आवाज़ों के घेरे दुष्यन्त : दुष्यन्त कुमार (हिन्दी कविता)

Aawazon Ke Ghere : Dushyant Kumar

1. आग जलती रहे

एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुज़रता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छूने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ !
...प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता
आग के सम्पर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से।
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बनकर चुका,
रीता,
भटकता-
छानता आकाश !
आह ! कैसा कठिन ...कैसा पोच मेरा भाग !
आग, चारों ओर मेरे
आग केवल भाग !
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोयी-;
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकनें उठाती भाप !

अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे,
ज़िन्दगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे।

2. आज

अक्षरों के इस निविड़ वन में भटकतीं
ये हजारों लेखनी इतिहास का पथ खोजती हैं
...क्रान्ति !...कितना हँसो चाहे
किन्तु ये जन सभी पागल नहीं।

रास्तों पर खड़े हैं पीड़ा भरी अनुगूँज सुनते
शीश धुनते विफलता की चीख़ पर जो कान
स्वर-लय खोजते हैं
ये सभी आदेश-बाधित नहीं।

इस विफल वातावरण में
जो कि लगता है कहीं पर कुछ महक-सी है
भावना हो...सवेरा हो...
या प्रतीक्षित पक्षियों के गान-
किन्तु कुछ है;
गन्ध-वासित वेणियों का इन्तज़ार नहीं।

यह प्रतीक्षा : यह विफलता : यह परिस्थिति :
हो न इसका कहीं भी उल्लेख चाहे
खाद-सी इतिहास में बस काम आये
पर समय को अर्थ देती जा रही है।

3. आवाज़ों के घेरे

आवाज़ें...
स्थूल रूप धरकर जो
गलियों, सड़कों में मँडलाती हैं,
क़ीमती कपड़ों के जिस्मों से टकराती हैं,
मोटरों के आगे बिछ जाती हैं,
दूकानों को देखती ललचाती हैं,
प्रश्न चिह्न बनकर अनायास आगे आ जाती हैं-
आवाज़ें !
आवाज़ें, आवाज़ें !!

मित्रों !
मेरे व्यक्तित्व
और मुझ-जैसे अनगिन व्यक्तित्वों का क्या मतलब ?
मैं जो जीता हूँ
गाता हूँ
मेरे जीने, गाने
कवि कहलाने का क्या मतलब ?
जब मैं आवाज़ों के घेरे में
पापों की छायाओं के बीच
आत्मा पर बोझा-सा लादे हूँ;

4. अनुकूल वातावरण

उड़ते हुए गगन में
परिन्दों का शोर
दर्रों में, घाटियों में
ज़मीन पर
हर ओर...

एक नन्हा-सा गीत
आओ
इस शोरोगुल में
हम-तुम बुनें,
और फेंक दें हवा में उसको
ताकि सब सुने,
और शान्त हों हृदय वे
जो उफनते हैं
और लोग सोचें
अपने मन में विचारें
ऐसे भी वातावरण में गीत बनते हैं।

5. दृष्टान्त

वह चक्रव्यूह भी बिखर गया
जिसमें घिरकर अभिमन्यु समझता था ख़ुद को।
आक्रामक सारे चले गये
आक्रमण कहीं से नहीं हुआ
बस मैं ही दुर्निवार तम की चादर-जैसा
अपने निष्क्रिय जीवन के ऊपर फैला हूँ।
बस मैं ही एकाकी इस युद्ध-स्थल के बीच खड़ा हूँ।

यह अभिमन्यु न बन पाने का क्लेश !
यह उससे भी कहीं अधिक क्षत-विक्षत सब परिवेश !!
उस युद्ध-स्थल से भी ज़्यादा भयप्रद...रौरव
मेरा हृदय-प्रदेश !!!

इतिहासों में नहीं लिखा जायेगा।
ओ इस तम में छिपी हुई कौरव सेनाओ !
आओ ! हर धोखे से मुझे लील लो,
मेरे जीवन को दृष्टान्त बनाओ;
नये महाभारत का व्यूह वरूँ मैं।
कुण्ठित शस्त्र भले हों हाथों में
लेकिन लड़ता हुआ मरूँ मैं।

6. एक यात्रा-संस्मरण

बढ़ती ही गयी ट्रेन महाशून्य में अक्षत
यात्री मैं लक्ष्यहीन
यात्री मैं संज्ञाहत।

छूटते गये पीछे
गाँवों पर गाँव
और नगरों पर नगर
बाग़ों पर बाग़
और फूलों के ढेर
हरे-भरे खेत औ’ तड़ाग
पीले मैदान
सभी छूटते गये पीछे...

