तुमुल : श्यामनारायण पाण्डेय

Tumul : Shyam Narayan Pandey


('तुमुल' खण्डकाव्य पौराणिक खण्डकाव्य है। इसका आधार रामायण है। इसमें लक्ष्मण और मेघनाद के युद्ध का वर्णन है। कवि ने लक्ष्मण के तेजस्वी चरित्र-व्यक्तित्व को अपने काव्य का केन्द्रबिन्दु बनाया है।) इच्छा सुतेच्छु दुखी पिता की पूर्ण करने के लिये । ऋषि सज्जनों के हृदय का दुख-दैन्य हरने के लिये ॥ हुंकार से रजनीचरों का, बल घटाने के लिये । सत्कर्म से इक्ष्वाकु कुल का यश बढ़ाने के लिये ॥ देते हुए आनन्द सबको- तेज दिखलाते हुए । सत्कार वृन्दारक तथा मुनिवृन्द से पाते हुए ॥ जन्मे स्वकुल में क्षीर निधि में, चन्द्रमा के तुल्य ही । माता सुमित्रा को मिला था, एक लाल अमूल्य ही ॥ पूजक सनातन ब्रह्म के- आनंद से विह्वल हुए । चंचल मही के खल हुए, निर्बल जनों के बल हुए ॥ निर्जीव तन के जीव प्यासी- भूमि के हित जल हुए । साध्वी सती कुल नारियों- के पुण्यतम अंचल हुए ॥ साकेत-सागर-रत्न, माँ के- प्राण रघुनन्दन हुए । दीनों गरीबों के लिये- भगवान रघुनन्दन हुए ॥ अपने पिता के उच्चतम अभिमान रघुनन्दन हुए । कुल-कंज-कानन के लिये भास्वान रघुनन्दन हुए ॥ सब भाइयों के साथ माँ के अंक में आने लगे । मुसकान से किलकान से पीयूष बरसाने लगे ॥ अनुराग से दशरथ निरन्तर, प्यार दिखलाने लगे । कह शेष भी सकता न- कितना देव सुख पाने लगे ॥ इक्ष्वाकु कुल अनिमेष- ब्रह्मानन्द ही पाने लगा । उत्साह से उनके सुयश का केतु फहराने लगा ॥ राजेन्दु-सुत वालेन्दु के सम, प्रति दिवस बढ़ने लगे । होने लगे तत्त्वज्ञ श्रम से रात दिन पढ़ने लगे ॥ वेदादि के ज्ञाता हुए भ्रम और संशय खो गये । सर्वज्ञ कोई हो सका वैसा न जैसा हो गये ॥ अपने विकारों को लगन के साथ करते ध्वंस थे । अज-वंश के अवतंस, मानस-मानसर के हंस थे॥ दशरथ-अजिर की चाँदनी से पतन था अपकर्ष का। सानन्द चारो ओर उड़ता था फरेरा हर्ष का ॥ इक्ष्वाकु कुल के राज भर में, नाम था न अमर्ष का । पैदा हुए साकेत में, सौभाग्य भारतवर्ष का ॥ निशिदिन क्षमा में क्षिति बसी, गम्भीरता में सिन्धु था । था धीरता में अद्रि, यश में, खेलता शरदिन्दु था ॥ थी बोल में सुन्दर सुधा, उर में दया का वास था । था तेज में सूरज, हँसी में, चाँद का उपहास था ॥ कर्त्तव्य कर-कर भर दिया, पीयूष अपने नाम में। घुल से गये प्रत्यक्ष ही साकार सीता-राम में ॥ अपमान करते दानियों का, दुर्बलों को दान दे। कुलधर्म-रक्षा का विषय नित सोचते थे ध्यान दे ॥ करते निराले कर्म जिससे, देश भर का त्राण हो । करते वही जिससे महीतल, का सदा कल्याण हो ॥ कोदण्ड विद्या में निपुण, चौंसठ-कला-मतिमान थे। संहार में वे सर्वथा भीषण कृतान्त-समान थे ॥ शस्त्रास्त्र में अपने सदृश वे आप ही थे लोक में । उनके विमल यश की ध्वजा, उड़ती रही सुरलोक में ॥ रण ठान के जिससे भिड़े, उससे विजय पाई सदा । संग्राम में अपनी ध्वजा, सानन्द फहराई सदा ॥ जग-गहन के गजराज, गति में, तीर थे, रणधीर थे । कोई न करता सामना वे विदित-वज्र-शरीर थे ॥ थे वार वार उतारते ऋषि लोग उनकी आरती । सद्बुद्धि को अवलोक कर लेती बलैया भारती ॥ नीतिज्ञ - विज्ञ, गुणज्ञ, ज्ञाता, सच्चरित्र उदार थे । वे शेष के अवतार सचमुच, भूमि के आधार थे ॥ थे कान्ति के आगार सब सुखशान्ति के भण्डार थे। रखते बड़े छोटे सभी के साथ सम व्यवहार थे ॥ उपकार करके भी उन्हें, होता नहीं सन्तोष था उनके हृदय का भाव कितना पुण्यतम निर्दोष था ॥ उनको न अपने दिव्य यश के गौरवों का गर्व था । ऐसे महात्मा से जगत- हित क्यों न होगा होगा सर्वथा ॥ पर दुःख से उद्विग्न, सुख से मग्न होते हर्ष में । ऐसे जनों का सर्वदा हो जन्म भारतवर्ष में॥ ***** निशाचरेश पुत्र था, जयन्त इन्द्र के यथा । सपूत मेघनाद था, अभूत मेघनाद था ॥ प्रशस्त संयमी शमी, प्रगल्भ धीर विक्रमी । अपार ज्ञानवान था, महा प्रतापवान था ॥ बढ़ा उदात्त-वृत्त था, वली उदार - चित्त था । प्रबुद्ध था, महान था, विशेष शीलवान था॥ महारथी प्रसिद्ध था, गुणी विवेक वृद्ध था । सुदेश था, सुकेश था, नितान्त रम्यवेष था ॥ समस्त सर्पराज को, तथा फणी-समाज को । परास्त शीघ्र ही किया, महादुखी बना दिया ॥ महावली सुरेश को, जयन्त वीरवेश को । समीक में हरा दिया, त्रिलोक को कँपा दिया ॥ प्रसिद्ध और भी हुआ, नितान्त गौरवी हुआ । स्वतन्त्र भूप भी डरे, न जो कहीं कभी डरे ॥ महान तेजमान था, दिनेश के समान था। उसे न रोकता कभी, महा कराल काल भी ॥ कहीं मिला न एक भी, महावली उसे कभी । सगर्व जो खड़ा रहे, समीक में थड़ा रहे ॥ समस्त धीर सारथी, समानधी महारथी । विमान देख ही भगे, विपक्ष विग्रही भगे ॥ अड़ा, लड़ा, उड़ा कहाँ, महावली, मुड़ा कहीं । उदग्र काँप से गये, विनाश भाँप से गये ॥ न सूर था, न चन्द्र था, न देव ही अमन्द था । परन्तु जो रव में छिपा, त्रिलोक ओक में छिपा ॥ ***** रघुवीर ने अरिवृन्द को, कर शर प्रहार भगा दिया। भगते हुए रजनीचरों का, दूर तक पीछा किया ॥ बहु वीर जो बनते रहे, वे राम से मारे गये। उनके करों द्वारा करोड़ों, वीर संहारे गये ॥ संग्राम में मारा गया, लड़ता हुआ मकराक्ष भी । रघुनाथ के नाराच के, भय से भगे निशिचर सभी ॥ इस वृत्त को सुनकर दशानन, और भी उनसे डरा । बढ़ते हुए दुख वेग से, सारा हृदय उसका भरा ॥ कुछ देर चिन्ता मग्न होकर क्षुब्ध ज्यों का त्यों रहा । मम प्राण प्रिय मकराक्ष, हा, अब है कहाँ फिर यों कहा ॥ खोने लगा सर्वस्व उसके शोक में रोने लगा । अति पीतभूत कपोल को, नयनाम्बु से धोने लगा ॥ अस्त हो गया हा हन्त देश का दिनेश आज, अरमान के सुमन तोड़ के चला गया । सबको बना के दीन, दे के दुख- दैन्य-दान, दीन दुनिया से मुँह मोड़ के चला गया ॥ 'श्याम' छा गई है विपदा की घनघोर घटा, विकल बना के सब छोड़ के चला गया । विलख रहे हैं हम लोग देखने के लिये, नाता मकराक्ष, अब तोड़ के चला गया ॥ है मर गया मकराक्ष पर, शव रूप में वह है कहाँ । है प्राण-हीन कहाँ पड़ा, कोई उसे ला दे यहाँ ॥ किस रूप में वह आज है, कैसे उसे देखूँ यहाँ । कैसे व्यथा यह दूर हो, हा दैव मैं जाऊँ कहाँ ॥ जिस वक्त से था फूल झड़ता, शूल उसमें है लगा । ताम्बूल से था लाल जो मुख, रक्त से वह है पगा ॥ लाचार हूँ हा हन्त, कैसे, धैर्य्य मैं धारण करूँ । ऐसा प्रतिक्षण क्रोध होता है कि जाके रण करूँ ॥ संग्राम करना किन्तु मेरा, सर्वथा ही व्यर्थ ही व्यर्थ है । उन युग भटों को मारने में मेघनाद समर्थ है ॥ मेरे समान महाबली रण में विचक्षण धीर है। प्रत्यक्ष काल समान वह दुर्द्धर्प है वर वीर है ॥ मम सुत पडानन से नहीं है, युद्ध में डरता कभी । उससे समर करके पराजित हो गये हैं इन्द्र भी ॥ नागेन्द्र को कम्पित किया, कर स्वार्थ-साधन यश लिया । उसकी अपार कदर्थना कर तेज हत उसको किया ॥ ******

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