जीवन परिचय : गोपालदास नीरज

Biography : Gopal Das Neeraj

गोपाल दास नीरज (4 जनवरी 1924-19 जुलाई 2018) हिंदी साहित्य के जाने माने कवियों में से हैं। उनका जन्म ब्रिटिश भारत के संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध, जिसे अब उत्तर प्रदेश के नाम से जाना जाता है, में इटावा जिले के ब्लॉक महेवा के निकट पुरावली गाँव में बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना के यहाँ हुआ था। मात्र 6 वर्ष की आयु में पिता गुजर गये।
1942 में एटा से हाई स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। शुरुआत में इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया उसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की। लम्बी बेकारी के बाद दिल्ली जाकर सफाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी की। वहाँ से नौकरी छूट जाने पर कानपुर के डी०ए०वी कॉलेज में क्लर्की की। फिर बाल्कट ब्रदर्स नाम की एक प्राइवेट कम्पनी में पाँच वर्ष तक टाइपिस्ट का काम किया। नौकरी करने के साथ प्राइवेट परीक्षाएँ देकर 1949 में इण्टरमीडिएट, 1951 में बी०ए० और 1953 में प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एम०ए० किया।
मेरठ कॉलेज मेरठ में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया किन्तु कॉलेज प्रशासन द्वारा उन पर कक्षाएँ न लेने व रोमांस करने के आरोप लगाये गये जिससे कुपित होकर नीरज ने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हो गये और मैरिस रोड जनकपुरी अलीगढ़ में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे।
कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता के चलते नीरज को बम्बई के फिल्म जगत ने गीतकार के रूप में 'नई उमर की नई फसल' के गीत लिखने का निमन्त्रण दिया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे 'कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे' और 'देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा' बेहद लोकप्रिय हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा।
किन्तु बम्बई की ज़िन्दगी से भी उनका जी बहुत जल्द उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये।
अपने वारे में उनका यह शेर मुशायरों में फरमाइश के साथ सुना जाता रहा है:
इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में,
लगेंगी आपको सदियाँ हमें भुलाने में।
न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर,
ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में॥

शैली

दार्शनिक शैली में वह प्रतीक प्रधान व्यंजना के द्वारा सीधे-सादे ढंग से अपनी बात कहते चलते है। उसकी रचनाएँ संगीत, अलंकार और विशेषणों आदि विहीन सीधी-सादी होती हैं। लोकगीतात्मक शैली में प्राय: फक्कड़पन रहता है, और ऐसी रचनाओं में वह प्राय: ह्रस्व-ध्वनि प्रधान शब्द ही प्रयुक्त करते हैं। उनकी लोकगीत-प्रधान शैली से लिखी गई रचनाओं में माधुर्य भाव की प्रचुरता देखने को मिलती है। चित्रात्मक शैली में लिखी गई रचनाओं में वह शब्दों द्वारा चित्र-निर्माण करने की ही रचनाएँ हैं, जो ओज, तारुण्य और बलिदान का संदेश देने के लिए लिखी गई हैं। ओज लाने के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग नितांत वांछनीय है। ऐसी रचनाओं में 'नीरज' ने जीवन के निटकतम प्रतीकों का प्रयोग ही बहुलता से किया है। संस्कृतनिष्ठ शैली वाली रचनाओं में 'नीरज' की अनुभूति का आधार प्राचीन भारतीय परंपरा रही है।

लोकप्रियता

'नीरज' की लोकप्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि वह जहाँ हिन्दी के माध्यम से साधारण स्तर के पाठक के मन की गहराई में उतरे हैं वहाँ उन्होंने गम्भीर से गम्भीर अध्येताओं के मन को भी गुदगुदा दिया है। इसीलिए उनकी अनेक कविताओं के अनुवाद गुजराती, मराठी, बंगाली, पंजाबी, रूसी आदि भाषाओं में हुए हैं। यही कारण है कि 'भदन्त आनन्द कौसल्यायन' यदि उन्हें हिन्दी का 'अश्वघोष' घोषित करते हैं, तो 'दिनकर' जी उन्हें हिन्दी की 'वीणा' मानते हैं। अन्य भाषा-भाषी यदि उन्हें 'संत कवि' की संज्ञा देते हैं, तो कुछ आलोचक उन्हें निराश मृत्युवादी समझते हैं।