लगता था
कट जायेगा अब यह सारा पथ
बस यों ही खड़े-खड़े
डिब्बे के दरवाज़े पकड़े-पकड़े।

बढ़ती ही गयी ट्रेन आगे
और आगे-
राह में वही क्षण
फिर बार-बार जागे
फिर वही विदाई की बेला
औ’ मैं फिर यात्रा में-
लोगों के बावजूद
अर्थशून्य आँखों से देखता हुआ तुमको
रह गया अकेला।

बढ़ती ही गयी ट्रेन
धक-धक धक-धक करती
मुझे लगा जैसे मैं
अन्धकार का यात्री
फिर मेरी आँखों में गहराया अन्धकार
बाहर से भीतर तक भर आया अन्धकार।

7. कौन-सा पथ

तुम्हारे आभार की लिपि में प्रकाशित
हर डगर के प्रश्न हैं मेरे लिए पठनीय
कौन-सा पथ कठिन है...?
मुझको बताओ
मैं चलूँगा।

कौन-सा सुनसान तुमको कोचता है
कहो, बढ़कर उसे पी लूँ
या अधर पर शंख-सा रख फूँक दूँ
तुम्हारे विश्वास का जय-घोष
मेरे साहसिक स्वर में मुखर है।

तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपक सरीखा
मुझे बतलाओ
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !

8. साँसों की परिधि

जैसे अन्धकार में
एक दीपक की लौ
और उसके वृत्त में करवट बदलता-सा
पीला अँधेरा।
वैसे ही
तुम्हारी गोल बाँहों के दायरे में
मुस्करा उठता है
दुनिया में सबसे उदास जीवन मेरा।
अक्सर सोचा करता हूँ
इतनी ही क्यों न हुई
आयु की परिधि और साँसों का घेरा।

9. सूखे फूल : उदास चिराग़

आज लौटते घर दफ़्तर से पथ में कब्रिस्तान दिखा
फूल जहाँ सूखे बिखरे थे और’ चिराग़ टूटे-फूटे
यों ही उत्सुकता से मैंने थोड़े फूल बटोर लिये
कौतूहलवश एक चिराग़ उठाया औ’ संग ले आया

थोड़ा-सा जी दुखा, कि देखो, कितने प्यारे थे ये फूल
कितनी भीनी, कितनी प्यारी होगी इनकी गन्ध कभी,
सोचा, ये चिराग़ जिसने भी यहाँ जलाकर रक्खे थे
उनके मन में होगी कितनी गहरी पीड़ा स्नेह-पगी
तभी आ गयी गन्ध न जाने कैसे सूखे फूलों से
घर के बच्चे ‘फूल-फूल’ चिल्लाते आये मुझ तक भाग,
मैं क्या कहता आखिर उस हक़ लेनेवाली पीढ़ी से
देने पड़े विवश होकर वे सूखे फूल, उदास चिराग़

10. एक मन:स्थिति

शान्त सोये हुए जल को चीरकर हलचल मचाती
अभी कोई तेज़ नौका
गयी है उस ओर,

इस निपट तम में अचानक
आँधियों से भर गया आकाश
बिल्कुल अभी;

एक पंछी
ओत के तट से चिहुँककर
मर्मभेदी चीख भरता हुआ भागा है,

औ' न जाने क्यों
तुझे लेकर फिर हृदय में
एक विवश विचार जागा है ।

11. झील और तट के वृक्ष

यह बीच नगर में शीत
(नगर का अंन्तस्तल)
यह चारों बोर खजूरों, बाँसों के झुरमुट
अनगिनत वृक्ष
इस थोड़े से जल में
प्रतिबिम्बित हैं उदास कितने चेहरे !

सुनते हैं पहले कभी बहुत जल था इसमें
प्रतिदिन श्रद्धालु नगरवासी
इसके तट पर
जल-पात्र रिक्त कर जाते थे ।

अब मौसम की गर्मी या श्रद्धा का अभाव
कुछ भी हो लेकिन जल कम होता जाता है
बढ़ती जाती है पर संख्या
प्रतिबिम्बित होनेवाले चेहरों की प्रतिदिन ।

सुनते है दस या पाँच वृक्ष थे मुश्किल से
इस नगर-झील के आस-पास
ऐसा भी सुनते है पहले हँसती थीं ये
आकृतियाँ, जो होती जाती हैं अब उदास ।

12. निर्जन सृष्टि

कुलबुलाती चेतना के लिए
सारी सृष्टि निर्जन
और...
कोई जगह ऐसी नहीं
सपने जहाँ रख दूँ ।

दृष्टि के पथ में तिमिर है
औ' हृदय में छटपटाहट
जिन्दगी आखिर कहाँ पर फेंक दूँ मैं
कहाँ रख दूँ ?

