बुद्ध और नाचघर : हरिवंशराय बच्चन

Buddh Aur Naachghar : Harivansh Rai Bachchan

1. आह्वान

ओ जो तुम ताज़े,
ओ जो तुम जवान ।
ओ जो तुम अंधकार में किरणों के उभार,
ओ जो तुम बूढ़ी नसो में नए खून की रफ्तार,
ओ जो तूम जग में अमरता के सबूत फिर एक बार,
औ जो तुम सौ विध्वंसों पर एक व्यँग की मुसकान,
तुम्हारे ही लिए तो उठता है मेरा कलम,
खुलती है मेरी जबान ।
ओ जो तुम ताज़े,
ओ जो तुम जवान ।

ओ जो तुम सुन सकते हो अज्ञात की पुकार,
ओ जो तुम सुन सकते हो आनेवाली सदियों की झंकार,
ओ जो तुम नए जीवन, नए संसार के स्वागतकार,
ओ जो तुम सपना देखते हो बनाने का एक नया इंसान,
तुम्हारे ही लिए तो उठता है मेरा कलम,
खुलती है मेरी जबान ।
ओ जो तुम ताज़े,
ओ जो तुम जवान !

ओ जो तुम हो जाते हो खूबसूरती पर निसार,
ओ जो तुम अपने सीनों में लेके चलते हो अँगार,
ओ जो तुम अपने दर्द को बना देते हो गीतों की गुंजार,
ओ जो तुम जुदा दिलों को मिला देते हो छेड़कर एक तान,
तुम्हारे ही लिए तो उठता है मेरा कलम,
खुलती है मेरी जबान ।
ओ जो तुम ताज़े,
ओ जो तुम जवान ।

ओ जो तुम बाँधकर चलते हो हिम्मत का हथियार,
ओ जो तुम करते हो मुसीबतों व मुश्किलों का शिकार,
ओ जो तुम मौत के साथ करते हो खिलवार,
ओ जो तुम अपने अट्टहास से डरा देते हो मरघटों का सुनसान,
भर देते हो मुर्दों में जान,
ओ जो तुम उठाते हो नारा-- उत्थान, पुनरुत्थान, अभ्युत्थान ।
तुम्हारे ही लिए तो उठता है मेरा कलम,
खुलती है मेरी जबान ।
ओ जो तुम ताज़े,
ओ जो तुम जवान ।

2. सृष्टि


प्रलय
कर सब नष्ट,
सब कुछ भ्रष्ट,
कर के सब किसी का अंत,
था निरभ्रांत ?-
भ्रांति नितांत ।


प्रलय में था
एक अमर अभाव,
उर का घाव,
जो उसको किए था
चिर चपल, चिर विकल, चिर विक्षुब्ध,
उसको थी कहीं यदि शांति
तो बस एक उमकी याद में
जो था कभी संसार-
जागृति, ज्योति का आगार,
जीवन शक्ति का आधार,
उसकी भृकुटि का निर्माण,
उसकी भृकुटि का संहार ।


सृष्टि, व्याकुलता प्रलय की,
प्रलय के सूने निलय की,
प्रलय के सूने हृदय की,
प्रलय के उर में उठी जो कल्पना,
वह सृष्टि,
प्रलय पलकों पर पला जो स्वप्न,
वह संसार ।

3. पूजा


विश्व मंदिर में,
विशाल, विराट, महदाकार, सीमाहीन,
यह क्या हो रहा है !
उड़ रहा है हर दिशा में धूम,
घूमते हैं अग्नि-पिंड समूह,
कितने लक्ष,
कितने कोटि,
जैसे ज्योति के हों व्यूह,
और उठता
एक अद्भुत गान
अम्बर मध्य
जो है मौन-सा गंभीर ।


सृष्टि आविर्भूत,
प्रलय के तम तोम से हो मुक्त,
दीपित, पूत,
दग्ध कर नीहार देती धूप,
तप से मत हिल,
तप ही कर सकता सत्य कभी जो
तेरे मन का सपना ।

तप में जल,
तप में पल,
तप में रह अविचल, अविकल ।
तप का तू पाएगी फल,
तप निश्चल,
तप निश्छल,
तप निर्मल ।

युग घूम-घूमकर आएँ,
तुझको तप में रत पाएँ,
तप की भी है क्या सीमा ?
तप काल नहीं खा सकता,
बुझ जाय सूर्य,
बुझ जाय विश्व की अग्नि,
कभी तप का प्रकाश
पड़ नहीं सकेगा धीमा ।

तू महाभाग,
जो तुझ में तप की पटी आग ।
तू इसी आग में
जल,
तू इसी आग में
ढल,
तू इसी आग में
रख विश्वास अटल ।

4. नया चाँद

उगा हुआ है नया चाँद
जैसे उग चुका है हज़ार बार।
आ-जा रही हैं कारें
साइकिलों की क़तारें;
पटरियों पर दोनों ओर
चले जा रहे हैं बूढ़े
ढोते ज़िंदगी का भार
जवान, करते हुए प्‍यार
बच्‍चे, करते खिलवार।
उगा हुआ है नया चाँद
जैसे उग चुका है हज़ार बार।
मैं ही क्‍यों इसे देख
एकाएक
गया हूँ रुक
गया हूँ झुक!

5. डैफ़ोडिल

डैफ़ोडिल, डैफ़ोडिल, डैफ़ोडिल-
मेरे चारों ओर रहे हैं खिल
मेरे चारों हँस रहे हैं खिल-खिल;
इंग्‍लैंड में है बसंत- है एप्रिल।
इनका देख के उल्‍लास
तुलना को आता है याद
मुझे अजित और अमित का हास
जो गूँजता है आध-आध मील-
मेरा भर आता है दिल-
डैफ़ोडिल, डैफ़ोडिल, डैफ़ोडिल-
जो गूँजता है हजारों मील,
मैं उसे सुनता हूँ यहाँ,
हँस रहे है वे कहाँ-ओ, दूर कहाँ!
बच्‍चों का हास निश्‍छल, निर्मल, सरल
होता है कितना प्रबल!

