धार के इधर उधर : हरिवंशराय बच्चन

Dhaar Ke Idhar Udhar : Harivansh Rai Bachchan

1. भारतमाता मन्दिर

(काशी)
इतना भव्य देश भूतल पर यदि रहने को दास बना है,
तो भारतमाता ने जन्मा पूत नहीं, कृमि-कीट जना है।
(जुलाई १९३८ में बी. टी. करने के उदेश्य से मैं
बनारस गया था । वहाँ मैं अप्रैल १९३९ तक रहा
किसी समय भारतमाता मंदिर देखने गया था ।
संगमरमर का बना भारत का मानचित्र देखकर
ऊपर की दो पंक्तियां मेरे मन में उठीं । मंदिर
की दर्शक-पुस्तक (विजिटर्स बुक) में, जहां तक
मुझे स्मरण है, मैंने ये पंक्तियां लिख दी थीं।-
हरिवंशराय बच्चन)

2. रक्तस्नान

1
पृथ्वी रक्तस्नान करेगी!

ईसा बड़े हृदय वाले थे,
किंतु बड़े भोले-भाले थे,
चार बूँद इनके लोहू की इसका ताप हरेगी?
पृथ्वी रक्तस्नान करेगी!
2
आग लगी धरती के तन में,
मनुज नहीं बदला पाहन में,
अभी श्यामला, सुजला, सुफला ऐसे नहीं मरेगी।
पृथ्वी रक्तस्नान करेगी!
3
संवेदना अश्रु ही केवल,
जान पड़ेगा वर्षा का जल,
जब मानवता निज लोहू का सागर दान करेगी।
पृथ्वी रक्तस्नान करेगी!

3. अग्नि-परीक्षा

1
यह मानव की अग्नि-परीक्षा।

बढ़ती हैं लपटें भयकारी
अगणित अग्नि-सर्प-सी बन-बन,
गरुड़ व्यूह से धँसकर इनमें
इनका कर स्वीकार निमंत्रण;
देख व्यर्थ मत जाने पाये विगत युगों की शीक्षा-दीक्षा।
यह मानव की अग्नि-परीक्षा।
2
सच है, राख बहुत कुछ होगा
जिस पर मोहित है तेरा मन,
किंतु बचेगा जो कुछ, होगा
सत्य और शिव, सुंदर कंचन;
किंतु अभी तो लड़ ज्वाला से, व्यर्थ अभी अज्ञात-समीक्षा।
यह मानव की अग्नि-परीक्षा।
3
खड़े स्वर्ग में बुद्ध, मुहम्मद
राम, कृष्ण, औ’ ईशा नरवर,
मानवता को उच्च उठाने-
वाले अनगिन संत-पयंबर
साँस रोक अपलक नयनों से करते हैं परिणाम-प्रतीक्षा।
यह मानव की अग्नि-परीक्षा।

4. मानव का अभिमान

1
तुष्ट मानव का नहीं अभिमान।

जिन वनैले जंतुओं से
था कभी भयभीत होता,
भागता तन-प्राण लेकर,
सकपकाता, धैर्य खोता,
बंद कर उनको कटहरों में बना इंसान।
तुष्ट मानव का नहीं अभिमान।
2
प्रकृति की उन शक्तियों पर
जो उसे निरुपाय करतीं,
ज्ञान लघुता का करातीं,
सर्वथा असहाय करतीं,
बुद्धि से पूरी विजय पाकर बना बलवान।
तुष्ट मानव का नहीं अभिमान।
3
आज गर्वोन्मत्त होकर
विजय के रथ पर चढ़ा वह,
कुचलने को जाति अपनी
आ रहा बरबस बढ़ा वह;
मनुज करना चाहता है मनुज का अपमान।
तुष्ट मानव का नहीं अभिमान।

5. युद्ध की ज्वाला

1
युद्ध की ज्वाला जगी है।

था सकल संसार बैठा
बुद्धि में बारूद भरकर,—
क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, मद की,
प्रेम सुमनावलि निदर कर;
एक चिन्गारी उठी, लो, आग दुनिया में लगी है।
युद्ध की ज्वाला जगी है।
2
अब जलाना और जलना,
रह गया है काम केवल,
राख जल, थल में, गगन में
युद्ध का परिणाम केवल!
आज युग-युग सभ्यता से काल करता बन्दगी है।
युद्ध की ज्वाला जगी है।
3
किंतु कुंदन भाग जग का
आग में क्या नष्ट होगा,
क्या न तपकर, शुद्ध होकर
और स्वच्छ-स्पष्ट होगा?
एक इस विश्वास पर बस आस जीवन की टिकी है।
युद्ध की ज्वाला जगी है।

6. व्याकुलता का केंद्र

1
जग की व्याकुलता का केंद्र—

जहाँ छिड़ा लोहित संग्राम,
जहाँ मचा रौरव कुहराम,
पटा हताहत से जो ठाम!
वहां नहीं है, वहां नहीं है, वहां नहीं है, वहां नहीं।
जग की व्याकुलता का केंद्र।
2
जहां बली का अत्याचार,
जहां निबल की चीख-पुकार,
रक्त, स्वेद, आँसू की धार!
वहां नहीं है, वहां नहीं है, वहां नहीं है, वहां नहीं।
जग की व्याकुलता का केंद्र।
3
जहाँ घृणा करती है वास,
जहाँ शक्ति की अनबुझ प्यास,
जहाँ न मानव पर विश्वास,
उसी हृदय में, उसी हृदय में, उसी हृदय में, वहीं, वहीं।
जग की व्याकुलता का केंद्र।

7. इंसान की भूल

1
भूल गया है क्यों इंसान!

सबकी है मिट्टी की काया,
सब पर नभ की निर्मम छाया,
यहाँ नहीं कोई आया है ले विशेष वरदान।
भूल गया है क्यों इंसान!
2
धरनी ने मानव उपजाये,
मानव ने ही देश बनाये,
बहु देशों में बसी हुई है एक धरा-संतान।
भूल गया है क्यों इंसान!
3
देश अलग हैं, देश अलग हों,
वेश अलग हैं, वेश अलग हों,
रंग-रूप निःशेष अलग हों,
मानव का मानव से लेकिन अलग न अंतर-प्राण।
भूल गया है क्यों इंसान!

8. पृथ्वी-रोदन

1
सब ग्रह गाते, पृथ्वी रोती।

ग्रह-ग्रह पर लहराता सागर
ग्रह-ग्रह पर धरती है उर्वर,
ग्रह-ग्रह पर बिछती हरियाली,
ग्रह-ग्रह पर तनता है अम्बर,
ग्रह-ग्रह पर बादल छाते हैं, ग्रह-ग्रह पर है वर्षा होती।
सब ग्रह गाते, पृथ्वी रोती।
2
पृथ्वी पर भी नीला सागर,
पृथ्वी पर भी धरती उर्वर,
पृथ्वी पर भी शस्य उपजता,
पृथ्वी पर भी श्यामल अंबर,
किंतु यहाँ ये कारण रण के देख धरणि यह धीरज खोती।
सब ग्रह गाते, पृथ्वी रोती।
3
सूर्य निकलता, पृथ्वी हँसती,
चाँद निकलता, वह मुसकाती,
चिड़ियाँ गातीं सांझ सकारे,
यह पृथ्वी कितना सुख पाती;
अगर न इसके वक्षस्थल पर यह दूषित मानवता होती।
सब ग्रह गाते, पृथ्वी रोती।

9. सृष्टिकार से प्रश्न

1
लक्ष्य क्या तेरा यही था?