13. ओ मेरे प्यार के अजेय बोध

ओ मेरे प्यार के अजेय बोध !
सम्भव है मन के गहन गह्वरों में जागकर
तुने पुकारा हो मुझे
मैं न सुन पाया हूँ ;
-शायद मैं उस वक़्त
अपने बच्चों के कुम्हलाये चेहरों पर
दिन उगाने के लिए
उन्हें अक्षर-बोध करा रहा हूँ
-या आफ़िस की फ़ाइल में डूबा हुआ
इत्तिफ़ाक की भूलों पर
सम्भावनाओं का लेप चढ़ा रहा हूँ
-या अपनी पत्नी के प्यार की प्रतीक
चाय पी रहा हूँ !

ऐसा ही होगा
ओ मेरे प्यार के अजेय बोध,
ऐसा ही हो सकता है
क्योंकि यही क्रम मेरा जीवन है, चर्या है
वरना
मैं तुम्हारी आवाज़ नहीं
आहट भी सुन लेता था
कोलाहलों में भी जब हवा महकती थी
तो मुझे मालूम हो जाता था
कि चम्पा के पास कहीं मेरी प्रतीक्षा है ।
जब तारे चमकते थे
तो मैं समझ लेता था कि आज नींद
व्योम में आँखमिचौनी खेलेगी
और यह कि मुझे तुम्हारे पास होना चाहिए ।

ओ मेरे प्यार के अजेय बोध,
शायद ऐसा ही हो कि मेरा एहसास मर गया हो
क्योंकि मैंने क़लम उठाकर रख दी है
और अब तुम आओ या हवा
आहट नहीं होती,
बड़े-बड़े तूफ़ान दुनिया में आते हैं
मेरे द्वार पर सनसनाहट नहीं होती
... और मुझे लगता है
अब मैं सुखी हूँ-
ये चंद बच्चे, बीवी
ये थोड़ी-सी तनख्वाह
मेरी परिधि है जिसमें जीना है
यही तो मैं हूँ
इससे आगे और कुछ होने से क्या?

...जीवन का ज्ञान है सिर्फ़ जीना मेरे लिए
इससे विराट चेतना की अनुभूति अकारथ है
हल होती हुई मुश्किलें
खामखा और उलझ जाती हैं
और ये साधारण-सा जीना भी नहीं जिया जाता है
मित्र लोग कहते हैं
मेरा मन प्राप्य चेतना की कड़ुवाहट को
पी नहीं सका,
उद्धत अभिमान उसे उगल नहीं सका
और मैं अनिश्चय की स्थिति में
हारा,
उद्विग्न हुआ,
टूट गया;
शायद ये सब सच हो है।

पर मेरे प्यार के अजेय बोध,
अब इस परिस्थिति ने नया गुल खिलाया है
आक्रामक तुझे नहीं मन मुझे बनाया है
अब मेरी पलकों में स्वप्न-शिशु नहीं रोते
(यानी अब तेरे आक्रमण नहीं होते)
अब तेरे दंशन को उतनी गहराई से
कभी नहीं जीता हूँ
अब तू नहीं
मैं तेरी आत्मा को पीता हूँ
तेरे विवेक को सोखता हूँ
तुमको खाता हूँ
क्योंकि मैं बुभुक्षित हूँ,
भूखा हूँ
ओ मेरे प्यार के अजेय बोध !

14. अच्छा-बुरा

यह कि चुपचाप पिए जाएँ
प्यास पर प्यास जिए जाएँ
काम हर एक किए जाएँ
और फिर छिपाएँ
वह ज़ख़्म जो हरा है
यह परम्परा है ।

किन्तु इन्कार अगर कर दें
दर्द को बेबसी की स्वर दें
हाय से रिक्त शून्य भर दें
खोलकर धर दें
वह ज़ख़्म जो हरा है
तो बहुत बुरा है ।

15. गीत का जन्म

एक अन्धकार बरसाती रात में
बर्फ़ीले दर्रों-सी ठंडी स्थितियों में
अनायास दूध की मासूम झलक सा
हंसता, किलकारियां भरता
एक गीत जन्मा
और
देह में उष्मा
स्थिति संदर्भॊं में रोशनी बिखेरता
सूने आकाशों में गूंज उठा :
-बच्चे की तरह मेरी उंगली पकड़ कर
मुझे सूरज के सामने ला खड़ा किया ।

यह गीत
जो आज
चहचहाता है
अन्तर्वासी अहम से भी स्वागत पाता है
नदी के किनारे या लावारिस सड़कों पर
नि:स्वन मैदानों में
या कि बन्द कमरों में
जहां कहीं भी जाता है
मरे हुए सपने सजाता है-
-बहुत दिनों तड़पा था अपने जनम के लिये ।

16. विवेकहीन

जल में आ गया ज्वार
सागर आन्दोलित हो उठा मित्र,
नाव को किनारे पर कर लंगर डाल दो,

हर कुण्ठा क्रान्ति बन जाती है जहाँ पहुँच
लहरों की सहनशीलता की उसी सीमा पर
आक्रमण किया है हवाओं ने,

स्वागत ! विक्षुब्ध सिन्धु के मन का
स्वागत ! हर दुखहर आन्दोलन का

कब तक सहता रहता
अन्यायी वायु के प्रहारों को मौन यों ही
गरज उठा सागर-
विवेक-हीन जल है, मनुष्य नहीं !

