शिवाजी : श्यामनारायण पाण्डेय

Shivaji : Shyam Narayan Pandey


मैं करता अपना अभिवादन मैं करता अपने को प्रणाम मैं ही अरूप मैं ही अनाम मैं रूप-रूप मैं नाम-नाम मैं महाशून्य मैं ही विराट मुझमे सीमित ये दिग्दिगन्त मैं ही अनादि मैं ही अनन्त मुझमे प्रवाह का आदि-अन्त मैं वन्ध-मोक्ष मैं ही रहस्य मैं प्रकृति-पुरुष, मैं ही विवेक मैं मोह- तिमिर, शिव-सत्य-ज्ञान मैं एक, मगर आकृति अनेक मैं कर्ता कर्म अशेष शेष मैं ही विवर्त मैं ही विशेष अपने बाहर भीतर धकधक मैं धधक रहा हूँ अग्निवेश मैं उदय अस्त, गुरु लघु समस्त मैं काल हस्त, मैं सृष्टि-प्रलय अपने को जनमा जनमाकर अपने में ही होता हूँ लय मैं तुम के बीच वही हूँ मैं अक्षर सब ओर सही हूँ मैं वह रिक्त न जहाँ नहीं हूँ मैं सच तो यह कहाँ नही हूँ मैं मैं जड-चेतन का मिलन विन्दु बहते जीवन का मिलन- सिन्धु काले उजले चित्रित घन में लुकता छिपता सा अमृत इन्दु मैं हाँ में हूँ न नहीं में हूँ मैं हाँ हूँ और नहीं भी हूँ दिक् काल न मुझको बाँध सके मैं बन्धन-मुक्त कहीं भी हूँ मैं गति हूँ चलता रहता हूँ मैं तप हूँ जलता रहता हूँ वन्दन- हित अपनी ओर सतत जीवन हूँ, ढलता रहता हूँ मैं आदि शब्द नभ प्यारा हूँ क्षिति-अनल अनिल जलधारा हूँ मैं अपना स्वयं सहारा हूँ केवल मैं हूँ केवल मैं हूँ शाश्वत - विधि-अभयकर हूँ मैं शिव शिव शिव शिव शंकर हूँ मैं हर-हर-हर प्रलयंकर हूँ मैं केवल मै हूँ केवल हूँ मैं

प्रथम सर्ग

मंगलमय अरुणाभ उषा ने तजकर अपनी सेज प्राची के आँगन से झाँका लिये गर्भ मे तेज चली मुनहली किरणे क्षिति पर देने यह सन्देश भारत का भगवान आ रहा महाराष्ट्र के देश जगे परिन्दे जय जय बोले जगे मधुप जल-जात चला मलय कलि-अधर चूमते मधुर हो गया प्रात चमक उठा कुछ दूर क्षितिज पर रवि का गोला लाल दमक उठा कंचन किरीट से सह्याचल का भाल तप्त रुपहली किरणों से अब वनस्पति फूल खिले मधुकरियों को नाच नचाती उड़ मरन्द की धूल भासमान की नव किरणो का बिछा अचल पर जाल शिवनेरी का अगम दुर्ग भी जाग उठा तत्काल भारत भाग्य विधाता जागा जागा हिन्दुस्तान गो-ब्राह्मण-कुल त्राता जागा जागा कुल- अभिमान जगा देवभाषा का गौरव जागा जन- बलिदान जगी आर्य संस्कृति भारत की महाराष्ट्र की आन परमधर्म का आश्रय जागा शिखा-सूत्र का प्राण मानवता का हृदय देवता जनता का कल्याण हुआ अचानक नील गगन पर अट्टहास का नाद जय जय गूँज उठा, विस्मय के साथ बढ़ा आह्लाद बिना मेघ के बिजली चमकी चकाचौध सब ओर पुलक उठा उज्ज्वल भविष्य पर महाराष्ट्र का भोर चीर गगन का वक्ष धरा पर चली ज्योति की धार दिव्य रश्मियों के प्रकाश से दीप्त सकल ससार दीप्त सकल ससार कि जिससे काँपा अत्याचार हिले पाप के सिहासन दु:शासन के अधिकार गोघाती की छाती धड़की गिरी कंस पर गाज गिरे ताज रावण के भू पर काँप उठे अधिराज उधर मनोहर शिवनेरी के कलित कक्ष मे प्रात जीजाबाई ने शिव-पूजन किया