प्रमुख कविता संग्रह

हिन्दी साहित्यकार सन्दर्भ कोश के अनुसार नीरज की कालक्रमानुसार प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं: संघर्ष (1944), अन्तर्ध्वनि (1946), विभावरी (1948), प्राणगीत (1951), दर्द दिया है (1956), बादर बरस गयो (1957), मुक्तकी (1958), दो गीत (1958), नीरज की पाती (1958), गीत भी अगीत भी (1959), आसावरी (1963), नदी किनारे (1963), लहर पुकारे (1963), कारवाँ गुजर गया (1964), फिर दीप जलेगा (1970), तुम्हारे लिये (1972), नीरज की गीतिकाएँ (1987)

पुरस्कार एवं सम्मान

नीरज जी को अब तक कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हो चुके हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है:
विश्व उर्दू परिषद् पुरस्कार
पद्म श्री सम्मान (1991), भारत सरकार
यश भारती एवं एक लाख रुपये का पुरस्कार (1994), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
पद्म भूषण सम्मान (2007), भारत सरकार

फिल्म फेयर पुरस्कार

नीरज जी को फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्नीस सौ सत्तर के दशक में लगातार तीन बार यह पुरस्कार दिया गया। उनके द्वारा लिखे गये पुरस्कृत गीत हैं-
1970: काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म: चन्दा और बिजली)
1971: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (फ़िल्म: पहचान)
1972: ए भाई! ज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर)

मन्त्रीपद का विशेष दर्जा

उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने अभी हाल सितम्बर में ही गोपालदास नीरज को भाषा संस्थान का अध्यक्ष नामित कर कैबिनेट मन्त्री का दर्जा दिया था।

