तुमुल : श्यामनारायण पाण्डेय

Tumul : Shyam Narayan Pandey


('तुमुल' खण्डकाव्य पौराणिक खण्डकाव्य है। इसका आधार रामायण है। इसमें लक्ष्मण और मेघनाद के युद्ध का वर्णन है। कवि ने लक्ष्मण के तेजस्वी चरित्र-व्यक्तित्व को अपने काव्य का केन्द्रबिन्दु बनाया है।) इच्छा सुतेच्छु दुखी पिता की पूर्ण करने के लिये । ऋषि सज्जनों के हृदय का दुख-दैन्य हरने के लिये ॥ हुंकार से रजनीचरों का, बल घटाने के लिये । सत्कर्म से इक्ष्वाकु कुल का यश बढ़ाने के लिये ॥ देते हुए आनन्द सबको- तेज दिखलाते हुए । सत्कार वृन्दारक तथा मुनिवृन्द से पाते हुए ॥ जन्मे स्वकुल में क्षीर निधि में, चन्द्रमा के तुल्य ही । माता सुमित्रा को मिला था, एक लाल अमूल्य ही ॥ पूजक सनातन ब्रह्म के- आनंद से विह्वल हुए । चंचल मही के खल हुए, निर्बल जनों के बल हुए ॥ निर्जीव तन के जीव प्यासी- भूमि के हित जल हुए । साध्वी सती कुल नारियों- के पुण्यतम अंचल हुए ॥ साकेत-सागर-रत्न, माँ के- प्राण रघुनन्दन हुए । दीनों गरीबों के लिये- भगवान रघुनन्दन हुए ॥ अपने पिता के उच्चतम अभिमान रघुनन्दन हुए । कुल-कंज-कानन के लिये भास्वान रघुनन्दन हुए ॥ सब भाइयों के साथ माँ के अंक में आने लगे । मुसकान से किलकान से पीयूष बरसाने लगे ॥ अनुराग से दशरथ निरन्तर, प्यार दिखलाने लगे । कह शेष भी सकता न- कितना देव सुख पाने लगे ॥ इक्ष्वाकु कुल अनिमेष- ब्रह्मानन्द ही पाने लगा । उत्साह से उनके सुयश का केतु फहराने लगा ॥ राजेन्दु-सुत वालेन्दु के सम, प्रति दिवस बढ़ने लगे । होने लगे तत्त्वज्ञ श्रम से रात दिन पढ़ने लगे ॥ वेदादि के ज्ञाता हुए भ्रम और संशय खो गये । सर्वज्ञ कोई हो सका वैसा न जैसा हो गये ॥ अपने विकारों को लगन के साथ करते ध्वंस थे । अज-वंश के अवतंस, मानस-मानसर के हंस थे॥ दशरथ-अजिर की चाँदनी से पतन था अपकर्ष का। सानन्द चारो ओर उड़ता था फरेरा हर्ष का ॥ इक्ष्वाकु कुल के राज भर में, नाम था न अमर्ष का । पैदा हुए साकेत में, सौभाग्य भारतवर्ष का ॥ निशिदिन क्षमा में क्षिति बसी, गम्भीरता में सिन्धु था । था धीरता में अद्रि, यश में, खेलता शरदिन्दु था ॥ थी बोल में सुन्दर सुधा, उर में दया का वास था । था तेज में सूरज, हँसी में, चाँद का उपहास था ॥ कर्त्तव्य कर-कर भर दिया, पीयूष अपने नाम में। घुल से गये प्रत्यक्ष ही साकार सीता-राम में ॥ अपमान करते दानियों का, दुर्बलों को दान दे। कुलधर्म-रक्षा का विषय नित सोचते थे ध्यान दे ॥ करते निराले कर्म जिससे, देश भर का त्राण हो । करते वही जिससे महीतल, का सदा कल्याण हो ॥ कोदण्ड विद्या में निपुण, चौंसठ-कला-मतिमान थे। संहार में वे सर्वथा भीषण कृतान्त-समान थे ॥ शस्त्रास्त्र में अपने सदृश वे आप ही थे लोक में । उनके विमल यश की ध्वजा, उड़ती रही सुरलोक में ॥ रण ठान के जिससे भिड़े, उससे विजय पाई सदा । संग्राम में अपनी ध्वजा, सानन्द फहराई सदा ॥ जग-गहन के गजराज, गति में, तीर थे, रणधीर थे । कोई न करता सामना वे विदित-वज्र-शरीर थे ॥ थे वार वार उतारते ऋषि लोग उनकी आरती । सद्बुद्धि को अवलोक कर लेती बलैया भारती ॥ नीतिज्ञ - विज्ञ, गुणज्ञ, ज्ञाता, सच्चरित्र उदार थे । वे शेष के अवतार सचमुच, भूमि के आधार थे ॥ थे कान्ति के आगार सब सुखशान्ति के भण्डार थे। रखते बड़े छोटे सभी के साथ सम व्यवहार थे ॥ उपकार करके भी उन्हें, होता नहीं सन्तोष था उनके हृदय का भाव कितना पुण्यतम निर्दोष था ॥ उनको न अपने दिव्य यश के गौरवों का गर्व था । ऐसे महात्मा से जगत- हित क्यों न होगा होगा सर्वथा ॥ पर दुःख से उद्विग्न, सुख से मग्न होते हर्ष में । ऐसे जनों का सर्वदा हो जन्म भारतवर्ष में॥ ***** निशाचरेश पुत्र था, जयन्त इन्द्र के यथा । सपूत मेघनाद था, अभूत मेघनाद था ॥ प्रशस्त संयमी शमी, प्रगल्भ धीर विक्रमी । अपार ज्ञानवान था, महा प्रतापवान था ॥ बढ़ा उदात्त-वृत्त था, वली उदार - चित्त था । प्रबुद्ध था, महान था, विशेष शीलवान था॥ महारथी प्रसिद्ध था, गुणी विवेक वृद्ध था । सुदेश था, सुकेश था, नितान्त रम्यवेष था ॥ समस्त सर्पराज को, तथा फणी-समाज को । परास्त शीघ्र ही किया, महादुखी बना दिया ॥ महावली सुरेश को, जयन्त वीरवेश को । समीक में हरा दिया, त्रिलोक को कँपा दिया ॥ प्रसिद्ध और भी हुआ, नितान्त गौरवी हुआ । स्वतन्त्र भूप भी डरे, न जो कहीं कभी डरे ॥ महान तेजमान था, दिनेश के समान था। उसे न रोकता कभी, महा कराल काल भी ॥ कहीं मिला न एक भी, महावली उसे कभी । सगर्व जो खड़ा रहे, समीक में थड़ा रहे ॥ समस्त धीर सारथी, समानधी महारथी । विमान देख ही भगे, विपक्ष विग्रही भगे ॥ अड़ा, लड़ा, उड़ा कहाँ, महावली, मुड़ा कहीं । उदग्र काँप से गये, विनाश भाँप से गये ॥ न सूर था, न चन्द्र था, न देव ही अमन्द था । परन्तु जो रव में छिपा, त्रिलोक ओक में छिपा ॥ ***** रघुवीर ने अरिवृन्द को, कर शर प्रहार भगा दिया। भगते हुए रजनीचरों का, दूर तक पीछा किया ॥ बहु वीर जो बनते रहे, वे राम से मारे गये। उनके करों द्वारा करोड़ों, वीर संहारे गये ॥ संग्राम में मारा गया, लड़ता हुआ मकराक्ष भी । रघुनाथ के नाराच के, भय से भगे निशिचर सभी ॥ इस वृत्त को सुनकर दशानन, और भी उनसे डरा । बढ़ते हुए दुख वेग से, सारा हृदय उसका भरा ॥ कुछ देर चिन्ता मग्न होकर क्षुब्ध ज्यों का त्यों रहा । मम प्राण प्रिय मकराक्ष, हा, अब है कहाँ फिर यों कहा ॥ खोने लगा सर्वस्व उसके शोक में रोने लगा । अति पीतभूत कपोल को, नयनाम्बु से धोने लगा ॥ अस्त हो गया हा हन्त देश का दिनेश आज, अरमान के सुमन तोड़ के चला गया । सबको बना के दीन, दे के दुख- दैन्य-दान, दीन दुनिया से मुँह मोड़ के चला गया ॥ 'श्याम' छा गई है विपदा की घनघोर घटा, विकल बना के सब छोड़ के चला गया । विलख रहे हैं हम लोग देखने के लिये, नाता मकराक्ष, अब तोड़ के चला गया ॥ है मर गया मकराक्ष पर, शव रूप में वह है कहाँ । है प्राण-हीन कहाँ पड़ा, कोई उसे ला दे यहाँ ॥ किस रूप में वह आज है, कैसे उसे देखूँ यहाँ । कैसे व्यथा यह दूर हो, हा दैव मैं जाऊँ कहाँ ॥ जिस वक्त से था फूल झड़ता, शूल उसमें है लगा । ताम्बूल से था लाल जो मुख, रक्त से वह है पगा ॥ लाचार हूँ हा हन्त, कैसे, धैर्य्य मैं धारण करूँ । ऐसा प्रतिक्षण क्रोध होता है कि जाके रण करूँ ॥ संग्राम करना किन्तु मेरा, सर्वथा ही व्यर्थ ही व्यर्थ है । उन युग भटों को मारने में मेघनाद समर्थ है ॥ मेरे समान महाबली रण में विचक्षण धीर है। प्रत्यक्ष काल समान वह दुर्द्धर्प है वर वीर है ॥ मम सुत पडानन से नहीं है, युद्ध में डरता कभी । उससे समर करके पराजित हो गये हैं इन्द्र भी ॥ नागेन्द्र को कम्पित किया, कर स्वार्थ-साधन यश लिया । उसकी अपार कदर्थना कर तेज हत उसको किया ॥ ****** तनय के तन का बल सोच के, परम निर्भय दुर्जय जान के । असुर भूल गया मकराक्ष को, नियति का यह रूप विचित्र है ॥ पल रहा जन प्यार दुलार से, उठ गया, जग भूल गया उसे । दिवस के निशि के परदे पड़े, समय भी कितना बलवान है ॥ कुछ घड़ी कर मंगल कल्पना, कुछ घड़ी रह मन विचार में । यह किया निश्चय दशकन्ध ने, समर-शासन दूँ घननाद को ॥ मरण को सुन के मकराक्ष के, विपुल आकुल है प्रिय पुत्र भी, इसलिये यह है मम धारणा, विजय- भूति उसे मिल जायगी ॥ जनक को बहु पीड़ित जान के, परम चिन्तित दुःखित मान के । जलदनाद वहाँ पर आ गया, समर-शूर दशानन पा गया ॥ चरण छू कर से दशकन्ध का, तदनु बैठ गया बहु नम्र हो । सदन को द्युतिमान बना दिया, निज विशाल ललाट प्रकाश से ॥ सकल वीर उसे लखने लगे, विलखने दुख में पगने लगे । फिर सभी सँभले मुख देख के, परम वीर महाबल लेख के ॥ समर धीर अपार पराक्रमी, निज बली सुत को अवलोक के । दुखित होकर रावण ने कहा, बलवती अति है उर की व्यथा ॥ ****** हे पुत्र, क्यों होते तुम्हारे है दशा ऐसी हुई। यह जानते ही हो सुवन की दुर्दशा जैसी हुई ॥ सारा दनुज का वंश ही, कँपता दिखाता आज है । हलचल मची है राज में अस्थिर हुआ अधिराज है ॥ क्षण-क्षण सदा तुझसे बहुत ही थरथराते वीर थे । सम्मुख न आते थे समर से भागते रणधीर थे॥ यह जानता हूँ मैं न, जानें, शम्भु कैसी बात है । मेरे नगर में किसलिये यों, हो रहा उत्पात है ॥ जो हो परन्तु न युद्ध से हे पुत्र, हटना चाहिये । निज वैरियों के सामने तत्काल डटना चाहिये ॥ अरि-वृन्द का उत्थान लखकर बैठ रहना व्यर्थ है । बदला न लेना राम से, अतिशय अधर्म अनर्थ है ॥ अतएव मेरी है यही आज्ञा, सुनो, तुम ध्यान से। मैं कर रहा हूँ जो कथन उसको करो जी जान से ॥ रण में सुला दो हे सुवन, सौमित्रि से बलधाम को । जाओ, लड़ो शर शूल लो, निज बल दिखा दो राम को ॥ मैं जानता हूँ रण जलधि को, पार है तुमने किया । निज वीरता का विपुल यश, सुरलोक तक फैला दिया ॥ हे तात, तेरी शक्तियों का, अन्त है मिलता नहीं। घमसान में भी पुत्र तेरा, बाल तक हिलता नहीं ॥ यों ही रुला दो निर्जरों को, ठानता रण व्यर्थ है । तुझसे करे संग्राम ऐसा, कौन शूर समर्थ है ॥ रण में भगा दोगे सभी को, यह मुझे विश्वास है । तव घ्राण रंध्रों में विजय का, चल रहा नि:श्वास है ॥ पर देखना निर्भीक रहना, हर घड़ी रण क्षेत्र में । प्रायः अचानक मारना, शर शत्रुओं के नेत्र में ॥ अति त्रस्त करना, गरजना, कपि वृन्द-कर्ण विदार के । हे शूर सुत, तुम लौटना, अरि वाहिनी संहार के ॥ रण रीति जो मैंने नताई, भूल मत जाना उसे । पाना परम आनन्द असि ले, शत्रु-सेना में घुसे ॥ रिपुदल गहन का दहन बनना, निज प्रखरतर तेज से । सुत सुयश पाना समर-भू-नभ में विभाकर सम लसे ॥ डंका विजय का हे तनय, जब युद्ध में बज जायगा । जब देख के विजयी तुझे, आनन्द अन्तर पायगा ॥ तब इस नगर की दुर्दशा, फिर राम से होगी नहीं । वे हैं जहाँ जैसे पड़े रह- जायँगे वैसे वहीं ॥ हे पुत्र, जा, जा अब न तुझको, देर करना चाहिये । अरि-दल-दलन कर समर में, सुख से विचरना चाहिये ॥ मकराक्ष का बदला विजय के- साथ लेना चाहिये ॥ कपि वृन्द को खरतर विशिख- से वेध देना चाहिये ॥ ये वचन कहकर मौन, लङ्काधीश ने धारण किया। मानो किसी ने छेड़ करके, सुप्त सिंह जगा दिया ॥ आज्ञा पिता की मानकर बोला पयोद - निनाद यों । उद्दीप्त होकर कड़कती, सौदामिनी घन मध्य ज्यों ॥ ****** उसके गरजने से कनक का, गेह भी भी हिलने लगा । दृढ़ता वचन सुन-सुन, दशानन का हृदय खिलने लगा ॥ जो वीर बैठे थे वहाँ वे, एक टक लखने लगे । उत्साह से भर हाथ निज निज, मूँछ पर रखने लगे ॥ तेज में विभाकर समोद- खेलता है सदा, मुख में पवित्र वर वाणी, का निवास है ॥ उर में उमेश रमा करता, पवित्रता से, हास में मनोहर, मयङ्क का निवास है ॥ शक्ति में सदैव स्वयं शक्ति ही विराजती है, देवी देवता का रोम- रोम सहवास है, पितृदेव, आपको विनीत, अभिवादन है, आपके शरीर में त्रिदेव का विलास है ॥ बल की प्रचण्डता से हो गया प्रमत्त तो भी, जम्बुक - समाज - मृग- राज का करेगा क्या ॥ कर दे तयारी यदि, युद्ध करने के लिये, खग का समूह खग- राज का करेगा क्या ॥ चमक दमक कर गिर- जो पड़े तो कहीं- शस्त्र समुदाय एक- गाज का करेगा क्या ॥ लड़ने न आता जिसे, एक पैंतरा भी कभी, लङ्का के महीप अधि- राज का करेगा क्या ॥ प्राची में प्रचण्ड जब- भानु का उदय होता, क्या मजाल है कि तम विश्व से हटे नहीं ॥ तेज तलवार लगे काटने कठोरता से, केले का समूह कौन, है कि जो कटे नहीं ॥ वेग से भयानक झकोर, उठे झंझानिल, शक्ति क्या घटा में, टूक टूक जो फटे नहीं ॥ मेरे अभिमान पर, धिक है सहस्र वार, रीछ वानरों से आज, भूमि जो पटे नहीं ॥ चाँहूँ तो फरेरा फहरा करे खमण्डल में, चाँहूँ तो कुलावा मही व्योम का मिला दूँ मैं ॥ एक ही निमेष में, युगों को बरबाद करूँ । चाहूँ तो मयंक-सूर को भी तोड़ ला दूँ मैं ॥ वार पर वार हो रहा है- वानरों का किन्तु, एक ही लपेटे में, कलेजा दहला दूँ मैं । चाहूँ तो उखाड़ दूँ, उभाड़ दूँ रसातल को, सिंह सी दहाड़ से, पहाड़ को हिला दूँ मैं ॥ मेरे क्रोध की कराल, वह्नि जो भभक उठे, अम्बर धधक उठे, भस्म हो शिवा कुटी ॥ विष से बुझीं जो तल- वार लहरा के उठे, देखें, फिर विधि को, विधानता लुटी लुटी ॥ धर के दबा दूँ तो- महीधर चरक उठे, दर से गिरीश की, दरक उठे त्रिकुटी, लरक उठे भूमि- खमण्डल खरक उठे, पितृदेव, मेरी जो, फरक उठे भृकुटी॥ यों बोल के शक्ति सगर्व ले ली, दो हाथ तीखी तलवार खेली । तो भी मुखश्री न खिली पिता की, बोला पुन: काँप गये पिनाकी ॥ हे तात यों आप कभी न रोवें, शोकाग्नि से दग्ध कभी न होवें । जो आप का कष्ट नहीं हरूँगा, तो मैं न कोदण्ड कभी धरूँगा ॥ मैं राम के सम्मुख हो लड़ूँगा, जाके सभी का शिर काट दूँगा । सौमित्रि का भी बल देख लूँगा, लंकापुरी का दुख मैं हरूँगा ॥ झूठे तने हैं अभिमान से वे, क्या हैं भला सम्मुख वाण के वे । दूँगा गिरा मैं उनको शरों से, पाला पड़ा है न भयंकरों से॥ दूँगा बहा भीषण रक्त-धारा, होगा महा कम्पित विश्व सारा । नाराच से मूर्च्छित कीश होंगे, आघात से व्यस्त अनीश होंगे ॥ कैसे कहूँ आहव-भाव सारे, जो हैं छिपे मानस के सहारे । मैं आपसे किन्तु यही कहूँगा, संग्राम में मैं विजयी बनूँगा ॥ आकाश में भी यदि वास लेंगे, तो भी नहीं शत्रु कभी बचेंगे। पाताल में जाकर जो छिपेंगे, तो भी नहीं रक्षित हो सकेंगे ॥ मेरे शरों को न बचा सकेंगे, शूली स्वयं भी मुझसे डरेंगे। थर्रा उठेंगे सुरलोक-वासी, छा जायगी श्री मम भानु-भा-सी ॥ मैं सिंह के तुल्य खड़ा रहूँगा, मैं युद्ध के मध्य अड़ा रहूँगा । मैं वाहिनी का कर नाश दूँगा, हे तात, मैं अल्प नहीं डरूँगा ॥ लेंगे न देख मम नेत्र अड़ा किसी को, दूँगा सगर्व रहने न खड़ा किसी को । संग्राम में यदि न मैं विजयी बनूँगा, तो युद्ध का फिर न नाम कदापि लूँगा ॥ ****** उन्मन पिता को धैर्य्य दे, जब सदन को चलने लगा । दुख देख जब लंकेश का क्रोधाग्नि से जलने लगा ॥ घननाद के संरम्भ से तब, लोग दुख पाने लगे। उस काल सब अमरावती के देव थर्राने लगे ॥ करने लगा धकधक हृदय, चिन्ता उरों में छा गई। लंकेश सुत के हाथ मानो, मृत्यु सबकी आ गई ॥ सर्वत्र अतिशय त्रस्त होकर, लोग घबड़ाने लगे । जो थे कहाते धीर वे भी, काल-भय पाने लगे ॥ जिस भाँति प्राची में विभाकर, प्रथम होता लाल है । लगता बिछाने, मेदिनी पर, फिर किरण का जाल है ॥ उस भाँति उसका क्रोध द्वारा, लाल मुख था हो गया । मानो दशानन लाल का मुख, काल-मुख था हो गया ॥ होने लगे भयभीत मारुत, अद्रि भी भी हिलने लगे । उस वीर के हुंकार से, तरु आप ही गिरने लगे॥ प्रत्यक्ष तेज प्रवेश उसके बदन में करने लगा । होने लगी शंकित धरा, भास्वान भी डरने लगा ॥ किस भाँति अपने शत्रु से संग्राम करना चाहिये । किस यत्न से किस तरह अरि का दर्प हरना चाहिये ॥ कैसे प्रतिज्ञा राम के संहार की होगी सही । यह सोचता घननाद अपने गेह पहुँचा शीघ्र ही ॥ उसने वहाँ कवचादि धारण वीरता पूर्वक किये । संग्राम करने के लिये कोदण्ड शर भी ले लिये ॥ सेना- समीप चला गया सामन्त-दल डरने लगा । अवलोक सेनापति उसे कँपकर वचन कहने लगा ॥ जो हैं हुए अपराध उनको विश्ववीर, क्षमा करें ॥ निज रोष अपनी बुद्धि से कर शान्त रंच दया करें ॥ क्या क्रोध करने का महोदय, हेतु है बतलाइये । मैं जानता कुछ भी नहीं हूँ, इसलिये जतलाइये ॥ है कौन जन जिसके लिये सन्धानना शर को पड़ा । वह ज्ञात होता विक्रमी पर बुद्धि का निर्बल बड़ा ॥ जो हो परन्तु सरोप उससे, युद्ध जायेगा किया । उसका पलायन-पन्थ अब अवरुद्ध जायेगा किया ॥ आदेश दें तो आज ही संसार को संहार दें । जिसके लिये तैयार हैं उस दुष्ट को भी मार दें ॥ हम लोग देंगे प्राण रण में, आप के हित के लिये । केवल वरद कर चाहते हम शीश पर नित के लिये ॥ सबमें अमित अवलोक करके धीरता गम्भीरता । संग्राम का उत्साह पाकर और भीषण वीरता ॥ आदेश सेनप को दिया, स्यन्दन सजाने के लिये । रण वाद्यकारों से कहा, बाजे बजाने के लिये ॥ उत्साह से रण के लिये, सब सूरमे सजने लगे । बहुनाद करके वाद्य रण के कोटिशः बजने लगे ॥ लंका नगर के वीर आशा, विजय की करने लगे । होने लगे शुभ शकुन कायर लोग अति डरने लगे ॥ अवलोक कर तैयार सबको युद्ध करने के लिये । उसने विचार किया, मुझे मंख प्रथम करना चाहिये ॥ दक्षिण गई ज्वाला, किया क्रतु साथियों के साथ में । दी अग्नि ने मानों लवर से विजय उसके हाथ में ॥ फिर नाद करता व्योम के पथ से रुचिर स्यन्दन चला । युद्धार्थ उस पर बैठकर- दशशीश का नन्दन चला ॥ घननाद के साथी सभी थे, अत्र से सज्जित हुए । यह देखकर वासव सहित सब देव भी शंकित हुए ॥ घननाद के रथ पर ध्वजा थी, फरफराती वायु से । अभिमान था अतिशय अधिक अपनी चपलता का उसे ॥ करके अपार प्रकोप अपने, गात को कम्पित बना । मानो अमित्रों को बहुत ही, दे रही थी ताड़ना ॥ सेनानियों को देखकर सब देव पीले पड़ गये । कँपने लगे थरथर दशानन, के तनय से डर गये ॥ 'कैसे बचेंगे राम' कह, चिन्ताग्नि से जलने लगे ॥ भयभीत होकर सुर परस्पर, बात यों करने लगे ॥ ****** सकल निशिचरों का, तेज है वृद्धि पाता। क्षण क्षण लड़ने की, चाह होती उन्हें है ॥ अब बच न सकेंगे, बाण से प्राण देंगे, दशमुख सुत द्वारा, भूमि निर्वीर होगी ॥ बढ़कर यदि आवे, सामने काल तो भी। वह निशित शरों से, मार देगा उसे भी ॥ बहू बल कल वाली, राम की वाहिनी भी । उस अमित वली से, शीघ्र ही ध्वंस होगी ॥ रण तुमुल करेगा, राम को जीत लेगा । लखकर उसको तो, है यही ज्ञान होता ॥ अब विशिख रंगेगा, वेध के वानरों को । समर वसुमती में, रक्त-धारा बहेगी ॥ वह जब करता है, वृष्टि बाणावली की । तब थर थर सारी, मेदिनी काँपती है ॥ सुरपति डर जाते, शम्भु हैं भीत होते । शशि दिनकर भी हैं, धीरता त्याग देते ॥ लखकर उसको है, आज विश्वास होता । निज अहित जनों से, सिंह जैसा लड़ेगा ॥ लड़कर अभिलाषा, शीघ्र पूरी करेगा। अरि-मद हर लेगा, कष्ट देगा छलेगा ॥ रघुपति बल शाली, वानरी वाहिनी का । कठिन विशिख पैने, नाश ऐसे करेंगे ॥ जब सहित सवेरे, फैल के मेदिनी में । रविकर करते हैं, ध्वंस जैसे हिमों का ॥ इस तरह सुरों में, बात हो ही रही थी। निज धनु इतने में, गर्व से हाथ में ले ॥ अभय समर भू में, क्रोध से लाल होके । दशमुख सुत ने की, गर्जना सिंह जैसी ॥ ****** सोमित्रि को घननाद का रव, अल्प भी न सहा गया। निज शत्रु को देखे बिना, उनसे न तनिक रहा गया ॥ रघुवीर से आदेश ले, युद्धार्थ वे सजने लगे रणवाद्य भी निर्घोष करके, धूम से बजने लगे ॥ अरि साथ लड़ने के लिये, तैयार क्षण में हो गये । उठने लगे उनके हृदय में, युद्ध-भाव नये नये ॥ निज तेज से भास्वान सम प्रत्यक्ष ही देखे गये । उस काल वे मृगराज जैसे, शक्ति में लेखे गये ॥ अवलोक कर सौमित्रि को सन्नद्ध आहव के लिये। सत्वर सहर्ष गदादि हनुमा- नादि ने भी ले लिये ॥ कपि घोर रव करने लगे, संग्राम करने के लिये । निज शत्रु का रण-मध्य, काम तमाम करने के लिये ॥ सौमित्रि सेना के सहित, आसन्न अरि के आ गये । थे खोजते जिसको, उसे वे, सामने ही पा गये ॥ घननाद को कोदण्ड-मय लखकर विचार किया यही । यह वीर सचमुच है, समर की काँपती थर-थर मही ॥ ****** १० दोनों की श्री देख के सोचते थे, जी में दोनों ओर के शूर सारे । गोरे काले दिव्य शस्त्रास्त्र वाले, तेजस्वी हैं तप्त भास्वान जैसे ॥ आके दोनों ओर से शक्ति धारी, बारी-बारी भीति देते धरा का। कैसे दोनों में जयी कौन होगा दोनों की श्री आज तो तुल्य ही है॥ बोले थोड़े काल में धीरता से, मेधावाले राम के बन्धु प्यारे । सीधी सादी वीर की भारती थी, बोली से था कर्ण आमोद पाता ॥ हे लंका के नाथ के पुत्र, मानी, तेरे ऊँचे भाल की लालिमा तो । पृथ्वी में है फैलती आज ऐसे, लाली जैसे भानु की फैलती है ॥ तेरे नीले गात के स्वेद से तो, वम्धो, ऐसा है मुझे ज्ञात होता । जैसे काला मेघ कीलाल द्वारा, वर्षा में है श्यामला कान्ति पाता ॥ जैसी शोभा व्योम में चन्द्र की है, वैसी तेरे शीश के क्षेत्र की है। तेरे काले कण्ठ की स्वर्ण माला, नेत्रों को है पूर्ण आनन्द देती ॥ तेरी छाती चण्डिका- केसरी-सी, लम्बी चौड़ी ज्ञात होती मुझे है । मोटे लम्बे पुष्ट हैं बाहु तेरे, योधा होते ज्ञात हो देखने से ॥ पाता होगा मोद माँ का कलेजा, तेरे जैसे पुत्र की देख शोभा । पाता होगा सर्वदा हर्ष जी में, तेरा नामी विक्रमी जन्मदाता ॥ तेरे लम्बे हाथ में चाप तेरा, ऐसी शोभा सर्वदा है दिखाता। न्यारी शोभा साथ नीले घनों के, जैसे होती जिष्णु के चाप की है ॥ तेरे न्यारे यान के सामने तो, भू के सारे यान जाते लजा हैं। योधाओं को है यही ज्ञात होता, तेजस्वी है विश्व में एक ही तू ॥ देरी कैसे क्या करूँ मैं प्रशंसा, तूने तो है इन्द्र को भी हराया । तेरी होती शौर्य से है प्रतिष्ठा, ज्ञानी मानी विक्रमी मानवों में ॥ आके आँखों से तुझे देख के तो, इच्छा होती युद्ध की ही नहीं है। कैसे तेरे साथ में मैं लड़ूँगा, कैसे बाणों से तुझे मैं हतूँगा ॥ ऐसी बातें धीरता से सुना के, लंकावासी सिंह से विक्रमी को । बोले आगे वे न संग्राम-भू में, सर्वव्यापी राम के भद्र भ्राता ॥ तेजःशाली भानु जैसे वली की, नाना भावों से भरी भारती थी। मानो पुष्पों से छिपा कण्टकों को, मारा धीरे से किसी ने किसी को ॥ ****** ११ अवध के पति के सुत की गिरा, मन लगाकर के उसने सुनी, प्रवल वीर निशाचर वंश का फिर लगा चित में यह सोचने ॥ पठित हैं वरवीर कुमार हैं, समर - पंडित शूर अपार हैं। सुजन हैं इनमें पुरुषत्व है, समझते सबके सब तत्त्व हैं॥ ............ ............ लावण्यधारी ब्रह्मचारी, आप बुद्धि-निधान हैं। संसार में अत्यन्त वीर, पराक्रमी धृतिमान हैं ॥ होते हुए आहव-विचक्षण, प्रज्ञ हैं, मर्मज्ञ हैं, नीतिज्ञ हैं, वेदज्ञ हैं, शास्त्रज्ञ हैं सर्वज्ञ हैं ॥ अतएव मेरी भी परिस्थिति, ध्यान से सुन लीजिये । सुन के उसे जैसा बने हे वीर वैसा कीजिये ॥ जय प्राप्त करने के लिये आया यहाँ मैं आज हूँ । इससे अधिक अब आप जैसे, सूरमा से क्या कहूँ ॥ करके प्रतिज्ञा मैं चला हूँ, आज लड़ने के लिये । अपने पिता के वैरियों पर, टूट पड़ने के लिये ॥ जो वीर बनते हैं उन्हें, रण में रुलाने के लिये । संहार के भूपृष्ठ पर- सबको सुलाने के लिये ॥ करिये वही जिससे पिता की पूर्ण इच्छा आज हो । चाहे समर की चाह कुछ भी, आप को हो या न हो ॥ मैं माँगता हूँ भीम रण का, दान मुझको दीजिये । चैतन्य होकर तुमुल संगर, आप मुझसे कीजिए ॥ मैं गर्व हूँ करता नहीं पर क्या करूँ लाचार हूँ। मैं जनक- आज्ञा-बद्ध हूँ, करता न फिर भी वार हूँ ॥ अतएव मानूँगा नहीं सन्नद्ध अब हो जाइये । हे वीरवर, मेरी विनय से, बद्ध अब हो जाइये ॥ यदि युद्ध करना चाहता, कर युद्ध, मैं तैयार हूँ । तुझसे बता रे नारकी, इससे, अधिक अब क्या कहूँ ॥ है जा रहा निज को बचा, मम तीव्र भीषण बाण से । अब हाथ धोवेगा अघी, तू शीघ्र अपने प्राण से ॥ मुझ सिंह से तुझ हरिण को, कोई बचा सकता नहीं । रण- मेदिनी को छोड़ तू भग जा नहीं सकता कहीं ॥ सब लोग देखेंगे तुझे, रक्ताक्त थोड़ी देर में । पड़ जायगा रण देख तू क्या, जनक तेरा फेर में ॥ वासुकि-सुता से अंग पोषित, आज सब फट जायँगे । भूषण - सुसज्जित पुष्ट दोनों हाथ भी कट जायँगे ॥ .......... .......... शर शूल से अत्यन्त तेरी, दुर्दशा होगी यहीं । तेरे समान पिशाच हैं, मारे कहाँ जाते नहीं ? ॥ जो जो कहा उसको उन्होंने, ध्यान से सुन तो लिया । पर गर्व से घननाद ने, सौमित्रि को लख हँस दिया ॥ संरम्भ एकाएक जिससे, और उसका बढ़ गया। मानो अचानक हव्यवाहन- पुंज में घी पड़ गया ॥ घननाद पर कोदण्ड द्वारा, बाण बरसाने लगे । वे पैतरा देने लगे निज शक्ति दिखलाने लगे ॥ आकाश को अपने निशित नाराच से भरने लगे । उस काल देवों के सहित देवेन्द्र भी डरने लगे॥ ऐसी दशा अवलोक पीछे, अरि-अनी हटने लगी । निर्जीव वीरों से समर की मेदिनी पटने लगी ॥ जो थे छकाते दूसरों को, सभय वे छकने लगे । थकते समर में जो न थे, वे विद्ध हो थकने लगे ॥ अत्यन्त कोलाहल मचा के, लोग दुख पाने लगे । उस काल उनको देख के सातंक चिल्लाने लगे ॥ होने लगे सब व्यय उनके, बाण जब लगने लगे । 'कैसे बचेंगे प्राण' यह कह, युद्ध से भगने लगे ॥ भगते हुए निज सैन्य को, जब लख घनध्वनि ने लिया । आगे सँभल पढ़िये यहाँ, जो जो वहाँ उसने किया ॥ कहने लगा ऐ कायरो, क्यों शत्रु से हो भागते । क्यों आज दिन संग्राम को हो, इस तरह से त्यागते ॥ वैरी वली विकराल पाकर, भागना क्या चाहिये । वीरो, भला इस भाँति रण को, त्यागना क्या चाहिये ॥ निज शत्रु से हटना अहो, क्या तुम सबों का कर्म है । मुख मोड़ना सच तो कहो, क्या तुम सबों का धर्म है ॥ कापुरुपता पर तुम सबों की, कोटिशः धिक्कार है । तुम पामरों की चाल पर, लानत करोड़ों बार है ॥ आतंक से जाते बचा के, प्राण हो मूर्खो, अरे । भगकर बताओ काल से, घर पर मरे तो क्या मरे ॥ मेरे महा विकराल बल को, युद्ध में रुक देख लो । भिड़कर करो संग्राम अरि के, अति प्रबल दल को दलो ॥ सामर्थ्य अपना दो दिखा, निज वैरियों के सामने । होवे विफल वह आह बन, जो चाह की है राम ने ॥ नाराच की वर्षा तथा मम, शूरता, वर वीरता । वीरो, रुको देखो भयंकर, धीरता गम्भीरता ॥ पूरा करूँगा तात से जो, बात मैंने है कही। लड़ते हुए अरि को धरा- शायी करूँगा शीघ्र ही ॥ घननाद के उपदेश सुन, सामन्त सब फिरने लगे । सावेश पहले की तरह, लड़ने लगे, भिड़ने लगे ॥ दोनों दलों में जब परस्पर, तुमुल रण होने लगा । तब उभयदल उद्विग्न होकर, धैर्य निज खोने लगा ॥ लंकेश सुत आकाश पर, जाकर लगा ललकारने । कपिवृन्द को शर से वहाँ ही से लगा संहारने ॥ मदमत्त दन्ती के सदृश, क्षण-क्षण लगा चिन्घाड़ने । कोदण्ड की टंकार से निर्भय, लगा श्रुति फाड़ने ॥ कहने लगा सौमित्रि से, रण सजग होकर कीजिये । अब बच नहीं सकते कभी, भगवान को भज लीजिये ॥ सब जान जायेंगे किसे, संग्राम कहते वीर हैं। हो जायगी धृति की परीक्षा, आप यदि रणधीर हैं ॥ यह कह स्वनामांकित विशिख, छोड़े वली घननाद ने । फुंकार करते नाग से, उनको चले संहारने ॥ पर वर्म से टकरा स्वयं, विध्वंस तत्क्षण हो गये । दो चार खण्ड नहीं हुए वे, टूटकर कण हो गये ॥ फिर शत्रु पर सौमित्रि ने, छोड़ा विशिख आमर्ष से । आते हुए देखा उसे, दशशीश - सुत ने हर्ष से ॥ विध्वंस करके वाण को, रज में सरोष मिला दिया । दिखला दिया निज बाहु-बल, भीषण समर उसने किया ॥ दो नाग करते हैं समर जैसे परस्पर रोष से । उन्मत्त दोनों लड़ रहे वैसे, परस्पर रोष से ॥

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