धार्मिक कविता-2 : नज़ीर अकबराबादी

Dharmik Kavita-2 : Nazeer Akbarabadi

16. ना'त ह० मुहम्मदरसूलुल्लाह

तुम शहे दुनियाओ दीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा।
सर गिरोहे मुसलमीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा।
हाकिमे दीने मतीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा।
क़िब्लऐ अहले यक़ीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा।
रहमतुल लिल आलमी हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा॥1॥

आस्मां तुमने शबे मैराज को रोशन किया।
अर्शो-कुर्सी को क़दम अपने से दे नूरो ज़िया।
रंगो बू जन्नत के गुलशन की बढ़ाई बरमला।
जिस जगह वहमे मलायक को नहीं मिलती है जा।
वां के तुम मसनद नशीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा॥2॥

है तुम्हारी पुश्त पर मुहरे नबुव्वत का निशां।
और तुम्हारा वस्फ़ है त्वाहा व यासीं में अयां।
मोजिजे जो हैं तुम्हारे उनका कब होवे बयां।
किशवरे ऐजाज जो है उसके तुम बा इज़्ज़ो शां।
साहिबे ताजो नगीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा॥3॥

तुमको ख़त्मुल अम्बिया हक़ भी हबीब अपना कहे।
और सदा रूहुल अमीं आवें अदब से बही ले।
किस नबी को यह मदारिज हैं तुम्हारे से मिले।
है नबुव्वत का जो अकदस बह्र तुम उस बह्र के।
गौहरे यक्ता तुम्हीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा॥4॥

हैं जो यह दोनों जहां की आफ़रीनिश के चमन।
जिसमें क्या कुछ अयां है सनए ख़ालिक के जतन।
बाइसे ख़ल्क़ उनके हो तुम या हबीबे जुलमनन।
और एक मतला पढूं मैं युमन से जिसके सुख़न।
सौ सआदत के करीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा॥5॥

तुम ज़हूरे अव्वली हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा।
तुम ही खैरुल आखि़री हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा।
हमदमे जां आखि़री हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा।
वजहे कुरआने मुबीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा॥
नुज़हते बुस्ताने दीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा॥6॥

हअमदे मुख़्तार हो तुम या शहे हर दो सरा।
है तुम्हारे हुक्म के ताबे क़दर भी और क़जा॥
ख़ल्क़ में ख़्वाहिश से तुम जिस अम्र की रक्खो बिना।
देर एक पल दरमियां आये नहीं मुमकिन ज़रा॥
जिस घड़ी चाहो वहीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा॥7॥

आपके नक़्शो-क़दम से जो मुशर्रफ़ हो जमीं।
देखता है उसकी रफ़अत रात दिन अर्शे-बरीं।
राज़ तो ख़लक़त के तुमको ही खुले हैं शाहे दीं।
और जो जो कुछ कि हैं असरारे रब्बुलआलमी॥
सबके तुम बरहक़ अमीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा॥8॥

आपका फ़ज़्लो करम कौनेन में मशहूर है।
और तुम्हें हर तौर से लुत्फ़ो करम मंजूर है।
हश्र में गरचे सज़ा मिलने का भी दस्तूर है।
क्या हुआ लेकिन दिल इस उम्मीद से मसरूर है।
तुम शफ़ीउल मुजि़्नबी हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा॥9॥

मुख़बरे सादिक़ हो तुम और हजरते खै़रुलवरा।
सरवरे हर दो सरा और शाफ़ए रौजे़ जज़ा।
है तुम्हारी जाते वाला मुम्बए लुत्फ़ो-अता।
क्या "नज़ीर" एक और भी सबकी मदद का आसरा।
यां भी तुम वां भी तुम्हीं हो या मुहम्मद मुस्तफ़ा॥10॥

(मुहम्मद मुस्तफ़ा=इंसानी बुराइयों से साफ हज़रत
मुहम्मद, सर=सरदार, गिरोहे=झुंड, मुसलमीं=मुसलमान,
मतीं=गंभीर, क़िब्लऐ=सम्मानित, आलमी=संसार का,
शबे मैराज-हज़रत मुहम्मद के आस्मान पर चढ़ने की
रात, अर्शो-कुर्सी=आस्मान का छोटा तख़्त, ज़िया=रोशनी,
बू=खुशबू, बरमला==खुल्लम खुल्ला सामने, मलायक=
फरिश्तों, जा=जगह, नबुव्वत=ईश्वर के दूत होने का
निशान, वस्फ़=तारीफ, त्वाहा=कु़रान मजीद के सोलहवें
पारे की एक सूरत मुहम्मद साहब का एक नाम, यासीं=
कु़रान शरीफ़ के बाइसवें पारे की एक सूरत जो मरते
समय मुसलमानों को सुनाई जाती है, अयां=ज़ाहिर,
मोजिजे=चमत्कार, ऐजाज=करामात, इज़्ज़ो शां=वैभव,
शानो शौकत, नगीं=मोती, अम्बिया=नबियों, हक़=सच,
हबीब=दोस्त, रूहुल अमीं=हज़रत जिब्रील, मदारिज=
दर्जे, अकदस=बड़ा पाक, बह्र=समुद्र, गौहरे=मोती,
यक्ता=अनुपम, आफ़रीनिश=पैदायश उत्पत्ति,
बाइसे=कारण हेतु, जुलमनन=अहसान वाले, मतला=
ग़ज़ल का प्रथम शेयर जिसके दोनों मिस्रों में क़ाफ़िया
हो, युमन=मुबारिकी,शुभकारिता, सआदत=मुबारिकी,
करीं=समीप, ज़हूरे=प्रकट होने वाले, हमदम=प्यारा,
हरदम साथ रहने वाला, नुज़हते=बे ऐब,पवित्र निर्दोष,
बुस्ताने=फुलवाड़ी, मुख़्तार=आज़ाद, ताबे=मातहत,
क़दर=हुक्म इलाही, अम्र=हुक्म, नक़्शो-क़दम=
पद-चिह्न, मुशर्रफ़=प्रतिष्ठित, रफ़अत=बुलंदी,
अर्शे-बरीं=ऊँचा आस्मान, राज़=भेद, असरार=भेद,
रब्बुलआलमी=सारे जहान के मालिक, बरहक़=सच,
अमीं=अमानतदार, कौनेन=लोक-परलोक, हश्र=
कयामत, गरचे=यद्यपि, दस्तूर=कानून, मसरूर=
ख़ुश, शफ़ीउल=सिफारिश करने वाला, मुजि़्नबी=
पापी,गुनाहगार, मुख़बरे=ख़बर देने वाला, सादिक़=
सच्चा, खै़रुलवरा=संसार का भला चाहने वाला,
सरवरे=सरदार, दो सरा=लोक-परलोक, शाफ़ए=
शफाअत करने वाला, रौजे़ जज़ा=हिसाब का
दिन, वाला=व्यक्तित्व श्रेष्ठ है, मुम्बए=
चश्मा, लुत्फ़ो-अता=महरवानी और बख़्शिश)

17. ना'त हज़रत मौहम्मद

रख अपने दिल में ऐ आदम के बिन कलमा मुहम्मद का।
और अपनी उंगलियों ऊपर भी गिन कलमा मुहम्मद का।
पढ़ें हैं सब परी और देव जिन कलमा मुहम्मद का।
मुसलमां हो तो मत भूल एक छिन कलमा मोहम्मद का।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥1॥

मियां यह कलमा तयब तो शफ़ीउल मुजि़्नबी का है।
खु़दा के दोस्त बरहक़ रहमतुललिलआलमी का है।
मुहम्मद मुस्तफ़ा यानी की ख़त्मुल मुरसली का है।
भरोसा, आसरा, तकिया भी यह दुनियाओ दीं का है।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥2॥

इसी कलमें से खुलता है सदा जन्नत का हर एक दर।
यही कलमा लिखा है अर्श और कुर्सी के माथे पर।
इसी कलमे को पढ़ते हैं चमन के फूल सब खिल कर।
यह सब कलमों से है बेहतर यह सब कलमों से है बरतर।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥3॥

इसी के नूर से खु़र्शीद कहलाता है नूरानी।
इसी कलमे के बाइस चांद की रौशन है पेशानी।
इसी कलमे के बाइस दीनोदुनिया में सनाख़्वानी।
इसी कलमे को पढ़ते हैं फ़लक अर्जो पवन पानी।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥4॥

इसी कलमे से हैं ऐ दिल ज़मीनों आसमां रौशन।
महो खुर्शीद तारे अर्शो कुर्सी लामकां रौशन।
इसी कलमे से हैं जन्नत के बाग़ और बाग़बां रौशन।
ग़रज़ जन्नत तो क्या इससे तो हैं दोनों जहां रौशन।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥5॥

यह वह कलमा है जिसका है रहा अरमान नबियों को।
इसी कलमे के पढ़ने से गये हैं लोग आरिफ़ हो।
इसे हूरो मलक ग़िल्मां पढ़े हैं हर सहर मुंह धो।
वह बेशक जन्नती है एक बारी जो पढ़े इसको।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥6॥

इसी कलमे की बरकत से तू अब यां भी सलामत है।
पढ़ेगा जो इसे उसका दिलो जां भी सलामत है।
उसी की आक़बत भी ख़ैरो ईमां भी सलामत है।
पढ़कर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥7॥

चलेगा जिस घड़ी तू छोड़कर यह आलमे फ़ानी।
पड़ेगा क़ब्र के जाकर अंधेरे में हो ज़िंदानी।
नक़ीरो-मुनकिर आकर जब करेंगे तुझ पै तुगयानी।
यही कलमा करेगा वां तेरी मुश्किल की आसानी।
पढ़ाकर स्दिक़ से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥8॥

इसी कलमे ने इजराईल की हैबत को टाला है।
इसी कलमे ने तंगी को लहद की खोल डाला है।
पड़ेगा क़ब्र का तुझ पर मियां वह दिन जो काला है।
यही कलमा तेरा वां भी अंधेरे का उजाला है।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥9॥

सफ़े मह्शर में जब दहशत का तुझ पर वार उतरेगा।
यही कलमा तेरा उस जा रफ़ीक और यार उतरेगा।
गुनाहों का तेरा जितना है बोझ और भार उतरेगा।
इसी कलमे की दौलत से मियाँ तू पार उतरेगा।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥10॥

मियाँ जब पुलसिरात ऊपर तू अपना पैर डालेगा।
तो वह तलवार की ही धार तेरा पांव खालेगा।
लगेगा जब वहां गिरने तो यह कलमा बचा लेगा।
यही बाजू पकड़ लेगा, यही तुझको संभालेगा।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥11॥

सवा नेजे़ के ऊपर जबकि होगा आफ़ताब आया।
हर एक गर्मी की ताबिश से फिरेगा सख़्त घबराया।
पड़ेगा जब तेरे तन पर भी शोला उसका गरमाया।
यही कलमा छतर बनकर करेगा तुझ पै वां साया।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥12॥

तुलेंगे जब वहां सबके अमल मीजा के पल्ले पर।
जो हलके हैं पड़ेंगे आतशी गुर्ज उनके कल्ले पर।
तुझे तोलेंगे जिसदम उस तराजू के महल्ले पर।
यही कलमा मियां वां भी तेरे होवेगा पल्ले पर।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥13॥

जो पूरे हैं मियाँ उनकी तो होगी गर्म बाज़ारी।
कमी है जिन्स जिनकी उनकी वां होगी बड़ी ख़्वारी।
तेरा पल्ला भी जब करने लगेगा वां सुबक सारी।
यही कलमा बनावेगा तेरे पल्ले को वां भारी।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥14॥

पड़ेगा अल अतश का शोर उस मैदां में जब आकर।
फिरेंगे पानी-पानी करते मारे प्यास के अक्सर।
तेरे भी जब लगेंगे सूखने तालू ज़बां यक्सर।
यही कलमा तुझे पानी पिलावेगा मियां भर-भर।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥15॥

यही कलमा तुझे दीदार हक़ का भी दिखावेगा।
मुहम्मद की शफ़ाअत से भी तुझको बख़्शवावेगा।
बहिश्ती करके हुल्ले नूर के तुझको पिन्हावेगा।
बड़ी इज़्ज़त बड़ी हुर्मत से जन्नत में ले जावेगा।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥16॥

यही कलमा तुझे वां जाम कौसर का पिलावेगा।
यही कलमा तुझे गुलज़ार जन्नत के दिखावेगा।
यही कलमा तेरा मुंह चांद सा रौशन बनावेगा।
यही कलमा तेरे हर बक़्त वां पर काम आवेगा।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥17॥

यही कलमा निजात और मग़फ़िरत का है तेरे चारा॥
इसी कलमें से तेरी रूह होगी अर्श का तारा।
इसी कलमे से है हम सब गुनहगारों का छुटकारा।
इसी कलमे से होगा दीन और दुनिया से निस्तारा।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥18॥

मियां अब जो यह कलमा है यह हक़ की ख़ास रहमत है।
यह सदके़ से रसूलुल्लाह की हम पर इनायत है।
इसी से यां "नज़ीर" इज्जत इसी से वां शफ़ाअत है।
यही सब मोमिनो के वास्ते अफ़जल इबादत है।
पढ़ाकर सिद्क़ दिल से रात दिन कलमा मुहम्मद का॥19॥

