भूरी-भूरी खाक-धूल : गजानन माधव मुक्तिबोध

Bhuri-Bhuri Khak-Dhul : Gajanan Madhav Muktibodh

1. एक रग का राग

ज़माने की वक़त और बेवक़त
धड़कती धुकधुकी
नाड़ियाँ फड़कती देखकर
खुश हुए हम कि
बगासी और उमस के स्वेद में
भीगी हुई उकताहट-उचाट खत्म हुई
और कुछ ज़ोरदार
सनसनीखेज कुछ,
गरम-गरम चाय के साथ-साथ
मिल गई ऐसी बात
जिससे कि ढीली रगें तन जायें
भीतर तनाव हों
व विचारों का घाव हो
कि दिल में एक चोट हो
आये दिन ठण्डी इन रगों को
गर्मी की खोज है,
वैसे यह ज़िन्दगी
भोजन है, मौज है !!

समाज के जितने भी निन्दा-प्रवाद हैं
सब हमें याद हैं
हरेक का चेहरा व जीवन-रहस्य हम जानते
अन्ध कौन, बहरा कौन
एक नेत्र कौन कहाँ उट्ठा है
सब हमें मालूम,
कौन किस उल्लू का कितना बडा पट्ठा है,
सब हमें मालूम
चाहो तो समाजी
शोषण-क्रिया की सब---
पाचन-क्रिया की सब----
अँतड़ियां
टेबल पर रख दें,
कि तुम भी निहार लो
व हम भी निरख लें
चाहो तो निज की ही
खोपड़ी की हड्डी के बक्से को खोलकर
आपके सामने
भेजा उतार दें कि भेजा उधार दें !!

लेकिन, अब लगता है यह सब व्यर्थ है
क्योंकि पी ज़हर यह
क्योंकि जी ज़हर यह
सुन्न हुयी नाड़ियाँ
गई आब, पानी सब गया सूख
ह्रदय में उदासी की फैली हैं मटमैली
कीचड़ की खाड़ियां !!
चक्के टूट गये हाय !!
ग्राम-रम्य-वृक्ष-तले
पिकनिक को निकली हुई
ज़िन्दगी की नयी बैलगाड़ियाँ
टूट गयीं निरुपाय !!
(सौन्दर्य छूता नहीं
शिराओं में हल्की-सी मूर्छ
चेतना निवीर्य !! )
दार्शनिक मर्मी अब
कोई सरगर्मी अब
छू नहीं पाती है
हमें तो अपने बैंक-नोटों की, सत्यों में,
बू खूब आती है !!
एकमात्र उदेश्य-
ह्रदय की लुटिया से दिमाग की मोरी में
पानी डाल
जमी हुई काई सब निकालना !!
एकमात्र लक्ष्य कि विचलित न हो जायं
विवेक सताये ना,
न ज़िन्दगी को बेचैन करे वह !!

असल तो यह है कि
कोई अर्थ मर गया देखते-ही-देखते
लेकिन वह
ज़िंदगी का नक्शा पेश कर गया (हाय ! हाय ! )
उसका यह प्रस्तुतीकरण भी सही है
संवेदन यही है, संवेदन का निवेदन यही है !!

पूर्व-युगों में भी खूब बुराईयां रही आयीं
किन्तु, वे भीमाकार शक्ति-रूप
दिखलाई जाती थीं,
रावण व कुम्भकर्ण, शैतान
उनका ही रूप था ।
उनसे डरा जाता था, उनसे लड़ा जाता था ।
उनके विरुध्द वह
पाप-भीरु मृदु-तन
बहुत कड़ा रहता था समुध्दत !!

