Dr. Arunprakash Awasthi
डा. अरुण प्रकाश अवस्थी

डा. अरुण प्रकाश अवस्थी की कविताएँ

1. कवि का संकल्प

घात के प्रतिघात के फण पर सदा चलता रहूंगा
किन्तु फिर भी लोक को आलोक से भरता रहूंगा

मृत्युंजयी हूँ है मुझे अमरत्व का वरदान शाश्वत
युग युगांतर तक बनेंगे अमर मेरे गान शाश्वत
एक अंतर्द्वंद्व शेष है जो कह न पाया
मनुज काया का अभी कर गूढ़ता भेदन न पाया
यह अनिश्चित प्रश्नवाचक चिह्न सी कब से खड़ी है
निःसारता ही सार इसका भेद यह मैं जानता हूँ

किन्तु मैं तो साधना की वह्नि में तपता रहूंगा
किन्तु फिर भी लोक को आलोक से भरता रहूंगा

2. राम और रावण

इस बार रामलीला में
राम को देखकर–
विशाल पुतले का रावण थोड़ा डोला,
फिर गरजकर राम से बोला–
ठहरो!
बड़ी वीरता दिखाते हो,
हर साल अपनी कमान ताने चले आते हो!
शर्म नहीं आती,
कागज़ के पुतले पर तीर चलाते हो।
मैं पूछता हूं
क्या मारने के लिए केवल हमीं हैं
या तुम्हारे इस देश में ज़िंदा रावणों की कमी है?

प्रभो,
आप जानते हैं
कि मैंने अपना रूप कभी नहीं छिपाया है
जैसा भीतर से था
वैसा ही तुमने बाहर से पाया है।
आज तुम्हारे देश के ब्रम्हचारी,
बंदूके बनाते–बनाते हो गए हैं दुराचारी।
तुम्हारे देश के सदाचारी,
आज हो रहे हैं व्याभिचारी।
यही है तुम्हारा देश!
जिसकी रक्षा के लिए
तुम हर साल
कमान ताने चले आते हो?
आज तुम्हारे देश में विभीषणों की कृपा से
जूतों दाल बट रही है।
और सूपनखा की जगह
सीता की नाक कट रही है।

प्रभो,
आप जानते हैं कि मेरा एक भाई कुंभकरण था,
जो छह महीने में एक बार जागता था।
पर तुम्हारे देश के ये नेता रूपी कुंभकरण पांच बरस में एक बार जागते हैं।
तुम्हारे देश का सुग्रीव बन गया है तनखैया,
और जो भी केवट हैं वो डुबो रहे हैं देश की बीच धार में नैया।

प्रभोॐ
अब तुम्हारे देश में कैकेयी के कारण
दशरथ को नहीं मरना पड़ता है,
बल्कि कम दहेज़ लाने के कारण
कौशल्याओं को आत्मदाह करना पड़ता है।
अगर मारना है तो इन ज़िंदा रावणों को मारो
इन नकली हनुमानों के
मुखौटों के मुखौटों को उतारो।
नाहक मेरे कागज़ी पुतले पर तीर चलाते हो
हर साल अपनी कमान ताने चले आते हो।
मैं पूछता हूं
क्या मारने के लिए केवल हमीं हैं
या तुम्हारे इस देश में ज़िंदा रावणों की कमी है?

3. विजयादशमी

इसी दिन राम ने दस शीश रावण को सँहारा था
इसी दिन नाम ने आतंक से भू को उबारा था
अंधेरे की मिटी सत्ता उजाला मुस्कराया था
दनुजता पर मनुजता का विजय-ध्वज फरफराया था।

अवधपति राम की जय का बजा था लोक में डंका
ढही मीनार शोषण की मिली थी धूल में लंका
धरा की सभ्यता में एक नूतन मोड़ आया था
कि जनता की पुकारों पर जनार्दन दौड़ आया था ।

अभी तक लोक में दुर्धर्ष रावण की रही सत्ता
बिना जिसके इशारे के न हिलता एक था पत्ता
जहाँ में थी न हरियाली तबाही ही तबाही थी
मगर यह जुर्म कहने की जमाने में मनाही थी ।

धरा ही क्या गगन पाताल उससे थरथराते थे
वरुण, रवि, इन्द्र, शशि, यम तक पगों में सिर झुकाते थे
न उसकी कोई तुलना थी न उसकी कोई सानी थी
स्वयं लंकाधिपति के साथ जब दुर्गा भवानी थी ।

जिधर संकल्प रहता है उधर ही शक्ति रहती है
धनुष से शक्तिशाली के विजय की धार बहती है
अटल सिद्धांत है जग का न कोई काट सकता है
भुवन में शक्तिपूतों का नहीं अभियान रुकता है।

इसी बल से दशानन का विजय-रथ घनघनाता था
न कोई शूर रावण से कभी आँखें मिलाता था
हुआ संग्राम राघव का दशानन से भयंकर था
उधर था शक्ति का साधक इधर तो स्वयं ईश्वर था।

हुआ जब राम का पौरुष समर में व्यर्थ सारा था
तभी श्रीराम ने दुर्गा भवानी को पुकारा था
हुई थी शक्ति की पूजा हुआ था शक्ति-आवाहन
किया था राम ने संकल्प से देवी का आराधन ।

स्वयं भुवनेश ने भुवनेश्वरी से शक्ति पाई थी
विजय की दुन्दुभी रघुनाथ ने भव में बजाई थी
इसी दिन शक्ति का संकल्प रघुवर ने जगाया था
इसी दिन लोक शिखरों पर दिवाकर मुस्कराया था ।