(बिन=पुत्र,मानव, तयब=पाक कलमा, मुजि़्नबी=पैग़म्बर,
बरहक़=सच, रहमतुललिलआलमी=संसार पर रहमत करने
वाले, ख़त्मुल=अन्तिम, मुरसली=पैग़म्बर, तकिया=सहारा,
कुर्सी=ज़मीन, खु़र्शीद=सूरज, बाइस=कारण, पेशानी=माथा,
सनाख़्वानी=प्रशंसा, फ़लक=आस्मान, अर्जो=ज़मीन, महो=
चांद, लामकां=मकानों से परे ईश्वर-स्थान, आरिफ़=ब्रह्म
ज्ञानी, मलक=फ़रिश्ता, ग़िल्मां=स्वर्ग के बालक, सहर=
सुबह, आक़बत=यमलोक, ख़ैरो ईमां=भलाई और ईमान,
आलमे फ़ानी=मिटने वाली दुनियाँ, ज़िंदानी=क़ैदी,
नक़ीरो-मुनकिर=कब्र में सवाल जवाब करने वाले
फरिश्ते, तुगयानी=ज्यादती, इजराईल=रूह को क़ब्ज
करने वाला फ़रिश्ता, हैबत=डर, लहद=कब्र, मह्शर=
कयामत का दिन, दहशत=डर, वार=हादसा,घटना,
रफ़ीक=मित्र, पुलसिरात=दोजख़ पर बाल से ज़्यादा
बारीक और तलवार की धार से भी ज्यादा तेज़ पुल,
सवा नेजे़=सवा भाले,सवाबाँस, आफ़ताब=सूरज, ताबिश=
आग की लपट, अमल=कर्म, मीजा=तराजू, आतशी=
आग का गर्म, गुर्ज=गदा, महल्ले=जगह, गर्म बाज़ारी=
क़द्रोक़ीमत, सुबक सारी=बेतअल्लुकी, अतश=पूरे ही,
शफ़ाअत=सिफ़ारिश, हुल्ले=पोशाक, हुर्मत=बहुत इज़्ज़त,
कौसर=जन्नत की एक विशेष नहर, निजात=छुटकारा,
मग़फ़िरत=आकाश, निस्तारा=पार जाना, रहमत=इनायत,
महरबानी, सदके़=दान, रसूलुल्लाह=हजरत मुहम्मद साहब,
इनायत=महरबानी, अफ़जल=श्रेष्ठ, इबादत=आराधना)

18. मोजिजा हज़रत अली अलैहिस्सलाम

सुनते हो ऐ अली के मुहिब्बाने दोस्त दार।
एक मोजिजा मैं कहता हूं उस शह का आश्कार।
है ताज़ा वारदात यह अज़ रोज़गार।
था कोई शख़्स दौलतो हश्मत में नामदार।
इक रोज़ वह गया था कहीं खेलने शिकार॥1॥

जिस दश्त में शिकार को गुज़रा था वह ग़नी।
बां एक शेर रहता था और उसकी शेरनी।
था एक चश्मा पानी का और सब्ज़ थी बनी।
दो बच्चे उस बनी में थी वह शेरनी जनी।
दस बीस रोज़ के थे अभी तिफ़ले शीर ख्वार॥2॥

बच्चों को अपनी छाती पर रक्खे वह बे जुवां।
दोनों को बैठी दूध पिलाती थी शादमां।
बन्दूक की जो आई सदा इसमें नागहां।
नर मादा दोनों भाग गए होके नीम ज़ां।
बच्चे अकेले रह गए जंगल में बेक़रार॥3॥

अलक़िस्सा जब शिकार से फ़ारिग़ हुआ वह शाह।
नागाह दोनों बच्चों पै उसकी पड़ी निगाह।
रखवाके उनको ऊंट पे जल्दी से ख्वामख़्वाह।
ली उस शिकार गाह से फिर अपने घर की राह।
महलों में अपने आन के उसने लिया क़रार॥4॥

जब आये शेरो शेरनी बा हालते तबाह।
और दोनों बच्चे घर में न आये उन्हें निगाह।
वह शेर खाके ग़श गिरा इक बार करके आह।
और शेरनी ने लीं नजफ़ अशरफ़ की यूंहीं राह।
सर पीटती चली वह बयाबां से सोगवार॥5॥

अलक़िस्सा कितने रोज़ में वह शेरनी ग़रीब।
भूकी प्यासी फेरती होटों पे ख़ुश्क जीब।
शौहर से छूटी और हुई बच्चों से बे नसीब।
आ पहुंची यक बयक नजफ़ अशरफ़ के अन क़रीब।
पंजों से अपने सर पे उड़ाती हुई गु़बार॥6॥

बाजार में नजफ़ के जब आई वह नीम जां।
हर एक दुकां से बां की उठा शोर और फु़गां॥
कोई पुकारा दौड़ियो कोई पुकारा हां।
हैबत से उसकी छुपने लगे पीर और जवां।
चारों तरफ़ से धूम मची आके एक बार॥7॥

वह तो किसी तरफ़ को न घुड़की बताती थी।
ने मुंह को मोड़ती थी न पंजा उठाती थी॥
आंखों से उस हुजूम में आंसू बहाती थी।
शाहे नज़फ के रौजे पे फ़र्यादी जाती थी॥
लोग इस पर अपने ख़ौफ़ से कहते थे मार-मार॥8॥

जिस दम वह पहुंची हैदरे सफ़दर के दर तलक।
दरबान उसके ख़ौफ़ से यक्सर गये सरक॥
दाखिल हुई वह रौज़ऐ अनवर में यक बयक।
रोने लगी वह सामने सर को पटक-पटक॥
आंसू की दोनों आंखों से बहने लगी क़तार॥9॥

आंखों से उसके आंसू की नद्दी जो बहती थी।
बच्चों का दाग़ अपने कलेजे पे सहती थी।
कुछ मुंह से शोर करती थी कुछ देख रहती थी।
गोया वह शह से अपनी जुबां में यह कहती थी।
बच्चे मेरे दिलाइये या शेरे किर्दगार॥10॥

रोती थी यूं वह शेरनी, आंसू बहा-बहा
मज़लूम जैसे रोवे है आदिल के पास आ
और कुछ जुबां से अपनी सुनाती थी बग़बग़ा
निकले थी आग़ा-आग़ा की मुंह उसके से सदा
कह आग़ा-आग़ा दर्द से रोती थी ज़ार-ज़ार॥11॥

फ़र्यादी बन के साक़िये कौसर के सामने।
मोहताज बनके साहिबे कु़म्बर के सामने।
यूं देखती थी मौजए अनवर के सामने।
मज़्लूम जैसे आन के दावर के सामने।
करता है उसके हुक्म का रह-रह के इन्तज़ार॥12॥

लोगांे के दिल में जब तो हुआ ख़ौफ़ इसका कम।
सब इसके पास आन के देखें थे इसका ग़म।
हर आन अपने सर को पटक करके चश्मे-नम।
पंजों को इस तरह वह उठाती थी दम बदम।
फ़र्यादी दाद माँगे है जूं हाथ को पसार॥13॥

फ़र्याद वह तो मांगे थी आक़ा से झूम झूम।
यानी फ़लक ने मुझको दिखाया वह रोजे शूम।
इस बात से तमाम नजफ़ में पड़ी यह धूम।
गिर्द उसके मर्दोजन का हुआ आन के हुजूम।
हैरत में थे तमाम चैह नादां चैह होशियार॥14॥

कोई पानी उसके वास्ते कोई खाना लाता था।
लेकिन उसे तो रोने सिवा कुछ न भाता था।
बच्चों का दाग होश सब उसके उड़ाता था।
जो उसको देखता था उसे रोना आता था।
ऐसी तरह से सर को पटकती थी बार-बार॥15॥

वाँ तीन दिन वह शेरनी भूकी पड़ी रही।
लाचार उन शरीफों ने देख उसकी बेकली।
जिस तरह वां क़दीम से कहने की राह थी।
उस तरह से जनाबे मुक़्द्दस में अज़ की।
बा सीनऐ अलम कशो बा चश्मे अश्क बार॥16॥

आई निदा यह शेरनी देती दुहाई है।
एक शख़्स के यह जुल्मो सितम की सताई है।
बच्चों ने इसके कै़द की आफ़त जो पाई है।
सो अब हमारे रौजे़ पे फ़र्यादी आई है।
कल इसका भेद होवेगा तुम सब पे आश्कार॥17॥

यां तो शरीफ़ को यह इनायत हुआ जवाब।
वां जा पलंग उलट दिया उसका बऐनेख़्वाब।
फ़रमाया वह जो शेर के बच्चे हैं दिल कबाब।
भिजवादे उनको शहर नजफ़ में तू कल शिताब।
वर्ना तू इस गुनाह से बहुत होगा शर्मसार॥18॥

मां उनकी उनके वास्ते आंसू बहाती है।
और तीन दिन हुए हैं न पीती न खाती है।
फ़र्यादी होके रोती है और गु़ल मचाती है।
ग़श हो हमारे रौजे में जी को खपाती है।
जल्दी से उनको भेज दे, कर ऊंट पर सवार॥19॥

वह थर थरा के कांप उठा होके उज्र ख़्वाह।
जाना यह उसने यह है शहंशाहे दी पनाह।
बोला नजफ़ तो पन्द्रह दिन की है यां से राह।
भिजवा दूं किस तरह से उन्हें कल मैं पुर गुनाह।
इतना तो इस गुलाम में कब हैगा इख़्तियार॥20॥
तब हुक्म यह हुआ उसे जिस वक़्त हो सहर।
जल्दी से दोनों बच्चों को रखवाके ऊंट पर।
भिजवादे अपने शहरकी आबादी से उधर।
जब पहुंचेगे यह शहर के दरवाजे के ऊपर।
बां पैदा होगा गै़ब से एक नाक़्ऐ सवार॥21॥

होते ही सुबह उसने मंगा कर वह दो बच्चे।
रखवाके एक ऊंट पे जल्दी रवाँ किये।
जब लोग आये शहर के दरवाजे के कने।
क्या देखें एक शख़्स को वां आधी रात से।
है मुन्तज़िर वह ऊंट की पकड़े हुए महार॥22॥

जाते ही दोनों बच्चे उन्होंने उसे दिये।
बा एहतियात सौंप के फिर शहर को फिरे।
वह उन बच्चों को ले के चला इस शिताब से।
आ पहुंचा उस मकान में एक पहर दिन चढ़े।
यकबार उसका शहर नजफ़ में हुआ गुज़ार॥23॥

बच्चों के आने आने के जब गुल हुए कडोड़।
वह शेरनी भी तकने लगी अपने मुंह को मोड़।
जब लाके उसके सामने बच्चे दिये वह छोड़।
यूँ खु़श हो चाटने लगी उल्फ़त से वह झंझोड़।
इंसान जैसे करता है बच्चों को अपने प्यार॥24॥

बच्चे भी दौड़ मां के गले से लिपट गए।
यूं जैसे कोई दूर का बिछड़ा हुआ मिले।
छाती पे लोट लोट के जा दूध से लगे।
उस शेरनी के जैसे कलेजे में दाग थे।
वैसे ही उसके मुंह पे ख़ुशी की हुई बहार॥25॥

जब उसने बच्चे पाये तो होकर वह शादमां।
बच्चों समेत उठके वह हैवान बे जुबां।
रौजे़ के सात बार तसद्दुक हुई वहां।
फिर आस्ताना चूम हुई वां से वह रवां।
जा पहुंची अपने दश्त में ख़ुश होके एक बार॥26॥

शेरे खुदा के अद्ल की यह देख रस्मो राह।
ख़लक़त तमाम वां की पुकारी यह वाह वाह।
इंसाफ ऐसा चाहिए ऐ शाहे दीं पनाह।
हामियो मुन्सिफ़ और नहीं कोई तुम सा शाह।
है ख़त्म तुम पे अद्लो हिमायत का कारोबार॥27॥

हैवां तुम्हारे लुत्फ़ से जिस वक़्त होवें शाद।
इंसान फिर यहां से फिरें क्यूंकि नामुराद।
जैसे तुम्हारे दर से मिली शेरनी को दाद।
एहसान ऐसे ऐसे बहुत ऐ करम निहाद।
हैंगे तुम्हारे सफ़हऐ आलम में यादगार॥28॥

ऐ शाह यह ‘नज़ीर’ तुम्हारा गुलाम है।
रखता सिवा तुम्हारे किसी से न काम है।
आसी है पुर गुनाह है और ना तमाम है।
दिन रात उसका आपसे अब यह कलाम है।
रख लीजो मेरी आबरू या शेरे किर्दगार॥29॥

(मुहिब्बाने=प्रेम करने वाले, दोस्त दार=मित्रगण,
मोजिजा=चमत्कार, आश्कार=जाहिर, अज़=नक़्ल से,
हश्मत=बुजुर्गी,खिदमतदार लोग, दश्त=बियावान,
जंगल, ग़नी=मालदार, बनी=जंगल, जनी=पैदा किए
हुए, शीर ख्वार=दूध पीने वाले, शादमां=ख़ुश,
नागहां=यकायक, नीम ज़ां=आधी जान,अधमरे,
अलक़िस्सा=मतलब यह कि, नजफ़ अशरफ़=
हज़रत अली के शहर जहाँ उनका मज़ार भी
मानते हैं, फु़गां=चीख पुकार, हैबत=डर, पीर=
बूढ़े, हुजूम=भीड़, रौजे=कब्र पर, हैदरे सफ़दर=
फौज की कतार को फाड़ने वाला, यक्सर=
यकायक, अनवर=बहुत चमकदार, शेरे
किर्दगार=खुदा के शेर, आदिल=इंसाफ करने
वाला, बग़बग़ा=अचानक,सहसा, आग़ा-आग़ा=
मालिक-मालिक, सदा=आवाज, साक़िये कौसर=
हजरत अली, मोहताज=जो कुछ न कर सकता
हो, कु़म्बर=हज़रत अली का गुलाम, दावर=
हाकिम, हर आन=प्रत्येक क्षण, चश्मे-नम=
रोकर, दाद=इंसाफ, फ़लक=आकाश,भाग्य,
रोजे शूम=मनहूस,बुरा दिन, मर्दोजन=स्त्री-
पुरुष, चैह=चाहे, लाचार=जो कुछ न कर सके,
क़दीम=पुराना, मुक़्द्दस=पवित्र, सीनऐ अलम
कशो=गम उठाने वाले सीने, अश्क बार=
आंसू बरसाने वाली आंखों के साथ, निदा=
पुकारना,आवाज़ करना, बऐनेख़्वाबस्वप्न में,
दिल कबाब=कबाब जैसे जले हुए दिल वाले,
शिताब=जल्दी, गु़ल=शोर, पुर गुनाह=
गुनाहगार, सहर=सुबह, गै़ब=परोक्ष, नाक़्ऐ
सवार=ऊंटनी सवार, मुन्तज़िर=इंतजार करने
वाला, बा एहतियात=ठीक तरह, हैवान=
जानवर, तसद्दुक=सदके करना, आस्ताना=
चौखट, दश्त=जंगल, अद्ल=इंसाफ, रस्मो
राह=कायदा कानून, दीं पनाह=दीन का
बचाव करने वाला, मुन्सिफ़=इंसाफ करने
वाला, हिमायत=तरफ़दारी, करम निहाद=
दान देने की आदत, आलम=दुनियां, आसी=
पापी,मुजरिम, शेरे किर्दगार=खुदा के शेर,
हज़रत अली)