सृष्टि का होगा आरंभ,
मानव शिशुओं का उतरा होगा दल
पृथ्‍वी पर होगी चहल-पहल।
आल-बाल जब बहुत से हों साथ
पकड़ के एक दूसरे का हाथ
हँसी की भाषा में करते हैं बात।
उस दिन जो गूजा होगा नाद
धरती कभी भूलेगी उसकी याद?
उसी दिन को सुमिर
वह फूल उठती है फिर-फिर
फूला नहीं समाता उसका अजिर।
आदि मानव का वह उद्गार
निर्विकार,
अफसोस हज़ार,
इतनी चिंता, शंका, इतने भय, संघर्ष‍ में
गया है धँस,
कि सुनाई नहीं पड़ेगा दूसरी बार;
अफसोस हज़ार!

इतना भी है क्‍या करम
उसकी बनी है यादगार
डैफ़ोडिल का कहाँ-कहाँ तक है विस्‍तार!

हरे-हरे पौधों
हरी-हरी पत्तियों पर
सफ़ेद-सफ़ेद, पीले-पीले,
रुपहरे, सुनहरे फूल सँवरे हैं,
आसमान से जैसे
तारे उतरे हैं।
आता है याद,
कश्‍मीर में डल पर
निशात, शालिमार तक
नाव का सफ़र,
इतने फूले थे कमल
कि नील झील का जल
उनके पत्‍तों से गया था ढँक,
पत्‍ते-पत्‍ते पर पानी की बूँद
ऐसी रही थी झलक,
जैसे स्‍वर्ग से
मोती पड़े हो टपक;
सुषमा का यह भंडार
देख के, झिझक
मैंने अपनी आँखें ली थी मूँद।
बताने लगा था मल्‍लाह,
बहुत दिनों की है बात,
यहाँ आया एक सौदागर,
लोभी पर भोला,
उसे ठगने को किसी का मन डोला,
सेठ से बोला,
ये हैं कच्‍चे मोती- कुछ दिन में जाएँगे पक।
लेकर बहुत-सा धन
बेच दिया उसने मोतियों का खेत
यहाँ से वहाँ तक।
सेठ ने महिनों किया इंतज़ार,
लगाता जब भी मोतियों को हाथ,
जाते वे ढलक।
आखिरकार हार,
भर-भर के आह
वह गया मर;
उस पार बनी है उसकी क़ब्र।
सुंदरता पर हो जाओ निसार;
जो उसके साथ करते हैं व्‍यापार,
उनके हाथ लगती है क्षार।

डैफ़ोडिल का देख के मैदान
वही है मेरा हाल,
हो गया हूँ इस पर निहाल
मिट्टी की यह उमंग,
वसुंधरा का यह सिंगार
आँखें पा नहीं रही है सँभाल,
मेरे शब्‍दों में
कहाँ है इतना उन्‍मेष,
कहाँ है इतना उफान,
कहाँ है इतनी तेजी, ताज़गी,
कहाँ है इतनी जान,
कि भूमि से इनकी उठान,
कि हवा में इनके लहराव,
कि क्षितिज तक इनके फैलाव
कि चतुर्दिक इनके उन्‍माद का
कर सके बखान।
यह तो करने में समर्थ
हुए थे बस वर्ड्सवर्थ;
कभी पढ़ा था उनका गीत,
आज मन में बैठ रहा अर्थ।

पर मैं इसे नहीं सकूँगा भूल,
सदा रक्‍खूँगा याद,
आज और वर्षों बाद,
कि जब अपना घर, परिवार, देस, छोड़
आया था मैं इंग्‍लैंड,
केम्ब्रिज में रक्‍खे थे पाँव,
अज़नबी और अनजान के समान,
अपरिचित था जब हर मार्ग, हर मोड़,
अपरिचित जब हर दूकान, मकान, इंसान,
किसी से नहीं थी जान-पहचान,
तब भी यहाँ थे तीन,
जो समझते थे मुझे,
जिन्‍हें समझता था मैं,
जिनसे होता था मेरे भाव,
मेरे उच्‍छ्वास का आदान-प्रदान-
डैफ़ोडिल के फूल,
जो देते थे परिचय-भरी मुस्‍कान,
प्रभात की चिड़ियाँ,
जो गाती थीं कहीं सुना-सा गान,
और कैम की धारा,
जो विलो की झुकी हुई लता को छू-छू
बहती थी मंद-मंद, क्षीण-क्षीण!

6. शैल विहंगिनि

मत डरो
ओ शैल की
सुंदर, मुखर, सुखकर
विहंगिनि!
मैं पकड़ने को तुम्‍हें आता नहीं हूँ,
जाल फैलाता नहीं हूँ,
पींजरे में डाल तुमको
साथ ले जाना नहीं मैं चाहता हूँ,
और करना बंद ऐसे पींजरे में
बंद हम जिसमें स्‍वयं हैं-
ईंट-पत्‍थर का बना वह पींजरा
जिसको कि हमने
नाम घर का दे दिया है;
और बाहर की तरोताज़ा हवाओं
और बाहर के तरल, निर्मल प्रवाहों
औ' खुले आकाश के अविरल इशारों,
या कहूँ संक्षेप में तो,
प्रकृति के बहु राग-रस-रंगी प्रवाहों से
अलग हमने किया है।
जानता मैं हूँ
परों पर जो तुम्‍हारे
खेलती रंगीनियाँ हैं,
वे कहाँ से आ रही हैं-
गगन की किरणावली से,
धरणि की कुसुमावली से,
पवन की अलकावली से-
औ' दरोदीवार के जो पींजरे हैं
बंद उसमें ये किए जाते नहीं है।

भूल मुझको एक
आई याद
यौवन के प्रथम पागल दिनों की।
एक तुम-सी थी विहंगिनी
मैं जिसे फुसला-फँसाकर
ले गया पींजरे में-

"जानता तू है नहीं
मैं जन्‍मना कवि?
रवि जहाँ जाता नहीं है
खेल में जाता वहाँ मैं।
कौन-सी ऐसी किरण है,
किस जगह है,
जो कि मेरे एक ही संकेत पर
सब मान-लज्‍जा
कर निछावर,
मुसकरा कर
मैं जहाँ चाहूँ वहाँ पर
वह बिखर जाती नहीं है?
कौन-सा ऐसा कुसुम है
किस जगह है-
भूमि तल पर
या कि नंदन वाटिका में-
जो कि मेरी कल्‍पनाओं की उँगलियों के
परस पर विहँस
झर जाता नहीं है?
कौन-सी मधु गंध है
चंपा, चमेली और बेला की
लटों में,
या कि रंभा-मेनका-सी
अप्‍सराओं के
लहरधर कुंतलों में,
जो कि मेरी
भावनाओं से लिपटकर
आ नहीं सकती वहाँ पर
ला जहाँ पर
मैं उसे चाहूँ बसाना?"

