हूं
यह सामूहिक-आत्मघात है ।
इसके पीछे कोई जीवन-दृष्टि नहीं
केवल आग्रह है ।
प्राणों की आहुति
युध्द के नहीं
सत्य के लिए होती है ।

दृश्य: चार

(स्थान: ब्रह्मा के भवन का एक, कक्ष
जिसमें इन्द्र सेनापति के वेश में युद्ध करने
के लिए भगवान ब्रह्मा की अनुमति लेने
आए हैं)

इन्द्र

हाँ ! युद्ध के सिवा
अब कोई भी विकल्प अवशेष नहीं है ।
महादेव शिवशंकर अपनी पूर्व-नियोजित
डाकनियों, शाकिनियों प्रेतों और गणों की
सेना लेकर
देवलोक की सीमायों पर चढ़ आए हैं ।
प्रभु !
आज्ञा दें,
महादेव शंकर का पूजन अब युद्धस्थल में ही होगा ।

ब्रह्मा

देवराज !
तुम कृत-निश्चय हो ?
सब परिणाम विचार लिए हैं ?

इन्द्र

प्रभु, परिणामों पर क्या सोचूं ?
हानि-लाभ के संदर्भों में
मान और मर्यादाओं के प्रश्न नहीं परखे जाते हैं ।

ब्रह्मा

मान और मर्यादा पर तुम
थोड़ी सी गहराई से सोचो ।
किसी व्यक्ति के अपशब्दों से
याकि अकारण तुमको अपमानित करने से
क्रोधित होने से अथवा क्रोधित करने से
किसका मान भग्न,
...किसकी मर्यादाएँ खंडित होती हैं ।

इन्द्र

स्वयं उसी की जो ऐसा आचरण करेगा ।

ब्रह्मा

फिर तुम अपने मान
और मर्यादाओं के प्रति शंकित क्यों ?
क्यों सेनाएँ सजा रहे हो ?

इन्द्र

मात्र एक व्यक्ति ही नहीं प्रभु,
यह शासन की मर्यादा है ।
प्रभु शत्रु के समक्ष शस्त्र से
यदि मैं आज न उत्तर दूँगा,
तो त्रिलोक में
मैं कायरता के अपयश का भागी हुँगा ।

क्या शासक का धर्म
प्रजा की रक्षा करना, नहीं…?

ब्रह्मा

और प्रजा की रक्षा करे युद्ध के द्वारा ?
और प्रजा का रक्त बहाए...
क्षण में सब चिन्मय सौंदर्य रुधिरमय कर दे,
गायन-गुंजित नगर चीत्कारों से भर दे,
जन-विवेक को
वध की बलिवेदी पर धर दे,
यह भी शासक के कर्त्तव्यों में अंकित है ?

(एक सैनिक का प्रवेश)

सैनिक

देवराज !
शिव की गण-सेना
निकट आ रही है क्षण-प्रतिक्षण
वह देखें कोलाहल बढ़ता ही आता है ।

(पृष्ठभूमि में कोलाहल)

तेरह सन्निपात
सौ ज्वर की ज्वाला वाला
दो सहस्र भुजधारी
पामर, अत्याचारी
वीरभद्र उसका नायक है ।
और हमारी सारी सेना
उद्यत और प्रतीक्षा-रत है ।
क्या आज्ञा है ?

ब्रह्मा

(सोचते हुए)

उनसे कह दो ठहरें !
और निकट आने दें महादेव की सेना ।

सैनिक

जैसी आज्ञा ।

(विनत होकर चला जाता है)

इन्द्र

देखा प्रभु
महादेव की महाशक्ति का दंभ निहारा
...जैसे हम कृमि-कीट सदृश हों
और धमनियों में हम सब की
रक्त नहीं पानी बहता हो ।
मैं कहता हूँ
सहनशीलता की कोई सीमा होती है ।
अब आज्ञा दें,
-आत्म सुरक्षा है विधान में
जन्मजात अधिकार सभी का ।

ब्रह्मा

मैँ आज्ञा दूं ?
लेकिन मैं तो आत्मघात को
आत्मसुरक्षा नहीं समझता ।

इन्द्र

आत्मघात ?

ब्रह्मा

हाँ, आत्मघात,
वही भी सामूहिक !
मेरे अपने ज्ञानकोश में
युद्ध शब्द का यही अर्थ है ।

इन्द्र

किंतु पराजय के कारण मैं नहीं देखता ।
मेरे पास शस्त्र की कोई कमी नहीं है,
मेरे पास अन्न की कोई कमी नहीं है,
मेरे पास वस्त्र की कोई कमी नहीं है,
और न मेरे योद्धाओं का क्षीण मनोबल,
और न मैं आक्रामक
मैं तो संरक्षक हूँ ।

ब्रह्मा

लेकिन किसके संरक्षक हो ?