किन्तु उसी अमंगल को आज सिर्फ
सहा जाता ह्रास कह
आज वह मात्र व्यंग्य-रूप है
तर्क यह-
हाय ! वह सबका अंग-रूप है
सभ्यता-समाज का ही ह्रास है
इसलिए सहनीय मात्र निवेदनीय त्रास है
ह्रास में भी खूब-खूब मजा है,
आदमी की धजा है
व्यक्तिगत आलोचना-शील मन
जोड़ता है निन्दा-धन
जोड़ता है ज़हर और
कंकड़ और पत्थर और
कहता मैं गुनी जन
(हृदय में बैठा है चोट्टा कि मसीहा !!)
ऐसी आज आइडियालाजी है
हरेक के पीपल के पास अब बैठा हुआ एक निज
सन्त निज पीर है
लक्ष्य समाजी है
प्रतिभा का जिन्न आज खूब जिसके पास है
सत्य की सर्चलायट वह अनायास है !!

खेद है कि गलती सिर्फ़ एक हुई हमसे
कि ज़िन्दगी की रेती में किरचे मिले कांच के
तो मन में भी पूरा शीशा हम नहीं बना पाये सांच का
रत्न का टुकड़ा मिला किन्तु हाय
पूरा रत्न (अंश का पूर्ण रूप)
कल्पना में भी हम, ला नहीं पाये थे कि
खो गया टुकड़ा वह
खो दिये किरचे वे कांच के
ज़रा-ज़रा दर्द हुआ
किन्तु उस खण्ड का
पूर्ण अखण्ड, न मिल सका
कि इतने में खो गया दर्द भी !!
नसों और रगों व शिराओं की"'
स्नायु-यन्त्र-गति में मन-बुद्धि गिरफ्तार
खंडेरों में छुपे हुए
किसी तहखाने में अजाने
खोजते हैं किंवदन्त-खज़ाना
और इस पागल-सी खोज को
कहते हम सत्यानुसन्धान
-फजूल बात है
जब तक न चाय मिले
हमारी न होती कभी
हाय ! सुप्रभात है !!

2. कायरता व साहस के बीच

कायरता व साहस के--
जिन्दा हूँ बीच मैं,
पूनों और मावस की
निन्दा में मस्त रह,
सूरज और चन्दा से
बहुत-बहुत डरता हूँ !!
इसीलिए कभी-कभी
उँगली फिराने से
होंठ मुझे अपने ये
उस गोरी महिला के
बालदार होंठों-से लगते हैं,
जो महिला
कुलशील-प्रदर्शन हित
घर के कुछ सत्यों को ढांककर
अन्य के 'तथ्यों' का उद्घाटन करती है,
इसीलिए, स्वर को मैं यथा-साध्य
भद्रता की ललित
तडिल्लतायों में ऊँचा उठाता हुआ
आँखें लाल करके भी मुस्काता रहता हूँ ।

सभ्य हूँ, सुसंस्कृत हूँ
आरामकुर्सियाँ चार
डाल दालान में
मित्रों के सम्मुख मैं
नित्य सत्य बनता हूँ
उग्र बहुत बनता हूँ
(सूर्य की उपमा ध्वन्यर्थ भरी
चन्द्र-किरन-उत्प्रेक्षा-)
अनदेखे हिमालय की अर्थ-भरी
चित्रात्मक समीक्षा कर
सफलता का मोर-मुकुट
खूब पहन लेता हूँ
(संस्कृति की
व्याख्या का
लैसंस
पास मेरे है)

डरता हूँ पग-पग मैं,
डगमग है मति इतनी----
आंखों में
उलट-पुलट होते है
मकान-घर-भवन सभी ।
(मिर्गी नित आती'''
ज्वलत् रक्त अग्नि ज्वाल लाल देख
गहन जल अथाह नील ताल देख
सिर इतना चकराता कि
अभी-अभी गिरूँगा मैं)

यद्यपि कर पाता मैं
अपने हित उन्नति के
लिए न कुछ
(बड़े-बड़े मगरमच्छ
चट करते बीच में
फेंके गये दाने जो मेरे हित)
फिर भी देहान्त तक
जीवन-आयोजना बनाता हूँ
और इसी अनबूझे धतूरे के
ज़हरीले नशे में हाय
मुर्गी के नपुंसक पंख फड़फड़ाता हुआ
उड़ता हूँ उस बौने वृक्ष तक
किन्तु लाल कलगी से अपने ही,
अकस्मात् डरकर मैं
वापिस ज़मीन पर सिहर उतर आता हूँ !!
अभी मुझे कई बार
देने हैं अंडे जो
दानव के पेट में विवश चले जायेंगे ।
बनेंगे न कभी मुर्ग-मुर्गी वे
और मुझे किसी एक
अनपेक्षित पल में ही
हाय ! हाय !
मृत्यु-कष्ट-ग्रस्त-त्रस्त होना है !!
चाकू कलेजे में
घुसेगा और
अंधेरे के सघन-पर्त-परदे में
सांस बन्द होगी ही ।