कंटकित गात आज कंटकित गात हृदय मे नवल-नवल उल्लास रोम रोम से फूट पड़ा सहसा अनिरुद्ध प्रकाश पर कोमल अंगों में पीड़ा विकृत बदन में आह बड़ी व्यथा से पूरी होती माँ बनने की चाह पाण्डुर काया भ लुण्ठित थी नव दुकल के साथ पीन उदर मे कठिन शूल था मधुर फूल के साथ तड़प रही थीं आकुल जैसे निकल रहे हों प्राण जननी को कितना दुख होता क्या जाने सन्तान जड़ चेतन की जीभ जीभ पर मौन चकित उच्चार फलता आशीर्वाद पुण्य का होता है अवतार दुर्ग निकट के गाँव गाँव में फैल गया यह हाल सूतिकार्य में कुशल नारियाँ पहुँच गयी तत्काल मधुर मधुर युवती कन्याएँ सुहागिनो के साथ पाँव महावर चित्रित जिनके रँगे हुए थे हाथ लाल हरे पीले वस्त्रों में सरल गाँव के रूप जगमग विखर गये आँगन में लक्ष्मी के अनुरूप आँखों में भारी उत्सुकता सबके सूखे प्राण मना रही थी खड़ी नारियाँ सौरी का कल्याण तब तक एक चमक सी चमकी रुकी प्रसव की पीर जननि - अंक में जगमग शिव का कोमल अगुरु शरीर मधुर मधुर फूलों की वर्षा पुलकित देव समाज पुलकित वातावरण किले का पुलकित धरती आज पुलकित मधु प्रभात की किरणे पुलकित धीर समीर पुलकित निर्झर जल की परियाँ पुलकित सकल शरीर बजे मन्दिरों के मंगलमय घन-घन घंटे आप हँसी विविध पूजित प्रतिमाएँ भगे त्रिविध सन्ताप पशुता दबी जगी मानवता दिशि दिशि उमड़ा हर्ष जनता के उज्ज्वल भविष्य पर विह्वल भारतवर्ष पूरी हुई लालसा माँ की देख लाल सा लाल पुत्र जन्म से ही होता है नारी-अंक निहाल किहाँ किहाँ का प्रथम मधुर स्वर सुनकर नारि - जमात गाने लगी मनोहर सोहर खिले वदन जल-जात नन्ही कन्याएँ जो आई माँ बहनों के साथ सोहर का अनुकरण कर रही थी रख माँ पर हाथ सौरी गृह में झाँक झाँक माँ से मुसुकाते बाल और थिरकते थे आँगन में महाराष्ट्र के लाल दुर्ग द्वार की सहनाई के स्वर में सोहर गीत लहर रहे थे गिरिनद वन में मृदुल मनोहर गीत डाल डाल पर पात पात पर कोयल के कल गान कली-कली पर फूल-फूल पर भौरों की मुसुकान निर्मल भू से निर्मल नभ तक निर्मल निर्मल गीत तैर रहे थे स्वच्छ पवन पर सोहर के संगीत युद्ध काल था, क्या था फिर भी किये गये बहु दान जीजाबाई ने तो अपने लुटा दिये सामान केवल तन पर वस्त्र और गोदी में हँसता लाल इसी वित्त पर नवल प्रसूता थी सम्पन्न निहाल श्वेत वस्त्र में शिशु ले स्नाता शोभित यों साह्लाद शोभित होती शरद पूर्णिमा ज्यों पावस के बाद शिव-पूजन फल गया, शिवा देवी का वर अभिराम इसीलिये माँ ने बालक का रखा शिवा जी नाम उबटन तेल लगा काजल का दिया भाल पर विन्दु माँ ने सुला दिया आँगन में लजा गया शरदिन्दु प्रात प्रस्फुटित फूलों जैसे सुघर सुघर रतनार लगे फेकने हाथ पाँव नन्हे नन्हे सुकुमार पवन प्रकम्पित किसलय डोलें या सरोज रसभूल या गुलाब की मधुर डाल पर हिले मनोहर फूल यह अदम्य उत्साह अभी से अभी रुको सुकुमार कर लेना अंकस्थ चाहते सारा नभ विस्तार अम्बर के तो जीव सुखी है मेरे