दृष्टिकोण गोपालदास नीरज

मेरे कुछ मित्रों का आग्रह है कि मैं अपनी कविता की व्याख्या करूँ। जब मुझसे आग्रह किया गया तब मैंने स्वीकार कर लिया, पर अब जब व्याख्या करने बैठा तो पाता हूँ कि असमर्थ हूँ। मेरे विचार से कविता की और विशेष रूप से गीत की व्याख्या नहीं हो सकती। वह क्षण जो कण्ठ को स्वर और अधरों को वाणी दे जाता है, कुछ ऐसा अचिन्त्य, अनुपम और अनमोल है कि पकड़ में ही नहीं आता। उसे पकड़ने के लिए तो स्वयं खो जाना पड़ता है और जहाँ खोकर पाना हो वहाँ व्याख्या कैसे की जाय ?
गद्य जहाँ असमर्थ है, वहाँ कविता जन्म लेती है और जहाँ कविता भी लाचार है, वहाँ गीत आता है, लिखे जाने का अर्थ गद्य है और गाये जाने का अर्थ गीत है। फिर से लिखे जाने से गाये जाने की व्याख्या कैसे की जाय ?
जीवन जहाँ तक एक है, वहाँ तक वह काव्य है। जहाँ एक न होकर वह अनेक है वहाँ विज्ञान है। अनेकत्व से एकत्व की ओर जाना कविता करना है। और एकत्व से अनेकत्व की ओर आना तर्क करना है। व्याख्या तर्क ही है।
तर्क का अर्थ है काटना—टुकड़े करना। किन्तु कविता काटती नहीं, तोड़ती नहीं, जोड़ती है। अभेद में भेद के ज्ञान की शर्त है तर्क, भेद में अभेद की सृष्टि का भाव है काव्य। तर्क द्वारा जो सत्य प्राप्त होता है, वह सत्य तो हो सकता है किन्तु सुन्दर नहीं और जो सुन्दर नहीं है, वह आनन्द तो कभी भी नहीं बन सकता। किन्तु काव्य में सुन्दर के बिना सत्य की गति नहीं। इसीलिए साहित्य के क्षेत्र में जब हम ‘सत्यं’ शब्द का प्रयोग करते हैं, तब उसका योग ‘शिवं’ और सुंदरं’ से अवश्य करा देते हैं। हमें अकेला सत्य अभीष्ट नहीं, सत्य का गुण भी हमारा इष्ट है, इसीलिए हम कहते हैं—‘सत्यं, शिवं, सुन्दरम्’।
एक बात और भी है अपनी कविता की व्याख्या करने का अर्थ है अपनी व्याख्या करना—उस चेतना की व्याख्या करना, जिसके हम कवि हैं। वह चेतना अखण्ड है। अखण्ड है इसीलिए आनन्दस्वरूप है। खण्डित होने पर वह आनन्द नहीं रह पाता। काव्य भी आनन्द है—आनन्द से भी एक और पग आगे की वस्तु—स्वर्गानन्द सहोदर और उसका आनन्द भी उसकी अखण्डता में ही है खण्डित होने पर तो वह आनन्द न रह कर निरानन्द हो जाएगी। इसीलिए मैं कहता हूँ कि काव्य की व्याख्या नहीं की जा सकती।
पर हाँ, जिस प्रकार कुसुम के सुवास की व्याख्या न होकर उसकी पँखुरियों के रूप-रंग (बाह्यावरण) के विषय में कुछ बताया जा सकता है, उसी प्रकार काव्य के भाव की मीमांसा न सम्भव होकर भी उसके साधनों और उसके कारण के विषय में कुछ संकेत दिए जा सकते हैं।
जीवन के सत्ताइस पृष्ठ पढ़ने के बाद मेरी अनुभूति अब तक केवल तीन सत्य प्राप्त कर सकी है—सौन्दर्य, प्रेम और मृत्यु। इनका अर्थ मेरी कविता में क्रमशः चिति (सौन्दर्य), गति (प्रेम) और यति (मृत्यु है। अपने पाठकों और आलोचकों की सुविधा के लिए मैं प्रत्येक की अलग-अलग व्याख्या करूँगा—