तब तक किन्तु
जीना है !!
साहस व कायरता
के बीच मुझे
ज़िन्दा ही रहना है !!
कल तक यदि रह सका मैं जीवित
एक और कविता लिख डालूँगा अनसोची अनकही ।

3. ये आये, वो आये

(1)
ये आये, वो आये, ये चले आये
नोचते चले गये
चिंदी खींच चर्र से फाड़ते चले गये
मेरा बुश-कोट अब लत्तर है
उनके मैल-पसीने के हाथों से
लगातार बद से बदतर है
वे साहब हैं
मेरे इस बुश-कोट की आस्तीनें गायब हैं!!

(2)
मैंने उसे खूंटी से उतार
दूर फेंक दिया
फिंका कि दूरियां पार कर तिरकर वह
घूरे के पास एक
सूखी हुई तुलसी से चिपककर बैठ गया
पत्ती-बिन शाखों की तीलियों पर जा लटका
उलझकर फैल गया
उलटी रखी हुयी झाड़ू-सी तुलसी पर
बुश-कोट इज्जत का
कांटों से खेल गया
मुझको फ़ज़ीहत में
अजीब ढकेल गया !!

(3)
किताबें पढ़ता हूँ लगातार
सूने में देखता रहता हूँ
कि मेरे ग़रीब उस कपड़े को क्या हुआ
कि मुझसे आज़ाद हो
घूरे पर खड़ी हुई तुलसी से किया प्यार

लगातार !!

(4)
इतने में दसवीं मंज़िल की सफ़ेद छत पर से
शिम्पैंज़ी
आता है सामने
हाथ में एक बड़ा पपीता है
दूसरे में पुस्तक है, गीता है ।
पढ़ता है ज़ोर से
सब लोग तमाशा देखते हैं, शोर
सुनते हैं, जगत् थरथराता है !!

(5)
और मैं बिजली के खंभे पर सहसा चढ़ जाता हूँ
उंचे बढ़ जाता हूँ !!
कहता हूँ मेरा बुशकोट मुझे ला दो तो
मैं जो सोया हुआ हूँ मुझको जगा दो तो
उगा दो तो !!

(6)
शिम्पैंज़ी-गीता के जितने भी शब्द हैं
उनका मैं अर्थ जब उलटाकर सोचता
तब वाक्य बन जाते हैं
मेरे तन-मन के इलेक्ट्रान
नाचने लगते हैं,
उन वाक्यों को पढ़ने और बाँचने लगते हैं !!

(7)
अजीब तमाशा है,
कहता वह कीश मुझे
मैं अनस्तित्व हूँ
तुम्हारे अस्तित्व का एक खण्ड-तत्तव हूँ
तुम मुझे बाँटते रहते हो
और मैं बँटता चला जाता हूँ
एक से दूसरे के पास
दूसरे से तीसरे के पास
बंटता और बढ़ता चला जाता हूँ
मैं हूँ आत्म-संहार की शक्ति
पुरानी विरक्ति और भक्ति हूँ !!

(8)
इसलिए तुमने जो बुशकोट पहना था
सिर्फ़ एक गहना था
उसको तुम्हारे ही लोगों ने तोड़ दिया
और वह इज्जत का प्रतीक अब तुमसे आज़ाद हुआ
घूरे पर तुलसी पर बैठ गया
वह तुलसी जो उलटी रखी हुई
झाड़ू-सी घूरे के पास खड़ी हुई है
क्योंकि अध्यात्म के चोगे सब
अकादमी-कुर्सी पर शोभित हैं
इसलिए तुलसी वह निन्दित है !!
ऐसा एक चोगा अब तुम भी खुद सिलवा लो !