राजकुमार होकर बड़ा तुम्हें करना है धरती का उद्धार अभी चाँद सा बढ़ो बराबर अभी हँसो वन-फूल लाल पलँग पर खेलो उलझो प्राणों के अनुकूल मेरी कठिन तपस्या के फल मेरे व्रत उपवास सूरज शशि की तरह जिओ मेरे उर के उल्लास बेटा मुझसे पहले रखना जन्म भूमि का ध्यान बेटा मुझसे पहले करना संस्कृति का सम्मान जिस दिन अपनी धरती होगी अपना व्योम वितान वीर शिवा की जय बोलेगा जिस दिन हिन्दुस्तान जिस दिन लेगी साँस मुक्ति की भारत की सन्तान लाल उसी दिन पूरे होंगे मेरे सब अरमान पुत्र मुझे भी पुत्रवती होने का होगा हर्ष माँ बेटे का यश गायेगा सारा भारतवर्ष मैं अपने विजयी बेटे को दूँगी आशीर्वाद युग युग तक दिन रात करेंगे सभी गर्व से याद यह कह ममतामयी नयी माँ झुकी पलँग की ओर लगी चूमने नन्हे शिशु को झुक झुक स्नेह विभोर यह सौभाग्य नहीं मिलता है सबको एक समान यह सौभाग्य उन्हें मिलता है जिनका पुण्य महान ग्राम्य युवति कन्याएँ आईं लेकर उबटन तेल मन्त्र विमुग्धा हुईं देखकर माँ बेटे का खेल हँसकर स्वागत किया सभी का गृहिणी ने तत्काल बोली अजी बड़ा चंचल है लो यह अपना लाल चलो न जाने क्या चंचल है नन्हा सा सुकुमार कहीं नजर न लगा देना तुम जले तुम्हारा प्यार माँ की नजर बहुत लगती है बच्चे पर नादान यह सब कहना था तो पहले क्यों न किया था ध्यान हँसी ग्राम्य कन्याएँ सुनकर दीठ सखी की वात पुलक उठा पावन प्रसाद से जननी का अहिबात हर्षित जननी हँसकर बोली देख शिवा की ओर तुम्हीं कराते हँसी जनमकर मेरे नन्द किशोर लगा शिवा को बारी बारी उबटन तेल फुलेल शिशु की अश्रुभरी आँखों में जल-काजल का मेल भूत प्रेत टोने के भय से लेकर शिव को गोद हाथ पाँव में काले धागे बाँधे गये समोद लोहे की ताबीज गले में नाहर के नख लाख लगी मंत्र से फूँक शिवा के कंचन तन पर राख कलित करधनी बँधी कमर में शिवा बने चितचोर दुलराने के लिये हुईं सब सखियाँ स्नेह विभोर कटि पर कभी कभी कन्धों पर खेले शिव के संग ऊपर कभी उछालें हँसकर कभी सटा लें अंग कभी हाथ पर ही हलरावे कभी माथ ले चूम कभी दुलारे प्यार करे तो कभी हाथ ले चूम कभी पालने पर बहलावे जब रोवे शिवराज लाल पलंग पर लेकर सोवे जब सोवें शिवराज कुछ दिन बाद अचानक झलके स्वच्छ दूध के दाँत देखो री सखि, दाँत शिवा के हर्षित सखी-जमात अरुण अधर पल्लव पर शोभित यों सित दशन नवीन लाल पद्म पर मोती के दो दाने ज्यों आसीन कुछ कुछ खुलने लगी शिवा की बोली अब अनमोल बरवस जनमन हर लेते थे शिव के तुतले बोल आँगन बीच वकैयाँ खीचे ललक ललक शिवराज लाल गेंद के पीछे धावे किलक किलक शिवराज कभी घड़े का जल ढुलकावें घर आँगन के बीच कभी धूल माटी में खेले कभी उछाले कीच कभी धूल धूसरित शिवा को लेकर अपनी गोद धूल पोछती माँ आँचल से शिव मुख चूम समोद तन पर झगा माथ पर कुलही भीगी मिसरी हाथ आँखों में काजल की रेखा लाल घुनघुना साथ नव घोड़े के लिये जननि का धरकर अचल छोर हठ करना रोना