17. एक आशीर्वाद

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराएँ
गाएँ।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

18. भविष्य की वन्दना

स्मपुट प्रकाश-पुंज हो तुम
मैं हूँ हिमाच्छन्न पर्वत
किरण-कोष धारे हो तुम
मैं हूँ विस्तीर्ण गर्व-उन्नत
मुझे गलानेवाली किरणें कब फेंकोगे?
धरती पर बहने का मार्ग कब दोगे?
कब करोगे मुक्त
छाती पर बसे भार से ?
हे संयमित व्यक्तित्व से नम्र, श्रुत भविष्यत !

वायु के सहारों पर टिका हुआ
कोहरा आधार है हमारा
कल्पना पर जीते हैं
गैस के गुब्बारों-से सपने
बच्चों-सी लालची हमारी आत्माओं को
निकट बुलाते हैं
...खरीदें,
पर हम रीते हैं,
हम पर भी दम्भ है महत्वाकांक्षाओं का
(जो कि ज़िन्दगी की चौहद्दी में
वेष बदल, रावण-सी घुस आईं)

खण्डित पुरुषार्थ
गाण्डीव की दुहाई देता हुआ, निष्क्रिय है
कर्म नहीं-
केवल अहंकार को जगाता है !
(आह, राम घायल हो
मायावी हिरण के तेज़ सींगों से
रह-रह कराहते हैं )
xxx
आशाएँ रही सही शीघ्र टूट जायेंगी
खीजों के फलस्वरूप
नुचे हुए पत्तों-सी नंगी डालें लहरायेंगी
(विजय-सूचिका ही उन्हें
चाहे हम समझें)

सुनो, आहत राम ने लक्ष्मण को पुकारा
-हरी गयी सीता !
…अव किसी बियाबान बन में जटायू टकरायेगा
नहीं, वायुयान पर बिठाकर ले जायेगा
अव्वल तो जटायू नहीं आज
और हो भी तो कब तक लड़ पायेगा ?
...राम युध्द ठानोंगे सामने मशीनों के ?
वानरों की सेना से !
जो कि स्वयं भूखी है आज !
अपने नगर के घरों में
मुंडेरों पर बैठकर
रोटी ले भागने की फ़िक्र में रहती है
xxx
लेकिन नहीं है भविष्यत !
भूत को
इतना तो बदलो मत,
आस्था दो
कि हम अपनी बिक्री से डरें
बल दो-दूसरों की रक्षा को-
अपहरण न करें,
दृष्टि दो
जो हम सबकी वेदना पहचानें
सबके सुख गाएँ,
आग दो
जो सोने की लंका जलाएँ ।

19. राह खोजेंगे

ये कराहें बन्द कर दो
बालकों को चुप कराओ
सब अंधेरे में सिमट आओ यहाँ नतशीश
हम यहाँ से राह खोजेंगे ।

हम पराजित हैं मगर लज्जित नहीं हैं
हमें खुद पर नहीं
उन पर हँसी आती है
हम निहत्थों को जिन्होंने हराया
अंधेरे व्यक्तिव को अन्धी गुफ़ाओं में
रोशनी का आसरा देकर
बड़ी आयोजना के साथ पहुँचाया
और अपने ही घरों में कैद करके कहा :
"लो तुम्हें आज़ाद करते हैं ।"

आह !
वातावरण में वेहद घुटन है
सब अंधेरे में सिमट आओ
और सट जाओ
और जितने जा सको उतने निकट आओ
हम यहाँ से राह खोजेंगे ।

20. सूना घऱ

सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को
पहले तो लगा कि अब आई तुम, आकर
अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर
खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को

पर कोई आया गया न कोई बोला
खुद मैंने ही घर का दरवाजा खोला
आदतवश आवाजें दीं सूनेपन को

फिर घर की खामोशी भर आई मन में
चूड़ियाँ खनकती नहीं कहीं आँगन में
उच्छवास छोड़कर ताका शून्य गगन को
पूरा घर अंधियारा गुमसुम साए हैं
कमरे के कोने पास खिसक आए हैं
सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को

21. गांधीजी के जन्मदिन पर

मैं फिर जनम लूंगा
फिर मैं
इसी जगह आउंगा
उचटती निगाहों की भीड़ में
अभावों के बीच
लोगों की क्षत-विक्षत पीठ सहलाऊँगा
लँगड़ाकर चलते हुए पावों को
कंधा दूँगा
गिरी हुई पद-मर्दित पराजित विवशता को
बाँहों में उठाऊँगा ।