1. सौंदर्य

सौन्दर्य का अर्थ मेरी दृष्टि में संतुलन (Harmony), क्रम (Order), आकर्षक (Gravitation or Attraction), स्थिति-कारण (Force of existence) और सब मिलाकर चिति शक्ति है। उदाहरणार्थ मान लीजिए आपके सम्मुख चार व्यक्ति खड़े हैं। आप उन चार व्यक्तियों में से केवल एक को सुन्दर बतलाते हैं और शेष तीनों को नहीं। अब प्रश्न उठता है कि आपके पास वह कौन-सा पैमाना है जिससे नाप-जोखकर आपने चार व्यक्तियों में से केवल एक को ही सुन्दर ठहराया। आप कहते हैं—पहले व्यक्ति की न तो मुखाकृति ही सुन्दर है और न उसका शरीर ही सुडौल है, फिर उसे सुन्दर कैसे कह सकते हैं ? दूसरे व्यक्ति को आप यह कहकर असुन्दर ठहरा देते हैं कि उसकी मुखाकृति (नाक, कान, आँख, ओंठ आदि) तो सुन्दर हैं, पर उसका शरीर सुडौल नहीं।
तीसरे व्यक्ति के लिए आप कहते हैं—उसका शरीर तो सुडौल है, पर उसकी मुखाकृति असुन्दर है—इसलिए उसे भी सुन्दर नहीं कहा जा सकता। चौथा व्यक्ति जिसे आपने सुन्दर बतलाया है, आप कहते हैं कि नख से शिख तक उसका प्रत्येक शरीरावयव निर्दोष है। उसके सम्पूर्ण अंगों में एक समुचित अनुपात (Proportion) है। न उसकी नाक मोटी है, न आँख छोटी है। न उसके हाथ मोटे हैं और न पाँव पतले, अर्थात् उसका सम्पूर्ण शरीर सन्तुलित है और इसीलिए वह सुन्दर है। इसी दृष्टि से यदि आप अपनी ओर भी दृष्टिपात करें, तो आपको पता चलेगा कि स्वयं आपके शरीर में भी पंचतत्वों का एक (Proportion) है, जिसके कारण आपकी स्थिति है यानी आप जीवित हैं। जिस दिन यह अनुपात क्षीण हो जाता है, उसी दिन मृत्यु हो जाती है। उर्दू के महाकवि चकबस्त ने इसी सत्य को इस प्रकार कहा है—
"ज़िन्दगी क्या है अनासिर में ज़हूरे तरतीब, मौत क्या है—इन्हीं अजज़ां का परीशां होना।"
(अनासिर=पंच महाभूत, ज़हूर=प्रकट होना, अज़जा=टुकड़ों)
जहाँ सन्तुलन है, अनुपात है वहाँ क्रम (Order) यूँ कहें तो अधिक उपयुक्त होगा कि क्रम ही सही सन्तुलन है—Order is proportion . सृष्टि में भी एक क्रम है। प्रत्येक गतिशील तत्त्व में एक क्रम होता है। चलती हुई रेलगाड़ी में भी एक लय होती है। सम्पूर्ण विश्व ही एक लय है। हज़ारों-लाखों वर्ष हो गए, सूरज सदा से सुबह ही निकला और चन्द्रमा रात को ही उदय होता है। न तो किसी ने (केवल कवि को छोड़कर) रात में सूरज देखा और न किसी ने दिन में चाँद। शताब्दियों की माँग का सिन्दूर झर गया, पर सृष्टि के इस क्रम में रंचमात्र भी अन्तर नहीं आया।