इन्द्र

देवलोक का ।

ब्रह्मा

देवलोक के नहीं
सत्य के संरक्षक को जय मिलती है ।

इन्द्र

(व्यंग्य पूर्वक)

और सत्य के संरक्षक वे शिवशंकर हैं !
जो कि एक शव के कारण
लड़ने को उद्यत !
न्याय माँगता है जिनका अन्याय अप्रतिहत !
इसीलिए आपके न्याय की तुला
उधर है !

(आवेश में आकर)

लेकिन क्षण भर
पक्षपात से ऊपर उठकर यह बतलाओ,
मेरी ओर नहीं है
तो फिर सत्य किधर है ?

(सहसा दो सैनिक तेजी से प्रवेश करते हैं)

एक सैनिक

देवराज !
महादेव शंकर की सेनाएँ
सीमा में दूर तक चली आईं ।
अगणित घर उजड़ गए
धरती हो गई लाल ।
शासन को कोसती हुई जनता पागल है ।
वह देखें
नारों की आवाजें बढ़ती ही आती हैं ।

(नारों की अस्पष्ट आवाजें)

दूसरा सैनिक

देवराज !
मंत्र-नाद करते
शिवशंकर हैं स्वयं साथ,
भू-कंपित
नक्षत्रों की गति है वक्र नाथ !

हमको क्या आज्ञा है ?
योद्धा आदेश-विवश विह्वल हैं ।

ब्रह्मा

सेना से कह दो वह शांत रहे
युध्द के ही प्रश्न पर विचार कर रहे हैं हम ।

दोनों सैनिक

जो आज्ञा ।

(चले जाते हैं)

इन्द्र

(विवश क्रोध से)

खूब कहा प्रभु,
इतना रक्तपात होने पर,
इतनी भूमि निकल जाने पर,
आप अभी तक मेरा प्रश्न विचार रहे हैं !
इससे अच्छा हो कि आप
भगवती सती को जीवन दे दें ।

ब्रह्मा

(आश्चर्य से)

क्या कहते हो ?
देवराज,
क्या यह भी लौकिक नेताओं का प्रजातंत्र है,
जो जब चाहे
इच्छाओं से परिवर्तन कर
नियमों को अनुकूल बना लें ।

इन्द्र

आप सती को जीवन देना नहीं चाहते
तो फिर अब युद्ध के अलावा
कोई और विकल्प नहीं है;
और समस्या का यह अंतिम समाधान है ।

ब्रह्मा

देवराज !
युध्द-
अधिक से अधिक विशिष्ट परिस्थितियों में
समाधान का संभव कारण बन सकता है,
यही नियम है ।
-लेकिन कोई शासक मन में
स्वयं युद्ध को,
किसी समस्या का किंचित् भी
समाधान समझे तो भ्रम है ।

(नेपथ्य में उभरता हुआ कोलाहल तेज हो
जाता है । एक उत्तेजित भीड़ का आभास
मिलता है और भगवान ब्रह्मा के उसी
कक्ष का दरवाजा पीटा जाता है ।)

एक स्वर

(नेपथ्य से)

हम ब्रह्मा को नहीं चाहते ।

कई स्वर

प्रजातंत्र में यह मनमानी नहीं चलेगी ।

एक स्वर

सेना को आज्ञा दो…
-अथवा,
अपना यह सिंहासन छोड़ो ।

कई स्वर

खोलो ये दरवाजे खोलो,
इस कायर शासन को तोड़ो ।

ब्रह्मा

(सहसा शान्त भाव से उठकर द्वार खोलते हुए)

क्या कारण है ?
इतनी उत्तेजना
और ये भीड़-भाड़
-ये नारेबाज़ी...ये सब क्या है ?

(नेपथ्य से फिर वही नारा गूंजता है-
"प्रजातंत्र में यह मनमानी नहीं चलेगी")

ब्रह्मा

आप लोग अपने प्रतिनिधियों को आने दें
मैं एकाकी सबसे बात नहीं कर सकता ।

(द्वार से प्रतिनिधियों को भीतर आने
का रास्ता देते हुए)

आप सभी
पहले अपना आवेश त्याग दें,
बैठें शान्त-भाव से मेरे पास
और यह निश्चय जानें,
इस स्थिति में
अगर युद्ध ही एकमात्र है समाधान
तो
सबसे पहले मेरा रक्त गिरेगा भू पर
युद्धस्थल में,
सेना लेकर सबसे आगे में जाऊँगा ।

कुबेर

(आवेश में द्वार से भीतर आते हुए)

कब जाओगे ?
तब,
जब ये प्रासाद धूल में मिल जाएँगे
देवलोक का नाम निशान न रह जाएगा ?

वरुण

(उसी द्वार के अन्दर आते हुए)

जब लड़ने को शेष न होगा कोई सैनिक
जब रक्षा के लिए न कुछ भी बच पाएगा ।
तब जाओगे ?