इस समूह में
इन अनगिनत अचीन्ही आवाज़ों में
कैसा दर्द है
कोई नहीं सुनता !
पर इन आवाजों को
और इन कराहों को
दुनिया सुने मैं ये चाहूँगा ।

मेरी तो आदत है
रोशनी जहाँ भी हो
उसे खोज लाऊँगा
कातरता, चु्प्पी या चीखें,
या हारे हुओं की खीज
जहाँ भी मिलेगी
उन्हें प्यार के सितार पर बजाऊँगा ।

जीवन ने कई बार उकसाकर
मुझे अनुलंघ्य सागरों में फेंका है
अगन-भट्ठियों में झोंका है,
मैने वहाँ भी
ज्योति की मशाल प्राप्त करने के यत्न किये
बचने के नहीं,
तो क्या इन टटकी बंदूकों से डर जाऊँगा ?
तुम मुझकों दोषी ठहराओ
मैने तुम्हारे सुनसान का गला घोंटा है
पर मैं गाऊँगा
चाहे इस प्रार्थना सभा में
तुम सब मुझपर गोलियाँ चलाओ
मैं मर जाऊँगा
लेकिन मैं कल फिर जनम लूँगा
कल फिर आऊँगा ।

22. दो मुक्तक

1
ओ री घटा
तूने एक बूँद भेजी नहीं
ले प्यासे अधर यहाँ
कब से खड़ा हूँ मैं !

मेरी हर अन्नि तुझ तक
पहुंच कर बनी है जल
सोचा तो होता
याचक कितना बड़ा हूँ मैं !!

2
रोम-रोम पुलकित
उच्छ्वसित अधर
उठती-गिरती छाती
कम्पित स्वर
आँखों में विम्मय... !
...अभी-अभी जो मेरा तन सिहारती गई
क्या वह तेरी सांस नहीं थी
जिसने मुझे छुआ
क्या वह तेरा स्पर्श नहीं था?

23. अपनी प्रेमिका से

मुझे स्वीकार हैं वे हवाएँ भी
जो तुम्हें शीत देतीं
और मुझे जलाती हैं
किन्तु
इन हवाओं को यह पता नहीं है
मुझमें ज्वालामुखी है
तुममें शीत का हिमालय है
फूटा हूँ अनेक बार मैं,
पर तुम कभी नहीं पिघली हो,
अनेक अवसरों पर मेरी आकृतियाँ बदलीं
पर तुम्हारे माथे की शिकनें वैसी ही रहीं
तनी हुई ।

तुम्हें ज़रूरत है उस हवा की
जो गर्म हो
और मुझे उसकी जो ठण्डी !
फिर भी मुझे स्वीकार है यह परिस्थिति
जो दुखाती है
फिर भी स्वागत है हर उस सीढ़ी का
जो मुझे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है
काश ! इन हवाओं को यह सब पता होता ।

तुम जो चारों ओर
बर्फ़ की ऊँचाइयाँ खड़ी किए बैठी हो
(लीन... समाधिस्थ)
भ्रम में हो ।
अहम् है मुझमें भी
चारों ओर मैं भी दीवारें उठा सकता हूँ
लेकिन क्यों?
मुझे मालूम है
दीवारों को
मेरी आँच जा छुएगी कभी
और बर्फ़ पिघलेगी
पिघलेगी !

मैंने देखा है
(तुमने भी अनुभव किया होगा)
मैदानों में बहते हुए उन शान्त निर्झरों को
जो कभी बर्फ़ के बड़े-बड़े पर्वत थे
लेकिन जिन्हें सूरज की गर्मी समतल पर ले आई ।

देखो ना !
मुझमें ही डूबा था सूर्य कभी,
सूर्योदय मुझमें ही होना है,
मेरी किरणों से भी बर्फ़ को पिघलना है,
इसी लिए कहता हूँ-
अकुलाती छाती से सट जाओ,
क्योंकि हमें मिलना है ।

24. प्रयाग की शाम

यह गर्मी की शाम
इसका बालम बिछुड़ गया है
...इसका बालम बिछुड़ा जब से
उखड़ गये हैं शायद सुख-सपनों के डेरे
...आज हुई पगली
प्रयाग की सड़क-सड़क पर
गली-गली में
घूम रही है लम्बे काले बाल बिखेरे
(घोर उदासी भरी, पसीने से तर)
है बेहद बदनाम !
यह प्रयाग की शाम !

25. असमर्थता

पथ के बीचो-बीच खड़ी दीवार
और मैं देख रहा हूँ !