धरणि तल से धूल उठकर
बन भवन-प्रासाद सुखकर,
देव मंदिर सुरुचि-सज्जित,
दुर्ग दृढ़, उन्नत धराहर,
हो खड़ी कुछ काल फिर से धूलि में मिल जाय।
2
लक्ष्य क्या तेरा यही था?
स्वर्ग को आदर्श रखकर
तप करे पृथ्वी कठिनतर
उठे तिल-तिल यत्न कर ध्रुव
क्रम चले युग-युग निरंतर
निकट जाकर स्वर्ग के, पर, नरक में गिर जाय।
3
लक्ष्य क्या तेरा यही था?
पशु खड़ा हो दो पगों पर
ले मनुज का नाम सुन्दर
और अविरत साधना से
देव बन विचरे धरा पर,
किंतु सहसा देवता से पशु पुनः बन जाय।

10. नभ-जल-थल

1
अंबर क्या इसलिये बना था—

मानव अपनी बुद्धि प्रबल से
यान बना चढ़ जाए छल से,
फिर अपने कर उच्छृंखल से
नीचे बसे शांत मानव के ऊपर भारी वज्र गिराए।
2
सागर क्या इसलिये बना था—
पोत बनाकर भारी भारी,
करके बेड़ों की तैयारी,
लेकर सैनिक अत्याचारी,
तट पर बसे शांत मानव के नगरों के ऊपर चढ़ धाए।
3
पृथ्वी क्या इसलिए बनी थी—
विश्व विजय की प्यास जगाए,
सेनाओं की बाढ़ उठाए,
हरा शस्य उपजाना तजकर
संगीनों की फसल उगाए,
शांतियुक्त श्रम-निरत-निरंतर मानव के दल को डरपाए।

11. मानव रक्त

1
रक्त मानव का हुआ इफ़रात।

अब समा सकता न तन में,
क्रोध बन उतरा नयन में,
दूसरों के और अपने, लो रंगा पट-गात।
रक्त मानव का हुआ इफ़रात।
2
प्यास धरती ने बुझाई,
देह मल-मलकर नहाई,
हरित अंचल रक्त रंजित हो गया अज्ञात।
रक्त मानव का हुआ इफ़रात।
3
सिंधु की भी नील चादर
आज लोहित कुछ जगह पर,
जलद ने भी कुछ जगह की रक्त की बरसात।
रक्त मानव का हुआ इफ़रात।

12. व्याकुल संसार

1
व्याकुल आज है संसार!

प्रेयसी को बाहु में भर
विश्व, जीवन, काल गति से
सर्वथा स्वच्छंद होकर
आज प्रेमी दे न सकता, हाय, चुंबन-प्यार
व्याकुल आज है संसार।
2
गोद में शिशु को सुलाकर
विश्व, जीवन, काल गति का
ज्ञान क्षण भर को भुलाकर
मां पिला सकती नहीं है, हाय, पय की धार।
व्याकुल आज है संसार।
3
विगत सुख-सुधियाँ जगाकर
विश्व, जीवन, काल गति से
एक पल को मुक्ति पाकर
व्यक्त कर सकता न विरही, हाय, उर-उद्गार।
व्याकुल आज है संसार।

13. मनुष्य की निर्ममता

1
आज निर्मम हो गया इंसान।

एक ऐसा भी समय था,
कांपता मानव हृदय था,
बात सुनकर, हो गया कोई कहीं बलिदान।
आज निर्मम हो गया इंसान।
2
एक ऐसा भी समय है,
हो गया पत्थर हृदय है,
एक देता शीश, सोता एक चादर तान।
आज निर्मम हो गया इंसान।
3
किंतु इसका अर्थ क्या है,
खड्ग ले मानव खड़ा है,
स्वयं उर में घाव करता,
स्वयं घट में रक्त भरता,
और अपना रक्त अपने आप करता पान।
आज निर्मम हो गया इंसान।

14. करुण पुकार

1
करुण पुकार! करुण पुकार!

मानवता करती उद्भूत
कैसे दानवता के पूत,
जो पिशाचपन को अपनाकर
बनते महानाश के दूत,
जिनके पग से कुचला जाकर जग-जीवन करत चीत्कार।
करुण पुकार! करुण पुकार!
2
मानव हो व्यक्तित्व विहीन,
जड़, निर्मम, निर्बुद्धि मशीन,
आततायियों के इंगित पर
करता नंगा नाच नवीन,
युग-युग की सभ्यता देख यह कर उठती है हाहाकार।
करुण पुकार! करुण पुकार!
3
कारागारों का प्राचीर
बंदी करता कभी शरीर
चोर, डाकुओं, हत्यारों का;
आज जालिमों की जंजीर
में जकड़े आदर्श सड़ रहे, घुटते हैं उत्कृष्ट विचार।
करुण पुकार! करुण पुकार!

15. मनुष्य की मूर्ति

1
देवलोक से मिट्टी लाकर
मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता!

रचता मुख जिससे निकली हो
वेद-उपनिषद की वर वाणी,
काव्य-माधुरी, राग-रागिनी
जग-जीवन के हित कल्याणी,

हिंस्र जन्तु के दाढ़ युक्त
जबड़े-सा पर वह मुख बन जाता!
देवलोक से मिट्टी लाकर
मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता!
2
रचता कर जो भूमि जोतकर
बोएँ, श्यामल शस्य उगाएँ,
अमित कला कौशल की निधियाँ
संचित कर सुख-शान्ति बढ़ाएँ,

हिस्र जन्तु के नख से संयुत
पंजे-सा वह कर बन जाता!
देवलोक से मिट्टी लाकर
मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता!
3
दो पाँवों पर उसे खड़ाकर
बाहों को ऊपर उठवाता,
स्वर्ग लोक को छू लेने का
मानो हो वह ध्येय बनाता,

हाथ टेक धरती के ऊपर
हाय, नराधम पशु बन जाता!
देवलोक से मिट्टी लाकर
मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता!

16. विप्लव गान

1
जहाँ सोचा था वन के बीच
मिलेंगे खिलते कोमल फूल,
वहाँ क्या देख रहा हूँ आज
कि छाये तीखे शूल-बबूल,

कभी अंकुरित करूँगा सृष्टि,
अभी तो अंगारों की वृष्टि।
2
जहाँ सोचा था उपवन बीच
सजी होगी रस-रंग-बहार,
वहाँ क्या देख रहा हूँ आज
कि छाए झाड़ और झंखाड़,

कभी करना होगा श्रृंगार
अभी तो करना है संहार!
3
जहाँ सोचा था मधुवन बीच
सुनूँगा कोकिल पंचम-तान,
वहाँ पर कटु-कर्कश-स्वर काग
प्रतिक्षण खाए जाते कान,

कभी डोलेगी मधु-वातास
अभी तो उठता है उंचास!
4
बनाने में बिगड़े को व्यर्थ
बहाना आँसू लोहू स्वेद,
हमें करना साहस के साथ
प्रथम भूलों का मूलोच्छेद,

कभी करना होगा निर्माण
अभी तो गाता विप्लव गान!

17. नौ अगस्त, '४२

1
नौ अगस्त!
नौ अगस्त!
नौ अगस्त!
क्रांति की ध्वजा उठी,
जाति की भुजा उठी,
निर्विलम्ब देश एक हो खड़ा हुआ समस्त।
2
नौ अगस्त!
नौ अगस्त!
नौ अगस्त!
हाट हिटलरी लगी,
नग्न नीचता जगी,
मुल्क ने सहा कठोर ज़ोर-जुल्म ज़बरदस्त।
3
नौ अगस्त!
नौ अगस्त!
नौ अगस्त!
देश चोट खा गिरा,
अत्ति-आपदा घिरा,
और बंद जेल में पड़े हुए वतन-परस्त।
4
नौ अगस्त!
नौ अगस्त!
नौ अगस्त!
पर न हो निराश मन,
क्योंकि क्रूरतम दमन
भी कभी न कर सका स्वतंत्र राष्ट्र-स्वप्न ध्वस्त!
नौ अगस्त!
नौ अगस्त!
नौ अगस्त!

