धूपछाँह : रामधारी सिंह 'दिनकर' (हिन्दी कविता)
Dhoop-Chhanh : Ramdhari Singh Dinkar

1. शक्ति या सौंदर्य

तुम रजनी के चाँद बनोगे ?
या दिन के मार्त्तण्ड प्रखर ?
एक बात है मुझे पूछनी,
फूल बनोगे या पत्थर ?

तेल, फुलेल, क्रीम, कंघी से
नकली रूप सजाओगे ?
या असली सौन्दर्य लहू का
आनन पर चमकाओगे ?

पुष्ट देह, बलवान भूजाएँ,
रूखा चेहरा, लाल मगर,
यह लोगे ? या लोग पिचके
गाल, सँवारि माँग सुघर ?

जीवन का वन नहीं सजा
जाता कागज के फूलों से,
अच्छा है, दो पाट इसे
जीवित बलवान बबूलों से।

चाहे जितना घाट सजाओ,
लेकिन, पानी मरा हुआ,
कभी नहीं होगा निर्झर-सा
स्वस्थ और गति-भरा हुआ।

संचित करो लहू; लोहू है
जलता सूर्य जवानी का,
धमनी में इससे बजता है
निर्भय तूर्य जावनी का।

कौन बड़ाई उस नद की
जिसमें न उठी उत्ताल लहर ?
आँधी क्या, उनचास हवाएँ
उठी नहीं जो साथ हहर ?

सिन्धु नहीं, सर करो उसे
चंचल जो नहीं तरंगों से,
मुर्दा कहो उसे, जिसका दिल
व्याकुल नहीं उमंगों से।

फूलों की सुन्दरता का
तुमने है बहुत बखान सुना,
तितली के पीछे दौड़े,
भौरों का भी है गान सुना।

अब खोजो सौन्दर्य गगन–
चुम्बी निर्वाक् पहाड़ों में,
कूद पड़ीं जो अभय, शिखर से
उन प्रपात की धारों में।

सागर की उत्ताल लहर में,
बलशाली तूफानों में,
प्लावन में किश्ती खेने-
वालों के मस्त तरानों में।

बल, विक्रम, साहस के करतब
पर दुनिया बलि जाती है,
और बात क्या, स्वयं वीर-
भोग्या वसुधा कहलाती है।

बल के सम्मुख विनत भेंड़-सा
अम्बर सीस झुकाता है,
इससे बढ़ सौन्दर्य दूसरा
तुमको कौन सुहाता है ?

है सौन्दर्य शक्ति का अनुचर,
जो है बली वही सुन्दर;
सुन्दरता निस्सार वस्तु है,
हो न साथ में शक्ति अगर।

सिर्फ ताल, सुर, लय से आता
जीवन नहीं तराने में,
निरा साँस का खेल कहो
यदि आग नहीं है गाने में।

2. बल या विवेक

कहते हैं, दो नौजवान
क्षत्रिय घोड़े दौड़ाते,
ठहरे आकर बादशाह के
पास सलाम बजाते।

कहा कि ‘‘दें सरकार, हमें भी
घी-आटा खाने को,
और एक मौका अपना कुछ
जौहर दिखलाने को।’’

बादशाह ने कहा, ‘‘कौन हो तुम ?
क्या काम तुम्हें दें ?’’
‘‘हम हैं मर्द बहादुर,’’ झुककर
कहा राजपूतों ने।

‘‘इसका कौन प्रमाण ?’’ कहा
ज्यों बादशाह ने हँस के,
घोड़ों को आमने-सामने कर,
वीरों ने कस के–

एँड़ मार दी और खींच
ली म्यानों से तलवार,
और दिया कर एक दूसरे
की गरदन पर वार।

दोनों कटकर ढेर हो गये,
अश्व गये रह खाली,
बादशाह ने चीख मार कर
अपनी आँख छिपा ली !

दोनों कट कर ढेर हो गये,
पूरी हुई कहानी,
लोग कहेंगे, भला हुई
यह भी कोई कुरबानी ?

‘‘हँसी-हँसी में जान गँवा दी,
अच्छा पागलपन है,
ऐसे भी क्या बुद्धिमान कोई
देता गरदन है ?’’

मैं कहता हूँ, बुद्धि भीरु है,
बलि से घबराती है,
मगर, वीरता में गरदन
ऐसे ही दी जाती है।

सिर का मोल किया करते हैं
जहाँ चतुर नर ज्ञानी,
वहाँ नहीं गरदन चढ़ती है।
वहाँ नहीं कुरबानी।

जिसके मस्तक के शासन को
लिया हृदय ने मान,
वह कदर्य भी कर सकता है
क्या कोई बलिदान ?

