रुबाइयाँ ख़याल लद्दाखी हिंदी कविता
Rubaiyan Khayal Ladakhi

आज़ाद ग़म ए ज़ीस्त से आदम ना हुआ

आज़ाद ग़म ए ज़ीस्त से आदम ना हुआ
सीने का कोई दर्द कभी कम ना हुआ
किस बात पे नाज़ां हैं वह होने वाले
कुछ भी न हुआ आज जो पैहम ना हुआ

इक साथ कई पांव उखड़ जाएंगे

इक साथ कई पांव उखड़ जाएंगे
कहता न था हालात बिगड़ जाएंगे
तुम नाम ए ख़याल और लिया करते हो
इस नाम से चौडे भी सुकड़ जाएंगे

कटने दो कटे ज़ीस्त अगर दस्त ए अज़ाब

कटने दो कटे ज़ीस्त अगर दस्त ए अज़ाब
फ़ुरसत ही कहां हाए करे कोई सवाब
इस बात का फ़ित्ना है ज़माने में हनूज़
वाइज़ ने कहा कैसे ख़राबे को ख़राब

कान्धों पे मुसीबत की पिटारी ऐ दिल

कान्धों पे मुसीबत की पिटारी ऐ दिल
मुशकिल में गुज़रनी थी गुज़ारी ऐ दिल
मालूम न था है यही दुनिया का निज़ाम
आज़ार के बाज़ार में ज़ारी ऐ दिल

क्या क्या समझाए आदम को आदम

क्या क्या समझाए आदम को आदम
समझे तो मुश्किल ने समझे बरहम
इतना ही पायेगा कर कर कोशिश
रोने को मुद्दत मरने को यक दम

ख़ारों के तलबगार तेरे जैसे हों

ख़ारों के तलबगार तेरे जैसे हों
बाज़ार के बाज़ार तेरे जैसे हों
फिर मुझको सलीबों की ज़रूरत कैसी
दो चार अगर यार तेरे जैसे हों

जब दर्द ओ अलम कम हुए अक्सर को चला

जब दर्द ओ अलम कम हुए अक्सर को चला
इस ज़ीस्त से यूँ ऊभ गया घर को चला
भटका मैं बहुत देर तलक दर को तेरे
आख़िर को सही क़ब्र ए मुकरर को चला

ज़ुलमात में रोशन वो सितारा हैं आप

ज़ुलमात में रोशन वो सितारा हैं आप
अल्लाह की क़ुदरत का नज़ारा हैं आप
रग रग में मिरी आप का दम दौड़े है
गुज़री है मिरी ख़ूब गुज़ारा हैं आप

('Rubaayi dedicated to my Dad'-Khayal Ladakhi
(27 May 1936-10 Aug 2008) on Fathers Day

दोनों हैं अजब हाल में दोनों हैं कमाल

दोनों हैं अजब हाल में दोनों हैं कमाल
तेरा भी यही अहद है मेरा भी ख़याल
तू है कि तिरे नाम का फ़ित्ना है हनूज़
मैं हूं कि मिरी ज़ात पे उठते हैं सवाल

मुशकिल में हो दसतार मेरे सर का अगर

मुशकिल में हो दसतार मेरे सर का अगर
ख़न्जर हो मेरे सर पे सितमगर का अगर
हाँ मुझको तभी जंग में आता है मज़ा
दु:शमन हो मेरे क़द के बराबर का अगर

मौजों की रवानी से मिले हैं मुझको

मौजों की रवानी से मिले हैं मुझको
महफ़िल से निहानी से मिले हैं मुझको
जो छोड़ चले जाए हैं आसानी से
अकसर वह गिरानी से मिले हैं मुझको

वीरान को गुलज़ार बनाया जिस ने

वीरान को गुलज़ार बनाया जिस ने
हर बोझ ज़माने का उठाया जिस ने
क्या मौत ने बख़्शा है बताएं उस को
हर अहद में हर फ़र्ज़ निभाया जिस ने

हम रिन्द हैं रिन्दों को ये पाबन्दी क्या

हम रिन्द हैं रिन्दों को ये पाबन्दी क्या
आज़ाद परिन्दों को ये पाबन्दी क्या
हम ख़ुद ही ख़राबे को चले आते हैं
अल्लाह के बन्दों को ये पाबन्दी क्या

है निय्यत ए ख़ालिस को ख़ता नामुमकिन

है निय्यत ए ख़ालिस को ख़ता नामुमकिन
उस ज़ात से इनसां को बुरा नामुमकिन
कितना भी ज़माने में वह पा जाए अरूज
है कुफर् को तौहीन ए ख़ुदा नामुमकिन

होती है गुनाहों की तरफ़दारी हनूज़

होती है गुनाहों की तरफ़दारी हनूज़
कुछ देर में आएगी समझदारी हनूज़
आज़ाद है ग़फ़लत की क़लमकारी हनूज़
मुश्किल कि अदम होवे गुनहगारी हनूज़