चिल्लाना और मचाना शोर लोट लोट आँगन भर कहना दे दो घोला आज उछपल चल्हकल में जीतूंगा पिथवीभल का लाज हाथ जोलता दे दो घोला जला मान लो बात छान मलाथों की लक्खूँगा दुछमन को कल मात घोले छे मै नही गिलूंगा दलती हो बेकाल मौछी छे मै छीख चुका हूँ घोले की छभ चाल औल पता जी को लाऊँगा गये तुमे जो भूल अब न उलाऊँगा ललकों के छाथ लाह की धूल ओ, यह लो शिवनेरी गढ़ पर नादान पिता ललकार उठा जीजाबाई को शाह साथ पकड़ो अहि सा फुफकार उठा चिपके माँ की छाती से शिव माँ चकित अचानक काँप गयी पर क्रूर पिता की अधम नीति वह महा सयानी भाँप गयी अविलम्व शिवा को छिपा स्वयं तन खड़ी हो गयी ले कटार कैसे कोई तन छू सकता गूँजा यह गर्जन बारबार धक धक जलते अंगार सदृश जननी की आँखे लाल-लाल प्रत्यक्ष सामने खड़ी हुई ज्यों महाक्रुद्ध काली कराल

द्वितीय सर्ग

पावन चौकी पर बाघम्बर बाघम्बर पर शंकर-समान बैठे दादा जी कोणदेव भारत की संस्कृति के निशान चन्दन - चर्चित उन्नत ललाट शिव शिव अंकित तन पर दुकूल रुद्राक्ष गले में विद्यमान सम्मुख प्रसाद के चार फूल स्थिति ज्ञान वृद्धता के प्रतीक शिर के रेशम से श्वेत केश मुख पर गुरुत्व की अमर ज्योति वाणी मे आकर्षण विशेष गुरुदेव शिवा के कोणदेव जितने सादे उतने उदार जमदग्नि वशिष्ठ परासर के रह गये शेष थे यादगार नीचे पवित्र दर्भासन पर गुरु के समीप अध्ययनशील फाल्गुन प्रभात के रविसमान बैठे उर्जस्वित शिव सुशील बोले गुरु शिव की ओर देख पढ़ने लिखने में ध्यान रखो हे महाराष्ट्र के शुभ भविष्य अपने कुल का अभिमान रखो शस्त्रास्त्र चलाना सीखो तुम गिरि वन पथ पथ पर घूमो भी लेकिन अक्षर मत भूलो तुम मन की मस्ती में झूमो भी तुम वर्ण वर्ण से प्रीति रखा अक्षर से मन को जोड़ो तुम अक्षर से नर होता महान इसलिये न अक्षर छोड़ो तुम अक्षर से ही कर्तव्य - ज्ञान अक्षर से पूजा-पाठ-ध्यान अक्षर से ही अब तक जीवित कलमा-कुरान पोथी-पुरान काले काले टेढे मेढे अक्षर विद्या के विविध रूप तुम नित उन पर चन्दन छिड़को पद वन्दन कर दो अगर धूप अक्षर जिस पर होते प्रसन्न भर देते उसमें नवल प्रान जिसके उर में बस जाते हैं करते उसको अमरत्व दान बोले शिव गुरुपद वन्दन कर गुरुदेव आपकी मधुर सीख किसको न करेगी आकर्षित पर मुझे एक पथ रहा दीख वह यह कि शस्त्र अक्षर से भी समधिक चमकीले होते हैं अक्षर पुस्तक में वन्द मन्द पर वे फुरतीले होते हैं कितना भी कलम करे किर-किर पर नही नोक वरछी सी है कुछ कुछ असि मात्रा सी लगती पर छुरी जहर की शीशी है इससे मुझको अक्षर से भी शस्त्रास्त्र बहुत ही हैं प्यारे दर्शन मे शीतल, संगर में धधकते प्रज्वलित अंगारे बैरी की बोली सुन ले तो भर भर भर आग बरसते हैं लेकिन जाने क्यो हँस हँस कर मुझ पर अनुराग बरसते हैं इसलिये पढ़ा जो, बहुत पढ़ा अब शास्त्र न दे दे शस्त्र ज्ञान भूखे को तो करता प्रसन्न दानी का केवल अन्न दान अब शस्त्र सीखने की मुझको है