(9)
बिजली के खम्भे के सिरे पर चढ़ करके
ऊँचा बैठा हुआ
वह जो मैं खुद हूँ
धक्के से नीचे गिर पड़ता हूँ
एक आग धरती के भीतर से
अकस्मात् उभर-उभर उठ आती है
मैं फैल जाता हूँ
जलकर मैं सिर्फ़ एक गर्मी-सा लहराता
लहराता रहता हूँ !!

(10)
हवा में थोड़ा-सा कांप उठा मुस्काया !
छा गया !!
उलटी रखी झाड़ू-सी झाड़ी-सी तुलसी को
शायद वह भा गया !!
लेकिन मैं पूछता हूँ ओ तुलसी
तू क्योंकर मूर्ख हुई
आज जहाँ ढेर-ढेर घूरा है वहाँ कभी आँगन था
बच्चों का जन-मन था
तू क्योंकर सूख गई !!
आज तेरे इस जमाने में तेरे न होने का
दु:ख मुझे अब भी है
इसलिए, मेरा उत्क्षिप्त अब धारण कर
मेरे इस होने का पूरा निवारण कर ।

4. भाग गयी जीप

भाग गयी जीप, तुम
टापते खड़े रहे
हाय ! अपने-आप पर
झींख-झख मारते
व कांपते खड़े रहे
ठेलमठेल धकापेल
भीड़ में भी बियाबान
सड़क एक सुनसान
और तुम ज़मीन में
गड़े रहे, खड़े रहे
खड़े रहे, खड़े रहे !

और यूँ ही अकस्मात्
निज के ही गाल पर
चपत एक जड़ दी
थप्पड़ एक मार ली
निज के गाल पर !!

"फोड़ो मत नारियल
शनिश्चर के सामने
मेरा भाल फोड़ लो
ईश्वर के सामने" अभागे व भयंकर
वचन ये तुम्हारे
गड़ गये दिल में इस
दिमाग में हमारे

सच तो है, सच तो है
ठेलमठेल धकापेल !!

छूट गयी बस वह
चल दिये आगे लोग
बढ़ गये आगे लोग
फूल गये बढ़कर
फल गये चढ़कर !!
अरे, तुम्हें पीछे छोड़
नये-नये मोड़ पर
बढ़ने लगी बस वह ।
खूब भागी, खूब दौड़ी
पहाड़ी के पास वह ।

सच तो है कहना
ग़लत किन्तु भावना
कि जिसकी फ़िलासफ़ी--
बस में ही ठुंस जाना ज़िन्दगी की जीत है
व इस घिनी कसौटी पर कसकर
हावी हो गया मन अत:
यह आत्म-निन्दा स्वर!!
ग़लत यह दर्शन
ग़लत यह भावना

सचमुच यदि तुम
चढ़ जाते बस में उस
तुम्हारी ही प्यारी इस
झाड़-तले झोपड़ी
के लिए तुम हीन-रस
हीन-चित हीन-सत्
उसी समय हीन-मति
तत्काल सिद्ध होते
वह तुम्हें कभी नहीं
अपने ठण्डे प्याऊ पर
स्नेह से पिलाती जल
ह्रदय का, प्राण का !!
तुममें कुछ
अच्छाई ही शेष थी
इसीलिए घबरा गये
पकड़ न सके बस
और वह छूट गयी
पीछे रह गये तुम !!

उन्नति के चक्करदार
लोहे के घनघोर
जीने में अन्धकार !!
गुम कई सीढ़ियाँ हैं
भीड़ लेकिन खूब है
बड़ी ठेलमठेल है
ऊपर की मंजिल तक
पहुँचने में बीच-बीच
टूटी हुयी सीढ़ियों में
कुछ फंस गये कुछ
धड़ाम-से नीचे गिर
मर गये सचमुच

प्रगति के चक्करदार
लोहे के घनघोर
जीने में सांस रुक
जाने से स्वर्ग धाम
कई पहुँच गये प्राण !!