बढ़ती आती रात
चील-सी पर फैलाए,
और सिमटते जाते
विश्वासों के साए ।
तम का अपने सूरज पर विस्तार
और मैं देख रहा हूँ !

महज़ तनिक से तेज़
हवा के हुए दुधारे,
औंधे मुंह गिर पड़े,
धूल पर सपने सारे,
खिलने के क्षण में ऐसे आसार
और मैं देख रहा हूँ !

धिक् ! मेरा काव्यत्व
कि जिसने टेका माथा,
धिक् मेरा पुंसत्व
कि जिसकी कायर गाथा,
ये अपने से ही अपने की हार
और मैं देख रहा हूँ !

26. आत्मकथा

आँख जब खोली मैंने पहले-पहल
युग-युगान्तरों, का तिमिर
घनीभूत
सामूहिक
सामने खड़ा पाया ।
साँस जब ली मैंने
सदियों की सड़ाँध
वायु-लहरों पर जम-जमकर
जहर बन चुकी थी ।
पाँव जिस भूमि पर रखा उसको पदमर्दित,
अनवरत प्रनीक्षाहत,
शंकाकुल,
कातर,
कराहते हुए देखा
शापग्रस्त था मेरे ही माथे का लेखा !
मिला नहीं कोई भी सहयोगी
अपना पुंसत्वबोध खोये क्षत, संज्ञाहत
सिक्कों से घिसे औ' गुरुत्वहीन
ऐसे व्यक्तित्व मिले
जिन्हें अपनाने में तिलमिला गया मैं ।
परिचय घनिष्ठ हो गया लेकिन इन सबसे
कैसे नकारूँ इन्हें या अस्वीकारूँ आज
ये मेरे अपने हैं
मेरी ही आत्मा के वंशज हैं ।
इन्हें इसी धरती ने
इसी वातावरण ने
इसी तिमिर ने अंग-भंग कर दिया है ।

सच है
अब ये अकुलाते नहीं,
बोलते गाते नहीं,
दुखते जलते हैं,
इंच-इंच गलते हैं,
किन्तु कभी चीखते नहीं ये
चिल्लाते नहीं,
अधर सी दिये हैं इनके
बड़े-बड़े तालों ने
जिन्हें मर्यादा की चाबियाँ घुमाती हैं ।

किन्तु मैं अकुलाया
चीखा-चिल्लाया भी
नया-नया ही था...दुख सहा नहीं गया
मौन साध लेता कैसे
रखकर मुंह में ज़बान
प्रश्न जब सुने
आहत, विह्वल मनुष्यता के
उत्तर में मुझसे चुप रहा नहीं गया ।

किन्तु मैं कवि हूँ कहाँ
कहाँ किसे मिलती है मेरी कविताओं में
इन्द्रजुही सपनों की
रूप और फलों की
सतरंगी छवियों की
स्निग्ध कलित कल्पना;
...लगता है
मैं तो बस जल-भीगा कपड़ा हूँ
जिसको निचोड़फर मेरी ये कविताएँ
उष्ण इस धरती के ऊपर छिड़क देती हैं...
कविताएँ माध्यम हैं शायद
उस ऋण को लौटाने का
जो मैंने तुम सबसे लिया है
मिञो,
मेरी प्रशंसा क्यों करते हो
मैंने क्या किया है !

फिर भी
लेकिन फिर भी
लोगों ने मुझे कवि पुकारा
उद्धत, अविनीत नहीं
क्योंकि
यद्यपि वे मौन रहे
किन्तु उन ही की भावनाओं को
वाचा दी मैंने
उन सबकी ध्वनियों को
गुंजरित वितरित किया
और पूछना जो चाहते थे वे
वही प्रश्न
मैंने प्रतिध्वनित किया
चारो दिशाओं में ।

सच है ये
उत्तर अभी नहीं मिला
किन्तु मैं चुपा भी नही,
मच है ये
अब तक रण अनिर्णीत
किन्तु मैं थका भी नहीं ।
जारी हैं सारे सम्भव प्रयत्न
जारी रहेंगे ।
ये ही प्रश्न गूँजेंगे
सत्य के लिए भटकती आत्मा की तरह
गूँजते रहेंगे ये ही प्रश्न
वर्षों के अन्तराल में...जब तक
उत्तर न पा लेंगे ।

27. विवश चेतना

मेरे हाथ क़लम लेकर
मुझसे भी अच्छे गायक का पथ जोह रहे हैं,
मेरी दृष्टि कुहासे में से
नयी सृष्टि-रचना की सम्भावित बुनियादें
देख रही है,
मेरी साँसें
अस्तित्वों की सार्थकता को जूझ रहीं हैं,
मेरी पीड़ा हर उदास चेहरे से मिलकर
एल नयी उपलब्धि खोजती भटक रही है,
मेरी इच्छा कोई वातावरण बनाने में तत्पर है,
मेरी हर आकांक्षा
आने वाले कल में जाग रही है,
( तन का क्या है
ये तो बेजन्मा-सा आकुल-आतुर यात्री)
मेरी विवश चेतना
जग में बसने को घर माँग रही है ।

