तनेंद्र सिंह राठौड़ की कविताएँ
Hindi Poetry : Tanendra Singh Rathore



निज हित के प्रयास भुलाकर

रावतरस (श्रद्धा सुमन) 🌺🌺🌺🌺 निज हित के प्रयास भुलाकर निज प्राणों से ऊपर उठकर जो देश के हित सब करते हैं वो वीर भला कब मरते हैं! तीक्ष्ण धूप में, शीत- धार में घोर बसंत में, सूखे पतझड़ कदम बड़े जो धरते हैं वो वीर भला कब मरते हैं! काल के बादल छा जाने से ग़म का तम सब छाया है ये मत सोचो क्या- क्या खोया ये सोचो क्या पाया है अभिनव भारतवंश के बेटे सूर कभी नहीं डरते हैं वीर भला कब मरते हैं! भारत मां के कण- कण मिलकर सृष्टि खुद कर जोड़- जोड़कर मुख से मधुर सा गान करेगी रावत पुष्प के नाम करेगी देश के खातिर सबकुछ तज दो दिल- मस्तक में ये समर रहे बिपिन सिंह रावत अमर रहे बिपिन सिंह रावत अमर रहे

पथिक पथ प्रेरणा (काव्य)

आशा के कुछ क्षणभर लेकर, साहस भरे कदमों से चलकर आँधी और तूफ़ानों से लड़ना शत्रु से शत्रु बन भिड़ना प्रखरता के चरम क्षणों में पत्थर बनकर न बिखरूँगा निज कर्मों से निखरूँगा यश-अपयश और क्षमा-याचना, सुख- दुःख में कर पाप-प्रार्थना ध्येय के पथ से न बिसरूँगा निज कर्मों से निखरूँगा कुंठा, व्यथा, चित कामना धूमिल भाव की द्वेग भावना परपीड़क आनंदित होकर कर्मसाधना को मंदित कर कर, ऐसा सार ना रचूँगा निज कर्मों से निखरूँगा निज कर्मों से निखरूँगा।।

कोरोना काल (मंज़र के दिन)

जरूर इतने दिन मजबूर था मैं अपने धंधे से दूर था मैं मगर अब फिर काम पर जाना है फिर अपनों को गले लगाना है अब वह तमाम जतन करने हैं जीने के नए प्रयत्न करने हैं सहज ही रखने हैं हर कदम सांसो की तारतम्यता के उधम कुछ महीने सब को क्षीण कर गए जिंदगी को दो पल कठिन कर गए फिर एक नए सवेरे से निकलना है फिर अपने उसी बसेरे से निकलना है पग-पग पर आशाओं को लिए हुए चलना अनंत है बिना रुकावट अब चलने में और मुश्किल होगी सांसे अब और बुद्जिल होगी कठिनाई का दौर चला है कदम कदम बढ़ाना होगा फिर काम पर जाना होगा | फिर काम पर जाना होगा ||

मेरा जीवन विशेष था

मजबूरियां भी कम न थी, ख़ामोश था सफर मेरा। अभी उभरना शेष था मेरा जीवन विशेष था।। अपनों ने लूटा, तो गैरों ने मारा हर भट्टी पर तपा दिया मैंने जीवन सारा कड़वा सत्य बोलकर मेरा भाव निःशेष था मेरा जीवन विशेष था।। मैं टूटा बिखरा कई दफा सब हथौड़े भी अपने थे, मैं ख़ामोश हर चोट पर था अभी शेष मेरे सपने थे मैं देख रहा निर्निमेष था मेरा जीवन विशेष था। मैं जब जब भी रोशन हुआ, ग्रहण वाले भी कम न थे। अंधेरों से डरकर भागें ऐसे भी चांद हम न थे।। साजिशों का दौर खेला दांव पेंच था मेरा जीवन विशेष था मेरा जीवन विशेष था

कल कभी नहीं आता है

ये सोचा कि कल कर दूंगा सारी समस्या हल कर दूंगा ला दूंगा नभ को पांव किनारे तज दूंगा सहारे न्यारे न्यारे और करूंगा भ्रम समर्पण स्वयं को लौ में करके अर्पण मैं आकाश भर के सारे तारे ला दूंगा स्वयं भुजबंध किनारे बहेगी संघर्ष रुप बन धारा वर्चस्व रहेगा सिर्फ हमारा कल तो मैं ये सब कर दूंगा स्वयं में अर्जुन को भर दूंगा दिनभर कल की बातें करते कल सुबह फिर वही दोहराते ये आलम कुछ कहता हरपल सीख यही सिखलाता है सुनो ए सुषुप्त धारे वीरों कल कभी नहीं आता है|