18. क्रांति दीप

1
पच्छिम से घन अंधकार ले
उतर पड़ी है काली रात,
कहती, मेरा राज अकंटक
होता जब तक नहीं प्रभात।
2
एक झोंपड़ी में उठती है
एक दिए की मद्धिम जोत—
अग्नि वंश की सब संतानें,
सूरज हो, चाहे खद्योत।
3
अग्नि वंश की आन यही है
और यही उसका इतिहास,
कितना ही तम हो, मत जाने
पाए ज्वाला में विश्वास।
4
एक दिए से मिटा अँधेरा
कितना, इस पर व्यर्थ विचार,
मैंने तो केवल यह देखा
नहीं विभा ने मानी हार।
5
दूर अभी किरणों की बेला,
दूर अभी ऊषा का द्वार,
बाड़व-दीपक शीश उठाता
कँपता तम का पारावार।
6
हर दीपक में द्रव विस्फोटक
हर दीपक द्युति की ललकार,
हर बत्ती विद्रोह पताका,
हर लौ विप्लव की हुंकार।

19. कवि का दीपक

1
आज देश के ऊपर कैसी
काली रातें आई हैं!
मातम की घनघोर घटाएँ
कैसी जमकर छाई हैं!
2
लेकिन दृढ़ विश्वास मुझे है
वह भी रातें आएँगी,
जब यह भारतभूमि हमारी
दीपावली मनाएगी!
3
शत-शत दीप इकट्ठे होंगे
अपनी-अपनी चमक लिए,
अपने-अपने त्याग, तपस्या,
श्रम, संयम की दमक लिए।
4
अपनी ज्वाला प्रभा परीक्षित
सब दीपक दिखलाएँगे,
सब अपनी प्रतिभा पर पुलकित
लौ को उच्च उठाएँगे।
5
तब, सब मेरे आस-पास की
दुनिया के सो जाने पर,
भय, आशा, अभिलाषा रंजित
स्वप्नों में खो जाने पर,
6
जो मेरे पढ़ने-लिखने के
कमरे में जलता दीपक,
उसको होना नहीं पड़ेगा
लज्जित, लांच्छित, नतमस्तक।
7
क्योंकि इसीके उजियाले में
बैठ लिखे हैं मैंने गान,
जिनको सुख-दुख में गाएगी
भारत की भावी संतान!

20. घायल हिन्दुस्तान

(1942)
मुझको है विश्वास किसी दिन
घायल हिंदुस्तान उठेगा।

दबी हुई दुबकी बैठी हैं
कलरवकारी चार दिशाएँ,
ठगी हुई, ठिठकी-सी लगतीं
नभ की चिर गतिमान हवाएँ,

अंबर के आनन के ऊपर
एक मुर्दनी-सी छाई है,

एक उदासी में डूबी हैं
तृण-तरुवर-पल्लव-लतिकाएँ;
आंधी के पहले देखा है
कभी प्रकृति का निश्चल चेहरा?

इस निश्चलता के अंदर से
ही भीषण तूफान उठेगा।
मुझको है विश्वास किसी दिन
घायल हिंदुस्तान उठेगा।

21. विजय दशमी

1
बोलकर जो जय उठाते हाथ,
उनकी जाति है नत-शीश,
उनका देश है नत-माथ,
अचरज की नहीं क्या बात?
2
इष्ट जिनके देवता हैं राम
उनकी जाति आज अशक्त,
उनका देश आज गुलाम,
विधि की गति नहीं क्या वाम?
3
मुक्ति जिनके जन्म का आदर्श
बंधन में पड़े वे आज,
बंधन की तजे वे लाज
क्यों हैं? बोल, भारतवर्ष!

22. आप किनके साथ हैं?

मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।

1
कभी नहीं जो तज सकते हैं
अपना न्यायोचित अधिकार,
कभी नहीं जो सह सकते हैं
शीश नवाकर अत्याचार,
एक अकेले हों या उनके
साथ खड़ी हो भारी भीड़;
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।
2
निर्भय होकर घोषित करते
जो अपने उद्गार-विचार,
जिनकी जिह्वा पर होता है
उनके अन्तर का अँगार,
नहीं जिन्हें चुप कर सकती है
आतताइयों की शमशीर;
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।
3
नहीं झुका करते जो दुनिया
से करने को समझौता,
ऊँचे से ऊँचे सपनों को
देते रहते जो न्योता,
दूर देखती जिनकी पैनी
आँख भविष्यत का तम चीर;
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।
4
जो अपने कंधों से पर्वत
से बढ़ टक्कर लेते हैं,
पथ की बाधाओं को जिनके
पाँव चुनौती देते हैं,
जिनको बाँध नहीं सकती है
लोहे की बेड़ी-जंजीर;
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।
5
जो चलते हैं अपने छप्पर
के ऊपर लूका धरकर,
हार-जीत का सौदा करते
जो प्राणों की बाजी पर,
कूद उदधि में नहीं उलट कर
जो फिर ताका करते तीर;
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।
6
जिनको ये अवकाश नहीं है,
देखें कब तारे अनुकूल;
जिनको यह परवाह नहीं है,
कब तक भद्रा कब दिक्शूल,
जिनके हाथों की चाबुक से
चलती है उनकी तक़दीर;
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।
7
तुम हो कौन, कहो जो मुझसे,
सही-गलत पथ लो तो जान,
सोच-सोचकर, पूछ-पूछकर
बोलो, कब चलता तूफ़ान,
सत्पथ है वह जिस पर अपनी
छाती ताने जाते वीर।
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।

23. स्वतन्त्रता दिवस

1
आज से आजाद अपना देश फिर से!

ध्यान बापू का प्रथम मैंने किया है,
क्योंकि मुर्दों में उन्होंने भर दिया है
नव्य जीवन का नया उन्मेष फिर से!
आज से आजाद अपना देश फिर से!
2
दासता की रात में जो खो गये थे,
भूल अपना पंथ, अपने को गये थे,
वे लगे पहचानने निज वेश फिर से!
आज से आजाद अपना देश फिर से!
3
स्वप्न जो लेकर चले उतरा अधूरा,
एक दिन होगा, मुझे विश्वास, पूरा,
शेष से मिल जाएगा अवशेष फिर से!
आज से आजाद अपना देश फिर से!
4
देश तो क्या, एक दुनिया चाहते हम,
आज बँट-बँट कर मनुज की जाति निर्मम,
विश्व हमसे ले नया संदेश फिर से!
आज से आजाद अपना देश फिर से!

24. आजाद हिन्दुस्तान का आह्वान

कर रहा हूँ आज मैं आज़ाद हिंदुस्तान का आह्वान!

1
है भरा हर एक दिल में आज बापू के लिए सम्मान,
हैं छिड़े हर एक दर पर क्रान्ति वीरों के अमर आख्यान,
हैं उठे हर एक दर पर देश-गौरव के तिरंग निशान,
गूँजता हर एक कण में आज वंदे मातरम का गान,
हो गया है आज मेरे राष्ट्र का सौभाग्य स्वर्ण-विहान;
कर रहा हूँ आज मैं आज़ाद हिंदुस्तान का आह्वान!
2
याद वे, जिनकी जवानी खा गई थी जेल की दीवार,
याद, जिनकी गर्दनों ने फाँसियों से था किया खिलवार,
याद, जिनके रक्त से रंगी गई संगीन की खर धार,
याद, जिनकी छातियों ने गोलियों की थी सही बौछार,
याद करते आज ये बलिदान हमको दुख नहीं, अभिमान,
है हमारी जीत आज़ादी, नहीं इंग्लैंड का वरदान;
कर रहा हूँ आज मैं आज़ाद हिंदुस्तान का आह्वान!
3
उन विरोधी शक्तियों की आज भी तो चल रही है चाल,
यह उन्हीं की है लगाई, उठ रही जो घर-नगर से ज्वाल,
काटता उनके करों से एक भाई दूसरे का भाल,
आज उनके मंत्र से है बन गया इंसान पशु विकराल,
किन्तु हम स्वाधीनता के पंथ-संकट से नहीं अनजान,
जन्म नूतन जाति, नूतन राष्ट्र का होता नहीं आसान;
कर रहा हूँ आज मैं आजाद हिंदुस्तान का आह्वान!
4
जब बंधे थे पाँव तब भी हम रुके थे हार कर किस ठौर?
है मिटा पाया नहीं हमको ज़माने का समूचा दौर,
हम पहुँचना चाहते थे जिस जगह पर यह नहीं वह ठौर,
जिस लिए भारत जिया आदर्श वह कुछ और, वह कुछ और;
आज के दिन की महत्ता है कि बेड़ी से मिला है त्राण,
और ऊँची मंजिलों पर हम करेंगे आज से प्रस्थान,
कर रहा हूँ आज मैं आजाद हिंदुस्तान का आह्वान!
5
आज से आजाद रहने का तुझे है मिल गया अधिकार,
किंतु उसके साथ जिम्मेदारियों का शीश पर है भार,
दीप-झंडों के प्रदर्शन और जय-जयकार के दिन चार,
किंतु जाँचेगा तुझे फिर सौ समस्या से भरा संसार;
यह नहीं तेरा, जगत के सब गिरों का गर्वमय उत्थान,
आज तुझसे बद्ध सारे एशिया का, विश्व का कल्याण,
कर रहा हूँ आज मैं आजाद हिंदुस्तान का आह्वान!