19. मन्क़बत हज़रत अली

अली की याद में रहना इबादत इसको कहते हैं।
अली का बस्फ़ कुछ कहना सआदत इसको कहते हैं।
अली की मदह का पढ़ना करामत इसको कहते हैं।
अली के नाम का लेना हलावत इसको कहते हैं।
अली की हुब में कर जाना शहादत इसको कहते हैं॥1॥

उसी को सर झुका सजदा किया खु़र्शीदे अनवर ने।
उसी को लाफ़ता हर दम कहा अल्लाहो अकबर ने।
उसी को लहमके लहमी कहा जाने पयम्बर ने।
उसी को दम्मकोदम्मी कहा उस शाहे बरतर ने।
खु़दाओ मुस्तफ़ा से हम क़राबत इसको कहते हैं॥2॥

किया मौला से मेरे गर किसी ने एक सवाल आकर।
जो मांगा एक शुतर उसको दिलाये सैकड़ों उश्तर।
अगर कुछ ज़र की ख़्वाहिश की तो बख़्शे इस क़दर गौहर।
कि उसका घर भरा और उसके हमसायों का घर बाहर।
करीमो अहले हिम्मत में सख़ावत इसको कहते हैं॥3॥

अमीरुलमोमिनी गर दश्त में पढ़ने नमाज आवें।
वहीं क़ामत के कहने के लिये जिव्रील आ जावें।
सफ़े हूरो-मलक गिल्मांओ जिन्नो इंन्स की लावें।
मेरा मौला हर एक सिजदे में वस्ले हक़ ही दिखलावें।
नबुब्बत के जो मालिक हैं इमामत इसको कहते हैं॥4॥

उसी ने एक हमले से गिराया बाब ख़ैबर का।
करोड़ों काफ़िरों से जा लड़ा वह एक तन तनहा।
चहे बीरुलअलम में कूद कर देवों को जा मारा।
हजारों पहलवानों से कभी अपना न मुंह मोड़ा।
बहादुर बेबदल यकता शुजाअत इसको कहते हैं॥5॥

कहा उस शाह ने रोजे क़यामत मैं जो आऊंगा।
वहां अरसात में अपने मुहिब्बों को जो पाऊंगा।
खड़ा हो अर्श के आगे सभों को बख़्शवाऊंगा।
पिला कर जामे कौसर सबको जन्नत पहुंचवाऊंगा।
अली के दोस्तों सुन लो शफ़ाअत इसको कहते हैं॥6॥

"नज़ीर" आवे वह दिन जो शाह को सब दोस्तां देखें।
तो फिर हसनैन के सदक़े से उनको हम भी वां देखें।
और अब दुनियां में आंखों से नजफ़ का आस्तां देखें।
सरों पर अपने वह दामाने आली सायबां देखें।
क़सम ईमान की हम ऐन राहत इसको कहते हैं॥7॥

(बस्फ़=खूबी या गुण, सआदत=नेकी, मदह=प्रशंसा,
करामत=चमत्कार, हलावत=मिठाई,मिठास, हुब=प्रेम,
खु़र्शीदे=सूरज, अनवर=बहुत चमकदार, लाफ़ता=
अविजयी, लहमके लहमी=तेरा गोश्त पोश्त मेरा
गोश्त पोश्त है (ह. मुहम्मद साहब), दम्मकोदम्मी=
तेरा खून और जीवन मेरा खून और जीवन है
(ह. मुहम्मद साहब), मुस्तफ़ा=हज़रत मुहम्मद,
क़राबत=क़रीब होना, शुतर=ऊंट, उश्तर=बहुत से
ऊंट, गौहर=मोती, करीमो=दान देने वाला, सख़ावत=
दान देना, अमीरुलमोमिनी=मुसलमानों के सरदार,
दश्त=जंगल, क़ामत=नमाज से पूर्व तकबीर कहना,
जिव्रील=वही लाने वाला फ़रिश्ता, सफ़=कतार,
हूरो-मलक=सुन्दरियां जन्नत की-फरिश्ता, गिल्मां=
स्वर्ग के बालक, बाब=दरवाजा, बीरुलअलम=कुएँ
का नाम, यकता=अकेला, शुजाअत=बहादुरी,
अरसात=कयामत, मुहिब्बों=चाहने वालो, जामे
कौसर=स्वर्ग के हौज के पानी का प्याला, शफ़ाअत=
सिफ़ारिश, हसनैन=हज़रत हसन और हुसैन, सदक़े=
ईश्वर के नाम पर जो गरीबों को दें, आस्तां=चौखट,
दामाने आली=बड़े आंचल, सायबां=सायवान,धूप से
बचाने के लिए छाजन, राहत=ख़ास आराम)

20. मन्क़बत अमीरुलमोमिनीन

नूरे ज़हूरे ख़ालिके़ अकबर को क्या लिखूं।
रूहे रवाने जिस्म पयम्बर को क्या लिखूं।
दरियाए मारिफ़त के शिनावर को क्या लिखूं।
दोनों जहाँ के गौहरे अनवर को क्या लिखूं।
हैरत में हूं कि हैदरे सफ़दर को क्या लिखूं॥1॥

गर नूर उसका देख कहूं शम्स और क़मर।
वह उसका ज़र्रा नूर का वह उसका फैज़ बर।
तारे तो जूं सितारे हैं उस नक़्श पा उपर।
और कुतुब भी तो उससे ही क़ायम है बेख़तर।
हैरत में हूं कि हैदरे सफ़दर को क्या लिखूं॥2॥

फ़िल मिस्ल गर मैं उसको कहूं रौज़ए जनां।
झुकती हैं बारे इज्ज से जन्नत की डालियां।
और जो भला मैं खूबिये रिज़वाँ से दूं निशां।
सो वह भी उसके बाग का अदना है वाग़बां।
हैरत में हूं कि हैदरे सफ़दर को क्या लिखूं॥3॥

और जो कहूं कि चश्मए आबे हयात है।
या खि़ज्र है तो यह कोई कहने की बात है।
उसके अरक़ से जिस्म के यह क़तर जात है।
और उसकी उसके फ़ज्ल से यारो निजात है।
हैरत में हूं कि हैदरे सफ़दर को क्या लिखूं॥4॥

इस शाह के अगर लबो-दन्दान की सफ़ा।
कहते कोई कि लालो गौहर हैं ये बेबेहा।
सो वह तो सदके़ होके रहा ख़ाक में गड़ा।
और यह भी हो निसार सदा आब में रहा।
हैरत में हूं कि हैदरे सफ़दर को क्या लिखूं॥5॥

शाहा तेरी जो मदह बनाता है अब "नज़ीर"।
तेरे सिवा किसी का कहाता है अब "नज़ीर"।
लेकिन कलम को हाथ लगाता है जब "नज़ीर"।
सलवात पढ़के यह ही सुनाता है तब "नज़ीर"।
हैरत में हूं कि हैदरे सफ़दर को क्या लिखूं॥6॥


(ज़हूरे=जाहिर होना, ख़ालिके़=बनाने वाला, अकबर=
बड़ा, रवाने जिस्म=जिस्म में बहता हुआ, मारिफ़त=
अध्यात्म,तसव्वुफ, शिनावर=तैरने वाला,तैराक, गौहर=
मोती, अनवर=बहुत अधिक चमकदार, सफ़दर=फौज
की सफ़,पंक्ति को फाड़ाने वाला, शम्स=सूरज, क़मर=
चांद, नक़्श पा=पैरों के निशान, कुतुब=ध्रुवतारा, मिस्ल=
मिसाल के तौर पर, रौज़ए जनां=स्वर्ग का बाग, इज्ज=
सम्मान के बोझ, रिज़वाँ=जन्नत का दरोगा, आबे-हयात=
अमृत, खि़ज्र=एक ईश-दूत, अरक़=रस, क़तर=शरीर के
हिस्से, निजात=मुक्ति, लबो-दन्दान=होंठ-दांत, गौहर=
मोती, बेबेहा=बहुमूल्य, मदह=प्रशंसा गान, सलवात=दुरुद)

21. मन्क़बत दर शाने अमीरुलमोमिनीन

करूं क्या वस्फ़ मैं उनका अलमनाक।
कि जिनकी शान में आया है लौलाक।
फिरा जो अर्श और कुर्सी पै चालाक।
कहां वह और कहां मेरा यह इदराक।
चः निस्बत ख़ाक रा बा आलमे पाक॥1॥

मुहम्मद रहमतुललिलआलमी हैं।
हबीबे हक़ शफ़ीउलमुजनबी हैं।
रसूले पाक ख़तमुल मुरसली हैं।
कोई ऐसा खु़दाई में नहीं है।
लगा तहतस्सरा से ता ब अफ़लाक॥2॥

मुहम्मद और अली याकू़ते अहमर।
दुरे बहरे ख़ुदा ख़ातूने अतहर।
ज़मर्रूद लाल हैं शब्बीरो-शब्बर।
जवाहर ख़ानऐ कु़दरत के अन्दर।
यही पांचों गुहर है पंज तन पाक॥3॥

उन्हीं के वास्ते ख़ुल्दे अदन है।
उन्हीं के वास्ते नहरे लबन है।
बहिश्ती हुल्ला और उनका बदन है।
सदा शेरे बहिश्त और सायए पाक॥4॥

जिसे उनकी मुहब्बत पल ब पल है।
उसी को दीन और दुनिया का फल है।
जो कोई उनकी उल्फ़त में दग़ल है।
तो उस मुरतिद की यारो यह मिसल है।
कि जैसे लेबे तूबा बेच कर ढाक॥5॥

अली जो शहसवारे लाफ़ता है।
अमीरुलमोमिनी शेरे खु़दा है।
फ़लक हैबत से उसकी कांपता है।
अली जो सफ़दरे रोजे़ बग़ा है।
कि जिसकी शर्क़ से है ग़र्ब तक धाक॥6॥

अली है क़ातिले कुफ़्फारे गुमराह।
अली का हुक्म है माही से ता माह।
नबी का कु़ब्बते बाजू यदुल्लाह।
उठावे चर्ख़ की गर्दिश तो वल्लाह।
अभी थम जाये दम से चर्ख़ का चाक॥7॥

अली ने महद में चीरा है अज़दर।
अली ने काट डाले उमरो-अन्तर।
उलट डाला है एक हमले से खैबर।
ख़वास अशया का फेरे गर वह सरवर।
तो हो तिर्याक़ ज़हर और ज़हर तिर्याक़॥8॥

अली को मुस्तफ़ा ने जी कहा है।
अली को जिस्मके जिस्मी कहा है।
अली को लहमके लहमी कहा है।
अली को रूहके रूही कहा है।
यह समझे वह ख़ुदा दे जिसको इद्राक॥9॥

अली को ख़ास निस्बत है नबी से है।
नबी को राह दिल में है अली से।
वह दोनों एक तन और एक जी से।
किसी को ताब क्या गैर अज़ अली से।
जो पहने मुस्तफ़ा के तन की पोशाक॥10॥

अली को जो कोई पहचानता है।
बराबर मुस्तफ़ा के मानता है।
जो इनमें कुछ तफ़ावुत जानता है।
वह अपने ख़ाक सर पर छानता है।
लगाई उसने दोजख़ की मगर ताक॥11॥

अली की दोस्ती में जो मरेगा।
उसी को बाग़ जन्नत का मिलेगा।
अली के बुग्ज़ में जो जान देगा।
वह मलउन दोजख़ अन्दर यों जलेगा।
कि जैसे आग पर जलता है ख़ाशाक॥12॥

जिसे वस्फ़े अली कुछ सालता है।
उसी को दोजख़ आखि़र ढालता है।
जो उनका बुग्ज दिल में पालता है।
गोया भर कर के डलियां डालता है।
वह अपने दीन और ईमान में ख़ाक॥13॥