लगी भूख है लगी प्यास पुस्तक की कारा के बन्दी अक्षर मुझको लगते उदास जिससे स्वदेश का मंगल हो जिससे उद्धार धरा का हो अब वही चाहिये विद्या धन जिससे सत्कार जरा का हो जिससे रक्षित हों शिखा सूत्र जिससे स्वधर्म की जय जय हो गुरुदेव, चाहिये वही सीख जिससे जन जीवन निर्भय हो घर घर से मख के धूम उठें वे धूम गगन जो चूम उठें सब पितर देवता हों प्रसन्न धरती के सब जन झूम उठें बालक की अद्भुत मधुरबात थी भारत-भू पर अमृत धार थी महाराष्ट्र की आकाक्षा थी वर्तमान की दृढ़ पुकार गुरुदेव हँसे बोले मधु स्वर प्रभु, पूर्ण तुम्हारी चाह करे तुम जियो जियो सौ वर्ष जिओ प्रभु, सरल तुम्हारी राह करे मैं तुम्हें शस्त्र-विद्या दूँगा लेकिन अक्षर के साथ साथ तुम बढ़ो लक्ष्य की ओर वत्स लेकिन अन्त के साथ साथ बाहर भीतर से जो प्रसन्न बाहर भीतर से जो पवित्र पठनीय मनोहर वन्दनीय उसका ही है जीवन चरित्र वह अक्षर बिना न हो सकता तुम पंडित-अद्भुत वीर बनो आँधी में गिरि की तरह अड़ो सगर में वज्र-शरीर बनो तुम रघुकुल गौरव राम बनो खल रावण का संहार करो दुर्द्धर्ष अनार्यों से पीड़ित धरती धन का उद्धार करो लो वत्स तुम्हें में देता हूँ निज गुप्त प्रगट सब विद्याएँ इसलिये कि तुम अधिकारी हो पूरी कर दो जन-इच्छाएँ मुख पूर्व दिशा की ओर करो यह जल दक्षिण कर में ले लो सुर दुर्लभ मन्त्र सुनो फिर तुम जी चाहे जहाँ वहाँ खेलो क्षण भर तक दोनों हुए मौन रह रह कर बिजली सी चमकी विद्याएँ शिव में समा गयी शिव की कंचन काया दमकी पहले से अधिक शिवा का मुख हो गया दीप्त जाज्वल्यमान भर गया तेज से रोम रोम तप सिद्ध देवता के समान कुछ समय बाद कुल अशुमान प्रिय महाराष्ट्र के कीर्तिमान श्रीमान शाहजी के सुपुत्र कुल कला कुशल विद्या निधान नव रेशम पट से निहित वर्म संरक्षित मस्तक शिरस्त्राण रंगीन म्यान नव वय किशोर चरणों में लोहित पद- त्राण निर्भय आँखों में सहज तेज उद्दीप्त भाल पर स्वाभिमान सब अंग पुष्ट सुगठित शरीर जीजाबाई के यश महान श्रीमान शिवा जी श्रद्धा सी पावन माँ के कर पदस्पर्श बद्धांजलि झुककर खड़े हुए ज्यों कीर्ति निकट गम्भीर हर्ष गद्गद जननी बोली बेटा तुम जिओ बडे हो वीर बनो गो ब्राह्मण धरती के सहाय असहाय द्रौपदी चीर बनो बीजापुर के सुलतान अगर हैं दर्शन के हित समुत्कण्ठ तो तुम विचार क्या करते हो जाओ दर्शन दो ललित-कण्ठ समझो स्वराज्य का उषाकाल आज्ञा पालन का परमधर्म समुचित सम्मान बड़ों का है यह साधु-प्रशसित पुण्य कर्म तुम समझ रहे नृप है नृशंस अनुचित है बीजापुर जाना सव भुला दिये, योद्धा को क्या है उचित किसी से भय खाना पर नृप-कठोरता की न कभी चर्चा चलती सरदारों में वह बहुत चतुर है नीति-कुशल अपने निज के व्यवहारों में तुम बालक हो फिर भी मुझको विश्वास तुम्हारा बहुत बहुत जन-हित होगा, जन रक्षण में उल्लास तुम्हारा बहुत बहुत शिव मंगलमय हो पथ प्रशस्त पद चिह्न चिह्न पर फूल