25. आज़ादों का गीत

1
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!

चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सजतीं गुड़ियाँ,
इनसे आतंकित करने की बीत गई घड़ियाँ,

इनसे सज-धज बैठा करते
जो, हैं कठपुतले।
हमने तोड़ अभी फैंकी हैं
बेड़ी-हथकड़ियाँ;

परम्परा पुरखों की हमने
जाग्रत की फिर से,
उठा शीश पर हमने रक्खा
हिम किरीट उज्जवल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!
2
चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सज सिंहासन,
जो बैठा करते थे उनका
खत्म हुआ शासन,

उनका वह सामान अजायब-
घर की अब शोभा,
उनका वह इतिहास महज
इतिहासों का वर्णन;

नहीं जिसे छू कभी सकेंगे
शाह लुटेरे भी,
तख़्त हमारा भारत माँ की
गोदी का शाद्वल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!
3
चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सजवा छाते
जो अपने सिर पर तनवाते
थे, अब शरमाते,

फूल-कली बरसाने वाली
दूर गई दुनिया,
वज्रों के वाहन अम्बर में,
निर्भय घहराते,

इन्द्रायुध भी एक बार जो
हिम्मत से औड़े,
छ्त्र हमारा निर्मित करते
साठ कोटि करतल।
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!
4
चांदी, सोने, हीरे, मोती
का हाथों में दंड,
चिन्ह कभी का अधिकारों का
अब केवल पाखंड,

समझ गई अब सारी जगती
क्या सिंगार, क्या सत्य,
कर्मठ हाथों के अन्दर ही
बसता तेज प्रचंड;

जिधर उठेगा महा सृष्टि
होगी या महा प्रलय,
विकल हमारे राज दंड में
साठ कोटि भुजबल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!

26. खोया दीपक

[सुभाष बोस के प्रति]

1
जीवन का दिन बीत चुका था,
छाई थी जीवन की रात,
किंतु नहीं मैंने छोड़ी थी
आशा-होगा पुनः प्रभात।
2
काल न ठंडी कर पाया था,
मेरे वक्षस्थल की आग,
तोम तिमिर के प्रति विद्रोही
बन उठता हर एक चिराग़।
3
मेरे आँगन के अंदर भी,
जल-जलकर प्राणों के दीप,
मुझ से यह कहते रहते थे,
"मां, है प्रातःकाल समीप!"
4
किंतु प्रतीक्षा करते हारा
एक दिया नन्हा-नादान,
बोला, "मां, जाता मैं लाने
सूरज को धर उसके कान!"
5
औ’ मेरा वह वातुल, चंचल
मेरा वह नटखट नादान,
मेरे आँगन को कर सूना
हाय, हो गया अंतर्धान।
6
और, नियति की चाल अनोखी,
आया फिर ऐसा तूफ़ान,
जिसने कर डाला कितने ही
मेरे दीपों का अवसान।
7
हर बल अपने को बिखराकर,
होता शांत, सभी को ज्ञात,
मंद पवन में ही परिवर्तित
हो जाता हर झंझावात।
8
औ’, अपने आँगन के दीपों
को फिर आज रही मैं जोड़,
अडिग जिन्होंने रहकर ली थी
भीषण झंझानिल से होड़।
9
बिछुड़े दीपक फिर मिलते हैं,
मिलकर मोद मनाते हैं,
किसने क्या झेला, क्या भोगा
आपस में बतलाते हैं।
10
किन्तु नहीं लौटा है अब तक
मेरा वह भोला, अनजान
दीप गया था जो प्राची को
लाने मेरा स्वर्ण विहान।

27. नवीन वर्ष

1
तमाम साल जानता कि तुम चले,
निदाघ में जले कि शीत में गले,
मगर तुम्हें उजाड़ खण्ड ही मिले,
मनुष्य के
लिए कलंक
हारना।
2
अतीत स्वप्न, मानता, बिखर गया,
अतीत, मानता, निराश कर गया,
अतीत, मानता, निराश कर गया,
तजो नहीं
भविष्य को
सिंगारना।
3
नवीन वर्ष में नवीन पथ वरो,
नवीन वर्ष में नवीन प्रण करो,
नवीन वर्ष में नवीन रस भरो,
धरो नवीन
देश-विश्व
धारणा।

28. आज़ादी का नया वर्ष

1
प्रथम चरण है नए स्वर्ग का,
नए स्वर्ग का प्रथम चरण है,
नए स्वर्ग का नया चरण है,
नया क़दम है!

जिंदा है वह जिसने अपनी
आज़ादी की क़ीमत जानी,
ज़िंदा, जिसने आज़ादी पर
कर दी सब कुछ की कुर्बानी,
गिने जा रहे थे मुर्दों में
हम कल की काली घड़ियों तक,
आज शुरू कर दी फिर हमने
जीवन की रंगीन कहानी।
इसीलिए तो आज हमारे
देश जाति का नया जनम है,
नया कदम है!

नए स्वर्ग का प्रथम का चरण है,
नए स्वर्ग का नया चरण है,
नया कदम है,
नया जनम है!
2
हिंदू अपने देवालय में
राम-रमा पर फूल चढ़ाता,
मुस्लिम मस्जिद के आंगन में
बैठ खुदा को शीश झुकाता,
ईसाई भजता ईसा को
गाता सिक्ख गुरू की बानी,
किंतु सभी के मन-मंदिर की
एक देवता भारतमाता!
स्वतंत्रता के इस सतयुग में
यही हमारा नया धरम है,
नया कदम है!

नए स्वर्ग का प्रथम का चरण है,
नए स्वर्ग का नया चरण है,
नया कदम है,
नया धरम है!
3
अमर शहीदों ने मर-मरकर
सदियों से जो स्वप्न सँवारा,
देश-पिता गाँधी रहते हैं
करते जिसकी ओर इशारा,
नए वर्ष में नए हर्ष से
नई लगन से लगी हुई हो
उसी तरफ़ को आँख हमारी,
उसी तरफ़ को पाँव हमारा।
जो कि हटे तिल भर भी पीछे
देश-भक्ति की उसे कसम है,
नया कदम है!

नए स्वर्ग का प्रथम का चरण है,
नए स्वर्ग का नया चरण है,
नया कदम है!
नया जनम है!
नया धरम है!

29. कामना

1
जहाँ असत्य, सत्य पर न छा सके,
जहाँ मनुष्य को न पशु दबा सके,
हृदय-पुकार को न शून्य खा सके,
रहे सदा
सुखी पवित्र
मेदिनी।
2
जिसे न ज़ोर-ज्यादती डरा सके,
जिसे न लोभ लाख का गिरा सके,
जिसे न बल जहान का फिरा सके,
चले सदा
प्रतापवान
लेखनी।
3 कि जो विमूक भाव शब्द में धरे,
कि जो विमल विचार गीत में भरे,
कि जो भविष्य कल्पना मुखर करे,
जिए सदा
ज़बान-प्राण
का धनी।

30. स्वदेश की आवश्यकता

1 हृदय भविष्य के सिंगार में लगे,
दिमाग़ जान ले अतीत की रगें,
नयन अतंद्र वर्तमान में जगें-- स्वदेश को
सुजान एक
चाहिए।
2 जिसे विलोक लोग जोश में भरें,
जिसे लिए जवान शान से बढ़ें,
जिसे लिये जिएं, जिसे लिये मरें,
स्वदेश को
निशान एक
चाहिए।
3 कि जो समस्त जाति की उभार हो,
कि जो समस्त जाति की पुकार हो,
कि जो समस्त जाति-कंठहार हो,
स्वदेश को
ज़बान एक
चाहिए।

