नगर भवनों पर कविताएं : नज़ीर अकबराबादी

Poems on Cities Buildings : Nazeer Akbarabadi

1. शहर अकबराबाद (आगरा की तारीफ़)

शहरे सुखु़न में अब जो मिला हैं मुझे मकां।
क्यूं कर न अपने शहर की खूबी करूं बयां।
देखी है आगरे में बहुत हमने खूबियां।
हर वक़्त इसमें शाद रहे हैं जहाँ तहाँ।
रखियो इलाही इसको तू आबाद जाबिदां॥1॥

हर सुबह इसकी रखती है वह नूरे गुस्तरी।
शर्मिन्दा जिसको देख के हो आरिजे़ परी।
हर शाम भी वह मुश्के मलाहत से है भरी।
लैला की जाद कर न सके जिसकी हमसरी।
दिन रूए मेहरे तिलअतो, शब जुल्फे़ महवशां॥2॥

बाग़ात पुर बहार, इमारात पुर निगार।
बाज़ार वह कि जिस पै चमन दिल से हो निसार।
महबूब दिलफ़रेब गुलअन्दामो गुलइज़ार।
गलियां कहीं है आपको गुलज़ार पुर बहार।
कूंचे कहीं हैं अपने तईं सहने गुलिस्ता॥3॥

आबो हवा के लुत्फ कोई क्या-क्या अब कहे।
देखो जिधर उधर गुल इश्रत हैं खिल रहे।
ईधर को क़हक़हे हैं तो ऊधर को चहचहे।
अशजार बाग़ो शहर वह सरसब्ज़ लहलहे।
सब्जी को जिनके देख के हैरां हो आसमां॥4॥

हर फसल में वह होते हैं पाकीजा मेवाजात।
देखे तो फिर नबात से कुछ आवे बन न बात।
शहद उनपे आठ पहर लगाये रहे है घात।
क़न्दो शकर भी दिल से फ़िदा होएं दिन और रात।
रहते हैं इनके वस्फ में हर दम शकर फ़िशा॥5॥

बहरे चमन को देखो तो जैसे जमन की नह्र।
लाखों बहारें रखती है एक एक जिसकी लह्र।
कोई नहावे और कोई मुंह धोवे शाद बह्र।
इस पर हुजूम रखते हैं यूं साकिनाने शह्र।
शमशाद-सर्व होते हैं जूं नहर पर अयां॥6॥

दरिया के पैरने का करूं वस्फ़ मैं रक़म।
तो बहरे सफ़हा बीच लगे पैरने क़लम।
पैरें हैं इस रविश कि बहारों से हो बहम।
सौ सौ चमन भरे हुए शबनम के दम बदम।
आ जाते हैं नज़र वहीं दरिया के दरमियां॥7॥

अहले शना जो करते हैं सौ सौ तरह शना।
लहरें निशातो-ऐश की उठती हैं दिल में आ।
मिलता नहीं किनार कुछ इश्रत के बह्र का।
साहिल पे जोशे ख़ल्क़ से मिलती नहीं है जा।
होता है वह हजूम भी एक बह्रे बेकरां॥8॥

यारो अ़जब तरह का यह दिलचस्प है मुक़ाम।
होते हैं ऐसे कितने ही खू़बी के अज़दहाम।
हर तौर दिल रहे है खु़श और तबा शाद काम।
मेरी "नज़ीर" दिल से यही है दुआ मदाम।
बसता रहे यह शहर बसद अमन और अमां॥9॥

(जाबिदां=हमेशा, गुस्तरी=प्रकाश को फैलाने
वाली, आरिजे़ परी=अप्सरा के कपोल, मुश्के
मलाहत=कस्तूरी के सौन्दर्य, जाद=घुंघराली
केशराशि, हमसरी=समानता, रूए=मुंह, मेहरे=
सूरज, तिलअतो=दीदार दर्शन, शब=रात,
जुल्फे़ महवशां=प्रेम पात्र,दिन सूरज के चेहरे
की रोशनी की तरह है और रात प्रेमपात्रों की
केशराशि की तरह है, बाग़ात=बहुत से बाग़,
इमारात=इमारतें, पुर निगार=चित्रों और
नक्काशी के काम से भरी हुई, निसार=
निछावर, गुलअन्दामो=फूल जैसे सुकुमार
और सुगंधित शरीर वाले, गुलइज़ार=गुलाब
जैसे सुकुमार और कोमल गालों वाले, गुल
इश्रत=खुशी के फूल, अशजार=वृक्ष समूह,
वस्फ=प्रशंसा, शकर फ़िशा=शकर बिखेरने
वाला, हुजूम=झुण्ड, साकिनाने=निवासी,
अयां=प्रकट,ज़ाहिर, बहरे सफ़हा=पृष्ठों के
समुद्र, रविश=चाल,तरीका, बहम=मिलकर,
अहले शना=पानी में तैरने वाले, शना=
तैराकी, निशातो-ऐश=हास-विलास, साहिल=
किनारा, अज़दहाम=भीड़, मदाम=हमेशा,
बसद=बुरी नज़र से बचा हुआ, अमन और
अमां=सुखचैन के साथ)