(वस्फ़=गुण, अलमनाक=खेदजनक, लौलाक=
मुहम्मद साहब की उपयोगिता दर्शाने हेतु
प्रयुक्त शब्द, इदराक=बुद्धि, चः निस्बत ख़ाक
रा बा आलमे पाक=इस मिट्टी को आलमे पाक
से क्या ताल्लुक। ख़ाक ख़ाक है आस्मां आस्मां
है, रहमतुललिलआलमी=सृष्टि पर दया करने
वाले, शफ़ीउलमुजनबी=संसार को मोक्ष,
ख़तमुल मुरसली=आखिरी रसूल, तहतस्सरा=
पाताल, अफ़लाक=आसमान, याकू़ते=एक रत्न,
अहमर=सुर्ख,लाल, दुरे=बड़ा मोती, अतहर=पवित्र,
ज़मर्रूद=हरे रंग का रत्न,पन्ना, शब्बीरो-शब्बर=
हज़रत हुसैन-हसन, अदन=जन्नत के बाग,
नहरे लबन=दूध की नहर, बहिश्ती हुल्ला=
स्वर्गीय लिबास, दग़ल=खोटा, हैबत=डर, सफ़दर=
फ़ौज की पंक्ति को फाड़ने वाला, शर्क़ से ग़र्ब=
सूरज के निकलने-छिपने की जगह, माही=मछली,
माह=चांद, कु़ब्बत=शक्ति, चर्ख़=आसमान, गर्दिश=
दौड़ क्रम-चक्र, चर्ख़=आसमान, महद=पालना,
अज़दर=अज़दहा,बहुत बड़ा सांप, उमरो-अन्तर=
उमर-अन्तर दो पहलवान, ख़वास=गुण, अशया=
चीजें, सरवर=सरदार, तिर्याक़=ज़हर को नष्ट करने
वाला, मुस्तफ़ा=हज़रत मुहम्मद साहब, जिस्मी=
जिन्दगी,जीवन, अली को लहमके लहमी=ऐ अली
तेरा जिस्म मेरा जिस्म है; तेरा गोश्त पोश्त मेरा
गोश्त पोश्त है, रूहके रूही=तेरी रूह मेरी रूह है,
इद्राक=समझ बूझ, निस्बत=वास्ता,सम्बन्ध, ताब=
ताकत, तफ़ावुत=दूरी, ताक=दृष्टि डालना, बुग्ज़=
द्वेष, मलउन=तिरस्कृत, ख़ाशाक=कूड़ा करकट,
वस्फ़=प्रशंसा)

22. ख़ैबर की लड़ाई

हो क्यूं न बुरा गम से ख़वारिज का दहाड़ा?
जड़ पेड़ से कुफ्र उनका न क्यूं जाये उखाड़ा?
घर तैश मुख़ालिफ़ का रहे क्यूं न उजाड़ा?
"ले नाम अली" जब कहूं ललकार जबाड़ा।
दरियाये फ़लक का भी दहल जाये कड़ाड़ा॥1॥

पहले तो पयम्बर से लड़ा था वह कड़क के।
रुस्तम के तई ठोंक ले, दे ज़ाल को धक्के।
छुट जायें वहां सामो नरीमान के छक्के।
हैं शाह की जु़रअत के जहां धूम धड़क्के।
नेजों के तई आन के मैदान में गाड़ा॥2॥

दुखती थी मेरे शाह की जब आंख सरासर।
पेश आया जभी मारिकए क़िलअए खैबर।
इस वास्ते घर छोड़ गये उनको पयम्बर।
और आप नबी लेके चले दीन का लश्कर।
झंडों के तई आन के मैदान में गाड़ा॥3॥

दिन रात मची आन के खै़बर की लड़ाई।
और फ़तह कई रोज़ तलक हाथ न आई।
ले नादेअली हक़ ने पयम्बर को भिजाई।
जिब्रील ने यह बात वहीं आन सुनाई।
यह गढ़ तो किसी तरह न जावेगा उखाड़ा॥4॥

और यूं ही बहुत रोज़ तलक तुम से लड़ेगा।
लश्कर पे लड़ाई का बड़ा बोझ पडे़गा।
पामाल न हो, ख़ाक में हरगिज न गड़ेगा।
जब तक न अली आन के इस गढ़ पे चढ़ेगा।
यह गढ़ तो उसी शाह से जावेगा उखाड़ा॥5॥

यह सुनते ही हज़रत ने मेरे शाह को बुलाया।
आये तो वहीं छाती से बस अपनी लगाया।
आंखों में लबेपाक लगाकर यह सुनाया।
इस फ़तह का है हुक्म तेरे नाम पे आया।
बेशक यह मकां तुम से ही जावेगा उखाड़ा॥6॥

यह सुनते ही हैदर ने, ज़र्राख़ोद पहनकर।
दुलदुल पर वे चढ़े कहके, जो अल्ला हो व अकबर।
आये वह वहां पर था जहां क़िलए खै़बर।
कावे को लगाकर दिया रहवार को चक्कर।
नेजे़ को हिलाया कभी तिरछा कभी आड़ा॥7॥
कहते हैं कि खै़बर है बड़े कोह के ऊपर।
गिर्द इसके धरा है वहां एक सख़्त सा पत्थर।
दुलदुल को फिरा शाह ने दरवाजे पे आकर।
हिम्मत कर उठा हाथ को मारा जो ज़मीं पर।
पत्थर में वही गड़ गया नेजा जूं ही गाड़ा॥8॥

जब आके हुए वां असदुल्लाह नुमाया।
तब चलने लगे तीरो तबर, खंजरो पैकां।
दरवाजे पे ख़ैबर के जो बैठा था निगहवां।
हैदर के ख़तो ख़ाल पे जब उसका गया ध्यान।
मुंह देख के काफ़िर नेवहीं शाह को ताड़ा॥9॥

चिल्ला के जभी उसने यह आवाज सुनाई।
क्या बैठा है कमबख़्त है शामत तेरी आई।
जो कुछ कि निशानी थी बुजुर्गों ने बताई।
सब इस असदुल्लाह में देती है दिखाई।
अब गढ़ तेरा जाता है इसी दम में उखाड़ा॥10॥

दस्ती है नजूमों की सफ़ेदी में सियाही।
जाते ही मकां लेवेगा यह शेरे इलाही।
यह तीर यह पैकान है हैदर की गवाही।
आई है तेरे कुफ्र, की कश्ती पे तबाही।
आया है वहीं शेर इलाही का निवाड़ा॥11॥

यह सुनते ही मरहब को ग़रज तैश चढ़ आया।
आवाज से हारिस को वहीं उसने बुलाया।
ले लश्करे कुफ़्फ़ार को बाहर निकल आया।
हैदर से चला लड़ने को वह देव का जाया।
तैयार किया लड़ने को कुश्ती का अखाड़ा॥12॥

सफ़ बांधे उधर लश्करे कुफ़्फ़ार खड़ा था।
और एक तरफ को था अलम फ़ौजे अली का।
और दोनों तरफ़ तेज़ तबल जंग का बाजा।
आवाज़ नक़ीबों ने वहीं ज़ोर की दी आ।
और जंग का मैदां में जमा आके अखाड़ा॥13॥

पहले तो हुई जंग अमूदो की नमूदार।
फिर उनकी कमन्दों का खुला हलक़ए खूंख़्वार।
फिर बर्क़ की सूरत से चमकने लगी तलवार।
शेरों से हुआ आन के मैदान नमूदार।
जूं राद के होता है गरजने में झंगाड़ा॥14॥

हर सिस्त से आते ही घटा छा गई घनघोर।
तीरों का बरसने लगा मेह आन के पुर ज़ोर।
शमशीर की बिजली भी चमकने लगी चहुं ओर।
ईधर से हुआ लश्करे इस्लाम का गुल शोर।
ऊधर से हर एक काफ़िरे बदकेश दहाड़ा॥15॥

मरहब ने अखाड़े में क़दम आके दिये गाड़।
हारिस भी उसी आन बना आन के एक ताड़।
ख़म ठोंक बदल त्योरी को बाजू के तई झाड़।
इस ज़ोर से नारा किया वां आन के चिंघाड़।
कोहक़ाफ़ के पर्दे में गोया देव चिंघाड़ा॥16॥

यूं कहने लगा लश्करे इस्लाम को ललकार।
आवे जो हो कोई तुम में पहलवान नमूदार।
तो हाथ मेरा देख ले और ज़ोर के आसार।
क्या ताब है मुझ से जो लड़े आन के एक बार।
मैंने तो सदा देव के सीने को है फाड़ा॥17॥

यह सुनते ही हैदर ने दी रख हाथ से समसाम।
और सीधे चले आये अखाड़े में उठा गाम।
कुम्बर ने लिया दौड़ के दुलदुल के तई थाम।
मरहब से लड़े लेके जब अल्लाह का वह नाम।
आपस में लगा होने को ज़ोरों का झड़ाड़ा॥18॥

मरहब तो वहीं गिर पड़ा यह देख के सामां।
सब पर हुए मौला के मेरे ज़ोर नुमायां।
उस काफ़िरे बदकेश के तब छुट गये औसां।
मौला ने उसे मार के ठोकर से उसी आं।
हारिस को कुचल कूट के, मरहब को पछाड़ा॥19॥

था उनमें ही एक और पहलवान ज़ोरआवर।
मरहब को उठाने लगा आकर वह ज़ोरआवर।
दुलदुल ने उसे देख के जल्दी से उछल कर।
एक लात जड़ी क़हर की दांतों से पकड़कर।
यूं चाब लिया जैसे चबाते हैं सिंघाड़ा॥20॥

हारिस को गिरा शाम को मरहब के तई मार।
मैदां में किये फ़तह के आसार नमूदार।
हमला किया ख़ैबर के ऊपर आन के एक बार।
घोड़े के ऊपर हैदरी नारे के तई मार।
पाताल की जड़ से दरे खै़बर को उखाड़ा॥23॥

थीं शाह की जुरअत की जहां तक कि तरंगें।
सब कांप गई क़िलए खै़बर की उलगें।
कितने तो वहां भाग गए मार शलगें।
और कितने गए भूल वहां आन के जंगें,
हर गबु को फिर तप से चढ़ा आन के जाड़ा॥22॥

तब उनपे चली आन के इस्लाम की तलवार।
भागा कोई जख़्मी, कोई बिस्मिल कोई खूंबार।
ढूढे न मिला फिर किसी बदकेश का आसार।
सब दूर हुए गुलशने दुनिया से ख़सो ख़ार।
और कुफ्ऱ के जंगल पे बजा दीं का कुल्हाड़ा॥23॥

की फतह ग़रज शाह ने खैबर की लड़ाई।
बदकेशों की पल मारते ही कर दी सफ़ाई।
कुफ़्फ़ार में इस्लाम की नौबत को बजाई।
खै़बर में फिरी आन के हैदर की दुहाई।
सब उड़ गया फिर आन के कुफ़्फ़ार का घाड़ा॥24॥

मैं मदह 'नज़ीर' अब जो बनाता हूं हमेशा।
दौलत ही का इनआम मैं पाता हूं हमेशा।
खाता हूं, खिलाता हूं लुटाता हूं हमेशा।
खै़रात उसी दर से मैं पाता हूं हमेशा।
जारी है सदा मेरे शहंशाह का बाड़ा॥25॥
जारी है सदा मेरे शहंशाह का बाड़ा॥25॥
(ख़वारिज=जो खारिज हो गए हो, तैश=क्रोध,
फ़लक=आसमान, कड़ाड़ा=नदी का ऊंचा किनारा,
ज़ाल=रुस्तम के परदादा, सामो-नरीमान=रुस्तम
के पिता-दादा, मारिकए=युद्ध, नादेअली=एक मादा
खच्चर जो इस्कंदरिया के शासक ने हज़रत
मुहम्मद साहब को भेंट किया था और उन्होंने
हज़रत अली को दिया था, रहवार को चक्कर=
घोड़े को फेरना या मोड़ना, कोह=पहाड़,
असदुल्लाह=अल्लाह का शेर, नुमाया=जाहिर,
तबर=कुल्हाड़ा,फर्सा, पैकां=बाण की नोंक,बर्छी
की अनी, नजूमों=नक्षत्रों का प्रकाश, पैकान=
बाण की नोक, बर्छी की अनी, मरहब=अरब
के एक गैर मुस्लिम पहलवान का नाम,
हारिस=सरदार, सफ़=कतार, अलम=झंडा,
तबल=ढोल, नक़ीबों=शाहकी सवारी के समय
आगे आवाज लगाने वाले, बर्क़=बिजली,
राद=बिजली, झंगाड़ा=गर्जना,गूंज, बदकेश=
बुरे स्वभाव वाला, गोया=जैसे,मानो,
समसाम=तेज़ तलवार, गाम=कदम,पैर,
कुम्बर=हज़रत अली का गुलाम, गबु=
आग के उपासक, पहलवान,शक्तिशाली
युवक, बिस्मिल=घायल, ख़सो ख़ार=सूखी
घास और कांटे, मदह=प्रशंसात्मक काव्य)

23. मौजिज़ा हज़रत अब्बास बिन अली करमुल्लाह वजह

जो मुहिब हैं ख़ान्दाने मुस्तफ़ा के दोस्त दार।
और अलीए मुर्तजा पर जानो दिल से हैं निसार।
सब सुनें दिलशाद हो यह माजरा तफ़सील दार।
हैं जो अब्बासे अली कर्रार गाजी नाम दार।
उनका मैं एक मौजिजा लिखता हूं बा इज़्ज़ो विक़ार॥1॥

शहर है अरकाट इक वां एक साहूकार था।
जितने वां ज़रदार थे उन सब में वह सरदार था।
मालो ज़र का घर में इसके जा बजा अंबार था।
उसके एक बेटा सआदतमंद बरख़ुर्दार था।
गुल बदन गुल पैरहन गुल रंग गुलरू गुल इज़ार॥2॥

दूसरा उसके कोई बेटी न बेटा था मगर।
एक बेटा था वही वाँ सरवरे रश्के क़मर॥
था पिन्हाता उसको पोशाक और जवाहर सरबसर।
बस कि इकलौता जो था इस वास्ते उसके ऊपर॥
बाप भी जी से फ़िदा और मां भी दिल से थी निसार॥3॥

उन दिनों में था बरस तेरह का उसका सिन्नो साल।
जब नज़र आया उसे माहे मुहर्रम का हिलाल।
ताज़िया ख़ानों में जाता छुप के वह राना ग़िजाल।
मर्सियों में सुनके शाहे कर्बला के ग़म का हाल।
पीटता सीने को और मातम से रोता ज़ार-ज़ार॥4॥