इस सृष्टि के सम्राट विष्णु की ओर भी ज़रा देखिए। इस संसार के पालन का भार उसे मिला है, पर वह आदिकाल से कमल के पत्ते पर शेष शैया बनाये हुए क्षीरसागर में शयन कर रहा है। आश्चर्य की बात है कि वह राजा जिस पर इतने विशाल साम्राज्य के पालन और संरक्षण का भार है इस प्रकार निश्चेष्ट होकर लेटा है। पर इसमें अचरज की बात कुछ भी नहीं। जिसके राज्य में सब कुछ अपने आप क्रम से संचालित होता रहता है, उस राज्य के राजा को दौड़-धूप की क्या आवश्यकता—वह तो ऐसे निश्चिन्त होकर सोता है जैसे क्षीरसागर में विष्णु। तो इस सृष्टि में एक क्रम है, सन्तुलन है, जिसका नाम है, सौन्दर्य और जो सम्पूर्ण विश्व की स्थिति का कारण है।
दूसरी तरह से सोचिए। सुन्दर वस्तु की ओर देखते हैं तो आपको अपनी ओर आकर्षित करती है। आकर्षक चेतन का गुण है यानी सौंदर्य जहाँ है वहाँ चेतना है, जीवन है। तो सौन्दर्य एक चेतन-आकर्षण-शक्ति है वैज्ञानिक दृष्टि से देखिए तो पता चलेगा कि सम्पूर्ण विश्व की स्थिति का कारण भी आकर्षण है। ये धरती, आकाश, सूरज, चाँद सितारे, ग्रह, उपग्रह सब एक आकर्षण-डोर में बँधे घूम रहे हैं—
"एक ही कील पर घूमती है धरा,
एक ही डोर से बँधा है गगन,
एक ही साँस से ज़िन्दगी क़ैद है,
एक ही तार से बुन गया है, कफ़न।।’’
आकर्षण में जिस दिन विकर्षण होता है, उसी दिन प्रलय हो जाती है। अर्थात् आकर्षण (सौन्दर्य) ही स्थिति है।
हाँ, तो मैं सौन्दर्य को सृष्टि की स्थिति का कारण चित शक्ति मानता हूँ। जिस दिन सौन्दर्य इस मिट्टी को स्पर्श करता है उसी दिन चेतना (प्राण अथवा ताप) का जन्म होता है। यह एक विज्ञान सम्मत सत्य है कि दो वस्तुओं के स्पर्श या संघर्ष से ताप (Heat) की उत्पत्ति होती है। मेरे गीतों में कई स्थानों पर इसकी प्रतिध्वनि मिलेगी, जैसे इन पंक्तियों में—
(1)
"एक ऐसी हँसी हँस पड़ी धूल यह
लाश इन्सान की मुस्कराने लगी
तान ऐसी किसी ने कहीं छेड़ दी
आँख रोती हुई गीत गाने लगी।"
अथवा
(2)
"एक नाज़ुक किरन छू गई इस तरह
खुद-बखुद प्राण का दीप जलने लगा
एक आवाज़ आई किसी ओर से
हर मुसाफिर बिना पाँव चलने लगा"
अथवा
(3)
"कहाँ दीप है जो किसी उर्वशी की
किरन उँगलियों को छुए बिन जला हो।"
अथवा
(4)
"परस तुम्हारा प्राण बन गया,
दरस तुम्हारा श्वास बन गया।"
तीसरे उद्धरण में उर्वशी सौन्दर्य का प्रतीक है। दीपक के रूपक से चेतना के जन्म की ओर संकेत है। चौथे उद्धरण में सौन्दर्य और प्रेम से किस प्रकार प्राण (ताप-चेतना) और श्वास (गीत) का जन्म हुआ—इसकी कहानी है। सौन्दर्य और प्रेम द्वारा सृष्टि के उद्भव और विकास का रूपक यह गीत है।

