गुजराती कविता हिन्दी में : उमाशंकर जोशी

Gujrati Poetry in Hindi : Umashankar Joshi


निशीथ

1 हे निशीथ, रुद्ररम्य नर्तक ! कंठ में शोभित स्वर्गंगा का हार बजता है कर में झंझा-डमरू घूमता हुआ धूमकेतु है तेरे शीश का पिच्छ-मुकुट तेजस्-मेघों के हैं तेरे दुकूल फहराते दूर, सृष्टिफलक पर, हे भव्य नटराज ! भूगोलार्ध पर दे रहा पाँव की थाप व्याप्त करता विश्वान्तर के गहरे गत्तों को प्रतिक्षण घूमती इस पृथ्वी की पीठ पर पाँव रखकर छटा से ले रहा ताली तू दूरवर्ती तारकों के साथ ! फैलाकर दोनों भूजाएँ ब्रह्माण्ड के गोलार्धों में हिल्लोल ले रहा घूमती धरा के संग घूमता ही रहता है चिरन्तन नर्तन में रहती है फिर भी पदगति लयोचित वसुन्धरा की मृदु रंगभूमि पर बजते हैं जहाँ मंद मृदंग सिन्धु के ! 2 पैरों से तेरे पृथ्वी दबती है मधुर स्पर्श से तेरे होता है तेज-रोमांच द्यौ को प्रीति-पिरोये दम्पती-ह्रदय में उठता है आवेग का बवंडर, तेरे स्निग्ध सहारे। 3 खेलता तू नीहारिका-नीर में लेता थाह अथाह खगोल की तू उतरता हमारे रंक-आँगन में। देखा तुझे स्वच्छन्द विहरते व्योम में उझकते झोंपड़ी में अगस्त्य की या खदेड़ते व्योमान्त तक अकेले उस मृग-लुब्ध श्वान को, या देखा खेलते ध्रुव के साथ जो सप्तर्षि को चढ़ाता है ऊँचा पतंग-सा, या लेकर पुनर्वसु की नाव रिझाते हुए उर को तनिक नौका-विहार से, या झूलते हुए देवयानी में जाकर, तुझे देख पाया हेमन्त में मघा का हँसिया लिये निरन्तर नभक्षेत्र के सुपक्व तारक-धानकणों को मेहनत से पाटते, और देखा वर्षा में लेटे अभ्र ओढ़कर। रूपों-रूपों में रमते, हे नव्य योगी ! 4 हे निशीथ, हे शान्तमना तपस्वी ! तजकर अविश्रान्त विराट ताण्डव बैठ जाता है तू कभी आसन लगा हिमाद्रि-सी दृढ़ पालती जमाकर। धू-धू जलती धूनी उत्क्रान्ति की दिगन्त में उड़ते उडु-स्फुलिंग वहाँ निगूढ़ अमा-तमान्तर में करता तू गहन सृष्टि-रहस्य-चिन्तन। और जैसे ही हम मानव, जलाकर मन्द दीप निकलते हैं निरखने तुझे देखकर जृं भाविकसित चंडमुख तेरा दृगों से घेर लेते हैं अपनी नन्हीं-सी गृहदीपिका को और करते हैं प्रयत्न भूल जाने का व्योम में खिला तेरा रुद्र रूप ! 5 हे सन्यासी, उर्ध्वमूर्धा अघोर ! अर्चित है अन्धकार तेरे कपोल-भाल पर अंगो पर लेपी है कौमुदी-श्वेत भस्म। लेकर कमंडलु बंकिम अष्टमी का या पूर्णिमा के छलकते चन्द्रमा का छिड़कता है रस चतुर्दिक् तू जो विचरता है स्वयं निस्पृह आत्मलीन, घूमघूम कर ठोकता है द्वार-द्वार पर भेखधारी। प्रसुप्त किसी प्रणयी युगल के उन्निद्र ह्रत्कमलों में मधुरतम महकाता है चेतना का पराग; कर के मत्त चंचल दूसरों के ह्रदय स्वयं रहकर निश्चंचल पाता है प्रमोद, हे शान्त ताण्डवों के खिलाड़ी ! 6 कैसी यह मेरे देश में शाश्वत शर्वरी ? निद्राच्छन्न जन-जन के लोचन मूर्च्छाग्रस्त भोलेभाले ह्रदय लोगों के जानेंगे न क्या ये सब तेरी नृत्यताल से ? द्यौनट, हे विराट् ! मेरे चित्त में घिरी मृत्युमय तमिस्त्रा रक्त-स्त्रोत में दास्यं-दुर्भेद्य तन्द्रा। चूर चूर होंगे न क्या ह्रदय के ये विषाद पाद-प्रघात से तेरे, हे महानट ! स्फुरित नहीं होंगे क्या धमनियों में नये संगीत, नृत्य की ताल पर? देता है चेतना श्रान्तों को तू प्रफुल्ल कर शोभित करता है प्रकृति-प्रिया को और मानवों की मनोमृत्तिका में बो रहा तू स्वप्नों के बीज अनूठे। तू है सृष्टि की नित-नवीन आशा ! इतना न होगा क्या तुझसे ? बोल, बोल, निशीथ ! वैतालिक हे उषा के ! (सितम्बर 1938)