बात मेरी सुन हँसी वह
शब्‍द-जालों में फँसी वह।
पींजरे में डाल उसको
गीत किरणों के,
अनगिनत मैंने लिखे
उसके लिए, पर
गंध-रस भीनी हुई रंगीनियाँ
उड़ती गईं उसकी निरंतर!

'स्‍वप्‍न मेरे,
बोलते क्‍यों तुम नहीं हो?
क्‍या मुझे धोखा रहे देते
बराबर?'
और वे बोले कि

'पागल
मानवी स्‍तर-साँस के

आकार जो हम,
पत्र, स्‍याही, लेखनी का
ले त्रिगुण आधार
पुस्‍तक-पींजरे में,
आलमारी के घरों में
जब कि होते बंद
रहते अंत में क्‍या?
सिर्फ़
काले हर्फ़
काले ख़त-खचीने!
और तू लाया जिसे है
वह प्रकृति के कोख से जन्‍मी,
प्रकृति की गोद में पतली,
प्रकृति के रंग में ढलती रही है।'

स्‍वप्‍न से श्रृंगार करने के लिए
लाया जिसे था,
अब उसी के वास्‍ते
एकत्र करता
सौ तरह के मैं प्रसाधन!
किंतु उनसे
गंध-रस भीनी हुई
रंगीनियाँ कब लौटती हैं?

स्‍वप्‍न की सीमा हुई मालूम;
कवि भी
ग़ल्तियों से सिखते हैं।
स्‍वप्‍न अपने वास्‍ते हैं,
स्‍वप्‍न अपने प्राण मन को
गुदगुदाने के लिए हैं,
स्‍वप्‍न अपने को भ्रमाने
भूल जाने के लिए हैं।
फूल कब वे हैं खिलते?
रश्मि कब सोती जगाती?
और कब वे
गंध का घूँघट उठाते?
तोड़ते दीवार कब वे?
खोलते हैं
पींजरों का द्वार कब वे?

मैं पुरानी भूल
दुहराने फिर नहीं जा रहा हूँ।
मत डरो
ओ शैल की
सुंदर, मुखकर, सुखकर
विहंगनि!
मैं पकड़ने को तुम्‍हें आता नहीं हूँ।
पींजरे के बीच फुसलाता नहीं हूँ।

जानता हूँ मैं
स्‍वरों में जो तुम्‍हारे
रूप लेते राग
वे आते कहाँ से-
बादलों के गर्जनों से,
बात करते तरु-दलों से,
साँस लेते निर्झरों से-
औ' दरोदीवार के जो दायरे हैं
बंद उसमें ये किए जाते नहीं हैं।
किंतु मैंने
उस दिवस उन्‍माद में
अपनी विहंगिनि से कहा था-

"क्‍या तूने कभी हृदय का देश देखा?
भाव

जब उसमें उमड़ते
घुमड़ते, घिरते
झरझर नयन झरते,
तब जलद महसूस करते
फ़र्क पानी,
सोम रस का।
प्‍यार,
सारे बंधनों को तोड़,
उर के द्वार सारे खोल,
आपा छोड़,
कातर, वि‍वश, अर्पित,
द्रवित अंतर्दाह से
है बोलता जब,
उस समय कांतार
अपनी मरमरहाट की
निरर्थकता समझकर
शर्म से है सिर झुकाता।
दो हृदय के
बीच की असमर्थता बन
वासना जब साँस लेती
और आँधी-सी
उड़ाकर दो तृणों को
साथ ले जाती
विसुधि-विस्‍मृति-विजन में,
उस समय निर्झर समझता है
कि क्‍या है जिंदगी,
क्‍या साँस गिनना।'

और ऐसे भाव,
ऐसे प्‍यार,
ऐसी वासना का
स्‍वप्‍न ज्‍वालामय दिखाकर
मैं उसे लाया बनाकर बंदिनी
कुछ ईट औ' कुछ तीलियों की।
किंतु उसके आगमन के
साथ ही ऐसा लगा,
कुछ हट गया,
कुछ दब गया,
कुछ थम गया,
जैसे कि सहसा
आग मन की बुझ गई हो।
पर बुझी भी आग
में कुछ ताप रहता,
राख में भी फूँकने से
कुछ धुआँ तो है निकलता।

भाव बंदी हो गया,
वह तो नदी है।
बाढ़ में उसके बहा जो
डूबता है।
(या कि पाता पार, पर
इसका उठाए कैन ख़तरा।
किंतु भरता गागरी जो
वह नहाता या बुझाता प्‍यास अपनी।
प्‍यार बंदी हो गया;
वह तो अनल है।
जो पड़ा उसकी लपट में
राख होता।
(या कि कुंदन बन चमकता,
पर उठाए कौन ख़तरा।)
जो अंगीठी में जुगा लेता उसे,
व्‍यंजन बनाता,
तापता,
घर गर्म रखता।
वासना बंदी हुई,
बस काम उसका रह गया भरती-पिचकती
चाम की जड़ धौंकनी का।
बंदिनी की प्रीति बंदि हो गई,
सब रीति बंदी हो गई,
सब गीत बंदी हो गए,
वे बन गए केवल नक़ल
केवल प्रतिध्‍वनि
उन स्‍वरों के,
जो कि उठते सब घरों से,
बोलते सब लोग जिनमें,
डोलते सब लोग जिन पर
डूबते सब लोग जिनके बीच
औ' जिनसे उभरने का
नहीं है नाम लेते!
मत डरो,
ओ शैल की
सुंदा, मुखकर, सुखकर
विहंगिनि,
मैं पकड़ने को तुम्‍हें आता नहीं हूँ।
मैं पुरानी भूल
दुहराने फिर नहीं जा रहा;
स्‍वच्‍छंदिनी, तुम
गगन की किरणावली से,
धरणि की कुसुमावली से,
पवन की अलकावली से
रंग खींचो।
बादलों के गर्जनों से
बात करते तरु-दलों से,
साँस लेते निर्झरों से
राग सीखो।
और कवि के
शब्‍द जालों,
सब्‍ज़ बाग़ों से
कभी धोखा न खाओ।
नीड़ बिजली की लताओं पर बनाओ।
इंद्रधनु के गीत गाओ।