2. ताजगंज का रोज़ा (ताजमहल)

यारो जो ताजगंज यहां आश्कार है।
मशहूर इसका नाम ये शहरो दयार है।
खू़बी में सब तरह का इसे ऐतबार है।
रोज़ा जो उस मकान में दरिया किनार है।
नक्शे में अपने यह भी अज़ब खु़श निगार है॥1॥

रूए ज़मीं पे यूं तो मकां खूब हैं यहां।
पर इस मकां की खूबियां क्या-क्या करूं बयां।
संगे सफे़द से जो बना है क़मर निशां।
ऐसा चमक रहा है तजल्ली से यह मकां।
जिससे बिल्लौर की भी चमक शर्मसार है॥2॥

गुंबद है इसका जोर बुलन्दी से बहरा मंद।
गिर्द इसके गुम्बियां भी चमकती हुई हैं चंद।
और वह कलस जो है सरे गुम्बद से सर बुलंद।
ऐसा हिलाल उसमें सुनहरा है दिल पसंद।
हर माह जिसके ख़म पै महे नौ निसार है॥3॥

गुम्बद के नीचे और मकां हैं जो आसपास।
वह भी बरंगे सीम चमकते हैं खु़श असास।
बरसों तक उसमें रहिये तो होवे न जी उदास।
आती है हर तरफ़ से गुले यासमन की बास।
होता है शाद उसमें जो करता गुज़ार है॥4॥

हैं बीच में मकां के वह दो मरक़दे जो यां।
गिर्द उनके एक जाली मुहज्जिर है दुरफ़िशां।
संगीन गुल जो उसमें बनाये हैं तह निशां।
पत्ती, कली, सुहाग रगो रंग है अयां।
जो नक्श उसमें है वह जवाहर निगार है॥5॥

दीवारों पर हैं संग में नाजुक अ़जब निगार।
आईने भी लगे हैं मुजल्ला हो ताब दार।
दरवाजे़ पर लिखा खत तुग्रां है तरफ़ाकार।
हर गोशे पर खड़े हैं जो मीनार उसके चार।
चारों से तरफ़ा ओज की खू़बी दो चार है॥6॥

पहलू में एक बुर्ज बसी कहते हैं उसे।
आते नज़र हैं उससे मकां दूर दूर के।
मस्जिद ऐसी कि जिसकी सिफ़त किससे हो सके।
फिर और भी मकां हैं इधर और उधर खड़े।
दरवाज़ए कलां भी बुलन्द उस्तवार है॥7॥

जो सहन बाग़ का है वह ऐसा है दिलकुशा।
आती है जिसमें गुलशने फ़िरदौस की हवा।
हर सू नसीम चलती है और हर तरफ़ हवा।
हिलती हैं डालियां सभी हर गुल है झूलता।
क्या क्या रविश-रविश पै हुजूमे बहार है॥8॥

सर्वो सही खड़े हैं करीने से नस्तरन।
कू-कू करे हैं कुमरियां होकर शकर शिकन।
रावील सेवती से भरे हैं चमन-चमन।
गुलनार लालओ गुलो नसरीनो नस्तरन।
फव्वारे छुट रहे हैं रवाँ जुए बार है॥9॥

वह ताजदार शाहजहां साहिबे सरीर।
बनवाया है उन्होंने लगा सीमो-ज़र कसीर।
जो देखता है उसके यह होता है दिल पज़ीर।
तारीफ़ इस मकां की मैं क्या-क्या करूं "नज़ीर"।
इसकी सिफ़त तो मुश्तहरे रोज़गार॥10॥

(आश्कार=ज़ाहिर है, दयार=देश, खु़श निगार=
सुन्दर चित्रित, रूए ज़मीं=पृथ्वी की सतह,
संगे सफे़द=सफेद पत्थर,संगमरमर, क़मर निशां=
चांद जैसा, तजल्ली=आभा,प्रकाश, बहरा मंद=
सौभाग्यशाली, हिलाल=चांद, ख़म=टेढ़ेपन, महे
नौ=नया चांद, सीम=चांदी, असास=सामान,
गुले यासमन=चमेली के फूल, मरक़दे=क़ब्रें,
समाधियां, दुरफ़िशां=लहराती हुई,हिलता हुआ,
संगीन=बड़े बड़े, गुल=फूल, तह निशां=नीचे से,
रग=नस, अयां=प्रकट, नक्श=चित्र,उभरे हुए चित्र,
जवाहर निगार=प्रतिभा को दिखाने वाले, संग=
पत्थर,संगमरमर, निगार=चित्र, मुजल्ला=रोशन,
ताब दार=चमकदार, खत तुग्रां=दीवारों पर
बेल-बूटे,तस्वीरें बनाने या लिखने की लिपि,
गोशे=कोने, ओज=टेढ़ा,वक्र, उस्तवार=मजबूत,
दिलकुशा=रमणीक, गुलशने फ़िरदौस=स्वर्ग के
बाग़, हर सू=हर तरफ, नसीम=ठंडी हवा,
रविश-रविश=बाग़ के अन्दर के पतले रास्ते,
हुजूमे-बहार=बहार की भीड़, करीने=क्रम,
नस्तरन=सेवती के फूल, कुमरियां=प्रसिद्ध
सफेद पक्षी, शकर शिकन=मिष्टभाषी,
गुलनार=अनार के फूल, लालओ=पोस्त
के फूल,एक लाल फूल, रवाँ जुए बार=
नहर बह रही है, सीमो-ज़र=मालो दौलत,
कसीर=अत्यधिक, दिल पज़ीर=दिल पसंद,
मुश्तहरे=प्रसिद्ध, रोज़गार=ज़माना,इसकी
प्रशंसा ज़माने में प्रसिद्ध है)