अरमान

अगण्य क्षणों में से एकाध को पकड़ समय की अनंत कुहुकिकाएँ उनमें फूंक कर स्फुरित कर जग में, कहते हैं : 'हमारे ये अमर सुशोभित काव्य !' अरे, सचमुच यही क्या कवि-ज़िन्दगी ? जीवन के हैं अनेक क्षणपुंज, दिव्य निजानुभव के क्षण तो हैं कुछ इनेगिने ही, कर व्यक्त उन्हें शब्द के अपूर्ण अधूरे रूप में, जीवन की इति मान ली जाये क्या ? यही है चिरायु ? अथाह महाकाश में, अन्तहीन इस महाकाल में अणु-सी अल्प इस पृथ्वी के स्फुरित होते साँस चार उसमें नगण्य मनुष्य की की-न-की काव्यसृष्टि कहाँ ? कब तक वह, इस पृथ्वी की ही भस्म जहाँ समग्र इतिहास पर उड़कर चादर चढ़ा देगी ? फिर भी, हदय, गा ले रह न जायें कहीं मन में अरमान ! (नवम्बर 1933)

आत्मसंतोष

नहीं, नहीं, अब नहीं हैं रोनी हृदय की व्यथाएँ जो जगत् व्यथा देता है, उसी जगत् को अब रचकर गाथाएँ व्यथा की वापस नहीं देनी हैं। दुःख से जो हमें पीड़ित करता है बदले में उसे दुःखगीत देना क्यों? हृदय बेचारा हो गया है ऐसा आर्द्र सभी स्पर्शों से काँप उठता करके चीत्कार गीत में। गीतमय चीख़ सुनकर अधिक के लोभ से, उत्साह से स्पर्श कर जाते हैं सब कोई पुनः पुनः उसे। वर्तमान वज्र का मिज़राब लेकर डट गया है इस तंत्री में से सभी स्वर छेड़ने को; वह नहीं समझता ज़रा भी हृदय की पीड़ा। फिर भी मन मसोसकर ख़ूब गाना! गाना; भले ही कभी विषम हो उठे वर्तमान, किन्तु कोई क़सूर नहीं अनागत पीढ़ियों का। (26-8-1933)

छोटा मेरा खेत

छोटा मोरा खेत चौकोना कागज़ का एक पन्ना, कोई अंधड़ कहीं से आया क्षण का बीज बहाँ बोया गया । कल्पना के रसायनों को पी बीज गल गया नि:शेष; शब्द के अंकुर फूटे, पल्लव-पुष्पों से नमित हुआ विशेष। झूमने लगे फल, रस अलौकिक, अमृत धाराएँ फुटतीं रोपाई क्षण की, कटाई अनंतता की लुटते रहने से ज़रा भी नहीं कम होती। रस का अक्षय पात्र सदा का छोटा मेरा खेत चौकोना।

बगुलों के पंख

नभ में पांती बांधे बगुलों के पंख, चुराए लिए जातीं वे मेरी आंखें। कजरारे बादलों की छाई नभ छाया, तैरती सांझ की सतेज श्वेत काया। हौले - हौले जाती मुझे बांध निज माया से। उसे कोई तनिक रोक रक्खो। वह तो चुराए लिए जाती मेरी आंखें नभ में पांती - बंधी बगुलों की पांखें ।