7. पपीहा और चील-कौए

मैं पपीहे की
पिपासा, खोज, आशा
औ' विकट विश्‍वास पर
पलती प्रतीक्षा
और उस पर व्‍यंग्‍य-सा करती
निराशा
और उसकी चील-कौए से चले
जीवनमरण संघर्ष की लंबी कहानी
कह रहा हूँ,
किंतु उससे क्‍यों
तुम्‍हारा दिल धड़कता
किंतु उससे क्‍यों
तुम्‍हें रोमांच होता,
तुम्‍हें लगता कि कोई
खोलकर पन्‍ने तुम्‍हारी डायरी के
पढ़ रहा है?
मैं बताता हूँ,
पपीहा
है बड़ा अद्भुत विहंगम।
यह कहीं घूमे,
गगन, गिरि, घाटियों में,
घन तराई में, खुले मैदान,
खेतों में, हरे सूखे,
समुंदर तीर,
नदियों के कछारे,
निर्झरों के तट,
सरोवर के किनारे,
बाग़, बंजर, बस्तियों पर,
उच्‍च प्रसादों
कि नीचे छप्‍परों पर;
यह कहीं घूमें, उड़े,
चारा चुगे
नारा लगाए
पी कहाँ का,
पर बनाता
घोंसला अपना सदा यह,
भावनाओं के जुटा खर-पात,
केवल मानवों की छातियों में।

मैं धरणि की धूलि से निर्मित,
धरणि की धूलि में लिपटता,
सना,
पागल बना-सा
प्‍यास अपनी
शांत करने के लिए क्‍यों
छानता आकाश रहता?
(भूमि की करता अवज्ञा
तीन-चौथाई सलिल से
जो ढकी है)
हाथ क्‍या आता?
हँसी अपनी कराता।
क्‍यों परिधि अपनी
नहीं पहचान पाता?

साफ़ है,
पापी पपीहे ने
लगाया घोंसला मेरे हृदय में।

बहुत समझाया
उसे मैंने,
न पी की बोल बोली,
किंतु दीवाना
न माना;
एक दीन मैंने मरोड़े
पंख उसके,
तोड़ दी गर्दन,
बहुत वह फड़फड़ाया,
वच न पाया,
बच न पाया।
किंतु मरते वक्‍त
इतना कह गया ;
किसने मुझे मारा,
मरा भी मैं कहाँ,
मैं तो तुम्‍हारे
प्राण की हूँ प्रतिध्‍वनि,
वह जहाँ मुखरित हुआ,
मैं फिर जिया।
शून्‍य कोई भी जगह
रहने नहीं पाती
बहुत दिन इस जगत में।
जिस जगह पर
था पपीहे का बसेरा,
अब वहाँ पर
चील कौए ने
लिया है डाल डेरा
संकुचित उनकी निगाहें
सिर्फ नीचे को
लगी रहती निरंतर।
कुछ नहीं वे
माँगते या जाँचते
ऐसा कि जो
उनके परों से
नप न पाए,
तुल न पाए,
ढक न जाए।
और मँडलाते
बना छोटी परिधि ऐसी
कि उसके बीच
सीमित, संकुचित, संपुटित
मेरा प्राण
घुटता जा रहा है।
और, मुझको
देखते वे इस तरह
जैसे कि मैं
आहार उनका छोड़कर
कुछ भी नहीं हूँ।
और मुझमें
अब नहीं ताक़त
कि उनकी गर्दनों को तोड़ दूँ मैं,
याकि उनके पर मड़ोड़ूँ।
पर लिए अरमान हूँ मैं;
फिर पपीहा लौट आए,
फिर असंभव प्‍यास
प्राणें में जाएगा,
फिर अखंड-अनंत नभ के बीच
ले जाकर भ्रमाए,
फिर प्रतीक्षा,
फिर अमर विश्‍वास के
वह गीत गाए,
पी-कहाँ की रट लगाए;
काल से संग्राम,
जग के हास,
जीवन की निराशा
के लिए तैयार
फिर होना सिखाए।

पालना उर में
पपीहे का कठिन है
चील कौए का, कठिनतर
पर कठिनतम
रक्‍त, मज्‍जा,
मांस अपना
चील कौए को खिलाना
साथ पानी
स्‍वप्‍न स्‍वाती का
पपीहे को पिलाना।
और, अपने को
विभाजित इस तरह करना
कि दोनों अंग
रहकर संग भी
बिलकुल अलग,
विपरीत बिलकुल,
शत्रु आपस में
बने हों।

तुम अगर इंसान हो तो
इस विभाजन,
इस लड़ाई
से अपरिचित हो नहीं तुम।
धृष्‍ठता हो माफ़
मैंने जो तुम्‍हारी,
या कि अपनी डायरी से
पंक्‍त‍ि‍याँ कुछ आज
उद्धृत कीं यहाँ पर।

8. चोटी की बरफ़

स्‍फटिक-निर्मल
और दर्पण-स्‍वच्‍छ,
हे हिम-खंड, शीतल औ' समुज्‍ज्‍वल,
तुम चमकते इस तरह हो,
चाँदनी जैसे जमी है
या गला चाँदी
तुम्‍हारे रूप में ढाली गई है।