28. छत पर : एक अनुभूति

दृष्टि के विस्तार में बाँधे मुझे
तुम शाम से छत पर खड़ी हो :
अब तुम्हारे और मेरे बीच का माध्यम : उजाला
नष्ट होता जा रहा है ।

देखती हो
भाववाही मौन की सम्पन्न भाषा भी बहुत असमर्थ
और आशय हमें ही लग रहे हैं अपरिचित-से
और हम दोनों प्रतिक्षण
निकटता का बोध खोते जा रहे हैं ।

दो छतों के फासले में
श्यामवर्ण अपारदर्शी एक शून्य बिखर रहा है;
किस तरह देखूँ
कि मेरा मन अँधेरे में
तुम्हारे लिए विह्वल हो रहा है ।

औन कर दो स्विच
कि तुम तक हो पुन: विस्तार मेरा
अंधेरे में तुम्हारे संकेत मुझ तक नहीं आते ।
(आह ! कितना बुरा होता है अँधेरा)

29. शीत-प्रतिक्रिया

बाहर कितना शीत
हवा का दुसह बहाव
भीतर कितनी कठिन उमस है
औ' ठहराव !

तेज हवा को रोक
कि ये ठहराव फाड़ दे
शीत घटा
या मन के अँगारे उघाड़ दे;

दो खंडों में बाँट न
यह व्यक्तित्व अधुरा
ईश्वर मेरे,
मुझे कहीं होने दे पूरा ।

30. कल

कल : अपनी इन बिद्ध नसों में डोल रहा है
संवेदन में पिघला सीसा घोल रहा है
हाहाकार-हीन अधरों की बेचैनी में बोल रहा है
हर आँसू में छलक रहा है ! !

ये अक्षर-अक्षर कर जुड़ने वाले स्वर
ये हकला-हकलाकर आने वाली लय
पगला गये गायकों-जैसे गीत
बेवफ़ा लड़की-सी कविताएँ
ये चाहे कितनी अपूर्ण अभिव्यक्ति
समय की हों,
पर इनमें कल झलक रहा है ! !

कल :
जिसमें हम नहीं जी रहे
देख रहे हैं,
कल :
जिसको बस सुना-सुना है
देख रहे हैं : …
बाज़ारों में लुटे-लुटे-से
चौराहों पर सहमे-सहमे
आसमान में फैले-फैले
घर में डरे-डरे दुबके-से...।

चारों बोर बिछा है अपनी पीड़ाओं का पाश
दिशा-दिशा में भटके चाहे
किन्तु भविष्य-विहग उलझकर
आ जायेगा पास !

31. इसलिए

सहता रहा आतप
इसलिए हिमखंड
पिघले कभी
बनकर धार एक प्रचंड
जा भागीरथी में
लीन हो जाये ।

जीता रहा केवल
इसलिए मैं प्राण,
मेरी जिन्दगी है
एक भटका वाण
भेदे लक्ष्य
शाप-विहीन हो जाये ।

32. फिर

फिर मेरे हाथों में गुलाब की कली है ।
फिर मेरी आँखों में वही उत्सुक चपलता है ।

सोचा था यहाँ
तुमसे बहुत दूर
शायद सुकून मिले
...पर यहाँ लबे-सड़क, कोठियों में
गुलाबों के पौधे हैं
और रास्ता चलते
बंगलों में लगे गुलाबों को तोड़ लेने जैसा मेरा मन है
...और फिर तुम तो
सूना जूड़ा दिखाती हुई
अनायास सैकडों मील दूरी से पास आती हुई...।

और फिर...
फिर वही दिशा है गन्तव्य
जो तुम्हारी है,
फिर वही दंशान है आत्मीय
फिर यही विष है उपभोग्य
मेरा उपजीव्य आह !
फिर वही दर्द है-अकेलापन ! !

33. प्यार : एक दशा

यह अकारण दर्द
जिसमें लहर और तड़प नहीं है,
यह उतरती धूप
जिसमें छाँह और जलन नहीं है,
यह भयंकर शून्य
जिसमें कुछ नहीं है...
ज़िन्दगी है ।

आह ! मेरे प्यार,
तेरे लिए है अभिव्यक्ति विह्वल
शब्द कोई नहीं
अर्थ अपार !