पिता के फूल

जिसके कंधे पर चिंताओं का बोझ बनकर घूमते रहे हम सारे आयु-मार्ग में, जग के विविध गली-कूचे में; चढ़ाव-उतराव में भटकते रहे हम बनकर जिसके सर की परेशानियाँ; ले आए आज हम उस शरीर को उठाकर अपने कंधे पर, ले आए रे हम कंधे पर शरीर अपने जनक का। पूर्वजदत्त प्राणधारा पुरातन पली जिसकी अस्थियों में, विस्मय जगाती वह बही हममें, आए हम ऐसे जनक के अस्थिपुंज की भस्म से चुन लेने को अग्निशेष फूल। बुहारकर भरा गर्म राख को टोकरी में और जाकर, पास में बहते सोते के जल में रखा, डुबोया, शीतल किया, ज़रा हिलाया और दूध-से दीखते प्रवाह से चुने मानों तारक स्वर्गंगा के जल से! चुन लिए तारक, फूल; जग का जो कुछ सुंदर, चुन लिया; जो नहीं प्राप्य सरलता से, मिल गया आज वह सकल शिव; शमित हुए मृत्युशोक, निरख कर अमर फहराती पिता के फूलों में धवल कलगी विश्वक्रम की।

प्रणयी की रटन

रात दिन रट रहा हूँ! जानता नहीं नाम! स्वप्न में देता हूँ आश्लेष नहीं है पूरी पहचान! बहुत देर तक बातें करता रहूँ और फिर भी अभी तक पूरी तरह नहीं पहचानता तेरी आवाज़! तेरी मीठी साँसों की धड़कनों से जी रहा है यह हृदय, फिर भी नहीं स्पर्श कर पा रहा तेरी ऊष्मा! खींचा जाता हूँ तेरी नसों की नवरक्त ज्योति से; नहीं झाँका है अभी तक तेरी पलकों के पीछे! और, कहीं किसी दिन फिर मिलेंगे ही जब एकांत में डूबेंगे बातों के रस में जब हृदय हृदय पर ढलकर पूछेगा मूक : “है ख़्याल कैसी तू मुझे रही थी सता?” जानता हूँ मैं, तू हँसकर कहेगी— “सब कुछ जानती हूँ” किंतु आज यहाँ क्या हो रहा है वह तो मैं ही जानता हूँ।

मुख-चमक

हज़ारों चेहरों में मधुर तेरी मुख-चमक ढूँढ़ता रहा मैं— जब तक तू मुझे नहीं मिली थी; और आज जब, प्रिय, तू पास में यहाँ बैठी है, उन हज़ारों मुखों की चमक ढूँढ़ रहा हूँ!

दो पूर्णिमाएँ

पूर्णिमा लीन थी अगाध आत्म-सौंदर्य में, शरद का प्रसन्न नभ शुभ्र और निर्मल था। अरावली के सुभग शृंग निद्रा में निमग्न थे। कहीं निर्झर नर्तनों के कुहर घोष स्फुरित होते। वहाँ, अजीब लहर कोई अगम लोक की आ गई। खुला हृदय, आकर रोम-रोम में बसी कविता। झूम रही थी आत्मकुंज, रसोन्मत्त थी कोकिला; तपे दिन के बाद रात्रि थी रम्य वैशाख की। घन कौमुदी के रस से निर्मित महकता था मोगरा, नगर में तनिक शांत था, जटिल लोक कोलाहल। गोधूलि वेला की सुगौर करवल्ली को भुलाती हुई मुख-मयंक की प्रगट हुई पूर्णिमा। निरंतर स्मरण करता हूँ उभय पूर्णिमाओं को हे सखि, देखकर कविता तुझमें और तुझे कविता में।

शब्द

मौन, तेरी थाह लेने को शब्द बन कर लगाऊँ डुबकी कालजल में।

कुतूहल

यात्रा करते रेलगाड़ी से देखा किया है मैंने, कौतुक से शिशु की तरह, था मैं शिशु तब से, खुली खिड़की के आरपार। समीप के वृक्ष प्रतीप-वेग से खिसक जाते दृष्टि के सामने से किंतु उस क्षितिज के पास दीखती। वनराजि सरकती है साथ-साथ दो घड़ी। जीवन की अल्प यात्रा में निकट के जो स्वजन, क्या खिसकते रहेंगे वे सदा विरुद्ध दिशा में? और साथ रहेंगे घड़ी केवल दूर के लोकसमूह?