3. पानी की चाल

सदी नाम के अंग्रेजी-कवि ने यह यश पाया है,
पानी का बहना कविता में जिन्दा दिखलाया है ।
उस रचना को देख एक दिन अकबर का मन डोला,
फिर बहाव पर उर्दू की ताकत को उनने तोला ।

बहुत क्रियापद जुटा दिखाया यह कौशल बानी का,
कैसा चित्र शब्द ले सकता है बहते पानी का ।
बहुत खूब है हुआ महाकवि अकबर का भी कहना,
पंक्ति-पंक्ति में जिन्दा उतरा है पानी का बहना ।

और आज है मुझे फिक्र यह, मैं भी कलम उठाऊँ,
हिन्दी की चौडी घाटी में दरिया एक बहाऊँ ।
लेकिन, कहाँ सदी औ' अकबर ? और कहाँ मैं पोला ?
उसपर गजब, कला का अबतक चुस्त नहीं है चोला ।

रक्त-हीन जो कला पूजती केवल शब्द-चयन को,
कैसे बाँध सकेगी वह तूफाँ, आँधी, प्लावन को ?
उसपर मैं बहका-बहका-सा हूँ तन-मन से भारी,
कला-पारखी सच ही कहते कुछ-कुछ मुझे अनाड़ी ।

टेढ़ी-मेढ़ी चाल नदी की, और राह में रोड़े,
बिगड़ गयी तस्वीर कहीं, तो पीठ गिनेगी कोड़े ।
नयी लिखूं तो सदी और अकबर से भी डरता हूँ,
मगर खैर, कुछ हँसी-हँसी में ही कोशिश करता हूँ ।

माना मैं कुछ नहीं, कला भी नाजों की पाली है,
सब कुछ सही, मगर, हिन्दी-भाषा तो बलवाली है ।
अच्छा, मेरी कठिनाई की पूरी हुई कहानी,
अब देखिये, चला चोटी से उछल-कूदकर पानी ।

उठता-गिरता शोर मचाता, पत्थर पर सिर बुनता,
अपने ही गर्जन की चारों ओर प्रतिध्वनि सुनता ।
घबराता-सा, शिला-गोद से नीचे उछल उतरता,
फूल-फैलकर पल में घाटी की खाई को भरता ।
हा-हा करता, धूम मचाता, बल से अकड़ उबलता,
गर्ज-मान, पागल-सा मुंह से रह-रह झाग उगलता ।
चट्टानों के बीच साँप-सा टेढ़ी राह बनाता,
सरक-सरक चलता, पत्थर से जहाँ-तहाँ टकराता ।

अभी ठहर कर यहाँ फूलता, उठता, ऊपर चढ़ता,
अभी वहाँ ढालू पर से हो नीचे दौड़ उतरता ।
ताली दे आनन्द मचाता, गाता और बजाता,
गली हुई चाँदी को दिन की आभा में चमकता ।

इस पौधे का फूल चुराकर लहरों पर तैराता,
इसको एक थपेड़ा देता, उसको छेड़ चिढ़ाता ।
इस घाटी से अंग बचाता, उस घाटी से सटता,
फटता यहाँ, वहाँ सकुचाता, डरता, सिकुड़-सिमटता ।

यहाँ घनी झुरमुट में अपने को हर तरह छिपाता,
वहाँ निकल घासों पर उजली चादर-सी फैलाता ।
कहीं बर्फ की चट्टानों में निज को चित्रित करता,
कहीं किनारों के फूलों का बिम्ब हृदय में भरता ।

कंकड़ियों पर यहाँ दौड़ता, आगे पैर बढ़ाता,
वहाँ शाल-वन की छाया में ठहर जरा सुस्ताता ।
झुकी डालियों के पत्रों को छूता हुआ लहर से,
सुनता कूजित गीत विहग का झुरमुट के भीतर से ।

वन के लाखों जीव-जन्तुओं से परिचय दृढ़ करता,
सब की आँखें बचा भागता आगे उठता-गिरता ।
लहरों की फौजें असंख्य ले घहराता-हहराता,
देख दूर से ही रुकावटों पर बकता-चिल्लाता ।

लो, देखो, वह आ पहुँचा है गाता मस्त सुरों में,
कोलाहल करता खेतों, खलिहानों, गाँव-पुरों में ।
चौड़ी छाती फुला अकड़ता, अल्हड़ धूम मचाता,
छाता चारों ओर एक जल-थल का समां रचाता ।

जिधर उठाओ नजर, उधर है केवल पानी-पानी,
बाढ़ कहो तुम, मगर, यही है चढ़ती हुई जवानी ।
कोलाहल है, आर्त्तनाद है, है यह त्रास समाया,
हटो, बचो, अबकी यह पानी काल-सरीखा आया ।

और, काल-सा ही यह पानी चला जा रहा बढ़ता ।
देहली, दीवारों, ऊँचे टीले, छप्पर पर चढ़ता ।
हाँ, देखो, वह चला जा रहा लाखों को कलपाता,
खेत किसी का डुबो, किसी का छप्पर तोड़ बहाता ।