(जनता के प्रतिनिधियों के रूप में कुबेर
और वरुण को देखकर पहले तो भगवान
ब्रह्मा विस्मित होते हैं फिर प्रसन्न और क्षुब्ध)

ब्रह्मा

मैं प्रसन्न हूँ
देवपुत्र,
मेरे विरोधियों के प्रतिनिधि होकर आये हैं ।
उनमें इतना नैतिक साहस है
-जो मुझसे बात कर सकें ।

(स्वर बदलते हुए)

पर तुम दोनों
अपने संयम की सीमाएँ लांघ रहे हो
सोख लिया है यदि शंकर का
ज्ञान और संतुलन शोक ने,
तो तुम भी क्रोधान्ध हुए हो ।

शेष

(अचानक प्रवेश करते हुए)

तुममें भी उस सहज सत्य के
-अन्वेषण की दृष्टि नहीं है ।
हम अंधे हैं अगर क्रोध से
तो तुम शिव शंकर की ममता से अंधे हो ।

ब्रह्मा

शेष !
तुम भी ?
अच्छा तुम्हीं बताओ,
युद्ध स्वयं में
क्या कोई उपलब्ध सत्य है ?

ये भी छोड़ो ।
मैं कहता हूँ
तुम शासन की किसी नीति या किसी पक्ष से
पहले मुझे युद्ध की अनिवार्यता बता दो ।

शेष

यह विवाद,
या स्थितियों के विश्लेषण का समय नहीं है ।
यह केवल युद्ध का समय है ।
क्रोधित शंकर
सीमायों में घुस आए हैं ।
चिल्लाकर अपनी प्रतिहंसा उद्घोषित करते
फिरते हैं ।
कहते हैं…मेरे विरुद्ध
इस देवलोक में दुरभिसंधि है,
कहते हैं…सारे समाज को
भस्म करेंगे श्राप यती के,
कहते हैं-मेरी पत्नी को
जीवन दो या तांडव भोगो,
कहते हैं…सब देव और ॠषि
हंता हैं भगवती सती के ।

ब्रह्मा

लेकिन यह तो उनका मत है...

इन्द्र

और हमारा ऐसा मत है-
जहाँ न्याय की हत्या हो
अन्याय सफल हो,
जहाँ शक्ति को अहंकार हो
सत्य विकल हो,
जहाँ विवश-सा शौर्य
झुकाए शीश, सिहरता,
जहाँ प्रबल हों असुर
और निर्बल हों भर्त्ता,
-वहाँ धैर्य का दुर्ग अन्तत: ढह जाता है
औ' एकमात्र उपाय युध्द ही रह जाता है ।

(इन्द्र के आवेश की प्रतिक्रिया में वरुण,
कुबेर तथा शेष भी उत्तेजित हो उठते हैं)

(हाथ उठाकर तीनों चिल्लाते हैं)

शेष, वरुण, कुबेर

युद्ध करेंगे
अब एकमात्र उपाय युद्ध है

(प्रतिक्रिया-स्वरुप कक्ष के बाहर खड़ी
भीड़ भी चिल्लाती है)

भीड़

नहीं डरेंगे
अब एकमात्र उपाय युद्ध है ।

भीड़ से एक स्वर

ब्रह्मा यह सिंहासन छोड़ो ।

भीड़

इस कायर शासन को तोड़ो ।

ब्रह्मा

(कोलाहल धीमा होने पर इन्द्र से)

यह लो शासन-दंड सम्भालो

(दंड देते हुए)

असली शासक तुम हो
मैं तो यों भी परामर्शदाता था
मुझको इस शासन का कोई मोह नहीं है ।

पर यदि मुझसे करो अपेक्षा
तो मैं अपने मुँह से
सेना को आदेश नहीं दे सकता ।
मैं पहले ही बता चुका हूँ
यह सामूहिक आत्मघात है ।
इसके पीछे कोई जीवन-दृष्टि नहीं,
केवल आग्रह है ।

शिव-सेनानी वीरभद्र
कैलासनाथ का जटा-पुत्र है,
गण उनके ही मनस्तत्व हैं
डाकिनियाँ, शाकिनियाँ, भूत-प्रेत
उनके अन्तर्विकार हैं ।
रक्तपात से शिव में और विकार बढ़ेंगे ।
और नए गण-सैनिक भूत-प्रेत जन्मेंगे ।
-देवलोक के वीर
भला कभ तक उन सबसे लोहा लेंगे ?

इन्द्र

इसका अर्थ हुआ कि शक्ति के भय से
हम शत्रु को न रोकें,
प्राणों का कर मोह
घरों में छुप जाएँ अपमानित होकर;

डरें युद्ध से,
रक्तपात के भय से काँपें
कामिनियों से रास रचाएँ
पौरुष की मर्यादा खोकर ?