क्षमा-याचना

1 प्रिये, माफ़ करना यह कि कभी दुलार से नहीं पुकारा तुझे। बहुत व्यस्त मैं आज अपने दोनों के अनेक मिलनों की कथा लिखने में। 2 सब करना, सखि आज ज़रा; यदि कोई पत्र न भेज सकूँ मैं, सखि, हमारे प्रणय के गीत रचने में। 3 हूँ पूरा तल्लीन। सहना प्रिय, ज़िंदगी में नहीं पाया प्रणयामृत पूरा। कवि मैं, सुधा की प्याऊ पीछे छोड़ जाने के लिए जीवन में जूझता।

होटल में सुख का बिछौना

होटल में सुख का बिछौना स्वच्छ, सुंदर और प्रसन्न, कल था जैसा दूसरे होटल में वैसा यहाँ भी। सागर के झाग-सी धवल चादर— अरे, नहीं, मानव की कामना के रंग का इंद्रधनु देखूँ उघड़ा हुआ, और भीतर सिसकियों के दाग़।

मनुष्य-हृदय

मनुष्य के हृदय को तोड़ने में देर क्या? अधबोले बोल से थोड़े अनबोले से कोमल हृदय को पींजने में देर क्या? स्मित की बिजली ज़रा सी कौंध जाने पर उसके उसी हृदय को रंजने में देर क्या? ऐसे हृदय को तोड़ देने में देर क्या? मनुष्य के ह्रदय को रंजने में देर क्या? उसके उसी हृदय को तोड़ देने में देर क्या?

जठराग्नि

रचिए-रचिए अंबरचुंबी मंदिर, चुनिए ऊँचे महल, मीनारें! मढ़िए स्फटिक-से, टाँगिए बीच में झाड़-फानूस, जल के फव्वारे उड़ाइए रंगभरे। रचिए चंदनवाटिकाएँ, गोल गहरे खिंचाइए नवरंग गुम्बद और कितने ही क्रीड़ांगण, चंद्रशालाएँ रचिए अवश्य! हृदय को रुद्ध करती शिला को सहेगा कैसे भविष्य दीर्घकाल तक? कोटि-कोटि जिह्वाओं में फैलती भूखे जनों की जठराग्नि जगेगी दरिद्र की वह उपहास-लीला समेटने को; खंडहरों की भस्मकनी भी नहीं मिल पाएगी!

गीत अधूरा

हे प्रिय, मत छोड़ गीत अधूरा। हृदय तक जो आ पहुँचा उसे पीछे मत ठेल, हे प्रिय, होंठ तक जो आ पहुँचा उसे पीछे मत ठेल। मत खेल हे ढीठ हृदय के साथ, भोलों के साथ बुरा खेल मत, बुलाकर निकट मत धकेल दूर। मत धकेल छाती से दूर। हे प्रिय, छाती से दूर रख छोड़ मत, हृदय के साथ हे ढीठ मत खेल। हे प्रिय, मत छोड़ गीत अधूरा। होंठ तक जो आ पहुँचा उसे पीछे मत ठेल।

फिर भी पी ले, प्यारे!

कहते हैं : प्याला कटुतम रस से भरा है। जीवन-कटोरी को भी सदा के लिए ऐसा ही मानना। फिर भी, पी ले, प्यारे, तुरत गट-गट कर तल तक, न होगी इससे तेरे दुःख में ज़रा भी कमोबेश।

मौन

मेरे इस मौन-सरोवर में मत फेंकना कोई शब्द-कंकरी, लिपट जाएगा मेरा स्थिर प्राण-पुष्प तरंग की वर्तुल-शृंखला में।

देश-निर्वासित-सा

अचरज मुझे बड़ा कि ठगा जाकर यह हंस घट में झट कैसे आ बँधा। न मानो कि डरता हूँ ज़िंदगी से जिसकी नवाज़िश करते लोग देकर उसे 'कलह' नाम। भटकना हरएक मर्त्य को जन्म से मृत्यु तक। मैं खोजूँ मृत्यु से जन्म तक का नवपंथ। भटका किया हूँ, अभी भटकूँगा और पृथ्वी पर, जैसे देश-निर्वासित हुआ स्वयं।