31. अभी विलम्ब है

1
क़दम कलुष निशीथ के उखड़ चुके,
शिविर नखत समूह के उजड़ चुके,
पुरा तिमिर दुरा चला दुरित वदन,
नव प्रकाश
में अभी
विलंब है।
2
ढले न गीत में नवल विहंग स्वर,
चले न स्वप्न ही नवीन पंख पर,
न खोल फूल ही सके नए नयन,
युग प्रभात
में अभी
विलंब है।
3
विदेश-आधिपत्य देश से हटा,
कलंक भाल पर लगा हुआ कटा,
स्वराज की नहीं छिपी हुई छटा,
मगर सुराज
में अभी
विलंब है।

32. चेतावनी-१

1
जगो कि तुम हज़ार साल सो चुके,
जगो कि तुम हज़ार साल खो चुके,
जहान सब सजग-सचेत आज तो,
तुम्हीं रहो
पड़े हुए
न बेख़बर।
2
उठो चुनौतियाँ मिलीं, जबाब दो,
क़दीम कौम-नस्ल का हिसाब दो,
उठो स्वराज के लिए ख़िराज दो,
उठो स्वदेश
के लिए
कसो कमर।
3
बढ़ो ग़नीम सामने खड़ा हुआ,
बढ़ो निशान जंग का गड़ा हुआ,
सुयश मिला कभी नहीं पड़ा हुआ,
मिटो मगर
लगे न दाग़
देश पर।

33. नया वर्ष

1
खिली सहास एक-एक पंखुरी,
झड़ी उदास एक-एक पंखुरी,
दिनांत प्रात, प्रात सांझ में घुला,
इसी तरह
व्यतीत वर्ष
हो गया।
2
गया हुआ समय फिरा नहीं कभी,
गिरा हुआ सुमन उठा नहीं कभी,
गई निशा दिवस कपाट को खुला,
गिरा सुमन
नवीन बीज
बो गया।
3
सजे नया कुसुम नवीन डाल में,
सजे नया दिवस नवीन साल में,
सजे सगर्व काल कंठ-भाल में नवीन वर्ष
को स्वरूप
दो नया।

34. चेतावनी-२

1
नहीं प्रकट हुई कुरूप क्रूरता,
तुम्हें कठोर सत्य आज घूरता,
यथार्थ को सतर्क हो ग्रहण करो,
प्रवाह में
न स्वप्न के
विसुध बहो।
2
कि तुम हिए सहिष्णुता लिए रहे,
कि तुम दुराव दैन्य का किए रहे,
तजो पलायनी प्रवृत्ति, कादरो,
बुरी प्रवंचना,
उसे
’विदा’ कहो।
3
विरुद्ध शक्तियां समक्ष आ खड़ीं,
हरेक पर जवाबदेहियां बड़ी,
यही, यही अभीत कर्म की घड़ी,
बने तमाशबीन
मत
खड़े रहो।

35. पटेल के प्रति

1
यही प्रसिद्ध लौह का पुरुष प्रबल
यही प्रसिद्ध शक्ति की शिला अटल,
हिला इसे सका कभी न शत्रु दल,
पटेल पर,
स्वदेश को
गुमान है।
2
सुबुद्धि उच्च श्रृंग पर किये जगह,
हृदय गंभीर है समुद्र की तरह,
क़दम छुए हुए ज़मीन की सतह,
पटेल देश
का निगाह-
बान है।
3 हरेक पक्ष को पटेल तोलता,
हरेक भेद को पटेल खोलता,
दुराव या छिपाव से उसे ग़रज़?
सदा कठोर नग्न सत्य बोलता,
पटेल हिंद
की निडर
ज़बान है।

36. राष्ट्र ध्वजा

1
नगाधिराज श्रृंग पर खड़ी हुई,
समुद्र की तरंग पर अड़ी हुई,
स्वदेश में सभी जगह गड़ी हुई अटल ध्वजा
हरी, सफेद
केसरी।
2
न साम-दाम के समक्ष यह रुकी,
यह दंड-भेद के समक्ष यह झुकी,
सगर्व आज शत्रु-शीश पर ठुकी,
विजय ध्वजा
हरी, सफ़ेद
केसरी।
3
चलो उसे सलाम आज सब करें,
चलो उसे प्रणाम आज सब करें,
अजर सदा, इसे लिये हुए जिए,
अमर सदा, इसे लिये हुए मरे,
अजय ध्वजा
हरी, सफ़ेद
केसरी।

37. देश-विभाजन-१

1
सुमति स्वदेश छोड़कर चली गई,
ब्रिटेन-कूटनीति से छलि गई,
अमीत, मीत; मीत, शत्रु-सा लगा,
अखंड देश
खंड-खंड
हो गया।
2
स्वतंत्रता प्रभात क्या यही-यही!
कि रक्त से उषा भिगो रही मही,
कि त्राहि-त्राहि शब्द से गगन जगा,
जगी घृणा
ममत्व-प्रेम
सो गया।
3
अजान आज बंधु-बंधु के लिए,
पड़ोस-का, विदेश पर नज़र किए,
रहें न खड्ग-हस्त किस प्रकार हम,
विदेश है हमें चुनौतियां दिए,
दुरंत युद्ध
बीज आज
बो गया।

38. ब्रह्म देश की स्वतंत्रता पर

1
सहर्ष स्वर्ग घंटियाँ बजा रहा,
कलश सजा रहा, ध्वजा उठा रहा,
समस्त देवता उछाह में सजे,
तड़क रही
कहीं गुलाम-
हथकड़ी।
2
हटी न सिर्फ हिंद-भूमि-दासता,
मिला अधीन को नवीन रास्ता,
स्वतंत्र जब समग्र एशिया बने,
रही नहीं
सुदूर वह
सुघर घड़ी।
3
स्वतंत्र आज ब्रह्म देश भी हुआ,
ब्रिटेन का उतर गया कठिन जुआ,
उसे हज़ार बार हिंद की दुआ,
प्रसन्न आँख
आँख देखकर
बड़ी।

39. देश के सैनिकों से

1
कटी न थी गुलाम लौह श्रृंखला,
स्वतंत्र हो कदम न चार था चला,
कि एक आ खड़ी हुई नई बला,
परंतु वीर
हार मानते
कभी?
2
निहत्थ एक जंग तुम अभी लड़े,
कृपाण अब निकाल कर हुए खड़े,
फ़तह तिरंग आज क्यों न फिर गड़े,
जगत प्रसिद्ध,
शूर सिद्ध
तुम सभी।
3
जवान हिंद के अडिग रहो डटे,
न जब तलक निशान शत्रु का हटे,
हज़ार शीश एक ठौर पर कटे,
ज़मीन रक्त-रुंड-मुंड से पटे,
तजो न
सूचिकाग्र भूमि-
भाग भी।

40. देश पर आक्रमण

1
कटक संवार शत्रु देश पर चढ़ा,
घमंड, घोर शोर से भरा बढ़ा,
स्वतंत्र देश, उठ इसे सबक सिखा,
बहुत हुई
न देर अब
लगा जरा।
2
समस्त शक्ति युद्ध में उड़ेल दे,
ग़नीम को पहाड़ पार ठेल दे,
पहाड़ पंथ रोकता, ढकेल दे,
बने नवीन
शौर्य की
परंपरा।
3
न दे, न दे, न दे स्वदेश की भुईं,
जिसे कि नोक से दबा सके सुई,
स्वतंत्र देश की प्रथम परख हुई,
उतर खरा,
उतर खरा,
उतर खरा।

41. देश के युवकों से

1
कठोर सत्य हैं, नहीं कहानियां,
जिन्हें सुना गई कई शताब्दियां,
करो अतीत की पुनः न गलतियां,
न कान बीच
उँगलियाँ
दिये रहो।
2
अनेक शत्रु देश पार हैं खड़े,
अनेक शत्रु देश मध्य हैं पड़े,
कुशल कभी नहीं बिना हुए कड़े,
सजग कृपाण
हाथ में
लिए रहो।
3
स्वतंत्रता लता अभी मृदुल नवल,
समूल पशु इसे कहीं न लें निगल,
कि हो हज़ार वर्ष की रगड़ विफल,
युवक सचेत
चौकसी
किए रहो।