ब्रह्मा

इसका है ये अर्थ
दृष्टि के बिना अकारण युद्ध न ठानें,
युद्ध अधिक से अधिक एक कारण है
उसको सत्य न मानें,
प्राणों की आहुति
युद्ध के नहीं
सत्य के लिये होती है !

(कक्ष के दूसरे द्वार से मुस्कराते
हुए विष्णु का प्रवेश)

विष्णु

ऐसा प्रतीत होता है
जैसे देव-बन्धु,
अत्यन्त गूढ़-गंभीर प्रश्न में हों निमग्न ।
मैं तो यों ही कोलाहल सुनकर खिंच आया ।
मेरा आगमन
अनावश्यक
या अनाहूत तो नहीं हुआ ।

इन्द्र

(विनम्र होते हुए)

भगवान विष्णु का स्वागत है ?
कण-कण में रमने वाले अन्तर्यामी भी
क्या अनाहूत हो सके हैं ?

ब्रह्मा

(समुचित आदर देते हुए)

मात्र समस्याएँ होती हैं अनाहूत केवल जीवन में
बन्धु !
आप तो समाधान हैं ।
स्वागत है ।

(विष्णु आसन ग्रहण करते हैं)

इन्द्र

(आगे बढ़कर)

प्रभु !
आपको विदित है
शंकर
देवलोक की सीमाओं में घुस आए हैं...
और आपके सहयोगी श्री ब्रह्मा हमको
रक्षा की भी अनुमति देना नहीं चाहते
सारी जनता असन्तुष्ट है ।

विष्णु

मुझे विदित है ।

वरुण

हमको भय है
यहाँ उलझते रहे पस्सपर हम चर्चा में
वहाँ हमारी सेनाएं आशंकित होकर
शासन से विद्रोह न कर दें ।

कुबेर

या उनका अविरोध देखकर
शंकर की सेनाएं
आगे तक बढ़ आएं
अथवा अलका पर चढ़ जाएं ।

(उसी समय नेपथ्य से एक नागरिक
की पीड़ा भरी आवाजें आती हैं)

एक नागरिक

आह !
लुट गये
आह! मिट गये...
इन सब हत्यारों ने हमको
रक्षा का आश्वासन देकर लूट लिया ।
भूमि छिन गई
आँखों का सारा आकाश खो गया ।
अब अँधियारे में टटोलते फिरते हैं हम
-ओ मेरी रोशनी कहाँ है तू ?
ओ मेरी ज़िंदगी कहाँ है तू ?

दूसरा नागरिक

आह न जाने
कैसे कापुरुषों का संरक्षण पाया है ?
मेरे उत्तरवासी
सब सम्बन्धी बेघरबार हो गए,
सब शरणार्थी
सब शरणार्थी
पूर्वजन्म में जाने कितने पाप किये थे
जो इन कापुरुषों का संरक्षण पाया है...

शेष

(विष्णु को सम्बोधित करके)

सुनते हैं प्रभु ये आवाजें...
देख रहे हैं...

सर्वहत

(शरणार्थी के वेश में लड़खड़ाता हुआ उसी द्वार से
मंच पर प्रवेश करता है जिससे वरुण, कुबेर आदि
प्रतिनिधि आए थे)

मैं सुनता हूँ...
मैं सब कुछ सुनता हूँ
सुनता ही रहता हूँ...

देख नहीं सकता हूँ
सोच नहीं सकता हूँ
और सोचना मेरा काम नहीं है
उससे मुझे लाभ क्या
मुझको तो आदेश चाहिये
मैं तो शासक नहीं
प्रजा हूँ
मात्र भृत्य हूँ
इस लिए केवल सुनना मेरा स्वभाव है ।

ब्रह्मा

तुम किस लिये यहाँ आये हो
जबकि तुम्हारे प्रतिनिधियों से बात हो रही है
तो तुमको
भीतर आने की आज्ञा किसने दी ?

सर्वहत

मैं ? हाँ...
मैंने पहचान लिया
मैंने सुनकर ही पहचान लिया
-ठीक वही स्वर है
-वही
जो मेरे महलों में एक रोज
भूखों की भीड़ ले आया था।
बोलो...
क्या तुमने भी मुझको पहचान लिया ?

(रुक कर)

याद नहीं आता क्या ?
पर मुझको याद है
मैं कभी सुनने में भूल नहीं कर सकता ।
हाँ, मुझको याद है
कि मैंने तुमसे
यह कभी न पूछा था-
तुम किसकी आज्ञा से आए हो?
मैंने तो बाहें फैलाकर तुम्हें अनायास
अपनी यह देह भेंट कर दी थी
पर तुमने कुछ भी न खाया था...