34. एक साद्धर्म्य

मुझे बतलाओ
कि क्या ये जलाशय
मेरे हृदय की वेदना का नहीं है प्रतिरूप ?
मेरे ही विकल व्यक्तित्व की सुधियाँ नहीं
तट पर खड़ी तरु-पाँति ?
और ये लहरें तड़पती जो कि प्रतिपल
क्या नहीं तट के नियन्त्रण में बँधी इस भाँति ?
ज्यों परिस्थिति से बँधे हम विवश और विफल ।

35. गली से राजपथ पर

ये गली सुनसान वर्षों से पड़ी थी
दूर तक
अपनी अभागिन धड़कनों का जाल बुनती हुई,
राजपप से उतरकर चुप
कल्पनाओं में अनागत यात्रियों के
पथों की आहटें सुनती हुई ।
ये गली
जिसके धड़कते वक्ष पर
थमे ज़ख्मी पाँव रखकर
दूर की उन बस्तियों को चले गये अनेक
औ' उधर से
लौट पाया नहीं कोई एक,
आज तक रख बुद्धि और विवेक
जीवित है ।

आज लेकिन
आज
वर्षों बाद
झोपड़ों से
आहटें सुन पड़ रही हैं
गली में आने
गली ने राजपथ में पहुँच पाने के लिए
पगडंडियों से लड़ रही है हैं...

आहटें !
एक, दो, दस नहीं
अनगिन पगों की
रह-रह तड़पतीं
लड़खड़ातीं पर पास आती हुई
हर क्षण
बढ़ रही हैं...

अभी होगा भग्न
दैत्याकार यह वातावरण
एक मरणासन्न रोगी की तरह
अकुला रहा है मौन
पूछती है गली मुझसे बावली--
'कवि !
राजपथ पर मा रहा है कौन ?'

36. एक मित्र के नाम

मैं भी तो भोक्ता हूँ
इम परिस्थिति का मित्र !
मेरे भी माथे पर
हैं दुख के मानवित्र ।

मैंने न समझा तो
और कौन समझेगा ?
मौन जो रहा है खुद
वही मौन समझेगा

अर्थ मैं समझता हूँ
इन बुझी निगाहों का
जी रहा ठहाकों पर
पुंज हूँ व्यथाओं का ।

कई रास्तों पर बस
दृष्टि फेंक सकता हूँ,
प्राप्त कर नहीं सकता
स्वप्न देख सकता हूँ ।

संकट में घिरे हुए
वचन-बद्ध योद्धा-सा
शरुत्रों को छू भी लूँ
तो चला नहीं सकता

अनजानी लगती है
अपनी ही हर पुकार
छू-छूकर लौट-लौट आती
हर गली-द्वार ।

अनुभव की वंशी में
बिंधा पड़ा है जीवन
क्षण-भर का पागलपन
पूरा यौवन उन्मन

लगता है तुमको भी
शूल चुभा है कोई ।
किश्ती से अनदेखा
कूल चुभा है कोई !

जौवन के सागर में
यौवन के घाट पर
चला गया लगता है
प्यार दर्द बाँट कर

पर अब तुम जियो
कहो-कोई तो बात नहीं !
रण में योद्धाओं की
हार-जीत हाथ नहीं !

एक दाँव हारे हैं
एक जीत जायेंगे,
जीवन के कै दिन हैं
अभी बीत जायेंगे ।

37. आभार-प्रदर्शन

पेट को भोजन
और इच्छा को साधन
देने वाले ने क्या कम दिया !

प्रिये !
जन फिर भी असन्तुष्ट
कहते हैं, तुमने सुख-चैन हरा मेरा
मुझको ग़म दिया ।
सोचते नहीं हैं किन्तु---
--हृदय जिसने सहा दुख
सहना सिखाया
और अभिव्यक्ति की
नयी काव्य-शैली को जनम दिया
मेरे पास कहाँ से आया !

38. …उपरान्त वार्ता

हिल उठा अचानक संयम का वट-नृक्ष
अस्फुट शब्दों की हवा तुम्हारे अधरों से क्या बही
सब जड़ें उभर आयीं...

पहले भी मैंने
तुमको समझाया था
याद करो-
ये बिरवा है
ढह जायेगा
लहरों के आगे इस बिरवे की क्या बिसात !

आँधियाँ संभाले हुए दिशाओं-सा दिल
रहे अविचलित
मुस्कानों को झेले जाये नित
इस योग्य नहीं ।

जीवन का पहरेदार सजग : संयम,
लेकिन कब तक... ?
हर क्षण पर कोई मुहर नहीं होती !
यह जीवन खाली था
इसको भरने वाली
आकांक्षाएं पनिहारिन चढ़ आयीं
कैसे समझाता या उन्हें मना करता 1

पर तुमको तो
पहले भी समझाया था याद करो
मैं बहुत विवश हूँ
कोई लक्ष्मण-रेखा नहीं यहाँ,
दूरी रखने के लिए कहाँ जाऊँ
तुम हो न जहाँ ?

  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : दुष्यंत कुमार
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)