3. शहर आगरा

रखता है गो क़दीम से बुनियाद आगरा।
अकबर के नाम से हुआ आबाद आगरा॥
यां के खण्डहर, न और जगह की इमारतें।
यारो अ़जब मुक़ाम है दिल शाद आगरा॥
शद्दाद ज़र लगा न बनाता बहिश्त को।
गर जानता कि होवेगा आबाद आगरा॥
तोड़े कोई क़िले को कोई लूटे शहर को।
अब किस से अपनी मांगे भला दाद आगरा॥
अब तो ज़रा सा गांव है, बेटी न दें इसे।
लगता था वर्ना चीन का दामाद आगरा॥
एक बारगी तो अब मुझे यारब तू फिर बसा।
करता है अब खु़दा से यह फ़र्याद आगरा॥
एक खू़बरू नहीं है यहां वर्ना एक दिन।
था रश्के हुस्न बलख़ो नौशाद आगरा॥
हरगिज वतन की याद न आवे उसे कभी।
जो करके अपनी जां को करे शाद आगरा॥
इसमें सदा खु़शी से रहा है तेरा "नज़ीर"।
यारब हमेशा रखियो तू आबाद आगरा॥

(क़दीम=आदि काल से, दिल शाद=
प्रसन्नचित्त, शद्दाद=बहुत अधिक
अत्याचार करने वाला एक प्राचीन
बादशाह जो अपने को ईश्वर
कहलवाता था, उसने दौलत लगाकर
एक कृत्रिम स्वर्ग बनवाया, फ़र्याद=
सहायता के लिए पुकार, नौशाद=
रूपवान्, रश्के हुस्न बलख़ो=आगरे
पर बलख नगर भी जलन करता था)

4. भूचालनामा

भूचाल का जो हक़ ने यह नक़्शा दिखा दिया।
कु़दरत का अपनी ज़ोर जहां की दिखा दिया॥
रोशन दिलों के नूर नज़र को बढ़ा दिया।
ग़फ़लत ज़दों को मार के ठोकर जगा दिया॥
दरियाओ,, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥1॥

जिन मुन्किरों को नूह के तूफां का शुबह था।
और दोजख़ो बहिश्त समझे है तोतिया॥
क़ायल न कब्र के थे न ख़तरा था हश्र का।
इस जलज़ले ने सबके दिये वसवसे मिटा॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥2॥

सन् बारह सौ अठारह में यह वारदात थी।
अव्वल जमादी बारहवीं तारीख सात थी॥
दिन बुध का जुमेरात की वह आधी रात थी।
भूचाल क्या था कु़दरते हक़ की यह बात थी॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥3॥

थी आधी रात जो हुआ भूचाल का गुज़र।
पत्ता सा थर थरा गया पत्ताल का जिगर॥
सातों तबक़ के दिल गए सकान सर बसर।
दर बोले अल हफ़ीज तो दीवारें अल हज़र॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥4॥

अजज़ाए अर्ज़ क़ाफले ताक़ाफ़ हिल पड़े।
अजगर अटल अचल के कलेजे उबल पड़े॥
इंसा घरों में दश्त में वहशी निकल पड़े।
तायर भी आशयानों में अपने उछल पड़े॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥5॥

गढ़, कोट, किला, रूए ज़मीं पर दहल गए।
कांपने लगीं बुर्ज, कंगूरे भी हिल गए॥
संगीं मकां महल जो बने थे उसल गए।
ईंटों के ज़ोहरे फट पड़े पत्थर पिघल गए॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥6॥

बाहम किवाड़ गिर पड़े जं़जीर हिल गईं।
कड़ियां कड़क कड़क के छतों से निकल गईं॥
छज्जे सुतून कांपे, मुंडेरे दहल गईं।
दीवारें झूम झूम के पंखें सी झल गईं॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥7॥

घर-घर में शोर हो गया, और गुल गली गली।
रूए ज़मीं पे पड़ गई एकदम में खलबली॥
कोई अल्लाह-अल्लाह कह उठा, कोई राम-राम जी।
कोई हुसैन कह उठा, कोई अली-अली॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥8॥

लरजे़ में आके डालियां नख़्लों की हिल गईं।
दहशत से चल बिचल हो, जड़ें भी कुचल गईं॥
थर्रा के माहो माही की चूलें उसल गईं।
जल, थल के होश उड़ गए, रेखें निकल गईं॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥9॥