(रुक कर)

ये भी तुम्हें याद नहीं?
ओह !
अब समझा,
तुम शासक हो,
उनकी स्मरण-शक्ति दुर्बल हो जाती है ।
छोटी-छोटी बातें उन्हें याद नहीं आती हैं ।

पर तुम जाने कैसे शासक हो !
और...जाने कैसी है तुम्हारी यह प्रजा,
-ज़रा-ज़रा बातों पर चीखती-चिल्लाती है
शासन के दरवाज़े पीटती है
नारे लगाती है
और शत्रु सेना की तरह घिरी आती है...

(सीने पर हाथ मार कर)

अरे...प्रजा हम थे
हमने उफ़ तलक नहीं की
शासन के ग़लत-सलत झोकों के आगे भी
फसलों-से विनयी हम बिछे रहे निर्विवाद
हमारे व्यक्तित्व के लहलहाते हुए
खेतों से होकर-
दक्ष ने बहुत सी पगडंडियाँ बनाईं
कर दी सब फसलें बरबाद
पर हम नहीं बोले... बिछे रहे
हमने पथ दिया सबको
क्यों कि हम प्रजा थे...

विष्णु

पर अब तुम
हमारी प्रजा हो...दक्ष की नहीं हो ।
यहाँ तुम बिछोगे नहीं
तुममें से होकर अब
कोई पगडंडी भी नहीं बना पायेगा ।

सर्वहत

पर अब मैं
एक पगडंडी के सिवा और क्या हूँ ?
-धूल भरी विस्मृत सी पगडंडी एक :
जिस पर थके और जख़्मी पदचिह्न हैं अनेक :
और जो परम्परा की तरह,
एक दायरे में,
चक्कर लगाती हुई चलती है,
अब तो मैं खेत भी नहीं हूँ
और अगर खेत हूँ भी तो
अब मुझमें फ़सल कहाँ फलती है ?

विष्णु

किन्तु बन्धु ।
यहाँ किस प्रयोजन से आये हो ?
हमको बतलायो तुम ।
शायद तुम्हारे लिये
हम कुछ कर सकते हों !

सर्वहत

तुम क्या कर सकते हो,
कोई क्या कर सकता है
यह उसकी अपनी सामर्थ्य
और क्षमता पर निर्भर है,
यह कोई सार्वजनिक प्रश्न नहीं ।
... हाँ ।
...लो मैं अपना प्रयोजन ही भूल गया
यह प्रयोजनी समाज !
जिसमें हर बात का प्रयोजन
देखा जाने लगा है आज ।
मैं इसमें आकर
प्रयोजन ही भूल गया ।

...हाँ, मुझको याद आया
-शायद मैं भूखा हूँ
-रोटी के लिए यहाँ आया हूँ।
-नहीं ! नहीं !!
रोटी नहीं,
-मांस और मदिरा ।
-नहीं, ये भी नहीं
शायद कुछ और...
शायद थोड़ा सा रक्त ?

(उल्लास पूर्वक)

हाँ ! याद आया
रक्त !
लाल-लाल
ताज़ा-ताज़ा
गरम-गरम रक्त !

(अधरों पर जीभ फेर का)

तुम मुझको चुल्लू भर रक्त
पिला सकते हो ?
आह !
आज मैं प्यासा हूँ ।
देखो ना !
सूखे पड़े हैं मेरे होंठ हैं
जिन पर पपड़ियाँ उभर आईं ।
दक्ष के नगर में मैंने
बहुत दिनों
नहीं मिला पानी तो रक्त ही पिया
और उसी पर जिया
तुम मुझको थोड़ा सा
रक्त दिला सकते हो ?

ब्रह्मा

दक्ष का नगर ये नहीं है
देवलोक है ।
यहाँ तुम्हें रक्त नहीं मिल सकता ।

विष्णु

एक बूंद रक्त यहाँ बहुत मूल्य रखता है ।
बन्धु, हम अगर चाहें
तो भी हम रक्त का प्रबंध नहीं कर सकते ।

सर्वहत

क्या बच्चों-सी बातें करते हैं आप लोग
आप लोग शासक हैं
और शासकों को कहीं
रक्त की कमी हुआ करती है ।
आप लोग चाहें तो मेरे लिए
रक्त का समुन्दर भर सकते हैं ।
-पर मैं समझता हुँ
मुझको बहलाते हैं आप लोग
आप लोग मुझसे हैं असन्तुष्ट,
अप्रसन्न ।
आप नहीं
सभी लोग
...सभी मुझे देखकर घृणा से थूक देते हैं
मुझे मार डालने के लिए लपकते हैं ।
पर मेरा दोष क्या है ?