ताजिये के सामने होके मोअद्दब सर झुका।
मोरछल रो रो ज़रीहे पाक पर झलता खड़ा।
जब अलम उठते तो फिर लड़कों के साथ आंसू बहा।
या हुसैन इब्ने अली कह कर अलम लेता उठा।
लोग देख उसकी मुहब्बत होते थे हैरान कार॥5॥

शाम से आकर वह क़न्दीले जलाता दमबदम।
कु़मकु़मे और झाड़ पर शमए चढ़ाता दम बदम।
औद सोजों में अगर लाकर गिराता दम बदम।
अहले मजलिस के तई शर्बत पिलाता दम बदम।
सब वह करता था ग़रज जितना था वां का कारोबार॥6॥

लेकिन उसके बाप को हर्गिज ख़बर अब तक न थी।
जब सुना उसने तो बेटे पर बहुत ताक़ीद की।
झिड़का और मारे तमांचे खूब सी तम्बीह की।
और कहा ऐ बे हया बदबख़्त मूजी मुद्दई।
ज़ात से क्या तू निकालेगा मुझे ऐ नाबकार॥7॥

उसके दिल में तो शहीदे कर्बला का जोश था।
ताज़िये पर ध्यान था और मर्सिये बर गोश था।
बाप तो करता नसीहत और वह ख़ामोश था।
ने तमांचों का उसे ने झिड़कियों का होश था।
उठ गया था उसके दिल से साफ़ सबका नंगो आर॥8॥

बाप ने तो दिन में यह उस पर किया रंजो इताब।
रात को फिर ताज़िया ख़ानों में जा पहुंचा शिताब।
फिर पकड़ लाया उसे जाकर बसद हाले खराब।
अल ग़रज सौ सौ तरह इस पर किये रंजो इताब।
उसने जाना न छोड़ा उस मकां का जीनहार॥9॥

अपना बेगाना उसे जाकर बहुत समझाता था।
पर किसी का कब कहा ख़ातिर में उसकी आता था।
रोना और मातम ही करना उसके दिल को भाता था।
ताज़िया खाने की जानिब यूँ वह दौड़ा जाता था।
जिस तरह आशिक़ किसी माशूक का हो बेक़रार॥10॥

जब तो सबने तंग हो यह मस्लहत ठानी बहम।
जिस से करता है यह मातम और उठाता है अलम।
क्यूं न अब इस दम वही हाथ इसका कर डालो क़लम।
कह के यह आखि़र को सबने, है क़यामत है सितम।
काट डाला हाथ जल्द उस बेगुनाह का एक बार॥11॥

अलग़रज़ कर हाथ उस मज़्लूम का तन से जुदा।
कोठरी में बंद करके और कु़फ्ल ऊपर जड़ा।
ने उसे खाना खिलाया ने उसे पानी दिया।
शाम तक भूका प्यासा कोठरी में था पड़ा।
देख अपने हाथ को रोता था धाड़ें मार-मार॥12॥

वह अंधेरी कोठरी वह भूक पानी की प्यास।
हाथ से लोहू की बूंदे भी टपकतीं आस पास।
किस मुसीबत में पड़ा वह गुल बदन जर्री लिबास।
हाथ जख़्मी, खून जारी, दिल परेशां जी उदास।
किस से मांगे दाद और किसको पुकारे बार-बार॥13॥

वह तो अपनी बेकसी के दर्द में रोता था वां।
इसमें क्या है देखता उस कोठरी के दरमियाँ।
हो गया एकबारगी नूरे तजल्ली का निशां।
इस तजल्ली में नज़र आया उसे एक नौ जवां।
कांधे के ऊपर अलम, पहलू में तेगे़ आबदार॥14॥

दास्ताना हाथ में और पुश्त के ऊपर सिपर।
तन में एक सीमीं जिरह और ख़ोद ज़र्री फ़र्क पर।
दायें को तीरो कमां बांये को शमशीरो तबर।
जिस तरह अबरे सिया में बर्क़ होवे जलवा गर।
इस तरह उस कोठरी में आ गया वह शह सवार॥15॥

उसने जब इस नौजवां के नूर की देखी झलक।
था मुजस्सिम वह तो हक़ का नूर सर से पाँव तक।
देखते ही इसका हैबत से गया सीना धड़क।
मुंद गई आंखें वहीं और खा गईं पलकें झपक।
हो गया बेहोश वह मजबूर जख़्मी दिलफ़िगार॥16॥

ताब किसकी है जो उस चेहरे के आगे ताब लाये।
माह क्या गर शम्स भी देखे तो अपना सर झुकाये।
ऐसे तालअ़ ऐसी क़िस्मत यह नसीबा कौन पाये।
ऐसा शहज़ादा मुक़द्दस जिसके घर तशरीफ़ लाये।
आदमी क्या है फ़रिश्तों का नहीं इज़्ज़ो विक़ार॥17॥

वह तो नूरे तजल्ली देख बे खु़द था पड़ा।
इस इनायत इस करम का कुछ भी यारो इन्तिहा।
आप घोड़े से उतर के नूर चश्मे लाफ़ता।
उस बरीदा दस्त को उसके दिया तन से मिला।
और कहा उठ जल्द ऐ आले नबी के पोस्तदार॥18॥

वह जो आंखें खोल कर देखे अजब अनवार है।
रौशनी से जिनकी रौशन सब दरो दीवार है।
हाथ को देखा तो ख़ासा हाथ भी तैयार है।
ने तो उसमें दर्द है न खू़न का आसार है।
रह गया एक बारगी हैरत में वह मज़लूम ज़ार॥19॥

फिर जो उस लड़के को उसमें होश सा कुछ आ गया।
हो तसद्दुक़ और वहीं पांव के ऊपर गिर पड़ा।
और कहां रो रो कि मेरा हाथ तन से था जुदा।
यह तुम्हीं से हो सका जो फिर दिया तन से मिला।
सच बताओ कौन हो तुम ऐ अमीरे नामदार॥20॥

बाप ने तो मेरे मुझ पर यह सितम बरपा किया।
हाथ काटा कैद की और सौ तअद्दी ओ ज़फ़ा।
मुझ से बेकस पर जो तुमने की यह कुछ लुत्फ़ो अता।
अब ख़ुदा के वास्ते जल्दी से ऐ बहरे सख़ा।
अपना कुछ नामो निशां मुझसे कहो तफ़सीलवार॥21॥

जब कहा हज़रत ने हम भी आदमी हैं ऐ अज़ीज़।
बन्दऐ दरगाहे रब्बुलआलमी हैं ऐ अज़ीज़।
ख़ाकसारो आजिज़ो अन्दोहगीं हैं ऐ अज़ीज़।
जिनका तू करता है मातम वह हमीं हैं ऐ अज़ीज़।
आफरीं सद आफ़रीं ऐ पाक मोमिन दीनदार॥22॥

यह हमारा है निशां ऐ पाक तीनत मुत्तक़ी।
नाम को पूछे तो हैगा नाम अब्बासे अली।
कर्बला के दश्त में दौलत शहादत की मिली।
जो हमें चाहे हमारा भी उसे चाहे है जी।
जो हमारा ग़म करे हम भी हैं उसके ग़मगुसार॥23॥

सुनते ही इस बात के एक बार वह लड़का ग़रीब।
हो गया शाद और वहीं सर रख के क़दमों के क़रीब।
यूं लगा कहने बड़ी क़िस्मत बड़े मेरे नसीब।
मैं कहां आज़िज़ कहां अल्लाह के ख़ासे हबीब।
मैं तसद्दुक हूं तुम्हारा या शहे वाला तबार॥24॥

यह करम यह लुत्फ़ यह बन्दा नवाजी किस से हो।
मुझ से नालायक की ऐसी सरफ़राज़ी किस से हो।
तुमने जो कुछ मुझ से की यह चारासाजी किस से हो।
यह हिमायत यह मदद या शाहे ग़ाज़ी किस से हो।
इस इनायत इस करम का है तुम्हीं पर कारोबार॥25॥

मैं जो अपने हाथ से करता था मातम बरमिला।
और उठाता था अलम भी मैं तुम्हारे बजा।
हक़ अगर पूछो तो किसका हाथ है कट कर मिला।
यह तुम्हीं से हो सका जो फिर दिया तन से लगा।
वर्ना किस में थी भला यह कु़दरत और यह इक़्तिदार॥26॥

वह अभी राग़िब था अपने दर्द के इज़हार का।
क्या दिया तन से मिला हाथ अपने मातमदार का।
मोज़िज़ा देखो यह इब्ने हैदर कर्रार का।
किस में यह कु़दरत बजुज़ फ़रज़ंद शेरे कर दिगार॥27॥

अब जो इसके हाथ पर कटने की आई थी गिरह।
कुछ हकीमों से न होता गर वह फिरता दह ब दह।
अब उन्होंने कर दिया एक आन में आते ही वह।
यह नहीं अब्बास का दस्ते यदुल्लाही है यह॥
जुज यदुल्लाह हो भला किस दस्त से यह दस्तकार॥28॥

क्या हुसैन इब्ने अली ने जस लिया मैदान में।
और हैं अब्बास अली की बख़्शिशें हर आन में।
जिनके बेटों के रहें दिल ख़ल्क़ के ऐहसान में।
क्यूं न फिर ख़ालिक कहे उनके पिदर की शान में।
ला फ़ता इल्ला अली ला सैफ़ इल्ला जुल्फ़्क़िार॥29॥

सुबह को उस कोठरी का खु़द बखु़द दर खुल गया।
बाप मां देखें तो उसका हाथ तन से है मिला।
पूछा यह क्या था, जो कुछ देखा था उसने सब कहा।
सुनते ही दोनों ने फिर तो सिदक से कल्मा पढ़ा।
हाथ में तस्बीह ली जुन्नार को डाला उतार॥30॥

फिर हुई उस मोजिजे़ की शहर की ख़ल्क़त में धूम-धूम।
हो गया उस तिफ़्ल पर सब शहर का आकर हुजूम।
देखता था जो कोई लेता था उसके हाथ चूम।
और लगा आंखों से यूं कहता था हर दम झूम-झूम।
यह उन्हीं की दोस्ती के गुल ने दिखलाई बहार॥31॥

अलग़रज मां बाप उस पर जानो दिल से हो फ़िदा।
लेके लड़के को चले दिल शाद सूए कर्बला।
राह में करते थे लोग उनकी ज़ियारत का बजा।
जब वह मंज़िल पर उतरते थे तो वां के लोग आ।
दम बदम करते थे अपना सीमो-ज़र उस पर निसार॥32॥

कू बकू शहरे नजफ़ में भी यह शोरो गुल पड़े।
एक मुहिब्बे पाक दिल आया है हिन्दुस्तान से।
वां के भी लोग आये सब इसकी ज़ियारत के लिये।
और लाखों शख़्स आये दूर और नज़दीक के।
इस क़दर यह मोजिज़ा सब में हुआ वां आशकार॥33॥

कर्बला के पास पहुंचा जिस घड़ी वह माहेताब।
उन शरीफ़ों को हुआ हुक्मे शहे आली जनाब।
एक हमारा दोस्त आता है चला जूं मौजे आब।
करके इस्तक़बाल तुम जाकर उसे लाओ शिताब।
उसकी लाज़िम है तुम्हें दिल दारी करनी बेशुमार॥34॥

कर्बला के लोग निकले उसके इस्तक़बाल को।
ले गये अस्पो शुतर आराइशो अजलाल को।
कर ज़ियारत चूम उसके दस्ते ख़ुश अफ़आल को।
सौ तजम्मुल से ग़रज उस साहिबे इक़बाल को।
शहर में लाये बसद इकराम और सद इफ़ित्ख़ार॥35॥

काम क्या क्या कुछ हुए उस से खु़दा की राह के।
फिर खु़दा ने भी उन्हें यह दस्त कु़दरत के दिये।
उसने कटवाया तो हाथ अब उनके मातम के लिये।
क्यूं न फिर तन से मिलाते वह तो मुंसिफ़ हैं बड़े।
सीख जावे उनसे नुसफ़त आके हर नुसफ़त शआर॥36॥

जब हुए रोजहे में दाखि़ल वह मुहिब्बाने अली।
कर ज़ियारत और तसद्दुक होके दिल से हर घड़ी।
वां उन्होंने कुछ मकां बनवाने की तज़वीज की।
लड़का बनवाता फिरे था हाथ में लेकर छड़ी।
की इमारत आखि़रश रंगीं मुनक़्क़श ज़र निगार॥37॥

दीनी भी उसको मिला दुनिया भी यारो देखियो।
और मुहिब्बे पाक कहलाया टुक इसको देखियो।
क्या मुहब्बत के चमन की है यह ख़ुशबू देखियो।
क्या ही तालेअ क्या ही किस्मत है मुहिब्बो देखियो।
उनकी उल्फ़त का निहाल आखिर यह लाया बर्गोबार॥38॥

या अली अब्बास ग़ाज़ी साहिबे ताजो सरीर।
सबके तुम मुश्किल कुशा हो क्या ग़रीबो क्या अमीर।
जानो दिल से अब तुम्हारे नाम का होकर फ़क़ीर।
यह गुलामे स्याहरू अब जिसको कहते हैं "नज़ीर"।
आपके फ़ज़्लो करम का यह भी है उम्मीदवार॥39॥