जो अर्ज़ सब जहां में बोझों के तई सहे।
जब वह थर थराईं तो फिर हम कहां रहे॥
जिन्नात, देव, शेर, शुतर, फ़ील, अज़दहे।
इक हूं में सबके तनके ग़रज खिल गए चहे॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥10॥

कु़दरत की तेग़ की है यक कुछ आबे दरदरी।
खिंचते ही सबके पड़ गई सीनों में थर थरी॥
दाराई काम आई न कुछ यहां सिकन्दरी।
इक दम में थरथरा गई सब खु़श्की और तरी॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥11॥

भूचाल की धमक का वह सुनते ही कड़कड़ा।
जी धक से तन में हो गया और दम निकल चला॥
औरों के दिल की क्या कहूं! जाने वही खु़दा।
पर मैं तो जाना सूरे इस्राफ़ील फुक गया॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥12॥

आंखों से मेरे उस घड़ी आंसू अ़जब चले।
गुज़रा यह जी में हाय! हुआ क्या! ग़जब चले॥
तहतुस्सरा की सैर को हम सबके सब चले।
दिल में यही यक़ीन हुआ यानी अब चले॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥13॥

हैबत के मारे पहले तो दिल हो गया दो नीम।
जब थम गया तो हो गया वह वहीं मुस्तक़ीम॥
यह कु़दरतों की देख के शाने उमीदों वीम।
सर को झुका के मैंने कहा वहीं या करीम॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥14॥

भूचाल में कहां था यह नक़्शा मजाल का।
सब हुक्म था यह हज़रते एज़दताल का॥
इक पल में यों बढ़ा दिया शोला जलाल का।
इक दम में फिर घटा दिया नक़्शा ख़याल का॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥15॥

भूचाल का तो कहने की ख़ातिर ही नाम था।
यह ज़ोर शोर और भी कु़दरत का काम था॥
अहकाम जुल मिनन का जहां अहतिमाम था।
यह ज़लज़ला वहां का एक अदना गुलाम था॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥16॥

थीं जितनी-जितनी अस्ल ज़मीं की रसाइयां।
इक ज़लज़ले ने सबको पकड़ के हिलाइयां॥
भूचाल ने यह जैसी हवाऐं दिखाइयां।
ऐसी हज़ारों उसकी हैं कु़दरत नुमाइयां॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥17॥

दस्ते क़ज़ा की उंगली की छोटी यह पोर है।
हिलने से जिसके कांपा हर इक मार मोर है॥
भूचाल का तो यारो यह अदना सा शोर है।
सौ दर्जे उससे उसकी तो कु़दरत में ज़ोर है॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥18॥

जैसा कि उसके हुक़्म से आया था ज़लज़ला।
कांपी तमाम रूए ज़मीं जिस से थर थरा॥
ऐसा ही गर वह हुक़्म से अपने न रोकता।
फिर कुछ न था जहां में फ़क़त पानी-पानी था॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥19॥

भूचाल के तो हमको खयालातो ख़ाम थे।
यह छोड़ने, यह रोकने कु़दरत के काम थे॥
था डौल तो वही कि न ख़ासो आम थे।
रहम आ गया बग़रना वहीं सब तमाम थे॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥20॥

सिजदा करो खुदा के तई यारो दम बदम।
आखि़र करीम था, तो किया उसने फिर करम॥
बाक़ी तो कुछ रहा न था फिर थम गए कदम।
वर्ना अभी घड़ी में फिर न तुम थे न हम॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥21॥

भूचाल क्या वह चाहे तो इक पल के मारते।
कर डाले आसमानो ज़मीं को उपर तले॥
उड़ने लगे पहाड़ रुई की तरह पड़े।
क़ादिर क़दीर दम में जो चाहे सो कुछ करे॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥22॥

कहते हैं यों हकीम कि फिरती है सब हवा।
आता है उससे रूए ज़मीं पर यह ज़लज़ला॥
ख़ालिक का भेद ही यह किसी पर नहीं खुला।
हम तो उसी के हुक़्म का जाने हैं दबदबा॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥23॥

महकूम सब हैं उसके ही हाकिम वही इलाह॥
ताबे हैं जिसके रम्ज़ के माही से ताब माह॥
जब उसका हुक़्म आवे तो हो कौन सद्दे राह।
क्या हुक़्म है अज़ीज़ो ज़रा देखो वाह! वाह!॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥24॥

हाकिम वही, हकीम वही, हक़ वही, कबीर।
ख़ालिक़ वही, खु़दा वही, दाता वही ख़बीर॥
मालिक वही, मलिक वही, क़ादिर वही, क़दीर।
कु़दरत का उसकी एक करिश्मा था ऐ "नज़ीर"॥
दरियाओ, कोह, शहरो, जंगल सब हिला दिया।
एक आन में हिला दिया और फिर थँबा दिया॥25॥