42. आज़ादी के बाद

1
अगर विभेद ऊँच-नीच का रहा,
अछूत-छूत भेद जाति ने सहा,
किया मनुष्य औ’ मनुष्य में फ़रक़,
स्वदेश की
कटी नहीं
कुहेलिका।
2
अगर चला फ़साद शंख-गाय का,
फ़साद संप्रदाय-संप्रदाय का,
उलट न हम सके अभी नया वरक़,
चढ़ी अभी
स्वदेश पर
पिशाचिका।
3
अगर अमीर वित्त में गड़े रहे,
अगर गरीब कीच में पड़े रहे,
हटा न दूर हम सके अभी नरक,
स्वदेश की
स्वतंत्रता,
मरीचिका।

43. देश-विभाजन-२

1
दिखे अगर कभी मकान में झरन,
सयत्न मूँदते उसे प्रवीण जन,
निचिंत बैठना बड़ा गँवारपन,
कि जब समस्त
देश में
दरार हो।
2
रहे न साथ एक साथ जब रहे,
अलग, विरुद्ध पंथ आज तो गहे,
यही मिलाप है कि राम मुँह कहे,
मगर बग़ल
छिपी हुई
कटार हो।
3
सुदूर शत्रु सेन साजने लगा,
पड़ोस-का फ़िराक में कि दे दग़ा,
कहीं अचेत ही न जाय तू ठगा,
समय रहे
स्वदेश
होशियार हो।

44. देश के लेखकों से

1
बहुत प्रसिद्ध खेल हैं कृपाण के,
कहां समान वह कलम-कमान के,
अचूक हैं निशान शब्द-बाण के,
कलम लिए
हुए कभी
न तुम डरो।
2
समस्त देश की बसेक टेक हो,
समस्त छिन्न-भिन्न जाति एक हो,
विमूढ़ता जहां वहाँ विवेक हो,
यही प्रभाव
शब्द-शब्द
में भरो।
3
न आज स्वप्न-कल्पना-सुरा छको,
न आज बात आसमान की बको,
स्वदेश पर मुसीबतें, सुलेखकों,
उसे प्रदान
आज लेखनी
करो।

45. नव विहान

1
नयन बनें नवीन ज्योति के निलय,
नवल प्रकाश पुंज से जगे हृदय,
नवीन तेज बुद्धि को करे अभय,
सुदीर्घ देश
की निशा
समाप्त हो।
2
जगह-जगह उड़े निशान देश का,
फ़रक ज़बान और वेश का,
बसेक धर्म हो प्रजा अशेष का,
स्वराष्ट्र-भक्ति
व्यक्ति-व्यक्ति
व्याप्त हो।
3
कि जो स्वदेश के चतुर सुजान हैं,
कि जो स्वदेश के पुरुष प्रधान हैं,
कि जो स्वदेश के निगाहबान हैं,
उन्हें अचूक
दिव्य दृष्टि
प्राप्त हो।

46. देश के कवियों से

1
सुवर्ण मृत्तिका हुई कलम छुई,
अमृत हर एक बिंदु लेखनी चुई,
कलम जहाँ गई वहाँ विजय हुई,
विफल रही
नहीं कभी
न भारती।
2
कलम लिए चले कि तुम कला चली,
कि कल्पना रहस्य-अंचला चली,
कि व्योम-स्वर्ग-स्वप्न-श्रृंखला चली,
तुम्हें स्वदेश-
पुतलियां
निहारतीं।
3
करो विचित्र इंद्रधनु-विभा परे,
तजो सुरम्य हस्ति-दंत-घरहरे,
न अब नखत निहारकर निहाल हो,
न आसमान देखते रहो खड़े,
तुम्हें ज़मीन
देश की
पुकारती।

47. देश-विभाजन-३

1
विदेश की कुनीति हो गई सफल,
समस्त जाति की न काम दी अक़ल,
सकी न भाँप एक चाल, एक छल,
फ़रक़ हमें
दिखा न फूल-
शूल में।
2
पहन प्रसून हार हम खड़े हुए,
कि खार मौत के गले पड़े हुए,
कृतज्ञ हम ब्रिटेन के बड़े हुए,
कि वह हमें
गया ढकेल
भूल में।
3
यही स्वतंत्रता-लता गया लगा,
कि मुल्क ओर-छोर खून से रंगा,
बिखेर बीज फूट के हुआ अलग,
स्वदेश सर्व काल को गया ठगा,
गरल गया
उलीच नीच
मूल में।

48. देश के नेताओं से

1
विनम्र हो ब्रिटेन-गर्व जो हरे,
विरक्त हो विमुक्त देश जो करे,
समाज किसलिए न देख हो दुखी,
कि उस महान
को खरीद
बंक ले।
2
स्वदेश बाग-डोर हाथ में लिए,
विशाल जन-समूह साथ में लिए,
कभी नहीं उचित कि हो अधोमुखी प्रवेश तुम
करो प्रमाद--
पंक में।
3
करो न व्यर्थ दाप, होशियार हो,
फला कभी न पाप, होशियार हो,
प्रसिद्ध है प्रकोप जन-जनार्दनी,
मिले तुम्हें न शाप होशियार हो,
तुम्हें कहीं
न राजमद
कलंक दे।

49. देश के नाविकों से

1
कुछ शक्ल तुम्हारी घबराई-घबराई-सी
दिग्भ्रम की आँखों के अन्दर परछाईं सी,
तुम चले कहाँ को और कहाँ पर पहुँच गए।
लेकिन, नाविक,
होता ही है
तूफान प्रबल।
2
यह नहीं किनारा है जो लक्ष्य तुम्हारा था,
जिस पर तुमने अपना श्रम यौवन वारा था;
यह भूमि नई, आकाश नया, नक्षत्र नए।
हो सका तुम्हारा
स्वप्न पुराना
नहीं सफल।
3
अब काम नहीं दे सकते हैं पिछले नक्शे,
जिनको फिर-फिर तुम ताक रहे हो भ्रान्ति ग्रसे,
तुम उन्हें फाड़ दो, और करो तैयार नये।
वह आज नहीं
संभव है, जो
था संभव कल।

50. आजादी की पहली वर्षगाँठ

1
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।

आज़ादी का आया है पहला जन्म-दिवस,
उत्साह उमंगों पर पाला-सा रहा बरस,
यह उस बच्चे की सालगिरह-सी लगती है
जिसकी मां उसको जन्मदान करते ही बस
कर गई देह का मोह छोड़ स्वर्गप्रयाण।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
2
किस को बापू की नहीं आ रही आज याद,
किसके मन में है आज नहीं जागा विषाद,
जिसके सबसे ज्यादा श्रम यत्नों से आई
आजादी;
उसको ही खा बैठा है प्रमाद,
जिसके शिकार हैं दोनों हिन्दू-मुसलमान।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
3
कैसे हम उन लाखों को सकते है बिसार,
पुश्तहा-पुश्त की धरती को कर नमस्कार
जो चले काफ़िलों में मीलों के, लिए आस
कोई उनको अपनाएगा बाहें पसार—
जो भटक रहे अब भी सहते मानापमान,
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
4
कश्मीर और हैदराबाद का जन-समाज
आज़ादी की कीमत देने में लगा आज,
है एक व्यक्ति भी जब तक भारत में गुलाम
अपनी स्वतंत्रता का है हमको व्यर्थ नाज़,
स्वाधीन राष्ट्र के देने हैं हमको प्रमाण।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
5
है आज उचित उन वीरों का करना सुमिरन,
जिनके आँसू, जिनके लोहू, जिनके श्रमकण,
से हमें मिला है दुनिया में ऐसा अवसर,
हम तान सकें सीना, ऊँची रक्खें गर्दन,
आज़ाद कंठ से आज़ादी का करें गान।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
6
सम्पूर्ण जाति के अन्दर जागे वह विवेक--
जो बिखरे हैं, हो जाएं मिलकर पुनः एक,
उच्चादर्शों की ओर बढ़ाए चले पांव
पदमर्दित कर नीचे प्रलोभनों को अनेक,
हो सकें साधनाओं से ऐसे शक्तिमान,
दे सकें संकटापन्न विश्व को अभयदान।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।