झरे यह यात्रा प्रथम सुकीर्ति बने जगदम्बा सब अनुकूल करे करवद्ध शिवाजी बोले माँ विश्वास तुम्हारा है शिर पर मैं हाथ न आ सकता हूँ माँ दुर्द्धर्ष वैरियों से घिरकर मैं उनकी नीति समझता हूँ परिचित हूँ उनके जालों से मेरा न बाल बाँका होगा बेचारे उन भूपालों से केवल मधुपों से डरता था जाने से होगी छुआछूत हे अम्ब नहीं तो बादशाह क्या है कोई यमराज दूत ? माँ स्पर्श दोष अहि दशन से भी अधिक भयंकर होता है दंशन से केवल एक मरण माँ, स्पर्श दोष कुल धोता है अस्पृश्य स्पर्श का कुप्रभाव जो विमल बुद्धि पर पड़ता है वह किससे छिपा हुआ है माँ वह शूल मर्म में गड़ता है विज्ञान - ज्ञान-दर्शी बुध-जन निन्दा नित करते आये हैं अस्पृश्य स्पर्श के वहुल दोष कानो में भरते आये हैं लेकिन किसको इतना अवसर जो वेद विहित प्रचार करे इससे ही तो इतना दुख है कितना कोई उपचार करे बीजापुर जाने से मुझको था इसीलिये इनकार जननि, अब तो बन गया पवित्र विमल आदेश गले का हार जननि, दो आशीर्वाद जननि मुझको कल साथ पिता के जाऊँगा निश्चित शाही दरबार -बीच कुल का सम्मान निभाऊँगा यह कह माता के चरण छुए फिर चले शाह जी के सपूत गति बाल सिंह की तरह अभय मुख पर अवर्ण्य तेज प्रभूत काली... आया... ओसों.......हुई भींगे .......हुआ .......... ......... .......... दौलत के लिये अनेक यत्न खेती-बारी वाणिज्य - कर्म सुत- मोह पिता से करवाता है वत्स, पिता का कठिन धर्म जो पिता नहीं कर पाता है जो काम अधूरा रह जाता बेटा, उसको पूरा करता जो पिता पुत्र से कह जाता जो प्राप्त किया मैंने वैभव वह तुमसे कहीं विनष्ट न हो हे तात, न मेरे रहने पर औरों से तुमको कष्ट न हो इसलिये चाहता हूँ तुम पर नित बादशाह का स्नेह रहे तुम बनो आर्यनायक इसमें मुझको न तनिक सन्देह रहे तुम कभी कभी हठ करते हो इससे मुझको दुख होता है 'गालव' समान हठ करने से सम्मान साधु भी खोता है यह कहकर चतुर शाह जी ने सुत को सहलाया प्यार किया दरवार-नियम भी बतलाये शिव ने सबको स्वीकार किया काली दुखकर रजनी बीती आया सुखकर सुन्दर प्रभात ओसों की नन्ही बूँदों से भीगे तरुतरु के डाल पात हो गयी निशा की शान्ति भंग बढ़ चला दिवस का कोलाहल सूरज चमका तो चमक उठा आदिल का आलीशान महल बीजापुर का फहरा निशान जब चला प्रात का मधुर वात बेगमें जगीं सुलतान जगा मद के खुमार से शिथिल-गात

तृतीय सर्ग

आई जब याद शिवा जी की आदिल की तन्द्रा हुई दूर हो गये नयन-पद-कर-चंचल हो गयी खुमारी चूर-चूर जल्दी जल्दी सब कृत्य किये जल्दी जल्दी पढ़ ली नमाज जल्दी दरबार पहुँचने को चल पड़ा सुसज्जित यवनराज झुक झुक सलाम कोर्निश लेते बैठा निर्मल सिंहासन पर दरबारी जन बैठे अपने पहले से निश्चित आसन पर तत्काल सामने मुसकाते आ गये शाहजी शिवा-साथ कोर्निश कर बैठे, पर शिव का मस्तक झुक सका न उठा हाथ ........... ..........

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