(कोह=पहाड़, मुन्किरों=नास्तिक, नूह के तूफां=
एक पैगम्बर जिनके समय में पानी का
भयानक तूफान आया था, जिसमें सारा
संसार नष्ट हो गया था, कुछ आदमी
बचे थे जिनकी संतान इस समय है,
वसवसे[=शक,सन्देह, अव्वल जमादी
बारहवीं=बारह जमादीउल अव्वल सन्
1218 हिजरी, तदनुसार 25 अगस्त
सन् 1803 ई., सकान=निवासी, अल
हफ़ीज=हिफ़ाजत कर, अल हज़र=क़ायम
रख, अजज़ाए=टुकड़े, अर्ज़=ज़मीन, ताक़ाफ़=
ज़मीन के टुकड़े सारी दुनियां में फैल गए,
दश्त=जंगल, वहशी=जंगली, तायर=पक्षी,
आशयानों=घोंसलों में, ज़ोहरे=कलेजे, सुतून=
खम्भा, नख़्लों=पेड़, माहो=चांद, माही=मछली,
दाराई=बादशाहत,बुद्धि, सिकन्दरी=बादशाहत,
वीरता दारा ईरान का बादशाह जिसे यूनान
के बादशाह सिकन्दर ने जीता था, इस्राफ़ील=
क़यामत के दिन फरिश्ते इस्राफील द्वारा
बजाई जाने वाली तुरही, तहतुस्सरा=ज़मीन
का सबसे नीचे का हिस्सा,पाताल, मुस्तक़ीम=
सीधा,स्थिर, वीम=सीधा,स्थिर, एज़दताल=
खु़दा, अहकाम=आदेश, जुल मिनन=बहुत
अधिक नेंमते देने वाला,ईश्वर, अहतिमाम=
प्रबन्ध, दस्ते क़ज़ा=मृत्यु के हाथ, मार मोर=
सांप और मोर, क़ादिर=शक्तिशाली, क़दीर=
सर्वशक्तिमान,असम्भव को सम्भव बनाने
वाला, महकूम=आदेश का पालन करने वाले,
ताबे=ताबेदार,आज्ञाकारी, रम्ज़=रहस्य, माही
से ता बमाह=मछली से चांद तक,नीचे से
ऊपर तक, सद्दे राह=रुकावट, हकीम=विद्वान,
बुद्धिमान, ख़बीर=खबर रखने वाला, मलिक=
बादशाह)

5. शहरे आशोब

अब तो कुछ सुख़न का मेरे कारोबार बंद ।
रहती है तबअ सोच में लैलो निहार बंद ।
दरिया सुख़न की फ़िक्र का है मौज दार बंद ।
हो किस तरह न मुंह में जुबां बार बार बंद ।
जब आगरे की ख़ल्क़ का हो रोज़गार बंद ॥1॥

बेरोज़गारी ने यह दिखाई है मुफ़्लिसी ।
कोठे की छत नहीं हैं यह छाई है मुफ़्लिसी ।
दीवारो दर के बीच समाई है मुफ़्लिसी ।
हर घर में इस तरह से भर आई है मुफ़्लिसी ।
पानी का टूट जावे है जूं एक बार बंद ॥2॥

कड़ियाँ जो साल की थीं बिकी वह तो अगले साल ।
लाचार कर्जों दाम से छप्पर लिए हैं डाल ।
फूस और ठठेरे इसके हैं जूं सरके बिखरे बाल ।
उस बिखरे फूस से है यह उन छप्परों का हाल ।
गोया कि उनके भूल गए हैं चमार, बंद ॥3॥

दुनिया में अब क़दीम से है ज़र का बन्दोबस्त ।
और बेज़री में घर का न बाहर का बन्दोबस्त ।
आक़ा का इन्तिज़ाम न नौकर का बन्दोबस्त ।
मुफ़्लिस जो मुफ़्लिसी में करे घर का बन्दोबस्त ।
मकड़ी के तार का है वह नाउस्तुवार बंद ॥4॥

कपड़ा न गठड़ी बीच, न थैली में ज़र रहा ।
ख़तरा न चोर का न उचक्के का डर रहा ।
रहने को बिन किवाड़ का फूटा खंडहर रहा ।
खँखार१४ जागने का, न मुतलक़१५ असर रहा ।
आने से भी जो हो गए चोरो चकार बंद ॥5॥

अब आगरे में जितने हैं सब लोग हैं तबाह ।
आता नज़र किसी का नहीं एक दम निबाह ।
माँगो अज़ीज़ो ऐसे बुरे वक़्त से पनाह ।
वह लोग एक कौड़ी के मोहताज अब हैं आह ।
कस्बो१६ हुनर के याद है जिनको हज़ार बंद ॥6॥

सर्राफ़, बनिये, जौहरी और सेठ, साहूकार ।
देते थे सबको नक़्द, सो खाते हैं अब उधार ।
बाज़ार में उड़े है पड़ी ख़ाक बे शुमार ।
बैठें हैं यूँ दुकानों में अपनी दुकानदार ।
जैसे कि चोर बैठे हों क़ैदी कतार बंद ॥7॥

सौदागरों को सूद, न व्यौपारी को फ़लाह ।
बज्ज़ाज को है नफ़ा न पनसारी को फ़लाह ।
दल्लाल को है याफ़्त, न बाज़ारी को फ़लाह ।
दुखिया को फ़ायदा न पिसनहारी को फ़लाह ।
याँ तक हुआ है आन के लोगों का कार बंद ॥8॥