ब्रह्मा

(चिढ़े हुए स्वर में)

बन्द करो यह प्रलाप
हम इतनी देर सहन करते रहे शब्द-श्राप
और क्या तुम्हारा यही दोष कुछ कम है ।
तुम अपने
स्थिति-संदर्भों से कटे हुए
श्राप हो समय के,
और भार हो हमारे वर्तमान पर;

तुम अब भी उस क्षण में जीते हो
जो कि एक काला-सा धब्बा है
जीवन के
उजले विहान पर ।

सर्वहत

(आश्चर्य से)

बस
इसीलिए तुम मुझको
प्यासा मार डालोगे
रक्त नहीं दोगे…
सिर्फ इसीलिए…
काश !
यह पता होता पहले से मुझे
कि चाहे वह दक्षलोक हो
अथवा देवलोक
साधारण लोगों को कहीं
न्याय… मिलता नहीं
तो मैं यह रक्तपान करने की
बात छोड़ देता !

इन्द्र

मित्र !
'साधारण लोगों को न्याय नहीं मिलता है'
ये कहना
बिल्कुल आधारहीन-सी है एक बात ।

सर्वहत

क्यों ?
क्या अपने महादेव शंकर के साथ
इन्हीं लोगों ने
किया नहीं पक्षपात ?
सीमा पर उनके लिए
-रक्त की नदियाँ खुलवा दीं…
और मुझसे कहते हैं-
'यहां रक्त नहीं मिल सकता
यहां रक्त है अमूल्य ।'

बतलाओ-
मुझमेँ या शिव में क्या अन्तर है ?
यही न कि मैं तो सर्वहत हूँ
-साघारण हूँ
और वो विशिष्ट देवता है, शिवशंकर है !
किन्तु प्यास दोनों की एक-सी है !

(हँसता है और कुछ याद कर सहसा
रुक जाता है)

ओह !
किन्तु क्षमा करें
भटक गया था मैं,

(रोते हुए)

मैँ तो प्रजा हूं
मुझे क्या हक है…?
क्या हक है जो मैं प्रलाप करूं ?
आपका अमूल्य समय नष्ट करूं ?
क्षमा करें प्रभु
मुझको क्षमा करें ।

(रोता हुआ ब्रह्मा के चरणों में अचेत-सा
गिर जाता है)

वरुण

क्या इसका प्राणान्त हो गया ?

कुबेर

आयो देखें ।

विष्णु

(एक दृष्टि सर्वहत पर डालकर)
नहीं,
अभी तक सिसक रहा है ।

इन्द्र

(उच्छ्वास छोड़ते हुए)
इसकी बातें कितनी कड़वी थीं
लेकिन कितनी सच्ची हैं ।
उनके संदर्भों में मुझको
महादेव का कृत्य, मात्र हिंसा लगता है
इसकी रक्तपान की लिप्सा जैसा
-तर्कहीन पागलपन ।

(ब्रह्मा से)

प्रभु !
क्या अब भी
कहीं आप के मन में थोड़ी सी दुविधा है ?
अब भी शंकर का औचित्य
सिद्ध करने पर तुले हुए हैं ?

ब्रह्मा

मैंने कब शिव शंकर का
औचित्य सिद्ध करना चाहा था ?
मैंने तो केवल चाहा था
तुम अपना औचित्य समझ लो-
तुम सत्य से आंख मत मींचो ।
यदि तुमको जय ही अभीष्ट है
अपनी ओर सत्य को खींचो ।
प्राणों की आहुति
युद्ध के नहीं
सत्य के लिए होती है ।
(द्वार पर खड़ी जनता में प्रतीक्षा का
कोलाहल उभरता है और एक नागरिक
द्वार में से कुछ आगे आकर कहता है)

एक नागरिक

हम ये लम्बी-लम्बी
नीरस बहसें सुनकर उब चुके हैं ।
कब से खड़े हुए सब के सब
हम निर्णय के अभिलाषी हैं ।

पीछे भीड़ की आवाज़

हम निर्णय के अभिलाषी हैं ।

विष्णु

धीरज रक्खो
न्याय करूँगा ।
चाहे शंकर मेरे कितने निकट-मित्र हों,
चाहे ब्रह्मा जी मेरे कितने अभिन्न हों,
पर मैं अपना मत
सत्य के पक्ष में दूँगा ।

(उसी सैनिक का प्रवेश)

सैनिक

(किंचित् घबराये हुए स्वर में)
देवराज !
सेना कब की सन्नद्ध खड़ी है ।
क्या आज्ञा है ?

विष्णु

(विश्वासपूर्ण गांभीर्य से)
सैनिक !
सबसे जाकर कह दो
शीघ्र युद्ध होने वाला है ।
क्षीर सिंधु के वासी विष्णु
हमारी सेना के नायक हैं ।
सेना से कह दो
वह सीमाओं पर जाए ।
कह दो उससे
शत्रु न आगे आने पाए ।
जल्दी जाओ
कह दो सबसे ।
रण के मारू वाद्य बजायो !

सैनिक

(प्रसन्नता पूर्वक)
जो आज्ञा प्रभु,
(ब्रह्मा प्यार और प्रशंसा से विष्णु को देखते हैं)

विष्णु

देवराज !
तुम अपना धनुषबाण मुझको दो,
मेरे मत में
पहले कर्म हुआ करता है
फिर उसकी व्याख्या होती है...

