अपनी बात आत्मिका : महादेवी वर्मा

Apni Baat Aatmika : Mahadevi Verma

जिस प्रकार शरीर विज्ञान का विशेषज्ञ चिकित्सक भी अपने शरीर की शल्य क्रिया में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार मनोविज्ञान का ज्ञाता लेखक भी अपने सृजनात्मक मनोवेगों के विश्लेषण में सफल नहीं हो पाता। सृजनात्मक रचना में प्रत्यक्ष रूप से चेतना होती है, परन्तु अप्रत्यक्ष कारणों में कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान अवचेतन भी देता है और कुछ पराचेतन भी। इस प्रकार चेतना के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनेक स्तर सक्रिय होकर, जिस सृजनात्मक आवेग-संवेग की रचना करते हैं, उसका तटस्थ विश्लेषण एक प्रकार से असम्भव ही है और यदि वह किसी प्रकार सम्भव भी हो सके तो रचनाकार और विशेषतः कवि की रचना- सुख से वंचित हो जाना पड़ेगा, जो उसे रचना से भी विमुख कर सकता है।

घर-जीवन में अन्तर्बाह्य और परिस्थितियाँ कुछ ऐसी भी रहती हैं, जिनके विषय में कुछ कहा-
सुना जा सकता है। मूलभूत या जन्मजात संस्कार का विषय जटिल है, क्योंकि उसकी स्थिति
अवचेतन में अधिक रहती है और बालकपन के विधि-निषेध उसे धूमिल करते रहते हैं। माता-
पिता, समाज, शिक्षक आदि उसे अपने और परम्परा के अनुकूल बनाने में इतने प्रयत्नशील
रहते हैं कि बड़ा होने तक वह या तो जन्मजात संस्कारों को भूल जाता है या उनका दमन
करना सीख जाता है। संस्कारों का जो अंश रुचि के रूप में उसके चेतन में व्यक्त होता है,
वह प्रायः उसके अबोधपन में व्यक्त हो जाता है और उसे भी विधि-निषेधों का अनुशासन
परिवर्तित कर देता है। बालक और उसके वयस्क रूप में वही अन्तर आ जाता है जो बिना
बुने ताने-बाने में तथा उससे बुने और विशेष काट-छाँट से मिले वस्त्र में मिलेगा, जिसमें
एक को दूसरे में पहचानना कठिन हो जाता है।

इस सम्बन्ध में मैं विशेष भाग्यवान रही हूँ। एक तो मेरे माता-पिता उदार प्रकृति के थे
और बच्चों पर कठोर अनुशासन उनके स्वभाव के प्रतिकूल पड़ता था। दूसरे, कई पीढ़ियों
से कन्या का अभाव झेलने के उपरान्त विशेष मनौती के परिणाम में मुझे पाने के कारण
मुझ पर विधि-निषेध का भार कम डाला गया, अतः जन्मजात संस्कार दमित कम हुए।
ऐसे परिवेश में मेरी विद्रोही प्रकृति अबाध विकसित होती रही और मैं वह बन सकी जो
उस युग की कन्या या नारी के लिए बनना असम्भव नहीं तो कष्टसाध्य अवश्य था। मेरे
जन्म को जब परिवार कुलदेवी दुर्गा का अनुग्रह मानता था तब वह मेरी विद्रोही प्रकृति
को उसी देवी का वरदान मानते रहे हों तो आश्चर्य की बात नहीं।

जिस युग में माता-पिता के संरक्षण से बाहर बालिका को रखना बहुत निन्दा का कारण
बन जाता था उसी में मैंने पिताजी से, (जो प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्र रहे थे) प्रयाग
की चर्चा सुनकर वहीं पढ़ने जाने का हठ किया और अन्त में मेरे हठ की ही विजय रही।
उस बीसवीं शती के प्रथम दशक में बालिकाओं को रामचरित मानस से अधिक पढ़ाना
भी परम्परा-विरुद्ध था, फिर किसी दूर नगर के छात्रावास में रखकर पढ़ना तो अकल्पनीय
ही कहा जाएगा।

उसके उपरान्त स्नातक होने से पहले ही मैंने जो यायावरी आरम्भ की, उसमें बदरीनाथ,
केदार आदि पर्वतीय यात्राओं के साथ रामेश्वरम, कन्याकुमारी, पुरी आदि घूमकर रमण
महर्षि का तथा बाबू का आश्रम भी देख डाला। फिर बापू के आह्वान पर अपने शरीर
से सोना-चाँदी उतार कर माँ, दादी, नानी के सलमे-सितारे के काम वाले कीमती लहँगे-
दुपट्टे भी जला डाले। इन परम्परा-विरुद्ध कार्यों की अति की सीमा वहाँ हुई जब मैंने
भिक्षुणी होने का निश्चय व्यक्त किया।