2. प्रेम

किन्तु केवल स्थिति या चिति ही जीवन नहीं है, वहाँ गति भी तो है और जीवन को गति देने वाली शक्ति का ही नाम है प्रेम। तात्विक दृष्टि से प्रेम का अर्थ है—एक से दो होना—दो से एक होना और फिर अनेक से फिर एक हो जाना। सृष्टि के विकास का भी यही रहस्य है—‘एकोहम् बहुस्याम’। जहाँ अद्वैत है, वहाँ प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम के लिए द्वैत की आवश्यकता है। द्वैत अनेकत्व को जन्म देता है, किन्तु प्रेम इस द्वैत (व्यक्ति) और अनेकत्व (समष्टि) से होता हुआ अद्वैत की ओर ही जाता है। सम्पूर्ण सृष्टि एक तत्त्व से बनी है और उसी में समा जाएगी।
व्यावहारिक दृष्टि से प्रेम का अर्थ है किसी को प्राप्त करने की, और प्राप्त करके स्वयं वही बन जाने की इच्छा-लालसा या आकांक्षा। प्राप्त करने का अर्थ है किसी स्वप्न को, किसी प्यास को या किसी आदर्श को साकार करने की कामना। और कामना ही गति है।
"जब तक जीवित आस एक भी
तभी तलक साँसों में भी गति"
(बादर बरस गयो)
अथवा
"हँस कहा उसने चलाती चाह है
आदमी चलता नहीं संसार में।"
जब हम अपनी दृष्टि भीतर से बाहर की ओर करते हैं, तब हम प्रेम (कामना-इच्छा) करते हैं और तभी हम किसी आदर्श को जन्म देते हैं। जो वस्तु भीतर है उसके लिए हमें भागदौड़ नहीं करनी पड़ती, किन्तु जो वस्तु बाहर है उसके लिए प्रयत्न अनिवार्य है। यद्यपि प्रेम भी एक भावना का ही नाम है जो भीतर है, किन्तु उसका आकार बाहर होता है। वह किसी व्यक्ति वस्तु या आदर्श का रूप धारण कर ही साकार हो सकता है। वह निराकार-साकार है। यदि तनिक सूक्ष्म दृष्टि से देखिए तो पता चलेगा कि प्रेम के लिए हम स्वयं (एक) का ही भावना के माध्मय से एक और रूप रचते हैं। जो हमारा इष्ट है वस्तुतः वह ‘पर’ नहीं बल्कि हमारा ‘स्व’ ही भीतर से बाहर आकर ‘पर’ बन गया है यानी हम स्वयं भीतर से बाहर आकर स्वयं प्रेम करते हैं : "निराकार ! जब तुम्हें दिया आकार, स्वयं साकार हो गया।" इसीलिए मैं कहता हूँ कि प्रेम भावना का सूक्ष्म बाह्य प्रयत्न है—व्यष्टि और समष्टि से होकर इष्ट तक आने का मार्ग। तो प्रेम एक प्रयत्न है और प्रयत्न ही गति है। जीवन में गति है तो वह प्रेम है।
यहाँ एक प्रश्न पूछा जा सकता है—क्या प्रेम जीवन के लिए अनिवार्य है ? मेरा उत्तर है ‘हाँ’। किन्तु क्यों ? इसलिए कि वह हृदय की अनिवार्य भूख है। पर इस भूख को समझने के लिए हमें सृष्टि के जन्म तक दृष्टि फैलानी होगी। सारे धर्मग्रन्थों ने स्वीकार किया है कि विश्व का उद्भव एक तत्त्व से हुआ है। लेकिन यह किस प्रकार संभव है। प्रकृति और पुरुष के संयोग का नाम सृष्टि है। दो के बिना जन्म कहाँ ? तो मानना पड़ता है कि वह आदि-तत्त्व जिससे इस विश्व की रचना हुई है, अवश्य ही एक होकर दो था। हमारे यहाँ उसे अर्ध-नारीश्वर कहा गया है, आधा अंग स्त्री का और आधा अंग पुरुष का—एक साथ स्त्री-पुरुष—हाँ। (अभी पपीते की भी कुछ ऐसी नस्लें मिली हैं जो नर-मादा होती हैं) उस अर्धनारीश्वर (एक तत्त्व) ने प्रेम के लिए या कहिए सृष्टि प्रसारण के लिए, केलि के लिए, क्रीड़ा के लिए अपने को दो में विभाजित किया (अद्वैत ने द्वैत को जन्म दिया) दो के बाद चार, चार के बाद आठ और फिर इस तरह सृष्टि बन गई। किन्तु यदि तत्त्व के विभाजन (Division) से संसार में एक बहुत बड़ी ट्रेजडी हो गई कि प्रत्येक तत्त्व आत्मा-विभाजित आत्मा हो गया। फलस्वरूप उसके हृदय में प्यास है, भूख है, अपने उस आत्मा के साथी (Soul-mate) के लिए जो सृष्टि के आदिकाल से उससे अलग और जिसको खोजने के लिए, जिसको प्राप्त करने के लिए बार-बार उसे मिट्टी के ये कपड़े बदलने पड़ते हैं—
"नाश के इस नगर में तुम्हीं एक थे
खोजता मैं जिसे आ गया था यहाँ,
तुम न होते अगर तो मुझे क्या पता,
तन भटकता कहाँ, मन भटकता कहाँ,