(इन्द्र धनुषबाण देते हैं, जिसकी प्रत्यंचा खींचकर,
मंत्र पढ़कर विष्णु एक बाण छोड़ते हैं जिससे तीव्र
नाद होता है । उपस्थित देवगण एवं जनता
अनायास भगवान विष्णु की जयकार कर
उठती है । जय-जय कार करती भीड़ के क्रमश:
दूर होते जाने का आभास)

इन्द्र

देखा प्रभु !
भगवान विष्णु ने भी कर्म को महत्ता दी है ।

ब्रह्मा

हाँ, यदि वह चिंतन-प्रसूत हो,
धर्मजन्य हो ।

विष्णु

देवराज !
मैंने जो कर्म किया है वह चिंतन-प्रसूत है ।
उसका फल
क्षण दो क्षण में सम्मुख आएगा
मैंने अपना पक्ष तौलकर
सत्य समझकर ही शंकर पर
अपना प्रथम बाण छोड़ा है :
इसके द्वारा
उनका एक स्वप्न तोड़ा है ।
मुझे ज्ञात है
हर परम्परा के मरने पर थोड़े दिन तक
सारा वातावरण शून्य से भर जाता है,
औ' परम्परा के चरणों में नत मस्तक
उसका हर पोषक
सहसा मन में डर जाता है ।
अथवा आक्रामक या हिंसक हो उठता है ।

(सर्वहत को, झुककर उठाने का यत्न करते हुए)

देखो…ये भयभीत
और शंकर हिंसक हैं ।
लेकिन इसके बावजूद फिर
थोड़े दिन पश्चात् शून्य की उसी भूमि पर,
कोई नया रूप धर
नन्हा अंकुर एक उभर आता है,
जो कि अन्तत:
हर उपेक्षा पर अपना विकास पाता है ।

इन्द्र

समझ गया मैं
एक सत्य से कट जाने पर

(सर्वहत की ओर संकेत करके)

यह सामर्थ्यहीन साधारण जन
केवल भयभीत हो गया,
पर कैलासनाथ ने सहसा,
आक्रामक का रूप कर लिया पल में धारण ।
नए सत्य से जोड़ नहीं पाए वे खुद को
शव के कारण ।

वरुण

इसीलिए अंकुर को ऊपर आने देना नहीं चाहते ।
लेकिन प्रभु,
शिव शंकर वह शव कब त्यागेंगे ?
भूमिसात् होगी कब वह दुर्गन्ध कि जिससे
सारा वातावरण ग्रस्त है ।
कब उस शव का खाद ग्रहण कर
उस मिट्टी की पृष्ठभूमि पर
नव अंकुर ऊपर आएगा !

सर्वहत

(कष्ट से सिर उठाने का यत्न
करते हुए धीरे से)

मैं बतलाऊँ कब आएगा !

इन्द्र

(सर्वहत की उपेक्षा करते हुए)

प्रभु,
क्यों लोग 'नए' को ऊपर आने देना नहीं चाहते ?

(सर्वहत की ओर संकेत)

चाहे वे साधारण जन हों,
अथवा महादेव शंकर हों
क्यों इनमें अधिकांश लोग लाशें ढोते हैं;
-लाशें मरी मान्यताओं की
मरे विचारों की
भावों की...।

विष्णु

लाशें ढोने वाले अक्सर
खुद भी तो लाशें होते हैं ।

इन्द्र

लेकिन ऐसा क्यों होता है ?

विष्णु

क्योंकि सत्य का ताप
बड़े संयम से औ' श्रम से झिलता है,
जिसमें उद्घाटित होता है सत्य
उसे सृजन का सुख मिलता है,
किन्तु सृजन से पहले की पीड़ाओं जैसी
पीड़ा इसमें भी होती है...

सर्वहत

और उसी से सब बचते हैं :

(कष्ट से खड़ा हो जाता है)

सब बचते हैं...
मैं बतलाऊँ क्यों बचते हैं...
मैंने भी मुर्दे ढोए हैं
मैं केवल बतला सकता हूँ
मैं अपनी गर्दन नीची रखता हूँ
लेकिन
मुछे पता है ।

इन्द्र

तुम्हीं बताओ !

