धूम्र-वलय : माखनलाल चतुर्वेदी

Dhumar Valaya : Makhanlal Chaturvedi

1. धूम्र-वलय

जीवन के धूम्र-वलय पास उठे, दूर चले;
कितने हँस बोल चले, कितने मजबूर चले ।

काली छाया है, पर कोमलता इतनी है !
छन-छन जल-जल कर भी अगरु-गंध कितनी है ?

आज भव्य रूप लिये, रंग लिये डोल रही,
छाया है, किन्तु अमर वेद-ऋचा बोल रही,

इधर चले धूम्र-वलय, लिपट गये, घेर चले,
साँसों की फूंकों, मनमाने मुँह फेर चले ।

जीवन के धूम्र-वलय पास उठे, दूर चले;
कितने हँस बोल चले, कितने मजबूर चले ।

अनबोली साधे हैं, वलय-वलय बोल उठे!
अनहोनी मंजिल है, झूले ले डोल उठे!

वर दे यह, मेरे वलयों को प्रभु तू वर ले!
जीवन के धूम्र-वलय, तेरे कंकण कर ले !

चाह चले, नेह चले, संकट-दल चूर चले !
जीवन के धूम्र-वलय, पास उठे, दूर चले !

जीवन के धूम्र-वलय पास उठे, दूर चले;
कितने हँस बोल चले, कितने मजबूर चले ।
(।957)

2. ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें

तेरा चौड़ा छाता
रे जन-गण के भ्राता
शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा से लड़ते
भू-स्वामी, निर्माता !

कीच, धूल, गन्दगी बदन पर
लेकर ओ मेहनतकश!
गाता फिरे विश्व में भारत
तेरा ही नव-श्रम-यश !

तेरी एक मुस्कराहट पर
वीर पीढ़ियाँ फूलें ।
ये अनाज की पूलें
तेरे काँधें झूलें !

इन भुजदंडों पर अर्पित
सौ-सौ युग, सौ-सौ हिमगिरी
सौ-सौ भागीरथी निछावर
तेरे कोटि-कोटि शिर !

ये उगी बिन उगी फ़सलें
तेरी प्राण कहानी
हर रोटी ने, रक्त बूँद ने
तेरी छवि पहचानी !

वायु तुम्हारी उज्ज्वल गाथा
सूर्य तुम्हारा रथ है,
बीहड़ काँटों भरा कीचमय
एक तुम्हारा पथ है ।

यह शासन, यह कला, तपस्या
तुझे कभी मत भूलें ।
ये अनाज की पूलें
तेरे काँधें झूलें !

(16 अप्रैल 1957)

3. तुम्हारा चित्र

मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया
कुछ नीले कुछ श्वेत गगन पर
हरे-हरे घन श्यामल वन पर
द्रुत असीम उद्दण्ड पवन पर
चुम्बन आज पवित्र बन गया,
मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।

तुम आए, बोले, तुम खेले
दिवस-रात्रि बांहों पर झेले
साँसों में तूफान सकेले
जो ऊगा वह मित्र बन गया,
मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।

ये टिम-टिम पंथी ये तारे
पहरन मोती जड़े तुम्हारे
विस्तृत! तुम जीते हम हारे!
चाँद साथ सौमित्र बन गया।
मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।
(1956)

4. तुम्हारे लेखे

कुछ हुआ नहीं हो भले तुम्हारे लेखे !

तुम भले भूल जाओ, मैं कैसे भूलूँ
हथकड़ियों के शृंगार पहिन कर देखे
मैंने तो ये साम्राज्य मिटाकर देखे ।
कुछ हुआ नहीं हो भले तुम्हारे लेखे !

मैं सह न सका उठ पड़ा चुनौती लेने
सिंहासन उस दिन मूँछ मरोड़ रहा था
ले कृषक और मजदूर तराजू अपनी
निर्लज्ज विदेशी रक्त निचोड़ रहा था
पैदल थे बस संकल्पों ही का रथ था
जीतें या हारें, सूली अपना पथ था
मैंने शत-शत मदहोश जगाकर देखे
कुछ हुआ नहीं हो भले तुम्हारे लेखे !

यदि जरा देख पाता था साहस मेरा
परदेसी घातक मित्र बना है तेरा
मैं प्राण चढ़ाकर तुझे तार देता था
पिस्तौल उठाता, और मार देता था
मेरे रुधिरों के चित्र सांस तूली थी,
बन रहा चित्र माँ का था जब गोधूली थी,
मेरी पीढ़ी जागृत-बलि थी, फूली थी,
प्रभुता के घर तो सिर्फ एक सूली थी ।
युग अगर ठीकरा लेने से बच जाता
तो देश सहस्रों युग ठीकरे उठाता
अब तुम पद लोलुप देशभक्त अनदेखे ।
कुछ हुआ नहीं हो भले तुम्हारे लेखे !

तुम बलात्कार सायुज्य राग के मेरे
तुम अरे मुनाफाखोर त्याग के मेरे
ब्रिटिशों के युग में तुमने स्वर्ण समेटा
अब बापू की यादों अमरत्व लपेटा
गांधी युग की कुरबानी दुनिया देखे
कुछ हुआ नहीं हो भले तुम्हारे लेखे !