(मुहिब=प्यार रखने वाले, दोस्त दार=हज़रत मुस्तफ़ा
के घर से प्यार करने वाले, मुर्तजा=प्रिय अली, निसार=
कुरबान, माजरा=वारदात, तफ़सील दार=विस्तृत,
अब्बासे अली=हज़रत अली के पुत्र, कर्रार=शत्रु पर
बराबर हमला करने वाले, इज़्ज़ो विक़ार=आदर सहित,
ज़रदार=मालदार, सआदतमंद=नेक, बरख़ुर्दार=बेटा,
गुल बदन=फूल सा शरीर, गुल पैरहन=फूल से वस्त्र,
गुलरू=फूल सा चेहरा, गुल इज़ार=फूल जैसे गालों वाला,
सरवरे=सरदार, रश्के क़मर=चांद की प्रभा को मंद करने
वाला, सरबसर=बिल्कुल, माहे मुहर्रम=मुहर्रम का महीना,
हिलाल=चांद, ताज़िया ख़ानों=ताज़ियों का मातम करने
की जगह, राना ग़िजाल=सुन्दर हिरन के बच्चे जैसा,
मर्सियों=शोकगीत, शाहे कर्बला=हज़रत इमाम हुसैन,
मातम=रोना धोना, मोअद्दब=बाअदब, ज़रीहे पाक=
सुनहरा कब्र जैसा मोम का ताजिया, अलम=झण्डा,
क़न्दीले=फानूस जिनमें चिराग जलाते हैं, कु़मकु़मे=
छोटे गोल बर्तन, अहले मजलिस=मजलिस के लोग,
ताक़ीद=नसीहत, तम्बीह=रोकथाम, नाबकार=नालायक,
कर्बला में शहीद किए गए इमाम हुसैन, मर्सिये बर
गोश=शोक-गीत में ध्यान मग्न, नंगो आर=शर्म,
रंजो इताब=क्रोध,गुस्सा, शिताब=जल्द, जीनहार=
कदापि, मस्लहत=भेद की बात, बहम=आपस में,
कर डालो क़लम=काट डालो, अलग़रज़=गर्ज यह
कि, कु़फ्ल=ताला, दाद=मदद, तजल्ली=रोशनी,
पुश्त=पीठ, सिपर=ढाल, सीमीं=चांदी जैसा, जिरह=
कवच, ख़ोद ज़र्री=सुनहली शिरस्त्राण, फ़र्क=सिर,
तबर=कुल्हाड़ा,फरसा, अबरे सिया=काले बादल,
बर्क़=बिजली, मुजस्सिम=साकार,मूर्तिमान, हैबत=
डर, दिलफ़िगार=जख़्मी दिल, ताब=ताकत, माह=
चांद, शम्स=सूरज, तालअ़=भाग्य, मुक़द्दस=पवित्र,
इज़्ज़ो विक़ार=प्रतिष्ठा,इज़्ज़त, तजल्ली=तेज,आभा,
इन्तिहा=अन्त, लाफ़ता=अविजयी, बरीदा दस्त=कटे
हुए हाथ, आले नबी के पोस्तदार=नबी रसूल की
औलाद से प्यार करने वाले, अनवार=रोशनी, आसार=
चिह्न, मज़लूम ज़ार=जिस पर जु़ल्म किया गया हो,
तसद्दुक़=न्यौछावर, अमीरे नामदार=नामवर,प्रसिद्ध,
बरपा=डाला, तअद्दी=बेहद जुल्म, ज़फ़ा=सितम,
लुत्फ़ो अता=महरबानी, सख़ा=दानी, तफ़सीलवार=
विवरण सहित, रब्बुलआलमी=सारे संसार के मालिक
अल्लाह की दरगाह का गुलाम, ख़ाकसार=ख़ाक,धूल
के समान गरीब, आजिज़ो=लाचार, अन्दोहगीं=
गमगीं,दुखी, आफरीं=शबाश,प्रशंसनीय, मोमिन=
ईमान वाले, तीनत=असली, मुत्तक़ी=संयमी, दश्त=
जंगल, शहे वाला तबार=ऊंचे खानदान, सरफ़राज़ी=
सर बुलन्दी, चारासाजी=बीमारी का इलाज, शाहे
ग़ाज़ी=काफिरों को कत्ल करने वाले बादशाह,
बरमिला=फौरन, इक़्तिदार=सत्ता,रौबदाब, राग़िब=
आकर्षित, इज़हार=ज़ाहिर करना, फ़रज़ंद शेरे कर
दिगार=हज़रत अली का बेटा, पिदर=पिता, ला
फ़ता इल्ला अली ला सैफ़ इल्ला जुल्फ़्क़िार=
अली के अलावा कोई फतह करने वाला नहीं है
और जुल्फ़िकार, हज़रत अली की तलवार के
अलावा कोई तलवार नहीं है, तस्बीह=खुदा के
नाम का जप करने की माला, जुन्नार=जनेऊ,
तिफ़्ल=बच्चा, अलग़रज=मतलब यह है, शाद=
खुश, सूए=तरफ, सीमो-ज़र=चांदी सोना, कू बकू=
गली-गली, नजफ़=शहर का नाम जहां हज़रत अली
का मज़ार है, मुहिब्बे=प्यार रखने वाला, आशकार=
प्रकट, माहेताब=चांद, इस्तक़बाल=स्वागत, अस्पो=
घोड़ा, शुतर=ऊंट, आराइशो अजलाल=शानोशौकत,
दस्ते ख़ुश अफ़आल=अच्छे काम करने वाले हाथ,
बसद इकराम=सैकड़ों इज़्ज़त और फख्ऱ के काबिल,
इफ़ित्ख़ार=बुजुर्ग, नुसफ़त=इंसाफ, मुहिब्बाने अली=
हज़रत अली के चाहने वाले, मुनक़्क़श=चित्रित,
ज़र निगार=सोने के काम से सजी हुई, तालेअ=
भाग्य, मुहिब्बो=मित्र,दोस्त, निहाल=पौधा,
बर्गोबार=फल-फूल,फूल-पत्ते, मुश्किल कुशा=
परेशानी को दूर करने वाला, स्याहरू=गुनहगार)

24. गणेश जी की स्तुति

अव्वल तो दिल में कीजिए पूजन गनेश जी।
स्तुति भी फिर बखानिए धन-धन गनेश जी।
भक्तों को अपने देते हैं दर्शन गनेश जी।
वरदान बख़्शते हैं जो देवन गनेश जी।
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि औ अन-धन गनेश जी॥1॥

माथे पै अर्द्ध चन्द्र की शोभा, मैं क्या कहूं।
उपमा नहीं बने है मैं चुपका ही हो रहूं।
उस छवि को देख देख के आनन्द सुख लहूं।
लैलो निहार दिल में सदा अपने वो जपूं।
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि औ अन-धन गनेश जी॥2॥

इक दन्त को जो देखा किया खू़ब है बहार।
इस पै हज़ार चन्द की शोभा को डालूँ वार।
इनके गुणानुवाद का है कुछ नहीं शुमार।
हर वक्त दिल में आता है अपने यही विचार।
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि औ अन-धन गनेश जी॥3॥

गजमुख को देख होता है सुख उर में आन-आन।
दिल शाद-शाद होता है मैं क्या करूं बखान।
इल्मो हुनर में एक हैं और बुद्धि के निधान।
सब काम छोड़ प्यारे रख मन में यही आन।
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि और अन-धन गनेश जी॥4॥

क्या छोटे-छोटे हाथ हैं चारों भले-भले।
चारों में चार हैं जो पदारथ खरे-खरे।
देते हैं अपने दासों को जो हैं बड़े-बड़े।
अलबत्ता अपनी मेहर यह सब पर करें-करें।
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि और अन-धन गनेश जी॥5॥

इक दस्त में तो हैगा यह सुमिरन बहार दार?
और दूसरे में फर्सी अजब क्या है उसकी धार?
तीजे में कंज चौथे कर में हैं लिए अहार?
मत सोच दिल में और तू ऐ यार बार-बार॥
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि और अन-धन गनेश जी॥6॥

अच्छे विशाल नैन हैं और तोंद है बड़ी।
हाथों को जोड़ सरस्वती हैं सामने खड़ी॥
होवे असान पल में ही मुश्किल है जो अड़ी।
फल पावने की इनसे तो है भी यही घड़ी॥
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि और अन-धन गनेश जी॥7॥

मूसा सवारी को है अजब ख़ूब बेनजीर।
क्या खूब कान पंजे हैं और दुम है दिल पजीर॥
खाते हैं मोती चूर कि चंचल बड़ा शरीर।
दुख दर्द को हरे हैं तो दिल को बधावें धीर॥
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि और अन-धन गनेश जी॥8॥

घी में मिला के कोई जो चढ़ाता है आ सिन्दूर।
सब पाप उसके डालता कर दम के बीच चूर॥
फूल और विरंच शीश पै दीपक को रख कपूर।
जो मन में होवे इच्छा तो फिर क्या है उससे दूर॥
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि और अन-धन गनेश जी॥9॥

जुन्नार है गले में एक नाग जो काला।
फूलों के हार डहडहे और मोती की माला॥
वह हैंगे अजब आन से शिव गौरी के लाला।
सुर नर मुनि भी कहते हैं वो दीन दयाला॥
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि और अन-धन गनेश जी॥10॥

सनकादि सूर्य चन्द्र खड़े आरती करें।
और शेषनाग गंध की ले धूप को धरें॥
नारद बजावें बीन चँवर इन्द्र ले ढरें।
चारों बदन से स्तुति ब्रह्मा जी उच्चरें॥
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि और अन-धन गनेश जी॥11॥

जंगम अतीत जोगी जती ध्यान लगावें।
सुर नर मुनीश सिद्ध सदा सिद्धि को पावें॥
और संत सुजन चरन की रज शीश चढ़ावें।
वेदो पुरान ग्रंथ जो गुन गाय सुनावें॥
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि और अन-धन गनेश जी॥12॥

जो जो शरन में आया है कीन्हा उसे सनाथ।
भव सिन्धु से उतारा है दम में पकड़ के हाथ।
यह दिल में ठान अपने और छोड़ सबका साथ।
तू भी ‘नज़ीर’ चरणों में अपना झुका के माथ।
हर आन ध्यान कीजिए सुमिरन गनेश जी।
देवेंगे रिद्धि सिद्धि और अन-धन गनेश जी॥13॥

(लैलो निहार=रातदिन)

25. हरि की तारीफ़

मैं क्या क्या वस्फ़ कहुं, यारो उस श्याम बरन अवतारी के।
श्रीकृष्ण, कन्हैया, मुरलीधर मनमोहन, कुंज बिहारी के॥
गोपाल, मनोहर, सांवलिया, घनश्याम, अटल बनवारी के।
नंद लाल, दुलारे, सुन्दर छबि, ब्रज, चंद मुकुट झलकारी के॥
कर घूम लुटैया दधि माखन, नरछोर नवल, गिरधारी के।
बन कुंज फिरैया रास रचन, सुखदाई, कान्ह मुरारी के॥
हर आन दिखैया रूप नए, हर लीला न्यारी न्यारी के।
पत लाज रखैया दुख भंजन, हर भगती, भगता धारी के॥
नित हरि भज, हरि भज रे बाबा, जो हरि से ध्यान लगाते हैं।
जो हरि की आस रखते हैं, हरि उनकी आस पुजाते हैं॥1॥

जो भगती हैं सो उनको तो नित हरि का नाम सुहाता है।
जिस ज्ञान में हरि से नेह बढ़े, वह ज्ञान उन्हें खु़श आता है॥
नित मन में हरि हरि भजते हैं, हरि भजना उनको भाता है।
सुख मन में उनके लाता है, दुख उनके जी से जाता है॥
मन उनका अपने सीने में, दिन रात भजन ठहराता है।
हरि नाम की सुमरन करते हैं, सुख चैन उन्हें दिखलाता है॥
जो ध्यान बंधा है चाहत का, वह उनका मन बहलाता है।
दिल उनका हरि हरि कहने से, हर आन नया सुख पाता॥
हरि नाम के ज़पने से मन को, खु़श नेह जतन से रखते हैं।
नित भगति जतन में रहते हैं, और काम भजन से रखते हैं॥2॥

जो मन में अपने निश्चय कर हैं, द्वारे हरि के आन पड़े।
हर वक़्त मगन हर आन खु़शी कुछ नहीं मन चिन्ता लाते॥
हरि नाम भजन की परवाह है, और काम उसी से हैं रखते।
है मन में हरि की याद लगी, हरि सुमिरन में खुश हैं रहते॥
कुछ ध्यान न ईधर ऊधर का, हरि आसा पर हैं मन धरते।
जिस काम से हरि का ध्यान रहे, हैं काम वही हर दम करते॥
कुछ आन अटक जब पड़ती है, मन बीच नहीं चिन्ता करते।
नित आस लगाए रहते हैं, मन भीतर हरि की किरपा से॥
हर कारज में हरि किरपा से, वह मन में बात निहारत हैं।
मन मोहन अपनी किरपा से नित उनके काज संवारत हैं॥3॥

श्री कृष्ण की जो जो किरपा हैं, कब मुझसे उनकी हो गिनती।
हैं जितनी उनकी किरपाएं, एक यह भी किरपा है उनकी॥
मज़कूर करूं जिस किरपा का, वह मैंने हैं इस भांति सुनी।
जो एक बस्ती है जूनागढ़, वां रहते थे महता नरसी॥
थी नरसी की उन नगरी में, दूकान बड़ी सर्राफे की।
व्योपार बड़ा सर्राफ़ी का था, बस्ता लेखन और बही॥
था रूप घना और फ़र्श बिछा, परतीत बहुत और साख बड़ी।
थे मिलते जुलते हर एक से और लोग थे उनसे बहुत ख़ुशी॥
कुछ लेते थे, कुछ देते थे, और बहियां देखा करते थे।
जो लेन देन की बातें थीं, फिर उनका लेखा करते थे॥4॥