स्‍फटिक-निर्मल
और दर्पण-स्‍वच्‍छ,
हे हिम-खंड, शीतल औ' समुज्‍ज्‍वल,
जब तलक गल पिघल,
नीचे को ढलककर
तुम न मिट्टी से मिलोगे,
तब तलक तुम
तृण हरित बन,
व्‍यक्‍त धरती का नहीं रोमांच
हरगिज़ कर सकोगे
औ' न उसके हास बन
रंगीन कलियों
और फूलों में खिलोगे,
औ' न उसकी वेदना की अश्रु बनकर
प्रात पलकों में पँखुरियों के पलोगे।

जड़ सुयश,
निर्जीव कीर्ति कलाप
औ' मुर्दा विशेषण का
तुम्‍हें अभिमान,
तो आदर्श तुम मेरे नहीं हो,

पंकमय,
सकलंक मैं,
मिट्टी लिए मैं अंक में-
मिट्टी,
कि जो गाती,
कि जो रोती,
कि जो है जागती-सोती,
कि जो है पाप में धँसती,
कि जो है पाप को धोती,
कि जो पल-पल बदलती है,
कि जिसमें जिंदगी की गत मचलती है।

तुम्‍हें लेकिन गुमान-
ली समय ने
साँस पहली
जिस दिवस से
तुम चमकते आ रहे हो
स्‍फटिक दर्पन के समान।
मूढ़, तुमने कब दिया है इम्‍तहान?
जो विधाता ने दिया था फेंक
गुण वह एक
हाथों दाब,
छाती से सटाए
तुम सदा से हो चले आए,
तुम्‍हारा बस यही आख्‍यान!
उसका क्‍या किया उपयोग तुमने?
भोग तुमने?
प्रश्‍न पूछा जाएगा, सोचा जवाब?

उतर आओ
और मिट्टी में सनो,
ज़िंदा बनो,
यह कोढ़ छोड़ो,
रंग लाओ,
खिलखिलाओ,
महमहाओ।
तोड़ते है प्रयसी-प्रियतम तुम्‍हें?
सौभाग्‍य समझो,
हाथ आओ,
साथ जाओ।

9. युग का जुआ

युग के युवा,
मत देख दाएँ,
और बाएँ, और पीछे,
झाँक मत बग़लें,
न अपनी आँख कर नीचे;
अगर कुछ देखना है,
देख अपने वे
वृषभ कंधे
जिन्‍हें देता निमंत्रण
सामने तेरे पड़ा
युग का जुआ,
युग के युवा!तुझको अगर कुछ देखना है,
देख दुर्गम और गहरी
घाटियाँ
जिनमें करोड़ों संकटों के
बीच में फँसता, निकलता
यह शकट
बढ़ता हुआ
पहुँचा यहाँ है।

दोपहर की धूप में
कुछ चमचमाता-सा
दिखाई दे रहा है
घाटियों में।
यह नहीं जल,
यह नहीं हिम-खंड शीतल,
यह नहीं है संगमरमर,
यह न चाँदी, यह न सोना,
यह न कोई बेशक़ीमत धातु निर्मल।

देख इनकी ओर,
माथे को झुका,
यह कीर्ति उज्‍ज्‍वल
पूज्‍य तेरे पूर्वजों की
अस्थियाँ हैं।
आज भी उनके
पराक्रमपूर्ण कंधों का
महाभारत
लिखा युग के जुए पर।
आज भी ये अस्थियाँ
मुर्दा नहीं हैं;
बोलती हैं :
"जो शकट हम
घाटियों से
ठेलकर लाए यहाँ तक,
अब हमारे वंशजों की
आन
उसको खींच ऊपर को चढ़ाएँ
चोटियों तक।"

गूँजती तेरी शिराओं में
गिरा गंभीर यदि यह,
प्रतिध्‍वनित होता अगर है
नाद नर इन अस्थियों का
आज तेरी हड्डियों में,
तो न डर,
युग के युवा,
मत देख दाएँ
और बाएँ और पीछे,
झाँक मत बग़लें,
न अपनी आँख कर नीचे;
अगर कुछ देखना है
देख अपने वे
वृषभ कंधे
जिन्‍हें देता चुनौती
सामने तेरे पड़ा
युग का जुआ।
इसको तमककर तक,
हुमककर ले उठा,
युग के युवा!

लेकिन ठहर,
यह बहुत लंबा,
बहुत मेहनत औ' मशक्‍़क़त
माँगनेवाला सफ़र है।
तै तुझे करना अगर है
तो तुझे
होगा लगाना
ज़ोर एड़ी और चोटी का बराबर,
औ' बढ़ाना
क़दम, दम से साध सीना,
और करना एक
लोहू से पसीना।
मौन भी रहना पड़ेगा;
बोलने से
प्राण का बल
क्षीण होता;
शब्‍द केवल झाग बन
घुटता रहेगा बंद मुख में।
फूलती साँसें
कहाँ पहचानती हैं
फूल-कलियों की सुरभि को
लक्ष्‍य के ऊपर
जड़ी आँखें
भला, कब देख पातीं
साज धरती का,
सजीलापन गगन का।

वत्‍स,
आ तेरे गले में
एक घंटी बाँध दूँ मैं,
जो परिश्रम
के मधुरतम
कंठ का संगीत बनाकर
प्राण-मन पुलकित करे
तेरा निरंतर,
और जिसकी
क्‍लांत औ' एकांत ध्‍वनि
तेरे कठिन संघर्ष की
बनकर कहानी
गूँजती जाए
पहाड़ी छातियों में।
अलविदा,
युग के युवा,
अपने गले में डाल तू
युग का जुआ;
इसको समझ जयमाल तू;
कवि की दुआ!