बस मिस हो गयी
कर गये मिस तुम
बहुत अच्छा हुआ यह
प्राणों में हमारे
समासीन पूर्ण तुम

समय के मारे तुम
केवल हमारे हो,
केवल हमारे हो !!

5. ओ मसीहा

ओ मसीहा !!
काल-गिरि-शिखर बैठे
तुम !!
पलकों में रमे विश्व-स्वप्नों की
विस्तार-दृश्यों की
सांन्धय-स्वर्ण छाया ने
बदरंग घुमावदार
सियाह तकलीफ़देह
यथार्थ को, रंग दिया !!
और हमारे लिए
तुम्हारा वह तो रंग-स्वप्न-वैभव हाय
पाप-भार बन गया
मात्र ज्यामिति का
रेखाकृति-समस्या-रूप !!
अजीब सरदर्द
इतिहास-स्वप्न
विश्व-दृश्य-रंगों ने
भयानक ऊँचाई व
निचाई के
उतार-चढ़ाव भरे
खाई-खड्डवाले इस गुंजान प्रदेश को
मनोहर बना दिया !!
सुन्दर तुम्हारे लिए
अरे हम 'हम' होते हुए भी
दम-खम होते हुए भी तुमसे लड़ना ही नहीं लड़ पड़ना है !!
इसलिए कि
तुम्हारा विश्व-स्वप्न
काल-दृश्य संध्या-सी विशाल
झांक मारता है
उषा-सा चमचमाता है
फ़ज़ूल गुलाल का अंचल पसारता
बदरंग यथार्थ पर !!

बदरंग यथार्थ
विद्रूप अर्थ
आ, छाती में जाग
तू भी सही है
पिता ने पाला
पर तूने पोसा है तुझी को पाया है
ज़हरीली नीली इस स्याही से
चेहरा यह धोया है !!
पूर्णता के स्वप्न की विशालतम मिथ्या ने
अपूर्ण को, फटे को, जीर्ण को
अपमानित भी खूब किया है की
भयानक उभारा है

मनोहर तुम्हें ज़रूर
दीखता होगा यह विश्व,
सांध्य मेघों में बैठे तुम
लेकिन मसीहा ओ,
पेचीदा चक्करदार हमारे इस दर्रे को
हमें पार करना है
हाँफते हुए चढ़ना है चढ़ान
उतार पार करना है !!
बिल्कुल ही अनिश्चित कि
हम मरेंगे नहीं
कि हमारी देह
निचाई के खड्डे में पड़ी हुई
गिद्ध नही खायेगा ।

फिर भी हम
डरते नहीं हमारी इस पीढ़ी के
घोर यथार्थ से,
तुम्हारे खयालों से
लेकिन खूब डरते हैं ।
बहुत बुरा लगता है कि
तुमसे उपजकर ही
ओ मसीहा
तुमने अपने पापों का भार
हमारी ही पीठ पर उतारा है ।
यही विरासत है,
ओ मसीहा
तुम्हारे इस ऋण को
चुकाना असम्भव !!
इसीलिए नमन है !!
चला मैं,
अब तुम
मुझे न अपने कन्धों पर
उठाकर बालक-सा बैठाकर
अपनी दिशा में न
ले जा सकोगे यह
निश्चित ही समझो अब !!