बड़े-बड़े बाँधों को टक्कर मार, तोड़ कर बहता,
अपने ही बल के वेगों से व्याकुल उमग उमहता ।
टोकों को अनसुनी किये-सा, रोकों से टकराता,
ताल ठोंक सब ओर जवानी के जौहर दिखलाता ।

मीलों तक मिट्टी कगार की काट उदर निज भरता,
बड़े-बड़े पेडों की जड़ पल में उत्पाटित करता ।
महाकाय जल-यानों को भंवरों में घेर नचाता,
बड़े-बड़े गजराजों को पत्तों की तरह बहाता ।

गीली मिट्टी लेप बदन में, बना हुआ दीवाना,
छाता बन कर नाच और गाता अलमस्त नराना ।
औढर दानी-सा नालों का घर बिन माँगे भरता,
और लुटेरे-सा किसान के हरे खजाने हरता ।

टीलों पर चढ़ने को हठयोगी-सा धुनी रमाता,
और नीच-सा खाई में गिर जाने को अकुलाता ।
गाँव, शहर, खलिहान, खेत को छूता, अलख जगाता,
चला जा रहा महापथिक-सा हंसता, रोता, गाता ।

देखो, गिरि से दूर सिन्धु-तक, जल की एक लड़ी है,
कहूँ कहाँ तक ! इस प्रवाह की महिमा बहुत बड़ी है ।
बहुत हुआ, अब आज खत्म करता हूँ यहीं कहानी,
गरचे अब भी उसी वेग से बहा जा रहा पानी ।

(१९४५ ई०
सदी=राबर्ट सदी, अकबर=उर्दू के
प्रसिध्द कवि, अकबर इलाहाबादी)

4. कवि का मित्र

(१)
आहट हुई; हुई फिर "कोई है ?" की वही पुकार,
कुशल करें भगवान कि आया फिर वह मित्र उदार ।
चरणों की आहट तक मैं हूँ खूब गया पहचान,
सुनकर जिसे कांपने लगते थर-थर मेरे प्रान ।
मैं न डरूँगा पडे अगर यमदूतों से भी काम;
मगर, दूर से ही करता हूँ श्रद्धा-सहित प्रणाम
उन्हें, नहीं आकर जो फिर लेते जाने का नाम ।

(२)
मेरी कुर्सी खींच, बैठ कर बहुत पूछता हाल,
(कह दूं, आहट सुनी तुम्हारी, और हुआ बेहाल ? )
उलट-पुलट कविता की कापी देने लगता राय,
कहाँ पंक्तियाँ शिथिल हुई हैं ? कहाँ हुईं असहाय?
देता है उपदेश बहुत, देता है नूतन ज्ञान,
मेरी गन्दी रहन-सहन पर भी देता है ध्यान ।
सब कुछ देता, एक नहीं देता अपने से त्राण ।

(३)
झपट छीन लेता है मेरे हाथों से अखबार,
कहता, 'क्या पढ़-पढ़ कर डालोगे अपने को मार ?'
फिर कहता, "कुछ द्रव्य जुगा कर खड़ा करो कुछ काम,
पैसे भी कुछ मिलें और हो दुनिया में भी नाम ।'
सब सिगरेट खत्म कर कहता, एक और दो यार,
बक्से खोल, दराज खोलता रह-रह विविध प्रकार ।
एक नहीं खोलता कभी बाहर जाने का द्वार ।

(४)
कभी-कभी आकर देने लगता है शुभ संवाद,
'रगड़ रहे हैं तुम्हें आजकल फलाँ-फलाँ नक्काद;
मैं सह सकता नहीं तुम्हारा ऐमा तीव्र विरोध,
अभी एक को डांट दिया, आया ऐसा कुछ क्रोध ।'
डिब्बा खोल, पान खा-खा कर करता है आराम,
तरह-तरह की बातें कहता ही रहता अविराम ।
लेकिन, कभी नहीं कहता, अच्छा, अब चला, प्रणाम ।

(५)
यही नहीं, अनमोल समय की मुझे दिलाकर याद,
कहता, 'तुम गप्पों में करते बहुत वक्त बर्बाद ।
जब देखो तब मित्र पड़े हैं डटकर आठों याम ।
इस प्रकार कब तक चल सकता है लेखक का काम ?
आशा कितनी बड़ी लगा तुम से बैठा है देश !
और इधर तुम वकवासों में समय रहे कर शेष ।
सिर्फ सुनाता ही है, सुनता स्वयं नहीं उपदेश ।

(६)
चाहे जितना सिर खुजलाऊँ, मुद्रा करूं मलीन,
कलम पकड़, सिर थाम, कल्पना में हो जाऊँ लीन ।
चाहे जितने करूँ नाट्य, पर कभी न डिगता वीर,
किसी तरह की मुद्रा से होता है नहीं अधीर ।
कहता, 'हाँ, तुम लिखो; इधर में बैठा हूँ चूपचाप,'
मैं कहता, मन-ही-मन, बाकी अभी बहुत है पाप,
लिखूं खाक, जब तक दिमाग पर चढ़े हुए हैं आप !