10. नीम के दो पेड़

"तुम न समझोगे,
शहर से आ रहे हो,
हम गँवारों की गँवारी बात।
श्‍हर,
जिसमें हैं मदरसे और कालिज
ज्ञान मद से झूमते उस्‍ताद जिनमें
नित नई से नई,
मोटी पुस्‍तकें पढ़ते, पढ़ाते,
और लड़के घोटते, रटते उन्‍हे नित;
ज्ञान ऐसा रत्‍न ही है,
जो बिना मेहनत, मशक्‍क़त
मिल नहीं सकता किसी को।
फिर वहाँ विज्ञान-बिजली का उजाला
जो कि हरता बुद्धि पर छाया अँधेरा,
रात को भी दिन बनाता।
दस तरह का ज्ञान औ' विज्ञान
पच्छिम की सुनहरी सभ्‍यता का
क़ीमती वरदान है
जो तुम्‍हारे बड़े शहरों में
इकट्ठा हो गया है।
और तुम कहते के दुर्भाग्‍य है जो
गाँव में पहुँचा नहीं है;
और हम अपने गँवारपन में समझते,
ख़ैरियत है, गाँव इनसे बच गए हैं।
सहज में जो ज्ञान मिल जाए
हमारा धन वही है,
सहज में विश्‍वास जिस पर टिक रहे
पूँजी हमारी;
बुद्धि की आँखें हमारी बंद रहतीं;
पर हृदय का नेत्र जब-तक खोलते हम,-
और इनके बल युगों से
हम चले आए युगों तक
हम चले जाते रहेंगे।
और यह भी है सहज विश्‍वास,
सहजज्ञान,
सहजानुभूति,
कारण पूछना मत।

इस तरह से है यहाँ विख्‍यात
मैंने यह लड़कपन में सुना था,
और मेरे बाप को भी लड़कपन में
बताया गया था,
बाबा लड़कपन में बड़ों से सुन चुके थे,
और अपने पुत्र को मैंने बताया है
कि तुलसीदास आए थे यहाँ पर,
तीर्थ-यात्रा के लिए निकले हुए थे,
पाँव नंगे,
वृद्ध थे वे किंतु पैदल जा रहे थे,
हो गई थी रात,
ठहरे थे कुएँ परी,
एक साधू की यहाँ पर झोंपड़ी थी,
फलाहारी थे, धरा पर लेटते थे,
और बस्‍ती में कभी जाते नहीं थे,
रात से ज्‍यादा कहीं रुकते नहीं थे,
उस समय वे राम का वनवास
लिखने में लगे थे।

रात बीते
उठे ब्राह्म मुहूर्त में,
नित्‍यक्रिया की,
चीर दाँतन जीभ छीली,
और उसके टूक दो खोंसे धरणि में;
और कुछ दिन बाद उनसे
नीम के दो पेड़ निकले,
साथ-साथ बड़े हुए,
नभ से उठे औ'
उस समय से
आज के दिन तक खड़े हैं।"

मैं लड़कपन में
पिता के साथ
उस थल पर गया था।
यह कथन सुनकर पिता ने
उस जगह को सिर नवाया
और कुछ संदेह से कुछ, व्‍यंग्‍य से
मैं मुसकराया।

बालपन में
था अचेत, विमूढ़ इतना
गूढ़ता मैं उस कथा की
कुछ न समझा।
किंतु अब जब
अध्‍ययन, अनुभव तथा संस्‍कार से मैं
हूँ नहीं अनभिज्ञ
तुलसी की कला से,
शक्‍त‍ि से, संजीवनी से,
उस कथा को याद करके सोचता हूँ :
हाथ जिसका छू
क़लम ने वह बहाई धार
जिसने शांत कर दी
कोटिको की दगध कंठों की पिपासा,
सींच दी खेती युगों की मुर्झुराई,
औ" जिला दी एक मुर्दा जाति पूरी;
जीभ उसकी छू
अगर दो दाँतनों से
नीम के दो पेड़ निकले
तो बड़ा अचरज हुआ क्‍या।
और यह विश्‍वास
भारत के सहज भोले जनों का
भव्‍य तुलसी के क़लम की
दिव्‍य महिमा
व्‍यक्‍त करने का
कवित्‍व-भरा तरिक़ा।

मैं कभी दो पुत्र अपने
साथ ले उस पुण्‍य थल को
देखना फिर चाहता हूँ।
क्‍यों कि प्रायश्चित न मेरा
पूर्ण होगा
उस जगह वे सिर नवाए।
और संभव है कि मेरे पुत्र दोनों
व्‍यंग्‍य से, संदेह से कुछ मुसकराएँ।

11. तीन विषयों पर एक रचना

प्रश्न

क्या जीवन है ?
क्या कविता है ?
या उँगली की खुजलाहट है ?

उत्तर

मैं कहता हूँ,
तुम सुनती हो ।
तुम कहती हो,
मैं सुनता हूँ 1
यह जीवन है ।

अम्बर कहता,
धरती सुनती ।
धरती कहती,
अम्बर सुनता ।
यह कविता है ।

कहती स्याही,
सुनता कागज ।
कहता कागज,
सुनती स्याही ।
यह उँगली की खुजलाहट है ।

12. जीवन के पहिए के नीचे,
जीवन के पहिए के ऊपर

मैं बहुत गाता हूँ,
बहुत लिखता हूँ
कि मेरे अंदर
जो मौन है,
बंद है, बंदि है,
जो सब के लिए
और मेरे लिए भी
अज्ञात है, रहस्‍यपूर्ण है,
वह मुखरित हो, खुले,
स्‍वच्‍छंद हो, छंद हो,
गाए और बताए
कि वह क्‍या है, कौन है,
जो मेरे अंदर मौन है।

मेरे दिल पर, दिमाग़ पर,
साँस पर
एक भार है-
एक पहाड़ है।
मैं लिखता हूँ तो समझो,
मैं अपने क़लम की निब से,
नोक से,
उसे छेदता हूँ, भेदता हूँ,
कुरेदता हूँ,
उस पर प्रहार करता हूँ
कि वह भार घटे,
कि वह पहाड़ हटे,
कि पाप कटे
कि मैं आजादी से साँस लूँ,
आज़ादी से विचार करूँ,
आज़ादी से प्‍यार करूँ।

उधर
पत्‍थर है, चट्टान है, पहाड़ है,
उधर उँगली है, लेखनी है, निब है,
लेकिन इनके पीछे -
क्‍या तुम्‍हें इसका नहीं ध्‍यान है?
हाथ है,
इंसान है,
कवि है।

बिहटा-दुर्घटना
उसने आँखों से देखी थी।
मैंने पूछा,
कौन
सबसे अधिक मार्मिक
दृश्‍य तुमने देखा था?
याद कर वह काँप उठा,
आँखें फाड़,
साँस खींच,
बोला वह,
एक आदमी का पेट
रेल के पहिए से दबा था,
पर वह चक्‍के को
सड़सी-जैसे पंजों से
कसकर, पकड़कर, जकड़कर
दाँत से काट रहा था,
सारी ताक़त समेट!
दाँत जैसे सख्‍त हुए
लोहे के चने चबा!
क्षणभर में हो हताश
गिरा दम तोड़कर,
लेकिन उस लोहे के पहिए पर
कुछ लकीर,कुछ निशान
छोड़कर!