6. मीठा बेर

हज़ारों फ़्लैशलाइट-रेखाएं
सुदूर मेघों पर
तुम्हारी कविताएँ लिखती हैं
रंगीन अक्षरों में!!
हज़ारों फ़्लैशलाइटें,
जो तुम ने मंगायी हैं दूर-स्थित देशों से
जो तुमने बनायी हैं अपने आवेश -
प्रकाशन के लिए
वे निधि तुम्हारी हैं!!
किन्तु सच जान लो
कि निधि तुम्हारी यह
कि ये फ़्लैशलाइटें
और उनका विश्वव्यापी प्रभाव
यह रौब-दाब
यहीं रह जायेगा
व अपने ही जीते जी
यहीं मर जाओगे
व द्युति- अक्षरों में लिखा हुआ रश्मि-काव्य
यहीं बुझ जायेगा, गुल हो जायेगा
न तुम रहोगे, न तुम्हारा शोर।
एक भूरा और धूलभरा
गरम व भूलभरा
दुपहर-उभार का दुकूल
फैल जायेगा
मैं भी मर जाऊँगा नामहीन
फिर भी मैं
पुश्त-दर-पुश्त
पीढ़ी-दर-पीढ़ी की देह में
शिराओं में
लाल-लाल ख़ून बन
बहता ही रहूँगा ---
प्रकाशमान लाल रक्त नामहीन।
कारण कि राह पर
खड़ा एक
जंगली
व कंटीला, व्यक्तित्वहीन,
मीठा बेर-झाड़ हूँ मैं
पत्थर मार-मारकर मुझे खाया गया है
मुझे तोड़ा गया है क्रूरता से
और मेरे बेरों को
बच्चों ने, राहगीरों ने, बूढ़ों ने, स्त्रियों ने
बहुत-बहुत पसंद किया!!
और इस तरह मैं उनके खून में बसा हूँ ,
बेरों में इकट्ठा
सारी ज्ञान-रस-राशि
लाखों की रगों में बह रही है
वीर्य बन रही है
ओजस बन गयी है!!
मुझे निजत्व-प्रकाश-हित
फ़्लैशलाइटों व मेघों व व्योम की
ज़रुरत ही नहीं है!!
स्वयं का प्रकाशन नहीं करता
मैं तो सिर्फ़ फैलता हूँ बहता हूँ ख़ून में!!
क्योंकि मैं एक बेर का झाड़ हूँ
जंगली और कंटीला
किन्तु मीठा!!

7. कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं

कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं –
'सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम!
तरक़्क़ी के गोल-गोल
घुमावदार चक्करदार
ऊपर बढ़ते हुए ज़ीने पर चढ़ने की
चढ़ते ही जाने की
उन्नति के बारे में
तुम्हारी ही ज़हरीली
उपेक्षा के कारण, निरर्थक तुम, व्यर्थ तुम!!'

कटी-कमर भीतों के पास खड़े ढेरों और
ढूहों में खड़े हुए खंभों के खँडहर में
बियाबान फैली है पूनों की चाँदनी,
आँगनों के पुराने-धुराने एक पेड़ पर।
अजीब-सी होती है, चारों ओर
वीरान-वीरान महक सुनसानों की
पूनों की चाँदनी की धूलि की धुंध में।
वैसे ही लगता है, महसूस यह होता है
'उन्नति' के क्षेत्रों में, 'प्रतिष्ठा' के क्षेत्रों में
मानव की छाती की, आत्मा की, प्राणी की
सोंधी गंध
कहीं नहीं, कहीं नहीं
पूनों की चांदनी यह सही नहीं, सही नहीं;
केवल मनुष्यहीन वीरान क्षेत्रों में
निर्जन प्रसारों पर
सिर्फ़ एक आँख से
'सफलता' की आँख से
दुनिया को निहारती फैली है
पूनों की चांदनी।
सूखे हुए कुओं पर झुके हुए झाड़ों में
बैठे हुए घुग्घुओं व चमगादड़ों के हित
जंगल के सियारों और
घनी-घनी छायाओं में छिपे हुए
भूतों और प्रेतों तथा
पिचाशों और बेतालों के लिए –
मनुष्य के लिए नहीं – फैली यह
सफलता की, भद्रता की,
कीर्ति यश रेशम की पूनों की चांदनी।
मुझको डर लगता है,
मैं भी तो सफलता के चंद्र की छाया मे
घुग्घू या सियार या
भूत नहीं कहीं बन जाऊँ।
उनको डर लगता है
आशंका होती है
कि हम भी जब हुए भूत
घुग्घू या सियार बने
तो अभी तक यही व्यक्ति
ज़िंदा क्यों?
उसकी वह विक्षोभी सम्पीड़ित आत्मा फिर
जीवित क्यों रहती है?
मरकर जब भूत बने
उसकी वह आत्मा पिशाच जब बन जाए
तो नाचेंगे साथ-साथ सूखे हुए पथरीले झरनों के तीरों पर
सफलता के चंद्र की छाया में अधीर हो।
इसीलिए,
इसीलिए,
उनका और मेरा यह विरोध
चिरंतन है, नित्य है, सनातन है।
उनकी उस तथाकथित
जीवन-सफलता के
खपरैलों-छेदों से
खिड़की की दरारों से
आती जब किरणें हैं
तो सज्जन वे, वे लोग
अचंभित होकर, उन दरारों को, छेदों को
बंद कर देते हैं;
इसीलिए कि वे किरणें
उनके लेखे ही आज
कम्यूनिज़्म है...गुंडागर्दी है...विरोध है,
जिसमें छिपी है कहीं
मेरी बदमाशी भी।