मारें है हाथ हाथ पे सब यां के दस्तकार ।
और जितने पेशावर हैं सो रोते हैं ज़ार ज़ार ।
कूटे है तन लोहार तो पीटे है सर सुनार ।
कुछ एक दो के काम का रोना नहीं है यार ।
छत्तीस पेशे बालों के हैं कारोबार बंद ॥9॥

ज़र के भी जितने काम थे वह सब दुबक गए ।
और रेशमी क़िवाम भी यकसर चिपक गए ।
ज़रदार उठ गए तो बटैये सरक गए ।
चलने से काम तारकशों के भी थक गए ।
क्या हाल बाल खींचे जो हो जाए तार बंद ॥10॥

बैठे बिसाती राह में तिनके से चुनते हैं ।
जलते हैं नानबाई तो भड़भूजे भुनते हैं ।
धुनिये भी हाथ मलते हैं और सर को धुनते हैं ।
रोते हैं वह जो मशरुओ दाराई बुनते हैं ।
और वह तो मर गए जो बुनें थे इज़ार बंद ॥11॥

बेहद हवासियों में दिये ऐसे होश खो ।
रोटी न पेट में हो तो शहवत कहां से हो ।
कोई न देखे नाच, न रंडी कि सूंघे बू ।
यां तक तो मुफ़्लिसी है कि क़स्बी का रात को ।
दो-दो महीने तक नहीं खुलता इजारबंद ॥12॥

गर काग़ज़ी के हाल के काग़ज़ को देखिए ।
मुतलक़ उसे ख़बर नहीं काग़ज़ के भाव से ।
रद्दी, क़लम दुकान में, न टुकड़े हैं टाट के ।
याँ तक कि अपनी चिट्ठी के लिखने के वास्ते ।
काग़ज़ का मांगता है हर इक से उधार बंद ॥13॥

लूटे हैं गरदो पेश जो क़्ज्ज़ाक राह मार ।
व्यापारी आते जाते नहीं डर से ज़िनहार ।
कुतवाल रोवें, ख़ाक उड़ाते हैं चौकी दार ।
मल्लाहों का भी काम नहीं चलता मेरे यार ।
नावें हैं घाट-घाट की सब वार पार बंद ॥14॥

हर दम कमां गरों के ऊपर पेचो ताब हैं ।
सहोफ़े अपने हाल में ग़म की किताब हैं ।
मरते हैं मीनाकार मुसव्विर कबाव हैं ।
नक़्क़ास इन सभों से ज़्यादा ख़राब हैं ।
रंगो क़लम के होगए नक़्शो निगार बंद ॥15॥

बैचेन थे यह जो गूंध के फूलों के बध्धी हार ।
मुरझा रही है दिल की कली जी है दाग़दार ।
जब आधी रात तक न बिकी, जिन्स आबदार ।
लाचार फिर वह टोकरी अपनी ज़मी पे मार ।
जाते हैं कर दुकान को आख़िर वह हार बंद ॥16॥

हज्ज़ाम पर भी यां तईं है मुफ़्लिसी का ज़ोर ।
पैसा कहाँ जो सान पे हो उस्तरों का शोर ।
कांपे है सर भिगोते हुए उसकी पोर पोर ।
क्या बात एक बाल कटे या तराशे कोर ।
याँ तक हैं उस्तरे व नहरनी की धार बंद ॥17॥

डमरू बजाके वह जो उतारे हैं ज़हर मार ।
आप ही वह खेलते हैं, हिला सर ज़मीं पे मार ।
मन्तर तो जब चले कि जो हो पेट का आधार ।
जब मुफ़्लिसी का सांप हो उनके गले का हार ।
क्या ख़ाक फिर वो बांधें कहीं जाके मार बंद ॥18॥

लज़्ज़त है ज़िक्रो हुस्न के नक़्शो निगार से ।
महबूब है जो गुन्चे दहन गुल इज़ार से ।
आवें अगर वह लाख तरह की बहार से ।
कोई न देखे उनको नज़र भर के प्यार से ।
ऐसे दिलों के होगए आपस में कार बंद ॥19॥

फिरते हैं नौकरी को जो बनकर रिसालादार ।
घोड़ों की हैं लगाम न ऊंटों के है महार ।
कपड़ा न लत्ता, पाल न परतल न बोझ मार ।
यूं हर मकां में आके उतरते हैं सोगवार ।
जंगल में जैसे देते हैं लाकर उतार बंद ॥20॥

कोई पुकारता है पड़ा भेज या ख़ुदा ।
अब तो हमारा काम थका भेज या ख़ुदा ।
कोई कहे है हाथ उठा भेज या ख़ुदा ।
ले जान अब हमारी तू या भेज या ख़ुदा ।
क्यूँ रोज़ी यूँ है कि मेरे परवरदिगार बंद ॥21॥

मेहनत से हाथ पांव के कौड़ी न हाथ आये ।
बेकार कब तलक कोई कर्ज़ों उधार खाये ।
देखूँ जिसे वह करता है रो-रो के हाय ! हाय ! ।
आता है ऐसे हाल पे रोना हमें तो हाय ।
दुश्मन का भी ख़ुदा न करे कारोबार बंद ॥22॥