और जो मैं बहुत गा चुका हूँ,
कभी अपने अंदर भी पैठता हूँ
कि देखूँ मेरे अंदर जो
मौन है, बंद है,
वह कुछ मुखरित हुआ, खुला,
तो एक आजन्‍म बंदी
जो अगणित जंजीरों से बद्ध है,
केवल कुछ को हिलाता है,
धीमे-धीमे झनकाता है,
व्‍यंग्‍य से मुसकाता है,
मानो यह बताता है
कि इतना ही मैं स्‍वच्‍छंद हूँ,
कि इतना ही तुम्‍हारा छंद है!

और जो मैं बहुत लिख चुका हूँ,
न आज़ादी से प्‍यार कर सकता हूँ,
न विचार कर सकता हूँ,
न साँस ले सकता हूँ,
न मेरा पाप कटा है,
न मुझ पर से पहाड़ हटा है,
न भार घटा है,
और जो मैंने अपने क़लम की नोक से
छेदा है, भेदा है,
कुरेदा है,
उससे मैं
पत्‍वार पर, चट्टान पर
सिर्फ कुछ लकीर लगा सकता हूँ,
कुछ खुराक बना सका हूँ।

लेकिन जब तक
मेरा दम नहीं टूटता
मैं हताश नहीं होता,
मुझसे मेरा क़लम नहीं छूटता।
मेरा सरगम नहीं छूटता।

सृष्‍ट‍ि की दुर्घटना है
और मेरे पेट पर
जीवन का पहिया है,
लेकिन जो मुझमें था
देव बल,
दानव बल,
मानव बल,
पशु बल-
सबको समेटकर
मैंने उसे पकड़ा है,
पंजों में जकड़ा है।

जब वह मुझसे छूट जाए,
मेरा दम टूट जाए,
पहिए पर देखना,
होगा मेरा निशान,
मेरे वज्रदंतों से
लिखा स्‍वाभिमान-गान!

13. बुद्ध और नाचघर

"बुद्धं शरणं गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि।"

बुद्ध भगवान,
जहाँ था धन, वैभव, ऐश्वर्य का भंडार,
जहाँ था, पल-पल पर सुख,
जहाँ था पग-पग पर श्रृंगार,
जहाँ रूप, रस, यौवन की थी सदा बहार,
वहाँ पर लेकर जन्म,
वहाँ पर पल, बढ़, पाकर विकास,
कहाँ से तुम में जाग उठा
अपने चारों ओर के संसार पर
संदेह, अविश्वास?
और अचानक एक दिन
तुमने उठा ही तो लिया
उस कनक-घट का ढक्कन,
पाया उसे विष-रस भरा।
दुल्हन की जिसे पहनाई गई थी पोशाक,
वह तो थी सड़ी-गली लाश।
तुम रहे अवाक्,
हुए हैरान,
क्यों अपने को धोखे में रक्खे है इंसान,
क्यों वे पी रहे है विष के घूँट,
जो निकलता है फूट-फूट?
क्योंकि यही है सुख-साज
कि मनुष्य खुजला रहा है अपनी खाज ?

निकल गए तुम दूर देश,
वनों-पर्वतों की ओर,
खोजने उस रोग का कारण,
उस रोग का निदान।
बड़े-बड़े पंडितों को तुमने लिया थाह,
मोटे-मोटे ग्रंथों को लिया अवगाह,
सुखाया जंगलों में तन,
साधा साधना से मन,
सफल हुया श्रम,
सफल हुआ तप,
आया प्रकाश का क्षण,
पाया तुमने ज्ञान शुद्ध,
हो गए प्रबुद्ध।

देने लगे जगह-जगह उपदेश,
जगह-जगह व्याख्या न,
देखकर तुम्हारा दिव्य वेश,
घेरने लगे तुम्हें लोग,
सुनने को नई बात
हमेशा रहता है तैयार इंसान,
कहनेवाला भले ही हो शैतान,
तुम तो थे भगवान।

जीवन है एक चुभा हुआ तीर,
छटपटाता मन, तड़फड़ाता शरीर।
सच्चाई है- सिद्ध करने की जरूरत है?
पीर, पीर, पीर।
तीर को दो पहले निकाल,
किसने किया शर का संधान?-
क्यों किया शर का संधान?
किस किस्म का है बाण?
ये हैं बाद के सवाल।
तीर को पहले दो निकाल।

जगत है चलायमान,
बहती नदी के समान,
पार कर जाओ इसे तैरकर,
इस पर बना नहीं सकते घर।
जो कुछ है हमारे भीतर-बाहर,
दीखता-सा दुखकर-सुखकर,
वह है हमारे कर्मों का फल।
कर्म है अटल।
चलो मेरे मार्ग पर अगर,
उससे अलग रहना है भी नहीं कठिन,
उसे वश में करना है सरल।

अंत में, सबका है यह सार-
जीवन दुख ही दुख का है विस्तार,
दुख की इच्छा है आधार,
अगर इच्छा् को लो जीत,
पा सकते हो दुखों से निस्तार,
पा सकते हो निर्वाण पुनीत।

ध्वसनित-प्रतिध्वतनित
तुम्हारी वाणी से हुई आधी ज़मीन-
भारत, ब्रम्हा, लंका, स्याम,
तिब्बत, मंगोलिया जापान, चीन-
उठ पड़े मठ, पैगोडा, विहार,
जिनमें भिक्षुणी, भिक्षुओं की क़तार
मुँड़ाकर सिर, पीला चीवर धार
करने लगी प्रवेश
करती इस मंत्र का उच्चार :