मैं पुकारकर कहता हूँ –
'सुनो, सुननेवालों।
पशुओं के राज्य में जो बियाबान जंगल है
उसमें खड़ा है घोर स्वार्थ का प्रभीमकाय
बरगद एक विकराल।
उसके विद्रूप शत
शाखा-व्यूहों निहित
पत्तों के घनीभूत जाले हैं, जाले हैं।
तले में अंधेरा है, अंधेरा है घनघोर...
वृक्ष के तने से चिपट
बैठा है, खड़ा है कोई
पिशाच एक ज़बर्दस्त मरी हुई आत्मा का,
वह तो रखवाला है
घुग्घू के, सियारों के, कुत्तों के स्वार्थों का।
और उस जंगल में, बरगद के महाभीम
भयानक शरीर पर खिली हुई फैली है पूनों की चांदनी
सफलता की, भद्रता की,
श्रेय-प्रेय-सत्यं-शिवं-संस्कृति की
खिलखिलाती चांदनी।
अगर कहीं सचमुच तुम
पहुँच ही वहाँ गए
तो घुग्घू बन जाओगे।
आदमी कभी भी फिर
कहीं भी न मिलेगा तुम्हें।
पशुओं के राज्य में
जो पूनों की चांदनी है
नहीं वह तुम्हारे लिए
नहीं वह हमारे लिए।
तुम्हारे पास, हमारे पास,
सिर्फ़ एक चीज़ है –
ईमान का डंडा है,
बुद्धि का बल्लम है,
अभय की गेती है
हृदय की तगारी है – तसला है
नए-नए बनाने के लिए भवन
आत्मा के,
मनुष्य के,
हृदय की तगारी में ढोते हैं हमीं लोग
जीवन की गीली और
महकती हुई मिट्टी को।
जीवन-मैदानों में
लक्ष्य के शिखरों पर
नए किले बनाने में
व्यस्त हैं हमीं लोग
हमारा समाज यह जुटा ही रहता है।
पहाड़ी चट्टानों को
चढ़ान पर चढ़ाते हुए
हज़ारों भुजाओं से
ढकेलते हुए कि जब
पूरा शारीरिक ज़ोर
फुफ्फुस की पूरी साँस
छाती का पूरा दम
लगाने के लक्षण-रूप
चेहरे हमारे जब
बिगड़ से जाते हैं –
सूरज देख लेता है
दिशाओं के कानों में कहता है –
दुर्गों के शिखर से
हमारे कंधे पर चढ़
खड़े होने वाले ये
दूरबीन लगा कर नहीं देखेंगे –
कि मंगल में क्या-क्या है!!
चंद्रलोक-छाया को मापकर
वहाँ के पहाड़ों की उँचाई नहीं नापेंगे,
वरन् स्वयं ही वे
विचरण करेंगे इन नए-नए लोकों में,
देश-काल-प्रकृति-सृष्टि-जेता ये।
इसलिए अगर ये लोग
सड़क-छाप जीवन की धूल-धूप
मामूली रूप-रंग
लिए हुए होने से
तथाकथित 'सफलता' के
खच्चरों व टट्टुओं के द्वारा यदि
निरर्थक व महत्वहीन
क़रार दिए जाते हों
तो कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं।
सामाजिक महत्व की
गिलौरियाँ खाते हुए,
असत्य की कुर्सी पर
आराम से बैठे हुए,
मनुष्य की त्वचाओं का पहने हुए ओवरकोट,
बंदरों व रीछों के सामने
नई-नई अदाओं से नाच कर
झुठाई की तालियाँ देने से, लेने से,
सफलता के ताले ये खुलते हैं,
बशर्ते कि इच्छा हो
सफलता की,
महत्वाकांक्षा हो
अपने भी बरामदे
में थोड़ा सा फर्नीचर,
विलायती चमकदार
रखने की इच्छा हो
तो थोड़ी सी सचाई में
बहुत-सी झुठाई घोल
सांस्कृतिक अदा से, अंदाज़ से
अगर बात कर सको –