आमद न ख़ादिमों के तईं मक़बरों के बीच ।
बाम्हन भी सर पटकते हैं सब मन्दिरों के बीच ।
आज़िज़ हैं इल्म बाले भी सब मदरसों के बीच ।
हैरां हैं पीरज़ादे भी अपने घरों के बीच ।
नज़रो नियाज़ हो गई सब एक बार बंद ॥23॥

इस शहर के फ़कीर भिखारी जो हैं तबाह ।
जिस घर पे जा सवाल वह करते हैं ख़्वाहमख्वाह ।
भूखे हैं कुछ भिजाइयो बाबा ख़ुदा की राह ।
वाँ से सदा यह आती है ‘फिर माँगो’ जब तो आह ।
करते हैं होंट अपने वह हो शर्म सार बंद ॥24॥

क्या छोटे काम वाले वह क्या पेशेवर नजीब ।
रोज़ी के आज हाथ से आज़िज़ हैं सब ग़रीब ।
होती है बैठे बैठे जब आ शाम अनक़रीब ।
उठते हैं सब दुकान से कहकर के या नसीब ।
क़िस्मत हमारी हो गई बेइख़्तियार बंद ॥25॥

किस्मत से चार पैसे जिन्हें हाथ आते हैं ।
अलबत्ता रूखी सूखी वह रोटी पकाते हैं ।
जो खाली आते हैं वह क़र्ज़ लेते जाते हैं ।
यूं भी न पाया कुछ तो फ़कत ग़म ही खाते हैं ।
सोते हैं कर किवाड़ को एक आह मार बंद ॥26॥

क्यूँकर भला न माँगिये इस वक़्त से पनाह ।
मोहताज हो जो फिरने लगे दरबदर सिपाह।
याँ तक अमीर ज़ादे सिपाही हुए तबाह ।
जिनके जिलू में चलते थे हाथी व घोड़े आह।
बह दौड़ते हैं और के पकड़े शिकार बंद ॥।27॥

है जिन सिपाहियों कने बन्दूक और सनां ।
कुन्दे का उनके नाम न चिल्ले का है निशां ।
चांदी के बंद तार तो पीतल के हैं कहां ।
लाचार अपनी रोज़ी का बाअस समझ के हां ।
रस्सी के उनमें बांधे हैं प्यादे सवार बंद ॥28॥

जो घोड़ा अपना बेच के ज़ीन को गिरूं रखें ।
या तेग और सिपर को लिए चौक में फिरें ।
पटका जो बिकता आवे तो क्या ख़ाक देके लें ।
वह पेश कबुज बिक के पड़े रोटी पेट में ।
फिर उसका कौन मोल ले वह लच्छेदार बंद ॥29॥

जितने सिपाही याँ थे न जाने किधर गए ।
दक्खिन के तईं निकल गए यो पेशतर गए ।
हथियार बेच होके गदा घर ब घर गए ।
जब घोड़े भाले वाले भी यूं दर बदर गए ।
फिर कौन पूछे उनको जो अब हैं कटार बंद ॥30॥

ऐसा सिपाह मद का दुश्मन ज़माना है ।
रोटी सवार को है, न घोड़े को दाना है ।
तनख़्वाह न तलब है न पीना न ख़ाना है ।
प्यादे दिबाल बंद का फिर क्या ठिकाना है ।
दर-दर ख़राब फिरने लगे जब नक़ार बंद ॥31॥

जितने हैं आज आगरे में कारख़ान जात ।
सब पर पड़ी है आन के रोज़ी की मुश्किलात ।
किस किस के दुख़ को रोइये और किस की कहिए बात ।
रोज़ी के अब दरख़्त का हिलता नहीं है पात ।
ऐसी हवा कुछ आके हुई एक बार बंद ॥32॥

है कौन सा वह दिल जिसे फरसूदगी नहीं ।
वह घर नहीं कि रोज़ी की नाबूदगी नहीं ।
हरगिज़ किसी के हाल में बहबूदगी नहीं ।
अब आगरे में नाम को आसूदगीं नहीं ।
कौड़ी के आके ऐसे हुए रह गुज़ार बंद ॥33॥

हैं बाग़ जितने याँ के सो ऐसे पड़े हैं ख़्वार ।
काँटे का नाम उनमें नहीं फूल दरकिनार ।
सूखे हुए खड़े हैं दरख़्ताने मेवादार ।
क्यारी में ख़ाक धूल, रविश पर उड़े-उड़े ग़ुबार ।
ऐसी ख़िजां के हाथों हुई है बहार बंद ॥34॥

देखे कोई चमन तो पड़ा है उजाड़ सा ।
गुंचा न फल, न फूल, न सब्जा हरा भरा ।
आवाज़ कुमरियों की, न बुलबुल की है सदा।
न हौज़ में है आब न पानी है नहर का ।
चादर पड़ी है ख़ुश्क तो है आबशार बंद ॥35॥

