धूप के धान गिरिजा कुमार माथुर
Dhoop Ke Dhaan Girija Kumar Mathur

1. मिट्टी के सितारे

कल थे कुछ हम, बन गये आज अनजाने हैं
सब द्वार बन्द टूटे सम्बन्ध पुराने हैं
हम सोच रहे यह कैसा नया समाज बना
जब अपने ही घर में हम हुए बिराने हैं

है आधी रात, अर्ध जग पड़ा अंधेरे में
सुख की दुनिया सोती रंगों के घेरे में
पर दु:ख का इंसानी दीपक जलकर कहता
अब ज़्यादा देर नहीं है नये सवेरे में

हम जीवन की मिट्टी में मिले सितारे हैं
हम राख नहीं हैं, राख ढके अंगारे हैं
जो अग्नि छिपा रखी है हमने यत्नों से
हर बार धरा पर उसने प्रलय उतारे हैं

है दीप एक, पर मोल सूर्य से भी भारी
है व्यक्ति एक वर्तिका, दीप धरती सारी
देखो न दु:खी हो व्यक्ति, उठे इंसानी लौ
वन खण्ड जलाती सिर्फ़ एक ही चिंगारी

है झंझा पथ, पद आहत, दीपक मद्धिम है
संघर्ष रात काली, मंजिल पर रिमझिम है
लेकिन पुकारता आ पहुँचा युग इंसानी
दो क़दम रह गया स्वर्ग, चढाई अंतिम है

दीपक तेरे नीचे घिर रहा अंधेरा है
सोने की चमक तले अनीति का डेरा है
तू इंसानी जीवन की रात मिटा, वर्ना
इंसान स्वयं बनकर आ रहा सवेरा है

2. रात यह हेमंत की

कामिनी-सी अब लिपट कर सो गई है
रात यह हेमंत की
दीप-तन बन ऊष्म करने
सेज अपने कंत की
नयन लालिमा स्नेह-दीपित
भुज मिलन तन-गंध सुरभित
उस नुकीले वक्ष की
वह छुवन, उकसन, चुभन अलसित
इस अगरू-सुधि से सलोनी हो गई है
रात यह हेमंत की
कामिनी-सी अब लिपट कर सो गई है
रात यह हेमंत की