"बुद्धं शरणं गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि।"

कुछ दिन चलता है तेज़
हर नया प्रवाह,
मनुष्य उठा चौंक, हो गया आगाह।

वाह री मानवता,
तू भी करती है कमाल,
आया करें पीर, पैगम्बर, आचार्य,
महंत, महात्मा हज़ार,
लाया करें अहदनामे इलहाम,
छाँटा करें अक्ल बघारा करें ज्ञान,
दिया करें प्रवचन, वाज़,
तू एक कान से सुनती,
दूसरे सी देती निकाल,
चलती है अपनी समय-सिद्ध चाल।
जहाँ हैं तेरी बस्तियाँ, तेरे बाज़ार,
तेरे लेन-देन, तेरे कमाई-खर्च के स्थान,
वहाँ कहाँ हैं
राम, कृष्णँ, बुद्ध, मुहम्मद, ईसा के
कोई निशान।

इनकी भी अच्छी चलाई बात,
इनकी क्या बिसात,
इनमें से कोई अवतार,
कोई स्वर्ग का पूत,
कोई स्वर्ग का दूत,
ईश्वर को भी इसने नहीं रखने दिया हाथ।
इसने समझ लिया था पहले ही
ख़ुदा साबित होंगे ख़तरनाक,
अल्लाह, वबालेजान, फज़ीहत,
अगर वे रहेंगे मौजूद
हर जगह, हर वक्त।
झूठ-फरेब, छल-कपट, चोरी,
जारी, दग़ाबाजी, छोना-छोरी, सीनाज़ोरी
कहाँ फिर लेंगी पनाह;
ग़रज़, कि बंद हो जाएगा दुनिया का सब काम,
सोचो, कि अगर अपनी प्रेयसी से करते हो तुम प्रेमालाप
और पहुँच जाएँ तुम्हारे अब्बा जान,
तब क्या होगा तुम्हारा हाल।
तबीयत पड़ जाएगी ढीली,
नशा सब हो जाएगा काफ़ूर,
एक दूसरे से हटकर दूर
देखोगे न एक दूसरे का मुँह?
मानवता का बुरा होता हाल
अगर ईश्वार डटा रहता सब जगह, सब काल।
इसने बनवाकर मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर
ख़ुदा को कर दिया है बंद;
ये हैं ख़ुदा के जेल,
जिन्हें यह-देखो तो इसका व्यंग्य-
कहती है श्रद्धा-पूजा के स्थान।
कहती है उनसे,
"आप यहीं करें आराम,
दुनिया जपती है आपका नाम,
मैं मिल जाऊँगी सुबह-शाम,
दिन-रात बहुत रहता है काम।"
अल्ला पर लगा है ताला,
बंदे करें मनमानी, रँगरेल।
वाह री दुनिया,
तूने ख़ुदा का बनाया है खूब मज़ाक,
खूब खेल।"

जहाँ ख़ुदा की नहीं गली दाल,
वहाँ बुद्ध की क्या चलती चाल,
वे थे मूर्ति के खिलाफ,
इसने उन्हीं की बनाई मूर्ति,
वे थे पूजा के विरुद्ध,
इसने उन्हीं को दिया पूज,
उन्हें ईश्वर में था अविश्वास,
इसने उन्हीं को कह दिया भगवान,
वे आए थे फैलाने को वैराग्य,
मिटाने को सिंगार-पटार,
इसने उन्हीं को बना दिया श्रृंगार।
बनाया उनका सुंदर आकार;
उनका बेलमुँड था शीश,
इसने लगाए बाल घूंघरदार;
और मिट्टी,लकड़ी, पत्थर, लोहा,
ताँबा, पीतल, चाँदी, सोना,
मूँगा, नीलम, पन्ना, हाथी दाँत-
सबके अंदर उन्हें डाल, तराश, खराद, निकाल
बना दिया उन्हें बाज़ार में बिकने का सामान।
पेकिंग से शिकागो तक
कोई नहीं क्यूरियों की दूकान
जहाँ, भले ही और न हो कुछ,
बुद्ध की मूर्ति न मिले जो माँगो।

बुद्ध भगवान,
अमीरों के ड्राइंगरूम,
रईसों के मकान
तुम्हाकरे चित्र, तुम्हारी मूर्ति से शोभायमान।
पर वे हैं तुम्हारे दर्शन से अनभिज्ञ,
तुम्हारे विचारों से अनजान,
सपने में भी उन्हें इसका नहीं आता ध्यान।
शेर की खाल, हिरन की सींग,
कला-कारीगरी के नमूनों के साथ
तुम भी हो आसीन,
लोगों की सौंदर्य-प्रियता को
देते हुए तसकीन,
इसीलिए तुमने एक की थी
आसमान-ज़मीन ?

और आज
देखा है मैंने,
एक ओर है तुम्हारी प्रतिमा
दूसरी ओर है डांसिंग हाल,
हे पशुओं पर दया के प्रचारक,
अहिंसा के अवतार,
परम विरक्त,
संयम साकार,
मची है तुम्हारे रूप-यौवन की ठेल-पेल,
इच्छा और वासना खुलकर रही हैं खेल,
गाय-सुअर के गोश्त का उड़ रहा है कबाब
गिलास पर गिलास
पी जा रही है शराब-
पिया जा रहा है पाइप, सिगरेट, सिगार,
धुआँधार,
लोग हो रहे हैं नशे में लाल।
युवकों ने युवतियों को खींच
लिया है बाहों में भींच,
छाती और सीने आ गए हैं पास,
होंठों-अधरों के बीच
शुरू हो गई है बात,
शुरू हो गया है नाच,
आर्केर्स्ट्रा के साज़-
ट्रंपेट, क्लैरिनेट, कारनेट-पर साथ
बज उठा है जाज़,
निकालती है आवाज़ :

"मद्यं शरणं गच्छामि,
मांसं शरणं गच्छामि,
डांसं शरणं गच्छामि।"

  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : हरिवंशराय बच्चन
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