बे वारसी से आगरा ऐसा हुआ तबाह ।
फूटी हवेलियां हैं तो टूटी शहर पनाह ।
होता है बाग़बां से, हर एक बाग़ का निबाह ।
वह बाग़ किस तरह न लुटे और उजड़े आह ।
जिसका न बाग़बां हो, न मालिक न ख़ार बंद ॥36॥

क्यों यारों इस मकां में यह कैसी चली हवा ।
जो मुफ़्लिसी से होश किसी का नहीं बचा ।
जो है सो इस हवा में दिवाना सा हो रहा ।
सौदा हुआ मिज़ाज ज़माने को या ख़ुदा ।
तू है हकीम खोल दे अब इसके चार बंद ॥37॥

है मेरी हक़ से अब यह दुआ शाम और सहर ।
कर आगरे की ख़ल्क पै फिर मेहर की नज़र ।
सब खावें पीवें, याद रखें अपने-अपने घर ।
इस टूटे शहर पर इलाही तू फ़ज्ल कर ।
खुल जावें एक बार तो सब कारोबार बंद ॥38॥

आशिक़ कहो, असीर कहो, आगरे का है ।
मुल्ला कहो, दबीर कहो, आगरे का है ।
मुफ़्लिस कहो, फ़क़ीर कहो, आगरे का है ।
शायर कहो, नज़ीर कहो, आगरे का है ।
इस वास्ते यह उसने लिखे पांच चार बंद ॥39॥

(सुख़न=कविता,काव्य,शायरी, तबअ=तबियत,
लैलो निहार=रात दिन, क़दीम=पुराने समय से,
ज़र=दौलत, बन्दोबस्त=प्रबन्ध, बेज़री=ग़रीबी,
आक़ा=मालिक, मुफ़्लिस=गरीब, नाउस्तुवार=
कमज़ोर, खंखार=खांसने मठारने का, मुतलक़=
बिल्कुल, कस्बो हुनर=उद्योगधंधे,उपार्जन,
फ़लाह=भलाई,कल्याण, याफ़्त=लाभ,आमदनी,
क़िवाम=तत्त्व, बटैये=कलावतू वगैरह बटने
वाले, तारकशों=धातुओं के तार बनाने वाले,
नानबाई=नान,रोटी बनाने वाले, भड़भूजे=
अनाज भूनने वाले, मखरुओ=उस समय
स्त्रियों के पाजामों वाला कपड़ा, दाराई=
एक प्रकार का रेशमी कपड़ा, गरदो पेश=
आसपास-रास्ते में, क़्ज़्ज़ाक=लुटेरा, ज़िनहार=
हरगिज, कमां गरों=धनुष बनाने वाले, सहोफ़े=
पुस्तक विक्रेता, मुसव्विर=चित्रकार, नक़्क़ास=
बेल-बूटे,फूलपत्ती बनाने वाले, नक़्शो निगार=
बेल-बूटे,फूल-पत्ती बनाना, गुन्चे दहन=कली
जैसे सुन्दर और छोटे मुंह वाले, गुल इज़ार=
गुलाब जैसे सुन्दर और कोमल गालों वाला,
वाली, रिसालादार=सवारों की एक टुकड़ी का
नायक, महार=सवारों की एक टुकड़ी का नायक,
परवरदिगार=पालने वाले,ईश्वर, आमद=आमदनी,
ख़ादिमों=सेवक, मक़बरों=कब्र जिस पर इमारत
या गुंबद हो, पीरज़ादे=पीर के लड़के,धर्मगुरु के
लड़के, नज़रो नियाज़=चढ़ावे की मिठाई आदि,
सदा=आवाज़, नज़ीब=कुलीन,शुद्ध रक्त वाले,
आजिज़=परेशान, मोहताज=बेसहारा, दरबदर=
द्वार द्वार, जिलू=सवारी में, कने=पास,अधिकार
में, सनां=तीर, बाअस=कारण,सबब, गिरूं=गिरवी,
सिपर=ढाल, पटका=कमर पर बांधे जाने का
दुपट्टा, कबुज=छोटी कटार,भुजाली, पेशतर=आगे,
गदा=भिखारी, प्यादे=पैदल सिपाही, दिबाल बंद=
वह सिपाही जिसकी कमर पर चमड़ा या चमड़े
की पेटी बंधती हो, नक़ार बंद=नक्कारे वाले,
फरसूदगी=क्षीण दशा होना,रंजीदगी, नाबूदगी=
बरबादगी, बहबूदगी=अच्छाई, रह गुज़ार=
आमदरफ्त, दरकिनार=अलग,एक तरफ,
दरख़्ताने=वृक्ष, रविश=बाग़ के अन्दर के पतले
रास्ते, खि़जां=पतझड़, गुंचा=कली,कलिका,
कुमरियों=एक प्रसिद्ध सफे़द पक्षी, आबशार=
झरना,प्रपात, बाग़वां=माली, ख़ार बंद=
आसपास काँटों की बाड़ लगाने वाला,
असीर=बंदी,कैदी, दबीर=मुहर्रिर,लेखक,
मुफ़्लिस=कंगाल,गरीब)

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