अपने ही विद्रोही स्वभाव के कारण ही मैं भिक्षुणी नहीं हो सकी, क्योंकि मेरा मन ऐसे
साधक से दीक्षा लेने को प्रस्तुत नहीं हुआ जो स्त्री के मुख-दर्शन तक ही सीमित था।
आश्चर्य तो यह है कि युगयुगान्तर से हमारा तप और साधना का क्षेत्र नारी के आतंक
से आतंकित रहता आया है, चाहे वह मानवी हो या अप्सरा। बापू का उपदेश कि ‘‘तू
अपनी मातृभाषा से अपनी गरीब बहिनों को शिक्षा देने का कार्य करे, तो अच्छा है,’’
मेरे मन के अनुकूल सिद्ध हुआ और तब अर्थ और प्रतिष्ठा की दृष्टि प्रलोभनीय
विश्वविद्यालय के आमन्त्रण को स्वीकार कर मैंने कुछ संबलहीन विद्यार्थिनियों
के साथ साधनहीन विद्यापीठ को अपना कर्मक्षेत्र बनाया, जिसके सारे अभाव मेरे
स्नेह और उनकी श्रद्धा ने भर दिए।

आज मेरा मन उन व्यक्तियों के प्रति प्रणत है, जिन्होंने अपने विश्वास और परम्परा
की अवज्ञा कर मुझे ऐसी मुक्ति दी, जिसमें मेरा अन्तर्बाह्य-विकास सहज और
स्वाभाविक हो गया।

लेखन की कथा भी बहुत कुछ ऐसी ही है। ब्राह्म-मुहूर्त में ही मुझे ठण्डे पानी से
नहलाकर माँ अपने साथ पूजा के लिए बैठा लेती थीं। मैंने अपने कष्ट की बात
न कर उसके ठाकुर जी पर ही सहानुभूति प्रकट की और तुकबन्दी की—
ठण्डे पानी में नहलातीं
ठंडा चंदन इन्हें लगातीं,
इनका भोग हमें दे जातीं,
फिर भी कभी नहीं बोले हैं
माँ के ठाकुर जी भोले हैं।
फिर तो बार-बार ऐसी तुकबन्दियाँ होने लगीं जो मेरे विद्रोही स्वभाव को ही व्यक्त
करती थीं। जब पण्डितजी से कुछ छन्द ज्ञान प्राप्त कर लिखना आरम्भ किया तब
लिखा-
मन्दिर के पटखोलत का यह देवता तो
दृग खोलि हैं नहीं।
चन्दन फूल चढ़ाऊ भले हर्षाय कबों
अनुकूलि है नाहीं।
वेर हजारन शंखहिं फूँक यह
जागि हैं ना अरु डोलिहैं नाहीं।
प्राणन में नित बोलत है पुनि
मन्दिर में यह बोलिहैं नाहीं।
(मन्दिर के पट क्या खोलते हो, यह देवता तो आँखें नहीं खोलेगा, चन्दन फूल भले ही चढ़ाओ,
यह न हर्षित होगा न अनुकूल होगा, हजार बार शंख बजाओ पर यह न हिलेगा न जागेगा।
प्राणों में तो नित्य बोलता है, पर मन्दिर में यह नहीं बोलेगा।)

अवश्य ही माँ को कष्ट हुआ होगा, पर उन्होंने डाँटा कभी नहीं, स्नेह से समझाने का प्रयत्न
अवश्य किया। पर परिणाम कुछ नहीं हुआ। यह सब मानो ‘‘क्या पूजा या अर्चन रे, उस
असीम का सुन्दर मन्दिर मेरा लघुतम जीवन रे’’ का पूर्वगामी था।

गत छह दशकों में कविता में जितने आन्दोलन हुए हैं, उतने साहित्य की अन्य विधाओं में
नहीं हो सके। इसके अनेक आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक कारण रहे। मुझमें, आन्दोलन के
प्रभाव ने, केवल मानव-गरिमा को ही अधिक गहराई में स्पर्श किया है, अन्य किसी आस्था
विश्वास में परिवर्तन की भूमिका वे नहीं बन सके। प्रकृति के महादान में जैसे असीम धूप,
जल, हवा, मिट्टी आदि पौधे को जन्म से ही मिल जाते हैं, परन्तु वह लेता उतना ही है,
जितने में जीवन के साथ-साथ उसके रूप-रंग-रस की विशेषता बनी रहे, वैसे ही मेरे मन
से अंकुरित भाव से अपने युग का विविधरूपी परिवेश स्वीकार किया है—अपनी विशेषता
और भारतीय दृष्टि देकर आधुनिक कहलाने की इच्छा मुझे कभी नहीं हुई। समय-समय पर
मैंने छायावाद, रहस्यवाद आदि अनेक वादों पर बहुत कुछ लिखा है। यहाँ उसे दोहराने की
आवश्यकता नहीं है। ‘आत्मिका’ में मेरी ऐसी रचनाएँ संग्रहीत हैं जो मेरी जीवन-दृष्टि, दर्शन,
सौन्दर्यबोध, काव्य-दृष्टि आदि का परिचय दे सकेंगी।

-महादेवी

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