इसी दिन आदमी ने एक नव-आधार पाया था
इसी दिन सुप्त पौरुष ने नया श्रृंगार पाया था
इसी दिन शक्ति पूजन का नया आदर्श मचला था
इसी दिन आदमी की जिन्दगी का पंथ बदला था ।

भुवन में मनुज की जय का लगा फिर गूँजने नारा
मनुज की शक्ति को लखकर चकित आकाश था सारा
तभी से शक्ति पूजन का मनुजता पाठ पढ़ती है
विजय-तिथि पर सदा अपना नया संकल्प गढ़ती है ।

4. ताशकंद समझौते पर

(ताशकंद समझौते के उपरान्त तत्कालीन प्रधानमंत्री
लालबहादुर शास्त्री की मन:स्थिति)

उस संधि-पत्र पर हस्ताक्षर, जब जन-नेता ने कर डाला ।
पावन स्वदेश का पलभर में, उसने इतिहास बदल डाला ।।
वह सहमा-सहमा ठगा-ठगा, ताकने निशा में लगा गगन ।
स्मरण शहीदों का आया, जल उठा लाल का अंतर्मन ।।

जो लहू बहा सीमाओं पर, उनको अब कौन सुमन दूँगा ?
उनकी पत्नी मॉ बहनों को, बोलो क्या आश्वासन दूँगा ?
दूँगा जवाब क्या भारत को, निरवता में ही बोल उठा ।
सीमा की शोणित बूँदों से, उस संधि पत्र को तोल उठा ।।

उलझन के इस चौराहे पर, पीड़ा बढ़ती ही जाती थी ।
हाँ ! चुपके-चुपके द्रत गति से यह उमर सरकती जाती थी ।।
यह अत्याकस्मिक पदाघात, केवल सन्नाटे ने देखा ।
रवि की किरणों ने ताशकंद में उसकी अर्थी को देखा ।।

5. ओ इंकलाब की अभिनव लय

ओ चिर अतृप्त चिर विद्रोही, ओ इंकलाब की अभिनव लय।
वैराग्य-त्याग की विमल मूर्ति, जन-पथ के राही चिर निर्भय।।

तुम प्रकटे एक बिम्ब बनकर, इस राजनीति के अम्बर में,
दाहक उत्तम सृजनधर्मी, बस क्रान्ति-राग था हर स्वर में।
अंगारों से खेले हर दम, आजीवन पीते रहे गरल,
शिव स्वयं चकित हो गए देख, कैसी जड़-चेतन में हलचल।
ले एक हाथ में गरल, एक में अमृत, पिया बारी-बारी,
युग बोल उठा यह क्या? यह क्या? किस महाक्रान्ति की तैयारी?
हे आदर्शों के अभय सेतु, बन गए राम के अनुयायी,
जीवन भर औघड़ रूप रहे, हे वैरागी ! हे विषपायी।
अपने असीम श्रद्धाबल से, हे दृढ़ी। बन गए मृत्युंजय।
ओ चिर अतृप्त चिर विद्रोही..............

दोनों कर में अंगार लिए, अन्तर में लेकर सृजन आग,
अलमस्त फकीरी जीवन था, आरत जन के भैरवी राग।
हे अभिनव विश्वामित्र, नहीं उपमान तुम्हारा मिल सकता,
कितनी पीड़ा थी संस्कृति की, कोई अनुमान नहीं सकता।
शोषित जन की तुम थे पुकार, दालितों के युग आदर्श बने,
अपने प्रचण्ड मेधा बल से तुम सचमुच भारतवर्ष बने,
तुमको लखकर आभास हुआ, चाणक्य स्वयं अवतरित हुए,
हे यशी तुम्हारी हुंकृति से सब दैन्य भाव भी क्षरित हुए,
कामना यही है सिंहपूत ! आदर्श तुम्हारे हो अक्षय
ओ चिर अतृप्त चिर विद्रोही.................

भगवान राम भी जिस भू पर, वनवास काल में आए थे,
उस तीर्थ शिरोमणि चित्रकूट में, तेरह वर्ष बिताये थे।
जिसकी गोदी में दर्शन पा, तुलसी ने की मानस रचना,
वह चित्रकूट तेरे प्रयत्न से, फिर श्रद्धा का सेतु बना।।
रामायण मेला करने की, थी भव्य योजना बनवाई,
एशिया नहीं, पूरा भूमंडल जुटे, यह कोई जान नहीं सकता,
गहराई सागर सी असीम्, कोई अनुमान नहीं सकता।
हे, राष्ट्रवाद की ऋचा मुखर, संकल्प सिद्ध तुम थे अजेय,
ओ चिर अतृप्त चिर विद्रोही..............

तुम मातृशक्ति के पूजक थे, निज संस्कृति के आराधक थे।
मानव के सही उपासक थे, शुचि विश्व-भाव के साधक थे।
तुम दलितों के उत्थान हेतु, मानवी-श्लोक के वाचक थे।
लेकिन अनीति की झंझा के, हे वज्र-वक्ष तुम बाधक थे।
हे चिर विराट ! हम वामन हैं, कैसे अर्चना तुम्हारी हो,
इस राजनगर के मýथल की, तुम सौरभमय फुलवारी हो।
इस समय-बालुका पर तुमने, पद चिन्ह किए शाश्वत अंकित।
उन पर ही चल कर पा सकता, यह राष्ट्र लक्ष्य अपना वांछित।
युग अम्बर के उदयाचल से, फिर से प्रकटो हे युगाधार।
हे आदर्शो से स्वर्णमेरू ! हे जन मंगल के स्वर्ण वलय।।
ओ चिर अतृप्त चिर विद्रोही..............