दिन कितने में फिर नरसी का, श्री कृष्ण चरन से ध्यान लगा।
जब भगती हरि के कहलाये, सब लेखा जोखा भूल गया॥
सब काज बिसारे काम तजे हरि नांव भजन से लागा।
जा बैठे साधु और संतों में, नित सुनते रहते कृष्ण कथा॥
था जो कुछ दुकां बीच रखा, वह दरब जमा और पूंजी का।
मद प्रेम के होकर मतवाले, सब साधों को हरि नांव दिया॥
हो बैठे हरि के द्वारे पर सब मीत कुटुम से हाथ उठा।
सब छोड़ बखेड़े दुनियां के, नित हरि सुमरन का ध्यान लगा॥
हरि सुमरन से जब ध्यान लगा, फिर और किसी का ध्यान कहां।
जब चाहत की दूकान हुई, फिर पहली वह दूकान कहां॥5॥

क्या काम किसी से उस मन को, जिस मन को हरि की आस लगी।
फिर याद किसी की क्या उसको, जिस मन ने हरि की सुमरन की॥
सुख चैन से बैठे हरि द्वारे, सन्तोख मिला आनन्द हुई।
व्योपार हुआ जब चाहत का, फिर कैसी लेखन और बही॥
न कपड़े लत्ते की परवा, न चिन्ता लुटिया थाली की।
जब मन को हरि की पीत हुई, फिर और ही कुछ तरतीब हुई॥
धुन जितनीं लेन और देन की थी, सब मन को भूली और बिसरी।
नित ध्यान लगा हरि किरपा से, हर आन खु़शी और ख़ुश वक्ती॥
थी मन में हरि की पीत भरी, और थैले करके रीते थे।
कुछ फ़िक्र न थी, सन्देह न था, हरि नाम भरोसे जीते थे॥6॥

नित मन में हरि की आस धरे, ख़ुश रहते थे वां वो नरसी।
एक बेटी आलख जन्मी थी, सो दूर कहीं वह ब्याही थी॥
और बेटी के घर जब शादी, वां ठहरी बालक होने की।
तब आई ईधर उधर से सब नारियां इसके कुनबे की॥
मिल बैठी घर में ढोल बजा, आनन्द ख़ुशी की धूम मची।
सब नाचें गायें आपस में, है रीत जो शादी की होती॥
कुछ शादी की खु़श वक़्ती थी, कुछ सोंठ सठोरे की ठहरी।
कुछ चमक झमक थी अबरन की कुछ ख़ूबी काजल मेंहदी की॥
है रस्म यही घर बेटी के, जब बालक मुंह दिखलाता है।
तब सामाँ उसकी छोछक का ननिहाल से भी कुछ जाता है॥7॥

वां नारियां जितनी बैठी थीं, समध्याने में आ नरसी के।
जब नरसी की वां बेटी से, यह बोलीं हंस कर ताना दे॥
कुछ रीत नहीं आई अब तक, ऐ लाल तुम्हारे मैके से।
और दिल में थी यह जानती सब वह क्या हैं और क्या भेजेंगे॥
तब बोली बेटी नरसी की, उन नारियों के आकर आगे।
वह भगती हैं, बैरागी हैं, जो घर में था सो खो बैठे॥
वह बोलीं कुछ तो लिख भेजो, यह बोली क्या उनको लिखिए।
कुछ उनके पास धरा होता, तो आप ही वह भिजवा देते॥
जो चिट्ठी में लिख भेजूँगी, वह बांच उसे पछतावेंगे।
एक दमड़ी उनके पास नहीं, वह छोछक क्या भिजवावेंगे॥8॥

उन नारियों को भी करनी थी, उस वक़्त हंसी वां नरसी की।
बुलवा के लिखैया जल्दी से, यह बात उन्होंने लिखवा दी॥
सामान हैं जितने छोछक के, सब भेजो चिट्ठी पढ़ते ही।
सब चीजे़ इतनी लिखवाई, बन आएं न उनसे एक कमी॥
कुछ जेठ जिठानी का कहना, कुछ बातें सास और ननदों की।
कुछ देवरानी की बात लिखी, कुछ उनकी जो जो थे नेगी॥
थी एक टहलनी घर की जो सब बोलीं, तू भी कुछ कहती।
वह बोली उनसे हंस कर वां ‘मंगवाऊं’ क्या मैं पत्थर जी’॥
वह लिखना क्या था वां लोगो, मन चुहल हंसी पर धरना था।
इन चीज़ों के लिख भेजने से, शर्मिन्दा उनको करना था॥9॥

जब चिट्ठी नरसी पास गई, तब बांचते ही घबराय गए।
लजियाए मन में और कहा यह हो सकता है क्या मुझ से॥
यह एक नहीं बन आता है, हैं जो जो चिट्ठी बीच लिखे।
है यह तो काम काठेन इस दम, वां क्यूंकर मेरी लाज रहे॥
वह भेजे इतनी चीज़ों को, यां कुछ भी हो मक़दूर जिसे।
कुछ छोटी सी यह बात नहीं, इस आन भला किससे कहिये॥
इस वक़्त बड़ी लाचारी है, कुछ बन नहीं आता क्या कीजे।
फिर ध्यान लगा हरि आसा पर, और मन को धीरज अपने दे॥
वह टूटी सी एक गाड़ी थी, चढ़ उस पर बे विसवास चले।
सामान कुछ उनके पास न था, रख श्याम की मन में आस चले॥10॥

हरि नाम भरोसा रख मन में, चल निकले वां से जब नरसी।
गो पल्ले में कुछ चीज़ न थी, पर मन में हरि की आसा थी॥
थी सर पर मैली सी पगड़ी, और चोली जामे की मसकी।
कुछ ज़ाहिर में असबाब न था, कुछ सूरत भी लजियाई सी॥
थे जाते रस्ते बीच चले, थी आस लगी हरि किरपा की।
कुछ इस दम मेरे पास नहीं, वां चाहिएं चीजे़ं बहुतेरी॥
वां इतना कुछ है लिख भेजा, मैं फ़िक्र करूं अब किस किस की।
जो ध्यान में अपने लाते थे, कुछ बात वहीं बन आती थी॥
जब उस नगरी में जा पहुंचे, सब बोले नरसी आते हैं।
और लाने की जो बात कहो, एक टूटी गाड़ी लाते हैं॥11॥

कोई बात न आया पूछने को, जाके देखा नरसी को।
और जितना जितना ध्यान किया, कुछ पास न देखा उनके तो॥
जब बेटी ने यह बात सुनी, कह भेजा क्या क्या लाये हो?
जो छोछक के सामान किये, सब घर में जल्दी भिजवा दो॥
दो हंस-हंस अपने हाथों से, यां देना है अब जिस जिस को।
यह बोले तब उस बेटी से, हरि किरपा ऊपर ध्यान धरो॥
था पास क्या बेटी अब लाने को कुछ मत पूछो।
कुछ ध्यान जो लाने का होवे, "श्री कृष्ण कहो" "श्री कृष्ण कहो"॥
इस आन जो हरि ने चाहा है, एक पल में ठाठ बनावेंगे।
है जो जो यां से लिख भेजा, एक आन में सब भिजवा देंगे॥12॥

श्रीकृष्ण भरोसे जब नरसी, यह बात जो मुंह से कह बैठे।
क्या देखते हैं वां आते ही, सब ठाठ वह उस जा आ पहुंचे॥
कुछ छकड़ों पर असबाब कसे, कुछ भैसों पर कुछ ऊँट लदे।
थे हंसली खडु़ए सोने के, और ताश की टोपी और कुर्ते॥
कुल कपड़ों पर अंबार हुए और ढेर किनारी गोटों के।
कुछ गहनें झमकें चार तरफ़, कुछ चमके चीर झलाझल के॥
था नेग में देना एक जिसे, सो उसको बीस और तीस दिये।
अब वाह वाह की एक धूम मची ओर शोर अहा! हा! के ठहरे॥
थी वह जो टहलनी उनके हां वह भोली जिस दम ध्यान पड़ी।
सो उसके लिए फिर ऊपर से एक सोने की सिल आन पड़ी॥13॥

वां जिस दम हरि की किरपा ने, यूं नरसी की तब लाज रखी।
उस नगरी भीतर घर-घर में तब नरसी की तारीफ़ हुई॥
बहुतेरे आदर मान हुए, और नाम बड़ाई की ठहरी।
जो लिख भेजी थी ताने से, हरि माया से वह सांच हुई।
सब लोग कुटम के शाद हुए, खुश वक़्त हुई फिर बेटी भी।
वह नेगी भी खु़श हाल हुए, तारीफें कर कर नरसी की॥
वां लोग सब आये देखने, को, और द्वारे ऊपर भीड़ लगी।
यह ठाठ जो देखे छोछक के, सब बस्ती भीतर धूम पड़ी।
जो हरि काम रखें उनका फिर पूरा क्यूं कर काम न हो।
जो हर दम हरि का नाम भजें, फिर क्यूंकर हरि का नाम न हो॥14॥

श्रीकृष्ण ने वां जब पूरी की, सब नरसी के मन की आसा।
एक पल में कर दी दूर सभी, जो उनके मन की थी चिन्ता॥
यह ऐसी छोछक ले जाते, सो इनमें था मक़दूर यह क्या।
यह आदर मान वहां पाते, यह इनसे कब हो सकता था॥
जो हरि किरपा ने ठाठ किया, वह एक न इनसे बन आता।
यह इतनी जिसकी धूम मची, सो ठाठ वह था हरि किरपा का।
यह किरपा उन पर होती है, जो रखते हैं हरि की आसा।
हरि किरपा का जो वस्फ़ कहूं, वह बातें हैं सब ठीक बजा॥
है शाह "नज़ीर" अब हर दम वह, जो हरि के नित बलिहारी हैं।
श्रीकृष्ण कहो, श्रीकृष्ण कहो, श्रीकृष्ण बडे़ अवतारी हैं।15॥

(वस्फ़=गुण,प्रशंसा, मज़कूर=चर्चा,जिक्र,वर्णन, शादी=ख़ुशी,
शाद=प्रसन्न, मक़दूर=सामर्थ्य)

26. कृष्ण कन्हैया की तारीफ़

सिफ्तो सना में सृष्टि रचैया की क्या लिखूं।
औसाफी खूबी ब्रज के बसैया की क्या लिखूं।
पदायश अब में कुल के करैया की क्या लिखूं।
कुछ मदह में उस सुध के लिवैया की क्या लिखूं।
तारीफ कहो कृष्ण कन्हैया की क्या लिखूं॥

श्री वेद व्यास जी ने बनाये कई पुरान।
लिखने में तो भी आया नहीं कृष्ण का बयान।
लिख-लिख के थक रहे हैं हर एक कर नविश्त ख्वान।
कहती है जो कलम मेरी वह है जली ज़बान॥ तारीफ..

आ द्वारका से द्रोपदी का चीर बढ़ाया।
बैकुंठ से आ ग्राह से गजराज छुड़ाया।
प्रहलाद को जलने से अगन के बीच बचाया।
मेवा को त्याग साग विदुर के यहाँ खाया॥ तारीफ..

परबत रखा है उँगली पै जों रुई का गाला।
संग ग्वाल बाल लेके खड़े नन्द के लाला।
बंसी बजाते नृत्य करते भार को टाला।
दिन सात में इन्दर का सभी गर्व निकाला॥ तारीफ..

गायें चराके ओवं थे संग ग्वाल बाल से।
हर तरफ आग देख कहैं सब गुपाल से॥
अब के हमें बचाओ यहाँ किसी चाल से।
आँखें मिचा बचाया उन्हें अग्नि जाल से॥ तारीफ..

अब क्या कहूँ मैं तुमसे उनकी लतीफ बात।
पीतम्बर ओढ़ लेट रहे वे छुपा के गात।
भृगुजी ने वों ही आन के छाती पै मारी लात।
जब पाँव दबाने लगे श्री कृष्ण अपने हाथ॥ तारीफ..

क्या क्या बयान हो सकें जो जो किये हैं काम।
दो पेड़ थे वहाँ खड़े जो नंद जी के धाम।
और दही डाल हाथ बँधाए उन्हों के काम।
ऊखल से बाँध हाथ उन्हें नाक भेजा शाम॥ तारीफ..

फरजंद गुरू के सबी एक आन में लाए।
फिर तीनों लोक मुँह में जसोदा को दिखाए।
छोनी अठारह रंग में जो भारत के जुझाए।
तहाँ अंडे भारथी के घंटा से बचाए॥ तारीफ..

सुरजन सा दुष्ट जान के जुन्नार से छोड़ा।
एक आन में जिन मार लिया केसरी घोड़ा।
आंधी में जो तिनावर्त को तिनका सा तोड़ा।
और नाम धराया है जो फिर आप भगोड़ा॥ तारीफ..

एक दम में किये दूर सुदामा के दरिद्दर।
कंचन के सभी कर दिये एक आन में मंदर।
जो चाहे कोई करता हरी आप विसंभर।
फिर आप गए दान को बलि राजा के दर पर॥ तारीफ..

सोलह हजार कैद से छुटवाई हैं रानी।
दिन रात कहा करतीं थीं वे कृष्ण कहानी।
रथवान हो अर्जुन के कही गोष्ठ पुरानी।
फिर अपने बचन सेती भए दधि के जो दानी॥ तारीफ..