51. आजादी की दूसरी वर्षगाँठ

1
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।

काल की गति फेंकती किस पर नहीं अपना अलक्षित पाश है,
सिर झुका कर बंधनों को मान जो लेता वही बस दास है,
थे विदेशी के अपावन पग पड़े जिस दिन हमारी भूमि पर,
हम उठे विद्रोह की लेकर पताका साक्षी इतिहास है;
एक ही संघर्ष दाहर से जवाहर तक बराबर है चला,
जो कि सदियों में नहीं बैठा कभी भी हार, मेरा देश है।
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।
2
जो कि सेना साज आए चूर मद में हिन्द को करने फ़तह,
आज उनके नाम बाकी रह गई है कब्र भर की बस जगह,
किन्तु वह आजाद होकर शान से है विश्व के आगे खड़ा,
और होता जा रहा हि शक्ति से संपन्न हर शामो-सुबह,
झुक रहे जिसके चरण में पीढ़ियों के गर्व को भूले हुए,
सैकड़ों राजों-नवाबों के मुकुट-दस्तार, मेरा देश है।
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।
3
हम हुए आजाद तो देखा जगत ने एक नूतन रास्ता,
सैकड़ों सिजदे उसे, जिसने दिया इस पंथ का हमको पता,
जबकि नफ़रत का ज़हर फैला हुआ था जातियों के बीच में,
प्रेम की ताक़त गया बलिदान से अपने जमाने को बता;
मानवों के शान्ति-सुख की खोज में नेतृत्व करने के लिए
देखता है एक टक जिसको सकल संसार, मेरा देश है।
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।
4
जाँचते उससे हमें जो आज हम हैं, वे हृदय के क्रूर हैं,
हम गुलामी की वसीयत कुछ उठाने के लिए मजबूर हैं,
पर हमारी आँख में है स्वप्न ऊँचे आसमानों के जगे,
जानते हम हैं कि अपने लक्ष्य से हम दूर हैं, हम दूर हैं;
बार ये हट जायेंगे, आवाज़ तारों की पड़ेगी कान में,
है रहा जिसको परम उज्जवल भविष्य पुकार, मेरा देश है।
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।

52. बुलबुले हिन्द

[सरोजिनी नायडू की मृत्यु पर]

1
हो गई मौन बुलबुले-हिंद!

मधुबन की सहसा रुकी साँस,
सब तरुवर-शाखाएँ उदास,
अपने अंतर का स्वर खोकर
बैठे हैं सब अलि विहग-वृंद!
चुप हुई आज बुलबुले-हिन्द!
2
स्वर्गिक सुख-सपनों से लाकर
नवजीवन का संदेश अमर
जिसने गाया था जीवन भर
मधु ऋतु की जाग्रत वेला में
कैसे उसका संगीत बन्द!
सो गई आज बुलबुले-हिन्द!
3
पंछी गाने पर बलिहारी,
पर आज़ादी ज़्यादा प्यारी,
बंदी ही हैं जो संसारी,
तन के पिंजड़े को रिक्त छोड़
उड़ गया मुक्त नभ में परिंद!
उड़ गई आज बुलबुले-हिंद!

53. गणतंत्र दिवस

1
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,
कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,
इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े,
और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए!
किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
2
जय बोलो उस धीर व्रती की जिसने सोता देश जगाया,
जिसने मिट्टी के पुतलों को वीरों का बाना पहनाया,
जिसने आज़ादी लेने की एक निराली राह निकाली,
और स्वयं उसपर चलने में जिसने अपना शीश चढ़ाया,
घृणा मिटाने को दुनियाँ से लिखा लहू से जिसने अपने,
“जो कि तुम्हारे हित विष घोले, तुम उसके हित अमृत घोलो।”
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
3
कठिन नहीं होता है बाहर की बाधा को दूर भगाना,
कठिन नहीं होता है बाहर के बंधन को काट हटाना,
ग़ैरों से कहना क्या मुश्किल अपने घर की राह सिधारें,
किंतु नहीं पहचाना जाता अपनों में बैठा बेगाना,
बाहर जब बेड़ी पड़ती है भीतर भी गाँठें लग जातीं,
बाहर के सब बंधन टूटे, भीतर के अब बंधन खोलो।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
4
कटीं बेड़ियाँ औ’ हथकड़ियाँ, हर्ष मनाओ, मंगल गाओ,
किंतु यहाँ पर लक्ष्य नहीं है, आगे पथ पर पाँव बढ़ाओ,
आज़ादी वह मूर्ति नहीं है जो बैठी रहती मंदिर में,
उसकी पूजा करनी है तो नक्षत्रों से होड़ लगाओ।
हल्का फूल नहीं आज़ादी, वह है भारी ज़िम्मेदारी,
उसे उठाने को कंधों के, भुजदंडों के, बल को तोलो।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

54. ओ मेरे यौवन के साथी

1
मेरे यौवन के साथी, तुम
एक बार जो फिर मिल पाते,
वन-मरु-पर्वत कठिन काल के
कितने ही क्षण में कह जाते।
ओ मेरे यौवन के साथी!
2
तुरत पहुंच जाते हम उड़कर,
फिर उस जादू के मधुवन में,
जहां स्वप्न के बीज बिखेरे
थे हमने मिट्टी में, मन में।
ओ मेरे यौवन के साथी!
3
सहते जीवन और समय का
पीठ-शीश पर बोझा भारी,
अब न रहा वह रंग हमारा,
अब न रही वह शक्ल हमारी।
ओ मेरे यौवन के साथी!
4
चुप्पी मार किसी ने झेला
और किसी ने रोकर, गाकर,
हम पहचान परस्पर लेंगे
कभी मिलें हम, किसी जगह पर।
ओ मेरे यौवन के साथी!
5
हम संघर्ष काल में जन्मे
ऐसा ही था भाग्य हमारा,
संघर्षों में पले, बढ़े भी,
अब तक मिल न सका छुटकारा।
ओ मेरे यौवन के साथी!
6
औ’ करते आगाह सितारे
और बुरा दिन आने वाला,
हमको-तुमको अभी पड़ेगा
और कड़ी घड़ियों से पाला।
ओ मेरे यौवन के साथी!
7
क्या कम था संघर्ष कि जिसको
बाप और दादों ने ओड़ा,
जिसमें टूटे और बने हम
वह भी था संघर्ष न थोड़ा।
ओ मेरे यौवन के साथी!
8
और हमारी संतानों के
आगे भी संघर्ष खड़ा है,
नहीं भागता संघर्षों से
इसीलिए इंसान बड़ा है।
ओ मेरे यौवन के साथी!
9
लेकिन, आओ, बैठ कभी तो
साथ पुरानी याद जगाएं,
सुनें कहानी कुछ औरों की
कुछ अपनी बीती बतलाएं।
ओ मेरे यौवन के साथी!
10
ललित राग-रागिनियों पर है
अब कितना अधिकार तुम्हारा?
दीप जला पाए तुम उनसे?
बरसा सके सलिल की धारा?
ओ मेरे यौवन के साथी!
11
मोहन, मूर्ति गढ़ा करते हो
अब भी दुपहर, सांझ सकारे?
कोई मूर्ति सजीव हुई भी?
कहा किसी ने तुमको ’प्यारे’?
ओ मेरे यौवन के साथी!
12
बतलाओ, अनुकूल कि अपनी
तूली से तुम चित्र-पटल पर
ला पाए वह ज्योति कि जिससे
वंचित सागर, अवनी, अंबर?
ओ मेरे यौवन के साथी!
13
मदन, सिद्ध हो सकी साधना
जो तुमने जीवन में साधी?
किसी समय तुमने चाहा था
बनना एक दूसरा गांधी!
ओ मेरे यौवन के साथी!
14
और कहाँ, महबूब, तुम्हारी
नीली, आंखों वाली ज़ोहरा,
तुम जिससे मिल ही आते थे,
दिया करे सब दुनिया पहरा।
ओ मेरे यौवन के साथी!
15
क्या अब भी हैं याद तुम्हें
चुटकुले, कहानी किस्से, प्यारे,
जिनपर फूल उठा करते थे
हँसते-हँसते पेट हमारे।
ओ मेरे यौवन के साथी!
16
हमें समय ने तौला, परखा,
रौंदा, कुचला या ठुकराया,
किंतु नहीं वह मीठी प्यारी
यादों का दामन छू पाया।
ओ मेरे यौवन के साथी!
17
अक्सर मन बहलाया करता
मैं यों करके याद तुम्हारी,
तुमको भी क्या आती होगी
इसी तरह से याद हमारी?
ओ मेरे यौवन के साथी!
18
मैं वह, जिसने होना चाहा
था रवि ठाकुर का प्रतिद्वन्दी,
और कहां मैं पहुंच सका हूँ
बतलाएगी यह तुकबंदी।
ओ मेरे यौवन के साथी!