(26 जनवरी 1957)

5. कुसुम झूले

कुसुम झूले, कुसुमाकर मिले
हृदय फूले, सखि तृण-तरु खिले !

मिल गयी दिशि-दिशि, दृगंचल में सजल
श्रुत, सुगंधित, श्रमित, घबरायी नजर
वृक्ष वल्लरियों उठाता गुदगुदी
वायु की लहरों संजोता बेसुधी
कली है कुछ-कुछ खुली कुछ-कुछ मुँदी
भेद कविता का बनी कलिका खड़ी
सुरुचि और सुगंध ले मग में अड़ी
खिल खिल उट्ठी महक छोटी-बड़ी ।
क्यों समर्पण की इन्हें जल्दी पड़ी
तोड़ कर अनुभूति के सौ-सौ किले !
कुसुम झूले, कुसुमाकर मिले !
हदय फूले, सखि तृण-तरु खिले !
(मार्च 1957)

6. बोलो कहाँ रहें

हम भी कुछ करते रहते हैं, उस बबूल की छांह में
हम भी श्रम के गीत सुनाते हैं ढोलक पर गाँव में

हम में भी आ गई हरारत, बजी आज सहनाई है
केरल से काश्मीर तलक हम हैं, हम भाई-भाई रहें

कावेरी, कृष्ण, की नर्मदा गंगा जमना सिन्धु रहे
हमें न तोड़ सकेगा कोई, हम माँ-जाये बन्धु रहे !

चरण-चरण चल पड़ी मातृ-भू वरण-वरण सन्तान लिये
हैं छत्तीस करोड़ कि उनका अमित उचित अभिमान लिये ।

वेदों की अर्चना, तपों की धुन, गीता का गान लिये
जी में प्रभु को लिये, शीष पर आजादी का मान लिये ।

रण-वेदी पर, बलि-बेदी पर, श्रम-वेदी पर जहाँ रहें
लेकर शीश हथेली पर उठ बोलो कहाँ रहें?
(2 फरवरी 1957)

7. वे चरण

मैंने वे चरण निहार लिये,
अब देखा क्या, अनदेखा क्या ?

दो बाँहों की कोमल धारा,
दो नयनों की शीतल छाया,
मैं ब्रह्म रूप समझा, मानो-
तुम कहते रहे जिसे माया ।
इस सनेह-धारा के तट पर,
आँसू भरे अलख पनघट पर,
छवि के नित नव जीवन-मट पर
बलिदानों की कैसी यादें, उस सांध्या गगन का लेखा क्या ?
मैंने वे चरण निहार लिये, अब देखा क्या अनदेखा क्या ?

तुमने सोचा, मैंने गाया
तुमने ढूंढ़ा, मैंने पाया,
मैं स्वयं रुप में, आज नेह की
झांक उठा कोमल काया ।
वे सहमे, लाचार हो गये
स्वप्न कि यों साकार हो गये
आंसू छवि के भार हो गये;
विजया के सीमोल्लंन में री हद-बन्दी की रेखा क्या ?
मैंने वे चरण निहार लिये, अब देखा क्या अनदेखा क्या?
(16 फरवरी 1957)

8. मत ढूँढ़ो कलियों में अपने अपवादों को-गीत

मत ढूँढ़ो कलियों में अपने अपवादों को
बस बंधी मूठ-सा उन्हें छुपा ही रहने दो !
चटखन के क्षण में नजरें दूर रखो रानी !
मलयज को तो मीठी सपनों-सी बहने दो !

मिट-मिट कर सहस सुगंध लुटाने वालों से
पुरुषार्थ ! कला का नव-संदेश सुनो
सुखों-साँसों की होड़ा-होड़ी में
उस ह्रदय देश का विषय-प्रवेश सुनो !

तरुओं के कांधे चिड़ियाँ चहक उठीं
चुप रहो, उन्हें अपनी ही धुन कहने दो,
कोमल झोंके दे रहा पवन कलियों को
उनको मादक अपमान अकेले सहने दो !

मत ढूँढ़ो कलियों में अपने अपवादों को
बस बंधी मूठ-सा उन्हें छुपा ही रहने दो !
(7 अप्रैल 1957)

9. जलना भी कैसी छलना है-गीत

जलना भी कैसी छलना है ?

प्रणति-प्रेयसी प्राण-प्रान सँग-सँग झूलें ।
जलना पलना है ।
जलना मी कैसी छलना है ?

बरसों के ले भादों-सावन
बरसा कर संस्कृति पावन-धन
पूछ रहे दृग-जल यमुना से
कितनी दूर और चलना है ?
कितनी दूर और चलना है ?
जलना भी कैसी छलना है ?

अमर साँस दुहराहट खाकर
बोल उठी धीमे सकुचाकर
मंदिर का दीपक हूँ, मुझको
युगों युगों हँस हँस जलना है ।
जलना भी कैसी छलना है ?