वह तुम्हीं हो कि जिसके लिए आज तक
मैं सिसकता रहा शब्द में, गान में,
वह तुम्हीं हो कि जिसके बिना शव बना
मैं भटकता रहा रोज शमशान में"
बस, आत्मा के साथी के लिए जो प्रत्येक चेतन तत्त्व में प्यास और चाह है, उसी का नाम प्रेम है और यह प्यास तब तक तृप्त नहीं बनेगी, जब तक उस मन के मीत से आत्म-सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता। यह आवागमन का चक्र भी तब तक चलता रहेगा, जब तक वह नहीं मिलेगा। जिस दिन वह मिल जाएगा, उसी दिन मुक्ति हो जाएगी। मैं ही क्या, मैं जिधर दृष्टि डालता हूँ, देखता हूँ—
"दीप को अपना बनाने को पतंग जल रहा है,
बूँद बनने को समुन्दर की हिमालय गल रहा है,
प्यार पाने को धरा का मेघ व्याकुल गगन में
चूमने को मृत्यु निशि दिन श्वास पन्थी चल रहा है।"
(बादर बरस गयो)
तो हम बार-बार अपने बिछड़े हुए साथी की खोज करने आते हैं, पर बार-बार हम भटक जाते हैं—या तो हम अपना लक्ष्य भूल कर पूजन-अर्चन (मंदिर-मस्जिद) को बना लेते हैं, या प्रकृति को या योग-समाधि को। हम मनुष्य हैं, हमारी आत्मा का साथी तो कहीं मनुष्यों में ही मिलेगा। किन्तु हम वहाँ न खोजकर इधर-उधर भटकते फिरते हैं। फिर मुक्ति कैसे हो ? मुझे भी भरमाया गया था—
"खोजने जब चला मैं तुम्हें विश्व में
मन्दिरों ने बहुत कुछ भुलवा दिया,
ख़ैर पर यह हुई उम्र की दौड़ में
ख़्याल मैंने न कुछ पत्थरों का किया,
पर्वतों ने झुका शीश चूमें चरण
बाँह डाली कली ने गले में मचल,
एक तस्वीर तेरी लिये किन्तु मैं
साफ़ दामन बचाकर गया ही निकल।"
पर इस बार मेरे पास उसकी तस्वीर थी, इसलिए मैं भूला नहीं। पर अभी गन्तव्य मिला नहीं है—अगर यूँ कहूँ कि मिलकर छूट गया है तो अधिक सही होगा जीवन का यह बहुत बड़ा अभिशाप और साथ-साथ वरदान भी है कि जो हमारी मंजिल होती है, जब वह समीप आती है तब या तो हम उसको पीछे छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं या वह स्वयं और आगे बढ़ जाती है—
"पागल हो तलाश में जिसकी
हम खुद बन जाते रज मग की
किन्तु प्राप्ति की व्याकुलता में
कभी-कभी हम मंजिल से भी आगे बढ़ जाते।"
अथवा
"मैं समझता था कि मंजिल पर पहुँच आना-जाना ख़त्म हो जाएगा
पर हज़ारों बार ही ऐसा हुआ पास आकर दूर जाना पड़ गया।"
इसी प्रकार जब हम भावना (प्रेम) के माध्यम से अपने उस आत्मा के साथी के निकट पहुँचते हैं तो वह पीछे खिसकता है और खिसकते-खिसकते विश्वात्मा में मिल जाता है। अन्त में हम भी उसकी खोज करते-करते विश्वात्मा तक पहुँच जाते हैं—
"मैं तो तेरे पूजन को आया था तेरे द्वार
तू ही मिला न मुझे वहाँ मिल गया खड़ा संसार !"
और फिर मनुष्य स्वयं ही कहने लगता है—
"दूर कितने भी रहो तुम, पास प्रतिपल,
क्योंकि मेरी साधना ने पल निमिष चल,
कर दिए केंद्रित सदा को ताप बल से
विश्व में तुम और तुम में विश्व भर का प्यार !
हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार।"
और जिस दिन मनुष्य अपनी आत्मा का प्रेम (भावना) के द्वारा विश्वात्मा से तादात्म्य स्थापित कर लेता है उसी दिन उसकी मुक्ति हो जाती है। विश्वात्मा से अपनी आत्मा का तादात्म्य ही एक मुक्ति है और यह संदेह ही प्राप्त हो जाती है, आवागमन के चक्र को बहुत दूर छोड़कर।
एक बात इस सम्बन्ध में और कह दूँ तो अनपयुक्त न होगा। जो व्यक्ति ‘प्रेम’ को नहीं जानता वह केवल ‘मैं’ (अहं) को ही जानता है। और केवल ‘मैं’ को जानने का अर्थ है शेष सृष्टि के रागात्मक सम्बन्ध से हीन हो जाना। किन्तु जो व्यक्ति प्रेम करता है वह ‘मैं’ (अहं) को समूल नष्ट तो नहीं करता, उसका ‘तुम’ से सम्बन्ध स्थापित कर उसका पर्युस्थान करता है। वह ‘मैं’ कहता तो है, पर ‘मैं’ कहने से पूर्व वह कहता है ‘तुम’। यथा—
"गंध तुम्हारी थी मैं तो बस सुमन चुरा लाया था, रूप तुम्हारा था मैंने तो केवल दर्पण दिखलाया था।"