कहता नज़ीर तेरे जो दासों का दास है।
दिन रात उसको तेरे ही चरनों की आस है।
ना समुझे एक तेरे ही से नित विलास है।
गुन गाए से तेरा हिये हरदम हुलास है।
तारीफ कहो कृष्ण कन्हैया की क्या लिखूँ॥

(सना=विशेषता-स्तुति, औसाफी=विशेषता,
मदह=प्रशंसा, नविश्त ख्वानलेखक,कथाकार,
लतीफ=आनन्दमय, फरजंद=पुत्र, जुन्नार=जनेऊ)

27. चिड़ियों की तस्बीह

वक़्त सहर की रूहें क्या हूं हूं हूं हूं करती हैं।
हूं हूं हूं हूं कर ज़िक्र कुन और फ़याकूं करती हैं।
मुर्गे बोलें कुकडू़ कुकडू़ मुर्गियां कूं कूं करती हैं।
तूतिया भी सब याद में उसकी मत्तूं मत्तूं करती हैं।
सांझ सबेरे चिड़ियां मिलकर चूं चूं चूं चूं करती हैं।
चूं चूं चूं चूं चूं चूं क्या? सब बेचूं बेचूं करती हैं॥1॥

पंख हो या गुड पंख उसी के ग़म के तप में तपते हैं।
उनका और सीमुर्ग़ उसी की फर्क़त बीच तड़पते हैं।
सारस, गिद्ध, हवासिल, बुज्जे, बगले पंख कलपते हैं।
पंख पखेरू जितने हैं, सब नाम उसी का जपते हैं।
सांझ सबेरे चिड़ियां मिलकर चूं चूं चूं चूं करती हैं।
चूं चूं चूं चूं चूं चूं क्या? सब बेचूं बेचूं करती हैं॥2॥

कु़मरी बोले हक़ सर्रा, बुलबुल बिस्मिल्लाह।
कबकटि टेरी चारों कुल और तीतर भी सुबहानअल्लाह।
दादुर, मोर, पपीहे, कोयल, कूक रहे अल्लाह अल्लाह।
फ़ाख़्ता कू कू, तीहू हू हू, तोते बोलें हक़ अल्लाह।
सांझ सबेरे चिड़ियां मिलकर चूं चूं चूं चूं करती हैं।
चूं चूं चूं चूं चूं चूं क्या? सब बेचूं बेचूं करती हैं॥3॥

शकरा, चैख और लग्घड़, बाशे और तुर्मती, बाज कोई।
कूंज, कबूतर, सब्ज़क झांपू, कलकल, सामार चोई॥
लाल पढ़े हैं सुम्मुन बुकमुन, जग पहने पोशाक सोई।
पिदड़ी, पिद्दी, पोदने, शक्करख़ोरे बोलें तोई तोई।
सांझ सबेरे चिड़ियां मिलकर चूं चूं चूं चूं करती हैं।
चूं चूं चूं चूं चूं चूं क्या? सब बेचूं बेचूं करती हैं॥4॥

चील कतई यिस्सिजिल कहे चलूं चलूं मत जान मियां।
कौए कांय् कांय् करते हैं ऐलान कमा कान मियां।
भर भर बोले मुर्ग़ाबी, "कुल्लोमनअलैहा फ़ान" मियां।
जितने पंख पखेरू हैं, सब पढ़ते हैं कुरआन मियां।
सांझ सबेरे चिड़ियां मिलकर चूं चूं चूं चूं करती हैं।
चूं चूं चूं चूं चूं चूं क्या? सब बेचूं बेचूं करती हैं॥5॥

हंस हुमा, सुखऱ्ाब, बदखें, बोलें या रहमान मियां।
सारू हरियल और लटूरे धैयड़ या हन्नान मियां।
कु़क्नस तीतर, चकवा चकवी बोलें या मन्नान मियां।
हुद हुद बोलें ‘अहद-अहद’, कुछ तू भी तो कर ध्यान मियां।
सांझ सबेरे चिड़ियां मिलकर चूं चूं चूं चूं करती हैं।
चूं चूं चूं चूं चूं चूं क्या? सब बेचूं बेचूं करती हैं॥6॥

बूम चुग़द सब्ज़का अबाबील और चकोरे शाम चिड़ी।
खंजन झय्यां लायं कुलंग और गूगाई की धूम पड़ी।
तितली टिड्डी, डांस, भभीरी कतरी, भौंरी और बड़ी।
मक्खी, मच्छर, पिस्सू, भुनगे, बोल रहे सब घड़ी-घड़ी।
सांझ सबेरे चिड़ियां मिलकर चूं चूं चूं चूं करती हैं।
चूं चूं चूं चूं चूं चूं क्या? सब बेचूं बेचूं करती हैं॥7॥

तन मन और लमढेंक ममोला हक़ हक़ तार पिरोते हैं।
अघन वये चंडोल, अबल़के याद में उसकी रोते हैं।
तायर तो सब तुख़्मेमुहब्बत उसका दिल में बोते हैं।
पंछी उसकी याद करें हम पांव पसारे सोते हैं।
सांझ सबेरे चिड़ियां मिलकर चूं चूं चूं चूं करती हैं।
चूं चूं चूं चूं चूं चूं क्या? सब बेचूं बेचूं करती हैं॥8॥

किस किस का लूं नाम ग़रज, हैं जितने तायर खुर्दो-कबीर।
कोई कहे या ‘रब्बेतवाना’ कोई कहे या ‘रब्बेक़दीर’।
पंखी तो सब याद करें, और हम गफ़लत में रहें असीर।
हमसा गा़फ़िल दुनिया में, अब कोई न होगा आह ‘नज़ीर’।
सांझ सबेरे चिड़ियां मिलकर चूं चूं चूं चूं करती हैं।
चूं चूं चूं चूं चूं चूं क्या? सब बेचूं बेचूं करती हैं॥9॥

(सहर=प्रातः काल, कुन=होजा, फ़याकुन्=बस हो गया,
अल्लाह ने कहा कुन्, होजा फयाकुन्, बस हो गया,
चिड़ियाँ अल्लाह की तारीफ़ महान् रचनाकार के रूप
में करती हैं, फर्क़त=विरह, बिस्मिल्लाह=अल्लाह के
नाम के साथ, सुबहानअल्लाह=अल्लाह पाक है,
हक़ अल्लाह=अल्लाह सत्य है, सुम्मुन बुकमुन=कुरान
में प्रयुक्त एक वाक्यांश, कुल्लोमनअलैहा फ़ान=कुरान
में सत्ताईसवें पारे में प्रयुक्त एक वाक्य-प्रत्येक वस्तु
का नाश होना है, रहमान=दया करने वाला, हन्नान=
बहुत अधिक उपकार करने वाला, मन्नान=मोक्ष प्रदान
करने वाला, अहद-अहद=एक-एक, बूम=उल्लू, चुग़द=
उल्लू, तायर=पक्षी, तुख़्मेमुहब्बत=प्रेम का बीज,
खुर्दो-कबीर=छोटे-बड़े, रब्बेतवाना=शक्ति-शाली ईश्वर,
रब्बेक़दीर=सर्व शक्तिमान ईश्वर, गफ़लत=अनभिज्ञता,
असीर=बंदी,कैदी, गा़फ़िल=अनभिज्ञ)

28. तारीफ़ भैरों की

देखा है जब से मैंने, तेरा जमाल भैरों।
रखता हूं तब से दिल में, तेरा ख़याल भैरों।
दिन रात है यह मेरा, तुझसे सवाल भैरों।
अब दर्दो ग़म से आकर मुझको संभाल भैरों।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥1॥

आंखों में छा रहा है, तेरा सरूप काला।
तन में भभूत गहरी, गल बीच मुंड माला।
आंखें दिया सी रोशन, हाथों में मै का प्याला।
हूं दिल से दास तेरा, सुन ऐ मेरे दयाला।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥2॥

क्या-क्या मची हैं तेरे, दरबार की बहारें।
भगती कला पे तेरी, जी जान अपना वारें।
सब अपना अपना कारज, मन मानता संवारें।
सेवक चरन को चूमें, इष्टी खड़े पुकारें।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥3॥

माथे पे तेरे टीका, सिंदूर का बिराजे।
मद पीवे मास खावे, जो तू करे सो छाजे।
तिरसूल कांधे ऊपर, डमरू की गत भी बाजे।
सब तज के मैंने अब तो, तेरी दया के काजे।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥4॥

तू राक्षसों के तन से, हर आन सर उखाड़े।
चाहे जिसे, बसावे चाहे जिसे उजाड़े।
जो तुझ से दू बदू हो, एक आन में लताड़े।
दानों को चीर डाले दैयत को भी पछाड़े।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥5॥

गुस्से में तू जो आकर अपनी जटा हिलावे।
धरती, अकास, पर्वत, पाताल दहल जावे।
सर काट राक्षसों के, झोंटे पकड़ हिलावे।
झांके कलाल ख़ाना, कुत्तों को खूं चटावे।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥6॥

जोगी अतीत जंगम तेरे चरन से लागें।
सेवें जो तुझको उनके सोते नसीब जागें।
जब नाम लेके तेरा, भड़कावें तप की आगें।
जिन, देव हाथ जोड़े, भूत और पलीत भागें।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥7॥

है कौन अब जो निकले, तुझ मस्त से अकड़ कर।
दुष्टों को लात मुक्के, मूज़ी के सर को टक्कर।
किरपा है तेरी मेरे हक़ में तो क़न्दो शक्कर।
अब सब तरह से मैंने तेरी दया को तक कर।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥8॥

मेरा तो कोई इस जा, अपना है ना बिगाना।
बेकस हूँ, बे हुनर हूँख् और है बुरा ज़माना।
ऐ बेकसों के वाली, मेरी मदद को आना।
तेरे सिवा किसी जा, मेरा नहीं ठिकाना।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥9॥

पूजा कथा में तेरी, मैं गुन बखानता हूं।
तुझको ही पूजता हूं, तुझको ही मानता हूं।
धूल अब तेरे चरन की, माथे पे सानता हूं।
तेरा ही हो रहा हूं, तुझको ही जानता हूं।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥10॥

तू शाह मैं भिखारी, मैं क्या कहूं कि क्या दे।
जो दिल में तेरे आवे, दाता मुझे दिला दे।
मुझसे बिगड़ चले को, अब मेहर कर बना दे।
अब जिस तरह से चाहे, चिन्ता मेरी मिटा दे।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥11॥

अब ग़म मेरे जिगर को, तीरों से छानता है।
और गर्द बेकसी की, नित सर पे छानता है।
किस से कहूं मैं जाकर, कौन, आह मानता है।
जो दुख है मेरे जी पर, सो तू ही जानता है।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥12॥

जो दुख है मेरे जी पर अब किसको जा सुनाऊं।
किससे पनाह मांगू, यह दुख किसे दिखाऊं।
अब बेकसी मैं अपनी, जाकर किसे सुनाऊं।
तेरा कहाके अब मैं, किसका भला कहाऊं।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥13॥

अब किस तरह जताऊं, मैं अपनी बेकली को।
ने सुख है मेरे दिल को, न चैन मेरे जी को।
पूछे जो मेरे दुख को, अब क्या पड़ी किसी को।
मुझसे भले बुरे की, अब लाज है तुझी को।
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥14॥

है जिनको अब जहां में तुझ इष्ट का सहारा।
दिन रात बाजता हैउनका सदा नक़ारा॥
है ‘बेनजीर’ तेरी किरपा का ठाठ सारा।
मानक जती गहे हैं भैरों सरन तिहारा॥
तेरी सरन गही है, कर तू निहाल भैरों॥
ऐ पर्तपाल देवत, मद मस्त काल भैरों॥15॥

29. दुर्गा जी के दर्शन

मन बास न कहिये क्यों कर जी है काशी नगरी बरसन की।
है तीरथ ज्ञानी ध्यानी का हर पंडित और धुन सरसन की॥
जो बसने हारे दूर के हैं यह भूमि है उन मन तरसन की।
उस देवी देवनी नटखट के है चाह चरन के परसन की॥
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥1॥

उस मंडल ऊंचे गुम्मट में जो देवी आप विराजत हैं।
तन अवरन ऐसे झलकत हैं जो देख चन्द्रमा लाजत है॥
धुन पूजन घंटन की ऐसी नित नौबत मानों बाजत हैं।
उस सुन्दर मूरत देवी का जो बरनन हो सब छाजत हैं॥
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥2॥

जो मेहेर सुने उस देवी की, वह दूर दिसा से धावत है।
जो ध्यान लगाकर आवत है, सब वा की आस पुजावत है।
जब किरपा वा की होवत है, सब वा के दरसन पावत है।
मुख देखत ही वा मूरति का, तन मन से सीसस नवावत है।
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥3॥

जो नेमी हैं वा मूरति के, वह उनकी बात सुधारिन है।
सुख चैन जो बातें मांगत हैं, वह उनकी चिन्ता हारिन हैं।
हर ज्ञानी वा की सरनन है, हर ध्यानी साधु उधारिन हैं।
जो सेवक हैं वा मूरति के, वह उनके काज संवारिन है।
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥4॥

जब होली पाछे उस जगह, दिन आकर मंगल होता है।
हर चार तरफ़ उस देवल में, अंबोह समंगल होता है।
टुक देखो जिधर भी आंख उठा, नर नारी का दल होता है।
हर मन में मंगल होता है, आनन्द बिरछ फल होता है।
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥5॥

जो बाग़ लगे हैं मन्दिर तक, वह लोगों से सब भरते हैं।
वह चुहलें होती हैं जितनी, सब मन के रंज बिसरते हैं।
कुछ बैठे हैं ख़ुश वक्ती से, दिल ऐशो तरब पर धरते हैं।
कुछ देख बहारे खूवां की, साथ उनके सैरें करते हैं।
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥6॥

जो चीजे़ं मेलों बिकती हैं, सब उस जा आन झमकती हैं।
पोशाकें जिनकी ज़र्री हैं, वह तन पर खूब झलकती हैं।
महबूबों से भी हुस्नों की, हर आन निगाहें तकती हैं।
लूं नाम ‘नज़ीर’ अब किस-किस का, जो खूबियां आन झमकती हैं।
परसंद बहुत मन होते हैं यह रीत रची है हरसन की।
तारीफ़ कहूं मैं क्या क्या कुछ, अब दुर्गा जी के दरसन की॥7॥

  • धार्मिक कविता नज़ीर अकबराबादी (भाग-1)
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