55. होली

यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,

आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,

आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

56. शहीदों की याद में

1
सुदूर शुभ्र स्वप्न सत्य आज है,
स्वदेश आज पा गया स्वराज है,
महाकृत्घन हम बिसार दें अगर
कि मोल कौन
आज का
गया चुका।
2
गिरा कि गर्व देश का तना रहे,
मरा कि मान देश का बना रहे,
जिसे खयाल था कि सिर कटे मगर
उसे न शत्रु
पांव में
सके झुका।
3
रुको प्रणाम इस ज़मीन को करो,
रुको सलाम इस ज़मीन को करो,
समस्त धर्म-तीर्थ इस ज़मीन पर
गिरा यहां
लहू किसी
शहीद का।

57. अमित के जन्म-दिन पर

अमित को बारंबार बधाई!
आज तुम्हारे जन्म-दिवस की,
मधुर घड़ी फिर आई।
अमित को बारंबार बधाई!

उषा नवल किरणों का तुमको
दे उपहार सलोना,
दिन का नया उजाला भर दे
घर का कोना-कोना,
रात निछावर करे पलक पर
सौ सपने सुखदायी।
अमित को बारंबार बधाई!

जीवन के इस नये बरस में
नित आनंद मनाओ,
सुखी रहो तन-मन से अपनी
कीर्ति-कला फैलाओ,
तुम्हें सहज ही में मिल जाएं
सब चीजें मन-भायी।
अमित को बारंबार बधाई!

58. अजित के जन्म-दिन पर

आज तुम्हारा जन्म-दिवस है,
घड़ी-घड़ी बहता मधुरस है,
अजित हमारे, जियो-जियो!

अमलतास पर पीले-पीले,
गोल्ड-मुहर पर फूल फबीले,
आज तुम्हारा जन्म-दिवस है,
जगह-जगह रंगत है, रस है,
अजित दुलारे, जियो-जियो!

बागों में है बेला फूला,
लतरों पर चिड़ियों का झूला,
आज तुम्हारा जन्म-दिवस है,
मेरे घर में सुख-सरबस है,
नैन सितारे, जियो-जियो!

नये वर्ष में कदम बढ़ाओ,
पढ़ो-बढ़ो यश-कीर्ति कमाओ,
तुम सबके प्यारे बन जाओ,
जन्म-दिवस फिर-फिर से आए,
दुआ-बधाई सबकी लाए,
सबके प्यारे, जियो-जियो!

59. राजीव के जन्मदिन पर

आज राजीव का जन्म-दिन आ गया,
सौ बधाई तुम्हें,
सौ बधाई तुम्हें।
आज आनन्द का घन गगन छा गया,
सौ बधाई तुम्हें,
सौ बधाई तुम्हें।
दे बधाई तुम्हें आज प्रातः किरण,
दे बधाई तुम्हें आज अम्बर-पवन,
दे बधाई तुम्हें भूमि होकर मगन।
फूल कलियां खिलें,
आज तुमको सभी की दुआएँ मिलें,
तुम लिखो, तुम पढ़ो,
खूब आगे बढ़ो,
खूब ऊपर चढ़ो,
बाप-मां खुश रहें,
काम ऐसा करो, लोग अच्छा कहें।

60. भारत-नेपाल मैत्री संगीत

जग के सबसे उँचे पर्वत की छाया के वासी हम।
बीते युग के तम का पर्दा
फाड़ो, देखो, उसके पार
पुरखे एक तुम्हारे-मेरे,
एक हमारे सिरजनहार,
और हमारी नस-नाड़ी में बहती एक लहू की धार।
एक हमारे अंतर्मन पर,
शासन करते भाव-विचार।
आओ अपनी गति-मति जानें,
अपना सच्चा
क़द पहचानें,
जग के सबसे ऊँचे पर्वत की छाया के वासी हम।
पशुपति नाथ जटा से निकले
जो गंगा की पावन धार,
बहे निरंतर, थमे कहीं तो
रामेश्वर के पांव पखार,
गौरीशंकर सुने कुमारी कन्या के मन की मनुहार।
गौतम-गाँधी-जनक-जवाहर
त्रिभुवन-जन-हितकर उद्गार
दोनों देशों में छा जाएँ,
दोनों का सौभाग्य सजाएँ,
दोनों दुनिया
को दिखलायें,
अपनी उन्नति, सबकी उन्नति करने के अभिलाषी हम।
जग के सबसे ऊँचे पर्वत की छाया के वासी हम।
एक साथ जय हिन्द कहें हम,
एक साथ हम जय नेपाल,
एक दूसरे को पहनाएँ
आज परस्पर हम जयमाल,
एक दूसरे को हम भेंटें फैला अपने बाहु विशाल,
अपने मानस के अंदर से
आशंका, भय, भेद निकाल।
खल-खोटों का छल पहचानें,
हिल-मिल रहने का बल जानें,
एक दूसरे
को सम्माने,
शांति-प्रेम से जीने, जीने देने के विश्वासी हम।
जग के सबसे ऊँचे पर्वत की छाया के वासी हम।

61. नए वर्ष की शुभ कामनाएँ

(वृद्धों को)
रह स्वस्थ आप सौ शरदों को जीते जाएँ,
आशीष और उत्साह आपसे हम पाएँ।

(प्रौढ़ों को)
यह निर्मल जल की, कमल, किरन की रुत है।
जो भोग सके, इसमें आनन्द बहुत है।

(युवकों को)
यह शीत, प्रीति का वक्त, मुबारक तुमको,
हो गर्म नसों में रक्त मुबारक तुमको।

(नवयुवकों को)
तुमने जीवन के जो सुख स्वप्न बनाए,
इस वरद शरद में वे सब सच हो जाएँ।

(बालकों को)
यह स्वस्थ शरद ऋतु है, आनंद मनाओ।
है उम्र तुम्हारी, खेलो, कूदो, खाओ।

62. गणतन्त्र पताका

उगते सूरज और चांद में जब तक है अरुणाई,
हिन्द महासागर की लहरों में जबतक तरुणाई,
वृद्ध हिमालय जब तक सर पर श्वेत जटाएँ बाँधे,
भारत की गणतंत्र पताका रहे गगन पर छाई।

63. आजादी की नवीं वर्षगाँठ

आज़ादी के नौ वर्ष मुबारक तुमको,
नौ वर्षों के उत्कर्ष मुबारक तुमको,
हर वर्ष तुम्हें आगे की ओर बढाए,
हर वर्ष तुम्हें ऊपर की ओर उठाए;
गति उन्नति के आदर्श मुबारक तुमको,
बाधाओं से संघर्ष मुबारक तुमको!

64. सस्मिता के जन्मदिन पर

आओ सब हिल-मिलकर गाएं,
एक खुशी का गीत।

आज किसी का जन्मदिवस है,
आज किसी मन में मधुरस है,
आज किसी के घर आँगन में,
गूँजा है संगीत। आओ०

आज किसी का रूप सजाओ,
आज किसी को खूब हँसाओ,
आज किसी को घेरे बैठे,
उसके सब हित-मीत। आओ०

आज उसे सौ बार बधाई,
आज उसे सौ भेंट सुहाई,
जिसने की जीवन के ऊपर
दस बरसों की जीत। आओ०

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