रहनुमा बिना

घूमना था मुझे डूँगर-डूँगर बिना रहनुमा, जंगल का कुंज-कुंज देख लेना था, देखनी थीं खोहें और गुफा-घाटियाँ, रोते झरनों की आँखें पोंछनी थीं। सूने सरोवर के सुनहले किनारे, गिननी थीं मुझे हंसों की पंक्तियाँ; डाल पर झूलते किसी कोकिला के नीड़ में बुननी थी अंतर की वेदना। अकेले आकाश के तले खड़ा अकेला मैं पकड़ने गया उरबोल की प्रतिध्वनियाँ; बिखर गए बोल मेरे, फैल गए नभ में, एकाकी निस्तेज मैं रह गया। सारा जीवन मुझे घूमना पहाड़ियों में देखने हैं बार-बार जंगल के कुंज, घूमना है ऐसी घाटियों में जहाँ रहनुमा भी भटक जाए, पोंछना है अंतर की आँखों को ज़रा।

कल्पना की थी मैंने सखी की

कल्पना की थी मैंने सखी की— कि होगी वह प्रथम कविता के उदय-सी। अनजान कहीं से आकर यकायक हृदय में ऊर्मिमाला, मधुर लय और मंजुल रव की रचना कर जाती, और जाने पर भी हृदय में चिर आनंद की मदिरा छोड़ जाती। कामना की थी मैंने सखी की इन्द्रधनु से झुलती हुई अनदेखी-सी मीठी अद्भुत रंगों की लट-सी प्रतिबिंबित जो हृदय में, अंकित होती थी अणु-अणु में, दिन भर आत्मा में स्फुरित होती मानों स्वप्न की सौरभ। वांछा की थी मैंने सखी की— स्वयंभू भावों के निलय के समान कोमलतम, रसलीला की विरल प्रतिमा के रूप में। न सँजोए सपनों के पुष्पदलों से रचित सम्पुट जैसी, चित्त में तडित् बनकर विश्व में मर्दानगी में करती प्रेरित। जब मिली तब जाना : मुझ-सी ही हो मानवी, नहीं पूर्ण भी। किंतु कल्पना से भी मधुरतर है हृदय की रचना।

नखी सरोवर पर शरत्-पूर्णिमा

झीने-झीने धूमिल में दीख रही है वह शृंगमाला, चूम रहे हैं नीचे, मंद वारितरंगों को नामी तटतरु, ग्रहण कर रहा है जल का हृदय नभ में खिले अभ्र के शुभ्र रंग, सो रहा है सर-उर फिर भी बुने जा रहे उसमें कई चित्र। सुभग हँस रही वीचिमाला देखकर पूर्ण चंद्र को, वृक्ष की वल्लरी में सो रही थी जो ठंडी-मीठी अनिल-लहरी अब नीर की मृदु सेज पर ढल पड़ती है, देकर नवजागृति परिमल-मृदु पल्लवप्रांत को। ज्यों ही होता सलिल-शशि का चारू संयोग, कोई कुसुम-कोमल अंगुलि देती हृ-तंत्री को स्पर्श। झुक जाते अर्धमीलित नयन, कहाँ से आ-पहुँचा यह गान? कह रही प्रकृति एकांतों में कोई मंजुल शब्द। ऐसे में अंतःश्रुतिपटल में जग उठता धन्य मंत्र : ‘सौंदर्यों को पी, उर-निर्झर फिर स्वतः गायेगा ही।'

जब नहीं मिली थी

जब नहीं मिली थी, तब मैंने तेरी कितनी खोज की थी? भटकता कान्तारों में कलकल करते झरनों के तट पर घूमा, रौंदे गिरिवर के स्कंधपट और द्रुमों की डाली-डाली पर विहगों के नीड़ों में झाँका। जब नहीं मिली थी दिन भर की जागृति में, मिली थी स्वप्नों में मदिर मिलनों की सुरभि से युक्त। सुगंध से प्रेरित दिनभर खोज में रहा, दिवास्वप्न में यदाकदा तेरी झाँकी होने से थकान होने पर भी, मालूम न हुई। मिली आख़िर, सकल स्वप्नों से भी जो स्वप्नमय। मिली आशाओं के क्षितिज के भी जो पार, वह सुधा। सूनी आयु-नौका मेरी डोलती थी अस्थिर जल में, जगत-झंझानिल में पतवार को सँभालने वाली तू मिली। जब नहीं मिली थी, प्रिये, जलथल में तुझे खोजा था। आज मैं खोज रहा हूँ तुझमें वे सभी पदार्थ।