भले ही दिमाग़ में
ख़्यालों के मरे हुए चूहे ही
क्यों न हों प्लेग के,
लेकिन, अगर कर सको
ऐसी जमी हुई ज़बान-दराजी और
सचाई का अंग-भंग
करते हुए झूठ का
बारीक सूत कात सको
तो गतिरोध और कंठरोध
मार्गरोध कभी भी न होगा फिर
कटवा चुके हैं हम पूंछ-सिर
तो तुम ही यों
हमसे दूर बाहर क्यों जाते हो?
जवाब यह मेरा है,
जाकर उन्हें कह दो कि सफलता के जंग-खाए
तालों और कुंजियों
की दुकान है कबाड़ी की।
इतनी कहाँ फुरसत हमें –
वक़्त नहीं मिलता है
कि दुकान पर जा सकें।
अहंकार समझो या सुपीरियारिटी कांपलेक्स
अथवा कुछ ऐसा ही
चाहो तो मान लो,
लेकिन सच है यह
जीवन की तथाकथित
सफलता को पाने की
हमको फुरसत नहीं,
खाली नहीं हैं हम लोग!!
बहुत बिज़ी हैं हम।
जाकर उन्हें कह दे कोई
पहुँचा दे यह जवाब;
और अगर फिर भी वे
करते हों हुज्जत तो कह दो कि हमारी साँस
जिसमें है आजकल
के रब्त-ज़ब्त तौर-तरीकों की तरफ़
ज़हरीली कड़ुवाहट,
ज़रा सी तुम पी लो तो
दवा का एक डोज़ समझ,
तुम्हारे दिमाग़ के
रोगाणु मर जाएंगे
व शरीर में, मस्तिष्क में,
ज़बर्दस्त संवेदन-उत्तेजन
इतना कुछ हो लेगा
कि अकुलाते हुए ही, तुम
अंधेरे के ख़ीमे को त्यागकर
उजाले के सुनहले मैदानों में
भागते आओगे;
जाकर उन्हें कह दे कोई,
पहुँचा दे यह जवाब!!

8. सहर्ष स्वीकारा है

ज़िन्दगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है;
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है।
गरबीली ग़रीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़्ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
मौलिक है, मौलिक है
इसलिए के पल-पल में
जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है--
संवेदन तुम्हारा है !!

जाने क्या रिश्ता है,जाने क्या नाता है
जितना भी उँड़ेलता हूँ,भर भर फिर आता है
दिल में क्या झरना है?
मीठे पानी का सोता है
भीतर वह, ऊपर तुम
मुसकाता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है!

सचमुच मुझे दण्ड दो कि भूलूँ मैं भूलूँ मैं
तुम्हें भूल जाने की
दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या
शरीर पर,चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं
झेलूँ मै, उसी में नहा लूँ मैं
इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है।
नहीं सहा जाता है।
ममता के बादल की मँडराती कोमलता--
भीतर पिराती है
कमज़ोर और अक्षम अब हो गयी है आत्मा यह
छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है
बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नही होती है !!!

सचमुच मुझे दण्ड दो कि हो जाऊँ
पाताली अँधेरे की गुहाओं में विवरों में
धुएँ के बाद्लों में
बिलकुल मैं लापता!!
लापता कि वहाँ भी तो तुम्हारा ही सहारा है!!
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
या मेरा जो होता-सा लगता है, होता सा संभव है
सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है
अब तक तो ज़िन्दगी में जो कुछ था, जो कुछ है
सहर्ष स्वीकारा है
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है ।

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