प्रणति-प्रेयसी, प्राण-प्राण अब सँग सँग झूलें ।
जलना पलना है ।
जलना भी कैसी छलना है ?
(अप्रैल 1957)

10. कलेजे से कहो

कलम की नोक से कैसी शिकायत ?
कलेजे से कहो, कुछ कह सको तो !

उड़े पंछी गगन पर, सूर्य किरनें-
चरण सुहला, दिखातीं विश्वास का
यही हमने वहुत सीखा खुले में
परंतप ! यह तुम्हारा, यह हमारा

बहो मत बहक के पंखों चढ़े से
जरा ठहरे रहो, यदि रह सको तो ।
कलम की नोक से कैसी शिकायत ?
कलेजे से कहो, कुछ कह सको तो !

तुम्हारी याद ने मेंहदी रचाकर
प्रणय के झलमले से गीत गाये !
ये धोखा है बड़ा बलवान, मीठा,
मधुर तुमको, न आना था, न आये!

अचानक स्वप्न से आकर कहा यों
चलो वृन्दा-विपिन यदि सह सको तो !
कलम की नोक से कैसी शिकायत ?
कलेजे से कहो, कुछ कह सको तो !
(मई 1957)

11. यमुना तट पर

चाँदी की बाँहों, निशि के घूँघट पट पर !
पाषाण बोलता देखा, यमुना तट पर !

माना वंशी की टेर नहीं थी उसमें
गायों की हेरा-फेर नहीं थी उसमें
गोपियाँ, गोप गोविन्द न दीख रहे थे
पर प्रस्तर प्रिय-पथ चढ़ना सीख रहे थे!
लेना विष था, उस प्रभुता के पनघट पर
पाषाण बोलता देखा, यमुना तट पर !

चाँदनी रात, वह हरा दुपट्टा धानी
वीणा पर अपने सरबस की अगमानी
कैसा रिश्ता है, यह पत्थर, वह पानी;
तारों से बातें करती नयी जवानी !
चाँदनी लिपट-सी गयी, बिखरती लट पर
मुमताज महल के घर, उस यमुना तट पर !
चाँदी की बाँहों, निशि के घूँघट पट पर !
(मई 1957)

12. भूल है आराधना का

भूल है आराधना का प्रथम यौवन
भूल है आनन्द की पहली कमाई
देखते ही रह गये भू से गगन तक
किस तरह श्रृंगार कर-कर भूल आई ?
दिशि बिदिशि साकार हरित दुकूल देखूँ?
यह नये मेहमान इनको भूत देखूँ ?
सीढ़ियों से--
मन्दिरों की भला अनबन?
भूल है आराधना का प्रथम यौवन ।
(26 मई 1957)

13. छलिया

तुम खड़े रहो अनहोनी चितवन के छलिया;
मैं उस दुकूल पर अपनी खीजें लिख डालूँ !
गंगा के तट अपना पनघट आबाद रहे,
वे रीतें, उनकी रीझें भी, कुछ लिख डालूं ।
ये किसने आँखें चार चुरा लीं अनजाने !
तुम लहरों पर लहरीले, लौ पर लाल-लाल,
कितना तुमको जी में कोई रक्खे संभाल !
कैसे माने कोई कि तुम्हारी गायें थीं,
गोपियाँ साथ थीं और नाचते ग्वाल-बाल ?
मैंने सपनों का मोट बाँधकर साथ लिया,
तुम खड़े रहो अनहोनी चितवन के छलिया !
(2 जून 1957)

14. अमर विराग निहाल-गीत

अमर विराग निहाल !
चरण-चरण -संचरण -राग पर
प्रिय के भाग निहाल !

अनबोली साँसों की जाली
गूंथ-गूंथ निधि की छवि आली
अनमोली कुहकन पर लिख-लिख
मान भरी मीड़ें मतवाली
स्वर रंगिणि, तुम्हारी वीणा पर
अनुराग निहाल !
अमर विराग निहाल !

कौन गा उठा री ! वनमाली
मिल-मिल महक उठी है डाली,
'राधे-राधे' बोल रही है
पिकी 'प्राण-पिंजरे' की पाली
चितवन पर वाणी के मधुरे
सौ-सौ त्याग निहाल !
अमर विराग निहाल !
(22 जून 1957)

15. मत गाओ

आरती तुम्हारी ऊँची जरा उठाओ !

गंधों को मादक होने दो, मत गाओ !
बन जायें धुएँ के कंकण धीरे-धीरे,
इतने हौले-हौले घड़ियों पर छायो !
छवि के प्रभु की अलबेली मूरत बोले-
पुतली पर ऐसा अमृत भर-भर लायो !
कुछ ऐसे रीझो, उन्हें विवश कर लाओ,
आरती तुम्हारी ऊँची जरा उठायो !

चाह के वर्ष, वाह के हर्ष से दूर रहें
कुछ ऐसी सौंहें, मन-ही-मन तुम खाओ,
झर उठे प्राण-प्रतिमा प्रिय पाषाणों में---,
साँसों से साँसों के कुछ और निकट आओ !
तुम भाने दो - उन्हें और तुम मत भाओ 1
गंधों को मादक होने दो, मत गाओ !
आरती तुम्हारी ऊँची जरा उठाओ ! (29 सितम्बर 1957)

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