और इस प्रकार वह व्यष्टि की संकुचित सीमा से निकलकर समष्टि की ओर जाता है—अपने व्यक्तित्व का उत्थान कर देवत्व की ओर जाता है। इसीलिए मैं प्रेम को जीवन की गति के साथ-साथ एक बहुत बड़ी शक्ति—एटम बम से भी अधिक प्रबल शक्ति मानता हूँ और जो उसका विरोध करता है, उससे कहता हूँ—
प्रेम बिन मनुष्य दुश्चरित्र है
अथवा
प्रेम जो न तो मनुज अशुद्ध है।

3. मृत्यु

प्रेम जीवन का गीत है। अपनी आत्मा के साथी के लिए खोज हम विभिन्न रूपों में कर रहे हैं, उसका नाम जीवन है। पर जो खोजा करता है वह थकता भी है। संसार की प्रत्येक वस्तु शक्ति और गति को जीवित रखने के लिए विश्राम लेती है। यह चेतना हज़ारों बरसों से अपने साथी के लिए भटकती फिर रही है, इसको भी थकान आती है। थकान आने पर यह भी विश्राम चाहती है। इसको अपनी सेज पर जो क्षण-भर विश्राम देती है—उसी का नाम है मृत्यु—जिसे मैं यति कहता हूँ।
"जीवन क्या माटी के तन में केवल गति भर देना, और मृत्यु क्या उस गति को ही क्षण भर यति कर देना।"
(बादर बरस गयो)
अथवा
"है आवश्यक तो विराम भी
यदि पथ लम्बा और कठिन हो,
पर केवल उतना ही जितने
से पथ-श्रम की दूर थकान हो।"

4. रोटी

इन तीनों सत्यों के अतिरिक्त एक चौथा सत्य भी है—जिनका नाम है रोटी (पेट की भूख)। हृदय की भूख-प्यास जिस प्रकार जीवन-स्थिति के लिए आवश्यक है, उसी प्रकार पेट की भूख भी शरीर-स्थिति के लिए अनिवार्य है। और जिस प्रकार हृदय (प्रेम) के माध्यम से मनुष्य अंत में विश्व की एकता तक पहुँचता है, उसी प्रकार रोटी के माध्यम से भी हम अन्त में मानव-एकता तक ही पहुँचते हैं। दोनों का लक्ष्य एक है, इसलिए दोनों को मैंने एक प्रेम के अन्तर्गत ही ले लिया है। जीवन के प्रति जो मेरी दृष्टि है, वह मैंने यहाँ आपके सामने स्पष्ट की है। यह ग़लत है या सही, प्रतिभागी या प्रगतिवादी, यह तो निर्णय आप करेंगे। मैं तो केवल क्षम्य गर्व के साथ इतना ही कहता हूँ कि इस दृष्टिकोण से मुझे अपने जीवन में काफ़ी बल मिला है।

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