सर्वहत

जो अपनी गर्दन ऊँची रखते हैं
वे भी
नए सत्य को सम्मुख पड़कर नहीं देखते,
वे भी सहसा नए प्रश्न से नहीं जूझते
उससे लड़कर नहीं देखते,
सिर्फ़ व्यस्तताओं की रचना करके
उसे टाल जाते हैं
और युद्ध भी एक व्यस्तता का नाटक है ।

(सहसा व्यंग्य मिश्रित आवेश
में आकर इन्द्र से)

तुमने भी न्याय के नाम पर
यह नाटक रचना चाहा था,
नए सत्य की सृजन-व्यथा से
कतराना बचना चाहा था !
-तुम भी तो अपवाद नहीं हो !
तुम भी तो...अपवा...द...हा हा हा...
रण का निर्णय लेते समय
बतायो तुमने क्या सोचा था ?
(हंसता हुआ मंच से चला जाता है)

इन्द्र

(स्वगत सोचते हुए)

चला गया वह...
मुझमें जलते हुए प्रश्न की आग ढाल कर
मेरे चिंतन के सोए जल को खंगालकर ।

(प्रगट)

पागलपन का दर्प संजोए
चला गया वह मूर्ख कहीं का !

विष्णु

उस पर क्रोधित क्यों होते हो ?
उस जैसे साधारण जन को
परिवर्तन का विष पीना
और पचाना
सरल नहीं है ।
यों भी यह कोई साधारण कार्य नहीं है...
लेकिन उसका प्रश्न
तुम्हारे लिए बोध है ।
रण का निर्णय लेते समय बताओ
तुमने क्या सोचा था ?

इन्द्र

(पृष्ठभूमि में फिर सर्वहत की हंसी
और यही प्रश्न उभरता है । इन्द्र
पश्चात्ताप पूर्वक रुककर सोचते हुए)

मैंने . . क्या सोचा था ?
सचमुच…क्या सोचा था ?
मैं प्रतिहिंसा से पागल था शायद !
शायद कुछ भी सोच नहीं पाया था उस क्षण !
प्रभु ! आपने आज
दृष्टि के अवरोधों को खोल दिया है,
यों लगता है
मैंने मर कर फिर से जन्म लिया है ।
प्रभु !

विष्णु

बोलो
शायद मन में कुछ शंका है...

इन्द्र

हाँ
प्रभु मैं आश्वस्त नहीं हूं
अभी भृत्य ने बतलाया था
लोग व्यस्तताओं का यों ही
झूठमूठ नाटक रचते हैं
और सत्य की सृजन-पूर्व जैसी पीड़ाओं से बचते हैं ।
क्या ये संभव नहीं कि शिव भी
इसी वंचना में डूबे हों आँख मींचकर ?

क्या ये संभव नहीं दृष्टि दें आप उन्हें भी
और जगा दें अकस्मात् आवरण खींचकर ?
फिर प्रभु…क्यों आपने
आत्म-साक्षात्कार का
अवसर दिए बिना ही उन पर बाण चलाया…
क्या शिव में संक्रमण काल-का
विष पीने की शक्ति नहीं है ?
क्या वे यों ही नीलकंठ हैं ?

विष्णु

मैं इस चिंता पर प्रसन्न हूँ ।
देवराज, विस्वास रखो यह
जैसा तुमने चाहा है,
वैसा ही होगा ।
मुझे पता है
इस त्रिलोक में
महादेव का एक कंठ केवल विषपायी,
जिसकी क्षमताएँ अपार हैं ।
तुम अपने अन्तस् से यह विषाद धो डालो ।

मैंने एक प्रणाम-बाण छोड़ा है
जिसके कई फलक हैं
वे सारे
शिव के कंधों पर पड़ी हुई भगवती सती के
शव को खण्ड-खण्ड कर पल में
दिशा-दिशा में छितरा देंगे ।
जहाँ-जहाँ वे खण्ड गिरेंगे
वहाँ सत्य के नये-नये अंकुर उपजेंगे
और धर्म के तीर्थ बनेंगे
लेकिन...मेरा मूल बाण शिव के चरणों में
एक चुनौती या प्रणाम का अर्थ कहेगा,
चाहे वे प्रणाम स्वीकारें
चाहे वे युद्ध की चुनौती,
हर हालत में सत्य हमारी ओर रहेगा,
अन्तिम विजय हमारी होगी ।

(इन्द्र अन्य देवतायों सहित ब्रह्मा, विष्णु की
अभ्यर्थना में पृथ्वी पर झुक जाते हैं ।
प्रकाश-व्यवस्था द्वारा मंच पर पवित्र
एवं भव्य वातावरण की सृष्टि होती है ।
नेपथ्य में स्तोत्रगायन एवं मंगल-वाद्य
मुखर हो उठते हैं, जिनके ऊपर सहसा मुनादी
की-सी शैली में उद्घोषक का स्वर उभरता है।
उद्घोषणा के पहले वाक्य पर ही परदा गिर
जाता है किन्तु उद्घोषणा चलती रहती है ।)

उद्घोषक

सुने सब प्रजा
यह समाचार सुने
महादेव शंकर की सेनाएँ
लौट गईं… ।
सीमा पर रक्तपात
नहीं हुआ....।
युध्द हो गया समाप्त ।
सुने सब प्रजा
यह समाचार सुने…।

  • एक कंठ विषपायी (दृश्य: 1-2)
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